गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

    मर्ज गहरा ,दवा बेअसर

   कौन करेगा भ्रष्टाचार को पराजित ?!!

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    --सुरेंद्र किशोर --

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हाल में दिल्ली के एक जानकार व्यक्ति से मैंने पूछा कि 

एक ईमानदार प्रधान मंत्री के रहते हुए भी केंद्र सरकार के अधिकतर दफ्तरों में इतना अधिक भ्रष्टाचार अब भी क्यों जारी हैं ?

उन्होंने कहा कि जब भी किसी भ्रष्ट कर्मचारी या अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई शुरू होती है तो तुरंत उस दोषी की जाति  के प्रभावशाली लोग सरकार पर भीषण दबाव शुरू कर देते हैं।

कहने लगते हैं कि हमारी जाति के साथ भारी अन्याय हो रहा है।

  कार्रवाई करने की जिम्मेवारी जिन पर है,अधिकतर मामलों में वे दबाव में आ जाते हैं।

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  बिहार में भी यह देखा जाता है कि भ्रष्टाचार के आरोप में अफसरों -कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई तो शुरू जरूर होती है,किंतु उनमें से अधिकतर मामलों में कार्रवाई तार्किक परिणति तक पहुंचती है या नहीं ,यह कम ही लोग जान पाते हैं।

  आम लोग रोज ब रोज भ्रष्टाचार से पीड़ित होते रहते हैं।

भ्रष्ट कर्मी नए -नए तरीके ढूंढ़ते रहते हैं।

हाल में पता चला कि पटना में ट्रैफिक नियम भंजकों से रिश्वत वसूलने के लिए पुलिस ने बगल की मिठाई दुकान को अपना घूस काउंटर बना रखा था।

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   पटना में अतिक्रमण हटाने का काम जरूर होता है,पर हटाने के कुछ ही घंटे बाद फिर वहां अतिक्रमण हो जाता है।

कहते हैं कि अतिक्रमण से भारी कमाई करने वाले सरकारी व गैर सरकारी लोग इतने ताकतवर हैं कि उनका कुछ नहीं बिगड़ता।

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  दरअसल भ्रष्टाचार की जकड़न इतनी मजबूत है कि कार्रवाइयां कारगर नहीं हो पाती । 

कांग्रेसी राज के भ्रष्टाचार का तो कहना ही क्या !

पर 1977 में बिहार में जनता सरकार बनी तो उम्मीद जगी कि फर्क पड़ेगा।

  फर्क पड़ा भी ,पर उम्मीद से काफी कम।

उस समय के मुख्य सचिव पी.एस.अप्पू का 23 अप्रैल, 2005 के प्रभात खबर में संस्मरणात्मक लेख छपा था।

  उस लेख में अप्पू ने कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों के बारे में लिखा ‘‘......मंत्री वैसे अफसरों (खासकर आई.ए.एस.अफसरों ) की ताक में रहते थे ,जो या तो उनकी जाति का हो या फिर उनकी हर वाजिब -गैर वाजिब मांग को पूरा करने में किसी तरह ना-नुकुर न करे।

मंत्रियों द्वारा प्रायः दक्ष और बेहतर रिकार्ड वाले अफसरों की अनदेखी कर दी जाती थी।

भ्रष्ट व अकुशल अफसरों को पसंद किया जाता था।...’’

(--प्रभात खबर-23 अप्रैल 2005)


बुधवार, 30 दिसंबर 2020

 


दलीय आधार पर पंचायत चुनाव करवाने 

के कुछ सकारात्मक फायदे

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--सुरेंद्र किशोर--

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बिहार में ग्राम पंचायतों के चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है।

राज्य की कुल 8387 ग्राम पंचायतों में अगले साल चुनाव

होंगे।

  अच्छा होगा ,यदि चुनाव दलीय आधार पर करवाने की परंपरा शुरू की जाए।

इससे शायद पंचायत स्तर पर जारी भ्रष्टाचार पर कुछ 

अंक़़ुश लगे।अभी तो भ्रष्टाचार का विस्तार देख कर ऐसा लगता है कि पंचायत व्यवस्था विफल हो रही है।

कम ही लोग जानते हैं कि पंचायत स्तर के भ्रष्टाचार का विपरीत असर हाल के विधान सभा चुनाव पर भी पड़ा।

  यह भी संभव है कि शायद तब भी अंकुश न लगे।

पर, एक प्रयोग करके देख लेने में क्या हर्ज है ?

यदि पंचायतों के उम्मीदवार किसी दल के होंगे तो वे विजयी होने के बाद अपने दल के हाईकमान की परवाह करेंगे।

यदि सब नहीं तो कुछ तो करेंगे ही।

  यदि कोई दलीय नेता मुखिया बन गया तो वह अपने दल से विधान सभा का टिकट मांग सकता है।

  यदि ऐसी महत्वाकांक्षी किसी की होगी तो मुखिया बनने पर वह खुद पर संयम रखने की भी कोशिश करेगा।

 अपने क्षेत्र में  विकास कार्यों में ईमानदारी से काम करवाने की कोशिश कर सकता है।

इसके विपरीत अभी जो हालत है,वह किसी से छिपा नहीं है।हां,अपवाद के तौर पर अब भी जहां -तहां ईमानदार मुखिया -सरपंच आदि जरूर मौजूद हैं।

 

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व्यवस्थित ढंग से शहरीकरण की उम्मीद

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पटना के आसपास के कई  इलाकों को भी पटना नगर निगम में शामिल कर लिया गया है।

मास्टर प्लान के तहत उन इलाकों का व्यवस्थित ढंग से नगरीकरण किया जाना है।

पटना एम्स जिस पंचायत में अवस्थित है,अब वह भी पटना नगर निगम के तहत आ गया।

एम्स के आसपास के इलाके में व्यवस्थित ढंग से मुहल्ला बसाने की कोशिश खुद बिहार सरकार को करनी चाहिए।

  राज्य सरकार निजी क्षेत्र के किसी डेवलपर से सहयोग कर सकती है।

  उसी तरह का मुहल्ला बसाया जाना चाहिए जिस तरह  बारी -बारी से कभी श्रीकृष्णा पुरी,राजेंद्र नगर और लोहिया नगर आदि बसाए गए।

अभी निजी प्रयासों से जो मुहल्ले बस रहे हैं,वे किसी गांव की तरह ही अव्यवस्थित हैं । न तो नाली के लिए जगह छोड़ी जा रही और न ही सड़क के लिए।

 स्कूल,अस्पताल व खेल के मैदान का तो कहीं नामो निशान तक नहीं।

  यदि सब कुछ निजी प्रयासों पर ही छोड़ दिया जाए तो भारी वर्षा की स्थिति में यह नया इलाका भी वैसे ही डूबेगा जिस तरह मुख्य पटना कभी -कभी डूबता रहा है।  

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     पंजाब के किसानों के दर्द

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पंजाब तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में एक खास तरह की 

जानलेवा समस्या गहराती जा रही है।

 वह समस्या है खेतों की मिट्टी की पौष्टिकता में निरंतर

 कमी। साथ ही जमीन का लवणीकरण।

 यह समस्या पंजाब में सर्वाधिक गंभीर है।भूजल जहरीला  हो रहा है।

रासायनिक खाद के जरूरत से अधिक इस्तेमाल के कारण यह समस्या पैदा हो रही है।

  इससे पंजाब में कैंसर पीड़ितों की संख्या बढ़ती जा रही है।

  अगली पीढ़ियों का भविष्य अनिश्चित सा हो गया है।

क्या पंजाब के किसान नेतागण इस समस्या पर भी कभी गौर करेंगे ?

  क्या वे कभी इस मांग के लिए भी दिल्ली का घेराव करेंगे कि सरकार रासायनिक खाद पर से निर्भरता घटाकर जैविक खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दे ?

एक जानकारी के अनुसार पंजाब के किसान अपने खेतों में 39-9-1 के अनुपात में क्रमशःनाइट्रोजन,फास्फोरस और पोटेशियम डाल रहे हैं। जबकि, आदर्श अनुपात 4-2-1 का माना जाता है।

   यदि रासायनिक खाद का इतनी अधिक मात्रा में  इस्तेमाल जारी रहा तो एक दिन दूसरे राज्यों के लोग पूछेंगे कि सरकार जो अनाज हमें दे रही है,वह कहीं पंजाब से तो नहीं ! 

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   कैसी होगी प्रस्तावित फिल्म सिटी !

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उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने गत सितंबर में

यह घोषणा की कि गौतम बुद्व नगर में देश की सबसे बड़ी फिल्म सिटी स्थापित होगी।

संभवतः अब तक उस पर कुछ आरंभिक काम शुरू भी हो गए होंगे।

उम्मीद की जाती है कि वह सिटी जब बन कर तैयार होगी तो वहां से साफ-सुथरी हिन्दी फिल्मों का ही निर्माण होगा।

 यदि सेंसर नियमों का कड़ाई से पालन हो तो

इस देश में सिर्फ साफ-सुथरी फिल्में ही बन सकती हैं।

उसी तरह की फिल्में जिस तरह की फिल्में पचास-साठ के दशकों में बनती थीं।

   ‘बागवान’ और ‘नदिया के पार’ जैसी साफ सुथरी फिल्में तो  हाल के वर्षों में भी बनीं।

   सेंसर बोर्ड के नियमों को अंगूठा दिखाते हुए इन दिनों अनावश्यक ंिहंसा व सेक्स प्रधान फिल्में मुम्बई में बनाई जा रही हैं।इससे नई पीढ़ियों पर खराब असर पड़ रहा है।

याद रहे कि सेंसर के जो नियम साठ के दशक में थे,वही नियम आज भी हैं।  

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और अंत में

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पटना हाईकोर्ट में जजों के 30 पद खाली हैं।

स्वीकृत पदों की कुल संख्या 53 है।

कार्यरत  23 जजों में से भी कुछ जज जल्द ही रिटायर होने वाले हैं।

इतने अधिक खाली पद देश के किसी अन्य हाईकोर्ट में नहीं हैं।

एक तो बिहार की आबादी बढ़ रही है। 

साथ ही ,मुकदमों की संख्या बढ़ रही है।

शराबबंदी को लेकर बड़ी संख्या में मुकदमे लोअर कोर्ट में दाखिल हो रहे हैं।

वे भी बारी -बारी से हाईकोर्ट आ सकते हैं।

जिला तथा अनुमंडल स्तरों की

अदालतों में भी न्यायाधीशों की संख्या की कमी है। 

पटना हाईकोर्ट में करीब डेढ़ लाख मुकदमे लंबित हैं।

मौजूदा जजों पर काम का बोझ है।

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--कानोंकान,

दैनिक प्रभात खबर

पटना-25 दिसंबर 20

 


   सुरेंद्र किशोर के फेसबुक वाॅल से 

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   बहुत कठिन काम है कोई पद ठुकराना !

   पर, उससे भी अधिक कठिन  है पद

   ठुकराने वालों की सराहना करना,

  उनके नाम का इतिहास नई पीढ़ियों को पढ़वाना !!!

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कितना कठिन होता है यह कहना कि ‘‘मैं मुख्य मंत्री 

नहीं बनूंगा,आप ही बन जाइए !’’

बहुत कठिन।

किंतु यह कठिन काम भी नीतीश कुमार ने इस बार कर ही दिया।

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इस बात पर भी कुछ लोगों को तभी विश्वास हुआ जब भाजपा नेता सुशील मोदी ने इस आशय का बयान दिया।

सुशील मोदी ने 28 दिसंबर को कहा कि 

‘‘नीतीश कुमार मुख्य मंत्री बनने को तैयार नहीं थे।

कह रहे थे कि भाजपा ही अपना मुख्य मंत्री बना ले।

उन्हें राजी करने की कोशिश हुई।

उन्हें कहा गया कि प्रधान मंत्री भी चाहते हैं कि आप ही मुख्य मंत्री बनें।

बेशक मुश्किल से वे मुख्य मंत्री बनने के लिए राजी हुए।’’ 

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मुख्य मंत्री पद अस्वीकारना कठिन काम है। 

लेकिन मेरा तो मानना है कि उससे भी अधिक कठिन काम  है ऐसे अस्वीकार की सराहना करना।

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हालांकि आजादी के बाद इस देश में कुछ ऐसे नेता हुए हैं जिनके लिए पद ही सब कुछ नहीं था।

पर बहुत कम हुए हैं।

हुए भी हैं तो इतिहासकार या पत्रकार उस बात की चर्चा शायद ही करते हैं।

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आज की पीढ़ी में कितने लोगों को यह मालूम है कि 

डा.राजेंद्र प्रसाद ने 1949 में कह दिया था कि ‘‘मैं किसी पद का उम्मीदवार नहीं हूं।’’

सी.राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनवाने के लिए बेचैन जवाहरलाल नेहरू ने चतुराई से राजेन बाबू से यह बात लिखवा कर ले ली थी।

बाद में सरदार पटेल ने जब स्थिति संभाली तो राजेेन बाबू 1950 में राष्ट्रपति बन सके।

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डा.श्रीकृष्ण सिंह और डा.अनुग्रह नारायण सिंह के समर्थकों के बीच जब मुख्य मंत्री पद को लेकर भारी खींचतान हो रही थी तो नेहरू जी परेशान हो उठे थे।

तब लक्ष्मीनारायण सुधांशु प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे।

नेहरू जी ने सुधांशु जी से कहा था कि आप ही मुख्य मंत्री बन जाइए।

 सुधांशु जी ने इनकार करते हुए कहा कि जनता उन दोनों नेताओं के साथ है,मेरे साथ नहीं ।

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1970 में रामानंद तिवारी को बहुमत प्राप्त गठबंधन ने अपना नेता चुन लिया था।

 तिवारी जी को राज भवन में जाकर मुख्य मंत्री पद का शपथ ग्रहण करना था।

पर अंतिम समय में सैद्धांतिक सवाल उठाते हुए तिवारी जी ने कह दिया कि ‘‘मैं मुख्य मंत्री नहीं बनूंगा।’’

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दूसरी ओर का दृश्य देखिए

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घनघोर व घृणित पदलोलुपता - धनलोलुपता-वंशवाद-परिवारवाद के आज के गंदले राजनीतिक समुद्र में अर्थ लाभ -शान -शौकत - पेंशन देने वाले छोटे -छोटे पदों के लिए भी कभी- कभी कितनी नीच हरकतें होती रहती हैं,यह सब हम दशकों से देख रहे हैं।

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 लाभ के लिए दल या दलीय सुप्रीमो का भयादोहन करने वाली गिरगिटी शक्तियां भी बेशर्मी से सक्रिय रहती हैं।

ताकि, सुप्रीमो से अपने लिए पद हड़पे जा सकें। 

‘शांति स्थापना’ व गद्दी की सुरक्षा में लगे कुछ सुप्रीमो यदाकदा भयादोहन के शिकार भी होते रहते हैं।

  भयादोहन करने वालों को देने से ही जब पद नहीं बचते तो बेचारा सुप्रीमो उसे भी नहीं दे पाता जिसे देना वह चाहता है।

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-- 30 दिसंबर 20 


मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

   याद रहेंगे शिक्षक नेता विनोद बाबू !

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बिहार विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष व महा 

सचिव रहे डा.विनोद कुमार सिंह का कल निधन हो गया।

वह 82 साल के थे।

शब्द के सही अर्थों में समाजवादी, दिवंगत विनोद बाबू 

को मैं दशकों से जानता था।

वैसे व्यक्ति इक्के -दुक्के ही मिलते हैं।

वे कई काॅलेजों के प्राचार्य रह चुके थे।

अच्छे शिक्षक और उतने ही अच्छे वक्ता भी थे।

   प्राचार्य के रूप में भी कठोर प्रशासक  थे।

  सीतामढ़ी के उस गोयनका काॅलेज के भी प्राचार्य रहे जहां दिवंगत केंद्रीय मंत्री डा.रघुवंश प्रसाद सिंह शिक्षक थे।

  विनोद बाबू जब भी पटना आते थे,मैं सब काम छोड़कर उनसे मिलने जाता था।

वे मुुजफ्फर पुर जिले के गायघाट के पूर्व विधायक (1977)विनोदानंद प्रसाद सिंह के कौटिल्य नगर स्थित आवास में ठहरते थे।

दोनों में अटूट दोस्ती थी। 

परस्पर सम्मान और स्नेह का भाव देखते बनता था।

 विनोदानंद जी के निधन के बाद वह मिलन स्थल नहीं रहा।

विनोद बाबू भी अस्वस्थ रहने लगे।

छपरा के अपने स्कूली सहपाठी सिद्धेश्वर तथा कुछ अन्य लोगों से विनोद बाबू का हालचाल मैं बीच -बीच में पूछता रहता था।

  पहले तो मैं उन्हें ही कभी -कभी फोन भी कर लिया करता था।

 पर जब पता चला कि उन्हें बोलने में दिक्कत होती है तो फोन करना छोड़ दिया।

उनके बारे में इतना ही कह सकता हूं कि यदि हम एक नगर में होते तो मैं सिर्फ उनकी बातें सुनने व कुछ सलाह मशविरा करने के लिए सप्ताह में दो-तीन  दिन तो उनके पास जरूर जाता।

वे अभिभावक की तरह थे।

  वे एक साथ बहुत कुछ थे।

समाजवादी,साहित्यकार,प्रभावशाली वक्ता ,शिक्षक नेता और दोस्तों के दोस्त। 

एक बार डा.नामवर सिंह ने भी उनकी सार्वजनिक रूप से  प्रशंसा की थी।

 स्वतंत्रता सेनानी दिवंगत त्रिगुणानंद सिंह के पुत्र विनोद बाबू सारण जिले के बनिया पुर प्रखंड के पिपरा रत्नाकर गांव के मूल निवासी थे।

बाद में छपरा के अपने आवास में रहते थे।

 कई पुस्तकों के लेखक विनोद बाबू का समाजवादी आंदोलन में बड़ा योगदान था।

जहां तक मेरी जानकारी है,यदि उन्होंने स्वाभिमान से थोड़ा समझौता किया होता तो वे राजनीति में भी किसी महत्वपूर्ण पद पर रहे होते।

  किंतु उन चीजों का उनके लिए कोई खास मतलब नहीं था।

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 विनोद बाबू ने एक बार किस तरह अपने मित्र के सम्मान की रक्षा के लिए पूरी किताब लिख डाली,उसका मैं गवाह हूं।

  काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान ने ऐतिहासिक शोध ग्रंथ माला के तहत दिल्ली विश्व विद्यालय के शिक्षक रहे विनोदानंद प्रसाद सिंह को शहीद सूरज नारायण सिंह पर किताब लिखने का भार सौंपा था।

कुछ अग्रिम भी मिला था।

विनोदानंद सिंह ने किताब पर कुछ सामग्री जुटा भी ली थी।

पर,इस बीच वे सख्त बीमार हो गए।

   अब उनके सामने धर्म संकट यह था कि किताब पूरी कैसे हो !

या फिर अग्रिम राशि लौटा दी जाए !

  विनोदानंद जी ने अपनी पीड़ा एक दिन विनोद बाबू को बताई।

 विनोद बाबू ने तुरंत उन्हें कह दिया कि मैं आपको इस धर्म -संकट से अभी मुक्त करता हूं।

 आपका यह अधूरा काम मैं पूरा कर दूंगा।

उन्होंने ‘मृत्यंुजय सूरज नारायण सिंह’  नाम से किताब लिख डाली।

सूरज बाबू पर संभवतः यह सबसे अच्छी किताब है।

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विनोद बाबू उन विरल हस्तियों में शामिल हैं जो चले तो जाते हैं क्योंकि एक दिन सबको जाना है, किंतु उनकी यादें नहीं जातीं।

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--सुरे ंद्र किशोर-29 दिसंबर 20 

  

      


     संदर्भ--किसान आंदोलन 

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 आर्थिक सिद्धांत तो यही कहता है कि जितने अधिक खरीदार और विक्रेता होंगे तो इससे दोनों पक्षों के लिए बेहतर संतुलन की तस्वीर बनेगी।

   दूर संचार और विमानन जैसे क्षेत्रों की सफलता इसकी मिसाल हैं।

क्या कोई बीएसएनएल या एयर इंडिया जैसी कंपनियों के एकाधिकार की वापसी चाहेगा ?

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   --अशोक खेमका,

  आई.ए.एस.अधिकारी  


 विनम्र निवेदन

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  मेरे नाम से किसी ‘महानुभाव’ ने मेरा फेसबुक पेज बना लिया है।

  अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि कृपया इनकी ओर से   मित्र बनने के लिए भेजे गए निमंत्रण को स्वीकार न करें।

          -- सुरेंद्र किशोर

             29 दिसंबर 20  


सोमवार, 28 दिसंबर 2020

     जेहादियों से मुकाबले में 

    चीन और भारत का फर्क 

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सन 2008 के बिजिंग ओलाम्पिक के ठीक चार दिन पहले 

चीन के उइगर इस्लामिक आतंकवादियों ने 16 चीनी सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर दी थी।

   इस साल के प्रारंभ में इस देश के इस्लामिक आतंकियों ने 

अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के समय दिल्ली को दहला दिया था।

  दंगे के पीछे पी.एफ.आई.का हाथ था।

उसे विदेश से इस काम के लिए 100 करोड़ रुपए मिले थ,े इसका भी सबूत मिला।

  इसके बावजूद हमारे देश के कई तथाकथित सेक्युलर नेताओं व दलों का यहां के जेहादियों के प्रति कैसा रुख रहा है ?

  दूसरी ओर किस तरह चीन सरकार शिनजियांग प्रांत के जेहादी तत्वों की किस तरह ‘दवाई’ कर रही है ?

अभूतपूर्व इलाज !!


ताकतवर चीन के डर से भारत या किसी अन्य देश के मुस्लिमों को सांप सूघ जाता है।

  चीन सरकार कहती भी है कि जेहादियों का इलाज लोकतंात्रिक व्यवस्था में संभव नहीं।

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--सुरेंद्र किशोर 

  25 दिसंबर 20


शनिवार, 26 दिसंबर 2020

 


   मैं पटना नगर निगम क्षेत्र में नहीं बस सका।

पर, उसका अफसोस अब हमारे परिजन व वंशज को नहीं रहेगा।

अब नगर निगम कौन कहे,प्रस्तावित पटना महानगर पालिका उस गांव को भी अपनी गोद में समेट रही है जहां मैंने अपना मकान बनवाया और करीब छह साल से रह रहा हूं।

 ऐसा कभी सोचा तक नहीं था।

बिहार के पटना जिले के फुलवारी शरीफ अंचल में भुसौला दाना पुर ग्राम पंचायत के कोरजी गांव में हमने कुछ दशक पहले 20 हजार रुपए कट्ठा

 की दर से जमीन खरीदी थी।

पटना एम्स इसी पंचायत में अवस्थित है।

  पक्की सड़क पर होने के कारण अब इसका बाजार भाव करीब 35-40 लाख रुपए कट्ठा हो गया है।

ताजा सूचना यह है कि जिस सड़क पर बसा हूं,वह सड़क संभवतः नेशनल हाईवे में परिणत होने वाली है।

 एन.एच.-98 से शुरू होकर सरारी रेलवे क्राॅसिंग पार करके  प्रस्तावित एन.एच.,दानापुर से गुजरेगी और प्रस्तावित शेर पुर-दिघवारा गंगा पुल (प्रस्तावित पटना रिंग रोड का हिस्सा)से मिल जाएगी।

  वैसे इसकी अभी चर्चा भर है।

कोई व्यक्ति यदि इस अपुष्ट सूचना की पुष्टि कर दे तो इस इलाके के लोगों को भारी संतोष होगा।

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पुनश्चः-

उम्मीद है कि पटना महा नगरपालिका बने तो वह ग्रामीण इलाकों का भी टिकाऊ विकास करे न कि सिर्फ टैक्स बढ़ा दे।

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--सुरेंद्र किशोर--26 दिसंबर 20 


  


शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

 


दलीय आधार पर पंचायत चुनाव करवाने 

के कुछ सकारात्मक फायदे

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--सुरेंद्र किशोर--

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बिहार में ग्राम पंचायतों के चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है।

राज्य की कुल 8387 ग्राम पंचायतों में अगले साल चुनाव

होंगे।

  अच्छा होगा ,यदि चुनाव दलीय आधार पर करवाने की परंपरा शुरू की जाए।

इससे शायद पंचायत स्तर पर जारी भ्रष्टाचार पर कुछ 

अंक़़ुश लगे।अभी तो भ्रष्टाचार का विस्तार देख कर ऐसा लगता है कि पंचायत व्यवस्था विफल हो रही है।

कम ही लोग जानते हैं कि पंचायत स्तर के भ्रष्टाचार का विपरीत असर हाल के विधान सभा चुनाव पर भी पड़ा।

  यह भी संभव है कि शायद तब भी अंकुश न लगे।

पर, एक प्रयोग करके देख लेने में क्या हर्ज है ?

यदि पंचायतों के उम्मीदवार किसी दल के होंगे तो वे विजयी होने के बाद अपने दल के हाईकमान की परवाह करेंगे।

यदि सब नहीं तो कुछ तो करेंगे ही।

  यदि कोई दलीय नेता मुखिया बन गया तो वह अपने दल से विधान सभा का टिकट मांग सकता है।

  यदि ऐसी महत्वाकांक्षी किसी की होगी तो मुखिया बनने पर वह खुद पर संयम रखने की भी कोशिश करेगा।

 अपने क्षेत्र में  विकास कार्यों में ईमानदारी से काम करवाने की कोशिश कर सकता है।

इसके विपरीत अभी जो हालत है,वह किसी से छिपा नहीं है।हां,अपवाद के तौर पर अब भी जहां -तहां ईमानदार मुखिया -सरपंच आदि जरूर मौजूद हैं।

 

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व्यवस्थित ढंग से शहरीकरण की उम्मीद

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पटना के आसपास के कई  इलाकों को भी पटना नगर निगम में शामिल कर लिया गया है।

मास्टर प्लान के तहत उन इलाकों का व्यवस्थित ढंग से नगरीकरण किया जाना है।

पटना एम्स जिस पंचायत में अवस्थित है,अब वह भी पटना नगर निगम के तहत आ गया।

एम्स के आसपास के इलाके में व्यवस्थित ढंग से मुहल्ला बसाने की कोशिश खुद बिहार सरकार को करनी चाहिए।

  राज्य सरकार निजी क्षेत्र के किसी डेवलपर से सहयोग कर सकती है।

  उसी तरह का मुहल्ला बसाया जाना चाहिए जिस तरह  बारी -बारी से कभी श्रीकृष्णा पुरी,राजेंद्र नगर और लोहिया नगर आदि बसाए गए।

अभी निजी प्रयासों से जो मुहल्ले बस रहे हैं,वे किसी गांव की तरह ही अव्यवस्थित हैं । न तो नाली के लिए जगह छोड़ी जा रही और न ही सड़क के लिए।

 स्कूल,अस्पताल व खेल के मैदान का तो कहीं नामो निशान तक नहीं।

  यदि सब कुछ निजी प्रयासों पर ही छोड़ दिया जाए तो भारी वर्षा की स्थिति में यह नया इलाका भी वैसे ही डूबेगा जिस तरह मुख्य पटना कभी -कभी डूबता रहा है।  

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     पंजाब के किसानों के दर्द

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पंजाब तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में एक खास तरह की 

जानलेवा समस्या गहराती जा रही है।

 वह समस्या है खेतों की मिट्टी की पौष्टिकता में निरंतर

 कमी। साथ ही जमीन का लवणीकरण।

 यह समस्या पंजाब में सर्वाधिक गंभीर है।भूजल जहरीला  हो रहा है।

रासायनिक खाद के जरूरत से अधिक इस्तेमाल के कारण यह समस्या पैदा हो रही है।

  इससे पंजाब में कैंसर पीड़ितों की संख्या बढ़ती जा रही है।

  अगली पीढ़ियों का भविष्य अनिश्चित सा हो गया है।

क्या पंजाब के किसान नेतागण इस समस्या पर भी कभी गौर करेंगे ?

  क्या वे कभी इस मांग के लिए भी दिल्ली का घेराव करेंगे कि सरकार रासायनिक खाद पर से निर्भरता घटाकर जैविक खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दे ?

एक जानकारी के अनुसार पंजाब के किसान अपने खेतों में 39-9-1 के अनुपात में क्रमशःनाइट्रोजन,फास्फोरस और पोटेशियम डाल रहे हैं। जबकि, आदर्श अनुपात 4-2-1 का माना जाता है।

   यदि रासायनिक खाद का इतनी अधिक मात्रा में  इस्तेमाल जारी रहा तो एक दिन दूसरे राज्यों के लोग पूछेंगे कि सरकार जो अनाज हमें दे रही है,वह कहीं पंजाब से तो नहीं ! 

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   कैसी होगी प्रस्तावित फिल्म सिटी !

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उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने गत सितंबर में

यह घोषणा की कि गौतम बुद्व नगर में देश की सबसे बड़ी फिल्म सिटी स्थापित होगी।

संभवतः अब तक उस पर कुछ आरंभिक काम शुरू भी हो गए होंगे।

उम्मीद की जाती है कि वह सिटी जब बन कर तैयार होगी तो वहां से साफ-सुथरी हिन्दी फिल्मों का ही निर्माण होगा।

 यदि सेंसर नियमों का कड़ाई से पालन हो तो

इस देश में सिर्फ साफ-सुथरी फिल्में ही बन सकती हैं।

उसी तरह की फिल्में जिस तरह की फिल्में पचास-साठ के दशकों में बनती थीं।

   ‘बागवान’ और ‘नदिया के पार’ जैसी साफ सुथरी फिल्में तो  हाल के वर्षों में भी बनीं।

   सेंसर बोर्ड के नियमों को अंगूठा दिखाते हुए इन दिनों अनावश्यक ंिहंसा व सेक्स प्रधान फिल्में मुम्बई में बनाई जा रही हैं।इससे नई पीढ़ियों पर खराब असर पड़ रहा है।

याद रहे कि सेंसर के जो नियम साठ के दशक में थे,वही नियम आज भी हैं।  

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और अंत में

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पटना हाईकोर्ट में जजों के 30 पद खाली हैं।

स्वीकृत पदों की कुल संख्या 53 है।

कार्यरत  23 जजों में से भी कुछ जज जल्द ही रिटायर होने वाले हैं।

इतने अधिक खाली पद देश के किसी अन्य हाईकोर्ट में नहीं हैं।

एक तो बिहार की आबादी बढ़ रही है। 

साथ ही ,मुकदमों की संख्या बढ़ रही है।

शराबबंदी को लेकर बड़ी संख्या में मुकदमे लोअर कोर्ट में दाखिल हो रहे हैं।

वे भी बारी -बारी से हाईकोर्ट आ सकते हैं।

जिला तथा अनुमंडल स्तरों की

अदालतों में भी न्यायाधीशों की संख्या की कमी है। 

पटना हाईकोर्ट में करीब डेढ़ लाख मुकदमे लंबित हैं।

मौजूदा जजों पर काम का बोझ है।

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--कानोंकान,

दैनिक प्रभात खबर

पटना-25 दिसंबर 20

 


गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

    इस देश के कुछ नेताओं (कुछ ही नेताओं,सब नहीं)

के चाल,चरित्र,चिंतन व निजी संपत्ति के विस्तार के बारे में 

देख-सुन-जान-गुण कर ऐसा लगता है कि यदि 1947 में आजादी नहीं हुई होती तो ऐसी मनोवृत्ति वाले  नेतागण ‘गब्बर सिंह’ की तरह चंबल के बीहड़ों में अपने -अपने छोटे -बड़े गिरोह चला रहे होते।

   सिर्फ राजनीति ही नहीं, कुछ अन्य पेशों के लुटेरों का भी कमोवेश यही हाल है।

              --- एक अज्ञात 


 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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भूमि हड़पने वालों के खिलाफ ‘गुजरात माॅडल’ का सख्त कानून जरूरी

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मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि बिहार में साठ  प्रतिशत अपराध जमीन से संबंधित विवादों को लेकर ही होते हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि जमीन से संबधित विवादों को कम करने की गंभीर कोशिश जारी है।

    गुजरात सरकार ने हाल में ‘‘द गुजरात लैंड ग्रैबिंग 

(प्रोहिविशन)एक्ट 2020’’ बनाया है।

यह कानून वहां लागू भी हो गया।

  दूसरे की जमीन पर कब्जा करने वालों के खिलाफ इस कानून में चैदह साल तक की सजा का प्रावधान है।

 पहले के उपाय विफल हो जाने के बाद ही गुजरात सरकार ने मजबूर होकर ऐसा कानून बनाया है।

यह सबक सिखाने वाली सजा होगी।

दूसरे कानून तोड़क भी डरेंगे।

बिहार में तो यह समस्या और भी गंभीर है।

जमीन विवादों के कारण जितने अपराध व मुकदमे होते हैं,

वे तो सामने आ जाते हैं।

किंतु अन्य अनेक मामले सामने नहीं आ पाते। कानून तोड़कों के भय और आतंक के कारण ऐसा होता है।अनेक पीड़ित लोग चुप रह जाते हैं।

  इसलिए बिहार सरकार को चाहिए कि वह खुद पहल करे।

जिस तरह किसी हत्या का मामला शासन का मामला होता है,पुलिस अभियोजन चलाती है।उसी तरह राज्य सरकार को चाहिए कि वह जमीन हड़प या अतिक्रमण के मामलों को  अपना मामला बनाए।

खुद मुकदमा चलाए।

कमजोर वर्ग के लोगों को मुकदमा लड़ने को कहिएगा तो वे ताकतवर लोगों के सामने टिक नहीं पाएंगे।

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 पश्चिम बंगाल से ठोस संकेत

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    पश्चिम बंगाल के माकपा नेता डा.सुजन चक्रवर्ती ने कहा है कि इस राज्य में विरोधी दलों को तोड़ने की शुरूआत ममता बनर्जी ने ही की थी।

उसी का अनुसरण इन दिनों भाजपा कर रही है।

सुजन जी ने ठीक ही कहा है।

दरअसल, जहां गुड़ होगा,चिटियां तो वहीं जाएंगी।

अब वोट का गुड़ भाजपा के पास एकत्र हो रहा है।

वोटर पहले पक्ष बदलते हैं,दूरदर्शी  नेतागण बाद में।

  याद रहे कि ममता बनर्जी ने ही एक और काम की शुरूआत की थी। 

4 अगस्त, 2005 को ममता बनर्जी ने गुस्से में लोक सभा के स्पीकर के टेबल पर कागज का पुलिंदा फेंका था।

उसमें अवैध बंगला

देशी घुसपैठियों को मतदाता बनाए जाने के सबूत थे।

उनके नाम गैरकानूनी तरीके से मतदाता सूचियों  में शामिल करा दिए गए थे।

ममता ने कहा कि घुसपैठ की समस्या राज्य में महा विपत्ति बन चुकी है।

इन घुसपैठियों के वोट का लाभ वाम मोर्चा उठा रहा है।

उन्होंने उस पर सदन में चर्चा की मांग की।

चर्चा की अनुमति न मिलने पर ममता ने सदन की सदस्यता

 से इस्तीफा भी दे दिया था।

 चूंकि एक प्रारूप में विधिवत तरीके से इस्तीफा तैयार नहीं था,इसलिए उसे मंजूर नहीं किया गया।

अब भाजपा का ममता बनर्जी पर आरोप है कि वह बंगलादेशी घुसपैठियों को कुछ अधिक ही संरक्षण दे रही हैं।उन्हें देश की सुरक्षा की कोई ंिचंता नहीं है।

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   एकल परिवार की समस्याएं 

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अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं।

पटना का कोई परिवार अपने रिश्तेदार के यहां किसी अन्य शहर में गया था।

घर की रखवाली के लिए कोई और व्यक्ति उपलब्ध नहीं था।

चोरी हो गई।सारा सामान गायब हो गया।

  अब इसकी पृष्ठभूमि समझने की जरूरत है।

दरअसल यह एकल परिवार की समस्या है।

संयुक्त परिवार बिखरता जा रहा है।

अधिकतर एकल परिवारों के पास ऐसा कोई विश्वस्त मित्र या रितेदार नहीं होता जिस पर अपना घर छोड़ कर वह कहीं जाए।

 इन दिनों नौकरीपेशा व्यक्ति अक्सर संयुक्त परिवार से अलग रह रहा है।

परिवार गांव में और उसका एक सदस्य शहर में किसी नौकरी में ।

वह अपने मूल परिवार से कट जाता है।सिर्फ अपनी व अपनी संतान की तरक्की व सुख-शांति में वह लीन हो जाता है।

नतीजतन शहर छोड़ने से पहले किस मुंह से गांव के किसी परिजन को पहरा देने के लिए वह दो -चार दिनों के लिए 

बुलाए !

  एकल परिवार के किसी सदस्य के गंभीर रूप से बीमार हो जाने पर भी एकल परिवार वाले को उसका अकेलापन खलता है।किंतु तब तक तो देर हो चुकी होती है।

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    अपराधियों का आर्थिक 

   आधार तोड़े सरकार

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बिहार के खूंखार अपराधी जेल तो जा रहे हैं।

उनके खिलाफ अभियोजन व अदालतें भी सक्रिय हंै।

यह अच्छी बात हैं।

पर उनका आर्थिक आधार अब भी नहीं टूट रहा है।

हाल में बगल के राज्य में एक तरफ अपराधी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते समय पुलिस

की गाड़ी अक्सर पलट रही थी।शायद फिर पलटे !

साथ ही, अपराधियों की आर्थिक कमर तोेड़ने के लिए उनकी बड़ी -बड़ी नाजायज बिल्डिंगें भी ढाही जाती रही ।

 इसका काफी असर पड़ा है।

आए दिन पुलिस की गाड़ी पलटती जाए,ऐसा तो कोई अन्य नहीं चाहेगा।

किंतु खूंखार अपराधियों के खिलाफ के गवाहों की सुरक्षा तो राज्य सरकार से जरूर मिले।

साथ ही, उनका आर्थिक आधार ध्वस्त हो।

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       और अंत में

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पटना जिले के बिहटा चैक पर ट्रक मालिकों ने हाल में पुलिसकर्मी को सरेआम पीटा।

उससे पहले पुलिस ने ट्रक ड्राइवर को मार कर लहू लुहान कर दिया था।

ट्रक ड्राइवर ने पुलिस को 500 रुपए की रिश्वत देने से मना कर दिया था।

प्रत्यक्षदर्शी कहते हैं कि ट्रक आगे बढ़ाने के लिए ऐसी मांग अक्सर वहां तैनात पुलिसकर्मी करते हैं।

  प्रत्यक्षदार्शियों के अनुसार यह रोज का धंधा है।

  यह धंधा राज्य में सिर्फ एक जगह ही नहीं होता है।

  बहुत दिनों से यह सब होता रहा है।पर फर्क आया है।

 ‘वर्दी टैक्स’ का अब हिंसक विरोध भी होने लगा है।

  अब भी समय है कि राज्य सरकार, पुलिस महकमा और संबंधित पुलिस अफसर हस्तक्षेप करें और ऐसे अन्याय को रोके।

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    चैधरी चरण सिंह के जन्म दिन पर

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किसानों की संतान के लिए नौकरियों 

में आरक्षण चाहते थे चरण सिंह 

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  --सुरेंद्र किशोर--

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 पूर्व प्रधान मंत्री चैधरी चरण सिंह सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आधार जाति बनाने के बदले यह चाहते थे कि किसानों की संतानों के लिए आरक्षण हो।

  वह यह भी कहते थे कि गजटेड नौकरियां उन्हें ही दो जो अंतरजातीय शादी करे।

खुद चरण सिंह की दोनों बेटियों ने अंतरजातीय शादी की थी।

    किसान तो लगभग हर जाति में हैं।

फिर भी इस देश के अधिकतर 

अखबार व कुछ नेता -विश्लेषक चैधरी चरण सिंह को ‘‘जाट नेता’’ लिखते-बताते  रहे।

इसको लेकर वे दुःखी रहते थे।

वैसे तो वे जाट बहुल चुनाव क्षेत्र से जीतते थे,

किंतु सवाल यह है कि 1957 से आज तक इस देश के कितने नेता ऐसे चुनाव क्षेत्रों से लड़ते रहे ,जहां उनकी जाति की बहुलता न हो।फिर उन्हें जाति नेता क्यों नहीं कहा गया ?

  प्रथम आम चुनाव में जरूर कुछ  चुनाव क्षेत्रों के लिए उम्मीदवार तय करते समय जातीय बहुलता का ध्यान नहीं रखा गया था।

किंतु 1957 से उस ‘‘गलती’’ को सुधार लिया गया था। 

   हां,चैधरी चरण सिंह पर यह आरोप जरूर बनता है कि उन्होंने प्रधान मंत्री बनने के लिए तब तक की सबसे अच्छी मोरारजी देसाई सरकार को गिरवा दिया था।

   हांलाकि उस सरकार के गिरने के पीछे कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारण भी थे।

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--सुरेंद्र किशोर-23 दिसंबर 20

      


 सन 1950 की ‘गोदी मीडिया’ ?!!

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देश के एक बड़े संपादक संविधान सभा का सदस्य बनना चाहते थे।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी.बी.पंत ने उनके नाम की सिफारिश भी कर दी थी।

पर, प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनका नाम काट दिया।

उस पर संपादक जी बहुत -बहुत नाराज हो गए।

फिर तो वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के खिलाफ 

तरह- तरह की पुष्ट-अपुष्ट बातें अपने काॅलम में लिखने लगे।

(वैसी -वैसी बातें लिखने लगे जिस तरह की बातें उन दिनों 

अन्य पत्रकार नहीं लिखते थे।) 

 प्रधान मंत्री ने उस संपादक को इस पर बुरी तरह फटकारा।

फटकार के बाद थोड़े दिनों के लिए तो वे शांत रहे।

किंतु फिर उसी तरह की 

बातें लिखने लगे।

इस पर अखबार के मालिक से प्रधान मंत्री ने पूछवाया कि क्या आप उस संपादक के लेखन से सहमत हैं ?

स्थिति की गंभीरता समझते हुए मालिक ने उस संपादक की छुट्टी की दी।

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-- उपर्युक्त जानकारी प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के 13 साल तक निजी सचिव रहे एम.ओ.मथाई की पुस्तक(पेज-102) पर आधारित है।

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  प्रधान मंत्री के हस्तक्षेप से उस संपादक की नौकरी गई,इसकी दबी जुबान में चर्चा दिल्ली के पूरे मीडिया जगत में हुई।

किंतु इस बात का कोई जिक्र कहीं नहीं मिलता कि इस पर मीडिया में प्रधान मंत्री के खिलाफ कोई बात छपी हो।

यदि आपके पास कोई जानकारी हो,तो मेरा सामान्य ज्ञान जरूर बढ़ाइएगा।

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दरअसल आजादी के बाद के वर्षों में इस देश की मीडिया का अधिक अंश नेहरू पर मोहित था।

कुछ तो भावना से,

कुछ विचारधारा के कारण 

 और कुछ दूसरे, अघोषित कारणों से।

क्या तब की मीडिया को किसी ने ‘गोदी मीडिया’ कहा ?

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पुनश्चः

एक बार बिहार के कुछ कांग्रेसी नेता,जो अनुग्रह बाबू के समर्थक थे, लाल बहादुर शास्त्री के यहां गए।

उनसे कहा कि आप जयप्रकाश नारायण को नेहरू के खिलाफ बयान देने से रोकिए।

क्योंकि जब वे बोलते हैं तो कुछ कांग्रेसी नेता नेहरू जी को यह बताते हैं कि वे डा.अनुग्रह नारायण सिंह के कहने पर ही आपके खिलाफ बोलते हैं ।

जबकि, ऐसी कोई बात नहीं।

  इस पर शास्त्री जी ने क्या कहा ?

आपको जानकार हैरानी होगी।

उन्होंने कहा कि जेपी जब बोलते हैं तो पंडित जी को अपनी गलतियों का एहसास होता है।

क्योंकि पंडित जी मानते हैं कि जेपी का कोई निजी स्वार्थ नहीं होता।

किंतु जब जेपी भी नहीं बोलेंगे तो पंडित जी कैसे जानेंगे कि वे गलत काम कर रहे हैं या सही ?

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शास्त्री जी की इस टिप्पणी से क्या इस बात की पुष्टि नहीं होती है कि तब ‘‘नेहरू मगन’’ मीडिया (अपवाद को छोड़कर)अपना काम नहीं कर रही थी ?

 और , इसीलिए जेपी के आलोचनात्मक बयानों की जरूरत शास्त्री जी जैसे अच्छी मंशा वाले कांग्रेसी नेता को भी महसूस हो रही थी ?

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--सुरेंद्र किशोर

--21 दिसंबर 20 


सोमवार, 21 दिसंबर 2020

 



भूमि हड़पने वालों के खिलाफ ‘गुजरात माॅडल’ का सख्त कानून जरूरी--सुरेंद्र किशोर

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मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि बिहार में साठ  प्रतिशत अपराध जमीन से संबंधित विवादों को लेकर ही होते हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि जमीन से संबधित विवादों को कम करने की गंभीर कोशिश जारी है।

  इस बीच गुजरात सरकार ने हाल में 

‘‘द गुजरात लैंड ग्रैबिंग 

(प्रोहिविशन) एक्ट, 2020’’ बनाया है।

यह कानून वहां लागू भी हो गया।

  दूसरे की जमीन पर कब्जा करने वालों के खिलाफ इस

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 कानून में चैदह साल तक की सजा का प्रावधान है।

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 पहले के सारे उपाय विफल हो जाने के बाद ही गुजरात सरकार ने मजबूर होकर ऐसा कड़ा कानून बनाया है।

यह सबक सिखाने वाली सजा होगी।

दूसरे कानून तोड़क भी डरेंगे।

बिहार में तो यह समस्या और भी गंभीर है।

जमीन विवादों के कारण जितने अपराध व मुकदमे होते हैं,

वे तो सामने आ जाते हैं।

किंतु अन्य अनेक मामले सामने नहीं आ पाते।

 कानून तोड़कों के भय और आतंक के कारण ऐसा होता है।

अनेक पीड़ित लोग अपने जन-धन को बचाने के लिए चुप रह जाते हैं।

  इसलिए बिहार सरकार को चाहिए कि वह खुद पहल करे।

जिस तरह किसी हत्या का मामला शासन का मामला होता है,पुलिस अभियोजन चलाती है।

 उसी तरह राज्य सरकार को चाहिए कि वह जमीन हड़प या अतिक्रमण के मामलों को  अपना मामला बनाए।

खुद मुकदमा चलाए।

कई लोगों को अपनी जमीन अपनी जान से भी प्यारी होती है।

इसीलिए तो अपनी जमीन बचाने के लिए जान लेने या देने को तैयार रहते हैं।

 कमजोर वर्ग के लोगों को मुकदमा लड़ने को कहिएगा तो वे ताकतवर लोगों के सामने टिक नहीं पाएंगे।

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मेरे साप्ताहिक काॅलम ‘कानोंकान’ से

प्रभात खबर, पटना

18 दिसंबर 20


रविवार, 20 दिसंबर 2020

   

‘‘चमड़ी जाए त जाए, लेकिन दमड़ी ना जाए।’’

अपने गांव में बचपन में मैंने एक कहावत सुनी थी

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इस देश के कुछ संगठनों पर यह कहावत 

लागू होते देखा जा सकता है।

   वंशवाद-परिवारवाद-भ्रष्टाचारवाद-तुष्टीकरणवाद के कारण भले कुछ पार्टियां धीरे -धीरे  बर्बाद होती जाए,किंतु उत्तराधिकारी बनेगा तो सुप्रीमो का योग्य-अयोग्य-बकलोल वंशज या परिजन ही बनेगा।

घोषित-अघोषित नीतियां-रणनीतियां भी वहीं रहेंगी।

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   आज कितने दल हैं जो वंशवादी-परिवारवादी होने के बावजूद तरक्की भी कर रहे हैं ?

कर रहे होंगे , किंतु अधिक नहीं।

अधिकतर तो धीरे- धीरे दुबले ही होते जा रहे हैं।

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  एक राजनीतिक चिंतक से मैंने पूछा कि  घाटे का ऐसा सौदा दलीय 

सुप्रीमो क्यों करते हैं ?

जवाब था --और क्या करें ?

अपनी गद्दी न तो कोई राजा अपने पड़ोसी को सौंप कर मरता था ।

औरद्व न ही आज भी कोई उद्योगपति अपना कारखाना अपने किसी मैनेजर को सौंप कर ऊपर जाता था।

नौकर कितने भी भरोसेमंद हों,किंतु दुकान के गल्ले पर  सेठ,सेठानी या सेठजी का बच्चा ही तो बैठेगा।

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वाह रे भारतीय लोकतंत्र !!!

तेरे अंजाम पर रोना आया !

बात निकली तो हर बात पर रोना आया !!

जिन  स्वतंत्रता सेनानियों ने ऊपर लिखी बुराइयों को अपने पास फटकने तक नहीं दिया, वे ऊपर से यह सब देख-समझ कर परलोक में चिंता में करवटें बदल रहे होंगे !

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--सुरेंद्र किशोर--19 दिसंबर 20 


   पश्चिम बंगाल में बदलाव अब लगभग तय !

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    बदलाव से ही बचेगा बंगाल ! 

  कैसे बचेगा, इस पर विस्तार से चर्चा फिर कभी 

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    --सुरेंद्र किशोर--

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क्या सन 1977 के जगजीवन राम की भूमिका 

में हैं सन 2020 के सुवेंदु अधिकारी तथा अन्य ?

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सन 1977 में लोक सभा चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अचानक जगजीवन राम ने अपने साथियों के साथ कांग्रेस छोड़

दी थी।

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2021 के पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले तृणमूल कांग्रेस के प्रभावशाली नेता सुवेंदु अधिकारी ने ममता बनर्जी की पार्टी को  बाॅय -बाॅय कह दिया

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   कहते हैं कि 1977 में जगजीवन राम उर्फ ‘‘बाबू जी’’ ने पहले ही चुनावी हवा का रुख पहचान लिया था।

उन्हें लगा था कि यदि वे कांग्रेस में बने रहे तो खुद भी चुनाव नहीं जीत पाएंगे।

याद रहे कि 1977 के लोक सभा चुनाव में कुछ अन्य राज्यों के साथ -साथ बिहार की भी सारी सीटें कांग्रेस हार गई थी।

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कहते हैं कि सुवेंदु अधिकारी से पहले बंगाल की अधिकतर जनता ने भाजपा को 2021 में जिताने का मन बना लिया था।

सुवेंदु ने जनता का अनुसरण मात्र किया।

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जगजीवन राम के कांग्रेस छोड़ने के बाद जनता पार्टी की भीतरी हवा आंधी बन कर सतह पर आ गई थी।

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सुवेंदु के टी.एम.सी.छोड़ने के बाद ममता बनर्जी भी हिल गई हैं।तृणमूल के अनेक कार्यकत्र्ता अनुत्साहित हो गए हैं।

पश्चिम बंगाल से बाहर आ रही खबरों के अनुसार अब कोई राह नहीं बची है ममता बनर्जी के लिए।

संकेत हैं कि अभी तो कुछ और नेता ममता का साथ छोड़ेंगे।

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अब लगता है कि पश्चिम बंगाल बच जाएगा।

 ममता बनर्जी ने अपने वोट बैंक खासकर एक करोड़  बंगला देशी घुसपैठियों के लिए राज्य,देश और राजनीति का जितना नुकसान किया ,इतिहास में उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है।

बंगाल की जनता कितना बर्दाश्त करती ?

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बीच में कोई चमत्कार नहीं हुआ तो 2021 में ममता बनर्जी के हाथों से सत्ता निकल जाएगी।

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यदि सत्ता रह जाएगी तो क्या होगा ?

यदि सत्ता चली जाएगी तो ममता बनर्जी खुद,देश व पश्चिम बंगाल के साथ कैसा सलूक करेंगी ?

इन राजनीतिक -गैर राजनीतिक बातों को लेकर थोड़ा आप भी अपने अनुमान के घोड़े दौड़ाइए।

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18 दिसंबर 20


शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

    चुनावी टिकट के लिए ‘चंदे’ की दर बढ़ी

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इस देश में एक विधान सभा के टिकट के लिए अनेक उम्मीदवारों को 15 लाख रुपए से लेकर एक करोड़ रुपए तक का चंदा देना पड़ा है।

संसद के लिए टिकट की रेट नहीं मालूम।

  हालांकि सारे उम्मीदवारों को यह नहीं देना पड़ता।

यह चंदा, टिकट के उम्मीदवारगण उस पार्टी को देते हैं जहां से उन्हें टिकट मिलना होता है।

ऐसा नहीं है कि सभी दल चंदा लेते ही हैं।

कई तो मुफ्त में ही टिकट दे देते हैं। 

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जब टिकट के लिए एक करोड़ रुपए तो चुनाव में 

कितना खर्च ??

अनुमान के घोड़े दौड़ाइए।

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इस देश की राजनीति एक दिन ऐसी हो जाएगी,ऐसा अनुमान गांधी जी को रहा होता तो वे दक्षिण अफ्रीका से यहां आते ही नहीं।

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हाल में एक पूर्व मंत्री ने मुझे बताया कि दो-चार लाख रुपए देने होते तो मैंने दे दिया होता।

पर मांग बहुत अधिक थी।

इसलिए मैं टिकट से वंचित हो गया।

मैंने उनसे पूछा था कि आप चुनाव क्यों नहीं लड़े ?

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अब तो कुछ उम्मीदवार छाती ठोक यह भी कहते हैं कि फलां परिवार मुझे वोट कैसे नहीं देगा ??!!

पैसे के घमंड में जी रहा एक उम्मीदवार कहता है कि ‘‘दरअसल हर व्यक्ति की एक कीमत होती है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि वह कीमत आपको मालूम होनी चाहिए।’’

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--सुरेंद्र किशोर--18 दिसंबर 20


 केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद की मदद से 

जब दिल्ली में बाजार उपलब्ध कराया गया

तो बिहार के किसान ओम प्रकाश यादव 

को मिली अपनी फसल की 10 गुनी कीमत

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उससे पहले उसकी गोभी की कीमत जब एक 

रुपया प्रति किलो भी नहीं मिल रही थी तो 

उसने गोभी के खेत के एक हिस्से में

टैक्टर चलाकर उसे मिट्टी में मिला दिया था।

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 नये कृषि कानून के जरिए केंद्र सरकार यही तो करने की कोशिश कर रही है कि किसान अपनी फसल देश के किसी भी हिस्से में बेच सकंे व पूरा दाम लें।

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हां,नये कानून से बिचैलियों को जरूर घाटा होगा जो राजस्थान में दो रुपए किलो टमाटर खरीद कर दिल्ली 

में उसी टमाटर को 40 रुपए किलो बेचते हैं।

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--सुरेंद्र किशोर--17 दिसंबर 20



    सारी आत्म कथाएं झूठी होती हैं

     --जार्ज बर्नार्ड शाॅ

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जार्ज बर्नार्ड शाॅ ने कहा था कि 

‘‘सारी आत्म कथाएं झूठी होती हैं।

मेरा मतलब कि जान बूझकर 

झूठ।’’

  बर्नार्ड शाॅ काफी हद तक सही थे।

पर, पूर्णतः नहीं।

मैंने पूर्व प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई की जीवनी पढ़ी है।

मेरी जानकारी के अनुसार उसमें मुझे कोई बात झूठी नहीं लगी।

बिहार के भी एक प्रमुख नेता(अब दिवंगत) के

जीवन पर उनकी लिखी संस्मरणात्मक पुस्तक पढ़ी।

सच्ची लगी।

हां, लगता है कि पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की संस्मरणात्मक पुस्तक पर बर्नार्ड शाॅ की टिप्पणी एक हद तक लागू होती है।

लगता है कि प्रधान मंत्री न बन पाने की पीड़ा उन्हें अंत-अंत तक सालती रही।

स्वाभाविक ही है।

मनमोहन सिंह से तो बेहतर ही प्रधान मंत्री साबित होते।

लेकिन यदि सुप्रीमो को रबर स्टाम्प ही पसंद हो और पार्टी उसकी ‘अपनी’ हो तो फिर भला कोई क्या कर सकता है ?!!

   प्रणव मुखर्जी के अनुसार, ‘‘मेरे राष्ट्रपति बन जाने के बाद कांग्रेस अपनी दिशा से भटक गई।’’

यह बात सही नहीं है।

दरअसल कांग्रेस तो उससे पहले ही भटक चुकी थी।

घोटाले-दर घोटाले के कारण कांग्रेस जनता से धीरे -धीरे कटती चली गई।

   कांग्रेस के कमजोर होने का दूसरा बड़ा कारण यह था कि वह अल्पसंख्यकों की ओर कुछ अधिक ही झुकी हुई रही है।

यहां तक कि अल्पसंख्यकों के बीच के अतिवादियों की ओर भी।

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प्रणव मुखर्जी ने कभी कहा था कि ‘बोफर्स’ कोई घोटाला नहीं था,बल्कि मीडिया की उपज था।

  याद रहे कि प्रणव मुखर्जी के वित मंत्रित्वकाल में ही भारत सरकार के आयकर अपीलीय न्यायाधीकरण ने सन 2011 में कहा था कि बोफर्स सौदे में क्वात्रोचि व हिन्दुजा को दलाली के पैसे मिले थे।

इसलिए उन पर भारत सरकार का टैक्स बनता है।

गत साल आयकर महकमे ने मुम्बई स्थित हिन्दुजा के एक फ्लैट का उसी एवज में नीलाम भी कर दिया।

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--सुरेंद्र किशोर--

 16 दिसंबर 20


 विजय दिवस पर 

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1962 में जब हम चीन से हारे तो उसके लिए तत्कालीन रक्षा मंत्री वी.केे.कृष्ण मेनन को बलि का बकरा बना दिया गया।

किंतु जब हमने 1971 में पाकिस्तान को धूल चटा दी तो

उसके लिए प्रधान मंत्री को दुर्गा की उपाधि दे दी गई।

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दरअसल 1962 की हार के लिए न तो सिर्फ रक्षा मंत्री दोषी थे और न ही 1971 की जीत का श्रेय सिर्फ इंदिरा गांधी को  दिया जा सकता है।

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जीत भी सभी संबंधित लोगों की थी तो हार भी सबकी !

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श्रेय लेने की होड़ के कारण 1971 के रक्षा मंत्री भी नाराज रहे और सेना प्रमुख भी।

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दो टिप्पणियां पढ़िए-  

विजय का श्रेय किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता--जगजीवन राम 

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यदि मैं पाकिस्तान का सेनाध्यक्ष होता तो जीत उसी देश की होती--जनरल मानिक शाॅ

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बंगला देश युद्ध में विजय के श्रेय 

को लेकर चली थी खींचतान

        सुरेंद्र किशोर  

महारथियों के बीच अजीब खींचतान चली थी।

यह खींचतान बंगला देश को लेकर भारत -पाक युद्ध में भारत की विजय का श्रेय देने के सवाल पर हुई थीं। 

दक्षिण भारत के एक कांग्रेसी सासंद ने लोक सभा में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कह दिया था।

(किंतु मीडिया ने ‘दुर्गा’ शब्द अटल बिहारी वाजपेयी के मुंह में डाल दिया।

अटल जी ने स्पीकर से कहा कि आप खंडन करें।किंतु उनकी बात नहीं मानी गई।

क्योंकि, अटल जी द्वारा दुर्गा कहलाना तब की सत्ता को बेहतर लगा।)

   धार्मिक भावना उभारने के लिए ही तो दुर्गा कहा 

गया था !

 आज कुछ लोग नरेंद्र मोदी पर यह आरोप लगाते रहते हंै कि पाक के खिलाफ कार्रवाई करके भाजपा हिन्दू भावना भड़काती है।

जबकि नरेंद्र मोदी को कोई किसी भगवान के नाम से नहीं जोड़ रहा है।

 खैर जो हो, इस देश के आम लोग 1971 के युद्ध में जीत का पूरा श्रेय इंदिरा गांधी को दे रहे थे।

 पर रक्षा मंत्री जगजीवन राम और सेना प्रमुख मानेक शाॅ इसे मानने को तैयार नहीं थे।

युद्ध में विजय के बाद जब इंदिरा गांधी को ‘भारत रत्न’ से अलंकृत  किया गया तो सेना में प्रतिक्रिया हुई।

उसे शांत करने के लिए सेना प्रमुख  सैम मानिक शाॅ को ‘फील्ड मार्शल’ का ओहदा दिया गया।

    बंगला देश युद्ध के बाद एक खेमे की ओर से यह सवाल भी उठाया गया  कि सन  1962 में  चीन से पराजय के लिए इस देश के रक्षा मंत्री वी.के.कृष्ण मेनन जिम्मेदार थे तो पाकिस्तान पर जीत के लिए सिर्फ प्रधान मंत्री को श्रेय क्यों दिया जाना चाहिए ?जगजीवन राम को क्यों नहीं  ?

 उधर रक्षा मंत्री जगजीवन राम मानिक  शाॅ से नाराज रहा करते थे।

   क्योंकि  शाॅ तीनों सेनाध्यक्षों में खुद को सर्वोच्च होने का  प्रयास करते रहे।

  पर सर्वोच्च हो नहीं सके,ऐसा जगजीवन राम का कहना था।

 अब इस संबंध में तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम ने 1977 में कहा था कि 

 ‘1971 के युद्ध में भारत की विजय का  बड़ा कारण यह था कि सेना के तीनों अंगों का सही और परस्पर पूरक सह कार्य और रक्षा सामग्री के उत्पादन से लेकर हर मोर्चे पर मेरा स्वयं जाकर सेना का हौसला बढ़ाना।

  इसके अतिरिक्त निदेशन में सामंजस्य होना भी एक महत्व की बात थी।’

  इसके विपरीत बंगला देश युद्ध के समय भारतीय सेनाध्यक्ष   मानिक  शाॅ ने 1974 में लंदन में साफ- साफ कह दिया था कि 

‘अगर मैं उस युद्ध में पाकिस्तान का सेनाध्यक्ष होता तो विजय पाकिस्तान की ही होती।’

  मानिक  शाॅ की इस गर्वोक्ति पर  जगजीवन राम की टिप्पणी महत्वपूर्ण थी।

उन्होंने कहा कि 

‘मैं शाॅ को नकली फील्ड मार्शल मानता हूं।

वह इस योग्य नहीं थे।’

जगजीवन राम को युद्ध के लिए अपनी तैयारी पर पूरा विश्वास था।

  उन्होंने कहा कि ‘उस युद्ध को तो जीता ही जाना था भले ही जनरल कोई और होता ।

क्योंकि हमने तैयारी ही इतनी अधिक कर ली थी।’

  उनकी यह भी राय थी कि यदि किन्हीं प्रकार के दबाव में आकर किसी को फील्ड मार्शल बना दिया जाए ,तोभी वह नकली फील्ड मार्शल ही होगा।

   मानेक शाॅ पैरवी और खुशामद से फील्ड मार्शल बने थे।

जगजीवन बाबू की स्पष्ट राय थी कि उस समय जो भी सेनाध्यक्ष होता, वही युद्ध जीतता भले ही वह इस योग्य नहीं होता।

   उन्होंने यह भी कहा कि प्रजातांत्रिक प्रणाली में जिस ढंग से निर्णय किये जाते हैं,उसके अंतर्गत विजय का श्रेय किसी व्यक्ति विशेष को नहीं दिया जा सकता।

    जगजीवन बाबू इस बात से सहमत नहीं थे कि बंगला देश युद्ध में विजय का सारा श्रेय इंदिरा गांधी को दिया जाए।

  मानेक शाॅ के बारे में बात होने पर जगजीवन राम तीखे हो जाते थे।

  उन्होंने  कहा था कि वे तीनों सेना प्रमुखों में से खुद को सर्वोच्च दिखाने की कोशिश करते थे।

लेकिन हो नहीं सके।

नीति निर्धारण समिति की बैठकों मंे कई बार मानेक शाॅ अन्य दोनों सेनाध्यक्षों की बातों का विरोध करते थे ।

और, उनके बीच खुद को सर्वोच्च दिखाने की कोशिश करते थे।

पर,हम इस मान्यता के नहीं रहे कि तीनों सेनाओं का एक अध्यक्ष हो।

  यह पूछे जाने पर कि क्या कभी आपसे उनका नीतिगत मतभेद रहा ,जगजीवन बाबू ने कहा कि ऐसा साहस वह नहीं कर सकते थे।

   वैसे उनकी ख्वाहिश मनमानी करने की भी रहती थी।

पर वे कर नहीं सकते थे। 

मानेक शाॅ की राय भी कुछ नेताओं के बारे में बहुत खराब थी।

   मानेक शाॅ ने एक बार कहा था कि 

  ‘मुझे शक है कि उस नेता को मोर्टार और मोटर के बीच के फर्क का पता तक नहीं होगा जिसे देश का रक्षा मंत्री बना दिया जाता है।’

   जाहिर है कि मानिक शाॅ बंगला देश युद्ध में विजय का श्रेय भी  प्रधान मंत्री या रक्षा मंत्री देने के बदले खुद ही लेना चाहते थे। 

 मानिक शाॅ ने बाद मेें कहा कि भारतीय फौज की जीत का खांका मैंने खींचा था।

याद रहे कि मानिक शाॅ पांच युद्धों में हिस्सा ले चुके थे।

  मानिक शाॅ ने बंगला देश संकट के शुरूआती दौर में आयोजित उच्चस्तरीय बैठक में  प्रधान मंत्री से साफ -साफ कह दिया था कि हमारी सेना अभी युद्ध के लिए तैयार नहीं है।

प्रधान मंत्री को यह बुरा लगा था।

पर जब तैयारी हो गयी तो शॅा से पूछा गया कि इस युद्ध को जीतने में कितना समय लगेगा।

  शाॅ ने कहा कि डेढ़ से दो माह तक लगेंगे।

  बंगला देश फ्रांस के बराबर है।

पर, जब 14 दिनों में ही पाक फौज ने सरेंडर कर दिया तो मंत्रियों ने पूछा कि आपने 14 दिन क्यों नहीं कहे ? 

इस पर शाॅ ने कहा कि यदि पंद्रह दिन हो जाते तो आप लोग ही मेरी टांग खींचने लगते।

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      दिनेश्वर शर्मा जैसे अफसर विरल हैं

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इस देश के हर राज्य में दिनेश्वर शर्मा जैसे कम से कम 10 आई.पी.एस.अफसर होते तो संभवतः पुलिस रिफाॅर्म की जरूरत ही नहीं रहती।

ऐसे थे बिहार में जन्मे ईमानदार,दक्ष और विनम्र शर्मा जी।

   आई.पी.एस.में सर्वोच्च पद आई.बी.प्रमुख का होता है।

उस पद पर शर्मा जी थे।

सेवा निवृति का जब समय आया तो नरेंद्र मोदी सरकार ने चाहा कि उनकी सेवा का विस्तार कर दिया जाए।

पर,शर्मा जी ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इससे मेरे बाद की वरीयता वाले के साथ अन्याय हो जाएगा।

  हाल में जब उनका असामयिक निधन हुआ तो मुझे भी झटका लगा।

क्योंकि उनके बारे में मैं पहले से ही जानता था।

लगता है कि अच्छे लोगों को ईश्वर समय से पहले ही अपने पास बुला लेते हैं !

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--सुरेंद्र किशोर-6 दिसंबर 20


 सांसद निधि पर हो सर्जिकल स्ट्राइक

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सांसद निधि उपयोग में गड़बड़ियां

तमाम प्रयासों के बावजूद दूर नहीं हो र्पाइं ।

इससे इसकी सार्थकता संदिग्ध हो गई है।

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  --सुरेंद्र किशोर--

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  केंद्र सरकार ने कोविड-19 महामारी को ध्यान में रखते हुए सांसद क्षेत्र विकास निधि के तहत होने वाले कार्यों को दो साल के लिए बंद कर दिया है।

  परंतु आने वाले समय में उसको इस मामले में कोई दो टूक निर्णय करना पड़ेगा।   

   यानी, इसे दोबारा शुरू किया जाए या हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए।

    कई विवेकशील सांसदों,नेताओं तथा संस्थानों ने इसे हमेशा के लिए बंद कर देने के पक्ष में समय-समय पर अपनी राय दी हैं।

  याद रहे कि इस निधि के उपयोग में गड़बड़ियां लाख कोशिशों के बावजूद दूर नहीं हो पा रही हैं।

  इसके कारण राजनीति,राजनेता और सरकारी अधिकारियों की साख दिन प्रति दिन घटती जा रही है।

 इसका दुष्परिणाम सरकार के अन्य कामों पर भी पड़ रहा है।

  अपवादों को छोड़कर इससे अनाप-शनाप दामों पर चीजें खरीदी जा रही हैं।

हालांकि इसके व्यय को लेकर सरकार के दिशा-निदेश मौजूद हैं।

पर, जरूरत इसे कानूनी रूप रेखा प्रदान कराने की है।

     अदालतें, कैग, कें्रदीय सूचना आयोग और पूर्ववर्ती योजना आयोग समय -समय पर सांसद निधि के दुरुपयोग के खिलाफ टिप्पणियां कर चुके हैं।

  वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने तो 2007 में ही इसकी (इस सांसद फंड की) समाप्ति

की सिफारिश कर दी थी।

  तब उसने कहा था कि सुशासन के लिए यह जरूरी है कि सांसद निधि को पूरी तरह बंद कर दिया जाए।

   हालांकि इसके बावजूद लोक लेखा समिति के तत्कालीन प्रमुख और कांग्रेस नेता के.वी.थाॅमस ने कहा था कि कई दलों के तमाम सांसद यह चाहते हैं कि सांसद निधि की सालाना राशि को पांच करोड़ रुपए से बढ़ाकर 50 करोड़ रुपए कर दिया जाए।

  शुक्र है कि ऐसा कुछ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने तो नहीं होने दिया ,ंिकतु इस निधि को समाप्त करने की मांग अभी पूरी नहीं हुई है।

 हां, इस बीच इसके भविष्य पर विचार -विमर्श के लिए एक उच्चस्तरीय समिति जरूर बना दी गई है।

  वैसे राजनीतिक हलकों में आम धरणा यह है कि अधिकतर सांसद इसे समाप्त करने के सख्त खिलाफ हैं।

  जो सांसद गण इस निधि को लेकर अपनी बदनामी से बचना चाहते हैं,वे विश्व विद्यालय या फिर किन्हीं प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं को एकमुश्त राशि दे देते हैं।

   आने वाले दिनों में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी संभवतः

इस निधि को लेकर कोई कड़ा कदम उठाना चाहेंगे।

क्योंकि वह इसके दुरुपयोग या फिर कम उपयोग की खबरों से अनभिज्ञ नहीं हैं।

  साथ ही, वे राजनीति और प्रशासन में शुचिता लाने के लिए दिन -रात प्रयत्नशील भी हैं।

      अब जरा इस निधि के इस्तेमाल को लेकर आए दिन मिल रही शिकायतों के बारे में विचार करें।

 इस निधि को लेकर केंद्र सरकार ने एक नोडल एजंेंसी बना रखी है।

   इसका काम राज्य व जिला स्तर पर समन्वय बनाए रखना है।

जांच से पता चला है कि आमतौर पर कोई समन्वय नहीं हो पाता।अपवादों की बात और है।

 सांसद निधि के खर्चे की जब कैग ने जांच की तो उसे 90 प्रतिशत योजनाओं के कार्यों में अनियमितता नजर आई।

  तत्कालीन योजना आयोग ने 2001 में ही कह दिया था कि 

इस निधि के खर्चे की निगरानी का काम बहुत कमजोर है।

  लोक लेखा समिति ने सन 2012 में कहा कि जितनी निधि उपलब्ध रहती है ,उसकी आधी ही खर्च हो पाती है।

 खर्चे का हिसाब एवं प्रगति रिपोर्ट भी समय पर उपलब्ध नहीं होती।

  इनमें पारदर्शिता का अभाव है।

 याद रहे कि सांसद निधि में कमीशन लेने के कारण एक राज्य सभा सदस्य की सदस्यता तक जा चुकी है।

  इसके अलावा विधायक निधि मंजूर करने के लिए रिश्वत लेने के आरोप में बिहार के एक विधायक के खिलाफ कोर्ट में आरोप पत्र भी दाखिल किया जा चुका हैं

      इन छिटपुट मामलों को छोेड़ भी दें तो सांसद -विधायक निधि को लेकर जो आम चर्चाएं होती रहती हैं,वे स्वस्थ प्रशासन के लिए बहुत चिंता पैदा करती हैं।

 ऐसे में सवाल है कि जिस निधि में भ्रष्टाचार की आम चर्चा होती है,उसे रोकने के लिए जन प्रतिनिधि सामूहिक रूप से आवाज क्यों नहीं उठाते ?

विडंबना यह है कि कुछ बड़े नेता जब विपक्ष में रहते हैं तब तो वे इस निधि के खिलाफ खूब बोलते हैं।

   किंतु सत्ता में आने पर उनका रुख ही अलग हो जाता है।

  पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।

 सांसद निधि की शुरुआत 1993 में तत्कालीन प्रधान मंत्री पी.वी.नरसिंह राव ने की थी।

उन्होंने इसकी सालाना राशि एक करोड़ रुपए रखी थी।

यह जब हो रहा था ,तब राव सरकार के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह विदेश दौरे पर थे।

 बाद में उन्होंने (मनमोहन सिंह ने)कहा कि यदि मैं तब देश में होता तो इस सांसद क्षेत्र विकास योजना की शुरुआत ही नहीं होने देता।

  याद रहे कि सांसद निधि से मिले चंदे का इस्तेमाल अनेक सांसद गण सियासी खर्चे पर करते हैं।

 कुछ अन्य सांसद उसका उपयोग कुछ और काम में भी करते हैं।

   मन मोहन सिंह ने तो उस समय सांसद निधि का विरोध किया,किंतु जब खुद प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने इसकी राशि दो करोड़ से बढ़ाकर सालाना पांच करोड़ रुपए कर दी।

    बहरहाल असल फैसला नरेंद्र मोदी को तब करना होगा जब निधि स्थगन के दो साल की अवधि पूरी हो जाएगी।

हालांकि एक बात तो तय है कि सांसद निधि की राशि नहीं बढ़ेगी,परंतु शासन में शुचिता लाने के लिए इसको पूरी तरह समाप्त करने का काम होगा या नहीं  ?

  तब तक यह यक्ष प्रश्न कायम रहेगा ।

वैसे देश के तमाम विवेकशील लोगों की यह राय है कि नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार की पर्याय बनी सांसद निधि पर जरूर सर्जिकल स्ट्राइक करेंगे।

इससे शासन में शुचिता लाने के मोदी के प्रयास को भारी बल मिल जाएगा।

साथ ही, सरकारी खजाने को भी राहत मिलेगी।

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दैनिक जागरण,15 दिसंबर 20


  

 


 

   


सोमवार, 14 दिसंबर 2020

 संदर्भ--कृषि कानूनों के खिलाफ आंदेालन 

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मैं किसान भी हूं,

जरा मेरी व्यथा जानिए !

--सुरेंद्र किशोर

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मेरा परिवार एक मझोला किसान परिवार रहा है।

सारण जिले में प्रति व्यक्ति जमीन की उपलब्धता के हिसाब से 

हमारे पास अच्छी -खासी जमीन रही है।

सब पुश्तैनी है।

पर, हम कुल जमीन में से करीब एक तिहाई जमीन में ही  खेती कर पाते हैं।

आखिर क्यों ????

इसलिए कि खेती उन लोगों के घाटे का सौदा है जो मजदूरों पर निर्भर हैं।

मजदूर भी कम ही मिल पाते हैं।

क्योंकि बिहार सरकार से उन्हें तरह -तरह की सुविधाओं मिल जाती हैं।

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   हम चाहते हैं कि हमारी जमीन में कोई छोटा-मोटा उद्योग लगे।

  चूंकि हमारी सारी जमीन पक्की सड़क पर है,इसलिए वहां अस्पताल भी खुल सकता है।

कुछ जमीन स्टेट हाईवे स्थित बाजार पर है तो अन्य ग्रामीण सड़क पर। 

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मैंने पटना के एक बड़े डाॅक्टर साहब को संदेश भेजा।

दिघवारा से तीन किलोमीटर उत्तर स्टेट हाईवे पर अपने अस्पताल की शाखा खोलिएगा ?

सुना है कि उस स्टेट हाईवे को नेशनल हाईवे में परिणत करवाने के लिए स्थानीय संासद राजीव प्रताप रूडी भी सक्रिय हैं।

उधर केंद्रीय मंत्री गडकरी भी अपने विभाग में धुआंधार काम कर रहे हैं।

नेशनल हाईवे का बजट बढ़ रहा है।

  वैसे भी प्रस्तावित शेरपुर-दिघवारा गंगा पुल की गाड़ियों को दिघवारा-भेल्दी स्टेट हाईवे को भी संभालना पड़ेगा।

संभलेगा ?

नहीं।

नेशनल हाईवे की जरूरत पड़ेगी ही।

 कहावत भी है-

अमेरिका ने सड़कें बनाईं।

बाद में उन सड़कों ने अमेरिका को बना दिया।

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किंतु डाक्टर साहब ने कहा कि हम तो वहीं अस्पताल बनाएंगे जहां बगल में पुलिस स्टेशन हो।

  आपके यहां नहीं है।

ठीक है।

तो हम स्कूल,गोदाम,सोलर एनर्जी संयंत्र,एग्रो इंडस्ट्री आदि की राह देख रहे हैं।

  याद रहे कि मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से  कह दिया है कि दिघवारा से नयागंाव तक ‘न्यू पटना’ होगा।

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चूंकि जमीन लीज पर लेकर या खरीद कर स्कूल,सोलर एनर्जी गोदाम, अस्पताल या एग्रो इंडस्ट्री वहीे लगा सकते हैं जिनके पास पैसे हैं।

यह सब करने के लिए पैसे वालों की कितनी व कब रूचि जगेगी ?

पता नहीं।

हम तो इतना ही कर सकते हैं कि अपनी जमीन में फलदार वृक्ष लगवा दें।

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अन्यथा, कृषि कानूनों के लागू हुए बिना हमारी एक तिहाई जमीन से भी कम में ही खेती होती रहेगी !!!

क्या यह राष्ट्रीय क्षति नहीं मानी जाएगी ?

पर आंदोलनकारी किसानों को राष्ट्रीय क्षति से क्या मतलब !

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--सुरेंद्र किशोर-- 14 दिसंबर 20 


रविवार, 13 दिसंबर 2020

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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पानी ही नहीं ,अब तो आटा-चावल-आलू  तक पहुंच रहा  आर्सेनिक 

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   हाल में हुए एक रिसर्च के अनुसार भागलपुर जिले 

के कई गांवों में आटा,पके चावल और आलू में आर्सेनिक पाया गया है।इससे पहले पानी में आर्सेनिक पाए जाने की खबरें आती रही हैं।

   ध्यान रहे कि आर्सेनिक से कैंसर पैदा होता है।

इस देश में कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है।

2020 के आंकड़े के अनुसार इस देश में 13 लाख 90 हजार कैंसर पीड़त हैं।

   इंडियन काउंसिल आॅफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार

2025 तक देश में कैंसर पीड़ितों की संख्या बढ़कर 15 लाख 60 हजार हो जाएगी।

  गंगा नदी के पास के कई इलाकों का पानी पीने लायक नहीं रहा।

 बिहार में गंगा के पास की  कई जगहों से कैंसर के मरीज बढ़ने की खबरें आती रहती हैं।

राज्य सरकार ने कुछ साल पहले भोजपुर जिले में जल शोधन संयंत्र लगाया  है ताकि जल से आर्सेनिक को अलग किया जा सके।

पर समस्या की विकरालता को देखते हुए वे नाकाफी हैं।

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     समस्या की जड़

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साठ के दशक में हरित क्रांति हुई।उस क्रांति को सफल बनाने के लिए कुछ ऐसे काम किए गए जो बाद प्रति-उत्पादक साबित हुए।

अब यह साबित होने लगा है कि हरित क्रांति ने देश का जितना भला किया,उससे अधिक वह नुकसान कर गई।

हरित क्रांति में एक काम था रासायनिक खाद और कीटनाशक का अधिकाधिक उपयोग। 

  जिन राज्यों में इनका प्रयोग कम किया गया,वे राज्य पिछड़े माने गए।उनका उपहास किया गया।पर अब वे दूरदर्शी साबित हो रहे हैं।क्योंकि उनके यहां रासायनिक खाद-कीटनाशक से नुकसान कम हुआ।

दूसरी ओर पंजाब की बहुत सारी जमीन 

लवणीय यानी खारा बन गई।

खेती योग्य नहीं रही।वहां के तो कुछ गांव उजड़ गए।क्योंकि वहां का पानी रसायनों के कारण जहरीला हो चुका था। 

एक अध्ययन के अनुसार रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का कुपरिणाम  देश की आधी खेती पर पड़ चुका  है। 

  साठ के दशक में ही बिहार के पूर्व मंत्री व गांधीवादी नेता जगलाल चैधरी गांवों में किसानों से यह आग्रह कर रहे थे

कि आप लोग गोबर खाद का ही इस्तेमाल करिए।

रासायनिक खाद से आपकी खेती बर्बाद हो जाएगी।

मैं खुद इस बात का गवाह बना था जब मैं गांव में रहता था।   

पर लोग चैधरी जी की बात नहीं माने।

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   अब क्या है उपाय ?

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जब जहर चावल-आटा-आलू तक पहुंच गया तो इस देश-प्रदेश में कई दूरदर्शी लोग बड़े पैमाने पर जैविक खेती करने लगे ।

कुछ लोग बेचने के लिए भी जैविक उत्पाद के क्षेत्र में आए हैं।

पर जैविक उत्पाद महंगा पड़ता है।

मैं अपने घर के लिए कुछ जरूरी जैविक खाद्य-भोज्य पदार्थ तो मगंाता हूं किंतु महंगा होने के कारण सब नहीं मंगा पाता।

कैंसर से बचने के लिए मैं जैविक उत्पाद खरीदता हूं।

 ऐसे में सरकार को अपनी  भूमिका निभानी चाहिए।उसे जैविक उत्पाद सामग्री पर सब्सिडी देनी चाहिए।

यदि इस मद में सरकार सब्सिडी नहीं देगी तो मजबूरन कैंसर अस्पताल पर अधिक खर्च करना पड़ेगा।

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 बिहार में कांग्रेस की हार या जीत ?

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 यह कहना सही नहीं है कि बिहार विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई है।

बिहार में कांग्रेस जैसी पहले थी,वैसी ही ताकतवर आज भी है।

2015 में कांग्रेस को राजद के साथ-साथ  जदयू का  भी सहारा मिला था।

इसीलिए उसे तब 27 सीटें मिल गयी थीं।

इस बार जदयू का सहारा नहीं रहने पर कांग्रेस की सीटें घटनी ही थी।

उतनी ही घटी।इसमें कांग्रेस के किसी प्रादेशिक या राष्ट्रीय नेता भला क्या कसूर ? 

हां,चुनाव के अवसरों पर किसी न किसी बहाने राजनीतिक विरोधी और प्रतिस्पर्धी  एक -दूसरे पर आरोप लगाते ही रहते हैं।

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  चुनाव नतीजे का असर पश्चिम बंगाल पर

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   बिहार विधान सभा के हाल के चुनाव नतीजे का असर पश्चिम बंगाल पर अब दिखाई पड़ने लगा है।

बंगाल में मतदाताओं और तदनुसार नेताओं का धु्रवीकरण सह दल -बदलीकरण तेज हो गया है।

  साठ -सत्तर के दशकों में पश्चिम बंगाल में ध्रुवीकरण का आधार था-कम्युनिस्ट बनाम गैर कम्युनिस्ट।

पर इस बार धु्रवीकरण का आधार बिलकुल बदला हुआ है।

धु्रवीकरण का मुख्य आधार ‘तुष्टिकरण बनाम सबका साथ-सबका विकास -सबका विश्वास बन गया है।

 जब धु्रवीकरण का आधार ऐसा हो जाए तो चुनाव नतीजे का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

हालांकि यह देखना होगा कि अगले कुछ हफ्तों में विभिन्न दलों की रणनीति कैसी बनती है।

 अभी तो बिहार के चुनाव नतीजे का असर पश्चिम बंगाल पर देखा जा रहा है।

किंतु बाद में पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे का असर बिहार में दिखेगा।अनुमान लगा लीजिए कि वह असर कैसा होगा ! 

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और अंत में

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सन 1967 के आम चुनाव के बाद देश के नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी 

सरकारें बनी थीं।

बिहार सहित उनमें से कुछ राज्यों में संयुक्त

सोशलिस्ट पार्टी के नेता भी मंत्री बने थे।

संसोपा के सर्वोच्च नेता डा.राम मनोहर लोहिया ने उन सरकारों से तब दो मुख्य बातें कही थीं।

‘‘छह महीने के अंदर ऐसे -ऐसे काम करके दिखा दो कि जनता समझ जाए कि तुम्हारी सरकार , कांग्रेसी सरकार से बेहतर है।’’

उनकी दूसरी बात थी--‘‘बिजली की तरह कौंध जाओ और सूरज की तरह स्थायी हो जाए।’’

यह और बात है कि यह सब नहीं हो सका।

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प्रभात खबर,पटना 

20 नवंबर 20