बुधवार, 31 जनवरी 2024

 लोस टिकट के उम्मीदवारों से भाजपा इस बार लिखित आश्वासन ले ले कि ‘‘मुझे सांसद फंड नहीं चाहिए।’’

सांसद फंड की समाप्ति मोदी-नीत सरकार ही कर सकती है।

चाहें तो अन्य दल भी ले सकते हैं।पर,अन्य दलों के लिए यह काम मुश्किल है।

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सुरेंद्र किशोर

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अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चाहते हुए भी यह काम नहीं कर सकी थी।

पी.एम.मनमोहन सिंह भी चाहते हुए इस फंड को खत्म नहीं कर सके।सांसद फंड के दुरुपयोग के कारण कुछ सांसद भी दुखी रहते हंै।

क्योंकि उनकी छवि पर इसका विपरीत असर पड़ रहा है।

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शासन के निचले स्तर पर भ्रष्टाचार को 

संस्थागत रूप प्रदान कर देने में सासंद फंड का बड़ा हाथ है।

अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर खबर मिल रही है कि 

इस फंड का व्यापक दुरुपयोग हो

रहा है।

इस दुरुपयोग से कुछ सांसद भी चिंतित हैं।हालांकि

उनकी संख्या काफी कम है।

इस फंड के कारण सांसदों की नैतिक धाक कम हुई है।

इसका कुप्रभाव सामान्य प्रशासन पर भी पड़ रहा है।

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मोदी सरकार की जांच एजेंसियां उन बड़े -बड़े नेताओं तथा अन्य लोगों के खिलाफ जांच कर रही हैं और मुकदमे चला रही हैं जिनके खिलाफ जनता के अरबों -अरब रुपए लूटने के आरोप हैंे।

इससे अधिसंख्य आबादी खुश है।इसका चुनाव पर राजग के पक्ष में सकारात्मक असर पड़ेगा।

यानी, ऊपर से सफाई की प्रक्रिया तेज है।खबर है कि वह और भी तेज होने वाली है।

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पर,नीचे से भी सफाई जरूरी है।

अन्यथा पेड़ की डालियां तो कटंेगी,पर वृक्ष का तना बना रहेगा।

नतीजतन फिर डालियां उग आएंगी।

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नरेंद्र मोदी की भाजपा लोक सभा के टिकट के उम्मीदवारों से टिकट देने से पहले ही यह लिखवा ले कि मुझे सांसद फंड नहीं चाहिए।अभी तो सारे सांसद ऐसा लिख कर दे देंगे।

क्योंकि टिकट अधिक महत्वपूर्ण है।

सामान्य दिनों में यह काम नहीं हो सकता।

खबर है कि प्रधान मंत्री मोदी चाहते हुए भी यह काम नहीं कर पा रहे हंै।

 2024 के चुनाव के बाद गठित मोदी सरकार पहला निर्णय यही करे कि अब सांसद फंड की व्यवस्था समाप्त की जा रही है।

निचले स्तर पर प्रशासन से भ्रष्टाचार कम करने में उस निर्णय से भारी मदद मिलेगी।

निचले स्तर पर सफाई यानी जनता को राहत।

क्या यह खबर सही है कि अपवादों को छोड़कर सरकारी दफ्तरों में

नजराना-शुकराना-हड़काना के बिना जनता का कोई काम नहीं हो रहा है ?

लोगबाग नरेंद्र मोदी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं।सांसद फंड की यदि समाप्ति हुई तो विधायक फंड की भी देर-सबेर हो जाएगी।

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31 जनवरी 24  

  


रविवार, 14 जनवरी 2024

 न भूतो न भविष्यति !

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20 लाख लोगों को नौकरी और रोजगार 

देने की प्रक्रिया बिहार में जारी

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सुरेंद्र किशोर

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मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने कहा है कि एक से डेढ साल के अंदर हमलोग 10 लाख नौकरी और 10 लाख लोगों को रोजगार देने का अपना वादा पूरा कर देंगे।

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उसी क्रम में कल बिहार में 96 823 नये शिक्षकों को नियुक्ति पत्र मिले। 

इस बार सत्ता संभालते ही उप मुख्य मंत्री तेजस्वी यादव ने जब ऐसी ही बात कही थी तो शायद ही किसी को भरोसा हुआ था।

पर,यह तो हो रहा है।

 नीतीश सरकार राज्य में बिगड़ती कानून -व्यवस्था और सरकारी कार्यालयों में बढ़ते भ्रष्टाचार पर भले काबू नहीं पा रही है, किंतु नौकरी-रोजगार देने के मामले में अभूतपूर्व काम हो रहे हंै।

यदि इन लाखों नव नियुक्त लोगों को समय पर वेतन देने के लिए राज्य सरकार पैसे का भी निरंतर बंदोबस्त करती रहे तो इससे राज्य की अर्थ-व्यवस्था भी बेहतर होगी।

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चूंकि चुनाव सिर पर है,इसलिए अपराधियों और भ्रष्टाचारियों की तो फिलहाल बल्ले-बल्ले ही रहेगी।

पुलिस का मनोबल आज बहुत गिरा हुआ है। 

 इसका सीधा चुनावी लाभ भाजपा को लोक सभा चुनाव में मिलेगा।

वैसे भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में बिहार में भी हवा कमजोर नहीं है

जहां तक लोक सभा चुनाव का सवाल है।

बिहार विधान सभा के 2025 के चुनाव में चाहे जो नतीजा हो।

हालंाकि इस बीच यदि दलीय गठबंधन में परिवर्तन हो गया तो इन दो मामलों में भी स्थिति सन 2005-13 जैसी बन सकती है।

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अब जानिए कि सरकारी नौकरी से कैसे सामान्य परिवारों की भी अर्थ व्यवस्था सुधरती है।

मेरे परिवार में पहली सरकारी नौकरी सन 1976 में आई थी।

उसके बाद हमारी जमीन बिकनी बंद हो गयी।

उससे पहले किसी भी थोड़े से बड़े काम के लिए हम जमीन बेचते थे।

दरअसल सरकारी नौकर को जरूरत पड़ने पर पड़ोसी भी कर्ज देने में संकोच नहीं करते।

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हमारे गांवों में कहावत है--

‘‘खेती करो तो तरकारी और नौकरी करो तो सरकारी।’’

1976 में बिहार सरकार ने प्राप्तांक के आधार पर बड़े पैमाने पर सरकारी शिक्षकों की बहाली की।तब की बिहार सरकार बेरोजगारों को बड़े पैमाने पर नौकरी देकर जेपी आंदोलन को कमजोर करना चाहती थी।हालंाकि उस समय आपातकाल था।

मेरी पत्नी ने भी आवेदन दिया था।उससे पहले वह जेपी आंदोलन में तीन बार जेल जा चुकी थी।

सारण जिले में इंटरव्यू बोर्ड के अध्यक्ष थे--तत्कालीन सरकार के मंत्री रामजयपाल सिंह यादव।शालीन नेता थे।

उन्होंने मेरी पत्नी से पूछा--

नौकरी नहीं मिलेगी तो क्या कीजिएगा ?

इसने चट से कह दिया कि --फिर जेपी आंदोलन करने लगेंगे।

चूंकि जेपी आंदोलन को ही कमजोर करने के लिए बहाली हो रही थी,इसलिए मेरी पत्नी की नौकरी हो गयी।

याद रहे कि राम जयपाल सिंह यादव 1957 में उसी विधान सभा क्षेत्र से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के विधायक थे जिस क्षेत्र में मेरा पुश्तैनी गांव पड़ता है।

1957 में जेपी का बयान छपा था--‘‘मैं अपना वोट प्रसोपा को दूंगा।’’

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चूंकि सी.बी.आई. बड़ौदा डायनामाइट केस के सिलसिले में मुझे बेचैनी से खोज रही थी,इसलिए मैं मेघालय जाकर भूमिगत हो गया था।

तय हुआ था कि पति-पत्नी में से किसी एक को नौकरी करनी ही है।

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अब वह जमाना तो है नहीं।

पर, आज नीतीश सरकार जिन लाखों लोगों को रोजगार और नौकरी दे रही है,यदि वे बेरोजगार रह जाते तो संभव है कि उनमें से अनेक बेरोजगार ‘‘अंधेरे की दुनिया’’ में चले जाते।

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और अंत में 

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बिहार में उत्तर प्रदेश के अनेक उम्मीदवारों की शिक्षक की नौकरी मिल रही है।

यह एक मामले में बहुत अच्छा है।

उत्तर प्रदेश के सामान्य लोगों का भी हिन्दी का उच्चारण बिहार के लोगों से बेहतर है।

वैसे नव नियुक्त स्कूल शिक्षकों से उनका उच्चारण सुनकर बिहार के विद्यार्थियों का उच्चारण थोड़ा बेहतर होगा।

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दिल्ली के कुछ मित्र शिकायत करते हैं कि बिहार के छात्र प्रतिभा में तो आगे रहते हैं, किंतु उच्चारण में पीछे रह जाते हैं।

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14 जनवरी 24

  

 

 


गुरुवार, 11 जनवरी 2024

 मुझे गर्व है कि मैं 1972-75 में पी.यू.का छात्र था

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पटना विश्व विद्यालय का, जिसे कभी ‘‘पूर्व का आॅक्सफोर्ड’’ कहा 

जाता था, छात्र होना कभी गर्व की बात थी।

आज के हालात का पता चलता है तो दुख होता था

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सुरेंद्र किशोर 

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यही गौरव हासिल करने के लिए मैंने सन 1972 में पटना विश्व विद्यालय के लाॅ काॅलेज में नाम लिखवा लिया था।

जबकि, न तो मुझे वकालत करनी थी और न ही कोई नौकरी।

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अब जब इस विश्व विद्यालय के शिक्षण-परीक्षण के स्तर के बारे में सुनता हूं तो दुख होता है।

1963 में मैंने साइंस विषयों के साथ मैट्रिक पास किया था।फस्र्ट डिविजन मिला था।

किंतु साइंस काॅलेज में दाखिला लायक उच्च अंक नहीं थे।

इसलिए स्नातक तक बारी-बारी से मगध और बिहार विश्व विद्यालयों में पढ़ाई की।

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जब समाजवादी कार्यकर्ता के रूप में कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव बनकर छपरा से पटना आया तो सोचा कि देर से ही सही,वह गर्व हासिल कर लूं जिसके

अभाव में हीन भावना से ग्रस्त था।

---यानी, पटना विश्व विद्यालय जैसे गौरवशाली विश्व विद्यालय का छात्र नहीं बन सकने की हीन भावना।

याद रहे कि पटना आने के ठीक पहले मैं छपरा में सारण जिला संसोपा का कार्यालय सचिव था।

तय किया था कि कार्यकर्ता ही रहूंगा। शादी भी नहीं करूंगा।

(उन दिनों अनेक युवक सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट पार्टी या अन्य दलों में  में विधायक-एम.पी.बनने के लिए नहीं शामिल होते थे बल्कि समाज के लिए कुछ करने के लिए शामिल होते थे।

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हालांकि राजनीति को करीब से देख लेने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि राजनीति मेरे वश की बात नहीं।इसलिए पत्रकारिता की राह पकड़ ली।

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पटना लाॅ कालेज का छात्र होने से यह सुविधा भी मिल गयी थी कि 

छात्रावासों में समाजवादी युवजन सभा का काम किया जा सके।

 हालंाकि तब के वहां के छात्र ,जो हमारे सयुस के सदस्य थे,शाम में स्टडी आॅवर शुरू होते ही मुझे अपने छात्रावास से चले जाने के लिए कह देते थे।

अब मैं नहीं जानता कि पटना विश्व विद्यालय के छात्रावासों में स्टडी आॅवर में अनुशासन का पालन होता है या नहीं।

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लाॅ काॅलेज में मैं तीन साल तक पढ़ा। पर कोई परीक्षा नहीं दी।

  दरअसल सेकेंड ईयर में नाम लिखवाने के लिए फस्र्ट ईयर पास करना जरूरी नहीं होता था।

उसी तरह थर्ड ईयर में नाम लिखाने के लिए सेकेंड ईयर पास करना जरूरी नहीं होता था।

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वैसे पढ़ने -लिखने से अधिक बगल में चाय की दुकान पर अन्य छात्रों के साथ राजनीतिक चर्चाएं हम खूब करते थे।

हमारे बैच में कुमुद रंजन झा,जो बाद में मंत्री बने थे।

मशहूर वकील वासुदेव प्रसाद के परिवार से दो थे।

हालांकि वे हमारी जमात में नहीं बैठते थे।

हमारे मित्र थे दीनानाथ पांडेय, जो अभी कोलिगपांग में वकील हैं,प्रेम प्रकाश सिन्हा,जो बाद में बिहार शिक्षा सेवा में गये,महितोष मिश्र,आनंद भवन होटल के मैनेजर श्रीवास्तव जी,

मूट कोर्ट में ‘‘बिलायती’’ लहजे में अंग्रेजी बोलने वाले  अशोक कुमार

सिन्हा,कदमकुआं और ऐसे ही कुछ राजनीतिक रूप से जागरूक छात्र।

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9 जनवरी 24 



 


 

 

 


बुधवार, 10 जनवरी 2024

 ममता बनर्जी की राजनीतिक शैली

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सुरेंद्र किशोर

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          1

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मैं शपथ लेती हूं कि मैं मरूं या जीऊं,

लेकिन नरेंद्र मोदी को राजनीति से 

हटाकर दम लूंगी।

   ---- ममता बनर्जी

दैनिक आज,पटना

29 --11 --2016

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          2

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पी.एम.मोदी जब पश्चिम बंगाल जाते हैं और टोलाबाजी का बयान देते हैं तो मैं उन्हें लोकतंत्र का थप्पड़ लगाना चाहती हूं।

    ---ममता बनर्जी।

  दैनिक जागरण

  8 मई 2019

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     3

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ममता बनर्जी हर साल मुझे कुर्ते और मिठाई भेजती हैं।

     ----नरेंद्र मोदी

  --दैनिक हिन्दुस्तान

   25 अपै्रल, 2019

    पटना

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           4

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कोलकाता में रोड शो के दौरान हुई हिंसा पर चिंता प्रकट करते हुए 

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि सी.आर.पी.एफ.नहीं होती तो मेरा बचकर निकलना मुश्किल था।

शाह ने हिंसा के लिए तृणमूल कांग्रेस को दोषी ठहराया।

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---दैनिक जागरण

  16 मई 2019

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          5

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बांग्ला देश के शरणार्थी भारत के नागरिक हैं।

यदि उनके नाम वोटर लिस्ट में नहीं हैं तो वे नाम जुड़वाने के लिए आवेदन पत्र दें।

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---मुख्य मंत्री ममता बनर्जी

  दैनिक आज

  पटना

 24 नवंबर 2022

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     6

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि कोलकाता के पुलिस कमिश्नर सबूत मिटाने के दोषी होंगे तो पछताएंगे।

----दैनिक जागरण

5 फरवरी 2019

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         7

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दिल मेरा हिंदू और किडनी मुसलमान है।

मैं धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करती।

---ममता बनर्जी

23 फरवरी 2018

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        8

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हम मोदी का चेहरा नहीं देखना चाहते।

  --- ममता बनर्जी

     20 मार्च 2021

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(अपूर्ण)

10 जनवरी 24



 


 अयोध्या से बिहार का अटूट संबंध

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तीनों प्रमुख चरणों में बिहार का योगदान

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सुरेंद्र किशोर

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1.-बिहार के मूल निवासी अभिराम दास ने सन 1949 में बाबरी ढांचे में रामलला की मूत्र्ति रखी थी।

उनके शिष्यों ने इस मामले में अभिराम दास की मदद की।

वे बिहार के मधुबनी जिले के मूल निवासी थे।

मधुबनी मिथिला में है।

मिथिला श्रीराम की ससुराल है।

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2.-नब्बे के दशक में बिहार के ही समस्तीपुर जिले के कामेश्वर चैपाल ने राम मंदिर के शिलान्यास की पहली ईंट रखी थी।

चैपाल अयोध्या ट्रस्ट के सदस्य हैं और अनुसूचित जाति से आते हैं।(उनकी जाति मैं जान बूझ कर लिख रहा हूं ताकि लोग जानें की यह सब ‘‘मनुवादी अभियान’’ नहीं है।)

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3.- विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष डा.आर.एन.सिंह 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के लिए पत्नी के साथ यजमान बनाए जाएंगे।

पद्मश्री से सम्मानित डा.सिंह बिहार में हड्डी रोग के सबसे बड़े चिकित्सक हैं।

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5 जनवरी 24  


 


बोफोर्स और 2-जी मामले 

अब भी जीवित !!

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सुरेंद्र किशोर

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जब -जब चुनाव करीब आता है तो 

कई कांग्रेसी नेता और कुछ पत्रकार गण भाजपा 

से यह सवाल पूछने लगते हंै कि आप 

लोग बहुत हल्ला कर रहे थे,पर बोफोर्स मामले 

में क्या हुआ ?

2- जी केस में क्या हुआ ?

एक बार फिर यह सवाल उठ रहा है क्योंकि 2024 का लोक सभा चुनाव बहुत नजदीक है।

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यह सवाल उठाकर वे यह साबित करना चाहते हैं कि इन दिनों जिन गैर भाजपा दलों के अनेक बड़े नेताओं के खिलाफ जो मुकदमे चल रहे हैं,उनमें भी अंततः कोई सबूत नहीं मिलेगा।

  इन मामलों का हश्र भी वही होगा जो बोफोर्स और 2 जी का हुआ।

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मैं बताता हूं कि बोफोर्स और 2 जी में क्या हुआ।

क्या -क्या नहीं हुआ ?

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(इन मुद्दों पर मैं 25 अक्तूबर, 2021 और 15 जुलाई, 2023 के दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर विस्तार से लिख चुका हंू।

पर,लगता है कि टी.वी.पर आने वाले भाजपा प्रवक्ता भी हिन्दी अखबार नहीं पढ़ते।)क्योंकि वे बोफोर्स और 2 -जी की चर्चा आते ही सकपका जाते हैं।

सटीक जवाब नहीं दे पाते।ं

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बोफोर्स तोप खरीद घोटाला कांड 

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2 नवंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने बोफोर्स मुकदमे में

सी.बी.आई.की अपील को तमादी के आधार पर खारिज कर दिया।

पर, वकील अजय अग्रवाल की इस संबंध में दाखिल जनहित याचिका को सुनवाई के लिए मंजूर करते हुए अदालत ने कहा कि सी.बी.आई. के वकील, अग्रवाल की अपील की सुनवाई के दौरान अपना पक्ष प्रस्तुत कर सकते हंै। 

अब अजय अग्रवाल ही बता सकते हैं कि उनकी जनहित याचिका की अद्यतन  स्थिति क्या है।

इस बीच मैंने अब तक कहीं नहीं पढ़ा कि अग्रवाल की याचिका अस्वीकार कर दी गयी।

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टू जी घोटाला केस

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कम ही लोगों को यह मालूम है कि 2- जी का मामला अब भी दिल्ली हाईकोर्ट में विचाराधीन है।

सी.बी.आई.ने लोअर कोर्ट के जजमेंट के खिलाफ अपील दायर कर रखी है।

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 2 जी. स्पैक्ट्रम घोटाला मुकदमे में ए.राजा और कनिमोझी को दोषमुक्त करते हुए दिल्ली स्थित विशेष सी.बी.आई. जज ओ.पी.सैनी ने 2017 में  कहा था कि कलाइनगर टी.वी.को कथित रिश्वत के रूप में शाहिद बलवा की कंपनी डी.बी.ग्रूप द्वारा 200 करोड़ रुपए देने के मामले में अभियोजन पक्ष ने किसी गवाह से जिरह तक नहीं की।

कोई सवाल नहीं किया।

याद रहे कि उस टीवी कंपनी का मालिकाना करूणानिधि परिवार से जुड़ा है।

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मान लिया कि कोई सवाल नहीं किया।

क्योंकि शायद मनमोहन सरकार के कार्यकाल में  सी.बी.आई. के वकील को ऐसा करने की अनुमति नहीं रही होगी।

पर, खुद जज साहब के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में ऐसे ही मौके के लिए  धारा -165 का प्रावधान किया गया है।

आश्चर्य है कि  धारा -165 में प्रदत्त अपने अधिकार का सैनी साहब ने इस्तेमाल क्यों नहीं किया।कारण अज्ञात है।

 इस सवाल पर अब हाईकोर्ट में विचार होगा। 

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बोफोर्स घोटाले पर दिल्ली 

हाईकोर्ट का विचित्र न्याय

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सन 2019 के नवंबर में आयकर विभाग ने मुम्बई स्थित बोफोर्स दलाल विन चड्ढ़ा के फ्लैट को 12 करोड ़2 लाख रुपए में नीलाम कर दिया।

विन चड्ढ़ा के परिजन ने इस नीलामी का विरोध तक नहीं किया।

मनमोहन सिंह के प्रधान मंत्रित्व काल में आयकर न्यायाधीकरण ने कह दिया था कि ‘‘बोफोर्स की दलाली के मद में 41 करोड़ रुपए क्वात्रोचि और विन चड्ढ़ा को मिले थे।

उस पर आयकर बनता है।’’

याद कीजिए,राजीव गांधी लगातार कहते रहे कि बोफोर्स सौदे में कोई दलाली नहीं ली गई।

 सी.बी.आई. ने स्विस बैंक की लंदन शाखा में बोफोर्स की दलाली के पैसे का पता लगा लिया था।वह पैसा क्वात्रोचि के खाते में था।(ठीक उसी खाता नंबर की चर्चा वी.पी.सिंह ने 4 नवंबर 1988 को पटना की एक जन सभा में की थी।)

उस खाते को गैर कांग्रेसी शासन काल में सी.बी.आई.ने जब्त करवा दिया था।

पर बाद में मन मोहन सरकार ने सरकारी वकील बी.दत्ता को  लंदन भेजकर उस जब्त खाते को खुलवा दिया।

   क्वात्रोचि को पहले भारत से भाग जाने दिया गया।

 बाद वह लंदन बैंक के अपने खाते से पैसे निकाल कर मलेशिया भाग गया।

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याद रहे कि बोफोर्स तोप अच्छी है।

फ्रांस की सोफ्मा तोप उससे बेहतर है।

सोफ्मा वाले दलाली नहीं देते थे।

बोफोर्स वाले देते थे।

इसीलिए भारत सरकार ने बोफोर्स खरीदा।

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अस्सी के दशक में बिहार राज्य पथ परिवहन निगम का एक अफसर मुझसे मिला था।

उसने कहा कि ‘‘मुझ पर ऊपर यह दबाव है कि मैं टाटा कंपनी के चेसिस ही खरीदूं।जबकि मैं एक दूसरी कंपनी के चेसिस खरीदना चाहता हूं।’’

मैंने उस मामले का पता लगया।

एक ईमानदार अफसर ने मुझे बताया कि जो अफसर आपसे मिला था,वह रिश्वत कमाना चाहता है। 

इसीलिए वह दूसरी कंपनी का पक्ष ले रहा है।

टाटा कंपनी रिश्वत नहीं देती।यह उसका नियम है।

चाहे आप उसके चेसिस खरीदें या मत खरीदें।

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   2 जी केस में अदालती विचित्रता

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 जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट प्रथम द्रष्ट्वा घोटाला मान कर 122 लाइसेंस रद कर दे और जुर्माना भी लगा दे ,उस केस में लोअर कोर्ट की ऐसी हिमाकत ????

यह अपने ही देश में संभव है।

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10 जनवरी 24


   

 



 यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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देश की विधायिकाओं का एजेंडा प्रतिपक्ष भी तय करे

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क्यों न इस देश में भी विधायिकाओं के हर सत्र के कुछ खास दिनों के एजेंडा प्रतिपक्ष तय करे ?

ब्रिटेन और कनाडा में यह परंपरा जारी है।

यदि यहां भी वैसा हो जाए तो शायद सदन के संचालन में उससे फर्क पड़े।

शोरगुल कम हो !

पता नहीं, हमारे संविधान निर्माताओं ने इस पर सोच-विचार किया था या नहीं।

पर,अब तो इसकी जरूरत लग रही है।

इस देश में संसद सहित विधान सभाओं और विधान परिषदों  में शांति बहाल रखना दिन प्रति दिन मुश्किल होता जा रहा है।

ऐसे में इस फार्मूले को अपनाने में क्या हर्ज है !

शायद उससे प्रतिपक्षी दलों को कुछ संतुष्टि मिले।

याद रहे कि ब्रिटिश संसद के हर सत्र के 20 दिन वहां के प्रतिपक्षी दल सदन की कार्यवाही का एजेंडा तय करते थे।

कनाडा में 22 दिन ऐसा होता है।

यदि एक से अधिक दल प्रतिपक्ष में हैं तो उतना समय उन दलों के बीच उनकी सदस्य संख्या के अनुपात बांट दिया जाता है।

हां,यदि प्रतिपक्ष के किसी मुद्दे पर सदन में मतदान होता है तो उसके नतीजों को स्वीकार करने के लिए सरकार बाध्य नहीं हेाती।

हाल में भी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि असली मुद्दों पर सदन में चर्चा नहीं हो रही है।

यदि उन्हें कुछ दिन मिल जाएं तो वे ‘‘असली मुद्दों’’ को एजेंडा बना सकंेगे।

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भाजपा पहल करे

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा सांसदों से कहा है कि वे संयम बरतें और लोकतांत्रिक मानदंड के अनुसार व्यवहार करें।

अभी तो उनका इशारा संसद में शालीनता और संयम बरतने को लेकर हैं।

किंतु ऐसे निदेशों को विधान सभाओं और परिषदों में मौजूद भाजपा सदस्यों तक भी पहुंचाया जाना चाहिए।

यदि ऐसे निदेश का पालन हो सका तो देश की विधायिकाओं में अच्छी परंपरा की शुरूआत होगी।

जिन राज्यों में गैर भाजपा दलों की सरकारें हैं,क्या उन राज्यों की विधायिकाओं में भाजपा सदस्यगण अपने आचरण से आदर्श उपस्थित करेंगे ?

यदि ऐसा हुआ तो संसद के प्रतिपक्षी दलों से भी आदर्श पेश करने के लिए कहने का नैतिक हक भाजपा को हासिल होगा।

चूंकि भाजपा एक अनुशासित दल है,इसलिए वह इसकी शुरूआत कर सकती है।

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कैसे सुधरेगी बिहार की शिक्षा ! 

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बिहार के अतिरिक्त मुख्य सचिव के.के.पाठक राज्य के शिक्षा क्षेत्र में सुधारात्मक कार्य कर रहे हैं।

 उसका सकारात्मक असर है।

 आम जनता के.के.पाठक की इस पहल की सराहना कर रही है।मुख्य मंत्री नीतीश कुमार का भी संरक्षण श्री पाठक

को हासिल है।  

पर,कुछ खास हलकों में के.के.पाठक की पहल का तीखा विरोध हो रहा है।

ऐसे में क्या पाठक जी अभियान अधिक दिनों तक जारी रख पाएंगे ?

अपवादों को छोड़कर बिहार में शिक्षा-परीक्षा की आज जो दुर्दशा है,उसमें सुधार का काम अगली पीढ़ियों के लिए नहीं टाला जा सकता है।

 इन पंक्तियों का लेखक दशकों से देख रहा है कि किस तरह यहां की अच्छी शिक्षा व्यवस्था को धीरे धीरे बर्बाद कर दिया गया।

 कई तत्व जिम्मेदार रहे हैं।एक उच्चस्तरीय न्यायिक आयोग   

बने।दुर्दशा के कारणों को चिन्हित करे।सुधार के उपाय सुझाये।सरकार उन उपायों को लागू करे।

अन्यथा, अधिकतर शिक्षण संस्थान सिर्फ सर्टिफिकेट

बांटने के काउंटर भर बनकर रह जाएंगे।     

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तब और अब की कहानी

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साठ के दशक की बात है।

बिहार के औरंगाबाद जिले के एक क्षेत्र से विधायक ब्रजमोहन सिंह राज्यस्तरीय नेता से बातचीत कर रहे थे।

ब्रजमोहन सिंह ने कहा कि मैं इन दिनों क्षेत्र के विकास के काम में लगा था,इसलिए आपसे बीच में मिल नहीं सका था।

दिवंगत ब्रजमोहन बाबू ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि मुझे उम्मीद थी कि नेता जी मेरी तारीफ करेंगे।

पर,उल्टे उन्होंने कहा कि ज्यादा विकास वगैरह के काम में लगोगे तो अगली बार चुनाव नहीं जीत पाओगे।

क्योंकि सरकार से कितने गांवों का विकास करवा पाओगे ?

साधन इतना कम है कि कुछ ही गांव का करा पाओगे।

नतीजतन जिन गावों का नहीं होगा, उन गांवों के लोग तुमको अगली बार वोट नहीं देंगे।

आज यानी सन 2023 में स्थिति बदल चुकी है।

हर तरफ विकास व कल्याण के थोड़ा-बहुत काम हो रहे हैं।केंद्र और राज्य सरकारों के बीच होड़ है।

अन्य गांवों का भी यही हाल है।पर व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर मैं अपने गांव का हाल बताता हूं।

गांव के दक्षिण से उत्तर की ओर पक्की सड़क बन रही है।

पूरब से पश्चिम ओर सीमेंटी सड़क की योजना है।नदी में घाट बन रहा है।

कई साल पहले मेरे प्रयास से वहां कुछ विकासात्मक काम हुए थे।

पर,इन दिनों राज्य के सामान्य विकास के क्रम में मेरे पुश्तैनी गांव का भी विकास हो रहा है।

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और अंत में

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मध्य प्रदेश विधान सभा भवन से जवाहरलाल नेहरू का चि़त्र हटा दिया गया।

कुछ साल पहले जब कमलनाथ ने मुख्य मंत्री पद संभाला तो उन्होंने जेपी सेनानी पेंशन योजना बंद कर दी थी।यह सब चलता रहता है।

बिहार में ,जहां आंदोलन सर्वाधिक सघन था,जेपी सेनानी को अधिकत्तम हर माह 15 हजार रुपए मिलते हैं।मध्य प्रदेश में तब 25 हजार रुपए मिलते थे।

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21 दिसंबर 23


 वेबसाइट मनी कंटा्रेल हिन्दी पर प्रकाशित

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मधु लिमये की पुण्य तिथि (8 जनवरी) पर 

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हंगामे के बिना ही सरकार और संसद को हिला देने वाले मधु लिमये जैसे सांसद का इंतजार है इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को

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सुरेंद्र किशोर

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    बिहार से लोक सभा के सदस्य रहे मधु लिमये ने यह सिखाया था कि किसी हंगामे के बिना भी विधायका में किस तरह कटु सत्य भी प्रभावकारी तरीके से बोले जा सकते हैं।

‘‘वन मैन आर्मी’’ लिमये जब लोकसभा में बोलने के लिए

उठते थे तो सरकार सिहर जाती थी।

क्योंकि उनकी बातें तथ्यों से परिपूर्ण होती थीं।

 मुंगेर और बांका से बारी -बारी-बारी से दो-दो बार सांसद रहे मधु लिमये ने सिखाया था कि  

प्रभाव पैदा करने के लिए सदन के नियमों की बेहतर जानकारी होनी चाहिए।

नियमों के इस्तेमाल की सलाहियत भी।

 सन 1964 में मुंगेर से पहली बार लोक सभा में गये मधु लिमये को यह सब अच्छी तरह आता था।

वे तब एक उप चुनाव में विजयी हुए थे।

  आज यह देखकर लोगबाग दुःखी होते हैं कि जन प्रतिनिधियों को  अपनी बातें  कहने के लिए अक्सर हंगामे का सहारा लेना पड़ता है।

  आज जब संसद व विधान सभाओं  की गरिमा का अवमूल्यन हो रहा है ,मधु लिमये जैसे ‘सभा -चतुर’ नेता अधिक ही याद आते हैं।उन दिनों मधु लिमये जैसे कई अन्य सांसद भी थे।फिर भी मधु सबसे अलग थे।

   बिहार से चुनाव जीत कर संसद के दोनों सदनों में बारी -बारी से  गये नामी -गिरामी राष्ट्रीय नेताओं  नेताओं की भी कमी नहीं रही।उन बड़े नेताओं व काबिल सांसदों में बिहारी भी थे और गैर बिहारी भी।

उनमें मधु लिमये का स्थान बेजोड़ था।आजादी के बाद बिहार से लोक सभा व राज्य सभा के संदस्य बने नेताओं में जे.बी.कृपलानी,

अशेाक मेहता,

जार्ज फर्नाडिस,

आई.के.गुजराल,

युनूस सलीम,

कपिल सिब्बल,

रवींद्र वर्मा,

नीतीश भारद्वाज,

मीनू मसानी,

लक्ष्मी मेनन और एम.एस.ओबराय प्रमुख थे।

  मधु लिमये का बिहार से कुछ खास तरह का लगाव भी रहा।

  वे बिहार से मात्र सांसद ही नहीं थे बल्कि वे राष्ट्रीय -अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के साथ-साथ  बिहार की मौलिक समस्याओं को भी समान ऊर्जा व मनोयोग से संसद के भीतर व बाहर उजागर करते थे।बिहार पर उनके लेखन व भाषण  चर्चित हुए। 

हंगामे के बिना आज जिन छोटे -बड़े सांसदों व दलों के लिए अपनी बातें कह पाना कठिन होता है,उन्हें मधु लिमये की संसदीय शैली से इस मामले में अब भी कुछ सूत्र सीख लेना चाहिए ।

 हालांकि यह थोड़ा कठिन दिमागी कसरत का काम है जिससे हमारे अधिकतर नेता आज जरा दूर ही रहना चाहते हैं।

समाजवादी विचारक व सभा चतुर मधु लिमये का जन्म 1 मई 1922 को पूणे में हुआ था।

  उनका निधन 8 जनवरी 1995 को दिल्ली में हुआ।

वे दो बार मुंगेर(1964 और 1967 )और दो बार बांका(1973 और 1977)से लोक सभा सदस्य चुने गये।

 सांसद के रूप में मधु लिमये ने तत्कालीन केंद्र सरकार को इतना हिला दिया था कि प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने यह सुनिश्चित किया कि वे अगले चुनाव में हार जाएं।

सन 1971 के चुनाव से ठीक पहले तब के एक ताकतवर कांग्रेसी नेता व ‘शेरे बिहार’ के नाम से चर्चित रामलखन सिंह यादव के सामने अपनी आंचल पसार कर इंदिरा जी ने उनसे यह आग्रह किया था कि  ‘‘आप मुंगेर और बाढ़ की  सीटें हमें विशेष तौर पर उपहार में दे दीजिए।’’

यानी, इंदिरा जी मधु लिमये और तारकेश्वरी सिंहा (बाढ़ से सांसद)को किसी भी कीमत पर सदन में नहीं देखना चाहती थीं।

इस काम में यादव जी ने स्वजातीय मतदाताओं के जरिए उनकी मदद कर दी थी। 

लिमये और तारकेश्वरी सिन्हा दोनों हार गए थे।

 वैसे भी तब ‘गरीबी हटाओ’ का नारे का इंदिरा जी के पास बल  था।  

पर दो साल बाद ही यदि मधु लिमये एक उप चुनाव के जरिए बिहार के ही बांका से 

लोक सभा मे ंचले गये थे तो यह उनके प्रति बिहारी कृतज्ञ मानस का उपकार का भाव ही था।

  मधु ने बिहार का नाम ऊंचा ही किया था।मधु लिमये की चर्चा करने पर 

कुछ  विदेशी राजनयिक भी दिल्ली में यह पूछते थे कि वे कहां से चुनाव जीतते हैं ?

 वैसे क्षेत्रों से कैसे जीतते हैं जहां उनकी जाति यानी ब्राह्मणों के वोट अधिक नहीं हैं ? 

  इस सूचना  के बाद कई विदेशी राजनयिकों  के मन में यह बात भी कुलबुलाने लगती थी कि तब क्यों बिहार को जातिवादी राज्य कहा जाता है ? 

    मधु लिमये ने ऐसे समय में लोक सभा में अपनी संसदीय योग्यता की धाक जमाई थी जब के स्पीकर लोहियावादी समाजवादी सांसदों के सदन में खड़ा होने के साथ ही उन्हें  तत्काल बैठा देने की कोशिश करने लगते थे। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि वे जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी  के खिलाफ कोई सांसद कटु बात बोल दे।

नेहरू 1964 तक प्रधान मंत्री थे।नेहरू के कटु आलोचक व अदमनीय समाजवादी नेता डा.राम मनोहर लोहिया ने 1963 में लोक सभा में प्रवेश करने के साथ ही नेहरू पर ऐसे कठोर प्रहार शुरू कर दिये थे कि स्पीकर सदा सतर्क रहते थे।

    पर, चूंकि मधु के पास संसदीय फोरम के इस्तेमाल की चतुराई थी,इसलिए उन्हें अपनी बातें कहने से 

 स्पीकर रोक भी नहीं पाते थे।

स्पीकर उन दिनों लोकलाज का काफी ध्यान रखने वाले नेता हुआ करते  थे।

संविधान व लोक सभा की कार्य संचालन नियमावली का सहारा लेकर जब मधु लिमये  प्रस्ताव व सूचनाएं देते थे । उन पर चर्चाएं कराने पर स्पीकर मजबूर हो जाते थे।

इस तरह संसदीय प्रक्रियात्मक ज्ञान का उपयोग करके मधु लिमये देश व समाज के लिए काफी कुछ कर पायेे।

   उनसे ‘‘सकारात्मक ईष्र्या’’ रखने वाले एक अन्य समाजवादी चिंतक व पूर्व सांसद किशन

 पटनायक ने मधु लिमये के बारे में उनके निधन के बाद  लिखा था कि ‘‘एक श्रेष्ठ कोटि के सांसद के रूप में मधु की प्रतिष्ठा हुई।मंत्रियों के भ्रष्टाचार के विरोध में उनका हमला इतना कारगर होने लगा था कि बड़े नेताओं में उनके प्रति भय हुआ।

सन 1964 से 1967 के बीच सांसद के रूप में उनका जो उत्थान हुआ ,उसका मैं सदन के भीतर प्रत्यक्षदर्शी था।

 संसदीय प्रणाली व संविधान के बारे में उनका ज्ञान अद्वितीय था।मधु लिमये शुरू से मेरे लिए आदर, ईष्र्या व असंतोष के पात्र रहे।

मेरे स्वभाव में है कि ईष्र्या उस व्यक्ति के लिए होती है जिसके लिए मेरे मन प्यार होता है।’’

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8 जनवरी 24 को प्रकाशित


 ‘‘ईमानदारी के 90 प्रतिशत पेट्रोल में जब तक बेईमानी के 10 प्रतिशत मोबिल नहीं मिलाओगे,तबतक जीवन की गाड़ी नहीं चलेगी’’

---धर्मेंद्र के नायकत्व में 60 के दशक में बनी 

एक फिल्म में नायक के जोकर साथी का डाॅयलाग।

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सुरेंद्र किशोर

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साठ के दशक में एक फिल्म आई थी जिसके हीरो धर्मेंद्र थे।

हीरो आदर्शवादी था।

उनके जोकर मित्र की भूमिका में

महमूद या जाॅनी वाॅकर थे,ठीक -ठीक मुझे याद नहीं।

धर्मेंद्र संभवतः एक अत्यंत ईमानदार सरकारी सेवक की भूमिका मंे थे।

और भ्रष्टाचार से पूरी तरह अलग थे--यानी 24 कैरेट के सोना।

नीतजतन उन्हें कदम-कदम पर भारी कष्ट हो रहा था।

जोकर साथी ने हीरो धर्मेंद्र से एक दिन कहा--



‘‘अरे भई ,ईमानदारी के 90 प्रतिशत पेटा्रेल में बेईमानी के 10 प्रतिशत मोबिल जब तक नहीं मिलाओगे, तब तक जीवन की गाड़ी नहीं चलेगी।’’

संभवतः तब सरकारी घूस का रेट 10 प्रतिशत ही रहा होगा।

अब तो औसतन 40 प्रतिशत की खबर है।

अंदाज लगा लीजिए कि जीवन की गाड़ी को 

रफ्तार में लाने के लिए कितना मोबिल आज मिलाना पड़ता होगा !!

बिहार के चारा घोटाले की एक कहानी--

 पशुपालन विभाग का पूरे साल का बजट 75 करोड़ रुपए का था।

पर घोटालेबाजों ने जाली बिलों के आधार पर खजाने से उस साल निकाल लिए थे 225 करोड़ रुपए।

अब आप खुद ही इसका प्रतिशत निकाल लीजिए।

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  जो अत्यंत थोड़े से लोग आज भी फिल्मी धर्मेंद्र की भूमिका में हैं,उनके जीवन के साथ क्या-क्या  हो रहा है,कभी सोचा है ?

उसकी कल्पना कर लीजिए।

दो जून की रोटी और तृतीय श्रेणी का जीवन स्तर बनाये रखने के लिए कई बार बुढ़ापे तक भी हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है।

क्योंकि सेवा काल में और सेवांत लाभ उठाकर अपनी कमाई तो बाल-बच्चों को स्थापित करने में पहले ही खप चुकी होती है।

 इस ढीले-ढाले लोकतंत्र के हमारे आधुनिक हुक्मरानों ने सामान्य जनता के लिए यही उपहार दिया है--और उनके खुद के लिए ?

थोड़ा कहना, अधिक समझना और सिस्टम पर कंूढ़ना !

हालांकि इसके थोड़े ही हुक्मरान अपवाद भी हैं जिनकी गद्दी और जान पर खतरा बना रहता है।

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 7 जनवरी 24

 

    


 विश्व हिन्दी दिवस पर

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सुरेंद्र किशोर

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1.-रिमबर्स

2.-टर्न आउट

3.-रेंडमाइजेशन

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 हिन्दी अखबारों में ऊपर लिखे शब्दों का इस्तेमाल होते मैंने हाल में देखा।

  इस बात के बावजूद कि हिन्दी अखबारों के पाठक पीएच.डी.से लेकर नन-मैट्रिक तक होते हैं।

अखबार पढ़ते समय कितने लोग शब्दकोश लेकर बैठते हैं ?

कितने नान-मैट्रिक या उससे भी थोड़ा अधिक पढ़े -लिखे लोग ऊपर लिखे तीन शब्दों के अर्थ जानते हैं ?

अब हिन्दी अखबारों में इस तरह के अन्य अनेक अंग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। 

मैंने तो नमूना के तौर पर सिर्फ तीन शब्दों की चर्चा की।

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कौन कहेगा कि रेलवे स्टेशन के बदले आप ‘लौह पथ गामिनी विराम स्थल’ का इस्तेमाल करें ?

अंग्रेजी के आक्सफोर्ड शब्दकोश में भी भारतीय शब्दों को अंगीकार किया गया है।

जैसे-जुगाड़,

दादागिरी,

नाटक,

सूर्य नमस्कार,

अन्ना,

अब्बा, 

गुलाब जामुंन, 

वाडा आदि आदि। 

हिन्दी अखबारों मेें वैसे अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल किया ही जा सकता है जो यहां आम लोगों की बोलचाल में हैं।

अन्यथा, कम अंग्रेजी जानने वाले वैसे हिन्दी अखबारों को ही पसंद करेंगे जो अंग्रेजी के कठिन शब्दों का इस्तेमाल न करते हांे।

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10 जनवरी 24

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पुनश्चः

सन 1977 से 1983 तक जब मैं दैनिक ‘आज’ में काम कर रहा था तो इस संबंध में बहुत सारी बातें संपादक लोग हमें बताया करते थे। अनुवाद के बारे में भी।

कहते थे कि यह लिखना सही नहीं है कि निर्णय लिया गया।

निर्णय कहीं रखा हुआ नहीं था जो आपने उसे ले लिया।

बल्कि आपने निर्णय किया।

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एक बार एक मझोले कद के नेताजी ‘आज’ आॅफिस में आये।

उन्होंने अपना ‘हैंडआउट’ संपादक पारसनाथ सिंह को दिया।

उनसे परिचित थे।

उसमें उन्होंने किसी बड़े नेता के जन्म दिन पर उन्हें बधाई दी थी।

वे चाहते थे कि छपे। 

पारस बाबू ने उनसे कहा कि यह आपके और नेता जी के बीच का मामला है।

आप उन्हें व्यक्तिगत चिट्ठी भिजवा दें।

आपकी बधाई से हमारे अखबार के आम पठकों का भला क्या लेना -देना !

न्यूज प्रिंट बड़ा महंगा होता है।

उसका हम ऐसी सामग्री के लिए उपयोग नहीं कर सकते।

बेचारे उदास होकर चले गये थे।

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सोमवार, 8 जनवरी 2024

 दूध(चैधरी चरण सिंह और चंद्र शेखर)का जला नेहरू-गांधी परिवार 

ने 10 साल तक मन को मोहने वाला मट्ठा पीकर काम चलाया था।

ऐसे में खास तरह के एक नेता कैसे यह उम्मीद कर बैठे कि उन्हें प्रधान मंत्री बना दिया जाएगा ?

जबकि, उनका यह बयान अक्सर आता रहा है कि

 (अपवादों को छोड़कर )

‘‘मैं न तो किसी को फंसाता हूं और न ही किसी को बचाता हूं।’’

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जब गठबंधन ही इसलिए बना है ताकि ‘‘केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपययोग’’ को रोका जाए तो गठबंधन के मूल उद्देश्य से ही गठबंधनी नेतागण क्यों कभी अलग होंगे ?

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कभी- कभी कुछ चतुर-सुजान नेता लोग भी किसी असंभव की 

उम्मीद में आरत हृदयी होकर अपना राजनीतिक काॅमन सेंस भी भूलकर इधर-उधर नाहक भटकने लगते हैं।

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जहाज का पक्षी उतना ही उड़ता है ताकि पुनि जहाज पर आवे वाली उसकी स्थिति बनी रहे।

पुनि जहाज पर आ जाने के कारण उस पक्षी की कोई आलोचना नहीं करता।

तुलसी दास कहते हैं 

--मंत्री,गुरु,वैद्य,जौं प्रिय बोलहिं भय आस

राजधर्म तन तीनि कर होइ बेगिही नास

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दरअसल दिक्कत यह है कि अधिकतर सत्ताधारियों की, सत्ता संभालते ही, अप्रिय सत्य सुनने की क्षमता समाप्त हो जाती है।

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27 दिसंबर 23




   


रविवार, 7 जनवरी 2024

 कर्पूरी ठाकुर जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर

( 24 जनवरी 1924--17 फरवरी 1988)

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कर्पूरी ठाकुर को ‘पिछड़ा नेता’ या ‘अति पिछड़ा 

नेता’ बताना उन्हें छोटा करके दिखाना हुआ

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘ कर्पूरी जी, आप सभी जातियों का नेता बनने का मोह छोड़िए।

आप सिर्फ पिछड़ों का नेता बनिए।

आपमें उत्तर भारत के कामराज बनने की क्षमता है।

आप हनुमान जी की तरह ही अपनी ताकत का आकलन नहीं कर पा रहे हैं।’’

  यह बात जब प्रमुख समाजवादी नेता भोला प्रसाद सिंह कर्पूरी जी से कह रहे थे,तब मैं वहां मौजूद था।

तब मैं राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से कर्पूरी जी का निजी सचिव (1972-73) था।

कर्पूरी जी तब बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।

भोला बाबू की बातों को कर्पूरी जी ने सिर्फ सुना।

उस पर कोई टिप्पणी उन्होंने नहीं की।

हां, उनके चेहरे पर जो भाव थे,उससे मुझे लगा कि भोला बाबू की बात को उन्होंने पसंद नहीं किया। 

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बिहार की सरकारी सेवाओं के सन 1978 में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू हुआ।

यह काम मुख्य मंत्री के रूप में कर्पूरी ठाकुर ने किया।

26 में 12 प्रतिशत अति पिछड़ों और 8 प्रतिशत पिछड़ों के लिए आरक्षण हुआ।

 3 प्रतिशत महिलाआं और 3 प्रतिशत सवर्णों  के लिए भी आरक्षण हुआ।

चूंकि पिछड़ों की अपेक्षा अति पिछड़ों को अधिक आरक्षण मिला था,इसलिए कई लोगों ने कर्पूरी जी को अति पिछड़ों का नेता कहना शुरू कर दिया।

पर,पंचायतों में अति पिछड़ों के लिए आरक्षण का काम तो मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने किया।उसके कारण कोई नीतीश कुमार को सिर्फ अति पिछड़ों का नेता तो नहीं कहता।

दरअसल यह समाजवादियों की सोच रही है कि कमजोर वर्ग के लोगों के लिए विशेष प्रावधान किया जाये।

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मैंने 1967 से 1977 तक एक समाजवादी कार्यकर्ता की नजर से कर्पूरी जी को देखा।

1977 से 1988 तक उन्हें एक सक्रिय पत्रकार की नजर से मैंने देखा।

डेढ साल तक मैं पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित उनके सरकारी आवास में रहा।

इतने लंबे समय तक आप यदि किसी व्यक्ति के साथ रात-दिन रहते हैं तो आप उनके गुण-दोष जान जाते हैं।

कुल मिलाकर मेरा आकलन है कि कर्पूरी जी जैसा महान नेता मैंने कोई और नहीं देखा।कुछ अन्य वैसे जरूर होंगे,पर मैंने नहीं देखा।

जातीय पक्षपात की भावना तनिक भी कर्पूरी जी में नहीं थी।हां,किसी कमजोर के साथ अन्याय होता था तो वे जरूर उठ खड़े होते थे।

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कोई नेता अपना निजी सचिव किस जाति के व्यक्ति को रखता है,उससे पूरा तो नहीं लेकिन,एक हद तक उस नेता की पहचान हो जाती है।

कर्पूरी जी जब 1967 में उप मुख्य मंत्री बने तो उन्होंने बिहार प्रशासनिक सेवा के एक ईमानदार अफसर यू.पी.सिंह को ,जो राजपूत हैं,अपना निजी सचिव बनाया था।तब मैंने अम्बिका दादा से पूछा था कि राजपूत को कैसे बनाया?(तब तक यू.पी.सिंह मेरे रिश्तेदार नहीं बने थे) 

दादा ने कहा कि यह ईमानदार अफसर है।

वे बाद में श्री सिंह आई.ए.एस.भी बने।अब भी हमलोगों के बीच मौजूद हैं।

उनके पुत्र व मशहूर नेत्र चिकित्सक डा.सुनील कुमार सिंह उनके पुत्र हैं।सुनील जी जदयू के प्रवक्ता भी हैं।

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सन 1972 में बिहार सरकार ने कर्पूरी जी के साथ काम करने के लिए टाइपिस्ट रामचंद्र ठाकुर को भेज दिया।

(मैं तब निजी सचिव था)

कर्पूरी जी ने जब यह जाना कि रामचंद्र जी हज्जाम हैं तो उन्होंने अपना माथा पकड़ लिया--कहा कि यह सड़े हुए दिमाग के अफसरों का काम है।मैंने तो विभाग से किसी खास जाति का टाइपिस्ट नहीं मांगा था।

पर,साथ में काम करने के सिलसिले में मुझे लगा कि रामचंद्र बाबू की शालीनता,ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के कारण उन्हें कर्पूरी जी के यहां भेजा गया था।

संभव है कि जाति वाली बात भी संसदीय कार्य विभाग के अफसरों के दिमाग में हो।

क्योंकि तब भी अधिकतर मंत्री अपनी ही जाति के स्टाफ मांगते रहे थे।

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1978 के पिछड़ा आरक्षण का भी बिहार में भारी विरोध हुआ था।कर्पूरी जी को जमकर गालियां दी गयीं।

पर,अपने शालीन स्वभाव के कारण कर्पूरी जी ने पलट कर जवाब नहीं दिया।

पर,जब 1990 के मंडल आरक्षण के समय लालू प्रसाद ने पलट के जवाब दिया तो पिछड़ों में लालू के पक्ष में अभूतपूर्व एकता आ गयी।

यह और बात है कि लालू प्रसाद उस एकता को कायम नहीं रख सके।

जवाब देने का यह काम यदि कर्पूरी जी ने 1978 में किया होता तो बाद में भी वे सत्ता में आते।पर,वैसी भाषा-शब्दावली कर्पूरी जी के स्वभाव में नहीं थी।

याद रहे कि 1978 के आरक्षण विवाद के बाद भी कर्पूरी जी के एक निजी सचिव सवर्ण रहे।

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7 जनवरी 24


शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

 कहते हैं कि हम धर्म बदल

 सकते हैं,किंतु जाति नहीं

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हालांकि एक पिछड़ी जाति का व्यक्ति सोम यज्ञ 

करके ब्राह्मण बन गया था।

यह कैसे संभव हुआ ? !

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सुरेंद्र किशोर

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राज्य सभा के सदस्य रहे भाजपा नेता

तरुण विजय ने नागपुर के डा.श्रीकांत जिचकर के बारे में पांचजन्य (13 जून 2004)में लिखा था--

‘‘विद्वान शिरोमणि यौवन तेज से भरपूर सुदर्शन चेहरा एवं वाणी मेें नूतन ब्राह्मण का परिमर्जित माधुर्य।’’

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 पिछड़ी जाति में जन्मे डा.जिचकर ने खुद कहा था कि 

‘‘अब मैं दीक्षित हो गया हूं।

 दीक्षा प्राप्त करने के बाद ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठत्तम परंपरा में सम्मिलित हो गया हूं। 

मैं जन्म से ब्राह्मण नहीं था।

 परंतु घर में अग्नि प्रतिष्ठापित कर अग्निहोत्र धर्म का नियमानुसार पालन कर और अब सोम यज्ञ द्वारा दीक्षित होने के बाद मैं स्वयं को दीक्षित कहने का अधिकारी हो गया हूं।’’

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सर्वाधिक शिक्षित होने का विश्व रिकाॅर्ड कायम कर चुके दिवंगत डा.जिचकर के बारे में जान लीजिए।

 जिचकर (1954--2004)न सिर्फ महाराष्ट्र सरकार के  मंत्री थे बल्कि राज्य सभा के सदस्य भी थे।

वह महाराष्ट्र विधान परिषद के भी सदस्य रहे।

उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर एक बार लोक सभा का चुनाव भी लड़ा था।

पर वे विफल रहे।

सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में उन्होंने भारतीय पुलिस सेवा से  इस्तीफा दे दिया था।

     जिचकर एम.बी.बी.एस. और एम.डी. थे।

 वह एलएल.बी., एलएल.एम. और एम.बी.ए. भी थे।

उन्होंने पत्रकारिता की भी डिग्री ली थी।

दस विषयों में एम.ए. थे।

1973 से 1990 के बीच उन्होंने कुल 20 डिग्रियां लीं।

सारी परीक्षाओं में उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्णता हासिल की।

उन्हें कई स्वर्ण पदक भी मिले।

वह संस्कृत में डि लिट थे।

 1978 में आई.पी.एस.बने।

 इस्तीफा देने के बाद आई.ए.एस.बने।

1980 में महाराष्ट्र विधान सभा के सदस्य बने। 

मंत्री भी बने।

 उनके पास 14 विभाग थे।

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   डा. जिचकर का नाम लिम्का बुक आॅफ वल्र्ड रिकाॅर्ड में  भारत के सबसे अधिक योग्य और निपुण व्यक्ति के नाते दर्ज है।

 वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने जीरो बजट की अवधारणा को कार्यरूप दिया था। 

डा. जिचकर को समय -समय पर याद करके नागपुर का  अभिभावक अपने बच्चों से कहता है कि ‘बेटा, बड़ा होकर श्रीकांत जिचकर की तरह बनना। ’

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वह आधुनिक राजनीति में एक,संभवतः एकमात्र, ऐसे व्यक्ति थे जिनको कोई पिता दिल्ली में अपनी संतान का स्थानीय अभिभावक बना सकता था।

 आज कितने अभिभावक दिल्ली में अपनी संतान का लोकल र्गािर्जयन किसी सांसद को बनाना पसंद करेंगे ?

   डा. जिचकर ने नागपुर में एक विद्यालय की स्थापना की थी ।

उस स्कूल के बारे में अभिभावकों से अपील करते हुए अखबार में विज्ञापन छपा था, 

‘‘ डा. श्रीकांत जिचकर जिस विद्यालय में अपने बेटे को प्रवेश दिला रहे हैं, क्या आप अपने बच्चों को भी उसी विद्यालय में पढ़ाना चाहेंगे ? ’’

 इस विज्ञापन के छपते ही सैकड़ों अभिभावकों की भीड़ लग गई थी।

यानी, उन्होंने एक ऐसा गुणवत्तापूर्ण स्कूल स्थापित किया था जिसमें उनका बेटा भी पढ़ सके।

   इतनी अधिक पढ़ाई लिखाई करने के साथ -साथ वह छात्र राजनीति में भी रूचि लेते थे।

वह  नागपुर छात्र संघ के अध्यक्ष भी  थे।

 इसके अलावा भी उनके पास डिग्रियां और उपलब्धियां थीं। 

सन् 1983 में दुनिया के दस सर्वाधिक प्रमुख युवा व्यक्तियों की सूची में 

 शामिल होने का सम्मान उन्हें मिला था।

  वह सन 1992 में राज्य सभा के सदस्य चुने गए।

पी.वी.नरसिंह राव उन्हें पसंद करते थे।

राव ने डा. जिचकर को इंदिरा गांधी से मिलवाया था।

डा.जिचकर ने  अधिकतर देशों की यात्राएं की थीं।

उनके निजी पुस्तकालय में 52 हजार पुस्तकें थीं।

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वे छायांकन, चित्र कला, रंगकर्म के भी जानकार थे।

 उन्हें संपूर्ण गीता कंठस्थ थी। 

साथ ही उन्होंने वेदों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया था।

    खेतिहर परिवार के जिचकर के साथ एक सुविधा अवश्य थी कि पैसे की कमी के कारण उनका कोई काम नहीं रुका।

 एक व्यक्ति सिर्फ 50 साल की उम्र में ही यह सब प्राप्त कर ले, यह अकल्पनीय लगता है।

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    उनमें  और भी अनेक गुण थेे।

पर सबसे बड़ी बात यह थी कि वे राजनीति में भी थे।

 यानी ऐसे लोग राजनीति में आ सकते हैं ,यदि उनके लिए सम्मानपूर्ण जगह बनाई जाए।

 हालांकि आज जितने लोग राजनीति मंे हैं, उनमें से भी अनेक लोग योग्य और कत्र्तव्यनिष्ठ हैं।अभी भाजपा के राज्य सभा सदस्य डा.सुधांशु त्रिवेदी श्रेष्ठ हैं।

 पर, वैसे लोगों की संख्या घटती जा रही है।

यह लोकतंत्र के लिए चिंताजनक बात है।

   डा. जिचकर जैसी विभूतियों को समय -समय पर याद करके नई पीढ़ी को प्रेरित किया जा सकता है।

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5 जनवरी 23


 भूली-बिसरी यादें

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बिहार की चुनावी राजनीति मंे 

‘‘जोड़न’’ का महत्व

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जोड़न से ही तो दही जमता है

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सुरेंद्र किशोर

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जो इतिहास से नहीं सीखता,वह 

इतिहास दुहराने को अभिशप्त होता है।

‘भारत उदय’ के फील गुड में प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने

2004 में लोजपा और द्रमुक को अपने पास से भगा दिया था।

नतीजतन, केंद्र की सत्ता एक ऐसी सरकार के हाथों मेें चली गयी जिसने 

दस साल तक घोटालों -महा घोटालों की झरी लगा दी।

जेहादी-आतंकियों का भी मनोबल सातवें आसमान पर था।

(सीमावर्ती राज्य होने के कारण बिहार के बारे में भी कोई राजनीतिक या चुनावी फैसला फिलहाल आज की विशेष स्थिति में सोच-समझकर लेने की जरूरत है।) 

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तमिलनाडु

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सन 1999 लोस चनाव

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भाजपा और द्रमुक मिलकर चुनाव लड़े

राजग को कुल 39 में से 26 सीटें मिलीं।

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2004 लोस चुनाव

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भाजपा और अद्रमुक मिलकर लड़े।

राजग को कोई सीट नहीं मिली।

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भाजपा ने द्रमुक को क्यों छोड़ा ?

इसलिए कि जे.जयलालिता के नेतृत्व वाली 

अद्रमुक की राज्य सरकार ने सन 2002 में धर्मांतरण विरोधी कानून पास करा दिया।

(हालांकि बाद में उसे वापस भी कर लेना पड़ा था)

अतः भाजपा उस पर मोहित हो गयी।उसे साथी बना लिया।

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बिहार

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सन 1999 लोस चुनाव

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रामविलास पासवान तब राजग में थे।

राजग को बिहार में कुल 54 में से 41 सीटें मिलंीं। 

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रामविलास पासवान अटल सरकार में रेल मंत्री बने।

बाद में वाजपेयी ने पासवान को नाराज कर दिया।

वे राजग से अलग हो गये।

नतीजतन 2004 के लोक सभा चुनाव में राजग को बिहार में 40 में से सिर्फ 11 सीटें ही मिलीं।

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कारण--अटल बिहारी वाजपेयी ने पासवान से पहले रेल मंत्रालय ले लिया और संचार दे दिया।

फिर उनसे संचार लेकर प्रमोद महाजन को दे दिया।

पासवान ने नाराज होकर वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।

हालांकि पासवान ने अनुकूल राजनीतिक अवसर देख कर ही अपने इस्तीफे की तारीख तय की थी।

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पासवान को बिहार की राजनीति का ‘जोड़न’ कहा जाता था।

जोड़न के बिना दही नहीं जमता।

यह बिहार की राजनीति की विशेषता है।

सामाजिक समीकरण का ध्यान रखने की मजबूरी है।

अभी ‘जोड़न’ की भूमिका में कौन है ?

एक से अधिक हैं।

उम्मीद है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार के बाहर के किसी

जानकार व्यक्ति ने, जिसे बिहार की राजनीति की गहरी जानकारी हो,मौजूदा ‘जोड़न’के बारे में बता दिया होगा।

बिहार के किसी नेता से पूछिएगा तो वह अपनी सुविधानुसार कुछ भी बता दे सकता है।

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निष्कर्ष--

सन 2004 में यदि द्रमुक और लोजपा को अटल जी अपने साथ बनाए रखते तो कैसा रिजल्ट आता ?

आंकड़े खुद ही देख लीजिए।

याद रहे कि 2004 में भाजपा को लोक सभा की कुल 138 और कांग्रेेस को कुल 145 सीटें मिली थीं।

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लोजपा को भला कैसे साथ रखते ?

तब यह चर्चा थी कि अटल जी, प्रमोद महाजन को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे।

उधर प्रमोद महाजन संचार मंत्रालय ही चाहते थे।

उधर धर्मांतरण विरोधी कानून का तमिलनाडु के जन मानस पर कितना असर पड़ेगा,इसका पूर्वानुमान अटल जी नहीं कर सके।

फील गुड हावी जो था !!

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28 दिसंबर 23

   

  


 अयोध्या से बिहार का अटूट संबंध

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तीनों प्रमुख चरणों में बिहार का योगदान

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सुरेंद्र किशोर

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1.-बिहार के मूल निवासी अभिराम दास ने सन 1949 में बाबरी ढांचे में रामलला की मूत्र्ति रखी थी।

उनके शिष्यों ने इस मामले में अभिराम दास की मदद की।

वे बिहार के मधुबनी जिले के मूल निवासी थे।

मधुबनी मिथिला में है।

मिथिला श्रीराम की ससुराल है।

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2.-नब्बे के दशक में बिहार के ही समस्तीपुर जिले के कामेश्वर चैपाल ने राम मंदिर के शिलान्यास की पहली ईंट रखी थी।

चैपाल अयोध्या ट्रस्ट के सदस्य हैं और अनुसूचित जाति से आते हैं।(उनकी जाति मैं जान बूझ कर लिख रहा हूं ताकि लोग जानें की यह सब ‘‘मनुवादी अभियान’’ नहीं है।)

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3.- विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष डा.आर.एन.सिंह 22 जनवरी को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के लिए पत्नी के साथ यजमान बनाए जाएंगे।

पद्मश्री से सम्मानित डा.सिंह बिहार में हड्डी रोग के सबसे बड़े चिकित्सक हैं।

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5 जनवरी 24  


 लोकबंधु राजनारायण की पुण्य तिथि पर

(23 नवंबर 1917--31 दिसंबर 1986)

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राजनारायण की जिद्द ने देश की राजनीति 

में बदलाव की प्रक्रिया में तेजी ला दी थी 

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1971 की बात है।

समाजवादी नेता राजनारायण, रायबरेली 

में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से लोस चुनाव हार गये थे।

वे चुनाव याचिका दायर करने की तैयारी कर 

रहे थे।

उस सवाल पर उनकी पार्टी में मतभेद था।

मधु लिमये ने कहा कि 

‘‘हम चुनाव में विश्वास करते हैं,

चुनाव याचिका में नहीं।’’

याद रहे कि डा.लोहिया सन 1962 में जब फूलपुर में प्रधान मंत्री 

जवाहरलाल नेहरू से लोस चुनाव हारे तो उन्होंने कोई याचिका 

दायर नहीं की।

संभवतः मधु लिमये के सामने लोहिया वाला उदाहरण था।

पर,राजनारायण नहीं माने।

जिद्द की।

याचिका दायर हो गयी।

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राजनारायण की याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के

न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को 

 इंदिरा गांधी को जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 के तहत दोषी माना।

1.-प्रधान मंत्री की चुनाव सभा के लिए मंच बनाने और बिजली की 

व्यवस्था करने का काम सरकार ने किया था।

यह कानूनन गलत था।

2.-यशपाल कपूर प्रधान मंत्री के ओ.एस.डी.थे।

उस सरकारी पद पर रहते हुए वे इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट बन गए थे।

यह भी कानूनन गलत था।

इन दोनों बिन्दुओं पर कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव कानून के उलंघन का दोषी माना था।

इंदिरा जी का लोस चुनाव रद कर दिया गया। (उस निर्णय पर मशहूर वकील ननी पालकीवाला ने कहा था कि यह मामूली ट्रैफिक नियमों को भंग करने जैसा अपराध है।)

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एकाधिकारवादी प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने देखा कि चुनाव कानून में संशोधन के बिना सुप्रीम कोर्ट में भी उनकी जीत संभव नहीं।

कानून में बदलाव इमरजेंसी लगाकर किया जा सकता है।

साथ ही, सारे प्रतिपक्षी नेताओं को जेलों में बंद करना पड़ेगा।

वही सब हुआ भी।

इंदिरा जी फायदे के लिए कानून बदल गया।

उसे पिछली तारीख से लागू करके इंदिरा गांधी मुकदमा सुप्रीम कोर्ट से 

जीत गयीं।

सबसे बड़ी अदालत पर भी आपातकाल का इतना आतंक था कि सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं पूछा कि पिछली तारीख से लागू क्यों हो ?

यहां तक कि एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा सरकार के कहने पर आम लोगों के जीने तक का अधिकार स्थगित कर दिया था।

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आपातकाल (1975--77)में पूरे देश को जेल में तब्दील कर दिया गया था।

लोगों में भारी गुस्सा था।

1977 में लोस चुनाव हुआ तो इंदिरा गांधी की पार्टी केंद्र की सत्ता से बाहर हो गयी।इंदिरा -संजय दोनों लोक सभा चुनाव हार गये।राजनारायण ने इंदिरा गांधी को हराया।राजनारायण मोरारजी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बने।

रवींद्र प्रताप सिंह ने संजय गांधी को अमेठी में हराया।

उन दिनों दैनिक ‘आज’ के पहले पेज पर फोल्ड से ऊपर पूरे साइज में छपा कांजीलाल का एक कार्टून बहुत चर्चित हुआ था।

कार्टून में यह दिखाया गया था कि एक किसान अपने खेत से गाय और बछड़े को लाठी से भगा रहा है।

कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय-बछड़ा था।

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उससे पहले जयप्रकाश नारायण जैसे साख वाले बड़े नेता के नेतृत्व में जारी आंदोलन के कारण देश में इंदिरा 

 शासन के प्रति असंतोष की आग लगी हुई थी।

इमरजेंसी के सरकारी जुल्म ओ सितम ने आग में घी का काम

किया।

इंदिरा जी का चुनाव रद नहीं होता तो इमरजेंसी भी नहीं लगती।

नतीजतन 1977 में देश की राजनीति बदल गयी।

पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार देश में बन गयी।

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31 दिसंबर 23

 


 


 खेतों के भी नाम होते हैं।

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सुरेंद्र किशोर

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खेतों के भी नाम होते हैं।

मेरे खेतों के भी अलग अलग नाम हैं।

मेरे जन्म के समय हमारे परिवार के पास जितनी 

जमीन थी,अब उसकी आधी भी नहीं रह गयी है।

फिर भी जो बची है,उनके नाम

1.-दालान पर

2.-तरी का खेत

3.-बड़का खेत

4.-गाछी 

5.-डीह 

5.-बड़ (पेड़ )वाली जमीन

6.-बांसवाड़ी आदि आदि 

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जो जमीन बिक गई,उनमें से दो जमीनों की चर्चा करूंगा।

एक का नाम था-लिलही खेत 

उसमें अंग्रेजों के जमाने में नील की खेती होती थी।

नीलही खेत से लिलही हो गया।

अंग्रेज किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे।

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दूसरी जमीन जो सबसे बड़ी थी--

यानी पांच बिगहा का एक ही प्लाॅट, 

बचपन में मैं उस खेत में जाता था।

एक साथ कई हल चलते थे।

कुछ दशक पहले वह खेत पास के गांव खजौता के

 एक व्यक्ति को बेचा गया।

खजौता के हमारे एक मित्र ने,जो पटना में ही रहते हैं, हाल में मुझे बताया कि उस खेत का अब नाम है--शिनन सिंह वाला खेतवा।

नये मालिक उसी नाम से उस खेत को इंगित करते हैं।

याद रहे कि मेरे पिता का नाम शिवनंन्दन सिंह (दिवंगत)है।

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4 जनवरी 24


 चर्चित पत्रकार मनीष कश्यप में साहस भी और कौशल भी।

पर,मेरे आकलन के अनुसार उनमें धीरज की कमी लगती है।

यदि वे धैर्य और संयम के साथ काम करें तो उनके लिए 

संभावनाएं अपार हैं।


गुरुवार, 4 जनवरी 2024

 पार्ट--1

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उसने कहा था

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सुरेंद्र किशोर

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बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर 9 नवंबर,

2019 को सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद

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             1

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‘‘मुझे लोगों के एक समूह ने खूब भला-बुरा कहा।

यह निर्णय ठीक उसी तरह का है, जैसा हम सभी चाहते थे।’’

   ---के.के.मुहम्मद ,

पूर्व क्षेत्रीय निदेशक ,

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण

10 नवंबर 2019

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       2 

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‘‘कोर्ट के फैसले का सम्मान होना चाहिए।’’

       --राहुल गांधी 

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           3

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 ‘‘अतीत की बातों को भुलाकर सभी को भव्य राम ंमंदिर 

का निर्माण करना है।’’

 -----आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत

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         4

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‘‘मेरे रुख की पुष्टि हुई है।मैं खुद को धन्य मानता हूं।’’

    ---एल.के. आडवाणी 

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        5

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‘‘आज के दिन का संदेश जुड़ने का,

जोड़ने का और मिलकर जीने का है।

नये भारत में भय,कटुता और नकारात्मकता का कोई स्थान नहीं है।’’

    --  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी

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        6

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‘‘सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सबको स्वीकार करना चाहिए।’’

    ----  मुख्य मंत्री नीतीश कुमार

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        7

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‘‘आपसी सद्भाव बनाए रखें’’ं

--आशुतोष चतुर्वेदी

प्रधान संपादक

प्रभात खबर

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      8

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‘‘बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों को भी सजा मिले,तब होगा

सही फैसला।’’

  ---दीपंकर भट्टाचार्य,

राष्ट्रीय महा सचिव

माले

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     9

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‘‘फैसला मन मुताबिक नहीं,पर निर्णय मानते हैं।’’

   ----मौलाना अरशद मदनी

  प्रमुख,जमीयत उलेमा ए हिन्द

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     10

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‘‘अब अयोध्या मामले को आगे नहीं बढ़ाया

जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर 

करने की जरूरत नहीं।’’ 

-----दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के शाही इमाम

सैयद अहमद बुखारी

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     11

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‘‘तथ्यों पर आस्था की जीत।’’

 --असदुद्दीन ओवैसी

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(जारी )

   

 


बुधवार, 3 जनवरी 2024

     जेल जाने से नेता का 

    जन समर्थन घटता है ?

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   जस करनी तस भोगहूं ताता,

   नरक जात में क्यों पछताता ?

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         सुरेंद्र किशोर 

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अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन भ्रष्टाचार के आरोप में यदि जेल जाएंगे तो क्या उनके दल के वोट घटेंगे ?

   पिछले कुछ दशकों के उदाहरण कुछ संकेत दे देते हैं।

यदि आरोप ऐसे हों,जिनके तहत कठोर सजा का प्रावधान है,तब तो वोट घटेंगे।

(कोर्ट से कुछ भ्रष्टाचार छिपा भी सकते हो,पर जनता से नहीं।

यह जनता है,सब जानती है।)

यदि आरोप हल्का हो तो वोट बढ़ सकते हैं।आरोप कठोर सजा के काबिल हो तो घटेंगे।

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एक उदाहरण 1977 का है।

 इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार के आरोप थे।

गिरफ्तार किया गया।पर,आरोप हल्के थे।

नतीजतन उनके वोट बढ़े।

दूसरा मामला 1997 का है।

एक दल के शीर्ष नेता की गिरफ्तारी हुई।

आरोप गंभीर थे।

बाद में सजा भी हुई।

उस शीर्ष नेता के दल को उसके बाद कभी बहुमत नंहीं मिला।

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किसी नेता को सजा तो बहुत बाद में मिलती है।

क्योंकि हमारे देश की न्यायिक प्रक्रिया बहुत धीमी है।

(नये कानून प्रक्रिया को काफी तेज करेंगे।वे कानून इस साल के अंत तक लागू हो जाएंगे।)

पर मुकदमे की सुनवाई के शुरूआती दौर में ही आम लोगों को यह पता चल जाता है कि आरोप मंे कितना दम है।

जनता का न्याय, अदालती न्याय से अधिक सटीक होता है।

राजीव गांधी भले कोर्ट से बच गये,पर लोगों ने उन्हें बाफोर्स तथा अन्य में दोषी माना।उसके बाद कांग्रेस को कभी लोस में पूर्ण बहुमत नहीं मिला।(एक प्रतिपक्षी केंद्र सरकार ने भी उन्हें 2004 में बचाया।)

जनता की ‘गिरफ्त’ से वही नेता व दल एक हद तक बच पाता है जिसके पास अपने जातीय व धार्मिक वोट बैंक होता है।

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यदि मतदान सबके लिए अनिवार्य कर दिया जाए तो कोई वोट बैंक किसी के काम नहीं आएगा। 

 अपवादों को छोड़ दें तो कोई भी वोट बैंक सामान्यतः 10 से 15 प्रतिशत का ही होता है।

100 प्रतिशत या 90 प्रतिशत वोट पड़ने लगे तो 10-15 प्रतिशत यहां तक कि 20 प्रतिशत वोट बैंक भी 100 प्रतिशत में बिला जाएगा।

यदि नरेंद्र मोदी 2024 में पुनः सत्ता में आ जाएं तो वे मतदान अनिवार्य करें।हां, उम्रदराज लोगों को घर से वोट करने की सुविधा दो।

फिर भी कोई वोट न करे तो उसे मिलने वाली सरकारी सुविधाएं तत्काल बंद करो।

 दो बार लगातार वोट न दे तो उसके नाम मतदाता सूची से बाहर कर दो।

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पुनश्चः

सिर्फ दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखंड के मुख्य मंत्री हेमंत सोरेन ही नहीं,

करीब एक दर्जन शीर्ष नेता जल्दी ही जेल जाएंगे,ऐसी खबर मिल रही है।

 यदि मोदी 2024 में फिर सत्ता में आ गये तो तब तो उनके लिए जेल से निकलने का चांस काफी कम हो जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट भी कहने लगा है कि ‘‘भ्रष्ट लोग देश को तबाह कर रहे हैं।’’

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3 जनवरी 24