14वीं सदी में भारत की यात्रा पर आए इब्न बतूता एक स्त्री को सती होते देख मूर्छित हो गए थे। वे लिखते हैं, ‘मैं यह हृदय विदारक दृश्य देख कर मूर्छित हो घोड़े से गिरने को ही था कि मेरे मित्रों ने संभाल लिया और मेरा मुख पानी से धुलवाया।’
इब्न बतूता अरब देश से 22 साल की छोटी उम्र में विश्व भ्रमण का निकल पड़े थे। वे 30 साल तक घूमते रहे। इब्न बतूता ने अपनी यात्रा के वृतांत में भारत के उस सदी के शासकों, सामाजिक धार्मिक मान्यताओं, रीति रिवाजों आदि का रोमांचक आंखों देखा हाल वर्णित किया है। इब्न बतूता ने यह भी लिखा कि स्त्री को इस तरह जलाने की अनुमति सम्राट देते थे। क्रूर सती प्रथा का वर्णन इब्न बतूता ने विस्तार से किया है। याद रहे कि इस प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन राय ने बाद में अभियान चलाया और सन् 1829 में अंग्रेज शासक ने इस पर कानूनी रोक लगाई।
इससे पहले मुस्लिम शासक भी स्वेच्छा से सती होने के कृत्य पर रोक नहीं लगाते थे। वे इसे हिंदुओं का एक धार्मिक कृत्य मान कर हस्तक्षेप नहीं करते थे। पर अंग्रेज और मुस्लिम शासक इस बात का ध्यान जरूर रखते थे कि किसी महिला को कोई जबरन सती न बना दे। इस बात का जिक्र अबुल फजल ने भी ‘अकबरनामा’ में किया है। आज के युग में दहेज प्रथा, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सती प्रथा की तरह ही मारक साबित हो रही है। आज का दहेज विरोधी कानून, दहेज पिपासुओं के खिलाफ बेअसर ही साबित हो रहा है।
सती प्रथा का 14वीं सदी में कैसा स्वरूप था, वह इब्न बतूता के शब्दों में पढि़ए, ‘एक बार मैंने भी एक हिंदू स्त्री को बनाव सिंगार किए घोड़े पर चढ़कर जाते हुए देखा था। हिंदू और मुसलमान इस स्त्री के पीछे चल रहे थे। आगे- आगे नौबत बजती जाती थी और ब्राह्मण साथ -साथ थे। घटना का स्थान सम्राट की राज्य सीमा के अंतर्गत होने के कारण बिना उनकी आज्ञा प्राप्त किए जलाना संभव नहीं था। आज्ञा मिलने पर यह स्त्री जलाई गई। हिंदुओं में प्रत्येक विधवा के लिए सती होना आवश्यक नहीं है। परंतु पति के साथ स्त्री के जल जाने पर वंश प्रतिष्ठित गिना जाता है और उसकी भी पतिव्रताओं में गणना होने लगती है। सती न होने पर विधवा को मोटे- मोटे वस्त्र पहन कर महाकष्टमय जीवन तो व्यतीत करना ही पड़ता है, साथ ही वह पति परायण भी नहीं समझी जाती।’
एक युद्ध में खेत रहे तीन जवानों की विधवाओं के सती होने का विवरण देते हुए इब्न बतूता ने लिखा कि ‘इन तीन स्त्रियों ने तीन दिनों तक खूब गाया बजाया और नाना प्रकार के भोजन किए। इनके पास चारों ओर की स्त्रियों का जमघट लगा रहता था। चौथे दिन इनके पास घोड़े लाए गए और ये तीनों बनाव सिंगार कर सुगंधि लगाकर उन पर सवार हो गईं। इनके दाहिने हाथ में एक नारियल था, जिसको ये बराबर उछाल रही थीं और बाएं हाथ में एक दर्पण था जिसमें ये अपना मुख देखती थीं। चारों ओर ब्राह्मणों और संबंधियों की भीड़ लगी थी। प्रत्येक हिंदू आकर अपने मृत माता, पिता, बहिन, भाई तथा अन्य संबंधी या मित्रों के लिए इनसे प्रणाम कहने को कह देता था और ये हां हां कहती और हंसती चली जाती थीं।
मैं भी मित्रों के साथ यह देखने को चल दिया कि ये किस प्रकार से जलती हैं। तीन कोस जाने के बाद हम एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां जल की बहुतायत थी और वृक्षों की सघनता के कारण अंधकार छाया हुआ था। यहां चार मंदिर बने हुए थे।’ ‘मंदिरों के निकट पहुंचने के बाद इन स्त्रियों ने उतर कर स्नान किया और कुंड में एक डुबकी लगाई। वस्त्र आभूषण उतार कर रख दिए और मोटी साडि़यां पहन लीं। कुंड के पास अग्नि दहकाई गई। सरसों का तेल डालने पर उसमें प्रचंड शिखाएं निकलने लगीं। पंद्रह पुरुषों के हाथों में लकड़ियों के बंधे हुए गट्ठे थे और दस पुरुष अपने हाथों में लकड़ी के बड़े-बड़े कुंदे लिए खड़े थे। नगाड़े, नौबत और शहनाई बजाने वाले स्त्रियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। स्त्रियों की दृष्टि से बचाने के लिए लोगों ने अग्नि को एक रजाई की ओट में कर लिया था। परंतु इन में से एक स्त्री ने रजाई को बलपूर्वक खींच कर कहा कि क्या मैं जानती नहीं कि यह अग्नि है, मुझे क्यों डराते हो? इतना कह कर वह अग्नि को प्रणाम कर तुरंत उसमें कूद पड़ी।
नगाड़े, ढोल, शहनाई और नौबत बजने लगी। पुरुषों ने अपने हाथों की पतली लकड़ियां डालनी प्रारंभ कर दीं। और फिर बड़े- बड़े कुंदे भी डाल दिए गए जिससे स्त्री की गति बंद हो गई। उपस्थित जनता भी चिल्लाने लगी। मैं यह हृदय द्रावक दृश्य देख कर मूर्छित हो घोड़े से गिरने को ही था कि मेरे मित्रों ने संभाल लिया और मेरा मुख पानी से धुलवाया। संज्ञा लाभ कर मैं वहां से लौट आया।’
प्रभात खबर (07-11-2008)
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