बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

  इंदिरा जी के बारे में एक जानकारी यह भी !
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बंगलोर जिले के डोडाबल्लभ पुर की मतदाता सूची में 
अपना नाम दर्ज कराने के लिए इंदिरा गांधी ने आवेदन किया था।यह 1978 की बात है।
पर इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन अफसर ने इस आधार पर उनके आवेदन को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वह यानी इंदिरा जी उस क्षेत्र की निवासी नहीं थीं।
 याद रहे कि उन दिनों कर्नाटका के मुख्य मंत्री कांग्रेस के ही देवराज अर्स थे।  
लगता है कि उन दिनों ‘सिस्टम’ कुछ काम करता था।

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

 25 जनवरी, 2004 को तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भारत को भ्रष्टाचारमुक्त विकसित राष्ट्र बनाने सपना साकार करने का आह्वान किया था।साथ ही उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से आग्रह किया था कि वे इस दिशा मेें अपनी संकल्पना ,कार्य योजनाओं को चुनाव घोषणा पत्रों के जरिए स्पष्ट करें।
  राजनीतिक दलों को न तो यह सब करना था और न किया।उल्टे आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है
कि सी.बी.आई.ही सी.बी.आर्ई. की जांच कर रही है ।जांच अधिकारी ए.के.बस्सी ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि मेरे पास इस बात के सबूत है कि विशेष  निदेशक राकेश अस्थाना ने 3 करेाड़ 30 लाख रुपए रिश्वत ली।ऐसा ही आरोप सी.बी.आई.निदेशक आलोक वर्मा पर राकेश  अस्थाना ने लगाया है।
यह सब क्या हो रहा है अपने देश में ?!



क्या अगले लोक सभा चुनाव में 2004 दुहराएगा ?
तब के लोक सभा चुनाव से  भाजपा ने ‘साइनिंग इंडिया’ 
के गुमान में राम विलास पासवान को राजग से ‘भगा’ दिया था, उनसे मलाईदार संचार मंत्रालय छीन कर।
नतीजतन केंद्र की सत्ता तब राजग के हाथों से निकल गयी थी।
1999 और 2004 के लोक सभा चुनावों के आंकड़ों को कोई  देख ले तो उसे समझ में आ जाएगा कि पासवान राजग में रहते तो एक बार फिर अटल जी प्रधान मंत्री होते।
पर चूंकि संचार मंत्रालय प्रमोद महाजन को चाहिए था,इसलिए राजग अपनी सत्ता ही गंवा बैठा।
  इस बार एक दो सीटों के लिए क्या भाजपा उपेंद्र कुशवाहा को भगाएगी ?
मैं यह तो नहीं कह रहा हूं कि कुशवाहा के चले जाने से 2019 में राजग को बिहार में पहले की अपेक्षा काफी कम सीटें मिलेंगी।पर भाजपा के लिए रिस्क तो है ही।
कुशवाहा पर एक -दो सीटें न्योछावर कर देने राजग का कुछ 
बिगड़ नहीं जाएगा।
पर, नहीं करने पर बिगड़ सकता है।क्योंकि 2014 की तरह आज मोदी लहर नहीं है।कल लहर चल ही जाएगी,यह कौन कह सकता है ? हां,देश में कुल मिला कर अभी मोदी का ‘अपर हैंड’ जरूर लग रहा हे।

सोमवार, 29 अक्तूबर 2018


क्या कोई पूर्व मंत्री  यह कह सकता है कि ‘तब मैं मनुष्य नहीं
था - मिनिस्टर था ? ’
हां,यदि उसका नाम बाल कवि बैरागी हो। ऐसा निश्छल संस्मरण लोगों को पढ़ने को मिल ही सकता है।
अस्सी के दशक में  मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह मंत्रिमंडल के राज्य मंत्री रहे बैरागी ने सन  2006 में यह बेबाक संस्मरण लिखा था।
  सन 1931 में जन्मे नन्द राम दास बैरागी का 2018 में निधन हो गया।
वे बारी -बारी से लोक सभा और राज्य सभा के भी चर्चित सदस्य रहे।
 वे मध्य प्रदेश में पहले सूचना राज्य मंत्री और बाद में खाद्य व सार्वजनिक वितरण विभाग के राज्य मंत्री थे।प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सहमति और इच्छा से उन्हें मंत्री बनाया गया था।
एक मशहूर कवि -लेखक को ऐसा विभाग मिलने पर उनके मित्र उनसे कहा करते थे ,‘कालीदास के वंशज किरोसिन बेच रहे हैं !’
बैरागी जी जब चैथी कक्षा में थे तो उन्होंेने एक कविता लिखी थी।
‘भाई सभी करो व्यायाम,
कसरत ऐसा अनुपम गुण है,
कहता है नन्दराम,
भाई करो सभी व्यायाम।’
इस कविता पर तब उन्हें पुरस्कार भी मिला था।
हालांकि कहते हैं कि जनसंघ नेता सुन्दर लाल पटवा ने सन 1968 में उनकी कविता सुनकर उनका नाम बालकवि बैरागी रख दिया जो नाम चल गया।
  बैरागी जी का ‘अहा जिंदगी’ में प्रकाशित यह संस्मरण अनोखा है,
वे लिखते हैं , ‘यह संस्मरण उन दिनों का है जब मैं मनुष्य नहीं था।
जी हां,तब मैं मंत्री था।मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य का राज्य मंत्री।लाल बत्ती,चपरासी और पी.ए.से लैस।
  भोपाल के मेरे एक मित्र व उसके परिजनों ने चाहा कि मैं अपनी लाल बत्ती वाली गाड़ी में बैठकर शाम को 6 -7 बजे के बीच उनके दरवाजे पर जा धमकूं।
 उनके घर के सदस्यों के साथ बैठूं, चाय -नाश्ता लूं।
मित्र का अभीष्ट था अपने पड़ोसियों पर लालबत्ती और मंत्री जी की निकटता का ठप्पा लगाना। जग की होती आई रीत थी।
मैंने हां कर दी।मित्र ने छिपाया कुछ भी नहीं।मैंने भी उस परिवार को टाला नहीं।
निश्चित समय पर मैं उनके यहां गया।उनके दरवाजे पर जैसी उन्होंने चाही थी,वैसी ही चहल पहल हो गयी।
मुहल्ले में पुलिस थी।सादी वर्दी में कर्मचारियों की तैनाती थी।
एक तो मंत्री दूसरे कवि जिनकी कविताएं पढ़ -पढ़कर बच्चे बड़े हुए थे।
देखने की ललक तो थी ही।
फूल,हार और गुलदस्तों से स्वागत हुआ।
घर के भीतर विशेष तौर पर बैठक सजी थी।मंत्री जी विराजमान हो गए।
प्रारंभिक गहमागहमी के कुछ देर बाद माहौल में सहजता छा गयी।
मित्र के परिवार से बैरागी जी का परिचय कराया गया।गृह लक्ष्मी ने मध्यवर्गीय परिवार की सुरूचिपूर्ण शिष्टाचार निभाना शुरू किया।मुझे अच्छा लगा।
  यह बात मई 1980 की है।
अंततः इस संस्मरण का नायक मैं नहीं,पांच साल का एक बच्चा बना।     
बैरागी जी ने लिखा कि ‘मैं उसका परिचय बता कर लेखकीय मर्यादा का हनन नहीं करूंगा।
वह परिवार आज भी मेरा मित्र है।
ठीक मेरे सामने वाले सोफे पर संस्मरण का पांच वर्षीय अबोध नायक मेरे मित्र का बेटा निश्छल आंखों से चकित विस्मित सारी आवभगत देख रहा था।
उसकी मां ने मेरे सामने वाली छोटी टेबुल पर खाने के लिए ताजा हलवा, बिस्किट, मिठाई, नमकीन, कटा पपीता आदि सजा कर रख दिया।
वह चाय व चम्मच वगैरह लेने के लिए भीतर जाने लगी।
उसने रसोई घर की ओर मुंह किया ही था कि बच्चे ने आवाज देकर उसे रोका, ‘मम्मी ! मम्मी !! यह सारा सामान उठा ले।’
उसकी मां ने पूछा क्यों उठा लूं ?
 यह कहना भर था कि बच्चे ने भारत की समूची प्रशासनिक राजनीति की एक ही वाक्य में लोक प्रचलित व्याख्या कर दी-‘उठा ले मम्मी ! ये मिनिस्टिर है,सब खा जाएगा।’
 बाल कवि लिखते हैं,आप स्वयं सोच लें।उसके बाद वातावरण में कैसा क्या हुआ होगा ?
मेरे मित्र,उनकी पत्नी,उनके परिजन ,मेरा स्टाफ दो तीन पड़ोसी तीन चार महिलाएं खुद मैं और दरवाजे बाहर खड़े दस पांच सरकारी कारिंदे व चपरासी तथा भीतर रसोई में काम कर रही दो कामकाजी नौकरानियां।सब लोग हक्के बक्के ठगे से कभी मुझे और कभी उस बच्चे को देख रहे थे।
सारी चुप्पी को मैंने ही अपने ठहाकों से तोड़ा।खानपान सब हुआ।होना ही था।
मंत्री नहीं रहने के बाद भी बैरागी जी  अपने मित्र से मिलते -जुलते रहे।पर,जब भी सामना होता था उस परिवार के सदस्य अपराध बोध से ग्रस्त हो जाते थे।क्षमा याचना करते मिलते थे।नन्हा  नायक जो अब बड़ा हो गया था,उससे बैरागी जी कहते थे,‘बेटा तुमने ठीक ही कहा था।’
 इन दिनों मध्य प्रदेश में एक बार फिर चुनाव हो रहा है।यह भोली उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि अगली सरकार के किसी मंत्री को वह कुछ न देखना सुनना पड़े जिसका सामना बैरागी जी को करना पड़ा था।पर यह तो एक भोली आशा ही है !
@फस्र्टपोस्टहिन्दी में मेरे साप्ताहिक काॅलम ‘दास्तान ए सियासत’ के तहत 29 अक्तूबर, 2018 को प्रकाशित मेरा लेख@



यह खुशी की बात है कि जिस समस्या की ओर मैं लिख-लिख  कर वर्षों से लोगों का ध्यान खींचता रहा हूं,उस ओर जदयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर जैसी बड़ी हस्ती का भी ध्यान गया है।उनमें इस मामले में गंभीरता भी नजर आ रही है।
किशोर यदि कांग्रेस के साथ अब भी जुड़े होते तो चाहते हुए भी इस नाजुक विषय पर नहीं बोल पाते।भाजपा का हाल भी इस मामले में लगभग वैसा ही है।
 प्रशांत किशोर के अनुसार  वंशवाद के कारण ही युवा राजनीति से दूर होते जा रहे हैं।
उन्होंने इस संबंध में जो आंकड़ा दिया है,वह अच्छी मंशा वाले लोगों को चैंकाएगा।
  उनके अनुसार ‘पहली लोक सभा में परिवार की पृष्ठभूमि से राजनीति में आने वालों की संख्या सिर्फ नौ प्रतिशत थी।
लेकिन मौजूदा लोक सभा में अगर 40 वर्ष से कम उम्र के सांसदों पर नजर डालें तो इनमें 98 प्रतिशत सांसद परिवारवाद के उदाहरण हैं।सब किसी न किसी ऐसे परिवार से जुड़े हैं जिनमें उनके दादा,नाना,पिता या भाई पहले सांसद या मंत्री रह चुके हैं।यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक स्थिति है।’
यह अच्छी बात है कि दैनिक भास्कर ने प्रशांत किशोर की यह अति महत्वपूर्ण बात  छापी है।
अब सवाल यह है कि परिवारवाद का यह काफिला बढ़ता ही क्यों जा रहा है ? उसे दाना-पानी कहां से मिल रहा है ?
मेरी मान्यता है कि सांसद-विधायक  क्षेत्र विकास फंड इसमें काफी मददगार है।
साठ-सत्तर के दशकों में सिद्धांतों से प्रभावित होकर युवा विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़ते थे और कार्यकत्र्ता बनते थे। कुछ लोग सांसद-विधायक बनने के लिए भी आए।
ताजा अनुभव के आधार पर प्रशांत जी ने ठीक ही कहा है कि ‘बिना प्रभावी सरनेम वाले युवाओं का राजनीति में आना नामुमकिन हो गया है।’ 
मैं देख रहा हूं कि दरअसल सांसद-विधायक  फंड के ठेकेदार ही जब राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं की भूमिका निभाने लगे हैं तो वास्तविक कार्यकत्र्ताओं की जरूरत ही कहां है ?
  यदि सांसद फंड बंद कर दिया जाए तो अधिकतर वंशवादी -परिवारवादी दलों, सांसदों या उम्मीदवारों को कार्यकत्र्ता नहीं मिलेंगे।मिलेंगे भी तो उन पर उन्हें काफी खर्च करना पड़ेगा जो सबके लिए संभव नहीं है।उतना खर्च करने पर राजनीति मुनाफे का धंधा नहीं रह जाएगी।
अभी तो अधिकतर मामलों में,सभी मामलों में नहीं,ं सांसद फंड का लगभग 40 प्रतिशत ‘कमीशन’ मंे चला जाता है।
 इस फंड से टिकाऊ निर्माण शायद ही कहीं बन पा रहा है।हालांकि कुछ सांसद ईमानदारी से इस फंड का इस्तेमाल भी कर रहे हैं।पर इक्के -दुक्के ही।
फंड की इस दुर्दशा के बावजूद  अधिकतर राजनीतिक दल इसे बनाए रखने के पक्ष में हैं ।क्योंकि यह फंड उनको व उनके वंश को बना-बनाया कार्यकत्र्ता मुहैया कराता रहा  है।
अपवादों की बात और है।
  यदि वास्तविक यानी ईमानदार राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं का अकाल दूर करना है तो प्रशांत किशोर जैसे प्रभावशाली लोग सांसद फंड के खिलाफ अभियान चलाएं।
यदि अन्य दल राजी न हों तो कम से कम जदयू यह काम शुरू करे।शायद बाद में अन्य दल अनुसरण करें ! 
जदयू से भविष्य में उसे ही चुनावी टिकट मिले जो यह लिख कर पार्टी को दे दे कि वह सांसद-विधायक फंड से खुद को अलग रखेगा।
जदयू के भी मौजूदा सांसदों विधायकों से ऐसा लिखवाना असंभव है।
  अन्य अनेक लोगों के साथ-साथ इस फंड को समाप्त करने की सिफारिश वीरप्पा मोइली के नेतृत्व वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी की थी। 
मेरी तो राय है कि केंद्र सरकार एक न्यायिक जांच आयोग बनाए जो इस बात की जांच करे कि इस फंड ने राजनीति को कितना नुकसान पहुंचाया है।
यह नहीं भूलना चाहिए कि  इस फंड की शुरूआत हर्षद मेहता रिश्वत कांड के तत्काल बाद 1993 में की गयी थी। 

 ‘स्टार इंडिया’ के अध्यक्ष और मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी उदय शंकर से नलिन मेहता की बातचीत आज के टाइम्स आॅफ इंडिया के संपादकीय पेज पर छपी है।
  उदय शंकर बिहार से हैं और अस्सी के दशक में पटना में टाइम्स आॅफ इंडिया के संवाददाता थे।
एक अखबार के युवा संवाददाता से स्टार इंडिया के अध्यक्ष  तक की यात्रा  कैसी रही होगी,यह तो उदय शंकर ही बता सकते हैं,पर मैंने जो कुछ थोड़ा देखा-सुना है,उसे यहां दर्ज कर देना चाहता हूंं ताकि बिहार के अन्य युवा, उदय शंकर से प्रेरित हों।
  उदय शंकर से मेरी पहली मुलाकात के साथ ही मैंने अनुमान लगा लिया था कि यह लड़का बहुत ऊपर जाएगा।पर,इतना ऊंचा जाएगा,इसकी पूर्व कल्पना तो मुझे भी नहीं थी।उदय शंकर पर मुझे और बिहारवासियों को गर्व है।
   मेरी मुलाकात का कारण ही वैसा था।
उन दिनों में मैं जनसत्ता का बिहार ब्यूरो प्रमुख था।एक शाम दो नौजवान मेरे आॅफिस आए।
उदय शंकर और उसी अखबार दूसरे संवाददाता वी.वी.पी.शर्मा।संभवतः इन दोनों से मेरा परिचय उसी दिन हो रहा था।
उदय ने आते -आते  कहा कि ‘सुरेंद्र जी,मैं आपको देखने आ गया।क्योंकि भागवत झा आजाद ने आपकी तारीफ की।
मुख्य मंत्री ने हमें कहा कि  यहां तो सिर्फ दो ही ईमानदार पत्रकार हैं।एक सुमंत सेन और दूसरे सुरेंद्र किशोर।
मैं तुम लोगों से क्या बात करूं ?
तुम्हारा बाॅस तो जगन्नाथ का आदमी है।’
 याद रहे कि मैं कभी आजाद जी से मिला नहीं था। स्वाभाविक ही है कि मुझे यह अच्छा लगा कि आजाद जी ने मेरी तारीफ की जो कभी किसी तारीफ नहीं करते।इतना ही नहीं, मैं उनके खिलाफ भी यदाकदा खबरें लिख रहा था।फिर भी तारीफ की।
 इधर पहली मुलाकात में ही मुझे लग गया कि उदय शंकर हीन भावना से मुक्त व्यक्ति हैं । आत्म विश्वास से भरे हुए भी। शायद उन्हें लगता होगा कि मैं तो एक दिन सुरेंद्र किशोर
से भी काफी ऊपर जाऊंगा।ये व्यक्ति मेरे प्रतिद्वंद्वी तो हैं नहीं ।फिर इनकी तारीफ करने में मेरा कोई नुकसान नहीं।
वे ऊंचा पहुंचे भी।अपनी योग्यता,प्रतिभा,आत्म विश्वास और सलाहीयत के बल पर ।
उस दिन के बाद तो उदय शंकर अक्सर  मेरे जनसत्ता आॅफिस आने लगे।हमलोग भूजा खाते।गप करते।
उदय शंकर अपनी बातों से कभी किसी को आहत नहीं करते।
स्टार इंडिया ज्वाइन करने के बाद भी उदय शंकर मेरे पास आए थे।तब मैं हिन्दुुुुुुुुुुुुुुुुुुुुस्तान का राजनीतिक संपादक था।
उन्होंने आते ही कहा कि ‘सुरेंद्र जी, भूजा मंगवाइए।’
मैंने मंगवाया ।लगा कि उनमें कुछ बदला नहीं था।
 अब तो वे अध्यक्ष हैं।कुछ और भी हैं।
कैसा लगता है जब उसी बड़े अखबार में उस व्यक्ति का इंटरव्यू छपे जिस अखबार से  कभी उसने नौकरी की शुरूआत की हो !
  अब जरा भागवत जी के बारे में ।स्टेट्समैन के बिहार संवाददाता व मेरे मित्र मोहन सहाय का मुख्य मंत्री के यहां आना -जाना अपेक्षाकृत अधिक था।मैं एक दिन उनके साथ वहां गया।मोहन जी ने आजाद जी से मेरा परिचय कराया,‘यही हैं जनसत्ता के सुरेंद्र किशोर।’
मुझे देखते ही आजाद जी की त्योरी चढ़ गयी।उन्होंने कोई अन्य बात करने की जगह यह कहा,‘आपको जो मन करे, मेरे बारे में लिखते रहिए।मैं उसकी कोई परवाह नहीं करता।’
मैं तो यह देखने गया था कि जिसे वह सबसे ईमानदार पत्रकार मानते हैं, उसके साथ उनका कैसा व्यवहार होता है।
पर जो मैंने सुना था,वही हुआ, ‘भागवत जी के सामने पड़ जाना किसी के लिए सुरक्षित नहीं होता है।’
  हालांकि मेरी समझ से अन्य किसी मुख्य मंत्री से वे बेहतर काम कर रहे थे। यदि वे 1989 के चुनाव तक मुख्य मंत्री रह गए होते तो बोफर्स के बावजूद कांग्रेस की उतनी बुरी गत नहीं होती जैसी  हुई।
भागवत जी के  मुख्य मंत्री बनने के तत्काल बाद  मशहूर पत्रकार जर्नादन ठाकुर ने जो लेख लिखा था,उसका शीर्षक था-‘दैत्यों की गुफा में भागवत झा आजाद।’
 यह शीर्षक अकारण नहीं था।

रविवार, 28 अक्तूबर 2018

किसी ने ठीक ही कहा है -
1.-अपनी जरूरतें व इच्छाएं सीमित रखिए,
2.-सामथ्र्य के अनुसार जीने की आदत लगाइए,
3.-समाज के लिए अपनी उपयोगिता बढ़ा दीजिए,
4.-अपने परिवार व मित्रों के सामने अपने अहं को 
समेटे रहिए,
5-कम बोलिए, कम खाइए और 
6-हर व्यक्ति में कुछ गुण होते हैं।अहंकार छोड़कर 
उसके  गुणों की तारीफ कीजिए,भले वह आपके गुणों की चर्चा न करे।
इससे अंततः आपको खुशी मिलेगी।  


चुनाव के ऐन पहले दल छोड़ने वाला जन हितैषी कत्तई नहीं



अगला लोक सभा चुनाव करीब आता जा रहा है।
राजनीतिक तैयारियां शुरू हो गयी हैं।राजनीतिक दल सक्रिय हो उठे हैं।मोर्चेबंदी की कोशिश जारी है। 
टिकटार्थियों के दिलों की धड़कनें बढ़ने लगी हैं।
किसका टिकट कटेगा ? किसका बचेगा ? कुछ कहा नहीं जा सकता।
 राजनीतिक दलों के बनते -बिगड़ते आपसी रिश्तों  के बीच यह सब और भी अनिश्चित हो जाता है।इस बार कुछ ज्यादा ही।
  पर एक बात निश्चित है।टिकटार्थियों की तीव्र इच्छाएं पहले की तरह ही स्थायी और अटल हैं।
वे कहीं न कहीं से टिकट लेकर ही रहेंगे।
इस बात को लेकर उनमें से कई आश्वस्त लग रहे हैं।
अधिकतर टिकटार्थियों के  दिल ओ दिमाग पर न तो किसी राजनीतिक  सिद्धांत का
बोझ है और न किसी नेता के प्रति कोई स्थायी लाॅयल्टी है।
बस एक ही लक्ष्य है किसी तरह टिकट मिल जाए।वह भगवान मिलने से थोड़ा ही कम है।
यदि टिकट न भी मिलेगा तो निर्दलीय उम्मीदवार तो बनेंगे ही।
चांस लेने मेंें क्या हर्ज है ?
वैसे भी आज के अनेक नेताओं को भला किस चीज की कमी है ? एक कहावत है, ‘एक त भोजपुरिया,दोसरे जवान,तीसरे भइल साढ़े तीन सौ मन धान !’
अब के बांह रोकी ?
कहावत भले भोजपुर की है,पर ऐसे टिकटार्थी राज्य भर कौन कहे, देश भर में फैले हुए हैं।
 अब बताइए ऐसे नेता  देश-प्रदेश का कितना भला करेंगे और कितना अपना ? 
जनता सब जानती है।
-- चुनाव से छह माह पहले छोड़ें दल--
कुछ लोगों की आदत है कि वे सिगरेट के आखिरी कश तक उसका  मजा लेते हैं या लेना चाहते हैं।
मान लीजिए कि कोई व्यक्ति  एक दल से विधायक या सांसद हैं।पर  अगली बार वे किसी अन्य दल से  चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं ।क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि उनकी पार्टी उन्हें अगली बार  टिकट नहीं देगी।फिर तो उन्हें चुनाव से कम से कम छह माह पहले सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे देना चाहिए।यदि राजनीति में नैतिकता बची है तो वह यही कहती है।
इससे उनकी खुद की छवि निखरेगी।साथ ही उस पार्टी का उन पर उपकार कम होगा जिस दल से गत बार जीत गए थे।
साथ ही, कुछ लोगों को यह भी लगेगा कि जन प्रतिनिधि ने वैचारिक मतभेद के कारण पहले ही पार्टी छोड द़ी है।इसका लाभ उन्हें चुनाव में मिल सकता है।
   यदि ऐसा कोई नहीं करता है तो चुनाव आयोग ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने की इजाजत न दे सके,ऐसा कानून बनना चाहिए ।दल बदलू कम से कम एक चुनाव न लड़ सकें,ऐसी कानूनी व्यवस्था हो जाए।
 इससे दल बदल को हतोत्साहित किया जा सकेगा।लोकतंत्र स्वस्थ बनेगा।
पर यह तो आदर्श स्थिति है।क्या ऐसी आदर्श स्थिति के लिए हमारे देश के राजनीतिक दल आज तैयार हैं ?
शायद नहीं।फिर भी यह यहां लिखा गया ताकि कोई यह न कहे कि दल बदलुओं को हतोत्साहित करने के लिए माकूल सुझाव नहीं आ रहे थे।
इससे बेहतर भी कोई सुझाव हो सकता है।
दरअसल भ्रष्टाचार के बाद दल बदल ने हमारी राजनीति को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाया है।
--यू.पी.रेरा की पहल-- 
  अब उत्तर प्रदेश में नियम भंजक  बिल्डरों और काॅलोनाइजर्स के खिलाफ घर बैठे शिकायत दर्ज करा देने की सुविधा आम लोगों को मुहैया करा दी गयी है।
उत्तर प्रदेश भू संपदा विनियामक प्राधिकार यानी यू.पी.रेरा ने 
इस काम के लिए इसी बुधवार को  मोबाइल एप की
शुरूआत की है।
 देश में ऐसी व्यवस्था पहली बार उत्तर प्रदेश में की गयी है।
कुछ  मामलों में कभी कभी बिहार भी अव्वल रहता है।इस मामले में बिहार सेकेंड स्थान पर तो रहे ! यहां भी ऐसी व्यवस्था जरूरी है।
--पटना साइंस काॅलेज की दुर्दशा-- 
खबर है कि पटना साइंस काॅलज की प्रयोगशाला के लिए  दशकों से न तो किसी उपकरण की खरीद हुई है और न ही रसायन की।इस मद में उसे पैसे ही नहीं मिले।
एक जमाने में हम बिहार के लोग साइंस कालेज पर गर्व करते थे।साइस काॅलेज में नाम लिखाने की मेरी हसरत पूरी नहीं हो सकी थी क्योंकि मेरे अंक कम थे।
अब ताजा हाल देखिए। सबसे शर्मनाक बात यह है कि ऐसी महान संस्था को डूबते हुए हमारे सारे हुक्मरान व अन्य लोग देखते रहे।
दशकों तक मैं रिर्पोंटिंग में रहा।ऐसे मुद्दों को लेकर धरना देते किसी नेता को नहीं देखा।हां, इस बात के लिए हंगामा करते जरूर देखा है कि शिक्षकों की  जांच परीक्षा क्यों हो रही है ?
वे किस तरह पढ़ा रहे हैं,उसे देखने अफसर स्कूलों में क्यों जा
रहे हैं ? 
--ग्लोबल पोजिसनिंग सिस्टम के लाभ-- 
कल पटना में चोर ने मोटर साइकिल की चोरी तो कर ली,पर उसे पता ही नहीं था कि वह  जी.पी.एस.से लैस था।
नतीजतन चोर पकड़ा गया ।क्योंकि मोटर साइकिल के मालिक ने अपने मोबाइल से उसे तत्काल लाॅक कर दिया।
 यानी जी.पी.एस. तो सी.सी.टी.वी .कैमरे की तरह ही उपयोगी है।
 यदि कार,मोटर साइकिल और बस-ट्रक के रजिस्ट्रेशन के साथ ही जी.पी.एस.की अनिवार्यता जोड़ दी जाए तो इससे तरह -तरह के अपराध रोकने में भी मदद मिल सकती है।
 --भूली बिसरी याद--
इस बार वैसी हस्तियों के बारे में जिनका जन्म अक्तूबर में हुआ था।
फिल्म अभिनेता अशोक कुमार से शुरू करें।
धारावाहिक ‘महाभारत’ के अभिनेता सुरेंद्र पाल को अशोक कुमार बेटा कहते थे।क्योंकि एक फिल्म में सुरेंद्र पाल ने उनके बेटे की भूमिका निभाई थी।
अशोक कुमार उर्फ दादा मुनि ने सुरेंद्र पाल से कहा था कि ‘बेेटा, इस लाइन में सबसे बड़ी पूंजी है धैर्य।
इसे मत खोना किसी भी हाल में।
हम जब आए थे,तब हमें न तो संवाद बोलना आता था ,न सीन देना,न शाॅट देना।एक्टिंग भी ढंग से नहीं आती थी।लोग मजाक उड़ाते थे।पर सब धीरे -धीरे आ गया।’वैसे दादा मुनि की बात अन्य पेशों पर भी लागू होती है।
एक बार डा.लोहिया ने जेपी से कहा ,आप अपनी राय तो कभी बताते ही नहीं।
सिर्फ दूसरों की सुनते हैं।इस पर जेपी हंस कर बोले,‘सबको साथ लेकर चलना है तो सबकी राय सुननी चाहिए।अगर शुरू में ही मैं अपनी राय दे दूं तो लोग अपनी राय देने में संकोच करेंगे।’
 विधायक या सांसद बनते ही अनेक नेता अपने ‘रहने -खाने’ की व्यवस्था पहले ही कर लेते रहे हंै।आजादी के बाद से ही 
यह प्रवृत्ति शुरू हो गयी थी।मंत्री बन जाने के बाद तो वह प्रवृत्ति और जोर पकड़ लेती है।और ऊपर जाने पर तो पूछिए मत।
पर लाल बहादुर शास्त्री में आखिर क्या बात थी जिसने  उन्हें उस ओर कभी प्रेरित नहीं किया ?
शास्त्री जी प्रधान मंत्री थे,तभी उनका निधन हो गया।
पर तब तक मकान के नाम पर उनके पास मात्र खपरैल पुश्तैनी मकान था ।वह मकान बनारस-मिर्जा पुर मार्ग पर राम नगर कस्बे में था।बनारस से 18 किलोमीटर दूर स्थित वह  मकान  1966 में भी जीर्ण -शीर्ण ही था।किसी नेता में वह प्रवृत्ति कहां से आती है कि जुगाड़ रहने पर भी वह अपने रहने -खाने जैसी बुनियादी जरूरतों को भी नजरअंदाज कर देता है ?
आज तो उसके विपरीत वाली  राक्षसी प्रवृत्ति ही अधिक देखी जा रही है। 
    --और अंत मंे-
भारत में प्रति व्यक्ति अलकोहल की खपत 2005 में जहां 2 दशमलव 4 लीटर थी,वहीं 2016 में 5 दशमलव 7 लीटर हो गयी ।यह आंकड़ा बढ़ कर कहां तक जाएगा ?
अलकोहल की बुराइयों को कौन नहीं जानता ?
जो शराब पीता है, वह भी जानता है।
@26 अक्तूबर, 2018 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 


शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

जिनमें  राजनीतिक जागरूकता अधिक है,उनमें से कई लोग अब बेचैनी से यह पूछने लगे हैं कि 2019 के लोक सभा के चुनाव में कौन गठबंधन जीतेगा ?
कई लोगों को यह लगता है कि एक बार फिर नरेंद्र मोदी की सरकार बनेगी।कुछ दूसरे लोगों की राय अलग है।
पर, किसी के लगने को कोई आधार नहीं बनाया जा सकता।
 देखना होगा कि अब तक ठोस संकेत क्या-क्या हैं ?
छह माह पहले ठोस संकेत मिलने हालांकि मुश्किल है।
 पर, एक -दो बातों पर तो गौर किया ही जा सकता है।
 आज देश के इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा दो खेमों में साफ-साफ बंटा हुआ दिखाई पड़ता है।
 एक खेमा नरेंद्र मोदी को हटाने की कोशिश में लगा हुआ है तो दूसरा हिस्सा उन्हें बचाने के प्रयास में।
 अब देखना यह होगा कि किस खेमे को अधिक दर्शक व पाठक मिल रहे हैं।जहां आकर्षण अधिक है,उसके सफल होने के संकेत हैं,ऐसा कहा जा सकता है।
हालांकि मेरे पास दर्शक-पाठक के उन आंकड़े को जानने का कोई उपाय नहीं है।
 दूसरा संकेत विभिन्न दलों को मिलने वाले चंदे के आंकड़ों से मिल सकता है।
  6 मई 2014 के टाइम्स आॅफ इंडिया में प्रदीप ठाकुर ने लिखा था कि मोदी लहर चलने से बहुत पहले ही भाजपा की तिजोरी भरने लगी थी।
2012-13 में भाजपा को घोषित चंदा के रूप में 82 करोड़ 82 लाख रुपए मिले थे जबकि उसी अवधि में कांग्रेस को 11 करोड़ 42 लाख रुपए।
  याद रहे कि तब मन मोहन सिंह की सरकार थी।
अब जब नरेंद्र मोदी की सरकार है और चुनाव सामने हैं तो किस दल को कितना चंदा मिला या मिल रहा है ?
यह आंकड़ा जानने का भी मेरे पास कोई जरिया नहीं है।
जो जान पाएंगे ,वे हवा के रुख का अनुमान लगा सकते हैं।
 कभी- कभी सट्टा बाजार वालों का अनुमान परंपरागत चुनाव विश्लेषकों से अधिक सटीक होता है।
क्या सट्टा बाजार वाले अभी से सन 2019 के नतीजे का अनुमान लगा रहे हैं ? पता नहीं।
 कुछ चुनाव विश्लेषक समय -समय पर बड़े नेताओं की लोकप्रियता के अनुमान के लिए सर्वेक्षण कराते रहते हैं।
उन सारे नतीजों का औसत क्या है ?
 छह महीना पहले किसी चुनाव नतीजे के बारे में पूर्वानुमान लगा पाना इसलिए भी कठिन  है क्योंकि इस बीच दोनों पक्षों की ओर से न जाने कितने चुनावी ,राजनीतिक तथा अन्य तरह के ब्रह्मा़स्त्र चलाये जाएंगे और उनके भी कुछ नतीजे होंगे।
 चूंकि लोगबाग अब एक दूसरे से पूछने लगे हैं ,मुझसे भी पूछते  रहते हैं,इसलिए मैंने यह पोस्ट लिख दिया ।  


गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

बिहार के खाद्य विश्लेषक डा.महेंद्र नारायण सिंह के अनुसार,
‘अगर मिठाई में लगी वर्क टूटी हुई हो तो वह सिलवर है।पूरा एक समान रूप से पूरी मिठाई पर छाई रहे तो एल्यूमिनियम होता है।’
मिलावटी मिठाई पर आज ‘प्रभात खबर’ ने अच्छी जानकारियां दी हैं।
भई, मेरे लिए तो  सुधा के पेडे़ और महावीर मंदिर के दक्षिण भारतीय लड्डू ही ठीक हैं।
 बाकी की मिठाइयों पर से मेरा विश्वास उठ चुका है।


स्वतंत्रता सेनानी ,समाजवादी नेता, विचारक और प्रखर सांसद रहे मधु लिमये ने 1995 में लिखा था कि 
‘1996 के बाद की स्थिति के 
संबंध में मैं गहरी चिंता ही व्यक्त कर सकता हूं।
समाजशास्त्री और सिद्धांतशास्त्री भले ही केंद्रीकरण की निंदा करें और केंद्र में पार्टियों के ढीले- ढाले महासंघीय  गठबंधन की सत्ता की बात करें,किंतु वे यह भूल जाते हैं कि कि राज्य स्तर की सूबेदारी नयी दिल्ली में सत्ता के अत्यधिक केंद्री- करण का ही दूसरा पहलू है।
  सूबेदारों की लात खाए लोग किसके पास जाएंगे ?
इस देश को जरूरत है मजबूत लोकतांत्रिक केंद्र और लोकतांत्रिक राज्यों की, शासन-व्यवस्था और संविधान के रूप में भी और राजनीतिक दलों के आंतरिक संगठन के रूप में भी।
 यदि पार्टियों के अंदर और विभिन्न पार्टियों  के बीच आपस में न्याय,सहयोग और सत्ता की साझेदारी की भावना नहीं होगी,तो इस देश का भविष्य निराशापूर्ण ही रहेगा।
भले ही 1996 के लोक सभा चुनावों में कोई भी पार्टी जीते या पार्टियों का गठबंधन जीते।मैं यह बात इसलिए कह रहा हूंं कि मैं एक भारतीय,मानव जाति के एक विनम्र सदस्य और विराट विश्व के एक नगण्य बिंदु के रूप में अपनी पहचान को अन्य किसी भी  पहचान से बड़ा मानता हूं।’
@---पाक्षिक पत्रिका ‘माया’-15 जनवरी 1995@  
मधु लिमये का 8 जनवरी 1995 को निधन हो गया था।
यानी, जीवन के अंतिम दिनों में लिखा गया यह संभवतः उनके आखिरी कुछ लेखों में एक है।यह लेख दिल की गहराइयों से लिखा गया है।
लेख तो लंबा है,पर मैंने उसकी मुख्य बात यहां उधृत की है।इस लेख में व्यक्त  भावना से यह भी पता चलता है कि हमारे पुराने नेता देश के बारे में क्या-क्या  सोचते थे।@


बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

 जहां तक बिहार का संबंध है,सी.बी.आई.की साख 
तो दो मामलों के कारण बहुत पहले ही धूल में मिल चुकी थी।
सत्तर के दशक के ललित नारायण मिश्र हत्याकांड और अस्सी के दशक के बाॅबी हत्या कांड में उच्चत्तम स्तर से आए दबाव के कारण केस को दूसरा ही  मोड़ दे दिया गया था।
  इसीलिए तब के प्रतिपक्षी नेता कर्पूरी ठाकुर किसी भी बड़े मामले की जांच के.बी.सक्सेना और डी.एन.गौतम से कराने की मांग किया करते थे न कि सी.बी.आई.से ।
  हां, चारा घोटाले की जांच को तार्किक परिणति तक इसीलिए पहुंचाया जा सका क्योंकि उसकी निगरानी अदालत कर रही थी।
 अब देखना है कि सी.बी.आई. में उठे नये विवाद के तार्किक परिणति तक पहुंचने के बाद अंततः सी.बी.आई.की साख बढ़ती है या घटती है।
  वैसे इस देश में अब भी के.बी.सक्सेना @आई.ए.एस.@और डी.एन.गौतम @आई.पी.एस.@जैसे अफसर जहां- तहां उपलब्ध हैं।कम हैं,पर हैं।
 ऐसे आई.ए.एस.और आई.पी.एस.अफसरों को चुन- चुन कर विभिन्न सरकारें निर्णायक जगहों पर तैनात करंे तो वह नौबत नहीं आएगी जैसी नौबत आज सी.बी.आई.मुख्यालय में आ गयी है।पूरा देश हैरत में है।
 जिस देश के लोकतंत्र के लगभग सभी स्तम्भों में कार्यरत हर दूसरा व्यक्ति  मौका मिलते ही देश को लूटने पर अमादा रहता है,उस स्थिति में सबसे बड़ी जांच एजेंसी की ऐसी हालत अत्यंत खतरनाक स्थिति पैदा करती है।

हाल के उपद्रव के बाद जिला पुलिस से पटना एम्स को यह आश्वासन मिला है कि  एम्स परिसर में पुलिस पोस्ट बनेगा।
अस्पताल प्रशासन ने भी कहा है कि सुरक्षा गार्डों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी।
  दरअसल कुछ लोग पटना एम्स को भी बिहार सरकार द्वारा संचालित  कुछ अन्य बड़े अस्पतालों की तरह ही अराजक बना देना चाहते हैं जहां आए दिन उपद्रव व हड़ताल होते रहते हैं।
 यदि इस प्रवृति को समय रहते नहीं रोका गया तो पटना एम्स में बाहर से अच्छे डाक्टर आकर ज्वाइन करने से पहले सौ बार सोचेंगे।
  

केंद्र सरकार सभी राज्यों की राजधानियों में केंद्रीय सचिवालय की शाखाएं स्थापित करने की योजना पर काम कर रही है।
राज्य सरकारों और आम लोगों से अधिक निकट का संबंध बनाने के लिए ऐसा किया जा रहा है।
केंद्र सरकार इस योजना पर तेजी से काम कर रही है।खबर है कि पी.एम.ओ.ने केंद्रीय लोक कार्य निर्माण विभाग से कह दिया है कि वह इसके लिए जमीन की पहचान करे।
   मेरी तो राय है कि इस काम के लिए केंद्र सरकार हर प्रादेशिक राजधानी के पास के किसी इलाके का चयन करे।वहां वह एक मिनी स्मार्ट सिटी बनाए।
वह उस राज्य के लिए नमूने का भी काम करेगा।
साथ ही,वह सुप्रीम कोर्ट को भी इस बात के लिए राजी करने की कोशिश करे कि राज्यों में भी उसका बेंच हो।

 सरकार जब देशद्रोहियों के खिलाफ कार्रवाई करने लगती है तो इस देश के कुछ खास तरह समूह तरह-तरह के बहाने बनाकर काफी हो -हल्ला मचाने लगते है।क्या ऐसा सिर्फ इसी देश में होता है या अन्य देशों में भी ऐसा होता है ?

सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

  कहते हैं कि ‘सरसों से भूत भगाया जाता है।’
पर, यदि सरसों में ही भूत लग जाए जो क्या होगा ?
इस देश में किस तरह सरसों में ही भूत लग गया है,उसके कुछ नमूने आज के अखबारों से प्रस्तुत हंै।
1.-सी.बी.आई.के स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना पर 3.25 करोड़ रुपए घूस लेने का आरोप।
सी.बी.आई.ने अस्थाना पर एफ.आई.आर.दर्ज किया।
2.-केरल के पूर्व मुख्य मंत्री ओमन चांडी व सांसद के.सी.वेणुगोपाल पर दुष्कर्म का केस दर्ज।
3.-रेलवे में 100 करोड़ रुपए के खेल में पटना ट्रिब्यूनल
के जज आर.के.मित्तल निलंबित ।
4.-जवान ने रूसी पर्यटक से की छेड़खानी।
ऐसी खबरें आती रहती हैं।
लग गया है न सरसों में भूत ?

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

डा.श्रीकृष्ण सिंह जयंती की पूर्व संध्या पर उनकी याद में 
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आज की राजनीति को जिन दो प्रमुख बुराइयों ने बुरी तरह ग्रस लिया है, श्रीबाबू उनसे कोसों दूर थे।
वे बुराइयां हैं घनघोर परिवारवाद-वंशवाद और अपार धनलोलुपता।
कल उनकी जयंती मनाने वाले कितने नेता हैं जो मंच से 
यह कह सकेंगे कि ‘इन बुराइयों से दूर रह कर हम श्रीबाबू को सच्ची श्रद्धांजलि देंगे ?’
ऐसा कहने का नैतिक अधिकार आज इस देश के इक्के -दुक्के नेताओं को ही है।
  इस पोस्ट पर कुछ लोग यह टिप्पणी भी कर सकते हैं कि जमाना बदल गया है।अरे भई, जमाना जब बदल गया है तो पुराने जमाने के ऐसे महान नेताआंे की जयंतियां ही क्यों मनाते हो  ?
दरअसल जमाना नहीं बदला।अधिकतर नेता अपनी सुविधा के लिए खुद बदल गए है या मौका मिलने पर बदल जाना
चाहते हैं।
आज भी अधिकतर लोग अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहते हैंे।भले ही किन्हीं मजबूरियों में चाहे वे जिसे भी वोट दें।
श्रीबाबू के संदर्भ में वे दो प्रमुख बातें।
1-  1961 में बिहार के मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह के निधन के 12 वें दिन राज्यपाल की उपस्थिति में उनकी निजी तिजोरी खोली गयी थी।
तिजोरी में कुल 24 हजार 500 रुपए मिले।
वे रुपए चार लिफाफों में रखे गए थे।
एक लिफाफे में रखे 20 हजार रुपए प्रदेश कांग्रेस के लिए थे।
दूसरे लिफाफे में तीन हजार रुपए थे मुनीमी साहब की बेटी की शादी के लिए थे।
तीसरे लिफाफे में एक हजार रुपए थे जो महेश बाबू की छोटी कन्या के लिए थे।
चैथे लिफाफे  में 500 रुपए उनके  विश्वस्त नौकर के लिए थे।श्रीबाबू ने अपनी कोई निजी संपत्ति नहीं खड़ी की।
2 -1957 में कांग्रेस के कुछ प्रमुख लोगों ने श्रीबाबू से कहा कि हम लोगों चाहते हैं कि शिव शंकर सिंह विधान सभा के उम्मीदवार बनें।शिव शंकर बाबू उनके बड़े पुत्र थे।
श्रीबाबू ने कहा कि ठीक है,उसे बनाइए।फिर मैं चुनाव नहीं लड़ूंूगा।क्योंकि एक परिवार से एक ही व्यक्ति को चुनाव लड़ना चाहिए।
  यही बात 1980 में कर्पूरी ठाकुर ने राज नारायण जी से कही थी ।राजनारायण जी  उनके पुत्र राम नाथ ठाकुर को चुनाव लड़वाना चाहते हैं।लंबे समय तक मुख्य मंत्री पद बने रहने के बावजूद ऐसा संयम रखने को ही तपस्या कहते हैं।
@20 अक्तूबर 2018@

  

पटना  की महावीर मंदिर न्यास समिति ने पांच साल पहले 
श्रवण कुमार पुरस्कार योजना शुरू की थी।
इस योजना के तहत माता-पिता की सेवा में लगे व्यक्ति  को पुरस्कृत किया जाता है।
इसके लिए न्यास समिति हर साल आवेदन मांगती है।
यह जानना दिलचस्प होगा कि इस योजना के तहत आवेदकों की संख्या साल दर साल बढ़ रही है या घट रही है। 

गांधी,जेपी और लोहिया ने अपने -अपने ढंग से
ग्राम स्वराज की कल्पना की थी।
राजीव गांधी के शासन काल में बड़ी उम्मीद के साथ
73 वें संविधान संशोधन के साथ पंचायत स्वराज की स्थापना हुई।
पर आज अधिकतर ग्राम पंचायतों की मौजूदा स्थिति देख कर निराशा होती है।अपवादों की बात और है।
  बिहार में नियोजित शिक्षकों की बहाली का अधिकार मुखिया को दिया गया था।
उम्मीद की जाती थी कि मुखिया लोग अपने ही इलाके के स्कूलों में योग्य शिक्षक बहाल करंेगे ताकि उनके वोटर व उन लोगों के बाल -बच्चे सही शिक्षा पा सकें जिनके साथ मुखिया जी का रोज ही उठना -बैठना और  खाना -पीना होता है।
  पर इस बहाली को लेकर अधिकतर मुखिया ने मेरिट के बदले पैसे तथा कुछ अन्य बातों को प्रमुखता दी।
राज्य के नियोजित शिक्षकों के 96 हजार सर्टिफिकेट फोल्डर यूं ही नहीं गायब हुए हैं।
 वैसे अन्य मामलों में भी आज अधिकतर  ग्राम पंचायतों की कैसी भूमिका है,यह सब लोग देख ही रहे हैं। गांधी,लोहिया जेपी ने इस स्थिति की कल्पना तक नहीं की होगी।

दिवंगत भाजपा सासंद भोला सिंह की याद में
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  बिहार के गृह राज्य मंत्री भोला सिंह ने एक दिन मुझे फोन पर कहा, ‘सुरेंद्र जी, आप घाव तो गहरे करते हैं।पर कभी -कभी मलहम भी लगाया कीजिए।’
  यह बात उस समय की है जब मैं जनसत्ता का बिहार संवाददाता था।
मध्य बिहार में एक नर संहार हुआ था।
मरने वाले कमजोर वर्ग के लोग थे।
घटना स्थल पर मेरे पहुंचने से पहले ही भोला बाबू वहां का दौरा कर चुके थे।वह नक्सल प्रभावित इलाका था।
 उन दिनों माओवादियों और भूमिपतियों के बीच मारकाट मची हुई थी।
मृतकों के परिजनों ने  मुझे बताया कि भोला बाबू आए थे।
वे भूमिपतियों से राइफल के लाइसेंस के आवेदन पत्र बटोर कर ले गए।
  ‘जनसत्ता’ में यही खबर छपी थी।
खबर तो सरकार के लिए मारक थी।पर एक पत्रकार से निपटने का भोला बाबू का शालीन तरीका देखिए।
  किसी ने उन्हें बता दिया था कि जनसत्ता वाला न तो धमकी में आएगा और न ही प्रलोभन में।पर एक तरीके से उसे 
प्रभाव में लाया जा सकता है।उसे आप अच्छी -अच्छी खास एक्सक्लूसिव खबरें दे दिया कीजिए।
  इसीलिए जब मैं दूसरे दिन उन्हें ‘मलहम लगाने’ उनके आवास पर पहुंचा तो उन्होंने पहले  से ही एक अच्छी खबर की फाइल मेरे लिए तैयार रखी थी।
वह हमारे अखबार में प्रमुखता छपी।मुझे भी अच्छा लगा।
भोला बाबू ने उस दिन राइफल  लाइसेंस वाली खबर की चर्चा तक नहीं की।
  वे न सिर्फ भाषण कला में माहिर थे,बल्कि व्यक्तिगत बातचीत में अनोखे थे।
उनके साथ बैठकर बातचीत करना अच्छा लगता था।
अपने लंबे राजनीतिक कैरियर में वे अपनी शत्र्तों पर जिये।
निडर और स्वाभिमानी थे।फिलहाल भाजपा सांसद थे ,पर नेतृत्व से नाराज चल रहे थे।
जब जो पार्टी उन्हें मनोनुकूल नहीं लगी,उसे तुरंत छोड़ा।
वे बिहार के दूसरे नेता थे जो बारी -बारी से सी.पी.आई.और भाजपा के विधायक रहे।पहले विधायक थे नालंदा जिले के देव नाथ प्रसाद थे।पता नहीं, किसी अन्य राज्य में ऐसा कोई उदाहरण है या नहीं ।संभवतः उत्तर प्रदेश में ऐसा उदाहरण है !
और लोगों के लिए वे जो कुछ हों, पर मुझे तो वे अपनी वाक् पटुता और  कुशल वक्तृत्व कला के लिए  याद रहेंगे। 
@20 अक्तूबर 2018@





शनिवार, 20 अक्तूबर 2018

गांव में मेरे बचपन में मेरे परिजन व लोगबाग दूध के लिए गो रस तो कभी दूध बोलते थे।पर इलाहाबाद के लिए तो सिर्फ ‘प्रयाग राज’ ही बोलते थे।
पचास के दशक में मेरी बुआ संगम स्नान कर लौटी थीं।
उस स्थान की वह जब भी चर्चा करती थीं,प्रयाग राज ही बोलती थीं। 
 मैंने भी इलाहाबाद शब्द तो बाद में जाना था।
यानी बिहार के गांवों में भी इलाहाबाद को लोग प्रयाग या प्रयाग राज ही कहते थे।
उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद का नाम बदल कर सही काम किया है।पर, उसे यह काम चुनाव की पूर्व संध्या पर नहीं करना चाहिए था।
योगी जी 2017 में जैसे ही सत्ता में आए तभी उन्हें यह काम कर देना चाहिए था।

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

दिग्विजय सिंह ने बड़ी उम्मीद के साथ  इसी साल 3300 किलोमीटर की नर्मदा यात्रा की थी।
पर,अब चुनाव का समय आया तो कांग्रेस उनका इस्तेमाल ही नहींं कर रही है।
दिग्गी राजा ने बड़ी पीड़ा के साथ कहा है कि ‘...कोई प्रचार नहीं।कोई भाषण नहीं।मेरे भाषण देने से कांग्रेस के वोट कटते हैं।मैं नहीं जाता।’
चिंता मत कीजिए।कांग्रेस का आपका इस्तेमाल करेगी।समय आने पर ।जब जाकिर नाइक जैसे लोगों को शांति दूत कहना होगा।तो आप ही तो काम आएंगे !
  जब मुम्बई पर 2008 में हुए आतंकी हमले पर लिखित अजीज बर्नी की पुस्तक ‘आर. एस.एस. साजिश’ के विमोचन समारोह की अध्यक्षता करनी होगी तो आपका इस्तेमाल होगा।
जब बटाला हाउस इनकाउंटर को फर्जी बताना होगा।
जब करकरे का मामला उठाना होगा।
आप काम आएंगे।
अब वहां  आपका क्या काम जहां मुस्लिम वोट सिर्फ साढ़े छह प्रतिशत ही है !
 मणि शंकर जी तो कुछ दिन के लिए निलंबित भी हुए थे।आप तो एक दिन के लिए भी नहीं हुए।
 इसके लिए उस दल का उपकार मानिए।
  राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्वकाल में एक चर्चित राज्य मंत्री थे।
राष्ट्रपति जैल सिंह और वी.पी.सिंह के खिलाफ बयान देने के लिए उनका खूब इस्तेमाल हुआ था।
अब वे कहां हैं ? आप तो फिर भी किसी पद पर बने हुए हैं।


मैं गत 9 अक्तूबर को लिखे अपने पोस्ट को एक बार फिर 
यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
तब मुझे उम्मीद थी कि एम.जे.अकबर  का जल्द ही इस्तीफा हो जाएगा।पर पता नहीं प्रधान मंत्री ने क्यों इतने दिन लगा दिए ?
2001 में तहलका मामला आने के बाद जार्ज फर्नांडिस से प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस्तीफा ले लिया था।
जबकि जो जानते हैं ,वे कभी जार्ज की ईमानदारी पर शक नहीं करते।
पर लोकतंत्र तो लोकलाज से चलता है।
याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जार्ज को बाद में निर्दोष घोषित कर दिया था।हालांकि बीच में ही जार्ज उसी साल दुबारा मंत्री बन गए थे।
हवाला कांड में नाम आने पर भाजपा ने आडवाणी जी और यशवंत सिन्हा से उनके पदों से इस्तीफा दिलवा दिया था।
  पर, अकबर साहब के मामले मे ंइतनी देरी पर उनके कई समर्थकों को भी प्रधान मंत्री की निर्णय प्रक्रिया को लेकर चिंता हुई।हो सकता है कि अदालत में अंततः अकबर साहब की जीत हो जाए,पर मंत्री रहते अदालती कार्यवाहियों की ‘सूचनाए’ं जब बाहर आतीं तो केंद्र सरकार की काफी फजीहत  होती।

सन 1998 में सहरसा के डी.एस.पी.सतपाल सिंह खूंखार अपराधियों के गिरोह की गोलियों के शिकार हुए तो यह आरोप लगा था कि तत्कालीन एस.पी.ने सूचना मिलने के बावजूद डी.एस.पी.की जान बचाने के लिए समय पर 
अतिरिक्त पुलिस बल नहीं भेजा था।
तब यह भी आरोप लगा था कि राजनीतिक कारणों से एक डी.एस.पी. की जान चली  गयी।
  पर, अब जब शुक्रवार की रात कम पुलिस बल के कारण थानेदार आशीष सिंह की जान चली गयी  तो क्या कहा जाए ?
बिहार पुलिस ने एक डी.एस.पी.गंवा कर भी यह मामूली बात नहीं सीखी कि खूंखार अपराधियों के बड़े गिरोह के मुकाबले के लिए कम पुलिस बल के साथ किसी अफसर को नहीं भेजा जाना चाहिए।
   

बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

मैं तो पत्रकार व लेखक हूं।सैकड़ों शब्दों का रोज ही प्रयोग करता रहता हूंं।
पर,अपने पोता शौर्य व उसके माता-पिता की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं। 

 कम्प्यूटर पर मैं सिर्फ वैसे ही जरूरी काम ही करता हूं
जो अन्य तरीकों से नहीं हो सकता है।
मैं उन अनेक लेखों को आम तौर पर नहीं पढ़ पाता जो मुझे कम्प्यूटर और स्मार्ट फोन पर भेजे जाते हैं।ऐसा मैं अपनी आंखों को बचाए रखने के लिए करता हूं।
 मेरे यहां रोज 12 अखबार आते हैं।यानी मैं अखबारों पर सामान्य से अधिक पैसे खर्च करता हूं । मेरे लिए यह खर्च कुछ ज्यादा है।पर मैं अखबार कम्प्यूटर पर पढ़ कर अपनी आंखें जल्द खराब करना नहीं चाहता।उम्र के लिहाज से मेरी आंखें अभी ठीक हैं।
   इसलिए जो व्यक्ति नियमित रूप से लंबे लेख, अखबार व पत्रिकाएं मुझे नेट और व्हाटसैप पर भेजते हैं,वे कृपया न भेजें तो ठीक रहेगा।इमरजेंसी में  मैं आपसे निवेदन करके मंगवा लूंगा।
यदि अत्यंत जरूरी हो तो रजिस्टर्ड पोस्ट से हार्ड काॅपी भिजवाएं ताकि उन्हें मैं पढ़ पाऊं।वैसे रजिस्टर्ड पोस्ट महंगा पड़ता है,पर उससे अधिक कीमती तो मेरी आंखें हैं।
रजिस्टर्ड पोस्ट इसलिए कह रहा हूं क्योंकि सामान्य डाक पर आप कोई भरोसा नहीं कर सकते।  

करीब डेढ़ दशक पहले धनबाद के जिला परिवहन 
कार्यालय से लिट्टे के प्रभाकरण के नाम ड्राइविंग लाइसेंस जारी हुआ था।उससे एक बार फिर यह साबित हुआ था कि  पैसे के बल पर यहां कोई भी कुछ भी करा सकता है।
  प्रभाकरण प्रकरण के समय ही इस देश के शासकों को चेत जाना चाहिए था।
पर, अपने देश के शासक तो धीमी गति के समाचार की तरह हैं।
 हाल में हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर से बातचीत में सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने यह स्वीकार किया कि ‘इस  देश में 30 प्रतिशत ड्राइविंग लाइसेंस फर्जी हैं।
इसे रोकने के लिए ड्राइविंग लाइसेंस का ई-रजिस्ट्रेशन शुरू किया जा रहा है।’
  याद रहे कि सड़क दुर्घटनाओं में हर साल इस देश में डेढ़ लाख लोगों की मौत हो जाती है।वैसे उसमें चार प्रतिशत की कमी का दावा मंत्री ने किया है।
  जब आप सड़क पर निकलेंगे तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आप कब उन 30 प्रतिशत ड्रायवरों में से किसी एक के सामने आ जाएं !
  जिस राज्य में राजीव गांधी के हत्यारे का भी ड्राइविंग लाइसेंस भी बन जा सकता है,वहां तो यह आंकड़ा 30 प्रतिशत से अधिक ही होगा।मंत्री ने तो औसत राष्ट्रीय आंकड़ा बताया है। 

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

जब मोरारजी ने तारकेश्वरी से पूछा,तुम लिपस्टिक लगाती हो ,कीमती कपड़े पहनती हो ?



    
1957 के आम चुनाव होने वाले थे।
कांग्रेस के केंद्रीय प्रेक्षक बन कर मोरारजी देसाई पटना पहुंचे थे।
गांधी वादी मोरारजी अन्य बातों के अलावा उम्मीदवारों के पहनावे के बारे में भी कड़ाई से पूछते थे।
सन 1952  में सांसद चुनी जा चुकीं तारकेश्वरी सिंन्हा एक बार फिर उम्मीदवार थीं।
 मोरार देसाई ने उनसे पूछा कि ‘तुम लिपस्टिक लगाती हो,कीमती कपड़े पहनती हो  ?’
तारकेश्वरी जी को गुस्सा आ गया।उन्होंने कहा कि ‘ हमारे यहां चूडि़यां पहनना 
अपात्रता नहीं बल्कि क्वालिफिकेशन माना जाता है।
आप जो शाहहूश की  बंडी पहने हैं,इसकी कीमत से मेरी छह कीमती साडि़यां आ सकती हैं।
उसके बाद तारकेश्वरी सिन्हा ने जवाहरलाल नेहरू को चिट्ठी लिखी कि आप कैसे -कैसे प्रेक्षक भेजते हैं ?
खैर यह तो पहली मुलाकात थी।
चुनाव के बाद नेहरू जी ने एक दिन संसद में नयी मंत्री तारकेश्वरी का परिचय कराते हुए कहा कि ‘ये इकाॅनोमिक अफेयर की मंत्री हैं।’
 इस पर फिरोज गांधी ने उठकर तपाक से सवाल किया, ‘सर,ये क्या बात है ! जहां कहीं अफेयर की बात चलती है ,स्त्री अवश्य होती है।’
 इसी तरह की टीका -टिप्पणियों,छींटाकशी व अफवाहों के बीच पुरूष प्रधान राजनीति की उबड़-खाबड़ जमीन  में तारकेश्वरी सिन्हा ने शान से दशकों बिताए।उन दिनों ‘मी टू’ का तो जमाना  था नहीं।पर महिला कार्यत्र्ताओं व नेताओं की राह आसान भी नहीं थी।
 अस्सी के दशक में तारकेश्वरी सिन्हा ने पद्मा सचदेव के साथ अपने तरह -तरह के खट्ठे-मीठे अनुभव साझा किए थे।
दिवंगत श्रीमती सिन्हा ने कहा था कि ‘सबसे बड़ी बात यह रही कि मेरे परिवार ने मुझे पूरा सपोर्ट किया।हां,राजनीति की व्यस्तता में बच्चे अवश्य  उपेक्षित हुए।’
  याद रहे कि तारकेश्वरी सिन्हा 1952, 1957 ,1962 और 1967 में बिहार से लोक सभा की सदस्य रहीं।
बाद में उन्होंने कई चुनाव लड़े,पर कभी सफलता नहीं मिली।
  तारकेश्वरी सिन्हा हिन्दी और अंग्रेजी में धारा प्रवाह बोल सकती थीं।
 सैकड़ों शेर ओ शायरी उनकी जुबान पर रहती थीं।उन्हें बहस में शायद ही कोई हरा पाता था।पलट कर माकूल जवाब देने में माहिर थीं।
    पद्मा सचदेव ने एक दिन तारकेश्वरी जी से पूछा,संसद में आपके बड़े चर्चे रहते थे।इनमें से कुछ सच भी था ?मेरा मतलब है कि कभी बहुत अच्छा लगा क्या ?
तारकेश्वरी जी ने जवाब दिया,‘मैंने आसपास जिरिह बख्तर
@लोहे का पहनावा@पहन रखा था।फिर भी लोहिया जी बड़े अच्छे लगते थे।
बड़े शाइस्ता @ उम्दा@ आदमी थे।छेड़ते बहुत थे।हमारे व्यक्तित्व को पूर्णतः भरने में बड़ा हाथ था उनका।
फिरोज के साथ हम अपने -आप को बेहद  सुरक्षित समझते थे।उनसे बात करके अहसास होता था कि मैं भी इंनसान हूं।बड़े  रसिक व्यक्ति थे।अब ऐसे लोग कहां जो भीतर -बाहर से एकदम स्वच्छ हों।
फिरोज भाई ने ही मुझे अहसास दिलाया कि मैं खिलौना नहीं हूं।हम अच्छे दोस्त थे।
लोग इंदिरा के कान भरते रहते थे।एक बार किसी ने कहा कि आप गलतफहमी दूर करवाइए,इंदिरा जी आपकी बड़ी खिलाफ हैं।
पर मैंने सोचा कि इसके लिए कोई कारण तो है नहीं।अगर मैं फिरोज भाई से बात करती हूं तो इसमें कौन सी गलतफहमी पैदा हो जाएगी ?
हालांकि इंदिरा जी ने बाद के कई वर्षों तक तारकेश्वरी जी को माफ नहीं किया।
1969 में कांग्रेस में हुए महा विभाजन के बाद तारकेश्वरी जी संगठन कांग्रेस में रह गयी थीं।इंदिरा जी ने अलग पार्टी बना ली।
1971 के चुनाव में तारकेश्वरी सिन्हा संगठन कांग्रेस की ओर से बाढ़ में ही लोक सभा की उम्मीदवार थीं।
उस साल मधु लिमये मुंगेर से लड़ रहे थे।
इंदिरा जी ने पटना में मशहूर कांग्रेसी नेता राम लखन सिंह यादव के सामने अपना आंचल फैला दिया।कहा कि हमें मुंगेर और बांका सीट दे दीजिए।
उन दिनों राम लखन जी ही बिहार में यादवों के लगभग एकछत्र नेता थे।
इन दोनों चुनाव क्षेत्रों में यादवों की अच्छी -खासी आबादी थी।
1971 में मधु लिमये और तारकेश्वरी सिन्हा हार गए।
जिन उम्मीदवारों ने हराया था,वे दोनों केंद्र में उप मंत्री बन गए थे।
हालांकि बाद में समस्ती पुर लोक सभा उप चुनाव में तारकेश्वरी जी इंदिरा कांग्रेस की ओर से उम्मीदवार बनी थीं।हालांकि वह हार गयीं।कर्पूरी ठाकुर के इस्तीफे से वह सीट खाली हुई थी।
मोरारजी देसाई के बारे में तारकेश्वरी सिन्हा ने पद्मा जी को बताया था कि ‘जब मैं मोरारजी भाई की डिप्टी थी तो कामकाज के सिलसिले में उनके पास आना -जाना पड़ता था।
वो पंखा नहीं चलाते थे।
पर हम जाते तो चलवा देते थे।हमंे बहुत मानते थे।एक बडे़ पत्रकार ने लिख दिया कि हमारा उनसे अफेयर चल रहा है।
अब बताइए कि अगर कोई पुरूष उनका डिप्टी होता  और मिलता -जुलता तो कोई ऐसी बात तो न करता।पर मैं डिप्टी थी और स्त्री भी।यह सब खराब लगता था।
चूंकि यह सब अखबारों में आता था।मेरे पति भी यह सब बात सुनते थे,पर वे विश्वास नहीं करते थे।’
तारकेश्वरी जी के अनुसार, ‘मोरारजी को देख कर पंडित जी @प्रधान मंत्री @हमेशा कहते थे कि तारकेश्वरी ने मोरारजी को लकड़ी के कुंदे से इनसान बना दिया।
तारकेश्वरी सिन्हा ने एक बार कहा था कि ‘रात के अंधेरे में भी मोरारजी के कमरे  में जाकर  कोई जवान और सुंदर महिला सुरक्षित वापस लौट कर आ सकती है।’ 
@हिन्दी फस्र्टपोस्ट में 15 अक्तूबर, 2018 को प्रकाशित मेरे साप्ताहिक काॅलम ‘दास्तान ए सियासत’ से@ 


तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने 
इस माह सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया कि
मेरे गवर्नर बनने से पहले तमिलनाडु में विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर पद पर बहाली के लिए करोड़ों रुपए हाथ बदलते थे।@इंडियन एक्सप्रेस-8 अक्तूबर 2018@
फरवरी में एक वाइस चांसलर कोयम्बतूर में घूसखोरी के आरोप में गिरफ्तार भी हुए थे।
देवानंद कुंवर जब बिहार के राज्यपाल थे तो कांग्रेस की  विधायक ज्योति ने सार्वजनिक रूप से उनसे यह सवाल पूछा था कि ‘वाइस चांसलर की बहाली में आपके यहां क्या रेट चल रहा है ?’याद रहे कि राज्यपाल विश्व विद्यालयों के चांसलर होते हैं।
उस खबर के बाद शायद लोगों को लगा होगा कि यह सिर्फ बिहार की ‘विशेषता’ है।पर तमिलनाडु की ताजा खबर से अधिक चिंता होती है।
यानी लगता है कि अपवादों को छोड़कर लगभग पूरे देश का यही हाल है।
जब वाइस चांसलर रिश्वत देकर अपना पद संभालेगा तो जाहिर है कि वह बाद में खुद रिश्वत वसूलेगा।फिर शिक्षा व परीक्षा का क्या होगा ?
वही होगा जो हो रहा है।मेडिकल-इंजीनियरिंग सहित देश में कितनी परीक्षाएं आज कदाचारमुक्त हो रही हैं ?
सुना है कि बिहार में नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी में कदाचार नहीं होता।पर ऐसे कितने अन्य संस्थान हैं ?
कैसे सुधरेगी देश की शिक्षा ? कौन सुधारेगा ? 

रविवार, 14 अक्तूबर 2018

असली गंगा जल की पटना में उपलब्धता की उम्मीद से खुशी



 केंद्र सरकार ने यह  उम्मीद जगाई है कि अब ‘असली गंगा जल’ जल्द ही पटना के किनारे बह रही नदी में भी उपलब्ध होगा।
पटना के किनारे जो नदी बहती है,उसे अब भी हम भले गंगा नदी ही कहते हैं,पर उसमें जो पानी बहता है,उसमें असली गंगा जल नहीं होता।
असली गंगा जल वह है जो  गोमुख से निकलता है और
अपने में औषधीय गुण समेटे हुए आगे बढ़ता है।
पर पटना पहुंचने से काफी पहले उसे बीच में ही रोक लिया जाता है। गंगा में जो जल हम यहां पाते हैं,वह वर्षा,सहयोगी नदियों और नालों का मिलाजुला पानी है जो पीने योग्य कौन कहे, छूने -नहाने लायक भी नहीं है।
अब एक नई खबर आई है।बिहार और पटना के लिए इससे बेहतर खबर हो ही नहीं सकती।
अब यहां भी असली ‘गंगा जल’ गंगा नदी में सालों भर मिल सकेगा।
केंद्र सरकार ने हर मौसम में गंगा नदी में असली गंगा जल का एक निश्चित प्रवाह बनाए रखने से संबंधित अधिसूचना जारी कर दी है।
खबर के अनुसार हरिद्वार स्थित बैराज से हर साल अक्तूबर से मई तक 36 क्यूबिक मीटर पानी प्रति सेकेंड छोड़ना होगा।
  पर सवाल है कि मात्र इतने पानी से पूरी गंगा नदी में अविरलता व निर्मलता बनी रह सकेगी  ? यह तो बाद में पता चलेगा।
इस बारे में विशेषज्ञ बताएंगे।
 पर, चलिए शुरूआत अच्छी है।उम्मीद है कि औषधीय गुणों वाला पानी पटना भी अब लगातार पहुंचेगा।
ऐसा नहीं होना चाहिए कि 2019 के चुनाव के बाद एक बार फिर रुक जाए।
 वर्षों से यह मांग होती रही है कि गंगा में अविरलता के बिना निर्मलता नहीं आएगी।
आजादी के समय तक  गोमुख से गंगा सागर तक गंगा जल अपने औषधीय गुणों के साथ बहता रहता  था।अंग्रेजों ने भी हमारी गंगा को बर्बाद नहीं किया था।
अकबर बादशाह तो रोज ही गंगा जल पीता था।
पर, आजाद भारत के हमारे नीति निर्धारकों ने गंगा जल को बीच मंे ही रोक लिया।गंगा को प्रदूषित कर दिया या हो जाने दिया।
उसे हाईड्रो प्रोजेक्ट,बराज व नहरों के जरिए बर्बाद किया गया।इनका विकल्प खोजा जा सकता था।
किसी अन्य देश में औषधीय गुण लिए जल वाली कोई इतनी बड़ी , लंबी और पवित्र नदी होती तो उस देश के हुक्मरान उसे संभाल कर रखते।
बेहतर तो यह होगा कि अविरल गंगा की राह में जितनी भी बाधाएं हैं,उन्हें अब भी दूर कर दिया जाए।साथ ही उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड को उससे जो क्षति हो,उसकी पूत्र्ति देश के अन्य हिस्सों के लोग करें।
  अविरलता भी पूरी होनी चाहिए,अधूरी नहीं।
14 जून 1986 को तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की महत्वाकांक्षी योजना की शुरूआत वाराणसी में की थी।
तब से हजारों करोड़ रुपए उस पर खर्च हो गए।पर गंगा और अधिक प्रदूषित होती चली गयी।क्योंकि उसे अविरल बनाने पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया।
 हाल में कई शहरों में जो वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की जो बड़ी शुरूआत हुई है,उससे थोड़ा फर्क पड़ेगा।
पर पूरा फर्क तो अविरल बनाने से ही पड़ेगा। 
-- सुरक्षा गार्डों पर खर्च करें दुकानदार--
पटना के डी.एम.ने आदेश दिया है कि दुकान के सामने रोड पर कोई पार्किंग नहीं होगी।
पार्किंग तो पार्किंग के लिए निर्धारित स्थलों पर ही होनी चाहिए।पटना के डी.एम.का यह आदेश कानूनन भी है और मौजूं भी।
 ऐसे आदेश को तो  राज्य के सभी नगरों में लागू किया जाना चाहिए।
पर,सवाल है कि इसे लागू करने की ताकत दुकानदारों के पास है ?
कितने वाहन चालक इसे मानेंगे ?
यदि नहीं मानेंगे तो हर मार्केट के दुकानदार अपने बाजार के लिए निजी सुरक्षा गार्ड भाड़े पर रख लें।
 यदि आपने  बिना पार्किंग की व्यवस्था वाली  दुकानों को   भाड़े पर ले लिया है तो उसके दंड के रूप में सुरक्षा गार्डों पर आपको खर्च तो करना ही चाहिए।
दरअसल शहर में पार्किंग का उचित प्रबंध हो जाए तो कई दुकानदारों की आय भी बढ़ जाएगी।
पार्किंग के अभाव में कई खरीदार पटना के कुछ खास इलाकों में स्थित बाजारों में चाह कर भी नहीं जा पाते।
--पारदर्शी हेलमेट क्यों नहीं !--
अक्सर यह बात सामने आती है कि हत्यारे  ने हेलमेट पहन रखा था,इसलिए सी.सी.टी.वी. कैमरे में उसका चेहरा नहीं आ सका।
 विज्ञान काफी  प्रगति कर चुका है।
 कारों में बुलेट प्रूफ पारदर्शी शीशे लगाए जाते हैं।फिर हेलमेट
में ऐसा  शीशा क्यों नहीं लगाया जा सकता है जो टूटने वाला नहीं हो।यानी जो किसी दुर्घटना की स्थिति में भी न टूट सके।
हां,थोड़ा महंगा जरूर पड़ेगा,पर आजकल मोटर साइकिलें भी तो बहुत महंगी आ रही हैं।लोगबाग उसे भी खरीद ही रहे हैं।
जब हत्यारों व लुटेरों से आम लोगों को बचाना हो तो उसके लिए कुछ विशेष उपाय तो करने ही होंगे।
इसलिए सरकारों को चाहिए कि वे हेलमेट निर्माताओं से कहे कि वे नहीं टूटने वाले शीशे वाले हेलमेट बनाएं।
धीरे -धीरे ऐसे हेलमेट को प्रचलन से बाहर किया जाए जिसे पहनने पर चेहरा छिप जाता है। 
-- घोटालों पर एक और  पुस्तक-
बिहार के ताजा घोटालों पर सुशील कुमार मोदी की पुस्तक आई है।
इससे पहले नब्बे के दशक में तब के घोटालों पर सरयू राय की एक पुस्तिका आई थी।
उस पुस्तिका में  जिन घोटालों के सप्रमाण विवरण दिए गए थे,उनमें से अधिकतर मामलों में सजाएं हुई हैं।हो रही हैं।
अब देखना है कि मोदी जी की पुस्तक में वर्णित घोटालों से संबंधित मुकदमों का क्या हश्र होता है।
चिंता की बात यह है कि सिर्फ बिहार ही नहीं,बल्कि अपना यह देश  घोटाले के एक दौर से निकल कर दूसरे दौर में प्रवेश कर जाता है।घोटाले बाजों को जेल के बाहर व भीतर बहुत कष्ट भी होते हैं।फिर भी घोटाले नहीं रुकते।तरह -तरह के घोटालों के लिए इस देश के अधिकतर दलों को समय -समय पर  कमोवेश परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार बताया जाता है।
 सब जानते हैं कि कफन में जेब नहीं होती,फिर भी घोटाले होते ही जाते हैं।पता नहीं,यह सब कब रुकेगा और कौन रोकेगा ?  
      --भूली बिसरी याद--
11 अक्तूबर जेपी का जन्म दिन है तो 12 अक्तूबर लोहिया की पुण्य तिथि।
ऐसे में यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि ये दिग्गज नेता द्वय एक दूसरे के बारे में क्या सोचते थे।
उनकी चिट्ठियों से तो एक झलक मिलती ही है।
30 मार्च 1954 को डा.राम मनोहर लोहिया ने जय प्रकाश नारायण को लिखा कि ‘देश से तुम्हारा ममता का संबंध है।देश और पार्टी को  हिलाने का समय आ गया है।
जैसा तुम हिला सकते हो,वैसा और कोई नहीं हिला सकता।
मुझसे वह काम नहीं हो सकता।’
  डा.लोहिया ने लिखा कि अब तो देवघर में भी पंडों के यहां मेरे वंश का खाता बंद हो चुका है।मथुरा में पहले ही हो चुका है।मेरा रास्ता और कुछ है।
 कुछ -कुछ तुम्हारा भी वही हाल  है,पर तुम्हारी बीवी,भाई भतीजे हैं।तुम्हीं देश के नेता हो सकते हो।
मेरी अंतरात्मा कहती है कि तुम्हें पार्टी संभालनी चाहिए।’
उसके जवाब में जय प्रकाश नारायण ने लिखा, ‘तुम्हारे स्वास्थ्य के बारे में बेनी पुरी जी से हाल मिला था।चिंता हुई थी और है।उसके संभाल के लिए यत्न करना चाहिए।
मेरे जो इस समय विचार हैं,उसे जानते हुए यह प्रस्ताव तुम्हें नहीं करना चाहिए।
देश को हिला सकने की शक्ति मुझमें न कभी थी ,न आज है।न उस प्रकार हिलाने का मेरे लिए बहुत महत्व है।
और मैं खुद जो हिल चुका हूं।’   
      --और अंत में-
‘मी टू’ यानी ‘मैं भी अभियान’ के तहत लगाए जा रहे आरोपों  को यदि गंभीरता से लिया जाए और सबूत मिलने पर दोषियों को सजा भी मिलने लगे,तो राजनीतिक क्षेत्र में
 आधी आबादी की संख्या बढ़ जाएगी।
इससे देश व समाज को अन्य तरह के भी फायदे होंगे।
@ 12 अक्तूबर, 2018 को प्रभात खबर-बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम ‘कानोंकान’ से@


शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

मैंने अपने छात्र जीवन में एक धर्माेपदेशक को सुना था।
वे कह रहे थे कि लोग पैसे में अनंत को खोजते हैं।यानी उन्हें अनंत पैसे चाहिए।
पर पैसे तो अनंत नहीं हैं।अनंत तो सिर्फ ईश्वर है।उसी में खुद को विलीन कर लो।
 यदि तुम्हारे पास एक लाख रुपए हैं तो तुम चाहोगे कि एक करोड़ हो जाए।एक करोड़ हो गया तो चाहोगे एक अरब हो जए ।फिर जीवन भर खरब,नील,पद्म और संख की ओर दौड़ लगाने की कोशिश करते रहोगे।
  पर रुपए तो अनंत नहीं हैं।इसलिए रुपए के चक्कर में तुम कभी सुखी और संतुष्ट नहीं हो सकते ।
हां, ईश्वर अनंत है।असीमित है।उसमें खुद को समाहित कर दो।तुम्हें अपार सुख मिलेगा।
  आज के अर्थ लोलुप लोगों को देख कर वह उपदेश कभी -कभी याद करता हूं।
देखता हूं कि कई लोगों के जीवन में बेशुमार दौलत अपार परेशानियां भी लाती हंै।कई साल पहले मुम्बई में दौलत के लिए एक सगे भाई ने भाई की हत्या कर दी।भाई नामी हस्ती था।
उसने नाजायज तरीके से कुछ अरब कमाए थे।भाई ने कहा कि उसमें से दो अरब मुझे दे दो।पैसे के चक्कर में कई लोगों को जेल की चक्की पीसनी पड़ती है।
इस तरह के अनेक दुःख -तकलीफें भोगनी पड़ती है।
पर जब होश आते हैं तब तक देर हो चुकी होती है।
काश ! छात्र जीवन में ही कोई  उपदेशक अर्थ का घन चक्कर छोड़ने के लिए किशोर मन को समझाता।
शायद उनमें से कुछ छात्रों पर असर पड़ जाता।  

भारतीय प्रतिष्ठाधिकार आयोग जरूरी


पत्रकार व लेखक आर.जगन्नाथन ने ठीक ही लिखा है कि
‘मी टू’ के तहत तमाम महिलाओं ने जो अपनी व्यथा बयान की है ,उसमें मीडिया सहित तमाम क्षेत्रों की बड़ी हस्तियों के नाम भी सामने आ रहे हैं।
ऐसे में शिकायतों के संज्ञान,जांच और न्याय के लिए हमें  एक स्थायी तंत्र की दरकार है।
यह कोई इक्का-दुक्का मामला नहीं,बल्कि महामारी जैसी स्थिति है।’ 
 जगन्नाथन के कथन का पूर्ण समर्थन करते हुए मैं भी यह महसूस करता हूं कि मानवाधिकार आयोग की तरह इस देश में ‘प्रतिष्ठाधिकार आयोग’ का गठन होना चाहिए।
 आज राजनीति में पर्याप्त  संख्या में महिलाओं के न आने का 
सबसे बड़ा कारण मैं इसे ही मानता हूं।
आज महिलाओं के नाम पर  राजनीति में छोटे-बड़े  नेताओं की पत्नियां,बेटियां  व अन्य करीबी रितेदार ही अधिक हैं।उनकी संख्या बढ़ती जा रही हैं।
 सामान्य परिवारों की महिलाओं के लिए बड़ी दिक्कतें हैं।और कुछ नहीं तो उन्हें नाहक बदनाम कर देने का प्रचलन राजनीति में बहुत है।
  यदि राजनीति में रह चुकी महिलाएं ‘मी टू’ अभियान में शामिल हो जाएं तो इस देश के अनेक दिवंगत व मौजूदा नेताओं का असली चेहरा सामने आ जाएगा।
इस ‘मी टू’ अभियान से यह तो हो ही सकता है कि आगे कोई ‘शर्म हया’ वाला व्यक्ति ऐसा कुछ करने से पहले कई बार सोचेगा।पर सवाल यह भी है कि कितने प्रभावशाली लोगों के पास शर्म हया बचा हुआ है ? बेशर्म लोगों की हरकतें तो जारी ही रहनी हैं। 
फिर भी उम्मीद की जाए कि यदि कोई आयोग बन जाए तब कुछ तो फर्क आ ही सकता है।
  

डा.राम मनोहर लोहिया की याद में
उनके बारे में कुछ बातें
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1.-सन 1967 में 12 अक्तूबर को डा.लोहिया का निधन हो गया।
दिल्ली के वेलिंगटन अस्पताल में उनके प्रोस्टेट का आपरेशन विफल रहा था।डाक्टरों की लापारवाही सामने आई थी।
अदम्य स्वंतत्रता सेनानी व समाजवादी विचारक डा.राम मनोहर लोहिया अपना आपरेशन जर्मनी में करवाना चाहते थे,पर समय पर पैसे का जुगाड़ नहीं हो सका था।
तब बिहार सहित कई राज्यों की सरकारों में उनके दल के मंत्री थे।लोहिया अपने दल के सर्वोच्च नेता थे।
पर,उन्होंने कह रखा था कि मेरे आपरेशन के लिए चंदा वहां से नहीं आएगा जिन राज्यों में हमारी पार्टी यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मंत्री हैं।मात्र 12 हजार रुपए का प्रबंध करना था।
2.-लोहिया ने कहा था कि राजनीति में रहने वालों को अपना परिवार खड़ा नहीं करना चाहिए ।
वे खुद कंुवारे रहे।
3.-उनका कोई बैंक खाता नहीं था।न ही उन्होंने अपना कोई मकान बनाया और न अपने लिए कार खरीदी।
4.-पर जब लोक सभा में बोलने के लिए खड़ा होते थे सत्ताधारी बेंच सहम जाता था।
5.-उत्तर प्रदेश में मारवाड़ी पिछड़े समुदाय में नहीं आते।फिर भी लोहिया ने नारा दिया,‘पिछड़े पावें सौ में साठ।’
6.-जर्मनी से पीएच.डी.व कई पुस्तकों के लेखक लोहिया का आजादी की लड़ाई में बहुत बड़ा  योगदान था।
7.-लोहिया रिक्शे की सवारी नहीं करते थे।कहते थे कि आदमी को आदमी खींचता है,यह ठीक नहीं।
वे यदाकदा जरूरत पड़ने पर साइकिल की पिछली सीट पर बैठकर भी एक जगह से दूसरी जगह जाते थे।
8.-साठ के दशक में रांची में उनकी पार्टी की बैठक थी।एक कार्यकत्र्ता के बारे में उन्हें सूचना मिली कि वह शराब बेचता है।उन्होंने उसे बुलाया।पूछा,शराब बेचते हो ?
उसने हां कहा ।कहा कि मेरा भोजनालय है जिसमें शराब भी बिकती है।
लोहिया ने कहा कि यदि हमारी पार्टी में रहना हो तो शराब की दुकान बंद करके आओ।उस कार्यकत्र्ता ने शराब बेचनी बंद कर दी। 
9.-सामान्य व्यक्ति लोहिया नहीं बन सकता।जरूरत भी नहीं।
पर जो देश सेवा के नाम पर राजनीति में जाते हैं,उन्हें लोहिया के आदर्श पर चलने की कम से कम कोशिश तो करनी चाहिए।अन्यथा, वे लोहिया का जन्म दिन व पुण्यतिथि नाहक मनाते हैं। 



गुरुवार, 11 अक्तूबर 2018

कहीं पढ़ा था कि बादशाह अकबर रोज गंगा जल पीता था।
अंग्रेजों के भारत छोड़ने के कुछ समय बाद तक भी गंगा निर्मल व अविरल रही।
बचपन में मैं परिवार के साथ गंगा नहाने जाता था।
गंगा किनारे घुटने तक पानी में खड़े होकर मैं साफ-साफ अपने पैरों की अंगुलियां देख सकता था।
पर बाद के वर्षों में बराज,हाइड्रो प्रोजेक्ट और नहर बना कर औषधीय गुणों वाली गंगा को बर्बाद कर दिया गया।
प्रदूषण के कई अन्य कारण भी रहे। 
 अत्यंत गुणकारी जल वाली ऐसी नदी यदि किसी अन्य देश के पास होती तो न जाने वह कितना संभाल कर इसे रखता !

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

सन 1988 में तत्कालीन मुख्य मंत्री भागवत झा आजाद ने 
मध्य प्रदेश काॅडर के आई.पी.एस.अफसर एम.कुरैशी को
बिहार का डी.जी.पी.बनाया था।
यदि बिहार में ही ‘अपराधियों-माफियाओं के काल’ के रूप में काम करने वाले कोई आई.पी.एस.अफसर उपलब्ध हों तब तो ठीक ही रहेगा।यदि उपलब्ध नहीं हांे तो बिहार सरकार को चाहिए कि वह सन 1988 वाला प्रयोग करके देखे।कुरैशी साहब तो ज्यादा कड़क साबित नहीं हो सके थे।शायद अगली बार वाले साबित हों।
इस बार देश भर से किसी कड़क अफसर की तलाश कर लीजिए।
क्योंकि कम से कम मौजूदा डी.जी.पी के.एस.द्विवेदी के अवकाश ग्रहण के बाद तो कानून -व्यवस्था वैसा ही हो जाए जैसा 2005 के बाद के कुछ वर्षों तक  था।
मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को चाहिए कि वे अपने इस यू.एस.पी.को  तो किसी कीमत पर बनाए रखें।

जब चंद्रशेखर ने इंदिरा -संजय को पटना में जेपी समर्थक उग्र भीड़ से बचाया


         
 9 अक्तूबर 1979 । पटना के श्रीकृष्ण स्मारक भवन में जय प्रकाश नारायण का शव अंतिम दर्शन के लिए रखा गया था।
संजय गांधी के साथ इंदिरा गांधी वहां पहुंचीं।
  इंदिरा जी की कार जैसे ही भवन के द्वार पर पहुंची,युवा कांग्रेसियों ने  उनके पक्ष में तेज नारे लगाने शुरू कर दिए।
 प्रतिक्रियास्वरूप जेपी और युवा जनता से जुड़े युवजनों ने इंदिरा गांधी मुर्दावाद का नारा शुरू  किया।
एक तरफ युवा कांग्रेसी और दूसरी ओर वाहिनी और युवा जनता के कार्यकत्र्तागण।
दोनों एक दूसरे पर टूट पड़े।अजीब तनावपूर्ण दृश्य उपस्थित हो गया।
 स्थिति बिगड़ते देख जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर तेजी से इंदिरा जी के पास पहुंच गए।
चंद्र शेखर जी ने इंदिरा जी के अगल -बगल अपनी बांहों का घेरा बनाया और हाथापाई पर उतारू भीड़ को बुरी तरह फटकारा।
 वह चंद्र शेखर के दबंग व्यक्तित्व का ही असर था कि इंदिरा-संजय के साथ उस दिन कोई अप्रिय घटना नहीं हुई।
  पटना में श्रीकृष्ण स्मारक भवन से जब जेपी का शव पास ही बह रही गंगा नदी किनारे श्मशान घाट पहुंचा तो वहां भी एक अप्रिय दृश्य इंतजार कर रहा था।
प्रधान मंत्री चरण सिंह,राज नारायण और जार्ज फर्नांडिस के खिलाफ नारे लगाए गए।उन्हें दल बदलू कहा गया।
दरअसल जेपी आंदोलन और आपातकाल से जन्मी  मोरारजी सरकार  को दल बदल कर गिराने वाले चरण सिंह तथा उनके समर्थकों पर पटना के अनेक लोग सख्त नाराज थे।
 खैर, इन दो दृश्यों के अलावा जेपी की ऐतिहासिक शव यात्रा में बाकी सब कुछ ठीकठाक गुजरा।
शव यात्रा में करीब 15 लाख लोग शामिल हुए थे।
इनके अलावा अंतिम दर्शन के लिए बाहर से आए व्यक्तित्वों  में राष्ट्रपति एन.संजीव रेड्डी,प्रधान मंत्री चरण सिंह,पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई,आचार्य जे.बी.कृपलानी,नाना जी देशमुख और जगजीवन राम प्रमुख थे।
इनके अलावा कश्मीर,महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश,तमिलनाडु ,पंजाब,उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के मुख्य मंत्री शोकगस्त भीड़ में शामिल थे।
  उससे पहले 8 अक्तूबर, 1979 की सुबह पटना के कदम कुआं स्थित उनके आवास में जेपी का 77 साल की उम्र में निधन हो गया।
स्वतंत्रता सेनानी व 1974 के चर्चित बिहार आंदोलन के नेता जय प्रकाश नारायण की किडनी  उस समय खराब हो गयी थी जब वे आपातकाल में जेल में थे।
करीब चार साल से वे डायलिसिस पर थे।
8 अक्तूबर की सुबह करीब 4 बजकर 40 मिनट पर  जेपी की नींद खुली।
फारिग होकर हाथ पैर धोया और फिर लेट गए।
सेवक अमृत से उन्होंने समय पूछा और कहा कि तुम जाओ अब मैं सोऊंगा।पर अमृत कुछ देर तक वहीं रहा।फिर बाहर आ गया।
कुछ देर बाद जब दूसरा सेवक गुलाब भीतर गया तो देखा कि 
जेपी का एक हाथ लटका हुआ है।
तुरंत डाक्टर बुलाए गए।डा.सी.पी.ठाकुर उनके निजी चिकित्सक थे।
डाक्टर ने उनमें चेतना लाने की कोशिश की ,किन्तु सब बेकार।
सत्ता की राजनीति से दूर रहे जय प्रकाश नारायण के निधन पर सी.पी.आई.के अध्यक्ष एस.ए.डांगेे ने कहा था कि ‘राष्ट्र ने एक बेचैन आत्मा खो दी है।’
संयुक्त राष्ट्र महा सभा के अध्यक्ष सलीम ने महा सभा की कवर्यवाही रोक कर जेपी के निधन की सूचना दी और कहा कि ‘वह अन्याय के खिलाफ चाहे वह किसी भी शकल में हो,
आंदोलन करते रहे।
 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी के सत्ताच्युत होने का कारण जेपी ही बने थे।फिर भी इंदिरा जी उनके अंमित दर्शन के लिए पटना पहुंचीं।
1977 में मोरारजी देसाई को प्रधान मंत्री बनाने में जेपी और जे.बी.कृपलानी की मुख्य भूमिका थी।हालांकि बाद में मोरारजी से जेपी का मन मुटाव हो गया था।
उस समय की राजनीतिक-प्रशासनिक स्थिति से क्षुब्ध जेपी ने तो एक बार एक भेंट वात्र्ता में  यहां तक कह दिया था कि यदि अब नक्सली हथियार उठाएंगे तो मैं उन्हें नहीं रोकूंगा।
 उससे पहले 1969 के मुसहरी नक्सल कांड के शमन के लिए जेपी ने वहां कैम्प किया था।
फिर भी मोरारजी देसाई भी जेपी के अंतिम दर्शन के लिए पहुंचे।
राष्ट्रपति ऐसे अवसरों पर कम ही निकलते हैं।पर  नीलम संजीव रेड्डी के लिए वह तो विशेष अवसर बना ।
बिहार के जो लोग उस दिन पटना नहीं पहुंच सके थे,उन लोगों ने अपने -अपने शहरों में शोक जुलूस निकाला और शोक सभाएं कीं।
उन दिनों परिवहन के साधन कम थे।यहां तक कि पटना के निकट तब तक गंगा में कोई पुल भी नहीं था।
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अपनी विशेष बैठक कर सात दिनों तक शोक मनाने का निर्णय किया।
बिहार सरकार ने 13 दिनों तक शोक मनाया।
सत्ता से जुड़े नहीं रहने के बावजूद देश -विदेश से शोक संवदेनाएं प्रकट करने की  इतनी अधिक खबरें आई थीं कि वह संख्या हैरान करने वाली थी।
@ यह लेख 8 अक्तूबर 2018 के फस्र्टपोस्ट हिन्दी में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक काॅलम ‘दास्तान ए सियासत’ से@


जबल पुर आम्र्स फैक्ट्री से ए के -47 अवैध ढंग से निकाले 
जाते थे और उन्हें 900 किलोमीटर दूर मुंगेर पहुंचा कर 
बेचे जाते थे।
 फैक्ट्री के रद किन्तु  मरम्मत योग्य हथियार आयुध कारखाने के कर्मचारी के सहयोग  से  तस्कर के हाथ पहुंच जाते थे।तस्कर उन्हें मरम्मत करवा कर मुंगेर पहंुचा देते थे।
  आखिर ये अवैध हथियार कैसे 900 किलोमीटर चले और बीच में किसी पुलिस ने नहीं पकड़ा ?
कैसे पकड़ेगी ? सबके हिस्से बंधे जो होते हैं।
लंबे समय से ऐसे ही यह देश चल रहा है।
 हालत तो यह है कि किसी दिन कोई विदेशी हमारे देश में 
और भी खतरनाक काम कर सकता है।
क्योंकि यहां बिकने के लिए अनेक लोग सदा तैयार रहते हैं।ऐसे देशद्रोहियों को बचाने वाले लोग भी यहां मौजूद हैं।ऐसे लोगों के लिए आधी रात में सुप्रीम कोर्ट भी खुलवा दिया जाता है।
  मुंगेर कांड की तरह कुछ अन्य कांड़ों के उदाहरण यहां पेश हैं।
1995 में एक छोटे विदेशी विमान से बहुत सारे हथियार पश्चिम बंगाल में गिरा दिए गए।
वे हथियार पश्चिम बंगाल के सत्ताधारी कम्युनिस्टों से लड़ने के लिए कुछ लोगों ने बाहर से मंगवाए थे।
चाहे जिस उद्देश्य से आए हों,पर यहां पहंुचाने के तरीके बताए जा रहे हैं ताकि हमारे हुक्मरानों की नींद  अब भी तो खुले।
 उस विमान ने उससे पहले मद्रास में ईंधन भी लिया था।
बाद मंे यह भी पता चला कि उस हथियार वाले विमान के पुरूलिया आने के समय कलकत्ता एयरपोर्ट पर स्थित  चारों मशीनें मरम्मत के लिए बंद थीं जिनसे अवांछित विमानों की पहचान होती है।नियमतः बारी -बारी से ऐसी मशीनों  की मरम्मत की जाती  है।
   1993 में बंबई को दहलाने के लिए पाकिस्तान से बड़ी मात्रा में विस्फोटक पदार्थ समुद्री मार्ग से आसानी से बंबई पहंुचा दिए गए थे।उसके लिए पुलिस व कोस्ट गार्ड ने रिश्वत ली थी।
स्मगलर पहले एक डोंगी को पार कराने के लिए 350 रुपए घूस देते थे।
जब विस्फोटक पदार्थों के प्रति तस्करों की सावधानी देखी तो भ्रष्ट कोस्ट गार्ड और पुलिस ने उनसे कहा कि लगता है कि कोई कीमती चीज है।ज्यादा पैसे लगेंगे।तस्करों ने रिश्वत दुगुनी कर दी थी।जाहिर है कि रिश्वत के पैसे ऊपर तक जाते हैं।
  आपातकाल में गुजरात से दो बार डायनामाइट पटना आसानी से आ गया था।एक बार बिहार के लोग लाए,दूसरी बार गुजरातियों ने पहुंचाया।डायनामाइट आपातकाल से लड़ने के लिए आए थे।
 सोहराबुद्दीन का नाम सुना होगा। 2005 में वह मारा गया था।वह गुजरात सहित तीन राज्यों के मार्बल व्यवसायियों से हफ्ता वसूलता था और न देने पर हत्याएं करता था।
उसके मध्य प्रदेश स्थित गांव के कुएं से पुलिस ने 1995 में अन्य हथियारों के साथ 40 ए.के.-47 भी बरामद किए थे।
सोहराबुद्दीन वह सारे हथियार अहमदाबाद से इंदौर के पास अपने गांव ले जा सका था क्योंकि बीच में रिश्वत लेकर पार कराने वाली पुलिस कदम -कदम पर मौजूद थी।
 इस तरह के और न जाने और कितने उदाहरण इस देश में आपको मिल जाएंगे।
शासन की ऐसी कमजोरियों पर कभी कोई गंभीर चर्चा नहीं होती।चुनाव में तो और भी नहीं।क्योंकि उससे कुछ वोट बिगड़ने का खतरा जो रहता है।
हां,जब सोहराबुददीन
मारा जाता है तो पुलिस अफसरों को जेल जरूर हो जाती है।
कुछ दिन के बाद सुनिएगा कि ताजा मुंगेर हथियार कांड के अपराधियों के बचाव में भी कितने बड़े -बड़े लोग आगे आ जाते हैं।
हां,यह एक अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट के नये मुख्य न्यायाधीश ने कह दिया कि अब हम फांसी के मामले को छोड़ कर बारी से पहले कोई केस  नहीं सुनेंगे।    

देश के मशहूर पत्रकार व ‘द प्रिन्ट’ के प्रधान संपादक 
शेखर गुप्त ने आज के दैनिक भास्कर में  लिखा है कि ‘राजनीतिक इतिहास देखें तो  भरोसेमंद दिग्गजों ने 
--इंदिरा गांधी के खिलाफ जगजीवन राम और राजीव के खिलाफ वी.पी.सिंह ने क्रमशः 1977 और 1988-89 में समीकरण बदले थेे।’
 वी.पी.सिंह के मुतल्लिक तो शेखर जी की बात सही है,पर जग जीवन राम के बारे में नहीं।
 1989 में चंद्र शेखर जी जब छपरा में अपना नामांकन पत्र दाखिल करने गए  थे तो वहां के लोगों ने पहले उनसे यह वचन लिया कि आप जीत कर वी.पी.सिंह को ही प्रधान मंत्री बनाएंगे,तभी उन्हें नामंाकन पत्र दाखिल करने दिया।
 चंद्रशेखर जी उस समय उत्तर प्रदेश के बलिया के साथ- साथ बिहार के महाराजगंज से भी विजयी हुए थे।
 पर, बिहार के बलिया की कहानी दूसरी रही ।
 बलिया से जगजीवन राम ने 1977 में अपनी समधिन सुमित्रा देवी को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर दिया था।
 श्याम नंदन मिश्र के लिए बेगूसराय में चुनाव सभा थी।वहां   जगजीवन बाबू उनके प्रचार मंे गए थे। अपने भाषण में जैसे ही जग जीवन बाबू ने अपनी समधिन के चुनाव चिन्ह की चर्चा करके उनके लिए वोट मांगा,बड़ी चुनाव सभा में भारी हंगामा हो गया।
बेगूसराय के बगल में ही बलिया लोक सभा क्षेत्र है।चाहते हुए भी जन रोष को देखते हुए जगजीवन बाबू बलिया में सुमित्रा देवी के लिए चुनाव सभा नहीं कर सके थे।
अधिकतर लोग जनता पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के पक्ष में  थे।
  वहां से जनता पार्टी के उम्मीदवार राम जीवन सिंह थे और वे भारी मतों से जीते । सुमित्रा देवी की जमानत जब्त हो गयी।उन्हें सिर्फ 31 हजार मत मिले।
  इससे पहले भी एक ड्रामा हुआ।
नामांकन पत्र दाखिल हो जाने के बाद जगजीवन बाबू ने बंबई जाकर जसलोक अस्पताल से जनता पार्टी के पटना आफिस को जेपी की ओर से तार भिजवा दिया।उसमें जेपी ने कहा था कि बलिया से जनता पार्टी के उम्मीदवार को सुमित्रा देवी के पक्ष में बैठा दिया जाए।  
पर जन भावना को देखते हुए जेपी की बात नहीं मानी गयी जबकि सर्वोदय वाले ही राज्य पार्टी के इंनचार्ज  थे।
  अंतिम समय में जग जीवन राम के कांग्रेस छोड़ने के कारण थोड़ा मनो वैज्ञानिक असर जरूर पड़ा,किन्तु वोट की दृष्टि से कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि आपातकाल के अत्याचारों के कारण अधिकतर लोगों ने इंदिरा जी की पार्टी को हराने के लिए पहले ही मन बना लिया था।
 1988-89 की स्थिति बिलकुल अलग थी।

  

यदि नरेंद्र मोदी इस बीच एम.जे.अकबर से मुक्ति नहीं पा लेंगे तो 2019 के चुनाव में राजग विरोधी दलों के हाथ में प्रचार का 
एक ठोस मसाला मिल जाएगा। 

 पाकिस्तान के पूर्व गृह मंत्री रहमान मलिक ने 24 सितंबर 2018 को इस्लामाबाद में कहा कि राहुल गांधी  भारत के प्रधान मंत्री बनने वाले हैं।
  इससे पहले कांग्रेस के प्रमुख नेता मणि शंकर अय्यर ने नवंबर, 2015 में पाकिस्तान जाकर वहां के एक टी.वी.चैनल पर पाकिस्तानियों से अपील की थी कि ‘मोदी को हटाइए और हमें सत्ता में लाइए।’
   25 सितंबर 2018 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने यह सवाल उठाया  कि क्या भारत का पी.एम.दूसरे देश तय करेंगे ?
कांग्रेस कह रही है कि जब-जब भाजपा कमजोर होती है तो उसे पाकिस्तान की याद आती है।
पर यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि ऐसी नौबत लाता कौन है ?
क्या  मणि शंकर अय्यर जैसे नेता जो पाकिस्तान से मदद मांगते हैं ?
 कांग्रेस ने जब मणि को पार्टी से निलंबित किया था तो लगा था कि वह पार्टी अय्यर के विचारों से सहमत नहीं है।
पर उनका निलंबन समाप्त हो जाने पर अब लोगों को क्या नतीजा निकालना चाहिए ?

शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

 आज न सिर्फ एक नेता दूसरे को चोर,कुत्ता और नीच 
कह रहा है,बल्कि एक टी.वी.एंकर दूसरे एंकर को गुंडा भी कह रहा है।
साठ के दशक से राजनीति व मीडिया को देख-समझ रहा हूं।राजनीति की शब्दावली में भले पहले  इतनी ‘नीचता’ न थी,पर मीडिया को तो हर दम बंटा हुआ ही देखा।
बिहार के जेपी आंदोलन के दौरान मीडिया बंटा हुआ था।
बोफर्स प्रकरण के दौरान भी वही हाल था।आपातकाल तो अपवाद था।उस समय तो सब धान साढ़े बाइस पसेरी था।
याद कीजिए साठ -सत्तर के दशक को और बंबई के ब्लिट्ज और करंट के तेवर को।दोनों साप्ताहिक टैबलाॅइड।
  एक घोर वामपंथी तो दूसरा घनघोर दक्षिणपंथी।
वह भी शीत युद्ध के जमाने में।
एक चिग्घाड़ता था तो दूसरा फुफकारता था।
मैं तो दोनों को जोड़कर पहले दो से भाग देता  था, फिर सही खबरों तक पहुंचता  था।जिस तरह आज भी परस्पर विरोधी तेवर वाले चैनलों को यदा कदा देख लिया करता हूंं।
 दैनिक अखबारों का भी तब कमोवेश वही हाल था,पर शालीनता लिए हुए।
वैसे कुल मिलाकर सरकार समर्थक अखबार ही पहले भी  अधिक थे।
सोशलिस्टों-कम्युनिस्टांे की शिकायत रहती थी कि अखबार उन्हें बहुत कम जगह देते हैं।
 खैर जब बारी-बारी से गैर कांग्रेसी सरकारें भी केंद्र व राज्यों में सत्ता में आने लगीं तो थोड़ा -बहुत सभी दलों को कवरेज मिलने लगा।
अब जब इस अर्थ युग में राजनीति का यह हाल हो चुका है तो उससे अलग मन मिजाज वाली मीडिया की उम्मीद ही क्यों कर रहे हैं आप ? अपवाद तो हर जगह होते हैं।