गुरुवार, 26 मई 2016

अच्छा हुआ जो राजनीति में नहीं रहा

मैंने पटना के विधायक आवास के कमरे में प्रवेश किया ही था कि एक समाजवादी ‘नेता जी’ ने सामने से मेरी गर्दन को मजबूती से पकड़ा और धकेलते हुए झटके में बाहर कर दिया।

 वह ‘गर्दनिया पासपोर्ट’ ही मुख्य कारण बना सक्रिय राजनीति से मेरे ‘निष्कासन’ का। इस घटना को अपने लिए मैं वरदान मानता हूं। पर,यह घटना राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पीड़ा भी बयान करती है। इस पर अलग से देश के राजनीतिक नेताओं को विचार करना चाहिए।

 राजनीति से निकल जाने का फैसला तो खैर मेरा अपना था। पर उस नेता जी का ऐसा कोई उद्देश्य शायद नहीं रहा होगा। अधिकतर नेताओं की तरह वे भी बस यही चाहते थे कि मेरे जैसे छोटे राजनीतिक कार्यकर्ता इसी तरह का सलूक झेलते रहें। फिर भी कार्यकर्ता की तरह खटते रहें।

 संभवतः यह 1970 की बात रही होगी।

 उससे पहले मैं डा. राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित होकर 1966 में राजनीति में आया था। बिहार में कांग्रेस सरकार के खिलाफ एक बड़े छात्र आंदोलन में शामिल रहने के कारण मेरी बी.एससी. की परीक्षा भी छूट गयी।

बाद में यानी 1971 में मैंने बी.ए. पास किया।

लोहिया के मुख्य विचार थे कि सवर्ण लोग खासकर समाजवादी पार्टी के सवर्ण लोग पिछड़ों को हर क्षेत्र में आगे बढ़ाने के क्रम में खुद को खाद बनाएं। लोहिया  पिछड़ों के लिए साठ प्रतिशत की हिस्सेदारी देने के पक्षधर थे। सवर्ण पृष्ठभूमि से आने के कारण लोहियावादी राजनीति में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति की वैसे भी मेरे लिए बहुत कम ही गंुजाइश थी। इसके बावजूद लोहियावादी राजनीति से जुड़ा क्योंकि मेरी कोई व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी ही नहीं।

 सन 1963 में मैंने साइंस से मैट्रिक प्रथम श्रेणी में पास किया था। तब सिर्फ माक्र्स के आधार पर ही तीसरी श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल जाती थी। मेरे जैसे एक किसान के बेटे के लिए यह स्वाभाविक ही था कि उसके पिता यह चाहें कि वह जल्द से जल्द कोई पक्की यानी सरकारी नौकरी पकड़ ले।

पर मैंने तय किया था कि न तो मैं शादी करूंगा और न ही नौकरी। मुझसे उम्मीद पाले बाबू जी को भी मैंने कह दिया था कि मुझे पुश्तैनी संपत्ति में कोई हिस्सेदारी नहीं चाहिए।

राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में अब काम करूंगा। मैं परिवार को कोई आर्थिक मदद नहीं कर पाऊंगा। तब एक भोली आशा थी कि डा. लोहिया के नेतृत्व में देश में एक न एक दिन समाजवाद आएगा। एक बेहतर समाज बनेगा। उस काम में मेरा भी थोड़ा योगदान होना चाहिए।

 विधायक बनने, पैसे कमाने या फिर अखबारों में नाम छपवाने की कोई चाहत तो कत्तई नंहीं थी। अपनी पढ़ाई के बारे में भी एक कारणवश बताया। मैं उन लोगों में भी नहीं था जिन्हें कहीं कोई नौकरी नहीं मिलती थी तो राजनीतिक कार्यकत्र्ता बन जाते थे।

 तब मैं छात्र होने के कारण बिहार के विश्वविद्यालय परिसरों में जाकर  लोहियावादी समाजवादी विचारधारा का प्रचार करता था और समाजवादी संगठन में छात्रों को शामिल करता था। शामिल होने वालों में से एक तो बाद में राजनीति में काफी ऊपर उठे।

  उन दिनों ‘दिनमान’ एक अत्यंत प्रतिष्ठित पत्रिका थी। समाजवादियों की चहेती पत्रिका। उसमें संपादक के नाम पत्र छप जाने पर भी कोई राजनीतिक कार्यकत्र्ता देश भर के समाजवादियों के बीच जाना जाने लगता था। तब मैं सुरेंद्र अकेला के नाम से पत्र लिखता था। दिनमान में 1968 में मेरा इसी नाम से पहला पत्र छपा था। मैं डा. लोहिया और दिनमान के संपादक अज्ञेय को व्यक्तिगत चिट्ठियां भी लिखता था। उन लोगों ने जवाब भी दिए थे। छात्र जीवन में ही समाजवादी पत्रिकाओं में भी मैं पत्र और लेख लिखा करता था।

 यह सब मैं इसलिए बता रहा हूं क्योंकि एक समझदार कार्यकत्र्ता बनने की पृष्ठभूमि मुझमें मौजूद थे।

  उस नेता जी के साथ भी यदाकदा बैठकर मैं राजनीतिक चर्चा किया करता था। इसके बावजूद उन्होंने मेरे साथ यह सलूक किया। पटना के विधायक आवास में वे मुझे पीछे से नहीं बल्कि सामने से गर्दन पकड़ कर ढकेल रहे थे। मेरे गिर जाने का भी पूरा खतरा था। गिरने पर सिर के पिछले हिस्से में गंभीर चोट लगने का खतरा था। पिछले हिस्से की चोट कभी-कभी मारक भी होती है।

 पर उनके गुस्से का एक ठोस कारण था। उनके कमरे में मेरे प्रवेश से उस समाजवादी विधायक की नींद में खलल पड़ सकती थी जिसके साथ नेताजी रहते थे। नेता जी उस विधायक के स्थायी अतिथि थे। नेता जी राज्य स्तर के बड़े समाजवादी नेता थे। 

नेता जी ने एक बार भोजन के लिए मुझे दो रुपए दिए थे। तब पटना की विधायक काॅलानी में दस आने में भर पेट भोजन मिल जाता था। शायद नेता जी को यह लगा होगा कि मैं एक बार फिर रुपए के लिए तो नहीं आ गया! हालांकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था।

वैसे मुझे याद नहीं है कि पिछली बार उन्होंने जो दो रुपए दिए थे, वे मेरे मांगने के बाद या खुद उन्होंने अपनी पहल पर दी थी। राजनीतिक चंदा देने वाले धनपतियों से वे संबंध रखते थे। यह और बात है कि उन दिनों समाजवादी नेताओं को बहुत कम पैसे चंदा के रूप में मिलते थे।  

 कुल मिलाकर इस प्रकरण से मुझे यह लग गया कि एक ऐसे कार्यकर्ता की समाजवादी दल मेंें क्या स्थिति है जिसके पास खुद के पैसे नहीं हैं। दूसरी बात यह कि जो नेता दो रुपए देगा, वह किस तरह एक कार्यकर्ता के साथ बर्ताव करेगा।

 मेरे मीठे स्वाभाव के कारण उस नेता जी को यह मालूम होना चाहिए था कि   यदि उस दिन उन्होंने अपने हाथ से धीरे से इशारा भी कर दिया होता तो मैं उस कमरे में दरवाजे से ही लौट जाता। पर वे समझते थे कि उन्हें किसी कार्यकर्ता की  गर्दन में हाथ लगा देने का भी पूरा अधिकार है।

 उसी दिन मैंने फैसला किया कि अब मैं आर्थिक रूप में स्वावलंबी बनने की कोशिश करूंगा और शादी करके घर भी बसाऊंगा। वैसे भी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता डा. लोहिया का इस बीच निधन हो चुका था। लोहिया  कार्यकर्ताओं की उम्मीद की किरण थे।

  अंततः मैंने पत्रकारिता को जीविका का साधन बनाने का फैसला किया। हालांकि इस बीच कुछ अन्य घटनाएं भी हुई जिसकी चर्चा फिर कभी। पहले छोटे अखबार और बाद में बड़े अखबारों में रहा।

अब जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मैं उस नेता जी को धन्यवाद ही देता हूं जिन्होंने समय रहते मेरी आंखें खोल दीं थी। एक बेहतर समाज बनाने की कोशिश की दिशा में एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जितना प्रयास मैं कर सकता था, उससे बेहतर प्रयास एक पत्रकार के रूप में करने की मैंने कोशिश की। इसका मुझे संतोष है।

 कई बार विफल प्रेमी, कवि बन जाता है। विफल साहित्यकार आलोचक। और, विफल राजनीतिक कार्यकर्ता पत्रकार बन जाता है।

 मैं तीसरी श्रेणी में खुद को पा कर खुश हूं।

 पत्रकारिता जीविका के साथ-साथ एक सामाजिक काम भी है। सत्तर के दशक में मैं साप्ताहिक लोकमुख, और ‘जनता’ (पटना) तथा प्रतिपक्ष (नई दिल्ली) के लिए काम करता रहा। साथ ही बड़े अखबारों में नौकरी खोजता रहा। पर, कई कारणों से यह खोज लंबी चली।

 यह खोज 1977 में ही पूरी हो सकी जब दैनिक ‘आज’ में मेरी पक्की नौकरी हुई।  हालांकि सक्रिय राजनीति से मन उचट जाने का वही एक कारण नहीं था जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है। उससे पहले की दो अन्य घटनाएं भी मन पर छाई हुई थीं।

इस बार एक अन्य समाजवादी नेता के बारे मंे। उनके पटना स्थित आवास में मैं अक्सर जाया करता था। लंबी चर्चाएं होती थीं।

  एक दिन गपशप में देर शाम हो गयी। नेता जी ने अपने पुत्र से कहा कि ‘सुरेन्दर भी खाना खाएगा। मछली बनी है। इस गरीब को मछली और कहां मिलेगी?’

 एक राजनीतिक कार्यकर्ता सह बुद्धिजीवी के साथ ऐसा सलूक मुझे बहुत बुरा लगा। दरअसल नेता जी यह बात नहीं जानते थे कि मेरे जन्म के समय मेरे पिता जी 22 बीघा जमीन के मालिक थे। दो बैल, दो गाय और एक भैंस। लघुत्तम जमींदार थे और एक बड़े जमींदार के तहसीलदार थे। यदि नहीं जानते थे तौभी किसी गरीब कार्यकर्ता की गरीबी का ऐसा उपहास!

मेरे घर में दो नौकर थे। जमींदारी पृष्ठभूमि के कारण पास की नदी में मछली मारने वाले मुफ्त में मछली पहुंचाते थे। मेरे परिवार में मांस-मछली से लगभग परहेज था। इसलिए हमलोग अन्य लोगों में मछली बांट देते थे या नौकर -मजदूर खाते थे।

 दूसरी ओर इस नेता जी का जब जन्म हुआ था, तब उनका परिवार लगभग भूमिहीन था। समय बीतने के साथ नेता जी अमीर होते चले गये और मेरे परिवार की जमीन में से इस बीच 12 बीघा बिक गयी।

यहां दरअसल मैं राजनीतिक दलों खास कर मध्यमार्गी दलों के कार्यकर्ताओं की बेबसी का विवरण पेश करने के लिए अपनी यह कहानी लिख रहा हूं। ऐसा सिर्फ मेरे ही साथ थोड़े ही हुआ होगा! 

वाम दलों में पूर्णकालिक कार्यकर्ता के जीवन यापन का दल की ओर से प्रबंध रहता था। आजादी की लड़ाई के दिनों और उसके कुछ साल बाद तक जयप्रकाश नारायण अपने दल के कुछ चुने हुए अच्छे कार्यकर्ताओं के लिए तीस रुपए माहवार का इंतजाम करते थे।

ऐसे कार्यकर्ताओं में से कुछ लोग बाद में केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्य में मंत्री भी बने।

  अपवादों को छोड़ दें तो अब अधिकतर राजनीतिक कार्यकर्तागण सांसद -विधायक फंड के ठेकेदार हैं। या घर के जायज -नाजायज पैसे खर्च कर विधायक सांसद मंत्री बनने के लिए कार्यकर्ता बन रहे हैं।

 देश सेवा और समाज सेवा का कहीं कोई जुनून है भी तो वह अपवाद है। अपवाद से देश नहीं चलता। इसलिए देश जैसे चल रहा है,उसका तो भगवान ही मालिक है।

 गायत्री परिवार के मुखिया डा. प्रणव पण्डया ने राज्यसभा की सदस्यता ठुकराते समय जो कुछ कहा, क्या उससे भी इस देश की राजनीति कुछ सीखेगी ? एक गरिमापूर्ण सदन को नेताओं ने ऐसा बना रखा है कि प्रणव पण्डया को यह कहना पड़ता है कि मैं तो वहां अपनी बात रख ही नहीं पाऊंगा। 

 अपनी तीसरी कहानी सुनाकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पीड़ा की बात खत्म करूंगा।

 बिहार के सारण जिले के एक सुदूर देहात के डाकबंगला में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की बैठक हो रही थी। पार्टी का सम्मेलन चाहे अंचल मुख्यालय में हो या देश के किसी अन्य हिस्से में, मैं वहां जरूर जाता था। समाजवादी पत्रिकाओं के जरिए देश भर के हिंदीभाषी समाजवादी मुझे जानते ही थे। उनसे मिलकर अच्छा लगता  था।
अब बात सारण के उस डाकबंगले की।

एक समाजवादी नेता पहली बार विधायक बने थे। उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उनके बोल चाल और हाव भाव से यह साफ लग रहा था कि वे रातोंरात समाजवादी से सामंतवादी बन चुके हैं।

 जब विधायक जी उस डाकबंगले के शौचालय से निकल रहे थे तो मैं संयोग से उनके सामने पड़ गया। उनसे मेरी कोई खास निकटता भी नहीं थी। क्योंकि सोचने समझने और पढ़ने लिखने से उनका नाता कम ही था। उन्होंने बिना किसी संकोच के कहा, ‘अकेला, जरा पखाना में एक बाल्टी पानी डाल देना।’

 मैंने पानी जरूर डाल दिया, पर सोचा कि विधायक जी कोई कट्टर गांधीवादी तो हैं नहीं जो शौचालय खुद ही साफ करते हैं। दरअसल ये सामंती हो चुके हैं। और उनकी नजर में एक पढ़ने लिखने वाले कार्यकर्ता का यही सही उपयोग है।

याद रहे कि जो व्यक्ति खुद शौचालय साफ नहीं करता, उसे दूसरे से कहने का अधिकार नहीं होना चाहिए। इन उदाहरणों से यह तो पता चल ही गया होगा कि  वास्तविक और समझदार राजनीतिक कार्यकर्ताओं को किस तरह दरकिनार और निरुत्साहित किया गया।

 नतीजतन अपवादों को छोड़ दें तो मध्यमार्गी राजनीतिक दलों में आज कैसे-कैसे कार्यकर्ता और नेता हैं! यदि उपर्युक्त व्यवहार झेलने के बावजूद यदि मैं राजनीतिक कार्यकर्ता बना रह गया होता तो आज मेरा हाल क्या होता ? !

 कल्पना करके ही डर जाता हूं। अच्छा हुआ कि गर्दनिया पासपोर्ट देकर अनजाने में ही एक नेताजी ने एक बेहतर काम मंे मुझे ढकेल दिया।

 मेरी रुझान और प्रवृत्ति देख कर किसी संपादक ने मुझ पर कभी किसी ऐसे काम के लिए दबाव नहीं बनाया जिसे मैं करना नहीं चाहता। यानी राजनीति की अपेक्षा पत्रकारिता ने मुझे अधिक संतुष्टि दी।

कुल मिलाकर यह बात कहनी चाहिए कि इस देश की राजनीति मौजूदा संसद को ऐसी गरिमायुक्त और शालीन बनाए जिसमें डा. पण्डया जैसे लोग अपनी बात रख सकें। साथ ही राजनीति को हर स्तर पर ऐसा बनाया जाए जिसमें एक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाविहीन कोई कार्यकर्ता रहकर सेवा का काम कर सके। क्या ऐसा कभी हो पाएगा ? 
(14 मई 2016  के हिंदी दैनिक ‘नया इंडिया’ में प्रकाशित)  

बुधवार, 25 मई 2016

उफ ! माफिया के शूटर से वह इंटरव्यू !

  बात 1984 की है। उन दिनों मैं जनसत्ता का बिहार संवाददाता था और पटना के लोहिया नगर में किराए के मकान में रहता था। 1983 में जनसत्ता ज्वाइन करने से पहले मैं दैनिक ‘आज’ के पटना संस्करण में मुख्य संवाददाता था। चर्चित बाॅबी हत्याकांड को उद्घाटित करने के कारण मेरी चर्चा पहले से थी। उधर जनसत्ता ने अपने प्रकाशन के साथ ही तहलका मचा रखा था जिसका मैं संवाददाता था।

  शायद इसी पृष्ठभूमि के चक्कर में एक दिन अचानक एक शार्प शूटर रघुनाथ सिंह मेरे घर आ धमका। उसके साथ मेरे एक पूर्व परिचित थे। रघुनाथ काफी लंबा-चैड़ा और हट्ठा-कट्ठा था। हुलिया देख कर मैं थोड़ा असहज हो गया। उसकी कमर में रिवाल्वर थी। बाद में पता चला कि वह साथ में हैंड ग्रेनेड लेकर भी चलता है।


  मेरे परिचित ने मुझे बताया कि ये मेरे रिश्तेदार हैं। बिहार के एक बड़े माफिया का नाम लेते हुए कहा कि ये उनके बाॅडीगार्ड और शूटर थे। पर अब उससे इनका झगड़ा हो गया है। दोनों एक दूसरे की जान के प्यासे हैं।


 रघुनाथ की शिकायत थी कि उस माफिया के लिए सारे मर्डर मैंने किये, पर मीडिया में नाम सिर्फ उसका होता है। वह तो भारी डरपोक आदमी है। एक चूहा भी नहीं मार सकता है। मेरा नाम भी होना चाहिए।


 यह सनसनीखेज बात सुनकर मैं रघुनाथ की ओर मुखातिब हुआ।


मैंने उससे पूछा कि आपने कितने मर्डर किये हैं ? इस पर उसने अपना रिवाल्वर निकाल कर टेबुल पर रख दिया। कहा कि यह हथियार मेरे लिए शुभ साबित हुआ है। इससे मैंने कई मर्डर किये हैं। हालांकि कुल तेरह लोगों को मारा है। उस माफिया का नाम लेते हुए कहा कि सब उसी के कहने पर।


फिर उसने विस्तार से बताया कि एक चर्चित मजदूर नेता को उसने कैसे मारा।


आप क्या चाहते हैं ? -मैंने पूछा।


उसने कहा कि मैं चाहता हूं कि फोटो सहित आप मेरा इंटरव्यू छापिए। मैंने कहा कि आपको इंटरव्यू में यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आपने कितने और कैसे मर्डर किये हैं।


उसने कहा कि आप कहिए तो मैं हैंडनोट पर लिखकर दे दूंगा। पर मेरा नाम और फोटो जरूर छपना चाहिए। मैंने सुना है कि आपमें छापने की हिम्मत है।


 मैंने कहा कि छपने के बाद पुलिस आप पर केस कर देगी। वैसा कोई केस होने पर उसका सामना करने को वह तैयार लगा।


 मैंने कुछ सोचने के बाद कहा कि आप एक सप्ताह के बाद आइए। मैं विस्तार से आपसे बातचीत करूंगा। अभी मैं थोड़ा व्यस्त हूं।


 वह चला गया।


मैंने सोचा कि रघुनाथ शायद अपने लोगों से इस बीच राय करेगा। लोग यही राय देंगे कि सिर्फ नाम छपने के लिए स्वीकारोक्ति देकर मत फंसो। और वह मान जाएगा। मेरे पास नहीं आएगा। मैंने इस बात को लेकर भी द्विविधा में था कि ऐसे शूटर का इंटरव्यू छापना चाहिए या नहीं। पर इसमें सार्वजनिक हित का पहलू यह था कि इसका इंटरव्यू उस बड़े माफिया के खिलाफ जाने वाला था। उस बड़े माफिया के समर्थकों और संरक्षकों में बड़े-बड़े नेता शामिल थे।


 उन दिनों बिहार में गैंगवार और नरसंहारों का दौर था।


 मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ठीक एक सप्ताह के बाद वह मेरे यहां आ धमका।


उससे पहले मैंने उसके बारे में पुलिस सूत्रों से जानकारी ली थी। सुना था कि वह ‘शब्दबेधी वाण’ चलाता है। यानी आवाज की दिशा में गोली चला देता है और निशाने पर लगती है।


वह उत्तर प्रदेश के पी.ए.सी. का भगोड़ा सिपाही है।


 इस बात की भी पुष्टि हुई कि वह माफिया इसकी जान का प्यासा बना हुआ है जिसके यहां यह पहले काम करता था।


 एक बार फिर अपने आवास में देखकर मैं थोड़ा चिंतित हुआ। इस बार वह अकेला था। मैंने उससे कहा कि आपको मारने के लिए कोई खोज रहा है।


यदि उसके लोग यहां हमला कर दें तब तो हम सब मारे जाएंगे। मैं परिवार के साथ रहता हूं।


चेहरे पर निर्भीक भाव के साथ इस बार उसने रिवाल्वर के साथ-साथ हैंड ग्रेनेड भी निकाल कर टेबुल पर रखा।

कहा कि इसमें छह गोलियां हैं। मेरा निशाना खाली नहीं जाता है। उसके बाद यह ग्रेनेड एक भीड़ को रोक लेगा। उसके बाद तो जय भवानी।

  इसके बाद मैंने उससे बातचीत शुरू की। वह सनसनीखेज बातें बताता चला गया। मैं हाथ से  लिख रहा था। क्योंकि तब मेरे पास कोई टेप रिकाॅर्डर भी नहीं था। मुझे यदि इस बात का पक्का भरोसा होता कि यह दूसरी बार मेरे यहां आ ही जाएगा तो मैं किसी मित्र से टेप रिकाॅर्डर मांग कर रख लेता।


 लंबी बातचीत हुई। बातचीत बहुत ही सनसनीखेज थी। वह चला गया।


 इस बीच मैंने जो लिखा था, उसे फेयर किया। तीन काॅपी बनाई। एक काॅपी करीब तीस पेज में थी।


रघुनाथ ने मुझे साथ में छापने के लिए कुछ सनसनीखेज फोटोग्राफ भी दे दिए थे।


मैंने जनसत्ता, रविवार और माया के लिए काॅपियां बनायीं। मुझे आशंका थी कि यह इतना सनसनीखेज है कि जल्दी कोई इसे छापेगा नहीं। एक नहीं छापेगा तो दूसरे को भेजूंगा।


फेयर काॅपी बनाकर मैं रघुनाथ की प्रतीक्षा करने लगा ताकि उस पर रघुनाथ का दस्तखत ले सकूं।


 उधर वह इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि वह कब छपता है। वह मोबाइल फोन का जमाना था नहीं। मेरे उस परिचित से भी रघुनाथ ने संपर्क नहीं रखा था जो मेरे यहां पहली बार उसे लेकर आया था।


  करीब एक माह बाद रघुनाथ मेरे यहां तीसरी बार आया। इस बार वह थोड़ा गुस्से में था। कहा कि आपने मुझसे इतनी लंबी बातचीत की और कहीं छपा नहीं। ध्यान रहे कि वह बलिया की खास तरह की भोजपुरी में बोलता था। उसमें दबंगियत का लहजा होता है।


 मैंने कहा कि आप दस्तखत कर दीजिए मैं अखबारों को भेज दूंगा। उसने कहा कि लाइए जहां कहिए वहां दस्तखत कर देता हूं। उसने तीनों काॅपियों के करीब सौ पेज पर खुशी-खुशी दस्तखत कर दिये।


 मैंने पहले जनसत्ता और माया को भेजा। जनसत्ता में छपने की मुझे कत्तई उम्मीद नहीं थी। पर चूंकि मैं वहां नौकरी करता था, इसलिए वहां भेजना नैतिक रूप से जरूरी समझा।


पर मैं यह इच्छा रखता था कि वह जनसत्ता में नहीं छपे। दरअसल यह ‘माया’ के स्वभाव वाला आइटम था।

पर संयोग से दोनों जगह शेड्यूल हो गया। जनसत्ता के मैगजिन सेक्सन में बेहतर डिसप्ले के साथ छपा। साथ ही माया ने भी छाप दिया।

 इस पर माया के बाबूलाल शर्मा मुझसे थोड़ा नाराज हुए। उन्होंने मुझे नाराजगी का एक पत्र भी लिखा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जनसत्ता ने पहले ही वाहवाही लूट ली थी। शर्मा जी ने लिखा कि आपको एक ही जगह भेजना चाहिए था।


रघुनाथ के शहर में जनसत्ता ब्लैक में बिका। पचास रुपए में एक काॅपी।


 बाद में प्रभाष जोशी ने मुझे बताया था कि उस इंटरव्यू पर रामनाथ गोयनका भी प्रसन्न थे। गोयनका जी ने कहा था कि ‘पंडत, तुम्हारा पटना वाला आदमी तो बड़ा खरा है।’


इंटरव्यू छपने के बाद रघुनाथ बहुत चर्चित हो गया था। काफी खुश हुआ। मेरे आफिस में आया। पैर छूकर प्रणाम किया। फिर एक सनसनीखेज आॅफर दिया। ‘मैं आपको इसके बदले तो कुछ दे नहीं सकता। पर एक काम जरूर कर सकता हूं। आप जिसे कहिएगा, उस एक आदमी को मैं मार दूंगा।’


मैंने उसे समझाया। कहा कि आप हत्या करना छोड़कर उस माफिया की तरह अब आप भी चुनाव लडि़ए। इंटरव्यू छपने के बाद लोग आपको भी जान ही गए हैं। उसने फिर मेरा पैर छुआ और चला गया।


 पर एक साल के बाद वह फिर मेरे पास आया। तब तक वह एक अन्य माफिया के साथ हो लिया था। उस दूसरे माफिया ने भी 1985 में विधानसभा का चुनाव लड़ा। पर हार गया।


चुनाव के दौरान विजयी उम्मीदवार के लोगों ने माफिया के भाई को मार डाला। उस माफिया ने रघुनाथ से कहा कि विजयी उम्मीदवार को मार दो। उसी के संबंध में मुझसे बात करने रघुनाथ आया था।


बोला कि भइया, आपने तो अब मर्डर करने से मना किया है। पर ‘वह’ कह रहा है कि फलां को मार दो। मैं नहीं चाहता। क्योंकि उस बड़े माफिया का अनुभव खराब है। मैंने उसके कहने पर एक बड़ा मर्डर किया। पर, उसने मुझे सिर्फ ढाई सौ रुपया दिया और कहा कि भाग जाओ और कहीं छिप जाओ। मुझे छिपने के दिनों में बड़ा कष्ट हुआ।


इस मामले में मैं क्या करूं। आपको मैं गुरु मानता हूं।


मैंने उसे कहा कि अब एक बार फिर कहंूगा कि आप यह सब काम छोड़ दीजिए। यह कह कर वह चला गया कि ‘हां, ठीक कहत बार भइया।’ जाते समय उसने फिर मेरा पैर छुआ।


  खैर वाहवाही और अच्छी फिडबैक के साथ-साथ एक संकट भी आ गया। पुलिस ने शूटर रघुनाथ सिंह के उस इंटरव्यू को आधार बना कर एक चर्चित मर्डर केस में एडिशनल चार्जशीट लगा दिया और प्रभाष जोशी और मुझे गवाह बना दिया।


तब तक बिहार में लालू प्रसाद की सरकार बन गयी थी। यह पत्रकार को परेशानी में डालने वाला मामला बना। पटना के पत्रकारों ने इसे इसी रूप में लिया।


 पत्रकारों ने सवाल किया कि पत्रकार का काम रिपोर्ट करना है या कोर्ट जा -जाकर गवाही देना ? हिन्दुस्तान के संवाददाता श्रीकांत के नेतृत्व में पत्रकारों का एक दल लालू प्रसाद से मिला। लालू प्रसाद भी पत्रकारों की बातों से सहमत थे। उन्होंने कहा कि सुरेंद्र जी को बुला कर लाइए।


दूसरे दिन मैं उनके आॅफिस में गया। मुख्यमंत्री ने संबंधित जिले के एस.पी. को मेरे सामने फोन किया। कहा कि बड़े -बड़े पत्रकारों को मरवाओगे क्या ? गवाही देने जाएंगे, माफिया मार देगा। हमारी सरकार की बदनामी होगी। एस.पी. मुश्किल से माना। मैं नहीं जानता कि गवाही देने के मामले में प्रभाष जी की क्या राय थी, पर मैं तो जरूर थोड़ा डरा हुआ था।


पटना के पत्रकार मेरे साथ थे। इससे मुझे नैतिक बल मिला। हालांकि वैसे भी एक सवाल अब भी मेरे दिल को मथता है कि मुझे जान हथेली पर लेकर गवाही देनी चाहिए थी या नहीं! यह सवाल देश भर के पत्रकारों के लिए भी है।


  इस क्रम में एक और छोटी घटना हुई। रघुनाथ जिस नये माफिया के साथ था, उसने रघुनाथ से कहा कि तुम मुझे भी जनसत्ता वाले से मिलवा दो। मेरा भी इंटरव्यू छपना चाहिए।


 रघुनाथ उसे लेकर मेरे एक पत्रकार मित्र के घर पहुंचा। वहां मुझे बुलाया। पहले रघुनाथ ने मुझे अलग हटाकर कहा कि ‘ई हो सरवा चाह ता फोटो छपवाना। मत छपीह भइया।’


 मैं जब उस छोटे माफिया से मिला तो उसने कहा कि मेरा भी इंटरव्यू लीजिए जिस तरह रघुनाथ का लिये थे।

मैंने कहा कि उसने मुझे लिखकर दिया था कि उसने किस- किस को मारा। आप भी दीजिए। छप जाएगा।
वह थोड़ा होशियार निकला। कहा कि यह मैं नहीं कर सकता। फिर मैंने कहा कि तब कैसे छपेगा ? वह चला गया।


(हिंदी दैनिक ‘नया इंडिया’ के 30 अप्रैल 2016 के अंक में प्रकाशित)  


           





जंगल राज नहीं, उसकी आहट

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा और बिहार में अपनी जिम्मेदारी के बीच संतुलन बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं। नशाबंदी से मिली लोकप्रियता को राष्ट्रीय स्तर पर भंजाने की कोशिश में हैं। यह प्रयास स्वाभाविक ही है। सचमुच नशाबंदी में देर-सवेर देशव्यापी मुद्दा बन जाने की संभावना है।
पर, बिहार में इन दिनों घट रही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को लेकर राज्य में नीतीश कुमार की उपस्थिति की अधिक जरूरत महसूस की जा रही है। इन घटनाओं के कारण सुशासन और विकास के क्षेत्रों में उनकी पिछली उपलब्धियांें के मद्धिम पड़ने की आशंका है।

 नीतीश कुमार ने गत साल 20 नवंबर को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली। इस छह माह में राज्य में सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। प्रतिपक्ष और विघ्नसंतोषी इसे ‘जंगल राज’ करार दे रहे हैं। इनमें से कुछ लोग तो इसे महाजंगल राज की उपमा भी दे रहे हैं।

 पर जिन लोगों ने 1990-2005 का ‘जंगल राज’ देखा और भुगता है, वे इन उपमाओं से सहमत नहीं हैं। दरअसल आज के कई नेतागण इमरजेंसी और जंगल राज की उपमा देने में जरा जल्दीबाजी कर देते हैं।
 बिहार में इन दिनों जो कुछ हो रहा है, वह जंगल राज तो नहीं है, पर जंगल राज की आहट जरूर है।
नब्बे के दशक में जो कुछ हो रहा था, उसको लेकर पटना हाईकोर्ट ने कई बार कहा था कि ‘बिहार में जंगल राज है।’ अदालत ने तो एक बार यह भी कहा था कि ‘जंगल राज के भी कुछ नियम होते हैं, पर बिहार में वह भी नहीं है।’

 नीतीश कुमार के शासनकाल में अदालत ने संभवतः अब तक ऐसा कुछ नहीं कहा है।

 इसका कारण यह है कि अपवादों को छोड़ दें तो नीतीश ने अपने पूरे कार्यकाल में इस वायदे का पालन किया है कि ‘हमारी सरकार न तो किसी को बचाएगी और न ही फंसाएगी।’

 हाल की जघन्य घटनाओं को लेकर भी शासन कमोवेश यही कर रहा है।

 बिहार में सबसे बड़ा सकारात्मक फर्क यह आया है कि लालू प्रसाद ने कानून-व्यवस्था के मामले में अपना रुख बदल लिया है। नब्बे के दशक में लालू प्रसाद राजनीति में सक्रिय अपराधियों के बारे में भी कहा करते थे कि ‘जिसे जनता ने जिता दिया, वह अपराधी कैसा ?’ उनका दल अपराध की घटनाओं को सामाजिक उथल-पुथल से भी जोड़कर उसे उचित ठहराता था।

पर, अब कानून-व्यवस्था लागू करने में लालू प्रसाद, नीतीश कुमार को पूरा समर्थन देने की लगातार घोषणा कर रहे हैं। एक तो उन्होंने अपनी पिछली गलतियों से सीखा है।साथ ही  उन्होंने यह बात भी समझ ली है कि उनके पुत्रों का राजनीतिक कैरियर तभी निखरेगा जब वे नीतीश कुमार के सुशासन-विकास की लाइन पर काम करेंगे।

वैसे भी लालू प्रसाद की संतानों ने लालू की शैली नहीं सीखी है। खुद लालू समझ रहे हैं कि उनकी शैली में अब राजनीति हो भी नहीं सकती। राजनीति तो होगी, पर उस शैली के बल पर सत्ता नहीं मिल सकती।

राजद के नीतीश कुमार की सरकार में शामिल होने के तत्काल बाद ही सार्वजनिक रूप से लालू प्रसाद ने यह कह दिया था कि ‘राज्य में कानून -व्यवस्था लागू करने में राजद नीतीश कुमार को पूरा साथ देगा। कोई यह नहीं समझे कि वह किसी खास जाति का होने के कारण अपराध करके बच जाएगा।’

 उनका ऐसा रुख नब्बे के दशक में नहीं था। इसीलिए उसे जंगलराज कहा गया। पर एक चिंताजनक बात यह है कि लालू प्रसाद की अपील के बावजूद राजनीति के भीतर और बाहर के कुछ अपराधी उनकी बात नहीं सुन रहे हैं। लालू प्रसाद ने एक बार कहा था कि वे राज्य भर में घुम कर लोगों को समझाएंगे। पर अभी इसके लिए उन्हें समय नहीं मिला है। यह काम वे जितनी जल्दी कर लें, उतना ही अच्छा होगा।

क्योंकि कई बार सख्त-सटीक पुलिसिया कार्रवाइयों के बावजूद कुछ नेता-सह -अपराधी बार-बार जघन्य घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं।

 क्योंकि उनमें गवाहों को खरीदने, धमकाने और अभियोजन पक्ष को प्रभावित करने की अपार शक्ति है। इस समस्या से राज्य सरकार कैसे निपटेगी, सब काम छोड़कर इस मुद्दे पर नीतीश कुमार को विचार करने की अधिक जरूरत है।

 सुशासन व विकास के क्षेत्र में मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार की बिहार में जितनी बड़ी उपलब्धियां हंै, उसमें कोई भी नेता अपने लिए अपेक्षाकृत बड़ी राजनीतिक स्पेस चाहेगा। दशकों से विकसित गुजरात में कुछ बेहतर काम कर लेना किसी नेता के लिए आसान है। क्योंकि वहां कुल मिलाकर सिस्टम काम करता है। पर, बिहार जैसे बिगड़े शासन व उससे भी अधिक बिगड़ी राजनीति वाले बीहड़ प्रदेश को पटरी पर ला देना मुश्किल काम माना जाता था। वह मुश्किल काम भी नीतीश ने कर दिखाया।

पर गत छह महीने से जो कुछ हो रहा है, वह नीतीश के राजनीतिक भविष्य के लिए भी सुखदायी नहीं होगा। क्या प्रतिपक्षी दलों की यह भविष्यवाणी अंततः सही साबित होगी कि जिस सरकार में राजद रहेगा, वह सरकार न तो विकास कर सकती है और न ही सुशासन ? हालांकि इस बीच जदयू के कुछ नेताओं के भी घृणित कारनामे सामने आते रहते हैं। हां, उनके खिलाफ भी राजनीतिक और प्रशासनिक कार्रवाइयां करने में नीतीश ने देरी नहीं की।

  यह सच है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में हाल में अपराध घटे हैं। पर चिंताजनक बात यह है कि अपराध की घटनाओं में सत्ताधारी दलों से जुड़े नेताओं और विधायकों के हाथ भी रहे हैं। जब सत्ता के लोग ही अपराध करने लगें तो लोगबाग अधिक भयभीत हो जाते हैं भले सामान्य अपराध का आंकड़ा नीचे गिर रहा हो।

 यानी धारणा और आंकड़ा अलग-अलग हैं।

 राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार नीतीश कुमार जैसे संयमी और ईमानदार नेता के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए। उन्हें अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को थोड़े समय के लिए भुलाकर बिहार को किसी भी कीमत पर फिर वैसा ही शासन देना चाहिए जैसा शासन उन्होंने जून, 2013 से पहले दिया था जब भाजपा उनकी सरकार में थी।

  जदयू के राष्ट्रीय महासचिव के.सी. त्यागी ने ठीक ही कहा है कि नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के सारे गुण हैं। पर राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार जदयू जैसे एक छोटे दल के अच्छे नेता को भी उनकी अच्छाइयों को देखकर इस देश के अन्य दल प्रधानमंत्री बना देंगे, ऐसी अच्छी राजनीति इस देश में अभी नहीं है।
 इस देश के छोटे दलों के कुछ नेता झटके में या गठबंधन की मजबूरी के तहत प्रधानमंत्री बने हैं। पर वह अवसर भिन्न परिस्थितियों में आया था। अभी तो 2019 के चुनाव में देर है।

 वी.पी. सिंह तो प्रधानमंत्री बनने से पहले ही कई गैर कांगेेसी दलों के समूह के नेता बन चुके थे। यहां तो सहयोगी राजद भी नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनाना दिल से चाहता है या नहीं, यह भी एक बड़ा सवाल है। हालांकि लालू प्रसाद ने सार्वजनिक रूप से यह कह दिया है कि नीतीश प्रधानमंत्री बनें तो यह अच्छा होगा। सन 2019 में नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं इस बारे में अभी कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है।
पर संस्कृत के एक श्लोक को नीतीश कुमार को याद रख लेना चाहिए। उसका अर्थ है -जो ध्रुव को छोड़कर अध्रुव की ओर जाता है, उसका ध्रुव भी चला जाता है। अध्रुव तो अधु्रव है ही।

    आज नीतीश कुमार ने नशाबंदी को जो मुद्दा उठाया है, वह बोफर्स मुद्दे से कम महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि अधिक है। याद रहे कि उन्होंने बिहार मेंं नशाबंदी की शुरुआत भी कर दी है। पर इसको लेकर गैर भाजपा राजनीतिक दलों में आम सहमति बननी अभी बाकी है।

उस आम सहमति की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इससे पहले बिहार को फिर से पटरी पर लाने के लिए नीतीश कुमार को एक बार फिर जी-जान लगा देनी चाहिए। इस काम में उन्हें लालू प्रसाद के दल के भरपूर सहयोग की जरूरत होगी।

 कोई सफल मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री बनना चाहता है तो इसमें किसी को कोई एतराज भी नहीं होना चाहिए। वैसे भी कई लोग यह मानते हैं कि बिहार के विकास के लिए यह जरूरी है कि इस राज्य से कोई प्रधानमंत्री बने।
लंबे समय से बिहार का शासन-संचालन के दौरान नीतीश ने भी यह अनुभव किया है कि केंद्र सरकार से भरपूर आर्थिक मदद मिले बिना बिहार को विकसित राज्य बनाया ही नहीं जा सकता है। यदि सिर्फ लंबे समय तक वह मुख्यमंत्री बने भी रहें और इसका अर्थाभाव में विकास नहीं कर सकें तो फिर कुछ साल के बाद उनकी पिछली उपलब्धियां भी फीकी पड़ जाएंगी। यदि इसलिए वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो बात समझ में आती है। पर अभी तो बिहार में ही उनका काम अधूरा है।

   (इस लेख का संपादित अंश 18 मई 2016 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)