शनिवार, 16 सितंबर 2017

वंशवादी राजनीति के बुरे नतीजे

सबसे पहले कांग्रेस ने इस देश की राजनीति में वंशवाद की शुरुआत की और जब कुछ अन्य दलों ने उसे अपना लिया तो अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि ‘भारत ऐसे ही चलता है। यह भारत के अधिकतर दलों की समस्या है।’ जिसने शुरू किया, वही इसे समाप्त करने की पहल करे तो कांग्रेस भी बच सकती है और अन्य दल भी।
कांगे्रस यदाकदा यह कहती रही है कि जवाहर लाल नेहरू ने इस देश को वैज्ञानिक सोच दी। अनेक उच्चस्तरीय संस्थान भी दिए। पर वह यह कहना भूल जाती है कि सर्वाधिक समय तक इस देश पर राज करने वाली कांग्रेस के शासनकाल में यदि गरीबी बढ़ी, भ्रष्टाचार फैला और वंशवाद-परिवारवाद कायम हुआ तो उसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए ?


मीठा-मीठा गप और कड़ुआ कड़ुआ थू ?

आज तो केंद्र के चारों शीर्ष पदों पर बैठे कोई नेता परिवारवाद की उपज नहीं हैं। फिर भी देश बेहतर ढंग से चल रहा है। अधिकतर आम लोगों की सोच है कि देश बेहतर चलना चाहिए चाहे वंशवादी चलाएं या गैर वंशवादी। पर घटनाएं बताती हैं कि अपवादों को छोड़कर गैर वंशवादियों ने ही देश को बेहतर ढंग से चलाया है।
आज शीर्ष पदों पर गैरवंशवादी ही क्यों बैठे हैं ? आखिर यह कैसे संभव हुआ ? इसलिए संभव हुआ क्योंकि मतदाताओं ने 2014 में कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया जो अनेक बुराइयों और विफलताओं की प्रतीक बन चुकी थी। उनमें से अपनी एक -दो विफलताएं तो खुद राहुल गांधी ने भी स्वीकारी हैं।
पर विफलताएं तो अनेक हैं।


राहुल गांधी अपने वंशवाद को जायज ठहराने के लिए 

अखिलेश यादव से लेकर स्टालिन तक का उदाहरण दे रहे हैं। इस तरह वे अपने वंशवाद का बचाव करना चाहते हैं। पर 1928 में तो न कोई अखिलेश थे और न ही कोई स्टालिन। तब कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू थे। महात्मा गांधी सर्वोच्च नेता थे।

मोतीलाल ने महात्मा गांधी को लिखा कि ‘वैसे तो सरदार बल्लभ भाई पटेल कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सर्वोत्तम उम्मीदवार हैं, पर आप जवाहर लाल नेहरू को अध्यक्ष बना दीजिए।’

नेहरू मेमोरियल में मोतीलाल पेपर्स पढ़ने के बाद इतिहासकार रिजवान कादरी ने लिखा कि ‘मोतीलाल नेहरू युवा को आगे बढ़ाना चाहते थे।’

आखिर किसी युवा की तलाश सिर्फ अपने ही घर से क्यों? एक चिट्ठी आने के बावजूद महात्मा गांधी जवाहर लाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने को तैयार नहीं थे। इसीलिए इसके लिए मोतीलाल नेहरू ने उन्हें दो  चिट्ठयां और लिखीं। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने अन्य हस्तियों से भी गांधी जी को लिखवाया। गांधी भारी दबाव में आ गए।
दरअसल यही तो वंशवाद है जिसे देश के अन्य दलों ने अपने स्वार्थवश बाद में अपनाया। ‘महाजनो येन गतः स पंथाः !’ नब्बे के दशक में लालू प्रसाद ने कहा था कि ‘मेरा परिवार बिहार का नेहरू परिवार है।’ उन्होंने इसे साबित करके भी दिखाया।

वंश को आगे बढ़ाने में मोतीलाल जी को थोड़ी कठिनाई जरूर हुई थी, पर जवाहर लाल नेहरू को नहीं हुई। उन्होंने 1958 में इंदिरा गांधी को 24 सदस्यीय कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनवा दिया। उससे पहले जवाहर लाल जी फिरोज गांधी तथा अपने परिवार के अन्य अनेक सदस्यों को महत्वपूर्ण पदों को बिठवा चुके थे।
1959 में जब इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो कांग्रेसी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने जवाहर लाल नेहरू को चिट्ठी लिखी। त्यागी ने कई वजहें गिनाते हुए 31 जनवरी 1959 को लिखा कि ‘मेरी राय है कि इंदु को कांग्रेस प्रधान चुने जाने से रोको। या फिर आप प्रधानमंत्री पद से अलग हो जाओ।’उसके जवाब में जवाहर लाल नेहरू ने त्यागी को 1 फरवरी 1959 को लिखा कि ‘मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से उसका इस वक्त कांग्रेस अध्यक्ष बनना मुफीद होगा।’

आज राहुल गांधी अन्य दलों के वंशवाद की चर्चा कर रहे हैं। पर 1959 में किस दल के किस नेता ने अपनी पार्टी का अध्यक्ष पद अपनी संतान के हवाले कर दिया था ?  अब देखिए इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद क्या किया ? उन्होंने अपने पुत्र संजय गांधी को शासन  का संविधानेत्तर केंद्र बनातेे हुए आपातकाल में उनके जिम्मे एक तरह से सरकार ही सौंप दी थी। संजय गांधी के नहीं रहने के बाद इंदिरा जी ने राजीव गांधी को पार्टी सौंप दी। वे किसी राजनीतिक अनुभव के बिना महासचिव बना दिए गए।

हाल के वर्षों में सोनिया गांधी ने दस साल तक परदे के पीछे से राज चलाया। कैसा राज चला ? लोकसभा में 44 सीटें लायक ही तो। अब राहुल कह रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने को तैयार हैं।

वंशवाद की तारीफ होती, यदि वंशवादियों ने सत्ता में आकर देश का सचमुच देश का भला किया होता। यदि भला हुआ होता तो 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा नहीं दिया होता।
आजादी के बाइस साल बाद भी, जिसमें 19 साल एक वंश का शासन रहा हो, आखिर गरीबी क्यों नहीं हटी थी? क्या गरीबी हटाओ का नारा 17 साला शासन पर टिप्पणी नहीं था ?


अमरीकी शोधकर्ता पाॅल आर ब्रास का शोध


अमरीकी शोधकर्ता पाॅल आर ब्रास ने साठ के दशक में उत्तर प्रदेश सरकार में भ्रष्टाचार पर गहन शोध किया था। ब्रास के शोध का नतीजा था कि मंत्रियों ने जिलों में अपने गुटों को ताकत देने के लिए ऊपर से नीचे की ओर सरकारी भ्रष्टाचार को फैलाया।

 जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव ने लिखा है कि नेहरू ने भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की पोख्ता व्यवस्था इसलिए नहीं की क्योंकि वे मानते थे कि इससे शासन में पस्तहिम्मती आएगी।

जवाहर लाल और इंदिरा गांधी के शासनकाल मंे भ्रष्टाचार का क्या हाल था, उसका जवाब खुद राजीव गांधी ने अस्सी के दशक में दिया था। तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधीे ने कहा था कि हम सौ पैसे दिल्ली से भेजते हैं और गांवों तक उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही मिल पाते हैं।क्या यह एक दिन में हुआ ?

कोई पूछे कि ऐसी नौबत किसने लाई थी ? तो इस सवाल के जवाब के लिए किसी को सिर खुजलाना नहीं पड़ेगा।
 वंशवाद ने तो देश को यही दिया है ! कभी मिस्टर क्लिन कहलाने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सत्ता के दलालों के खिलाफ आवाज उठाई थी। पर विडंबना यह रही कि बोफर्स तोप सौदे के दलाल को बचाने के प्रयास में ही उन्होंने अपनी गद्दी गंवा दी। यह अनुभवहीनता का परिणाम था या कुछ और ?

 उधर अधिकतर वंशवादी क्षेत्रीय दलों ने सत्ता में आकर तो हदें पार कर दी हैं। वैसे अनेक नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के तहत मुकदमे चल रहे हैं।

इस बीच इन दिनों गैर वंशवादी प्रधानमंत्री सत्ता में हैं। खुद नरेंद्र मोदी कौन कहे, उनके मंत्रिमंडल के किसी सदस्य के खिलाफ किसी भ्रष्टाचार के आरोप की कोई खबर नहीं मिल रही है।

यही नहीं, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो को उनके पद से तभी हटाया जा सका जब 1964 में लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे। उनपर और उनके परिजन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। जबकि कैरो के खिलाफ जांच आयोग ने पहले ही अपनी रपट दे रखी थी।
  दरअसल अधिकतर मामलों में वंशवाद और जातिवाद जुड़वा भाई हैं। वंशवादी नेता अपने जातीय वोट बैंक को लेकर निश्चिंत रहते हैं। फिर तो वह समझने लगते हंै कि वह कोई भी अनर्थ करके बच सकते हंै। उसके मतदातागण हर हाल में उसका साथ देते ही रहेंगे। इस प्रचलन-प्रवृत्ति से देश का अधिक नुकसान हुआ है।
 पर जो वंशवादी नहीं हैं, उन्हें सरकार में आने पर कुछ काम करके दिखाना पड़ता है।

(इस लेख का संपादित अंश 15 सितंबर 2017 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)

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