शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

समस्याओं की जड़ बनी सांसद निधि




  सांसद क्षेत्र विकास निधि ने इस देश की राजनीति और प्रशासन को जितना प्रदूषित और बदनाम किया है,उतना शायद किसी अन्य एक तत्व ने नहीं किया।
इसने राजनीति व प्रशासन की रही -सही नैतिक धाक भी समाप्त कर दी है।
  नरेंद्र मोदी  अपने अब तक के  कार्यकाल में भ्रष्टाचार के एक -एक गढ़ को खोज- खोज कर ध्वस्त करने की भरपूर कोशिश करते रहे।कुछ मामलों में उन्हें सफलता भी मिली है।पर आश्चर्य है कि प्रधान मंत्री का ध्यान भ्रष्टाचार के इस ‘रावणी अमृत कुंड’ की गंम्भीरता की ओर नहीं गया।
या फिर वे भी समझते हैं कि सांसद फंड समाप्त करना उनके वश की बात नहीं है ? याद रहे कि समाप्ति की मांग के बावजूद अब तक कोई प्रधान मंत्री यह काम नहीं कर सके।
 वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाली प्रशासनिक सुधार समिति से लेकर अनेक हस्तियों ने इसे समाप्त करने की सिफारिश की है।मोइली कमेटी की रपट 11 साल पहले आ चुकी है।
  करीब दो दशक पहले तत्कालीन प्रधान मंत्री ं अटल बिहारी वाजपेयी  इसे समाप्त करने की तैयारी ही कर रहे थे कि वे अंततः कुछ सत्ताधारी सांसदों के दबाव में आकर उन्होंने अपने पैर खींच लिए।बल्कि उन्होंने  एक करोड़ रुपए सालाना से बढ़ा कर 2003 में सांसद क्षेत्र विकास फंड की राशि को दो करोड़ रुपए  कर दिया।
   जब यह राशि बढ़ाई जा रही थी तब मन मोहन सिंह  राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।
श्री सिंह ने इसका कड़ा विरोध करते हुए प्रधान मंत्री से कहा  ‘यदि आप चीजों को इस तरह होने दीजिएगा तो जनता नेताओं और लोकतंत्र में विश्वास खो देगी।’
  पर, जब खुद मन मोहन सिंह  प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने  2011 में 2 करोड़ रुपए सालाना से बढ़ा कर पांच करोड़ रुपए कर दिए।
 अब नरेंद्र मोदी के शासन काल में अधिकतर सांसद चाहते हैं कि  इस राशि को बढ़ाकर 50 करोड़ रुपए  कर दिया जाए ।इसे   सांसद आदर्श ग्राम योजना में भी लगाने की सुविधा मिले।यदि ऐसा हुआ तो आदर्श ग्राम योजना को 
कार्यान्वित करने में सुविधा होगी।
मोदी सरकार ने अब तक इस मांग को स्वीकार नहीं किया है।पर प्रधान मंत्री सांसद फंड के खर्चे की ‘थर्ड पार्टी आॅडिट’ कराने की अपनी घोषणा को लागू नहीं कर पा रहे हंै।
  कहते हैं कि इस फंड की ताकत इतनी अधिक है कि इसके सामने बड़े -बड़े लोग पस्त हो जाते हैं।
पर कई लोगों को नरेंद्र मोदी में वह हिम्मत जरूर दिखाई पड़ रही है जो शायद जरूरत पड़ने पर पहाड़ से भी टकरा जाए।
पता नहीं उन्हें इस मामले में उनकी ‘हनुमानी ताकत’ का भान कौन कराएगा !
 इस फंड के संस्थागत घोटाले से संबंधित हाल का एक वाकाया इस प्रकार है।
बिहार के एक ईमानदार सांसद  हाल में अपने चुनाव क्षेत्र में इस फंड से हो रहे निर्माण का जायजा ले रहे थे।इंजीनियर भी साथ मेें था।घटिया निर्माण होते देख जब संासद ने इंजीनियर को डांटा तो उसने कहा कि ‘मैं क्या करूं सर ?
आप नहीं लेते,पर 30 प्रतिशत कमीशन तो आॅफिस ही ले लेता है।
 उसके बाद तो निर्माण ऐसा ही हो सकता है।’
 ईमानदार सांसद ने जो मंत्री भी हैं ,उस इंजीनियर के खिलाफ केस कर दिया है।
 यानी जिस क्षेत्र का सांसद अपना भी कमीशन ले लेता है,उस क्षेत्र में सांसद फंड की गुणवत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।
 हां, कुछ थोड़े से ईमानदार सांसद इस फंड के इस्तेमाल का अलग व बेहतर रास्ता निकाल लेते हैं।एक राज्य सभा सदस्य ने अपना पूरा फंड एक विश्व विद्यालय को दे दिया।अटल सरकार के एक मंत्री आई.आई.टी, कान पुर को दे देते थे।पर ये दोनों राज्य सभा में रहे।
  पर, सब तो वैसे नहीं हैं।लोकसभा वाले को तो अपने क्षेत्र में ही खर्च करना है।
 कई साल पहले समाजवादी पार्टी के एक राज्य सभा सदस्य की सदस्यता इसलिए समाप्त कर दी गयी क्योंकि सांसद फंड से घूस लेने का उन पर आरोप साबित हो गया था।वह  अब भाजपा सासंद  हैं।
 दरअसल सासंद फंड को जिला स्तर का कोई जूनियर आई.ए.एस.अफसर नियंत्रित करता है।
 अपवादों को छोड़ दें तो उसके आॅफिस का कमीशन तय रहता है।
यानी अपने सेवा काल के आरम्भिक वर्षों से ही उसे रिश्वखोरी की लत पड़ जाती है।
उसे ऐसा करने के लिए  अधिकतर सांसद भी मजबूर कर देते हैं।
इसमें अपवाद भी है,पर वे बहुत कम हैं।
इस तरह आई.ए.एस.के लिए यह फंड भ्रष्टाचार की पाठशाला साबित होता है।
  दूसरी ओर इन दिनों देश के अधिकतर हिस्सों में फंड के ठेकदार ही सांसद के लिए राजनीतिक कार्यकत्र्ता की भूमिका भी निभाते हैं।
यानी यह फंड प्रशासन व राजनीति को एक साथ प्रदूषित करता है। 
एक बड़े भाजपा नेता ने कई साल पहले इन पंक्तियों के लेखक को बताया था कि संघ से भाजपा में आए कुछ कार्यकत्र्ता भी सांसद फंड के ठेकेदार बन गए हैं।पहले उनसे हमारा संबंध सेवा व सार्वजनिक हित का था।अब उनकी आंखों में वाणिज्य नजर आता है।
 यानी जब भाजपा का यह हाल है तो अन्य दलों का अनुमान लगा सकते हैं।
जो सांसद अपने फंड में  कमीशन लेता है,वह सरकार के दूसरे अंगों में हो रहे रोज ब रोज के भ्रष्टाचारों पर कैसे नजर रख सकेगा ? 
यानी समय रहते देश की राजनीति की देह से इस कोढ़ को नरेंद्र मोदी सरकार समाप्त नहीं करेगी तो शासन के अन्य क्षेत्रों से भ्रष्टाचार को हटाने का उनका प्रयास भी अधूरा ही रह जाएगा।
दरअसल इस फंड की शुरूआत का उद्देश्य ही दूषित लगा था।  
1993 में यह फंड शुरू किया गया।
उसी साल  वकील राम जेठमलानी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव पर यह आरोप लगाया था कि उन्होंने शेयर दलाल हर्षद मेहता से 
एक करोड़ रुपए  लिए।
संभवतः प्रधान मंत्री को किसी ने यह सलाह दी कि आरोप आप पर लग ही गया तो आप सासंदों के लिए भी ऐसा कुछ कर दीजिए।वैसे भी आपकी सरकार अल्पमत में है।इससे आरोप व्यापक हो जाएगा।
   सांसद क्षेत्र विकास फंड का प्रावधान करने का काम त्वरित गति से हुआ।
माकपा के सासंद निर्मलकांत मुखर्जी के विरोध के बीच संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रपट सदन में 2 दिसंबर 1993 को 3 बजकर 43 मिनट पर पेश की गयी।
सरकार ने 5 बज कर 50 मिनट पर यह घोषणा कर दी कि एक करोड़ रुपए के विकास फंड के प्रस्ताव को सरकार स्वीकार करती है।
 मुखर्जी ने कहा था कि हमने तो ऐसी कोई मांग नहीं की थी।
  जब यह सब हो रहा था ,उस समय वित्त मंत्री मन मोहन सिंह विदेश के दौरे पर थे।वे इस तरह के फंड के खिलाफ थे।
 बाद में मन मोहन सिंह ने  कहा भी था यदि मेरा वश चलता मैं ऐसा नहीं होने देता।
  इस फंड को लेकर समय -समय पर अदालतें और सी.ए.जी. प्रतिकूल टिप्पणियां करती रही हैं।
बिहार में आम चुनाव हारने के बाद लालू प्रसाद ने कहा था कि सांसद-विधायक फंड ने हमें हरा दिया।
 दरअसल राजनीतिक ताकत हासिल किए ठेकेदारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता कई बार नेताओं पर भारी पड़ती है।नेता दुविधा में पड़ जाता है कि फंड दो में से किस ठेकेदार को दें।कई बार इस द्वंद्व में फंड का उपयोग ही नहीं हो पाता।
 ं, फंड की अधिकांश राशि सरकारी अफसरों, जन प्रतिनिधियों ,ठेकदारों और बिचैलियों की जेबों में चली जानी है।उसको लेकर अक्सर खींचतान होती है।कई बार हिंसा भी हो जाती है।
 यदि चाहें भी तो उनकी जेब में जाने से रोकना आज  किसी शासन या सांसद के लिए संभव नहीं हो पा रहा है।इसलिए अधिकतर नेता  अब रोकना ही नंहीं चाहते हैं।
  पर इस तरह लूट बढ़ती जा रही है और साथ ही प्रशासन-राजनीति में उसी अनुपात में गिरावट भी।यदि इसे नरेंद्र मोदी नहीं रोक पाएंगे तो कोई अन्य नहीं रोक सकता।
 यदि केंद्र सरकार  इस फंड की बुराइयों की गम्भीरता की सोशल आॅडिट कराएगी तो उसे चैंकाने वाले नतीजे मिल सकते हैं।
 उसे देख कर इस फंड की समाप्ति का निर्णय जन सेवा की मंशा वाला कोई भी सरकार तुरंत ही कर देगी,ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
@ मेरे इस लेख का संपादित अंश 31 अगस्त, 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@
पुनश्चः-ताजा खबर के अनुसार एम.पी.फंड के 12 हजार करोड़ रुपए का उपयोग ही नहीं हो सका है।
यदि इसके असली कारण का पता लगाया जाए तो इस फंड में व्याप्त अनियमितताओं का और भी 
खुलासा हो जाएगा।

जिला न्यायाधीशों के निदेशन वाली निगरानी समिति से ही अतिक्रमण मुक्ति



गया से लेकर दरभंगा तक प्रशासन ने शहर से अतिक्रमण मुक्ति अभियान चला रखा है।
यह पटना हाई कोर्ट की पहल का सुपरिणाम है जिसके आदेश से  पटना की सड़कों पर अब परिवत्र्तन नजर आ रहा है।
पर इस अतिक्रमण विरोधी अभियान को लेकर मुख्यतः दो सवाल लोगों के दिल- ओ -दिमाग में उठ रहे हैं।
एक  यह कि क्या पहले की तरह अतिक्रमणकारी दुबारा अतिक्रमण नहीं कर लेंगे ?
दूसरा सवाल यह है कि क्या पटना की तरह ही राज्य के अन्य शहरों के लोगों को  भी अतिक्रमण मुक्त माहौल में जीने का अवसर मिल सकेगा ?
 इस समस्या को लेकर एक पिछला उदाहरण मौजूं होगा।पटना हाई कोर्ट ने 1996 में बिहार बोर्ड की परीक्षा से कदाचार समाप्त करने का  ठोस उपाय किया था।
हाई कोर्ट ने जिलों में कदाचारमुक्त परीक्षा सुनिश्चित कराने के लिए जिला न्यायाधीशों को जिम्मेदारी सौंपी थी।
  उसका चमत्कारिक असर हुआ था।
उस साल की परीक्षा से कदाचार गायब था।
क्योंकि डी.एम.और एस.पी. जिला जज की सतर्कता के कारण कत्र्तव्यनिष्ठ बन जाने को मजबूर  थे।उन्होंने कदाचार नहीं होने दिया।
 नतीजतन उस साल मैट्रिक  बोर्ड परीक्षा में सिर्फ 12 दशमलव 61 प्रतिशत परीक्षार्थी ही पास हो सके थे।
इंटर परीक्षा का रिजल्ट भी 20 प्रतिशत से कम ही हुआ था।
यह और बात है कि स्वार्थी नेताओं और शिक्षा माफियाओं ने मिलकर अगले ही साल से दुबारा कदाचार शुरू करवा दिए।
नतीजतन 2001 में मैट्रिक में 76 दशमलव 59 प्रतिशत परीक्षार्थी पास हो गए।
उस अनुभव से लाभ उठाकर अतिक्रमण से लोगों को मुक्ति दिलाई जा सकती है।
यदि जिला जज की सदारत या निदेशन में हर जिले में निगरानी समिति बनाने का हाईकोर्ट आदेश दे और उसे स्थायी रूप दिया जा सके तो  अतिक्रमण मुक्ति का सुख स्थायी हो सकता है।
इसके लिए हाई कोर्ट से ऐसा करने की गुहार की जा सकती है। 
--पटना के विस्तार में अब होगी सुविधा--
जिस सड़क के निर्माण के लिए कम से कम 70 प्रतिशत जमीन का भी अधिग्रहण हो चुका है ,उस सड़क के निर्माण का काम अब शुरू हो सकेगा।
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार की पहल पर संबंधित केंद्रीय मंत्री
नितिन गडकरी ने इस पर अपनी सहमति दे दी है।
इससे पहले 90 प्रतिशत अधिग्रहण की बाध्यता थी।
अब इस कारण बिहार में कई रुकी हुई एन.एच. पर काम शुरू हो सकेगा।
उन सड़कों में पटना-कोइलवर एन.एच.महत्वपूर्ण है।
यह पटना जिले में पड़ता है।इसके लिए  जमीन अधिग्रहण की समस्या थी।
पर,अब इस पर काम शुरू हो सकेगा।
इस राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण हो जाने के बाद इसके किनारे उप नगर व उद्योग विकसित हो सकेंगे।
इससे पटना को महा नगर बनाने के काम में तेजी आएगी।
--अतिक्रमण हटाओ अभियान की तारीफ--
पटना में अतिक्रमण हटाओ अभियान चल रहा है।
लोगबाग इससे खुश हैं। पर अभी एक कमी देखी जा रही है।
पटना के कमिश्नर ने गत 18 अगस्त को ही एक खास आदेश दिया था।उनका आदेश था कि जहां से अतिक्रमण हटा दिए गए हैं,वहां दुबारा अतिक्रमण नहीं हो,इसके लिए ठोस उपाय किए जाएं।
यानी एक टीम गठित हो जो शाम पांच बजे से रात दस बजे तक पूरे शहर में घूम कर इस बात की निगरानी करे कि जहां से अतिक्रमण हटा दिए गए हैं,वहां दुबारा अतिक्रमण न हो।
 पर ऐसा कोई ‘धावा दल’ अभी नजर नहीं आ रहा है।नतीजतन इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि कई जगह दुबारा अतिक्रमण हो रहे हैं।हालंाकि वहां इक्के -दुक्के दुकानदार ही दुबारा अतिक्रमण  
कर रहे हैं।पर इक्के- दुक्के अतिक्रमण भी क्यों हो ?
 --ऐसे दी जाती है श्रद्धांजलि--
बुधवार को बिहार वाणिज्य व उद्योग मंडल के परिसर में  पूर्व अध्यक्ष युगेश्वर पांडेय की याद में श्रद्धांजलि सभा हुई।
वाणिज्य व उद्योग जगत के अनेक गणमान्य लोगों ने दिवंगत पांडेय जी को भावभीनी श्रद्धांजलि दी।
उनके गुणों और उपलब्धियों को याद किया।
यह भी कि किस तरह वे व्यक्तिगत व्यवहार में शालीन व स्नेहिल थे।
वे  वाणिज्य-उद्योग के विकास के लिए चिंतित रहते थे।किसी पर कोई संकट आ जाए तो आधी रात में भी वे मदद के लिए पहुंच जाते थे।
और उन्होंने  क्या- क्या किए।इस तरह की बातों से नई पीढ़ी को भी कुछ अच्छा करने की प्रेरणा मिल सकती है।
अब जरा कल्पना  कीजिए कि कहीं किसी दिवंगत राजनीतिक नेता को उनके जन्म दिन या पुण्य तिथि पर याद किया जा रहा हो।उस सभा में आज के अधिकतर मौजूदा नेता क्या -क्या बोलेंगे ?
 उस अवसर का इस्तेमाल वे अपना जातीय वोट बैंक बढ़ाने के लिए करेंगे।
वे जरूर बताएंगे कि आज उनकी जाति के लोगों को मान -सम्मान नहीं मिल रहा है।ऐसा कह कर वे उस जाति के लोगों की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश करंेगे।
इतना ही नहीं ,यदि जयंती डा.राजेंद्र प्रसाद की मनाई जा रही हो,तो खुद खैनी यानी तम्बाकू खाने वाला कोई नेता यह कह देगा कि ‘राजेन्द्र बाबू भी खैनी खाते थे।’
शायद ही यह कहेगा कि परीक्षार्थी राजेन्द्र बाबू के बारे में उनके परीक्षक ने लिखा था कि ‘परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक जानता है।’किस तरह उन्होंने आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए अपना अच्छा- खासा कैरियर छोड़ दिया।
 खैनी खाने का मामला एक बार उठा भी था।बाद में राजेन्द्र बाबू की पोती ने कहा कि राजेन्द्र बाबू ने जीवन में कभी खैनी  को छुआ भी नहीं। 
  --भूली बिसरी याद-- 
सत्तर के दशक की बात है।केंद्र और बिहार में जनता पार्टी की सरकारें थीं।
पटना में भोजपुरी सम्मेलन हो रहा था।
केंद्रीय मंत्री जग जीवन राम और बिहार के मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर मंच पर थे।
जग जीवन बाबू भोजपुरी में भी बहुत अच्छा भाषण करते थे।
उनके पास भोजपुरी शब्दों का अपार खजाना था।जगजीवन बाबू भोज पुरी भाषी जिले से आते थे। 
उस अवसर पर जग जीवन बाबू ने भोजपुरी इलाके की बोली में मर्दानगी और मिजाज में बहादुरी की विस्तार से चर्चा की।
 साथ ही, उन्होंने बिहार की कुछ अन्य बोलियों से भोजपुरी की तुलना भी  कर दी।
खुद कर्पूरी ठाकुर मैथिली भाषी क्षेत्र से आते थे।
मैथिली  मीठी भाषा है।
 कर्पूरी ठाकुर को ऐसी तुलना पसंद नहीं आई।
जब उनकी बारी आई तो उन्होंने कहा कि ‘यदि भोजपुरी लोगों में इतना ही दमखम है तो भोज पुरी भाषी ‘बाबू जी’ दिल्ली की सरकार में अपना थोड़ा दमखम दिखा कर इस गरीब इलाके को इसका वाजिब हक क्यों नहीं दिलवाते ?
जग जीवन राम को ‘बाबू जी’ कहा जाता था।
कर्पूरी ठाकुर मानते थे कि  बिहार के प्रति केंद्र के सौतेला व्यवहार के कारण ही बिहार पिछड़ा प्रदेश रहा गया है।
रेल भाड़ा समानीकरण नीति इसका सबसे बड़ा उदाहरण था।       --और अंत मंे--
2019 के लोक सभा चुनाव से पहले राजनीति के कौन मौसमी पक्षी कब कहां जाएंगे,यह कहना अभी कठिन है।
 क्योंकि  चुनाव की हवा अभी पूरी तरह बनी नहीं है।
दो- तीन महीनों में  बनेगी।
मौसमी पक्षी हवा का रुख तो तभी देख-पहचान सकेंगे जब हवा बने।
हालांकि  लोगों में उत्सुकता अभी से बहुत है।
उस उत्सुकता को शांत करने के लिए मीडिया उन पक्षियों के बारे में कुछ न कुछ सूचना देता  रहता  है।
पर अभी कई बार इस मामले में पूर्वानुमान गलत निकल जा रहा है।
इसलिए बेहतर है कि हवा बनने का इंतजार कीजिए।
पहले देखना होगा कि अगले महीनों में केंद्र सरकार के
कैसे - कैसे वोट खींचू निर्णय होते हैं।साथ ही, यह भी देखना होगा कि प्रतिपक्षी महा गठबंधन का अगला स्वरूप कैसा बनता है। कितना मजबूत या कमजोर बनता है।

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

 सरकारी आवास में अवैध तरीके से बने रहने का ऐसा तर्क 
आपने पहले कभी नहीं सुना होगा !
कोलकात्ता हाईकोर्ट के अवकाशप्राप्त जज सी.एस.कर्णन ने  हाल में यह कहा है कि ‘मैं सरकारी फ्लैट तब तक नहीं छोड़ूंगा जब तक उस फ्लैट से दिए गए मेरे आदेश का पालन नहीं होता।’
अब जानिए कि वह आदेश क्या था।
जब सेवारत थे तो कर्णन साहब ने अपने उसी फ्लैट को ‘काम चलाऊ’ कोर्ट का रूप देकर सुप्रीम कोर्ट के आठ न्यायाधीशों के खिलाफ आदेश पारित कर दिया था।
याद रहे कि हाईकोर्ट के जज को किसी भी स्थान को मेक शिफ्ट कोर्ट में परिणत करके सुनवाई करने का अधिकार है।
कई दशक पहले पटना हाई कोर्ट के जज ने बोरिंग रोड चैराहे पर कोर्ट लगा कर एक मंदिर के बारे में आदेश पारित कर दिया था।
  सुप्रीम कोर्ट  के आदेश से छह माह की सजा काट कर कर्णन साहब जेल से रिहा हुए हैं।खैर, कर्णन साहब तो कर्णन साहब ही हैं,पर ऐसे मामले में दिल्ली व पटना के अनेक बड़े नेताओं के बोगस तर्क सुने-पढ़े हैं।
 नेता तो नेता,कुछ पत्रकारों का भी यही हाल है जो पूरे समाज को उपदेश देते नहीं थकते !
कुछ दशक पहले दिल्ली के एक अत्यंत सम्मानित पत्रकार ने पद्मश्री तक लेने से इनकार कर दिया था। क्योंकि उस केंद्र सरकार की नीतियों से उनका मेल नहीं था।पर जब उन्हीं महाशय से सरकारी मकान खाली करने के लिए कहा गया तो वे अदालत पहुंच गए।अदालत से हार गए तभी मकान छोड़ा।
शहरी इलाके में सरकारी मकान का ऐसा लोभ होता है !
  
  

बुधवार, 29 अगस्त 2018

1.-आज के दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में  बिहार के सारण जिले से एक दर्दनाक  खबर छपी  है। इसुआ पुर प्रखंड के फेनहरा गांव की एक महिला ने आर्थिक तंगी से परेशान होकर बेटी के साथ जहर खा लिया।महिला की मौत हो गयी।बेटी मौत से जूझ रही है।
2.-हाल ही में आई ‘कैग’ की रपट के अनुसार 
  राजकीय उपक्रमों का सालाना घाटा 30 हजार करोड़ रुपए है।सवाल है कि ये पैसे यदि लूट में चले जाने से बच गए होते तो न जाने इस गरीब देश के कितने गरीबों को आत्म हत्या करने से बचाया जा सकता था !
3.-आज के ही अखबारों में यह खबर भी छपी है कि महाराष्ट्र पुलिस ने छह राज्यों में छापे मार कर कल पांच माओवाद समर्थकों को गिरफ्तार किया।
  याद रहे कि इस देश में माओवादियों का घोषित उद्देश्य यह है कि  हथियार के बल पर राजसत्ता पर कब्जा किया जाए ताकि  समतामूलक समाज बने ।यानी  कोई भूख से न मरे।
  पर सवाल है कि क्या उनके इस उद्देश्य की पूत्र्ति  उस तरीके से संभव है ?
उनकी मंशा को सही मान भी लिया जाए तो सवाल है कि क्या भारत 1917 का रूस और 1949 का चीन है ?
 4.-अराजकता फैला कर माओवादी इस देश में शायद ही कुछ हासिल  कर सकते हैं।
उन्हें सलाह दी जा रही है कि वे नेपाल के कम्युनिस्ट दलों से सीख कर चुनाव लड़ें ।यदि  जीत जाएं तो ईमानदारी से सरकार चलाएं।शायद यह संभव भी हो जाए !
क्योंकि इस देश में चुनाव लड़ने वाले अधिकतर राजनीतिक
नेता व कार्यकत्र्ता भटक चुके हैं।राजनीति में जो अच्छे लोग हैं वे भ्रष्टाचार के दानवों के सामने खुद को लाचार महसूस कर रहे हैं।यानी अच्छे व अहिंसक राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के लिए जगह खाली है। 
5.-माओवादी बनना तो चाहते हैं भगत सिंह ,पर जब पकड़े जाते हैं तो स्वीकार ही नहीं करते कि वे  कर क्या रहे थे।क्या भगत सिंह ने कभी कहा कि मैंने वह काम नहीं किया जिसके लिए मुझे फांसी दी जा रही है ?
यहां तक कि महात्मा गांधी भी जब कानून तोड़ते थे तो उसकी सजा भुगतने के लिए भी तैयार रहते थे।
पर आज के माओवादी और उनके समर्थक ? 
यदि स्वीकार करोगे तो सच्चा माने जाओगे।अन्यथा.........।

  इस देश के नेताओं और बुद्धिजीवियों के एक हिस्से के लिए
‘सनातन संस्था’ कोई समस्या नहीं है तो दूसरा हिस्सा इंडियन मुजाहिद्दीन और पी.एफ.आई.के प्रति नरम है।
    जिस तरह नेताओं की एक जमात सिर्फ अपने दल में ईमानदार खोजती है तो दूसरी जमात सिर्फ दूसरे दल में बेईमानों की उपस्थिति का प्रचार करती रहती है।

  
  

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

घोड़ा सबसे फर्तीला है,फिर भी शाकाहारी है,
हाथी सबसे भारी है, फिर भी शाकाहारी है।
गेंडा सबसे ताकतवर है,फिर भी शाकहारी है,
जिराफ सबसे ऊंचा है,फिर भी शाकाहारी है।
मानव बहुत कोमल है,फिर भी मांसाहारी है।
गत सौ साल में मेरे बाबू जी जैसा ताकत वाला मेरे 
परिवार में कोई नहीं हुआ जबकि वे शाकाहारी थे।

    

गांधी जी का भोजन
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एक लीटर बकरी का दूध
150 ग्राम अनाज
75 ग्राम पत्तेदार सब्जियां
125 ग्राम अन्य सब्जियां
25 ग्राम सलाद
40 ग्राम घी अथवा मक्खन
40-50 ग्राम गुड़ 
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कभी- कभी तो उनका भोजन फल और मूंगफली होता था।
कम ही लोग जानते होंगे कि मुर्गे के मांस से अधिक प्रोटीन मूंगफली में है।
---मेरे आग्रह पर मोरारजी देसाई ने मुझे अपनी आहार- सूची भेजी थी।पर,मुझसे एक गलती हो गयी।
उन दिनों फोटोकाॅपी का जमाना नहीं था।
मैंने उनकी ऐसी  कुछ  अन्य चिट्ठयों को मिला कर एक लेख बनाया और ‘आरोग्य’ पत्रिका के लिए गोरखपुर भेज दिया।वहां न तो लेख छपा और न सामग्री लौटी।उनका भोजन भी गांधी के भोजन से मिलता-जुलता था।मुझे पूरा याद नहीं।हालांकि वे स्वमूत्र पान भी करते थे।उसका वे बहुत लाभ बताते थे।  

सोमवार, 27 अगस्त 2018


उच्च शिक्षा में सुधार हुआ तो राज्यपाल का उपकार मानेगा  बिहार 
निवत्र्तमान राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने बिहार की अस्त- व्यस्त उच्च शिक्षा में सुधार की ठोस पहल शुरू कर दी थी।
इसी बीच उनका तबादला हो गया।उम्मीद है कि मौजूदा राज्यपाल सह विश्व विद्यालयों के चांसलर लाल जी टंडन उस काम को आगे बढ़ाएंगे। 
काम तो जरा कठिन है,पर यदि महामहिम उच्च शिक्षा को पटरी पर ला सके तो यह बिहार पर उनका  एक बड़ा उपकार माना जाएगा।
   उत्तर प्रदेश मूल के किसी हस्ती  के लिए इस बिहार राज्य की उच्च शिक्षा की दुर्दशा को समझना आसान है ।क्योंकि मिल रही सूचनाओं के अनुसार लगभग ऐसे ही हालात उत्तर प्रदेश के भी हैं।
 बिहार में भी  शिक्षण  और परीक्षा में  प्रामाणिकता कायम करने की सख्त जरूरत है।
 अनेक स्तरों पर शिक्षा माफिया सक्रिय हैं।उनको सही मुकाम पर पहुंचाने का काम कठिन है।हालांकि यह काम असंभव नहीं है।पर जो भी हो,उसे तो करना ही पड़ेगा ताकि अगली पीढि़यां 
हमंे दोष न दें।
चूंकि उच्च शिक्षा के मामले में चांसलर को अधिक अधिकार मिले हुए हैं,इसलिए उनका इस्तेमाल करके ही इसे सुधारा जा सकेगा।
 नये महा महिम से यह उम्मीद  की  जा रही है।
बिहार की उच्च शिक्षा की बर्बादी का एक पिछला नमूना पेश है। सन 2009 से 2013 तक देवानंद कुंवर बिहार के राज्यपाल सह चांसलर थे।
एक बार जब राज्यपाल कुंवर विधान मंडल  की संयुक्त बैठक को संबांधित करने पहुंचे तो कांग्रेस की एम.एल.सी.ज्योति ने उनसे सवाल कर दिया,‘आजकल वी.सी.की बहाली का क्या रेट चल रहा है आपके यहां ?’
  खैर, उस हालात से तो बिहार अब उबर चुका है,पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है।    
--शिक्षा माफिया की ताकत--
यह पक्की खबर है कि सत्यपाल मलिक को कश्मीर का राज्यपाल इसलिए बनाया गया क्योंकि वह इस पद के लिए 
सर्वाधिक योग्य व्यक्ति माने गये।
पूर्व राज्यपाल विद्या सागर राव,पूर्व केंद्रीय गृह सचिव राजीव महर्षि,सत्यपाल मलिक ,एडमिरल शेखर सिन्हा और भाजपा नेता अविनाश राय खन्ना में से किन्हीं एक को चुनना था।
उस कठिन तैनाती के लिए सबसे योग्य बिहार के राज्यपाल को माना गया।
 पर बिहार से उनके हटने को लेकर यहां एक अफवाह उड़ चली।वह यह कि शिक्षा माफिया ने उन्हें यहां से हटवा दिया।
यह बेसिरपैर की अफवाह है।
  पर,इस अफवाह के पीछे भी एक खबर है।वह यह कि लोगों में यह धारणा बनी हुई है कि शिक्षा माफिया इतने अधिक ताकतवर हैं कि वे अपने स्वार्थ में आकर किसी राज्यपाल का भी तबादला करवा सकते हैं।
 ऐसे में तो उन माफियाओं को उनके असली मुकाम तक पहुंचाने का काम और भी जरूरी है ताकि इस गरीब राज्य के छात्र-छात्राओं के लिए बेहतर शिक्षा की व्यवस्था की जा सके।
 अब तक जो खबरें मिलती रही हैं ,उनके अनुसार शिक्षा माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई में मुख्य मंत्री नीतीश कुमार हमेशा चांसलर  का सहयोग करते आए हैं।इसलिए लगता है कि नये महा महिम को शिक्षा में सुधार का श्रेय मिलने ही वाला है।
वैसे भी जो माफिया तत्व आम जन का जितना अधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं,उनसे लड़ने की जरूरत उतनी अधिक महसूस की जानी चाहिए।
--वी.आर.एस.जरूरी या मरीजों की सेवा--
गरीब मरीजों की सेवा अधिक जरूरी है या डाक्टरों की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ?
हाल में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह सवाल उठा था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि सभी चिकित्सकों को स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति की सुविधा दे दी जाए तो सरकारी स्वास्थ्य सेवा ध्वस्त हो जाएगी।
  इससे पहले उत्तर प्रदेश के कुछ सरकारी डाक्टरों ने 
स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति के लिए आवेदन पत्र दिए थे।राज्य सरकार ने उन्हें नामंजूर कर दिया।
डाक्टर इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचे।अदालत ने सन 2017 में डाक्टरों के पक्ष में निर्णय किया।पर जब राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी तो सबसे बड़ी अदालत ने राज्य सरकार के कदम को सही बताया।
दरअसल इस मामले में डाक्टरों की भी कुछ बातें सही हैं।
सरकार  अपने  डाक्टरों को भरपूर ढांचागत
सुविधा नहीं देती।न तो काम करने का उचित माहौल रहता है और न ही समुचित मात्रा में मेडिकल औजार की आपूत्र्ति होती है।नतीजतन कई बार इलाज मंे किसी तरह की कमी का खामियाजा स्थल पर मौजूद डाक्टरों को भुगतना पड़ता है।
हालांकि डाक्टरों के खिलाफ जन रोष  के सिर्फ यही कारण नहीं हैं।पर इन्हें तो हल होने ही चाहिए।
यह समस्या सिर्फ उत्तर प्रदेश की ही नहीं है।यह समस्या बिहार सहित अन्य राज्यों की भी है।इसकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।  
--तमिलनाडु की जेलों में भेजे जाएं बिहार के अपराधी-- 
क्या बिहार के  कुख्यात अपराधियों को तमिलनाडु या केरल 
की  जेलों में स्थानांतरित नहीं किया जा सकता है ?
उनके बदले उन राज्यों के कुख्यात अपराधी बिहार की  जेलों में लाए जा सकते हैं।
  बिहार के अपराधी जेल से ही अपराध करवा रहे हैं।
मोबाइल के जरिए या फिर मुलाकातियों की मदद से।
यदि वे तमिलनाडु में रहेंगे तो उन्हें भाषा की दिक्कत आएगी।
वहां के जेल सुरक्षाकर्मियों से बातचीत कर अपने लिए अवैध सुविधाएं हासिल नहीं कर पाएंगे।
अवैध सुविधाओं में मोबाइल की सुविधा प्रमुख है।
यदि मोबाइल की सुविधा मिल भी जाए तो वे यहां की जेलों में जिस तरह ऐश करते हैं,वहां न कर सकेंगे।
यही हाल केरल-तमलिनाडु के अपराधियों का बिहार के जेलों में होगा।वे बिहार के जेल कर्मियों की भाषा नहीं समझ सकेंगे।
विडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए इनकी अदालती सुनवाई तो हो ही सकती है।
यह प्रयोग किया जा सकता है।
---भूली बिसरी याद--
सन् 1934 में बिहार के भूकम्प के असर के बारे में जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था कि ‘ दैत्य ने जैसे बिहार को मरोड़ दिया हो !’
अपनी बिहार यात्रा के बारे में नेहरू ने लिखा कि लौटते हुए ‘हम राजेंद्र बाबू के साथ भूकम्प पीडि़तों की सहायता के सवाल पर विचार के लिए पटना ठहरे।
वह अभी जेल से छूट कर ही आए थे और लाजिमी तौर पर उन्होंने पीडि़तों की सहायता के गैर सरकारी काम में सबसे आगे कदम रखा।
कमला के भाई के जिस मकान में हम ठहरना चाहते थे,वह खंडहर हो गया था।हम लोग खुले में ठहरे।
दूसरे दिन मुजफ्फर पुर गया।
इमारतों के खंडहरों का दृश्य बड़ा मार्मिक और रोमांचकारी था।जो लोग बच गए थे,वे अपने दिल दहलाने वाले अनुभवों के कारण बिलकुल घबराए हुए और भयभीत हो रहे थे।
ऐन भूकम्प के मौके पर एक बच्ची पैदा हुई।उनके अनुभवहीन माता -पिता को यह न सूझा कि क्या करना चाहिए और वे पागल से हो गए।
मगर मैंने सुना कि मां और बच्ची दोनों की जान बच गयी।भूकम्प की यादगार में बच्ची का नाम ‘कंपो देवी’ रखा गया।
जब हमने मुंगेर की अत्यंत विनाशपूर्ण हालत देखी तो 
उसकी भयंकरता से हमारा दम बैठ गया।
हमें कंपकपी आने लगी।मैं उस महा भयंकर दृश्य को कभी भूल नहीं सकता। ’
  ---और अंत मंें--
अटल बिहारी वाजपेयी 1977-79 में मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल के सदस्य थे।
विदेश मंत्री थे।
पर सत्ताधारी जनता पार्टी यह चाहती थी कि अटल जी सरकार को छोड़कर पार्टी का काम करें।
उनके सौम्य स्वभाव और बेजोड़ वक्ता होने का लाभ पार्टी उठाना चाहती थी।
पर 1978 की  जुलाई में जनता पार्टी संसदीय दल के महा सचिव दिग्विजय नारायण सिंह ने घोषणा कर दी कि प्रधान मंत्री, अटल जी को पार्टी के काम के लिए मुक्त करने के पक्ष में नहीं हैं।
 दरअसल विदेश मंत्री के रूप में भी अटल जी इतने व्यस्त रहते थे कि उन दिनों एक बार किसी प्रतिपक्षी नेता ने विनोद पूर्ण ढंग से कहा था कि ‘अटल बिहारी वाजपेयी इन दिनों भारत के दौरे पर आए हैं ।’ 
@24 अगस्त, 2018 को प्रभात खबर-बिहार मंे प्रकाशित मेरा काॅलम कानोंकान से@ 


अटल बिहारी वाजपेयी 1977-79 में मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल के सदस्य थे।
विदेश मंत्री थे।
पर सत्ताधारी जनता पार्टी यह चाहती थी कि अटल जी सरकार को छोड़कर पार्टी का काम करें।
उनके सौम्य स्वभाव और बेजोड़ वक्ता होने का लाभ पार्टी उठाना चाहती थी।
पर 1978 की  जुलाई में जनता पार्टी संसदीय दल के महा सचिव दिग्विजय नारायण सिंह ने घोषणा कर दी कि प्रधान मंत्री, अटल जी को पार्टी के काम के लिए मुक्त करने के पक्ष में नहीं हैं।
 दरअसल विदेश मंत्री के रूप में भी अटल जी इतने व्यस्त रहते थे कि उन दिनों एक बार किसी प्रतिपक्षी नेता ने विनोद पूर्ण ढंग से कहा था कि ‘अटल बिहारी वाजपेयी इन दिनों भारत के दौरे पर आए हैं ।’ 



प्रमोद जी ,अटल जी का आपरेशन किसी इजरायली ने नहीं बल्कि भारतीय मूल के अमरीकी डाक्टर चितरंजन सिंह राणावत ने किया था।
नयी दिल्ली के एम्स ने जब उन्हें अपने यहां बहाली के लिए योग्य नहीं समझा तो ही वे अमरीका  गए ।वहां के वे मशहूर अर्थोपेडिक सर्जन हुए।अपने देश में  बहाली के लिए कई बार सिर्फ प्रतिभा ही नहीं देखी जाती है । 
डा.राणावत का  इजरायल से कोई संबंध नहीं था।
संबंध था तो मेवाड़ के राजवंश से।
  जहां तक रंजन भट्टाचार्य का सवाल है,उनके बारे में कौन नहीं जानता ? संडे पत्रिका ने तो उन पर उठे विवादों पर कवर स्टोरी तक छापी थी जब अटल जी प्रधान मंत्री थे।

  पटना के उप नगर खगौल की एक अतिक्रमित सड़क
के बारे में मैं लिखने ही वाला था कि पटना हाई कोर्ट के 
मुख्य न्यायाधीश एम.आर.शाह की एक वाजिब टिप्पणी आज पढ़ने को मिल गयी।
उन्होंने कल सवाल किया था कि पटना के कदम कुआं की ठाकुर बाड़ी रोड कागज पर तो 35 फीट है,पर वास्तव में अब मात्र 5 फीट रह गयी है।क्या कर रहा है पटना नगर निगम ?
अब जब मध्य पटना का यह हाल है तो मैं अपने उपेक्षित खगौल का रोना क्या रोऊं ? यहां तो  मोती चैक-दाना पुर स्टेशन रोड की चैड़ाई फिर भी  सात-आठ फीट बची हुई है। अतिक्रमणकारियों ने दया करके उतना छोड़ दिया है।
हां,उस सड़क से कार व मोटर साइकिल जब तेजी से दौड़ती है तो अपनी जान बचाने की जिम्मेदारी पैदल यात्रियों की है।अन्य किसी की नहीं।खुदा खैर करे !

अखिलेश जी, मैं आपका आभारी हूं कि आपने मुझे ‘सीधा’ कहा।हालांकि ‘सरल’ कहते  तो और भी खुशी होती।
सीधा का ढीला -ढाला अर्थ थोड़ा- थोड़ा मूर्ख और कुछ -कुछ अनजान भी होता है।
 खैर, मैंने भारत सहित दुनिया भर के कई बड़े नेताओं के दोहरे चरित्र के बारे में जाना-पढ़ा है।
 महात्मा गांधी पर दया शंकर शुक्ल सागर की आप किताब पढ़ेंगे तो अटल जी इस मामले में आपको बहुत अच्छे लगेंगे।
  एक चीनी कहावत है-‘हर महा पुरूष एक सामाजिक संकट है।’
खुद माओ भी ऐसे ही थे जिन पर मैंने बी.बी.सी.की डाक्युमेंटरी देखी थी।पर माओ सिर्फ वही नहीं थे।वे चीन के मुक्तिदाता भी थे।
इस देश के अनेक बड़े नेताओं के विवादास्पद ‘निजी जीवन’ के बारे में मैं जानता हूं।आपने जिस बेटी -दामाद की चर्चा की है,उस पर इंडियन एक्सप्रेस पूरा एक पेज छाप चुका है।
  दरअसल नेताओं को मैं इस कसौटी पर कसता हूं कि किस नेता ने इस देश का अपेक्षाकृत कम नुकसान किया।
अधिकतर जनता भी इसी बात को ध्यान में रख कर वोट देती है।इसीलिए तो आज भाजपा पावर  में है।
 कुछ लोग विचार धारा को मुख्य आधार मानते हैं चाहे उस विचारधारा का नेता कितना बड़ा लुटेरा और देशद्रोही क्यों न हो ।मैं इससे सहमत नहीं हूं।
किसी भी पार्टी का राजनीतिक कार्यकत्र्ता बन कर दसियों साल तक कष्ट झेलना कोई आसान काम नहीं है।
खुद मैं दस साल तक राजनीतिक कार्यकत्र्ता था।
पर, उसमें रह नहीं सका।मैं भाग चला।
सामान्यतः कोई पिता नहीं चाहता कि उसका बेटा राजनीतिक कार्यकत्र्ता बने।
ऐसे में राजनीति मंे तरह -तरह के लोग पहुंच जाते हैं।लोकतंत्र के जरिए ही इस देश को चलाना है तो उन्हीं में से किसी को प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री बनना है।उससे पहले चुनाव में भी कई अच्छे -बुरे तत्व काम करते हैं।
हालांकि बहुत सारी चीजों को देखने और अनुभव करने के बाद अधिकतर लोगों की यह राय बनती है कि  राजनीति में जो अपेक्षाकृत बेहतर  हैं,उन्हें स्वीकार कर लिया जाए ताकि देश के खजानों  और सीमाओं की रक्षा हो सके।
   हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार  किसी के निधन के कुछ महीनों तक उसके बारे में अच्छी -अच्छी बातें ही कही जाती हैं।
बाद में तो चीर फाड़ होती रहती है।
आजादी की लड़ाई के अनेक शीर्ष
नेताओं के सेक्स संबंधों और अन्य तरह के भ्रष्टाचारों के बारे में अनेक किताबें छप चुकी हैं।पर उनका यह श्रेय तो है कि उन्होंने हमें आजादी दिलाई।
ऐसी बुराइयां सिर्फ किसी एक जाति व विचारधारा वाले नेताओं तक ही सीमित नहीं है।
अपवादों की बात अलग है।


डा.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि 
‘लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर,पर मेरे मरने के बाद।’
   पर मुलायम सिंह यादव ने डा.लोहिया को गलत ढंग से उधृत करते हुए कह दिया कि ‘लोहिया भी कहा करते थे कि इस देश में जिन्दा रहते कोई सम्मान नहीं करता।’
 याद रहे कि सम्मान करने और बातें सुनने में अंतर है।
मुलायम सिंह यादव ने कल कहा कि ‘आज मेरा कोई सम्मान नहीं करता।’
इससे पहले भी मुलायम जी ऐसी बातें कह चुके हैं।
 दरअसल एक कहावत है कि ‘इज्जत कमाई जाती है,मांगी नहीं जाती।’
  इस बात को इस देश के नेता कब समझेंगे ?
इस मामले में बेचारे मुलायम जी अकेले नहीं हैं।
मुलायम जी साफ दिल के व्यक्ति हैं,वे बोल देते हैं।अन्य अनेक नेता भी इज्जत कमाने के बदले मांगते रहते हैं।
बिना कमाए मिलेगा कैसे ? 

रविवार, 26 अगस्त 2018

  पटना के उप नगर खगौल की एक अतिक्रमित सड़क
के बारे में मैं लिखने ही वाला था कि पटना हाई कोर्ट के 
मुख्य न्यायाधीश एम.आर.शाह की एक वाजिब टिप्पणी आज पढ़ने को मिल गयी।
उन्होंने कल सवाल किया था कि पटना के कदम कुआं की ठाकुर बाड़ी रोड कागज पर तो 35 फीट है,पर वास्तव में अब मात्र 5 फीट रह गयी है।क्या कर रहा है पटना नगर निगम ?
अब जब मध्य पटना का यह हाल है तो मैं अपने उपेक्षित खगौल का रोना क्या रोऊं ? यहां तो  मोती चैक-दाना पुर स्टेशन रोड की चैड़ाई फिर भी  सात-आठ फीट बची हुई है। अतिक्रमणकारियों ने दया करके उतना छोड़ दिया है।
हां,उस सड़क से कार व मोटर साइकिल जब तेजी से दौड़ती है तो अपनी जान बचाने की जिम्मेदारी पैदल यात्रियों की है।अन्य किसी की नहीं।खुदा खैर करे !

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

अस्सी के दशक की बात है।
कुलदीप नैयर इंडियन एक्सप्रेस के पटना ब्यूरो आॅफिस आए थे।
वे ब्यूरो प्रमुख कृपाकरण से बातचीत कर रहे थे।
जनसत्ता संवाददाता के रूप में मैं तब तक एक्सप्रेस ग्रूप ज्वाइन कर चुका था।
वहां बातचीत में मैं भी शामिल था।
नैयर साहब का जेपी से विशेष लगाव रहा था।
कुलदीप नैयर को आपातकाल में गिरफ्तार भी किया गया था।
1979 में जेपी का निधन हो चुका था।1980 में कांग्रेस की बिहार की सत्ता में भी वापसी हो चुकी थी।
कुलदीप नैयर बिहार की स्थिति से खिन्न लग रहे थे।वे कह रहे थे कि क्या इसी दिन के लिए जेपी ने यहां इतना बड़ा आंदोलन किया था ?
नैयर साहब चाहते थे कि आंदोलन की उर्वर भूमि बिहार से एक बार फिर जन आंदोलन शुरू हो।
उनकी बातों से लगा कि वे बिहार आकर खुद उस आंदोलन को नेतृत्व देने को तैयार थे।
जन सरोकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता देख कर मुझे तब सुखद आश्चर्य हुआ था।
  उनकी  एक किताब है ‘एक जिन्दगी काफी नहीं।’
पर उनके कामों को देख कर लगता है कि उन्होंने जितने काम किए,उतने शायद कई जिन्दगियां मिल कर भी न कर सकें।

बुधवार, 22 अगस्त 2018

आज के दैनिक जागरण में कुलदीप नैयर ने लिखा है कि 
‘विभाजन के समय के बड़े नेता फखरूद्दीन अली अहमद ने 
एक बार स्वीकार किया था कि ‘वोट के लिए’ पूर्वी पाकिस्तान से,जो अब बंाग्ला देश है,मुसलमान लाए गए थे।उन्होंने यह भी कहा था कि कांग्रेस ने यह जानबूझ कर यह किया क्योंकि वह असम को अपने साथ रखना चाहती थी।
 इसने राज्य के लोगों के समक्ष गंभीर समस्या पैदा कर दी।’ 
      

मंगलवार, 21 अगस्त 2018

इन दिनों चारों तरफ नफरत का तेजाबी जहर फैला हुआ है।
कोई भी पक्ष विवेकपूर्ण बातें सुनने को तैयार नहीं लगता है। 2019 के लोस चुनाव तक ऐसा ही रहने की आशंका है।इसलिए कुछ लोगों से दोस्ती व अपनी प्रतिष्ठा बचानी है तो बेहतर यह है कि खास मुद्दे पर कोई पोस्ट न लिखा जाए।

  इस महीने दिल्ली में अतिवादियों ने स्वामी अग्निवेश पर और मोतिहारी प्रो.संजय कुमार पर हमले किए।
दरअसल जिनके पास अपने विरोधियों को तर्क में पराजित कर देने की ताकत नहीं होती ,वे ही हिंसक कार्रवाइयां करते हैं।ऐसी हिंसा निन्दनीय हैं।
  इससे पीडि़तों के प्रति लोगों की सहानुभूति बढ़ती है, भले वे सहानुभति के लायक हों या नहीं।
इसलिए हिंसा को अंततः हमेशा  घाटे का सौदा ही माना जाता है।   
  

सोमवार, 20 अगस्त 2018

 सामाजिक जीवन में कुछ रिटायर लोग यह 
शिकायत करते  हंै कि हमारे मित्र मेरे यहां नहीं 
आते।
जब हम ‘पावर’ वाली कुर्सी पर थे तो बहुत लोग आते थे।
 यह शिकायत व्यापक है। इसके कई कारण हो सकते हैं।
एक कारण मुझे समझ में आ रहा है जिसकी ओर शिकायत करने वाले का ध्यान शायद नहीं गया होगा।
  आपके यहां जब लोग आया करते थे तो आपका व्यवहार उनके प्रति कैसा रहता था ?
 क्या तब उनके सामने आप सिर्फ अपनी ही बातें बोलते रहते थे ? या, उन्हें भी कुछ कहने का मौका देते थे ?
क्या आपने कभी सामने वाले के अच्छे गुणों की भी सराहना की ?
कभी उसने अपनी बात कहने की कोशिश की तो आपने अधिक जानकारी के लिए उनसे कोई पूरक प्रश्न पूछा ?
या उनकी बात बीच में ही काट दी ?
क्या आपने उनके परिवार-बाल बच्चों के  हालचाल पूूछे ?
शायद इन प्रश्नों के जवाब ना में ही हांेगे।
आप खुद कितने रिटायर मित्रों के यहां जाते हैं ?
फिर आपका एकालाप सुनने आप के यहां कोई क्यों आएगा ?



अत्यंत जानकार व समझदार फेसबुक मित्र महेश लालदास ने मुझसे एक सवाल किया है।‘अटल और नेहरू के बीच समता -विषमता के दस बिन्दु क्या होंगे आपके विचार से ?’
एक बात तो मुझे तत्काल ध्यान में आती है।वह यह कि 
व्यक्तिगत स्तर पर रुपए-पैसे के मामले में दोनों नेता खुद अत्यंत ईमानदार थे।फिर भी वे  शासन में  भ्रष्टाचार के प्रति सहनशील थे ।यह  देश के लिए अच्छा साबित नहीं हुआ।
काश ! बात इससे उलट होती ।

रविवार, 19 अगस्त 2018

अटल बिहारी वाजपेयी बोलते कम और सुनते अधिक 
थे।उनकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी था।
किसी ने ठीक ही कहा था कि ‘ईश्वर ने जानबूझकर एक ही मुंह पर दो  कान दिए हैं।’
 यदि किसी बड़े नेता के पास कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह जाता है तो  अपनी बात उनसे कह कर हल्का महसूस करता है।यदि नेता उनकी पूरी बात सुन ले तो  खुद को गौरवान्वित भी महसूस करता है।
  इससे उलट मिलने गए लोगों के सामने कोई नेता सिर्फ
अपना ही गीत गाता रहे तो लोग ऊबते हैं।पर, इससे भी आगे मैं कुछ ऐसे नेताओं को भी जानता रहा हूं जो मुलाकातियों व कार्यकत्र्ताओं को डांटने -फटकारने और रोब झाड़ने में ही अपनी शान समझते रहे।ऐसा व्यवहार उल्टा पड़ता है।
   

शनिवार, 18 अगस्त 2018

 कई दशक पहले एक बार मैंने पत्रकार रवि अटल से पूछा था कि आपके नाम के साथ अटल शब्द क्यों है ? उन्होंने कहा कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रभाव में आकर मैंने रवि के साथ अटल जोड़ लिया।
 रवि अटल जेपी आंदोलन के समय बिहार के स्कूली छात्रों के नेता थे।
  साठ के दशक में सुरेश प्रसाद सिंह ने अपना नाम सुरेश शेखर रख लिया था।वे तब के युवा तुर्क चंद्र शेखर से प्रभावित थे।
सुरेश प्रसाद सिंह ने 1966 में पूरे बिहार में मैट्रिक में टाॅप किया था।साइंस कालेज के विद्यार्थी थे और नीतीश कुमार के दोस्त भी।अब सुरेश नहीं रहे।
ऐसे और भी उदाहरण होंगे।
यानी एक समय था जब कुछ युवा उन नेताओं के नाम अपने नाम के साथ जोड़ लेते थे जिनसे वे प्रभावित होते थे।
शायद आज भी ऐसा करते होंगे,पर मुझे नहीं मालूम।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

भीड़ जुटाने के लिए अटल जी का सिर्फ नाम ही काफी था



अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि ‘ये फिल्मी अभिनेता सभा मंच की गरिमा को नष्ट कर देते हैं।’
नब्बे के दशक बात है।पटना के गांधी मैदान में भाजपा की जन सभा थी।
जाहिर है कि मुख्य वक्ता अटल बिहारी वाजपेयी थे।
भाजपा से जुड़े  एक  फिल्म अभिनेता मंच पर पहुंचे।
उनसे पहले अटल जी मंच पर बैठ चुके थे।
अटल जी की उपस्थिति की परवाह किए बिना अभिनेता मंच के अगले हिस्से की खाली जगह में चहल कदमी करने  लगे।मंच के एक सिरे  से दूसरे सिरे  तक पहुंच कर हाथ हिला -हिला कर उपस्थित भीड़ से मुखातिब होते रहे।
  इस क्रम में मंच का अनुशासन बिगड़ गया।
शालीन अटल बिहारी जी चुपचाप यह दृश्य देखते रहे।कुछ नहीं बोले।पर उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। 
सभा की समाप्ति के बाद अटल जी ने राज्य के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री लाल मुनी चैबे से सिर्फ इतना ही कहा कि ‘ये फिल्मी अभिनेता मंच की गरिमा को नष्ट कर देते हैं।’
दरअसल कहीं किसी सभा में भीड़ जुटाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी जी को किसी फिल्मी अभिनेता की जरूरत नहीं होती थी।
जो लोग उनकी विचार धारा से सहमत न भी थे,उन में से भी अनेक लोग बिना बुलाए अटल जी को सुनने सभा स्थल पर पहुंच जाते थे।
 --अटल, आमलेट और आंदोलनकारी--  
 बात 1974 की है।उस साल 4 नवंबर को जय प्रकाश नारायण पर पटना में लाठी चली थी।सी.आर.पी.एफ.की उस लाठी को रोकने के क्रम में नानाजी देशमुख की बांह टूट गयी थी।
नाना जी के अलावा भी उस दिन कई अन्य जेपी आंदोलनकारी भी घायल होकर पी.एम.सी.एच.पहुंचे थे।
बाद में अटल बिहारी वाजपेयी नाना जी को देखने दिल्ली से पटना आए।
मैं भी एक पत्रिका के संवाददाता के रूप में लगभग रोज ही राजेन्द्र सर्जिकल वार्ड में जाया करता था। 
उस दिन अटल जी अस्पताल के किचेन में चले गए।
वे लगे आॅमलेट बनाने ।नाना जी के साथ मेरे अलावा कुछ आंदोलनकारी भी बैठे थे।
मना करने के बावजूद अटल जी ने बारीे-बारी  से सबके लिए आॅमलेट खुद अपने हाथों से बनाया।उतने बड़े नेता के हाथ से बना आॅमलेट खाकर हमलोग गदगद थे।
आमलेट प्रकरण ही नहीं ,बल्कि अटल जी का पूरा व्यक्तित्व,हाव भाव और बातचीत  का शालीन लहजा लोगों को गदगद कर देता था। 
--ऐसे बन सकता है पटना रहने लायक--
ताजा आकलन के अनुसार बसने योग्य शहरों में पटना 
का इस देश में 109 वां स्थान है।कुछ अन्य समस्याओं के साथ -साथ पटना में वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या बनी हुई है।
  इसके कई कारण हैं।मुख्य पटना के छोटे क्षेत्रफल में आबादी का घनत्व बहुत अधिक है।
कचहरी, अस्पताल ,विश्व विद्यालय सभा स्थल और कई छोटे -बड़े संस्थान आसपास ही हैं।
  इससे लोगों की आवाजाही बढ़ी रहती है। बाहर से भी 
कामकाज के लिए हर रोज लोग पटना आते हैं।फिर उसी दिन लौट जाते हैं।सड़कों के दोनों किनारों पर भारी अतिक्रमण के कारण अक्सर जाम कव नजारा रहता है।धुआं उड़ाते वाहन देर तक सड़कों पर खड़े रहने को मजबूर रहते हैं।
हाल में शासन ने बड़ी-बड़ी बसें चलवानी शुरू की हैं।इससे
देर- सवेर छोटे -छोटे वाहनों की संख्या कम होंगी जो वायु प्रदूषण के बड़े स्त्रोत हैं।
पर इसके साथ ही कुछ अन्य ठोस उपाय करने होंगे।
शहर के बीच के उद्योगों को बाहर भिजवाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना होगा।
जिन पुराने वाहनों खास कर आॅटो रिक्शे से मोटे -मोटे काले धुएं निकलते रहते हैं,उन्हें सड़कों से निकाल बाहर करना होगा।जो ड्रायवर किरोसिन से 
आॅटो रिक्शा चलाता है,उसे सीधे जेल भेजने का कानूनी प्रावधान होना चाहिए।
इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि वायु और जल प्रदूषण के कारण 2015 में भारत में 25 लाख लोगों की जानें गयी थीं।बिहार में एक -तिहाई मृत्यु प्रदूषण के कारण ही होती है।राष्ट्रीय औसत लगभग एक चैथाई है।
गृह निर्माण आदि के कारण उड़ते धूल कण को नियंत्रित करने का बिल्डर्स प्रबंध करें।
सड़क बनाने के लिए कम से कम मझोले साइज के वृक्षों की कटाई न हो।
क्योंकि उन्हें सुरक्षित ढंग से स्थानांतरित करने के लिए  मशीन 
अब उपलब्ध हंै।खुले में कचरा न जलाने दिया जाए।इसके साथ ही कुछ अन्य उपाय भी करने होंगे।उनसे शायद पटना रहने लायक नगर बन सके।  
 ---भूली-बिसरी याद---
सन 1971 में निर्धारित समय से एक साल पहले ही लोक सभा चुनाव करा देने के कारण ही विधान सभा और लोक सभा के चुनाव अलग -अलग होने लगे हैं।
1952 से 1967 तक चुनाव एक ही साथ हुए थे।सन 1971 में हुए मध्यावधि चुनाव पर  कुछ विदेशी अखबारों की टिप्पणियां पढ़ना रूचिकर होगा।
दरअसल उस चुनाव को लेकर पूरी दुनिया में भारी उत्सुकता थी।विदेशी मीडिया में इस बात को लेकर अनुमान लगाए जा रहे थे कि पता नहीं भारत इस चुनाव के बाद किधर जाएगा।उन दिनों दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के दो ध्रुवों के बीच बंटी हुई थी।शीत युद्ध का दौर था।
ब्रितानी अखबार ‘न्यू स्टेट्समैन’ ने तब लिखा कि ‘हिम्मत से किंतु शांतिपूर्वक श्रीमती इंदिरा गांधी ने लोक सभा भंग कर दी।भारत में यह पहली बार हुआ है।सत्ताच्युत होने का खतरा न होते हुए भी उनकी सरकार को बहुमत प्राप्त नहीं था।  इस स्थिति में वह असंतुष्ट थीं।लगातार चैथी बार अच्छी वर्षा होने के बावजूद कुछ आर्थिक विवशताएं भी थीं।......अब तक के तमाम चुनावों के मुद्दे बहुत ही अस्पष्ट रहे और चुनाव घोषणा पत्रों का उद्देश्य सबको खुश करना रहा है।इस बार स्थिति भिन्न होगी।समान मुद्दों की तह में कुछ ठोस मुद्दे होंगे जो कुछ दलों को वामपंथी और कुछ को दक्षिणपंथी सिद्ध करेंगे।’
अमेरिकी अखबार ‘क्रिश्चेन सायंस माॅनिटर’ ने लिखा कि ‘श्रीमती गांधी एक साल से अधिक अर्सा पूर्व कांग्रेस विभाजन के बाद से अल्पमत की सरकार का नेतृत्व कर रही हैं।संसद में कोई भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराने से पहले उन्हें परंपरावादी मास्को समर्थक कम्युनिस्ट पार्टी और क्षेत्रीय राजनीतिक गुटों का समर्थन प्राप्त करना पड़ता था।इसी असंतोषकारी स्थिति से तंग आकर प्रधान मंत्री कई हफ्तों तक सोचती रहीं कि चुनाव कराया जाए या नहीं।सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से कि पूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों को खत्म करने का उनका निर्णय गैर संवैधानिक है,श्रीमती गांधी की सोच खत्म हो गई।’
  ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने लिखा कि ‘वत्र्तमान भारतीय राजनीति की एक विडंबना यह है कि नई दिल्ली द्वारा बहु प्रचाारित ‘हरित क्रांति’ वास्तव में उन ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष फैला रही है,जहां इसने सामाजिक और आर्थिक विषमता को बढ़ावा दिया है।श्रीमती गांधी की सधी हुई राजनीतिक चालें अब तक तो प्रतिपक्ष को डगमगाती रही है।लेकिन उनके विरोध में संगठित होने का प्रतिपक्ष का हौसला भी बढ़ता रहा है।यदि श्रीमती गांधी का पासा सही गिरा तो भारत अधिक परिपुष्ट राजनीतिक स्थायित्व और संयत वामपंथी सत्ता के अधीन अधिक गतिशील विकास के नये युग में प्रवेश करेगा।अगर नई कांग्रेस आगामी चुनाव में यथेष्ट बहुमत प्राप्त न कर सकी तो भारतीय राजनीति की वत्र्तमान विभाजक प्रवृतियां इस उप महाद्वीप के लिए भारी खतरा उत्पन्न करेगी।’    
--और अंत में--
एक महत्वपूर्ण व्यक्ति एक बड़े दल के शीर्ष नेता के पास गए।उन्होंने कहा कि मैं जन सेवा के लिए आपकी पार्टी ज्वाइन करना चाहता हूं।
शीर्ष नेता ने कहा कि वह तो ठीक है,पर यह तो बताइए कि आप किस क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहेंगे  ?
उस व्यक्ति ने एक खास क्षेत्र का नाम बताया। नेता ने कहा कि उस  क्षेत्र का उम्मीदवार पहले से तय है।
आप दूसरे दल  में जाकर सेवा कीजिए।
वे चले गए।
पास बैठे व्यक्ति ने कहा कि आपने इसको क्यों बिदा कर दिया ?पैसे वाला है।आपके काम का साबित होता।
नेता ने कहा कि यदि अभी बात साफ नहीं हो जाती तो चुनाव के समय यह पार्टी छोड़ता।मेरे और हमारे दल के खिलाफ कुछ गंदी बातें भी बोलता ।उससे हमें जो नुकसान होता ,उससे तो हम बच गए। 
@ 17 अगस्त 2018 के प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरा काॅलम कानोंकान से@   

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

इस महीने पटना एम्स में जब इमरजेंसी सेवा और ट्रोमा सेंटर की शुरूआत हो गयी तो मुझे पटना हाई कोर्ट के दिवंगत वकील एम.पी.गुप्त याद आए।
 उनकी ही लोकहित याचिका के कारण ही यह एम्स बन सका अन्यथा मन मोहन सरकार ने तो इसे ठंडे बस्ते में ही डाल दिया था।
 लगता है कि मन मोहन सरकार को इस बात से चिढ़ थी अटल सरकार ने प्रस्तावित पटना एम्स के साथ  जय प्रकाश नारायण का नाम जोड़ने का निर्णय क्यों किया ?  
अदालती दबाव में भले बाद में मन मोहन सरकार ने एम्स का निर्माण शुरू कराया,पर जंेपी का नाम उससे निकाल ही दिया।
हालांकि शिलान्यास के बाद स्थल पर उनके नाम का बोर्ड लग चुका था।
खैर जो हो ,अब पटना एम्स बेहतर ढंग से  काम करने लगा।हालांकि अभी इसका विस्तार जारी है।फिलहाल बेड की संख्या 600 है। आपरेशन थियेटर की संख्या 13 हो गयी है।ट्रामा सेंटर में 60 और इमरजेंसी में 24 बेड हैं।
37 विभाग शुरू हो चुके हैं। 117 चिकित्सक कार्यरत हैं।
यहां 2016 से ही ओपीडी कार्यरत है।लाखों मरीज हर साल चिकित्सा का लाभ उठा रहे हैं।पर अब इमरजेंसी और ट्रामा सेंटर की कमी भी पूरी हो गयी।
 दिल्ली एम्स के  करीब आधे मरीज बिहार से ही होते हैं।उम्मीद है कि पटना एम्स के कारण दिल्ली एम्स पर अब बोझ थोड़ा घटेगा।
        
    एम.पी.गुप्त की याचिका के कारण न सिर्फ पटना के एम्स कव निर्माण शुरू हो गया बल्कि गुप्त  एम्स भवन के 
निर्माण की गुणवत्ता को लेकर अदालत के बाहर और भीतर आवाज 
उठाते रहते थे।
  केंद्र की राजग सरकार ने पटना सहित देश के छह स्थानों में एम्स की तर्ज पर अस्पताल स्थापित करने की योजना बनाई थी।जनवरी, 2004 में तत्कालीन उप राष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने पटना में उसका शिलान्यास भी कर दिया।पर उसी साल सरकार बदल गई।केंद्र की नई सरकार ने पिछली सरकार के इस फैसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया।इसको लेकर एम.पी.गुप्त ने पटना हाई कोर्ट में लोकहित याचिका दायर कर दी।
अदालत ने इसे गंभीरता से लिया,संबंधित पक्षों को समय -समय पर कड़े निदेश दिये ।उन्हीं निदेशों के कारण आज पटना में एम्स का निर्माण हो रहा है ।कड़े निदेश इसलिए देने पड़े क्योंकि मन मोहन सरकार की रूचि कम थी।

बुधवार, 15 अगस्त 2018

हम लोग हर साल स्वतंत्रता दिवस पर टाइगर योगेन्द्र नारायण सिंह उर्फ ‘टाइगर साहब’ के आवास  के अहाते में बने बड़े चबूतरे पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं।इस बार भी फहराया।
अब तो टाइगर साहब नहीं रहे,किन्तु उनके पुत्र द्वय राघवेन्द्र नारायण सिंह और महेन्द्र नारायण सिंह इस अवसर पर सपरिवार मौजूद रहते हैं।
हम ‘टाइगर परिवार’ के पड़ोसी हैं।पड़ोसी  नलिन वर्मा और रणवीर सिंह भी आज शामिल रहे।
हमने झंडा फहराया।देशभक्ति के नारे लगाए और मिठाइयां खाईं।
  इस अवसर पर टाइगर साहब भी याद आए जिन्होंने  शानदार बहुद्देशीय चबूतरा बनवाया था जहां यह संभव हो पाता है।टाइगर साहब के जीवन काल में इस चबूतरे पर कभी -कभी संगीत समारोह भी होते थे।वे शास्त्रीय संगीत के शौकीन थे।
 अब हम लोग अक्सर शाम में वहां बैठ कर गपशप भी करते हैं।
टाइगर साहब का जागरूक परिवार टाइगर साहब की तरह ही देशहित की बातें  सोचता  है।
  टाइगर साहब  बिहार राज्य अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ @टाइगर गुट@के प्रमुख थे।
उन दिनों महा संघ के जो अन्य गुट सक्रिय थे -उनके नाम हैं गोप गुट, मुंशी गुट और त्रिपाठी गुट।
टाइगर साहब ईमानदार व्यक्ति थे,इसलिए उनके पास बीच शहर में जमीन खरीदने लायक पैसे नहीं थे।हां,उन्होंने बाल -बच्चों को अच्छी शिक्षा दी।
टाइगर साहब जब एम्स के पास अपना यह घर बनवाने लगे तो उन्होंने एक चबूतरा भी बनवाया जो अब बड़े काम का है।
ऐसा सार्वजनिक जीवन जीने वाला व्यक्ति ही कर सकता है।
उनके लड़कों को भी वह संस्कार मिला है।  

सोमवार, 13 अगस्त 2018

 मेरे एक मित्र ने मुझे एक सुझाव दिया है।उन्होंने कहा कि आप एक डायरी अलग से रख लीजिए।यह चुनाव वर्ष है।सन 2019 के लोस चुनाव के लिए देश की राजनीति गरमा रही है।
  राजनेताओं से अधिक बुद्धिजीवी वर्ग बौद्धिक रूप से इस मुद्दे पर सक्रिय हैं।वे अपनी-अपनी सुविधा और विचार धारा के अनुसार भविष्यवाणियां करने लगे हैं।कुछ लोगों को तो यह भी लगता है कि 2019 का लोस चुनाव आजादी की लड़ाई से भी अधिक महत्वपूर्ण ‘जंग’ साबित होने वाला है। 
  उनकी भविष्यवाणियों को अपनी डायरी में तारीखवार नोट करते जाइए।
 चुनाव के बाद के रिजल्ट से उन भविष्यवाणियों को मिलाइए।
उसके बाद तय कीजिए कि आप उन बुद्धिजीवियों के लेखन और टी.वी.- भाषण पर आगे भी अपना कितना वक्त जाया करना चाहते हैं।
  मैंने उनसे कहा कि मैं तो भाई चुनावी भविष्यवाणी के लिए राजदीप सरदेसाई पर निर्भर रहूंगा।क्योंकि उन्होंने उत्तर प्रदेश 
विधान सभा चुनाव,गुजरात विधान सभा चुनाव और कर्नाटका विधान सभा चुनाव नतीजों को लेकर लगभग सटीक भविष्यवाणी की थी। 

प्रारम्भिक सर्वे में रोहिणी आयोग ने पाया है कि केंद्रीय सेवाआंे
में ओ.बी.सी.आरक्षण का अधिकांश लाभ अब तक सिर्फ चार जातियों को ही मिलता रहा है। 1993 में लागू 27 प्रतिशत आरक्षण में से 20 प्रतिशत आरक्षण उन चार जातियों में ही सिमट गया है।
डा.लोहिया ने सबसे पहले कहा था कि पिछड़ों को साठ प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए।पर वे हर जाति की महिलाओं को पिछड़ों में शामिल करते थे।उन्होंने भी माना था कि आरक्षण का लाभ पहले मजबूत पिछड़ों की ही मिलेगा।
पर उनकी इस उक्ति में यह भी छिपा था कि  कमजोर पिछड़ों को बाद में ही  मिल पाएगा।
 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटने के लिए मोदी  सरकार ने जस्टिस जी.रोहिणी की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय आयोग गत साल 2 अक्तूबर को बनाया था।
आयोग यह जांच कर रहा है कि विभिन्न सरकारी महकमों,पी.एस.यू.और विश्व द्यिालयों में पिछड़ों में किन जातियों को कितनी नौकरियां मिली हैं।
अभी निचले स्तर से सूचनाएं आयोग को मिलनी बाकी हैं।पर अब तक मिली जानकारियों के अनुसार चार जातियों का हिस्सा 27 में 20 प्रतिशत है।दैनिक जागरण ने आज यह बड़ी खबर दी है।
 संभवतः नवंबर में आयोग की रपट आ जाने के बाद केंद्र सरकार 27 प्रतिशत आरक्षण को 2479 जातियों के बीच तीन हिस्सों में बांट देगी।
 उसके बाद संभव है कि मजबूत पिछड़ों के समर्थक नेता गरम होंगे।
2019 के लोक सभा चुनाव से ठीक पहले उससे पिछड़ा समाज भी गरमाएगा।
  संभव है कि उससे राजग का ‘अति पिछड़ा वोट बैंक’ तैयार हो जाए जिस तरह मोदी विरोधी दलों के पास अल्पसंख्यकों का एक मजबूत  वोट बैंक उपलब्ध है।

रविवार, 12 अगस्त 2018

मुजफ्फर पुर कांड में सार्थक परिणाम तभी, जब अदालतें जांच पर नजर रखें



   पटना हाई कोर्ट की निगरानी के कारण अब यह उम्मीद बनी है कि  मुजफ्फर पुर बालिका अल्पावास गृह यौन हिंसा कांड का  कोई आरोपित बचेगा नहीं।
 सी.बी.आई. उन्हें उसी तरह  अदालत के कठघरे तक पहुंचा देगी जिस तरह चारा घोटाले में हो रहा है।
  पर मुजफ्फर पुर के महा पाप की कहानियां पढ़ने-सुनने के बाद  साफ हो गया है कि यह सरकारी सिस्टम की  विफलता का स्पष्ट नतीजा हैं।यह अधिक गंभीर बात है।
सिस्टम की ऐसी ही विफलता वाले चारा घोटाले की सी.बी.आई.जांच पटना हाई कोर्ट  के आदेश के कारण ही संभव हो सकी थी।जांच पर तब अदालत की सतत  निगरानी भी रही।
नतीजतन दो पूर्व मुख्य मंत्रियों सहित अनेक महारथि नेता,अफसर और व्यापारी सजायाफ्ता हुए।
बालिका अल्पावास गृह यौन हिंसा कांड के अनुभव से सीख कर राज्य सरकार को चाहिए कि वह जनता से सीधे जुड़े कुछ अन्य विभागों की भी इसी तरह की सोशल आॅडिट कराए।अन्य जगहों से भी चैंकाने वाली जानकारियां मिल सकती हैं।
अगर इस देश में कभी पुलिस थानों की सोशल आॅडिट संभव हो पायी तब तो भूकम्प ही आ जाएगा।
 याद रहे कि बिहार सरकार ने मुम्बई के नामी संस्थान ‘टिस’ यानी टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस की टीम से अल्पावास गृहों की जांच कराई थी।
  टिस एक ऐसा गर्व करने वाला संस्थान है जहां के अधिकतर छात्र समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत होकर निकलते हैं।मेरा उसका व्यक्तिगत अनुभव भी है।
राज्य सरकार यदि उस  संस्थान की टीम से कुछ अन्य महत्वपूर्ण विभागों के कार्यकलाप की सोशल आॅडिट कराए तो 
राज्य का कल्याण होगा।
  बिहार सरकार की विडंबना यह है कि देश के अधिकतर राज्यों की तरह ही यहां के सिस्टम के रग -रग  में भी भष्टाचार लिप्त हो चुका है।
ईमानदार मंशा वाला कोई मुख्य मंत्री भी उस सिस्टम के सामने लाचार हो जाता है।
एक बार एक मुख्य मंत्री ने मुझसे कहा था कि  भ्रष्टाचार कम करने के लिए आई.ए.एस.अफसरों को भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता का रुख अपनाना होगा।पर ऐसा हो नहीं पा रहा है ।क्योंकि यहां आई.ए.एस.अफसरों की संख्या बहुत कम है और मलाईदार पोस्ट अधिक है।
इसलिए तबादला कोई सजा नहीं है।हालांकि सभी अफसर एक जैसे नहीं हैं।
  आज सरकारी सिस्टम में भरोसा बहुत कम लोगों को रह गया है।
   हां, यदि मुजफ्फर पुर बालिका गृह यौन हिंसा कांड के दोषियों को सचमुच उनके असली मुकाम तक पहुंचा देना संभव हो पाया तो  सिस्टम में विश्वास की बहाली की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।
मंत्री स्तर पर सांठगांठ की हालत यह है कि मुजफ्फर पुर कांड में राज्य की समाज कल्याण मंत्री मंजू देवी को अपने पद से इस्तीफा तक देना पड़ा।
 मंजू देवी ने कहा था कि उनके पति का मुजफ्फर पुर कांड के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर से कोई संबंध नहीं रहा है।वे सिर्फ एक बार मेरे साथ मुजफ्फर पुर गए थे।
पर अब यह पता चल रहा है कि न सिर्फ मंजू देवी के पति ने ब्रजेश ठाकुर से 17 बार फोन पर बातचीत की,बल्कि वे 9 बार मुजफ्फर पुर की यात्रा कर चुके हैं।
 इतना ही नहीं,समाज कल्याण विभाग के एक बड़े अफसर ने पहले तो कह दिया था कि ‘टिस’ की रपट में यौन हिंसा की कोई चर्चा नहीं है।पर बाद में पता चला कि वैसी चर्चा उस रपट में मौजूद है।
 अब जो बातें खुल कर सामने आ रही हैं,उनके अनुसार लगभग  पूरे शासन तंत्र के संबंधित लोगों  ने मुजफ्फर पुर अल्पावास गृह  के संचालक को उसके जघन्य कार्यों में सहयोग किया या जानबूझ कर अनदेखी की।अल्पावास गृह की 44 में से 34 लड़कियों  के साथ लगातार बलात्कार हो,पड़ोसी भी उनकी चीख- पुकार सुन लें,पर प्रशासन की नींद न टूटे तो इसे सिस्टम की विफलता नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे।जबकि संबंधित अफसर निरीक्षण की कागजी खानापूरी भी करते रहे।
मिली जानकारियों के अनुसार अनेक संबंधित सत्ताधारी नेताओं,अफसरों,कर्मचारियों को बस  उसकी एक ‘कीमत’ चाहिए थी जो उन्हें मिलती गयी।तरह -तरह की कीमतें।घूसखोरी तो प्रमुख हथकंडा रहा ही।
 मुजफ्फर पुर  कांड की जांच की अदालती निगरानी से वैसी ही उम्मीद बंधती है जैसी चारा घाटाले में बंधी थी।पूरी भी हुई।
 चारा घोटाले मंे ंअदालत की निगरानी के कारण ही सी.बी.आई. तब के प्रधान मंत्री के दबाव को भी नजरअंदाज कर सकी थी।
तब के सी.बी.आई. निदेशक जोगिंदर सिंह पर जब  तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदर कुमार गुजराल ने आरोपितों को बचाने के लिए दबाव डाला तो .निदेशक ने यही बात लिखित रूप से देने का प्रधान मंत्री से आग्रह कर दिया।
उस पर  प्रधान मंत्री पीछे हट गए थे।दोनों अदालत से डर रहे थे।
मुजफ्फर पुर कांड की जांच के सिलसिले में यह कहानी दुहरायी जा सकती है ,यदि ऐसी कोई कोशिश होगी तो।
याद रहे कि ब्रजेश ठाकुर की गिरफ्तारी के तत्काल बाद से ही बड़े -बड़े नेताओं के फोन अफसरों के यहां जाने लगे थे।
  याद रहे कि बिहार के ही श्वेत निशा त्रिवेदी उर्फ बाॅबी हत्या कांड@1983@और ललित नारायण मिश्र हत्याकांड के मामलों में अदालती निगरानी नहीं थी।इसलिए सी.बी.आई.ने उन मामलों में आरोपितों को बचाने के लिए सफलतापूर्वक गलत मोड़ दे दिया।बचाने के लिए उच्चस्तरीय दबाव जो था !
  भागल पुर के ताजा चर्चित सृजन घोटाले की जांच में भी सी.बी.आई. तीन प्रमुख आरोपियों को गिरफ्तार नहीं कर पाई है।इस मामले में भी अदालती निगरानी होती तो बात कुछ और होती।
@ 12 अगस्त, 2018 के हस्तक्षेप-राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित मेरा लेख@



ं   

आर.सी.पी.सिंंन्हा ने कहा है कि हरिवंश जी ने राज्य
सभा की सदस्यता भी मांगी नहीं थी।
  मैं जितना थोड़ा -बहुत नीतीश जी और हरिवंश जी को जानता हूं ,उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि आर.सी.पी.सही कह रहे हैं। 

शनिवार, 11 अगस्त 2018

खबर है कि ओडिशा विधान सभा की अगली बैठक 
में राज्य में विधान परिषद की स्थापना के लिए प्रस्ताव 
पास कराया जाएगा।  
 देश की राजनीति के बदलते स्वरूप के बीच नेताओं व दलों को यह जरूरी लगता है कि उच्च सदन का प्रावधान हर राज्य में हो।
अभी विधान परिषद सात ही राज्यों में  है।
अन्य कई राज्यों से केंद्र को मिले ऐसे प्रस्ताव कुछ कारणवश अभी लंबित हैं।
 1967 में जब आदर्शवादी  गैर कांग्रेसी दल राज्यों में सता में आने लगे तो उन्होंने खर्च घटाने के लिए कुछ राज्यों से विधान परिषदें  समाप्त करवा दीं।
 बिहार में भी सत्तर के दशक में सी.पी.आई.के राज कुमार पूर्वे के प्रस्ताव पर बिहार विधान सभा ने विधान परिषद को समाप्त करने का प्रस्ताव पास कर दिया था।
पर वह प्रस्ताव  तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका।
अगले विधान सभा चुनाव में जब पूर्वे जी अपनी सीट  हार गए तो वे विधान परिषद के सदस्य बन गए।
अब तो दलों के बीच का अंतर समाप्त होता जा रहा है।
  दरअसल अन्य राज्यों में भी विधान परिषद की जरूरत इसलिए महसूस की जा रही है क्योंकि वंशवाद की आंधी में 
कई राजनीतिक नेता टिकट से वंचित हो जा रहे।सीटें पुश्तैनी बनती जा रही हैं।
कुछ अन्य कारण भी हैं।
ओडिशा में तो ऐसे विधायकों को अगली बार विधान सभा के टिकट से वंचित करना है जिनसे जनता खुश नहीं है।
वे विधान परिषद में जाएंगे ताकि उन्हें कोई अन्य दल लपक न ले।
 वैसे इस मुद्दे पर एक बुद्धिजीवी ने कहा कि अब नेताओं को चाहिए कि वे निचले सदनों को बड़े नेताओं के बाल -बच्चों के लिए अघोषित तौर पर लगभग रिजर्व ही कर दें।उच्च सदनों को  राजपाट चलाने लायक लोगों से भरें।
  यहां में यह नहीं कहा जा  रहा है  कि नेताओं के सारे वंशज अयोग्य ही होते हैं।    

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018


--गांवों तक विशेषज्ञ डाक्टर पहुंचाने का  महाराष्ट्रीयन तरीका--
महाराष्ट्र सरकार ने  निजी डाक्टरों से मोल-तोल करके 
ऊंचे वेतन पर सरकारी अस्पतालों के लिए विशेषज्ञ चिकित्सक उपलब्ध कराए हैं।ये ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात किए जा रहे हैं।
ध्यान रहे कि सुदूर स्थानों में जाने के लिए आम तौर से विशेषज्ञ चिकित्सक तैयार नहीं होते ।
यह समस्या बिहार सहित  पूरे देश की है।सामान्य सरकारी डाक्टरों में से भी अधिकतर अपने कार्य स्थलों से अनुपस्थित ही पाए जाते हैं।
  कुछ साल पहले एक बिहार के विधायक के यहां एक महिला डाक्टर आईं। उन्होंने कहा कि मैं आपके क्षेत्र में ज्वाइन करने को तैयार हूं।पर आप मुझे अनुपस्थित रहने की ‘छूट’ दिलवा दीजिए।विधायक ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
 यह हाल  सामान्य चिकित्सकों का है ।
 यानी ब्लाॅक स्तर पर तैनात कुछ ही सरकारी डाक्टर ईमानदारी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। 
इस पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र सरकार ने हाल में जो कुछ किया है,उसे बिहार सहित अन्य राज्य भी अपना सकते हैं।
 गरीब देश के आम लोग शिक्षा,स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए सरकार पर ही तो निर्भर रहते हैं।
   महाराष्ट्र सरकार ने निजी विशेषज्ञ डाक्टरों से मोल-तोल करके और उन्हें भारी वेतन देकर ग्रामीण क्षेत्रों में जाने के लिए राजी कर लिया है।
इस तरीके से  कुल 356 डाक्टरों की नियुक्ति हुई है।इनमें 12 विशेषज्ञ चिकित्सक  तीन लाख रुपए मासिक से अधिक वेतन पर राजी हुए।अन्य 12 चिकित्सकों का वेतन दो और तीन लाख रुपए के बीच तय हुआ।
51 विशेषज्ञ डाक्टरों का वेतन एक से दो लाख रुपए के बीच  है।
बाकी डाक्टरों के वेतन 50 हजार से एक लाख रुपए के बीच  है।
 बिहार के चिकित्सकों की शिकायत थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली नहीं रहती।पर अब तो स्थिति बदली है।
ऐसे में महाराष्ट्र जैसा प्रयोग यहां भी किया जा सकता है। 
 --क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में सुधार जरूरी--
सुप्रीम कोर्ट की यह पीड़ा स्वाभाविक ही है कि ‘लेफ्ट ,राइट और सेंटर हर तरफ  बलात्कार हो रहा है। इसे रोका क्यों नहीं जा रहा है ?’
हालांकि  इस देश मंे सिर्फ बलात्कार ही हर जगह नहीं हो रहा है,बल्कि हर तरह के अपराध हो रहे हैं।
 शासन ‘कानून का राज’ कायम करने में आंशिक रूप से ही सफल हो पा रहा है।
  नतीजतन तरह-तरह के  अपराधियों के मन से कानून का खौफ गायब है।
2016 में इस देश में हर तरह के अपराधों में अदालती सजाओं का औसत प्रतिशत 46 दशमलव 8 ही रहा।
 अमेरिका व जापान में  कुल अपराधों में से  99 प्रतिशत अपराधों में आरोपितों को सजा मिल ही जाती है।
 तर्क दिया जाता है कि भारत में पुलिस और कचहरियों की संख्या बढ़ाने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं।
अपराधों के वैज्ञानिक अनुसंधान 
के लिए सरकार के पास  साधन नहीं है।यहां तक कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरीज की भी भारी कमी है।गवाहों की सुरक्षा का प्रबंध नहीं है। यह सब करने के लिए सरकार को देश भर में बहुत बड़ी राशि खर्च करनी पड़ेगी।
यह पैसा कहां से आएगा ? क्यों नहीं ‘टैक्स फाॅर रूल आॅफ लाॅ’ लगाया जाना चाहिए।पहले तो जनता को वह बोझ लगेगा।पर बाद में इसके इतने अधिक फायदे होंगे कि लोगबाग खुश हो जाएंगे।अभी नहीं तो कम से कम 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद केंद्र में सत्ता में आने वाली  सरकार को इस पर विचार करना चाहिए।अन्यथा संकेत हैं कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की लगातार अनदेखी के अंततः भयानक परिणाम  होंगे।
   ---आर.के.धवन और एम.ओ.मथाई-- 
किसी बड़े नेता के निजी सचिव को कैसा होना चाहिए ?
एम.ओ.मथाई की तरह या आर.के धवन की तरह ?
इस सवाल का जवाब तो आसान नहीं है।दोनों के अपने -अपने पक्ष हैं।
  पर इन दोनों के बारे में कुछ बातें जानने योग्य हैं।
आर.के.धवन @1937-2018@का हाल में निधन हो गया।
वे लंबे समय तक इंदिरा गांधी के निजी सचिव थे।
एम.ओ.मथाई@1909-1981@सन 1946 से 1959 तक जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव थे।
 मथाई ने अपनी दो पुस्तकांे के जरिए लोगों को यह बता दिया कि जवाहर लाल नेहरू और उनकी सरकार में कौन -कौन सी खूबियां और कमियां थीं।बहुत सारी जानी-अनजानी बातें।
दूसरी ओर, आर.के.धवन इंदिरा गांधी से संबंधित सारे अच्छे -बुरे संस्मरण अपने साथ लेते चले गए।कभी इंदिरा जी के खिलाफ कुछ नहीं कहा।इस बिन्दु पर कुछ लोगों ने मथाई को सराहा तो कुछ अन्य ने धवन की तारीफ की।
अनेक  ने कहा कि निजी सचिव को धवन जैसा ही  होना चाहिए।
दूसरी ओर खुशवंत सिंह ने तब लिखा था कि ‘मथाई नमक हराम है।उसे चैराहे पर कोड़े लगाए जाने चाहिए।’
वैसे यह कहने वाले लोग भी थे कि मथाई ने लोगों को साफ- साफ यह बता तो दिया कि आजादी के तत्काल बाद के शासकों ने इस देश को किस तरह चलाया।कितने ऊंचे नेता  थे तो कितने गिरे नेता।कुछ नेताओं  मंे तो ऊंचाई भी थी और गिरावट भी।
हालांकि  दोनों सचिव बारी -बारीे से विवादास्पद परिस्थितियों में  पद से हटाए गए।धवन की तो शानदार वापसी हो गयी।पर मथाई की  संभव नहीं थी।वैसे भी उन्होंने किसी ‘देवता’ को बख्शा ही नहीं था । 
   ---भूली-बिसरी याद--
सन् 1857 के हीरो बाबू वीर कुंवर सिंह की 1856 की सक्रियता 
पर भी एक नजर डाल लीजिए।
  मई, 1856 में कंुवर सिंह ने जहानाबाद के अपने मित्र को लिखा था, ‘भाई जुल्फिकार,आपकी उपस्थिति से उस बैठक में जो कुछ तय हुआ ,उस सिलसिले में तैयारी पूरी करने का वक्त आ गया है।अब भारत को हमारे खून की जरूरत है।
हम आपकी मदद और समर्थन के आभारी हैं।पत्रवाहक से आपको मालूम हो जाएगा कि यह पत्र किस जगह से लिखा जा रहा है।आपका पत्र समय पर मिल गया था।
अब 15 जून 1856 को बैठक होगी।उसमें आपकी उपस्थिति अनिवार्य है।यह हमारी अंतिम बैठक होगी।
तब तक सभी तैयारियां पूरी कर लेनी है।’
  अगस्त 1856 में बाबू कुवंर सिंह ने उन्हें फिर लिखा,‘समय आ गया है।मेरठ की ओर कूच करें।वहां आपका इन्तजार किया जाएगा।
सभी तैयारियां पूरी हो चुकी है। आप स्वयं अनुभवी और योग्य हैं।हमारी फौज तैयार है।हम यहां से कूच करेंगे और आप  वहां से।
ब्रिटिश फौज काफी कम है।आपके जवाब की प्रतीक्षा है।’
तीसरी चिट्ठी कुंवर सिंह ने जनवरी, 1857 में उन्हें लिखी।उन्होंने लिखा कि ‘हम दिल्ली के लिए रवाना हो चुके हैं।हमें अपनी जान की बाजी लगानी है।समय करीब है।यही बेहतर है कि हम रण क्षेत्र में लड़ते -लड़ते मर जाएं।यह एक दुःखद सूचना है कि असद अली ने हमारे बारे मंंे ब्रिटिश अधिकारियों को खबर दी है।’
याद रहे कि 1857 के विद्रोह से पहले के ये पत्र हैं।
इन पत्रों की पुष्टि डा.के.के.दत्त और प्रो.एस.एच.असगरी ने की है।
 इन पत्रों से यह जाहिर होता है कि 1857 के विद्रोह से पहले ही बिहार लड़ने की तैयारी कर रहा था।
काजी जुल्फिकार अली जहानाबाद के थे।उन्होंने भी अपनी पलटन तैयार की थी।
वे वीर कुंवर सिंह के दोस्त थे।
जुल्फिकार अली दिल्ली पहुंच कर ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए शहीद हो गए थे।आश्चर्य है कि किन कारणों से जुल्फिकार अली का उतना नाम नहीं हुआ जिसके वे हकदार थे ! 
       --और अंत मंे-
अस्सी के दशक की बात है।मैंने एक मुख्य मंत्री के आवास पर फोन किया।फोन किसी ‘गोपाल’ ने उठाया।मुझे जो सूचना लेनी थी,वह मिल गयी।
मैंने समझा कि गोपाल कोई स्टाफ होगा।पर दूसरे दिन उस मुख्य मंत्री के एक करीबी व्यक्ति मुझे  मिले।उन्होंने कहा कि ‘आपने जब फोन किया था,उस समय मैं भी वहां मौजूद था।’
मैंने पूछा कि ‘वहां गोपाल कौन हैं ?’उन्होंने बताया कि गोपाल-वोपाल कोई नहीं है।दरअसल मुख्य मंत्री जी के पुत्र ने  ही फोन उठाया था।पर, वे आपको भी अपना नाम नहीं बताना चाहते थे।किसी को नहीं बताते हैं।क्योंकि वहां फोन उठाना उनकी ड्यूटी नहीं है।
अब मैं सोचता हूं कि उस जमाने के लोग कम से कम इस बात का ध्यान तो रखते थे।
@10 अगस्त, 2018 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम ‘कानोंकान’ से।

गुरुवार, 9 अगस्त 2018

राज्य सभा के सभापति वेंकैया नायडु सदन में
शांति-शालीनता बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील
रहे हैं।अब उप सभापति पद पर भी हरिवंश के रूप में एक ऐसे व्यक्ति आए हैं जिन्होंने अपनी  सदस्यता की अवधि में ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उच्च सदन की गरिमा कम होती हो।
अब यह उम्मीद की जाती है कि सभापति व उप सभापति मिलकर ऐसे सदस्यों पर काबू पाएंगे जिनका मुख्य काम ही बारी से पहले बोलना और शोरगुल-हंगामा  करना होता है।
  साठ-सत्तर के दशक में संसद खास कर राज्य सभा से समाजवादी नेता राज नारायण सहित कुछ  सदस्य मार्शल के जरिए निकाल दिए जाते थे जब वे आसन के निदेश का पालन करने से इनकार कर देते थे।
 जरूरत पड़ने पर मार्शल का इस्तेमाल अब भी होना चाहिए ताकि संसद खास कर उच्च सदन की गरिमा कायम की जा सके।जब भी सदन में शांति रहती है,प्रतिपक्ष को अपनी बातें रखने का अधिक अवसर मिलता है।

बुधवार, 8 अगस्त 2018

सुप्रीम कोर्ट ने कल ठीक ही कहा है कि ‘लेफ्ट ,राइट और सेंटर हर तरफ हो रहा है बलात्कार ! इसे रोका क्यों नहीं जा रहा है ?’
वैसे इस देश मंे सिर्फ बलात्कार ही हर जगह नहीं हो रहा है,
बल्कि हर तरह के अपराध हो रहे हैं।
 शासन ‘कानून का राज’ कायम करने में आंशिक रूप से ही सफल हो पा रहा है।
  नतीजतन अधिकतर अपराधियों के मन से कानून का खौफ गायब है।इनमें सफेदपोश अपराधी तरह -तरह के घोटालेबाज,दलाल  व भ्रष्ट अफसर  भी शामिल हैं।
अनेक मामलों में पुलिस, चैकीदार के बदले भागीदार है।
रक्षक ही भक्षक बन रहे हैं।शुक सागर में लिखा गया है कि कलियुग में राजा ही प्रजा को लूटेगा।
अधिकतर बड़े अफसरों ने भी प्रधान मंत्री मोदी की 2014 की इस चेतावनी को भी नजरअंदाज कर दिया कि ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा।’
2016 में इस देश में हर तरह के अपराधों में अदालती सजाओं का औसत प्रतिशत 46 दशमलव 8 रहा।
जबकि, अमेरिका व जापान में हुए कुल अपराधों में से  99 प्रतिशत अपराधों में आरोपितों को सजा मिल ही जाती है।
 बहाना है कि भारत में पुलिस और कचहरियों की संख्या बढ़ाने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं।
भले भ्रष्टाचार में लूट लिए जाने के लिए अरबों रुपए उपलब्ध हैं।
अपराधों के वैज्ञानिक अनुसंधान 
के लिए सरकार के पास समुचित साधन नहीं है।यहां तक कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरीज की भी भारी कमी है।
 अधिकतर गवाहों को खरीद लिया जाता है या धमका कर चुप करा दिया जाता है।
सरकार कुछ ठोस काम करे तो स्थिति बदल सकती है।
1.-पूर्व डी.जी.पी.प्रकाश सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निदेश का कार्यान्वयन किया जाए ताकि पुलिस निष्पक्ष हो सके।
2.- पुलिस बल और अदालतों की संख्या जरूरत के अनुसार बढ़ायी जाए।
3.-गवाहों की सुरक्षा के लिए अलग से ‘गवाह सुरक्षा फोर्स’ बने।
4.- मोहल्ला व गांव स्तर पर चैकीदारी व पुलिस व्यवस्था के साथ -साथ अतिरिक्त खुफिया तंत्र विकसित किया जाए ताकि अपराधों व अपराधियों के बारे में सूचनाएं  मिलती रहे।
पुलिस थानों की संख्या बढ़ायी जाए। 
अनेक अपराधों के मामलों में डर के कारण प्राथमिकियां दर्ज नहीं करायी जातीं।या फिर पुलिस रिपोर्ट नहीं लिखती।ऐसे मामलों की सूचनाएं खुफिया तंत्र दे सकता है।
5.-कुछ खास तरह के अपराधों के लिए त्वरित अदालतों की संख्या बढ़ायी जाए।
6.-थाना स्तर पर अनुसंधान को कानून -व्यवस्था से अलग किया जाए।थानों का भी सोशल आॅडिट कराया जाए।
7.-हत्या व बलात्कार जैसे अपराधों के आरोपियों के पक्ष में  पैरवी करने वाले नेताओं के नाम सार्वजनिक किए जाएंं।
8.-जिन अफसरों के पास जायज आय से कम से कम पांच करोड रुपए़ अधिक अवैध धन पाया जाए,उस अफसर के ऊपर-नीचे तैनात अफसरों व कर्मियों की संपत्ति की भी जांच हो।
9.- इन सब कामों के लिए काफी धन की जरूरत होगी।
इसके लिए केंद्र व राज्य सरकारें ‘सुशासन टैक्स’ लगाएं।
पहले तो यह टैक्स जनता को भार लगेगा।पर उसका जब लाभ दिखायी पड़ने लगेगा तो लोग खुशी -खुशी टैक्स देंगे।
क्योंकि शांति -व्यवस्था ठीक रहने पर सबकी तरक्की होगी।
10.- भ्रष्ट पुलिसकर्मियों का सेना की तरह ‘कोर्ट मार्शल’ हो।


बरसात देती है टाउन प्लानिंग की गड़ बडि़यां समझने का मौका


बरसात बता देती है कि टाउन प्लानरों  की दूरदर्शिता कितने पानी में है।
अन्य किस शहर की बात करें, हर बरसात में मुम्बई जैसे महा नगर की हालत भी दयनीय हो जाती है।
पर हम हैं कि कोई सबक सीखने को तैयार ही नहीं हैं।
पटना तथा बिहार के अन्य अधिकतर शहरों के विकास की शैली को भी बरसात बेनकाब कर देती है।जिसने जहां चाहा ,घर बना लिया।कहीं सड़क का अतिक्रमण हुआ तो कहीं नालों का।
 नालियों और सड़कों के निर्माण की गुणवत्ता की सच्चाई भी सबके सामने होती है।
 बरसात में भ्रष्टाचार की भी बू आने लगती है।
फिर भी हर बरसात के बाद हम सब कुछ भूल जाते हैं।
 समस्या नगर निकायों और सरकार के बीच तालमेल की भी आती है।वैसे किसी भी जन सेवी सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह बरसात में यह आकलन करा ले कि बरसात के बाद कहां -कहां और क्या- क्या सुधार  जरूरी हैं।
 वैसे  अनेक शहरों के मध्य में भी आबादी के बढ़ते दबाव के कारण भी तरह -तरह की समस्याएं आ रही हैं।
  आश्चर्य है कि किसी भी राज्य सरकार ने इस बात पर विचार क्यों नहीं किया कि पटना में गंगा किनारे के चार बड़े संस्थानों में से कम से कम दो को मुख्य पटना से बाहर स्थानांतरित कर दिया जाए ?
  आसपास ही बसे पटना विश्व विद्यालय ,पी.एम.सी.एच.,पटना कलक्टरी और जिला अदालत ने मध्य पटना की भीड़ बढ़ा दी है।ये सब भीड़ जुटाऊ जगहें हैं।साथ ही गांधी मैदान भी पास में ही हैं।खैर, उसका तो कोई विकल्प नहीं है।
 --ट्राफिक प्रबंधन की समस्या--
केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी गत माह यह स्वीकारा  कि ट्राफिक प्रबंधन इस देश की पुलिस के लिए बड़ी समस्या बन चुकी है।
उन्होंने तीव्र शहरीकरण को इसका मुख्य कारण बताया है।
अब सवाल है कि सुव्यवस्थित शहरीकरण के लिए इस देश की सरकारें क्या और कितना कुछ कर रही हैं ?
 यदि सरकार नहीं करेगी तो निजी एजेंसियां तो करेंगी ही।
निजी एजेसियां तो आम तौर पर जैसे -तैसे ही करेंगी।
निजी एजेंसियों पर नजर रखने वाली सरकारी एजेंसियों में से अधिकतर का मुख्य लक्ष्य पैसे कमाना रहता है।
पहले यह कहावत बिहार में ही थी।पर अब पूरे देश में के लिए यह सत्य है।यानी अधिकतर सरकारी कर्मी आॅफिस आने के लिए वेतन लेते हैं और काम करने के घूस।
हालांकि इसके अपवाद भी हैं।
देश भर के भ्रष्टाचारियों में जेल जाने का भय समाप्त हो चुका है।फिर उपाय क्या है ?जो सत्ता में हैं,उन्हें अन्य बातों के साथ -साथ इस पर भी गंभीरता से सोचना होगा कि सख्त अदालती  आदेश के बावजूद अतिक्रमणकारी इतना निर्भीक क्यों रहते हैं ?फुटपाथों और सड़कों पर अतिक्रमण ट्राफिक समस्या का एक बड़ा कारण है।यह सब पटना सहित लगभग पूरे देश में देखा जा रहा है।सिर्फ वी.वी.आई.पी.इलाके इसके अपवाद हैं।केंद्रीय गृह मंत्री को चाहिए कि वे सभी राज्यों की बैठक बुलाएं और इस समस्या के समाधान के लिए कानून में बदलाव करना जरूरी हो तो वह भी करें।
  --सीमा पर चैकसी जरूरी--
    असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के ड्राफ्ट में अभी करीब 40 लाख लोगों के नाम नहीं हैं।
इनमें से जो चाहें , अभी सबूतों के साथ अपना नाम दर्ज करने का दावा कर सकते हैं।
जिनके पास पक्के सबूत होंगे ,उनके तो नाम अंततः दर्ज हो ही जाएंगे।
पर फिर भी संकेत हैं कि लाखों लोग सबूत नहीं जुटा पाएंगे।
नतीजतन वे वोटर नहीं रहेंगे।यानी ऐसे गैर वोटरों में उन राजनीतिक दलों की रूचि समाप्त हो जाएगी जिन्होंने इन बंगलादेशियों को नाजायज तरीकों से वोटर बनवाया और दूसरी सरकारी सुविधाएं दिलवाईं।
बोर्डर पार कराकर भारत लाने में तो सीमा पर तैनात भ्रष्ट सुरक्षा कर्मी व दलाल  जिम्मेदार होते हैं।पर, उन्हें वोटर बनवाने के लिए  वोट लोलुप नेता और राजनीतिक कार्यकत्र्ता जिम्मेदार होते हैं।
यदि टपा कर लाए गए मानुष वोटर ही नहीं बन पाएंगे तो फिर नेता लोग क्यों घुसपैठियों की मदद करेंगे  ? नतीजतन घुसपैठ की समस्या काफी कम हो जाएगी।असम में भी और अन्य राज्यों में भी।
हां,साथ ही समस्या के पूर्ण निदान के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तैनात सुरक्षा बलों के बीच फैले भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए केंद्र सरकार को विशेष उपाय करने होंगे।
--सुप्रीम कोर्ट की पहल से उम्मीद जगी--
सुप्रीम कोर्ट ने मुजफ्फर पुर अल्पावास गृह यौन हिंसा कांड का खुद संज्ञान लेकर केंद्र और राज्य सरकार को नोटिस जारी किया है।
देश की सबसे बड़ी अदालत की इस पहल से लोगों में यह उम्मीद बढ़ी है कि उस कांड के पीडि़तों को न्याय मिलेगा।
 दरअसल सी.बी.आई.जांच पर जब तक अदालत की नजर नहीं रहती ,तब तक निष्पक्ष जांच की उम्मीद कम ही रहती है।
बिहार के 1983 के बाॅबी हत्याकांड और 1999 के शिल्पी जैन हत्याकांड में ऐसा हो चुका है।सत्ताधारी आरोपियों के समक्ष तो जांच एजेंसी की बेचारगी ही सामने आती रही है।
  दर्जनों निरीह बच्चियों के साथ जघन्य महा पाप के ताकतवर आरोपी बच कर निकल न जाए,इसके लिए जरूरी है कि उनकी नार्काे और डी.एन.ए.जांच भी हो।यदि सुप्रीम कोर्ट इसकी खास अनुमति देगा तो न्याय होने मेंे सुविधा होगी।
याद रहे कि 2010 के अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट यह कह चुका है कि आरोपी की मर्जी के खिलाफ उसका नार्को-डी.एन.ए.टेस्ट नहीं हो सकता।
इस निर्णय ने बिहार में भी कई बार जांच एजेंसियों का काम 
कठिन बना दिया है।यदि जरूरत समझे तो सुप्रीम कोर्ट इन निरीह व बेसहारा बच्चियों के लिए 2010 के अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर ले।
       --भूली-बिसरी याद--
आपातकाल के बड़ौदा डायनामाइट केस से कन्नड व तेलुगु की मशहूर फिल्म अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी का नाम अंतिम समय में हटा दिया गया था।
 याद रहे कि जार्ज फर्नांडिस उस केस के मुख्य आरोपी 
थे।आपातकाल में जब सी.बी.आई.ने अभियुक्तों की सूची बनायी   थी तो उसमें स्नेहलता का भी नाम था।
पर आरोप पत्र से उनका नाम हटा दिया गया।इस संबंध में गृह मंत्रालय की राय बनी थी कि स्नेहलता अत्यंत लोकप्रिय व खूबसूरत अभिनेत्री हैं।
अभिनेत्री  किसी मुकदमे में अभियुक्त बनेगी तो मुकदमे में ग्लेमर का तत्व आ जाएगा।
इससे मुकदमा अधिक चर्चित हो जाएगा।
इससे उस केस के अन्य अभियुक्तों के प्रति भी लोगों की सहानुभूति बढ़ सकती है।
पर सरकार नहीं चाहती थी कि बड़ौदा डायनामाइट केस के अभियुक्तों खास कर जार्ज फर्नांडिस के प्रति किसी की सहानुभूति हो।
  हालांकि सरकार यह नहीं जानती थी कि स्नेहलता डायनामाइट के इस्तेमाल के खिलाफ थीं।
बंगलुरू की  निवासी स्नेहलता का  पूरा परिवार समाजवादी था।डा.राम मनोहर लोहिया का अत्यंत प्रशंसक।
जार्ज का भी उनके घर आना जाना था।पर हिंसा के सवाल पर  स्नेहलता परिवार में मतभेद था।स्नेहलता आपातकाल के खिलाफ सिर्फ  अहिसंक आंदोलन के पक्ष में थीं जबकि उनकी पुत्री नंदना रेड्डी जार्ज के साथ थी।
  फिर भी  स्नेहलता को मई, 1976 में गिरफ्तार किया गया था।उन्हें जेल में इतना अधिक कष्ट दिया गया कि उनकी हालत खराब हो गयी।खराब हालत के कारण उन्हें छोड़ा गया। जेल से छूटने के कुछ ही समय बाद यानी जनवरी 1977 में उनका निधन हो गया।याद रहे कि कन्नड की
पहली समानांतर सिनेमा ‘संस्कार’ में  स्नेहलता काम कर चुकी थींं।     
   --और अंत मंे-
यदि कोई सरकार चाहती है कि किसी आयोग की रपट जल्द से जल्द उसे मिल जाए  तो उसे एक काम पहले ही कर देना चाहिए।
उसे आयोग या कमेटी  के प्रधान व सदस्यों से अनौपचारिक रूप से यह कह देना चाहिए कि इस आयोग का काम समाप्त होते ही आपको एक दूसरे आयोग को संभालना है।
  दरअसल आयोग की कुर्सी मिल जाने पर शायद ही उसे कोई छोड़ना चाहता है।क्योंकि उसके साथ कई सुविधाएं जुड़ी रहती हैं।
इसलिए अधिकतर आयोग फाइनल रपट तैयार करने में अनावश्यक विलंब करते हैं। 
@ 3 अगस्त, 2018 को ‘प्रभात खबर’ -बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम ‘कानोंकान’ से@