बुधवार, 27 सितंबर 2023

 अधूरे तथ्यों के साथ राजद के मनोज कुमार झा ने 

हाल में राज्य सभा में भगवती देवी को याद किया 

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सुरेंद्र किशोर

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 राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द सन 2018 में ग्वालियर के आई.टी.एम.विश्व विद्यालय में भाषण कर रहे थे।

डा.राम मनोहर लोहिया की स्मृति में भाषण का आयोजन किया गया था।

(विश्वविद्यालय के संस्थापक चांसलर रमा शंकर सिंह इन दिनों भी पुराने समाजवादी नेताओं की स्मृति को जिंदा रखे हुए हैं।इन दिनों वे कर्पूरी ठाकुर पर काम कर रहे हैं।)

 अपने भाषण में राष्ट्रपति कोविन्द ने सफाईकर्मी सुखो रानी बनाम ग्वालियर की महारानी की चर्चा की।

  राष्ट्रपति ने कहा कि समाज सुधारक डा.राम मनोहर लोहिया ने सन 1962 में ग्वालियर की महारानी के खिलाफ सुखो रानी को अपनी पार्टी की ओर से लोक सभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया था।

राष्ट्रपति ने डा.लोहिया को सच्चा समाज सुधारक करार दिया था।

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डा.लोहिया ने यह काम बिहार में भी किया था --सन 1967 में।

उन्होंने पत्थर तोड़ने वाली भगवतिया देवी उर्फ भगवती देवी को उस साल गया जिले के इमाम गंज विधान सभा क्षेत्र में अपनी पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का उम्मीदवार बनाया।

1967 में कांग्रेस के देवधारी राम से वह सिर्फ तीन हजार मतों से हार गयीं।

पर,भगवती देवी को संसोपा ने सन 1969 में भी बाराचट्टी विधान सभा क्षेत्र से  अपना उम्मीदवार बनाया।

भगवती देवी कांग्रेस उम्मीदवार को करीब साढ़े पांच हजार मतों से हरा कर विजयी र्हुइं।

डा.लोहिया का सन 1967 के अक्तूबर में निधन हो गया।पर,उन्हीं की लाइन पर बिहार के समाजवादी कुछ साल तक चलते रहे।

1967 में चुनाव हारने के बाद ‘‘भगवतिया देवी’’ दुबारा पत्थर तोड़ने लगी थीं।

सन 1969 में बिहार संसोपा के शीर्ष नेता थे--कर्पूरी ठाकुर और रामानन्द तिवारी।

लालू प्रसाद सन 1969 में बिहार राज्य युवजन सभा के संयुक्त सचिव थे।(तब एक संयुक्त सचिव मैं भी था।)

भगवती देवी सन 1972 में विधान सभा का चुनाव हार गयीं।हार के बाद फिर पत्थर तोड़ने लगी थीं या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम।

पर 1977 में विधान सभा का चुनाव वह जीत गयीं।

उन्हीं दिनों सांसदों और विधायकों के लिए पेंशन का प्रावधान हुआ।

लालू प्रसाद ने सन 1996 में पूर्व विधायक भगवती देवी को गया से टिकट देकर लोक सभा पहुंचा दिया।सन 1980 से 1996 तक उन्हें पेशन मिल रही थी।इसलिए तब उन्हें पत्थर नहीं तोड़ना पड़ता था। 

संसद तक पहुंचाने का श्रेय तो लालू प्रसाद को मिलना ही चाहिए।

किंतु एक पत्थर तोड़ने वाली को राजनीति की मुख्य धारा में लाने का श्रेय  लोहिया और कर्पूरी ठाकुर आदि को जाता है।

इसलिए मनोज जी,

समाजवादी आंदोलन का पूरा इतिहास पढ़िए।

लालू प्रसाद ने नब्बे के दशक में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में युगांतरकारी काम किया है।उनको श्रेय देने के लिए अन्य मुद्दे भी हो ही सकते हैं।

  पर,सारा श्रेय लालू प्रसाद को ही दीजिएगा तो आप समाजवादी इतिहास के साथ अन्याय कीजिएगा।

(यह काम श्रीमान मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे कांग्रेसियों को करने दीजिए जो कहते हैं कि आजादी के समय भारत में तो सूई भी नहीं बनती थी।सारा काम आजादी के बाद में जवाहरलाल नेहरू ने किया।)

चूंकि आप दिल्ली विश्व विद्यालय में पढ़ाते हैं,इसलिए अनेक लोग आपको  अध्ययनशील मानकर आपकी बातों पर विश्वास करेंगे।

  यदि किसी ने सिर्फ राज्य सभा की कार्यवाही को ही आधार मान कर भगवती देवी का इतिहास लिखा तो वह गलत साबित होगा। 

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याद रहे कि जिन्हें आपने भगवतिया देवी कहा है ,उनका सही नाम भगवती देवी है।

चुनाव आयोग के रिकाॅर्ड में यही नाम है।हां,यह बात सच है कि पहले लोगबाग उन्हें भगवतिया देवी कहते थे जब वह पत्थर तोड़ती थीं।

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27 सितंबर 23


मंगलवार, 26 सितंबर 2023

  ‘प्राथमिकी’ के लिए पुलिस राज्य मुख्यालय 

  पटना में केंद्रीयकृत व्यवस्था हो

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सुरेंद्र किशोर

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गाजियाबाद के जागरूक व्यक्ति रवि नारायण ने मेरे फेसबुक वाॅल पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात लिखी है।

उनके अनुसार,

‘‘उत्तर प्रदेश में पुलिस कंट्रोल रूम सेंट्रलाइज्ड है।

112 नंबर पर फोन लगाइए।

फोन लखनऊ लगता है।

लोकल पुलिस को वहीं से आदेश जाता है।

आदेश पर कार्रवाई होने की पुष्टि जब तक आप नहीं करेंगे,

तब तक लोकल पुलिस केस बंद नहीं कर सकती है।’’

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 क्या ऐसी व्यवस्था बिहार में है ?

मुझे नहीं मालूम।

यदि नहीं है तो वैसी व्यवस्था बनानी चाहिए।

यदि वैसा हो गया तो हर साल सैकड़ों जानें बच जाएंगी।

अपराध भी कम होगा।पुलिस का दबदबा बढ़ेगा।

बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति सन 2005-2013 जैसी बेहतर बन जाएगी।

इससे सत्ताधारी दलों को चुनाव में भी लाभ मिलेगा जिस तरह का लाभ यू.पी.में भाजपा को मिल रहा है।

बिहार के सत्ताधारी दल यह समझ लें कि चुनाव में अब सिर्फ सामाजिक समीकरण का गणित शास्त्र ही नहीं चलता है बल्कि सुशासन का रसायन शास्त्र भी चल रहा है।

बिहार विधान सभा के पिछले उप चुनावों में महा गठबंधन के उम्मीदवार गोपालगंज और कुढ़हनी में हार गये।

उधर यू.पी.में गत साल हुए लोस के उप चुनाव में आजम गढ़ और राम पुर सीटें सपा हार गयीं।

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----सुरेंद्र किशोर

26 सितंबर 23  


 सत्ता और पुरस्कार से दूर रहने वाली 

मशहूर लेखिका गीता मेहता का निधन

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सुरेंद्र किशोर

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पद और पुरस्कार के सम्मोहन से दूर 80 वर्षीया लेखिका सह पत्रकार गीता मेहता का हाल में नई दिल्ली में निधन हो गया।

 मशहूर लेखिका गीता मेहता ओडिशा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक की बड़ी बहन थीं।

 कुछ साल पहले नवीन पटनायक ने उनसे आग्रह किया था कि आप राजकाज में हमारा सहयोग कीजिए।

पर,गीता मेहता ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया था।

स्वतंत्रता सेनानी, पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व मुख्य मंत्री दिवंगत बीजू पटनायक की पुत्री गीता को भारत सरकार ने सन 2019 में पद्म सम्मान से सम्मानित करने का आॅफर किया था।

उन्होंने उसे भी स्वीकार नहीं किया।

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22 सितंबर 23 


 आजादी की लड़ाई में उत्तर प्रदेश में सबसे 

अधिक संख्या में ब्राह्मण सक्रिय थे

---पूर्व प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह

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पूर्व प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पत्रकार राम बहादुर राय को बताया था कि आजादी की लड़ाई में उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक संख्या में ब्राह्मण सक्रिय थे।

  यह बात उस पुस्तक में दर्ज है जिसका नाम है-‘मंजिल से ज्यादा सफर।’

यह पुस्तक राम बहादुर राय की वी.पी.सिंह से लंबी बातचीत पर आधारित है।

यह दिवंगत सिंह के जीवन का सफरनामा है।

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--सुरेंद्र किशोर


 या तो अगले चैराहे पर योगी राज की तरह यमराज बैठाओ या गवाहों की कड़ी सुरक्षा का ठोस प्रबंध करो।अन्यथा पलायन जारी रहेगा।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’ 

दृश्य-एक 

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पटना जिले के खुसरूपुर में हाल में दलित महिला को निर्वस्त्र करके पीटा गया था।

उस संबंध में आज के दैनिक भास्कर ने जो खबर दी है,उसका शीर्षक है--महिला को निर्वस्त्र कर पिटाई करने वाला अब दे रहा सुलह की धमकी,

आरोपी का डर ऐसा कि पीड़िता ने बेटा-बेटी और पत्नी को रिश्तेदार के यहां भेजा

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दृश्य-2

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हाल में एक ऐसे परिवार से संपर्क हुआ जो पटना से जाकर भोपाल में बस गया है।

पूछा गया कि वहां क्यों बसे ?

उसने बताया कि हम लोग कमजोर वर्ग(बढ़ई)के हैं।

पटना में दबंग परेशान करते थे।

पुलिस भी हमारी मदद नहीं करती थी।

पुलिस कहती थी कि पेट्रोलिंग और इमरजेंसी ड्यूटी के लिए हमारी गाड़ी के लिए सरकार पर्याप्त पेट्रोल नहीं देती।

इसलिए जब आप बुला दीजिएगा, तभी हम नहीं आ सकते।

भोपाल में ऐसा कोई भय नहीं रहता है।

लगता है कि पुलिस तत्काल रिस्पोंस करेगी।

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दृश्य-3

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करीब चार साल पहले उत्तर प्रदेश के हाथरस में वहां के नौजरपुर गांव में लड़की के साथ छेड़छाड़ की घटना हुई।

केस वापस लेने के लिए अपराधियों ने लड़की के पिता पर दबाव बनाया।

पिता जब नहीं माने तो उनकी हत्या कर दी गयी।

पिता की लाश के पास बैठी बेटी बोली कि हत्यारों का एनकाउंटर हो।

तभी मिलेगी शांति।

मुख्य मंत्री योगी बोले उन अपराधियों के खिलाफ रासुका लगेगा।

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उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि जो लड़कियों को छेड़ेगा, अगले चैराहे पर यमराज उसका इंतजार करेगा।

वहां यमराज से उनकी मुलाकात भी हो रही है।

पैर में गोली मारी जा रही है ताकि वह फिर कोई क्राइम करके भागने की स्थिति में ही न रहे।

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दृश्य-4

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सन 2021 की बात है।

महाराष्ट्र के जलगांव के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने (बलात्कार के )आरोपित युवक से पूछा कि क्या वह पीड़िता से शादी करेगा ?

ऐसा नहीं करने पर आरोपी को सरकारी नौकरीे गंवाने के साथ जेल जाना पड़ेगा।

याद रहे कि आरोपी पहले से शादीशुदा था।

यह उपाय सही है या गलत,इस पर जनता खास कर पीड़िता को सोचना है।

अधिक लोग तो,यहां तक कि यू.पी.के शांतिप्रिय मुस्लिम भी, योगी राज के उपाय को ही पसंद कर रहे हैं,भले वह कानून की किताब के अनुकूल न हो।

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दृश्य-5

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सुप्रीम कोर्ट कई बार इस देश की सरकारों से यह कह चुका है कि वह गवाहों की सुरक्षा का पक्का उपाय करे।

पर बहाना है कि सरकारों के पास अमेरिका जितना साधन नहीं है।

हां,हमारे देश के अधिकतर नेता अब चार्टर्ड प्लेन से जरूर दौरा करते हैं।वह साधन कहां से आता है ?

याद रहे कि अमेरिकी सरकार गवाह सुरक्षा कार्यक्रम पर भारी खर्च करती है।

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दृश्य-6

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एक टी.वी.कार्यक्रम से

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कनाडा की सड़क के बगल में खड़े दो प्रवासी भारतीय आपस में बातचीत कर थे।

एक ने पूछा-तुम्हें कनाडा ने क्यों आकर्षित किया ?

अन्य बातों के अलावा उसने यह भी कहा कि यहां की सड़कों पर ट्राफिक नियमों का सख्ती से पालन होता है।भारत के तो लगभग हर नगर में ट्राफिक अराजकता है।

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दृश्य-7

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भारत क्या करे ?

1.-गवाह संरक्षण व्यवस्था पर जरूरत के अनुसार खर्च करे।

2.-पुलिस घटनास्थल पर त्वरित गति से पहुंच सके,इसके लिए उसे वाहन और पेट्रोल का पं्रबध हो।

3.-दूर-दराज के इलाकों से पुलिस थानों की दूरी कम हो।यानी थानों-चैकियों की संख्या बढ़ाई जाए।

4.-कोई डरा हुआ नागरिक अपनी जान पर खतरा महसूस करता है और थानेदार को फोन करता है तो उस फोन काॅल के रिकार्ड का पुलिस मुख्यालय मोनिटरिंग करे।

5.-जरूरतमंद लोगों को आग्नेयास्त्र के लाइसेंस देने में उदारता बरती जाए।

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26 सितंबर 23   


 


रविवार, 24 सितंबर 2023

 


भूली-बिसरी याद

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‘‘शुकराना के तहत आपके कहने

 पर किसी एक की हत्या कर दूंगा’’

---माफिया के शूटर ने मुझसे कहा था

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सुरेंद्र किशोर

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अस्सी के दशक में मैंने माफिया के एक शूटर का इंटरव्यू किया था।

वह सनसनीखेज इंटरव्यू ‘जनसत्ता’ में छपा।

उसमें अंडर वल्र्ड की सजीव व सनसनीखेज कहानियां थीं।

उसे पढ़कर इंडियन एक्सपे्रस प्रकाशन समूह के मालिक रामनाथ गोयनका ने जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी से कहा था कि तुम्हारा पटना वाला तो बड़ा खरा आदमी है !

यह बात खुद प्रभाष जी ने मुझे बाद में बताई थी।

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उससे पहले वह शूटर मेरे एक परिचित को लेकर मेरे घर आया था।

उसने मुझसे कहा था कि सारी हत्याएं मैं करता हूं।

पर, नाम एक माफिया का होता है।

मेरा नाम भी होना चाहिए।

मैंने कहा कि यदि आप सारी हत्याओं के विवरण मुझे बताएं और स्वीकारोक्ति बयान पर दस्तखत करके मुझे दे दें तो जरूर छपेगा।

उसने वैसा ही किया।

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छपने के बाद उसके इलाके में उसका बड़ा ‘‘नाम’’ हुआ।

खुश होकर मेरे पास आया।

मेरा पैर छूकर प्रणाम किया।

मुझसे कहा कि भइया . मैं आपको कुछ दे तो नहीं सकता।किंतु आपके कहने पर मैं किसी एक की हत्या जरूर कर सकता हूं।

उसका निशाना अचूक होता था।पुलिस भी बताती थी।

मैंने उससे कहा कि अब आप नामी-गिरामी  हो चुके हैं।

राजनीति में सक्रिय होइए।

हत्या वगैरह अब बंद कीजिए।उसने सहमति जताई।

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पर,कुछ ही महीनों के बाद मेरे पास आया। 

कहा कि फलां (माफिया)

कह रहा हैं कि फलां (एक बहुत बड़े नेता)की हत्या कर दो।

क्या यह काम करना सही होगा ?

मैं आपको गुरु मानता हूं।आप जो कहेंगे करूंगा।

मैंने कहा कि कत्तई हत्या मत कीजिए।

उसने कहा कि हां, भइया,मैं भी दुविधा में था।

क्योंकि एक नेता की हत्या फलां (माफिया)के कहने पर मैंने की थी।

उसने मुझे सिर्फ 250 रुपए दिए और कहा कि भाग जाओ।

मैं भाग गया।

फरारी में मुझे बड़ा कष्ट हुआ।

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24 सितंबर 23


 तीज के अवसर पर 

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जब मेरी पत्नी ने मेरे कहने पर प्रधानाध्यापक

 के पद का मोह त्याग दिया था

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सुरेंद्र किशोर

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तीज के पारण से पहले आज सुबह मेरी पत्नी ने मेरे पास आकर मेरे दोनों पैर छूकर मुझे प्रणाम किया।

कल्पना कीजिए,मुझे कैसा लगा होगा !

यही है सनातन ! ऐसा कहां है ?

दुनिया के किस हिस्से में ?

मुझे नहीं मालूम ।

इससे परिवारिक बंधन साल दर साल मजबूत होता जाता है।

वैसे भी उम्र बढ़ने के साथ दोनों को एक दूसरे की अधिक जरूरत रहती है।

एक अन्य व्यक्ति ने कहा कि मेरी पत्नी भी इस अवसर पर उपवास करती है।मुझे बहुत ‘‘मानती’’ है।

पर,मेरी बात ही नहीं मानती।

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मैंने कहा कि यह तो हर मामले में थोड़ा-बहुत होता है।

एक बार राज्य सभा के सभापति डा.राधाकृष्णन ने भी ऐसी ही बात कही थी।

वे सदन की बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे।

एक सदस्य ने कहा कि मेरी पत्नी मुझे मूर्ख समझती है।

टोकते हुए सभापति ने कहा कि ‘‘सेम हेयर’’।

यानी, मेरी पत्नी भी मुझे मूर्ख समझती है।

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मेरी पत्नी तो मुझे मूर्ख नहीं किंतु अव्यावहारिक जरूर समझती होगी,हालांकि कभी ऐसा उसने कहा नहीं।

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कई साल पहले की बात है।

मेरी पत्नी को वरीयता के आधार पर प्रधानाध्यापक (मिडल स्कूल)के पद पर ज्वाइन करने के लिए लेटर मिला।

मैंने कहा कि तुम ज्वाइन मत करो। 

क्योंकि वह पद संभालने के बाद मध्यान्ह भोजन योजना में घोटाला करना ही पड़ेगा।

ऐसा करने के लिए ऊपर से भी दबाव रहता है।

यदि नहीं करोगी तो ऊपर का अधिकारी तुम्हंे झूठे केस में इस तरह फंसा देगा कि मैं भी तुम्हें बचा नहीं पाऊंगा।

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स्वाभाविक ही था,उसने हिचकिचाहट दिखाई।

फिर कहा कि अब तो ज्वाइन करने का लेटर मिल गया है।ज्वाइन तो करना ही पड़ेगा।

मैंने कहा कि ठहरो, मैं बात करता हूं।

तब अंजनी बाबू मुख्य मंत्री के प्रधान सचिव थे।

मंैने उन्हें फोन किया।

आग्रह किया कि आप मेरी पत्नी को सहायक शिक्षिका ही रहने दीजिए।

उन्होंने यह काम कर दिया।

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पति के कहने पर हेड मास्टर कहलाने का लोभ त्याग देना,मामूली बात नहीं है।

पर,उससे हमारा यह संकल्प कायम रह गया कि वैसा पैसा मेरे घर में नहीं आना चाहिए जिसके लिए हमने मेहनत नहीं की।

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पुनश्चः 

हेड मास्टर भी क्या करे ?

मिड डे मील में गड़बड़ी सरकारी गोदाम से ही शुरू हो जाती है।

50 किलो के बोरे में 40 किलो अनाज आता है।

कभी -कभी तो सड़ा हुआ रहता है।

ऊपर से ‘मांग’ अलग !

इस योजना ने शिक्षकों की नैतिक धाक को बहुत ‘‘प्रभावित’’ किया है।

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19 सितंबर 23     


 नेहरू ने जो आखिरी पुस्तक पढ़ी थी,उसका नाम था-

हेनरी फोर्ड लिखित-माई लाइफ एण्ड वर्क।

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संजय गांधी ने नाना के सिरहाने से वह पुस्तक निकाल ली थी

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इस घटना का सन 1971 के मध्यावधि चुनाव से क्या संबंध था,यह जानने के लिए पढ़िए आज के दैनिक जागरण में छपा मेरा यह लेख

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स्वहित के आगे जनहित की चिंता करें दल

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सुरेंद्र किशोर

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वर्ष 1963 में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जो आखिरी पुस्तक पढ़ी,वह हेनरी फोर्ड की ‘माई लाइफ एण्ड वर्क’ थी।

14 अक्तूबर, 1963 को प्रधान मंत्री ने उस व्यक्ति को पत्र लिखकर इसके लिए धन्यवाद दिया, जिसने उन्हें यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी थी।

 पत्र देखकर मुझे नेहरू का वह सद्व्यवहार अच्छा लगा।

आज तो आप किसी बड़े नेता को कोई किताब देंगे , तो वह न तो धन्यवाद देगा और न ही उसे पढ़ेगा।

अपवादों की बात अलग है।

  बाद में संजय गांधी ने अपने नाना के सिरहाने से निकाल कर उस पुस्तक को चाव से पढ़ा।

इससे संभवतः उनमें  भारत का हेनरी फोर्ड बनने की इच्छा जगी।

संजय की कोई भी इच्छा बड़ी प्रबल हुआ करती थी।

हेनरी फोर्ड अमेरिका के बहुत बड़े कार निर्माता थे। 

लाल बहादुर शास्त्री सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने रोल्स रायस कारखाने में अप्रेंटिस के रूप में काम करने के लिए संजय गांधी को लंदन भेजा।

पूरा काम सीखने के बजाय संजय समय से पहले ही वापस आ गए।

इस बीच इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री बन गई,ं

पर कांग्रेस के पुराने नेताओं और इंदिरा के बीच तनाव उत्पन्न हो गया।

राजनीतिक उथल-पुथल के बीच वर्ष 1969 में इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई,क्योंकि कांग्रेस में विभाजन हो गया।

  23 सांसदों वाली सी.पी.आई.और इतने ही सांसदों वाली द्रमुक के  बाहरी समर्थन से इंदिरा गांधी की अल्पमत सरकार चलने लगी।

उन दिनों तक सोवियत संघ का अस्तित्व कायम था और उसी अनुपात में इस देश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की रौब -दाब भी ।

भाकपा के समर्थन से चल रही इंदिरा सरकार,सरकारी मदद से ऐसा कोई कारखाना नहीं लगवा सकती थी जिसके प्रबंध निदेशक संजय गांधी हों।

भाकपा की ओर से सरकार पर कुछ अन्य तरह के दबाव भी इंदिरा गांधी महसूस कर रही थीं।उससे वे चिंतित भी रहती थीं।

उधर कार कारखाने के काम को आगे बढ़ाने के लिए संजय गांधी का प्रधान मंत्री पर दबाव बढ़ता जा रहा था।

 ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के कारण इंदिरा गांधी की लोकप्रियता बढ़ गयी थी।

उन्होंने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर और पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स एवं विशेषाधिकार समाप्त कर अपनी लोकप्रियता को 

ठोस रूप दे दिया,लेकिन 

इस लोकप्रियता के स्थायित्व को लेकर वह निश्चिंत नहीं थीं।

उन्होंने सोचा कि जल्द ही इस लोकप्रियता को वोट में बदल लेना है क्योंकि पता नहीं कल क्या हो ?

संभवतः इसीलिए इंदिरा गांधी ने समय से 14 महीना पहले ही लोक सभा  चुनाव करवा दिए। 

     नतीजतन लोक सभा का चुनाव और विधान सभा चुनाव अलग -अलग होने की पृष्ठभूमि तैयार हो गई।

 1967 तक दोनों चुनाव साथ-साथ होते थे।

 1971 के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने लोक सभा की 352 सीटों पर विजय प्राप्त की।

इसके पहले  इंदिरा कांग्रेस के पास सिर्फ 228 सीटें थीं।

इस बड़ी जीत के बाद इंदिरा गांधी सरकार ने कौन सा पहला महत्वपूर्ण काम किया, खासकर समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करने के लिए ?

यह शायद ही किसी को याद हो।

इतना अवश्य है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जून, 1971 में मारुति मोटर्स लिमिटेड कारखाना स्थापित करने का निर्णय जरूर कर दिया।

इसके प्रबंध निदेशक संजय गांधी बनाए गए।

बाद में कारखाने को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार ने क्या -क्या किया,वह सब इतिहास में दर्ज है।

निर्धारित समय से पहले ही लोक सभा चुनाव कराने की घोषणा के साथ इंदिरा गांधी ने देश को बताया था कि हमारी अल्पमत सरकार समाजवादी विकास के कार्यक्रमों को लागू करने में कठिनाई महसूस कर रही है,इसलिए समय से पूर्व चुनाव जरूरी है।

उन दिनों सवाल उठे थे कि क्या अपने पुत्र के लिए कार कारखाना स्थापित करना समाजवादी विकास का कार्य था ?

आज की कांग्रेस को चाहिए कि वह एक साथ चुनाव कराने की मोदी सरकार की पहल का समर्थन करे।

उससे वह 1970 -71 की कांग्रेस की गलती का प्रायश्चित करेगी।

  यदि एक बार फिर लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होने लगें ,जैसा कि 1967 तक हुए,तो उससे न सिर्फ सरकार और दलों के हजारों करोड़ रुपए बचेंगे,बल्कि विकास के कार्यों में चुनाव आचार संहिता बाधा भी नहीं बनेगी। 

सवाल है कि आज के कितने दल व नेता व्यापक जनहित की बातें सोचते हैं ?

संविधान निर्माताओं ने जब यह प्रावधान किया कि लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो उनके दिल - दिमाग में देश का व्यापक हित ही था।

 1971 में उस क्रम के भंग हो जाने के बाद इस देश का बड़ा नुकसान हुआ है।

2014 के लोक सभा चुनाव में 30 हजार करोड़ रुपए तो 2019 के लोक सभा चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए।

इस बीच हुए विधान सभा चुनावों में कितने खर्च हुए होंगे, उसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

कई बार तो चुनावों के कारण बोर्ड की परीक्षाएं टालनी पड़ती हैं और  प्रतियोगिता परीक्षाएं भी रोकनी पड़ती हैं।

 अलग-अलग चुनावों के पक्षधर यह तर्क देते हैं कि मतदाताओं का मिजाज अलग होता है,इसलिए उन्हें 

 अलग से मतदान करने का अवसर मिलना चाहिए।

सन 1967 के चुनाव नतीजे इस तर्क की पुष्टि नहीं करते।

1967 में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए ।

उस चुनाव के नतीजे कैसे थे ?

तब केंद्र में तो कांग्रेस को बहुमत मिल गया,पर सात राज्यों में वह हार गई।

  एक ही राज्य के एक ही मतदाता ने लोक सभा के लिए कांग्रेस को मत दिया तो विधान सभा के लिए किसी अन्य दल को।

 आज का मतदाता तो 1967 की अपेक्षा और भी सजग हो गया है।

1967 तक विधायक गण क्षेत्र में भ्रमण कर अपने लिए तो वोट मांगते ही थे,अपने दल के लोक सभा उम्मीदवार के लिए भी प्रचार

करते थे।

1975 में इमरजेंसी लगाने के पीछे भी इंदिरा गांधी का स्वहित ही था।

लोक सभा की उनकी

सदस्यता की पुनर्वापसी तभी संभव थी जब इमरजेंसी लगाकर चुनाव कानून को बदल दिया जाए और उसे पिछली तारीख से लागू कर दिया जाए।

उन्हें आपातकाल की भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी,क्योंकि उन्होंने जनहित की अनदेखी की।

आज जो दल एक साथ चुनाव की पहल का विरोध कर रहे हैं,वे स्वहित के आगे जनहित को अनदेखा करने का ही काम कर रहे हैं।

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21 सितंबर 23


   जे डी एस-भाजपा मिलन का परिणाम ?

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   सुरेंद्र किशोर

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पूर्व प्रधान मंत्री एच.डी.देवगौडा के नेतृत्व वाला जनता दल -एस अब 

भाजपा नीत राजग का हिस्सा बन गया।

 कर्नाटका के विधान सभा चुनाव (2023)में मुसलमान मतदाताओं ने (एक देशव्यापी रणनीति के तहत) जब जेडी एस का साथ छोड़ दिया तो जेडी एस को भाजपा से गठबंधन करना ही था।

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याद रहे कि इस साल के विधान सभा चुनाव में जेडी एस का वोट पहले की अपेक्षा करीब 5 प्रतिशत घट गया।

दूसरी ओर, कांग्रेस का करीब उतना ही वोट बढ़ गया।

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अब सन 2024 के लोक सभा चुनाव में कर्नाटका में क्या रिजल्ट होगा, ,उसके बारे मंे कोई अनुमान लगाने से पहले पिछले चुनावी आंकड़े को देख लीजिए।

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कर्नाटका विधान सभा चुनाव -2023

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दल  ---प्राप्त मतों को प्रतिशत

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कांग्रेस---42.9 प्रतिशत

भाजपा-- 36 प्रतिशत 

जेडी  एस--13.3 प्रतिशत

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  इन दिनों इस देश के अधिकतर मुसलमान मतदातागण हर जगह सिर्फ उसी एक दल या गठबंधन को एकमुश्त वोट दे रहे हैं जो भाजपा के खिलाफ सर्वाधिक मजबूत है।

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हाल के विधान सभा चुनावों में पश्चिम बंगाल,केरल,(2021)उत्तर प्रदेश(2022) और कर्नाटका(2023) में यही हुआ।

संकेत हैं कि आगे भी यही होगा।

ध्यान रहे कि कर्नाटका में भाजपा का वोट सन 2018 की अपेक्षा नहीं घटा।

हां,कांग्रेस का वोट जरूर बढ़ गया।

इसीलिए कांग्रेस बड़े बहुमत से वह सत्ता में आ गयी।

यह सिर्फ मुस्लिम वोट की एकजुटता का कमाल है।

जेडी एस के भाजपा से जुड़ जाने पर आगे क्या होगा ?

अगले लोक सभा चुनाव में कर्नाटका में कैसा रिजल्ट होगा ?

खुद ही अनुमान लगा लीजिए।

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हां,देश में अगले किसी भी चुनाव में जहां भी मुस्लिम वोट निर्णायक है,वहां भाजपा की जीत की संभावना कम रहेगी।वैसे इसका काउंटर-रिएक्सन भी होना ही है।

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22 सितंबर 23 


शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल तो बनने लगा ,पर 

निर्माण की गुणवत्ता पर ध्यान रखना अधिक जरूरी

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘दिघवारा के माटी’’(बी.के.लवकेश)

के अनुसार शेरपुर और दिघवारा के बीच गंगा नदी पर बनने वाले छह लेन सड़क पुल का निर्माण कार्य आरम्भ हो चुका है। निर्माण सामग्री स्टाॅक करने के लिए गोदाम तथा कर्मचारियों के रहने के लिए काॅलोनी बनाई जा रही है।

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उसी इलाके के मूल निवासी होने के कारण मुझे ऐसी खबर की प्रतीक्षा थी।

‘‘दिघवारा की माटी’’ को इस सूचना के लिए धन्यवाद !

नजर बनाए रखिए।

क्योंकि इस पुल के बन जाने के बाद उस इलाके का भाग्य पलटने वाला

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 आखिर वह शुभ दिन आ ही गया जिसका मुझ सहित लाखों लोगों को इंतजार था।

बिहार के शेर पुर(पटना)-दिघवारा(सारण) छह लेन गंगा ब्रिज 

निर्माणाधीन पटना रिंग रोड का हिस्सा है।

इस पुल के लिए सारण के भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी भी सक्रिय व प्रयत्नशील रहे थे। 

कुछ महीना पहले स्थल निरीक्षण के बाद मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल के बन कर तैयार हो जाने के बाद दिघवारा से नया गांव तक का इलाका ‘न्यू पटना’ बन जाएगा।

पर,मेरा मानना है कि न्यू पटना के बदले वह स्लम बन जाएगा यदि निर्माण-विकास के समय राज्य सरकार की ‘‘के.के.पाठक मार्का’’ कड़ी निगरानी नहीं रहेगी।

पटना एम्स के पास के विकासशील मुहल्ले स्लम में बदलते जा रहे हैं।

अनेक डेवलपर्स पहले अपने नक्शे में तो सड़क,पार्क,स्कूल, अस्पताल के लिए जगह तो दिखा देते हैं।पर बाद में उसे भी बेच देते हैं।

   यह सच है कि इस पुल के बनकर तैयार हो जाने पर सारण जिले के एक बड़े इलाके का तेजी से विकास होगा।

विकास के कुछ सरकारी प्रयास होंगे किंतु अधिक तो निजी प्रयास ही होने हैं।

 कुछ साल पहले पटना के पास गंगा नदी पर जेपी सेतु के बनकर तैयार हो जाने के बाद से ही पटना के डेवलपर्स परमानंदपुर-नयागांव  और आसपास के इलाके में सक्रिय हो गए हैं।

हाल में पता चला कि शेरपुर-दिघवारा पुल की प्रत्याशा में दिघवारा-भेल्दी स्टेट हाईवे के किनारे डेरनी तक जमीन की खरीद-बिक्री शुरू हो गई है।

जमीन खरीदने के इच्छुक लोग बाहर से भी वहां जा रहे हैं। 

उद्योगपतियों, चिकित्सकों तथा शिक्षा क्षेत्र आदि में सक्रिय दूरदृष्टि वाले लोगों को भी दिघवारा-नयागांव  के आसपास अपने लिए संभावना का आकलन जल्द ही कर लेना चाहिए। 

उधर गुणवत्तापूर्ण शैक्षणिक संस्थाओं की अधिक मांग है।

यदि बिहार सरकार उन इलाकों में जरूरत के अनुसार पुलिस थानों व चैकियों की संख्या बढ़ा दे तो उद्योगपतियों में भरोसा जगेगा।(उनमें से कई लोगों से बातचीत के आधार पर ही मैं यह कह रहा हूं।)   

 एक कहावत है कि अमेरिका ने सड़क बनाई और सड़क ने अमेरिका को बना दिया।

  दिघवारा -भेल्दी स्टेट हाईवे स्थित खानपुर-भरहापुर बाजार ही मेरा पुश्तैनी गांव (भरहापुर) है।

 पटना से वहां जाना मेरे लिए भी बहुत आसान हो जाएगा,जब शेरपुर -दिघवारा पुल बन कर तैयार होगा।

बनकर तैयार होने का लक्ष्य तो फिलहाल तीन साल का है।पर,देखें,अंततः क्या होता है !

हां,केंद्र और राज्य सरकार तथा निर्माण एजेंसी से यह उम्मीद है कि वे यह सुनिश्चित करें कि निर्माण कार्य टिकाऊ हो। 

उम्मीद है कि खगड़िया पुल निर्माण में हुई भीषण लापरवाही से इस निर्माण एजेंसी को शिक्षा मिल चुकी होगी।

जिस एजेंसी को शेरपुर-दिघवारा का काम मिला है,वही खगड़िया वाला पुल बना रही थी।वहां काम इतना घटिया हो रहा था कि निर्माणाधीन पुल गत साल ध्वस्त हो गया।

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शेरपुर -दिघवारा पुल के बनकर तैयार हो जाने के बाद पटना पर से आबादी का बोझ थोड़ा घटेगा।

क्योंकि दिल्ली के यमुना पार की तर्ज पर ही यहां भी गंगा पार 

दिघवारा से नया गांव तक कालोनियां भी विकसित हो सकंेगी।

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23 सितंबर 23


 


गुरुवार, 21 सितंबर 2023

     एक गरीब उम्मीदवार ने गरीबों से वादा किया कि सत्ता में आने के बाद हम गरीबी हटा देंगे।

    पर,अगले चुनाव के समय जब गरीब ने (पांच साल मंे अमीर भए उस) विधायक से सवाल पूछा तो सत्ताधारी ने कहा कि ‘‘संयम रखिए,हम पता लगाएंगे कि गरीबी है कहां ?

मेरे आसपास तो कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है।’’

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--सुरेंद्र किशोर

    20 सितंबर 23

 

 


 मिलीजुली सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकती है और

पूर्ण बहुमत वाली एकदलीय सरकार भी बीच में गिर सकती है

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    सुरेंद्र किशोर

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केंद्र में सन 1967 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी।

पर,कांग्रेस में महा विभाजन के कारण सन 1969 में वह सरकार अल्पमत में आ गयी।

सन 1971 में लोक सभा का मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा।

सन 1977 में भी जनता पार्टी के मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली एक दलीय सरकार बनी थी।

पर,वह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी थी।

सन 1980 में लोक सभा का मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा।

पर,सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की मिलीजुली सरकार बनी।फिर भी उस सरकार ने अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया।

यानी, स्थायित्व के मामले में मिलीजुली सरकारों का अनुभव भी मिला-जुला रहा है।

  वैसे हर लोक सभा चुनाव से पहले यह आशंका जाहिर की जाती है कि यदि सरकार मिलीजुली बनेगी तो उसके स्थायित्व के बारे में कोई गारंटी नहीं।

याद रहे कि सन 2024 में लोक सभा का चुनाव होने वाला है।

  विभिन्न दलों के गंठजोड़ से बनी सरकारों ने  चार दफा अपना कार्यकाल पूरा किया ।

तो अन्य मामलों में इतने ही दफा समय से पहले सरकारें गिर गईं।

   एक बार फिर 2024 के चुनाव के बाद  मिली जुली सरकार बनने की जब संभावना जाहिर की जा रही है तो उसके स्थायित्व को लेकर भी अभी से ही सवाल उठने लगे हैं।

  ऐसे में पिछले रिकाॅर्ड को देख लेना दिलचस्प होगा।

अब तक इस देश में लोक सभा के 16 चुनाव हो चुके हैं।

यदि सभी सरकारों ने अपने कार्यकाल पूरे किए होते तो अब तक मात्र 15 चुनाव होने चाहिए थे।

  अधिकतर मतदाता यही चाहते हैं कि पूर्ण बहुमत की सरकार बने ताकि सरकार बीच में न गिरे और अनावश्यक चुनावों की नौबत न आए।

अब देखना है कि आगे क्या होता है !

कई बार तो बहुमत वाली सरकारों ने भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया।

सन 1967 और सन 1977 इसके उदाहरण हैं।

सन 1969 में कांग्रेस के महा विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गयी थी।

सी.पी.आई. और द्रमुक जैसे कुछ दलों ने सरकार को बाहर से समर्थन किया और सरकार चली।

पर  इंदिरा गांधी ने यह महसूस किया कि उन्हें दबाव में काम करना पड़ रहा है।

नतीजनत  उन्होंने समय से एक साल पहले ही लोक सभा का मध्यावधि  चुनाव सन 1971 में करवा दिया।

  सन 1977 की मोरारजी देसाई सरकार एक दल के बहुमत वाली सरकार थी।पर सत्ताधारी जनता पार्टी में विभाजन के कारण बीच में ही वह सरकार गिर गई।

  सन 1999 में गठित अटल बिहारी वाजपेयी की मिलीजुली सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। 

हां,उस सरकार ने अपनी मर्जी से कार्यकाल पूरा होने के कुछ महीने पहले ही 2004 में चुनाव करवा दिया।

सन 2004 और सन 2009 में गठित मिलीजुली मन मोहन सिंह सरकार ने अपने कार्यकाल पूरे किए।

1991 में पी.वी.नरसिंह राव  के नेतृत्व में गठित सरकार को भी लोक सभा में बहुमत नहीं था।

कांग्रेस को 1991 के लोक सभा चुनाव में सिर्फ 244 सीटें मिली  थीं।

पर, जोड़़तोड़ कर राव साहब ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया।

नब्बे के दशक में बारी -बारी से एच.डीे. देवगौड़ा और आई.के गुजराल के नेतृत्व में बनी सरकारें अपने कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं।

सन 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित मिली जुली सरकार भी नहीं चल सकी।

सन 1999 में चुनाव कराना पड़ा।

आजादी के बाद के प्रथम पांच चुनावों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला था। सरकारें चलती रहीं।

आपातकाल में सन 1976 में लोक सभा की आयु एक साल बढ़ा दी गयी थी।

सन 1989 से इस देश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर चला।

राज्यों में तो यह दौर सन 1967 के बाद से ही चल पड़ा था।

केद्र में सन 1984 के बाद पहली बार 2014 और 2019 में किसी दल को लोक सभा में पूर्ण बहुमत मिला।

 2014 की मोदी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया।

 सन 2019 में गठित मोदी सरकार भी अपना कार्यकाल पूरा करेगी,इसमें कम ही लोगों को शक है।

पर, 2024 के लोक सभा चुनाव के बाद लोक सभा में दलगत स्थिति क्या होगी, इसको लेकर अनुमान लगाए जा रहे हैं।  

दरअसल 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस की भारी हार के बाद कांग्रेस के लिए स्थिति अनिश्चित हो गयी है।

बीच के वर्षों में राजनीतिक अस्थिरता व अनिश्चतता का सबसे बड़ा कारण रहा है कांग्रेस का कमजोर होना।

एक समय ऐसा भी था जब कांग्रेस देश की राजनीति का पर्याय बन चुकी थी।

यह और बात है कि हर बार उसे 50 प्रतिशत से कम ही मत  मिले।

कांग्रेस को लोक सभा चुनाव मंे 6 बार 300 से अधिक सीटें आईं।

3 बार 2 सौ से अधिक सीटें मिलीं।

6 बार 100 से अधिक सीटें आईं।

दो बार तो 50 के आसपास सीटें ही मिल पाईं।

सन 2014 में सबसे कम 44 और सन 1984 में सबसे अधिक 404 सीटें। 

हाल में कांग्रेस की स्थिति में सुधार जरूर हुआ है।

पर, सुधार की रफ्तार इतनी तेज नहीं है कि इस बात का पक्का  अनुमान किया जा सके कि कांग्रेस को अगली बार काफी अच्छा करेगी।

हां,राजनीतिक हलकों में यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि मोदी सरकार ने इस बीच कुछ चैंकाने वाले फैसले किए तो उसे पिछले दो चुनावों से भी अधिक बहुमत मिल सकता है।

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 वेबसाइट मनी कंट्रोल हिन्दी पर 27 अगस्त 23 को प्रकाशित





 हिन्दी दिवस पर विशेष

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मेरी कविता खो गयी !

कोई उसे खोज देगा ?!

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सुरेंद्र किशोर

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मैंने जीवन में एक ही कविता लिखी।

उस पर मुझे प्रथम पुरस्कार मिल गया।

असावधानीवश मैंने उसकी काॅपी अपने पास नहीं रखी थी।

मेरे पास अब वह कविता नहीं है।

सन 1970 या 1971 में राजेंद्र काॅलेज पत्रिका ‘राका’ में वह छपी थी।

यदि डा.केदारनाथ लाभ के यहां आने-जाने वाले कोई 

व्यक्ति मेरा पोस्ट पढ़ते हों तो वे उसकी फोटो काॅपी मुझे भेज सकते हैं।

क्योंकि अधिक संभावना है कि लाभ जी के घर में राका की प्रतियां जरूर होंगी।

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अब मूल कहानी पर आता हूं। 

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बिना पूछे ,एक संस्मरण सुनाता हूं।

सन 1970 की बात है।

तब मैं छपरा के राजेंद्र काॅलेज में पढ़ता था।

मैं मूलतः साइंस का छात्र था।

1967 में बी.एससी.परीक्षा छोड़ देने के बाद मैंने वहीं हिस्ट्री आॅनर्स में नाम लिखाया।पास भी किया।

1966-67 के छात्र आंदोलन में कुछ अधिक ही सक्रिय रहने के कारण मेरी पढ़ाई उपेक्षित हो गयी थी।

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 डा.मुरलीधर श्रीवास्तव शेखर,(शैलंद्रनाथ श्रीवास्तव के पिता जी)डा.राजेंद्र किशोर और डा.केदारनाथ लाभ जैसे योग्य शिक्षक वहां हिन्दी पढ़ाते थे।

सर्वाधिक आकर्षण मुरली बाबू की कक्षा में रहता था।

वे राजनीतिक संस्मरण भी सुनाते थे।

कभी उन्होंने गांधी जी के साथ हिन्दी पर काम भी किया था।पर,हिन्दी और हिन्दुस्तानी के सवाल पर गांधी जी से झगड़ा करके वापस आ गए थे।

महान व्यक्तित्व था शेखर जी का। 

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एक बार राजंेद्र काॅलेज मंे कविता प्रतियोगिता हुईं।

मैंने भी एक कविता लिख कर उसे जमा कर दिया।

मुझे पुरस्कार की कोई उम्मीद नहीं थी।

  आश्चर्यजनक रूप से मुझे प्रथम पुरस्कार मिल गया।

पुरस्कार देने के लिए आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा पटना से गए थे।

मेरा नाम मंच से तीन बार पुकारा गया।

मुझे तो उम्मीद ही नहीं थी कि मुझे पुरस्कार मिलेगा,इसलिए मैं उस समारोह में था ही नहीं।

शर्मा जी ने कहा कि कैसा कवि है,जिसे प्रथम पुरस्कार मिला,वह पुरस्कार लेने भी यहां नहीं आया !

खैर, बाद में मैं लाभ जी के घर से पंत जी का कविता संग्रह   ‘‘कला और बूढ़ा चांद’’ले आया जो पुरस्कार के रूप में मुझे मिला था।

वह पुस्तक अब भी मेरे पास है।

हां,उस कविता की कोई प्रति मेरे पास नहीं है।

काश ! उस कविता की प्रति मिल जाती। 

उससे पहले या बाद में मैंने कभी कोई कविता नहीं लिखी।

प्रति मिल जाती तो शायद फिर से कविता लिखने की प्रेरणा मिलती !

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14 सितंबर 23


बुधवार, 20 सितंबर 2023

 जब -जब चुनाव करीब आता है तो 

कांग्रेस, भाजपा से सवाल पूछती है कि आप 

लोग बहुत हल्ला कर रहे थे,पर बोफोर्स मामले 

में क्या हुआ ?!!

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एक बार फिर चुनाव करीब है 

यहां पढ़िए-

बोफोर्स मामले में यह सब हुआ।

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सुरेंद्र किशोर

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दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस जे.डी.कपूर ने 4 फरवरी 2004 को 

बोफोर्स मामले में राजीव गांधी और बोफोर्स दलाल को क्लीन चिट दे दी।

  दिल्ली की तब की शीला दीक्षित सरकार ने रिटायर होने के तत्काल बाद जस्टिस जे.डी.कपूर को 14 जुलाई 2004 को दिल्ली उपभोक्ता आयोग का अध्यक्ष बना दिया।

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(अससी के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने एक कांग्रेसी मुख्य मंत्री को भ्रष्टाचार के मामले में क्लिन चिट दे दी थी।

उस जज को कांग्रेस ने तुरंत राज्य सभा में भेज दिया।

उस मुख्य मंत्री पर चेक से घूस लेने का आरोप प्रमाणित था।)

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उधर बाफोर्स मामले में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की अनुमति तक नहीं दी।

 जबकि सी.बी.आई.के निदेशक एस.के. शर्मा ने कानूनी सलाह लेने के बाद 24 अप्रैल 2004 को ही अपनी यह राय दे दी थी कि अपील की जानी चाहिए।अपील का केस बनता है। 

पर,अपील के लिए समय रहने के बावजूद अज्ञात कारणों से वाजपेयी सरकार ने अपील की अनुमति नहीं दी।

 अटल बिहारी वाजपेयी सरकार 21 मई, 2004 तक सत्ता में रही।

ऐसी ही कमजोरियां दिखाने के कारण अटल सरकार 2004 के चुनाव के बाद सत्ता में नहीं आ सकी।

नरेंद्र मोदी ऐसी कमजोरी नहीं दिखाते,इसलिए दुबारा सत्ता में आए।

तीसरी बार नहीं ही आएंगे,ऐसी कोई गारंटी नहीं। 

दरअसल इस देश में जब भी कोई सरकार भ्रष्टाचारियों के खिलाफ निर्ममता दिखाती है तो उससे अधिकतर आम जनता खुश हो जाती है। 

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12 सितंबर 23 


 हमारे कुछ नेता अपने जीवन की संध्या बेला में 

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सुरेंद्र किशोर

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1.-‘‘ऐसा आरोप मैंने कभी नहीं लगाया कि राजीव गांधी ने बोफोर्स सौदे में दलाली ली।’’

----पूर्व प्रधान मंत्री वी.पी.सिंह 

       सन 2004

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4 नवंबर, 1988 को वी.पी.सिंह पटना में जन सभा को संबोधित कर रहे थे।  संवाददाता के रूप में मैं वहां मौजूद था।

उन्होंने स्विस बैंक का एक खाता नंबर बताया।

कहा कि उसी खाते में बोफोर्स दलाली का पैसा है।

उन्होंने यह भी कहा कि यह खाता लोटस नाम से है।

लोटस और राजीव का एक ही मतलब है।

(पढ़िए-जनसत्ता-5 नवंबर 1988)

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2.-पूर्व प्रधान मंत्री व कांग्रेस नेता मनमोहन सिंह ने हाल में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की।

जबकि कांग्रेस कभी मोदी की तारीफ नहीं करती।

जीवन की संध्या बेला में कुछ दूसरे ही प्रकार के विचार आते हैं।

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3.-

सन 2019 की फरवरी में सपा नेता मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में कहा कि मेरी इच्छा है कि आप फिर से प्रधान मंत्री बनें।

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4.-पूर्व प्रधान मंत्री एच.डी.देवगौडा ने हाल में कहा कि अगला लोक सभा हम भाजपा के साथ मिलकर लड़ंेगे।

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18 सितंबर 23


रविवार, 17 सितंबर 2023

 गुट निरपेक्ष पुस्तक लेखकों से 

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सुरेंद्र किशोर

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1.-पुस्तक लेखन के लिए सिर्फ अखबारों की खबरों व लेखों पर भरोसा मत कीजिए।

ठीक ही कहा गया है कि अखबार रफ हिस्ट्री है।

2.-पुस्तक के लिए सामग्री जुटाने के सिलसिले में जिन जानकार लोगों से बात कीजिए,उनकी बातों को लिखकर उनसे बाद में उसकी पुष्टि करा लीजिए।

या फिर टेप रिकाॅर्डर का इस्तेमाल कीजिए।

यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरा अनुभव इस संबंध में बहुत खराब रहा है।

3.-कुछ अभियानी पुस्तक लेखकों की किताबों पर भी पूरा भरोसा मत कीजिए।

अन्यथा, आप अपनी किताब में लिख दीजिएगा कि इस देश की राजनीति में परिवारवाद की नींव ग्वालियर के सिंधिया राज परिवार ने डाली थी।

ऐसा लिख मारने वाले एक नेहरू भक्त की किताब मेरे पास है।

पर, मुझे उसका पेज नंबर याद नहीं अन्यथा उस अभियानी लेखक का नाम भी मैं यहां लिख देता।

  दरअसल उस अभियानी लेखक को इस तथ्य पर परदा डालना था कि मोतीलाल नेहरू ने सन 1928 में महात्मा गांधी को बारी -बारी से तीन चिट्ठियां लिखकर जवाहरलाल नेहरू को 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया था।

दो चिट्ठियों पर गांधी राजी नहीं हुए थे।

तीसरी पर मान गए थे।

नेहरू म्यूजियम में मौजूद मोतीलाल नेहरू पेपर्स को नेहरू भक्त लेखक नजरअंदाज करते रहे हैं।

 वे तीन चिट्ठियां भी

मोतीलाल नेहरू पेपर्स का हिस्सा हंै।

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खैर, अब सन 2005 में एक अखबार में छपे एक लेख पर आते हैं।

आज उसकी कटिंग मेरे हाथ लग गयी।

एक प्रतिष्ठित लेखक ने उस अखबार में लिखा कि इस देश में ‘‘1967 में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी जो बिना विदेशी मदद के चुनाव मैदान में उतरी हो।

........विदेशी मदद की जांच के लिए तब संसदीय समिति बनी थी।

पर,उसकी रपट सार्वजनिक नहीं हुई।’’

ये दोनों बातें सरसर गलत हैं।

पर उस लेखक की अपने क्षेत्र में इतनी अधिक प्रतिष्ठा है कि कोई भी

पुस्तक लेखक उस लेख को अपनी किताब में उधृत कर देगा।

उस एक दल का नाम भी मुझे मालूम है।

पर मैं लिख दूंगा तो बाकी दल के नेता लोग मुझ पर नाहक नाराज हो जाएंगे।

उन्हीं दिनों के.जी.बी.के अधिकारी मित्रोखिन की चर्चित पुस्तक आई थी।

उस लेख की पृष्ठभूमि वही थी।

(याद रहे कि शीत युद्ध के जमाने में सी.आई.ए. और के.जी.बी. के पैसों पर अनेक भारतीय व संगठन पल रहे थे।) 

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हाल के दिनों में इस संबंध में सावधानी बरतने वाले एक लेखक मुझे मिले जिनमें किसी तथ्य पर शंका होने मूल स्त्रोत तक पहुंचने की बेचैनी रहती थी।

वे लेखक हैं--उदयकांत मिश्र।

उन्होंने नीतीश कुमार पर एक मोटी किताब लिखी है।

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अब मैं सन 1967 वाली बात पर आता हूं।

विदेशी चंदा के बारे में सन 1967 में तत्कालीन गृह मंत्री यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण ने लोक सभा में कहा था कि 

‘‘इस देश के राजनीतिक दलों को  मिले  विदेशी चंदे के बारे में भारत के केंद्रीय गुप्तचर विभाग की रपट को प्रकाशित नहीं किया जाएगा।

क्योंकि इसके प्रकाशन से अनेक व्यक्तियों और दलों के हितों की हानि होगी।’’

(ध्यान दीजिए,किस तरह मंत्री जी ने प्रतिपक्ष को भी बचा लिया।

आज भी कांग्रेस यही चाहती है कि मोदी सरकार हमारे नेताओं पर केस न चलाएं ।हम भी सत्ता में आएंगे तो तुम लोगों को बचाते रहेंगे।

नरेंद्र मोदी सरकार से पहले की अधिकतर सरकारों ने बचने-बचाने की परंपरा लगभग जारी रखी थी।उसी परंपरा के तहत  अटल सरकार ने चर्चित बोफोर्स घोटाला केस में ‘‘प्रथम परिवार’’ को बचा लिया था।)

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सन 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी थी ।

  लोक सभा में भी कांग्रेस का बहुमत कम हो गया था।

तब तक लोक सभा व विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे।

इस अभूतपूर्व हार पर तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार चिंतित हो उठी।

पहले से ही उसे अपुष्ट खबर मिल रही थी कि इस चुनाव में विदेशी धन का इस्तेमाल हुआ है।

इंदिरा गांधी को लगा था कि विदेशी धन सिर्फ प्रतिपक्षी दलों को मिले। 

इंदिरा सरकार ने केंद्रीय गुप्तचर विभाग को इसकी जांच का भार दिया ।

जांच रपट सरकार को सौंप दी गयी।

पर, रपट को सरकार ने दबा दिया।(उन दिनों अपने देश के पत्रकार खबर खोजी नहीं थे या गोदी मीडिया की भूमिका निभा रहे थे ?!!!)

 इस बात के सबूत मिले थे कि कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने अमेरिका से तो उसी दल के कुछ दूसरे नेताओं ने सोवियत संघ से पैसे लिये थे।

पर, उस रपट को बाद में न्यूयार्क टाइम्स ने छाप दिया।

उस अखबार की रपट के अनुसार सिर्फ एक प्रमुख राजनीतिक दल को छोड़ कर  सभी प्रमुख दलों ने विदेशी चंदा स्वीकार किया था।उस खबर पर संसद में हंगामा हुआ।(जिस तरह नब्बे के दशक में जैन हवाला के पैसे कम्युनिस्टों को छोड़ कर सारे दलों ने बड़े नेताओं ने स्वीकार किए थे।)

  (मैंने ऊपर जिस प्रतिष्ठित लेखक के लेख (सन 2005)की चर्चा की है ,उस लेख में किसी दल को अपवाद नहीं बताया गया ।साथ ही उनकी यह बात भी गलत है कि उसकी जांच के लिए संसदीय समिति बनी थी।)

न्यूयार्क टाइम्स की इस सनसनीखेज रपट पर सन 1967 के प्रारंभ में  लोक सभा में गर्मागर्म चर्चा हुई।उस चर्चा की खबर तब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका ‘‘दिनमान’’ में भी छपी थी जिसकी काॅपी मेरे पास अब भी मौजूद है।

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सुरेंद्र किशोर

17 सितंबर 23

  


 क्या से क्या हो गया देखते-देखते !!!

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कभी पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर पी.एम.सी.एच. में 

अपना आपरेशन कराने आए थे

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सुरेंद्र किशोर

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आज तो बिहार सरकार के बड़े -बड़े अफसरों को 

भी उस अस्पताल पर भरोसा नहीं

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तबियत खराब होने के बाद बिहार के मुख्य सचिव आमिर सुबहानी  को

गुरुवार को पटना के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया।

उससे पहले पटना के कलक्टर भी उसी अस्पताल में भर्ती किए गए थे।

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पूर्व प्रधान मंत्री चंद्रशेखर सन 1962 में पहली बार राज्य सभा के सदस्य बने थे।

उसके बाद की बात है।

उन्हें एक आपरेशन कराना पड़ा था।

वे दिल्ली में भी करा सकते थे।

पर,लोगों ने उन्हें राय दी कि आप पटना मेडिकल काॅलेज अस्पताल में जाकर आपरेशन कराइए।

ठीक रहिएगा।

वहां अच्छे सर्जन हैं।

(डा.शाही या डा.सिन्हा)

 वे पटना आए और स्वस्थ होकर लौटे।

पर,अब सरकारी अस्पताल पी.एम.सी.एच.की स्थिति ऐसी कर दी गयी है कि 

उस पर अपने राज्य के बड़े अफसरों को भी भरोसा नहीं है।

ऐसी खबरें सुनकर आम गरीब मरीजों का दिल बैठ जाता है।

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 एम्स की स्थापना सन 1956 में ही हो चुकी थी।

फिर भी लोगों ने चंद्र शेखर जी पटना क्यों भेजा ?

आज तो दिल्ली का एम्स बेजोड़ है।

पर,क्या तब तक 

पी.एम.सी.एच.की साख उससे बेहतर थी ?

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एम्स में डाक्टरों की नियुक्ति को लेकर एक किस्सा सुनाता हूं।

आपको याद है कि प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के घुटने का आॅपरेशन किस डाॅक्टर ने किया था ?

शायद याद न हो।

उनका नाम था डा.चितरंजन राणावत।

वे तब अमेरिका के नामी डाक्टर थे।

एम्स की स्थापना होने लगी तो जाहिर है कि डाक्टरों की

बहाली शुरू हो गयी।

 डा.राणावत ने भी नौकरी के लिए आवेदन दिया था।

पर, उन्हें नौकरी लायक नहीं समझा गया।

कारण का आप अनुमान लगा लीजिए।

तब वे विदेश चले गये।

अमेरिका में उन्होंने बड़ा नाम किया।

यही कारण था कि उनसे अटल जी मुम्बई के ब्रिच कैंडी अस्पताल में अपना आॅपरेशन करवाया।

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उस जमाने में बिहार में शिक्षा का हाल भी बेहतर था।

श्रीकृष्ण सिंह के शासन काल में पटना विश्व विद्यालय के वाइस चांसलर,सांगधर सिंह ने,जो पटना से सांसद भी थे,

देश भर से उच्च कोटि के शिक्षकों को बुला कर पटना विश्व विद्यालय में बहाल किया था।

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साठ-सत्तर के दशक में मैं समाजवादी आंदोलन के प्रचार के लिए पटना विश्व विद्यालय के छात्रावासों में जाया करता था।

जैसे ही स्टडी आॅवर शुरू होता था,हमारे छात्र मित्र कहते थे कि अब आप जाइए,हमलोगों के पढ़ने का समय हो गया।

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17 सितंबर 23


   अब समझ में आया  कि प्रधान मंत्री प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं करते ?!!!

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       सुरेंद्र किशोर

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जो नेता लोग लगातार यह सवाल उठाते रहे हैं कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं करते,पत्रकारों का सामना क्यों नहीं करते,वही लोग आज 14 टी.वी.एंकरों का सामना करने से भाग रहे हैं।

ऐसा क्यों भाई ?

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ठीक है।

कोई बात नहीं।

उनका सामना मत कीजिए।

आपको यदि कुछ खास एंकरों के बहिष्कार का अधिकार है,

तो उसी तरह किसी प्रधान मंत्री को भी प्रेस कांफ्रंेस नहीं करने का अधिकार है।

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उम्मीद है कि अब आप यह सवाल नहीं करेंगे कि मोदी प्रेस कांफे्रंस क्यों नहीं करते।

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एक भूली-बिसरी याद

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अस्सी के दशक की बात है।

पूर्व प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई पटना आए थे।

उनका सत्येंद्र नारायण सिंह के आवास पर प्रेस कांफ्रंेस था।

मैं भी उसमें शामिल था।

एक वरिष्ठ संवाददाता से मोरारजी भाई का संवाद की जगह ‘विवाद’ हो गया।

देसाई जी ने तुनक कर कहा कि 

‘‘मैंने जीवन में कभी पत्रकार सम्मेलन नहीं बुलाया।’’

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बाद में पता चला कि सत्येंद्र बाबू के यहां से पत्रकारों को निमंत्रण चला गया था।

संभव है कि मोरारजी भाई को कहा गया होगा कि प्रेस वाले आ रहे हैं,बात कर लीजिए।

उससे पार्टी का थोड़ा प्रचार हो जाएगा।

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16 सितंबर 23   


शुक्रवार, 15 सितंबर 2023

     भारत रत्न के हकदार कर्पूरी ठाकुर

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         सुरेंद्र किशोर

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24 जनवरी, 2024 को जननायक कर्पूरी ठाकुर की 101 वीं जन्म जयंती के अवसर पर पटना में समारोह होगा।

उस अवसर पर उनकी संक्षिप्त जीवनी का लोकार्पण होगा।

संपादक द्वय रमाशंकर सिंह और के.सी.त्यागी इस काम मंे लगे हुए हैं। 

यदि इस अवसर पर नरेंद्र मोदी सरकार उन्हें ‘भारत रत्न’सम्मान से सम्मानित करे तो वह सर्वथा उचित होगा।

 मेरी धारणा है कि नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में पद्म सम्मान उन्हें ही दिए जा रहे हैं जो इसके असली हकदार हैं।

(बहुत पहले सरदार खुशवंत सिंह ने कहा था कि मैं यह बात नहीं समझ पाता हूं कि पद्म सम्मान देने का आधार या मापदंड क्या होता है !’’)

सन 2019 के बाद भारत रत्न सम्मान किसी को नहीं मिला है।

मोदी सरकार यदि इस सम्मान के लिए महान हस्तियों का कोई तुलनात्मक अध्ययन कराएगी तो मेरा विश्वास है कि कर्पूरी ठाकुर का नाम भारी पड़ेगा।

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कर्पूरी जी ‘भारत रत्न’ के हकदार है, यह बात कहने का मेरे पास ठोस आधार है।

समाजवादी कार्यकर्ता के रूप में मैं सन 1972-73 में कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

करीब डेढ़ साल तक रात-दिन जिस व्यक्ति के साथ आप रहेंगे,उसके बारे में आप लगभग सब कुछ जान जाएंगे।

बाद के वर्षों में भी मैंने कर्पूरी जी को एक पत्रकार की हैसियत से देखा-परखा।

  उन मिले-जुले अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि कर्पूरी ठाकुर जैसा नेता मैंने नहीं देखा।

होंगे,पर,मैंने नहीं देखा।

हर व्यक्ति में कुछ कमियां होती हैं तो कुछ खूबियां भी।

यह बात हम पर, आप पर  और कर्पूरी ठाकुर पर भी लागू होती है।

पर, सारी बातों पर विचार करने के बाद भी मेरी यही धारणा बनी है कि ‘‘कर्पूरी जैसा कोई नहीं।’’

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15 सितंबर 23

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पुनश्चः

कुछ महीने पहले दक्षिण भारत के एक व्यक्ति ने मुुझे फोन किया था।

उन्होंने पूछा कि क्या कर्पूरी

ठाकुर के जीवन पर अंग्रेजी में कोई सामग्री उपलब्ध है ?

मैंने कहा कि मुझे तो नहीं मालूम।

यदि देश के समर्थ व्यक्तित्व रमाश्ंाकर सिंह इस कमी को पूरा कर दें तो वह भी एक सार्थक काम होगा।   


 ‘‘मोदी की गोदी मीडिया’’का बहिष्कार तो ठीक है,पर,

‘‘इंडिया’’ की ‘‘कंधा मीडिया’’ कितना कमाल करेगी ?

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सुरेंद्र किशोर 

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कांग्रेसनीत ‘इंडी’ गठबंधन ने 14 टी.वी.न्यूज एंकरों के बहिष्कार का निर्णय किया है।

यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है।

शम्भूनाथ शुक्ल ने विनोदवश ठीक ही लिखा है कि 

‘‘अब पता चला कि गोदी मीडिया सिर्फ 14 हैं।’’

वैसे इंडी गठबंधन अगली किसी बैठक में यह भी तय कर सकता है कि उसके प्रेस कांफ्रंेस में प्रिंट मीडिया के किन -किन संवाददाताओं को न बुलाया जाए।

यह भी उनका अधिकार है।

जिन्हें न बुलाइएगा,उनको छोड़कर बाकी प्रिंट पत्रकारों पर आप गोदी मीडिया की तोहमत नहीं लगा पाएंगे। 

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खैर, मनाइए कि केंद्र में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार अभी नहीं है।

और, अभी इमरजेंसी भी लागू नहीं है।(बाद में भी नहीं लागू होगी,उसकी कोई गारंटी नहीं।)

अन्यथा, न जाने कितने पत्रकार जेलों में होते,कितने पत्रकारों की सरकारी मान्यता रद हो जाती और न जाने कितने प्रकाशनों को जबरन बंद करा दिया गया होता।

क्योंकि एक राजनीतिक समूह का आज कुछ पत्रकारों पर गुस्सा उतना ही प्रबल है जितना इंदिरा कांग्रेस का आपातकाल में था।  

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कांग्रेस की इमरजेंसी वाली मानसिकता अब भी कायम है।

वह मानसिकता क्या है ?

यही कि प्रथम परिवार कभी गलत नंहीं होता।

यह भी कि प्रथम परिवार किसी भी कानून से ऊपर है।

अब तो प्रथम परिवार व उनके के सहयोगी दल भी खुद को ‘इंडिया’ यानी देश का पर्यायवाची बता रहे हैं।

मोदी विरोधी गठबंधन का इंडिया नाम इसी मानसिकता के तहत पड़ा है।

याद करा दूं ,आपातकाल में कांग्रेस अध्यक्ष डी.के. बरूआ ने कहा था 

‘‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।’’

बरूआ जी ने तो एक अन्य अवसर पर यह भी कहा था कि ‘‘संजय गांधी हमारे नए शंकराचार्य और विवेकानंद हैं।’’

(जुलाई 1975)

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इमरजेंसी सिर्फ इसीलिए लगा दी गयी थी क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रथम परिवार को कानून से ऊपर समझने से इनकार कर दिया था।

यानी,चुनावी भ्रष्टाचरण के आरोप में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की लोक सभा की सदस्यता रद कर दी थी।

प्रधान मंत्री बने रहते हुए उस सदस्यता को फिर से पा लेने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून को ही बदल देना प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने जरूरी समझा था।

बिना इमरजेंसी लगाये,

बिना जेपी सहित हजारों नेताओं -कार्यकर्ताओं को जेलों में  ठंूसे,

बिना पे्रस पर कठोर सेंसर लगाए और 

बिना सुप्रीम कोर्ट को पूरी तरह काबू में किए यह संभव नहीं था।

आपातकाल (1975-77)में संसद ने जन प्रतिनिधित्व कानून की उन दो धाराओं को आवश्यकतानुसार बदल दिया जिनके तहत इंदिरा गांधी की सदस्यता गयी थी।

उन संशोधनों को पिछली तारीख से लागू कर दिया गया।

सामान्यतः कोई कानून पिछली तारीख से लागू नहीं होता।पर,उस पर भी सुप्रीम कोर्ट का ‘सुप्रीम मौन’ रहा।

याद रहे कि एटाॅर्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में कहा कि हमने जनता के जीने का अधिकार भी स्थगित कर दिया है।उस पर भी सुप्रीम कोर्ट मौन रहा था तब।हमने कैसे बर्बर काल खंड देखे हैं,उसकी कल्पना आज की पीढ़ी को नहीं है।  

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इमरजेंसी में इंदिरा सरकार ने देश भर के 253 पत्रकारों को भी आंतरिक सुरक्षा कानून,भारतीय रक्षा कानून तथा अन्य दफाओं में गिरफ्तार करके जेलों में ठूंस दिया।

उनमें मध्य प्रदेश के 59 और बिहार के 12 पत्रकार शामिल थे।

मेरे जैसे कुछ पत्रकार अपनी फरारी में अपार कष्ट झेल रहे थेे। मेरे जैसे फरार लोगों को कोई शरण देने को भी तैयार नहीं था,मदद की बात कौन कहे !

अंग्रेजों की अपेक्षा तब अधिक क्रूर शासन इस देश ने देखा था।

जेल में बंद नेताओं से अदालत

में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका लगाने का भी अधिकर छीन लिया गया था।

इतनी कड़ाई अंग्रेजों ने भी नहीं की थी।

जेपी ने इंदिरा सरकार से कहा था कि वह मेरे साथ राजनीतिक सह बंदी रखने की व्यवस्था कर दीजिए।यह मांग भी नहीं मानी गयी।जबकि अंग्रेजों ने 1942 में जेल में लोहिया को जेपी के साथ रहने की अनुमति दे दी थी।

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इनके अलावा आपातकाल में देश-विदेश के 50 पत्रकारों की सरकारी मान्यता रद कर दी गयी थी।

जिन पत्रकारों की मान्यता रद कर दी गयी ,उनमें हिन्दुस्तान टाइम्स,टाइम्स आॅफ इंडिया,न्यूज एजेंसी ‘समाचार’,जर्मन रेडियो,न्यूजवीक,बी.बी.सी. सहित अनेक प्रतिष्ठित देशी-विदेशी समाचार संगठनों के पत्रकार शामिल थे।

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बाद में भी उसी प्रवृति के तहत मीडिया को कंट्रोल करने के लिए बिहार की डा.मिश्र सरकार और बाद में राजीव गांधी सरकार ने दमनात्मक प्रेस बिल लाया था।

जन दबाव के कारण वापस करना पड़ा।

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यह सब इस बात के बावजूद हुआ कि मीडिया का किसी को चुनाव जिताने और हराने में शायद ही कोई निर्णायक रोल होता है।

सन 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव से ठीक पहले अधिकांश मीडिया लालू प्रसाद के खिलाफ था।

जहां तक मुझे याद है, सिर्फ सुरेंद्र प्रताप सिंह ने द टेलिग्राफ में साफ -साफ यह लिखा था कि लालू प्रसाद बहुमत के साथ विजयी होंगे।

वही हुआ भी।मीडिया के खिलाफ रहने का कोई प्रतिकूल असर लालू पर नहीं पड़ा।

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सन 1971 में मुख्य धारा का प्रेस तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ था।

फिर भी 1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा गांधी को पूर्ण बहुमत मिल गया।

पर,1977 में जब चुनाव हुआ तब मीडिया इमरजेंसी के सरकारी आतंक की छाया में दबा हुआ था।

इमरजेंसी के अभूतपूर्व-लोमहर्षक अत्याचारों की कोई चर्चा मीडिया में चुनाव के दौरान नहीं हुई थी।

इंदिरा गांधी ने उसे पालतू जो बना लिया था।

फिर भी 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की पार्टी बुरी तरह हारकर केंद्र की सत्ता से बाहर हो गयी।

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और अंत में

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इंडी गठबंधन ने जिन 14 टी.वी एंकरों को ‘मोदी की गोदी मीडिया’ माना,उन्हें बायकाॅट कर दिया।

पर,मीडिया के जिस हिस्से को ‘‘इंडिया’ की कंधा मीडिया’’ कई लोग मानते हैं,उनका साथ लेकर आप कितनी बड़ी चुनावी सफलता हासिल कर पाएंगे ?

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 जब -जब चुनाव करीब आता है तो 

कांग्रेस, भाजपा से सवाल पूछती है कि आप 

लोग बहुत हल्ला कर रहे थे,पर बोफोर्स मामले 

में क्या हुआ ?!!

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एक बार फिर चुनाव करीब है 

यहां पढ़िए-

बोफोर्स मामले में यह सब हुआ।

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सुरेंद्र किशोर

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दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस जे.डी.कपूर ने 4 फरवरी 2004 को 

बोफोर्स मामले में राजीव गांधी और बोफोर्स दलाल को क्लीन चिट दे दी।

  दिल्ली की तब की शीला दीक्षित सरकार ने रिटायर होने के तत्काल बाद जस्टिस जे.डी.कपूर को 14 जुलाई 2004 को दिल्ली उपभोक्ता आयोग का अध्यक्ष बना दिया।

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(अससी के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने एक कांग्रेसी मुख्य मंत्री को भ्रष्टाचार के मामले में क्लिन चिट दे दी थी।

उस जज को कांग्रेस ने तुरंत राज्य सभा में भेज दिया।

उस मुख्य मंत्री पर चेक से घूस लेने का आरोप प्रमाणित था।)

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उधर बाफोर्स मामले में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की अनुमति तक नहीं दी।

 जबकि सी.बी.आई.के निदेशक एस.के. शर्मा ने कानूनी सलाह लेने के बाद 24 अप्रैल 2004 को ही अपनी यह राय दे दी थी कि अपील की जानी चाहिए।अपील का केस बनता है। 

पर,अपील के लिए समय रहने के बावजूद अज्ञात कारणों से वाजपेयी सरकार ने अपील की अनुमति नहीं दी।

 अटल बिहारी वाजपेयी सरकार 21 मई, 2004 तक सत्ता में रही।

ऐसी ही कमजोरियां दिखाने के कारण अटल सरकार 2004 के चुनाव के बाद सत्ता में नहीं आ सकी।

नरेंद्र मोदी ऐसी कमजोरी नहीं दिखाते,इसलिए दुबारा सत्ता में आए।

तीसरी बार नहीं ही आएंगे,ऐसी कोई गारंटी नहीं। 

दरअसल इस देश में जब भी कोई सरकार भ्रष्टाचारियों के खिलाफ निर्ममता दिखाती है तो उससे अधिकतर आम जनता खुश हो जाती है। 

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12 सितंबर 23 


शुक्रवार, 8 सितंबर 2023

 


नगरों की सघन आबादी को छितराये बिना जाम से मुक्ति नहीं

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सुरेंद्र किशोर

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 खुशखबरी है कि पटना विश्व विद्यालय के साउथ कैंपस के निर्माण के लिए मास्टर प्लान तैयार हो गया है।

इससे अशोक राज पथ पर से आबादी का बोझ कुछ कम होगा।

यदि कुछ महा विद्यालयों को भी कहीं और स्थानांतरित करने की गुंजाइश हो तो उस पर भी विचार होना चाहिए।

जेपी गंगा पथ के बन जाने से भी राहत मिली है।

दरअसल परेशानी का कारण यह है कि एक ही रोड पर कई महत्वपूर्ण संस्थान स्थापित कर दिए जाते हैं।

ऐसा राज्य के अन्य नगरों में भी हुआ है।

पटना के अशोक राजपथ पर पटना विश्व विद्यालय,पटना मेडिकल काॅलेज व अस्पताल, जिला कचहरी तथा कलक्टरी अवस्थित है।

इनमें से कुछ संस्थानों को मुख्य शहर से बाहर भेजा जाना चाहिए।

इधर एक और अच्छी खबर आई है।

पटना के हड़ताली मोड़ के पास के पुराने सरकारी आवासों को तोड़ कर वहां बहुमंजिली इमारतें बनेंगी।

 उस सिलसिले में एक बात पर खास तौर पर ध्यान देने की जरुरत है।

नव निर्मित इमारतों में रहने वालों के लिए पार्क और खेल मैदान बने तो लोगों को राहत मिलेगी।

बिहार के अन्य नगरों को भी छितरा देने की जरूरत है ताकि मुख्य नगर दिन भर जाम से परेशान न रहंे।   

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विश्वविद्यालयों पर द्वैध शासन

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 समय आ गया है कि अब देश के विश्व विद्यालयों पर जारी द्वैध शासन को समाप्त कर दिया जाए।

क्योंकि द्वैध शासन के कारण राज्यपालों व राज्य सरकारों के बीच आए दिन अशोभनीय 

वाद-विवाद होते रहते हंै।

जानकार लोग बताते हैं कि बेहतर यही होगा कि विश्वविद्यालय या तो पूरी तरह राज्य सरकार के नियंत्रण में रहंे या फिर पूरी तरह केंद्र सरकार के कंट्रोल में।

इससे विश्व विद्यालय शिक्षा की विफलताओं को लेकर एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा देने का किसी पक्ष को मौका नहीं मिलेगा।

राज्यपाल-कुलपति  विवाद के पीछे शिक्षा से अधिक दलीय राजनीति होती है।

आजादी के बाद के शुरूआती वर्षों में एक ही दल की सरकारें दोनों जगह होती थीं, इसलिए आपसी विवाद नहीं होता था।

पर,बदली हुई स्थिति में इस समस्या पर अलग ढंग से विचार करने की जरुरत है।

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प्रवक्ताओं की जानकारी

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संसद के विशेष सत्र को लेकर सोनिया गांधी ने प्रधान मंत्री को पत्र लिखा।

एक टी.वी.डिबेट में भाजपा प्रवक्ता ने यह सवाल उठाया कि वह तो किसी पद पर हैं नहीं।फिर उन्होंने किस हैसियत से पत्र लिखा ?

कांग्रेस प्रवक्ता  ने उनका ज्ञान वर्धन करते हुए कहा कि वह कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष हैं।

  इस पर भाजपा प्रवक्ता चुप हो गये।

भ्रष्टाचार के हाल के वर्षों के आरोपों की चर्चा होती है तो कांग्रेस के प्रवक्ता गण आए दिन यह कहा करते हैं कि बोफोर्स घोटाले का 

क्या हुआ ?

2 -जी घोटाले का क्या हुआ ?

इन घोटालों की प्रतिपक्ष ने बड़ी चर्चा की थी।

उस पर गैर कांग्रेसी दलों के प्रवक्ता चुप हो जाते हैं।

क्यांेकि वे नहीं जानते कि 2 -जी घोटाला संबंधित मुकदमा अब भी दिल्ली हाई कोर्ट में विचाराधीन है।

वे यह भी नहीं जानते कि बोफोर्स घोटाला मामले में एक दलाल के मुम्बई स्थित फ्लैट को आयकर महकमा नीलाम कर चुका है।क्योंकि

बोफोर्स दलाली के पैसों पर  आयकर विभाग का टैक्स बनता था।

यानी, प्रवक्ताओं को बहस के लिए बेहतर तैयारी की जरूरत है।

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टिकटार्थी को टका सा जवाब

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हर आम चुनाव से ठीक पहले दल बदल की घटनाएं बढ़ जाती है।

अपवादों को छोड़कर आम तौर टिकटार्थी ही अधिक

दल बदल करते हैं।

सन 2024 के लोक सभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए बिहार के भी ‘मौसमी पक्षी’ सक्रिय हो गये हैं।

पर,दलों को चाहिए कि वे इसमें सावधानी बरतें।

क्योंकि दल में आने के बाद जब उन्हें टिकट नहीं मिलेगा तो वे तरह -तरह के आरोप लगाते हुए आपके दल से इस्तीफा दे देंगे।उनमें कुछ आरोप बहुत घटिया और मानहानिकारक भी हो सकते हंै।

कई साल पहले मैं एक दल के प्रादेशिक अध्यक्ष के पास बैठा हुआ था।

 एक नेता आए। कहा कि आपके दल में शमिल होना चाहता हूं।

प्रदेश अध्यक्ष ने और कोई बात किए बिना पूछ दिया,‘‘आप किस क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहते हैं ?’’

आगंतुक ने क्षेत्र का नाम बता दिया।अध्यक्ष जी ने कहा कि वह सीट किसी अन्य नेता के लिए रिजर्व है।आगंतुक उठकर चले गये।

बाद में अध्यक्ष जी ने कहा कि पहले ही बात साफ हो जानी चाहिए अन्यथा टिकट नहीं मिलने पर यही व्यक्ति हमारी पार्टी को न जाने क्या -क्या कहेंगे ।

अन्य दल उस प्रदेश अध्यक्ष की सावधानी की खबर से लाभ उठा सकते हैं।   

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और अंत में 

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अगले लोक सभा चुनाव के अब बहुत दिन नहीं हैं।

अच्छा है कि उम्मीदवारों के चयन व सीटों के तालमेल पर विचार -विमर्श शुरू हो चुका है।

गैर राजनीतिक हलकों में एक बात कही जा रही है। वह यह कि जो राजनीतिक दल अपने जितने अधिक निवर्तमान सांसदों के टिकट काटेगा,उस दल के विजयी होने की पहले से बेहतर संभावना बनेगी।

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काॅलम ‘यदाकदा’

प्रभात खबर

बिहार संस्करण

8 सितंबर 23