शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

 गांधी जी की बहुत सी बातें सीखने लायक हैं।

कुछ बातेें नहीं भी सीखने लायक हैं।

इस पोस्ट में उनसे सीखने लायक एक बहुत ही 

जरूरी बात बताता हूं।

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गांधी का अस्वाद व्रत

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 सुरेंद्र किशोर

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महात्मा गांधी ने कहा था कि 

‘‘मेरा अनुभव है कि अगर मनुष्य 

अस्वाद व्रत में पार उतर सके तो ,

 तो संयम बिलकुल सहल हो जाएगा।’’

  गांधी ने कहा था कि ‘‘अस्वाद यानी स्वाद न लेना।

जैसे दवा खाते वक्त वह जायकेदार है या नहीं,इसका खयाल न रखते हुए शरीर को उसकी जरूरत है,ऐसा समझ कर उसकी निश्चित मात्रा में ही हम खाते हैं।

उसी तरह अन्न को समझना चाहिए।

अन्न यानी खाने लायक तमाम चीजें़ं।

कोई चीज स्वाद के लिए खाना व्रत भंग हैं।’’

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यह तो र्हुइं महात्मा गांधी की बातें।

अब आप आज के दौर को देखिए।

मैंने अपने आसपास के अनेक लोगांे को देखा है कि वे आए दिन ‘‘स्वाद व्रत’’ का पालन करते रहते हैं।

बाजार गए तो सामोसा लाना नहीं भूलते।

(सामोसा तो मैंने प्रतीक स्वरूप बताया)

शरीर की जरूरत नहीं,बल्कि जीभ के लोभ की पूर्ति में लगातार संलग्न रहते हैं।

नतीजतन वैसे लोग अपनी आयु खुद ही कम करते जाते हैं।

अस्पतालों व चिकित्सकों की लगातार आय बढ़ाते जाते हैं।

अंततः परिवार व निर्भर लोगों को बिलखते छोड़कर समय से पहले गुजर जाते हैं।

अनके नेता लोग भी यही करते रहे हैं जबकि उनकी ओर करोड़ों लोग श्रद्धा,विश्वास और उम्मीद भरी नजरों से देखते रहते हैं।

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जो जिद्दी नहीं हैं,यानी जो दूसरों की अच्छी सलाह मान लेने में अपनी हेठी नहीं समझते ,वे अगली गांधी जयंती के अवसर पर यह व्रत ले सकते हैं कि वे भरसक ‘अस्वाद व्रत’ का पालन करेंगें।

गंाधी की अन्य बहुत सारी बातों को आप अनुकरणीय मानें या  न मानें,किंतु अपने शरीर को ठीक रखने वाली उनकी बातों पर तो गौर कीजिए।

यदि एक सिर फिरे ने गांधी की हत्या न कर दी होती तो वे सौ साल जरूर जीवित रहते।

कहते हैं कि विधाता ने सौ से सवा सौ साल जीने लायक हमारा शरीर बनाया है।

यह आप और हम पर है कि उस अवधि को हम कितना कम कर देते हैं।

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23 अप्रैल 23



    टी.वी.डिबेट मंें कल जार्ज फर्नाडिस का 

   बचाव  क्यों नहीं किया भाजपा प्रवक्ता ने ?

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    सुरेंद्र किशोर

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सुप्रीम कोर्ट ने 13 दिसंबर, 2015 को कथित ताबूत घोटाला मामले में जार्ज फर्नांडिस को निर्दाेष घोषित कर दिया।

इसके बावजूद कल यानी 27 अप्रैल 23 को एक टी.वी.डिबेट में टी.एम.सी.नेता कीर्ति आजाद ने अटल बिहारी सरकार को ताबूत घोटाले लिए दोषी बता दिया।

उनके मुकाबले में बैठे भाजपा प्रवक्ता डा.सुधांशु त्रिवेदी ने भी कीर्ति आजाद के इस आरोप का खंडन नहीं किया।याद रहे कि ताबूत मामले में जार्ज की नाहक बड़ी बदनामी की गई थी।

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इसी तरह जब कोई कांग्रेस प्रवक्ता टी.वी.डिबेट में यह कहता है कि टू जी मामला टायं टांय फिस्स कर गया तो भाजपा प्रवक्ता चुप बैठा रहता है।

जबकि वास्तविकता यह है कि टू जी का मामला दिल्ली हाई कोर्ट में आज भी विचाराधीन है।उस पर धीरे -धीरे सुनवाई भी हो रही है।

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खैर,कीर्ति आजाद को तो छक्का से लगाने से फुर्सत ही नहीं मिली होगी कि वे पढ़ने-लिखने व खुद को अपडेट करते रहने की आदत विकसित करें।पर,भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी तो अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता हैं।

वे अपनी पार्टी की मिली जुली सरकार के मंत्री रहे जार्ज का बचाव क्यों नहीं करते ?

 अटल जी ने तो एक फ्लैट भी खरीद लिया था,जो बाद में बेच भी दिया था,पर जार्ज के नाम तो इस दुनिया में कोई संपत्ति नहीं है।

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28 अप्रैल 23


शनिवार, 22 अप्रैल 2023

 


 23 अप्रैल को वीर कंुवर सिंह विजयोत्सव दिवस 

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स्वतंत्रता सेनानी पंडित सुंदरलाल की चर्चित पुस्तक ‘‘भारत में अंग्रेजी राज’’( द्वितीय खंड) पर आधारित इस प्रस्तुत विवरण में आप ही गिन लीजिए कि अंग्रेज,वीर कुंवर सिंह से कितनी बार हारे !

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सुरेंद्र किशोर

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पहले पढ़िए 23 अप्रैल के युद्ध में पराजित अंग्रेज सेना

के अफसर की रोमांचक व्यथा-कथा

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 उस अंग्रेज सैनिक अफसर के शब्दों में,

‘‘वास्तव में, इसके बाद जो कुछ हुआ,उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है।

  लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू किया।

शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा।

हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे।

एक निकृष्ट गंदे छोेटे से पोखर को देखकर वे उसकी तरफ लपके।

 इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबाया।

 इसके बाद हमारी जिल्लत की कोई हद न थी।

हमारी विपत्ति चरम सीमा को पहुंच गई।

हम से किसी में शर्म तक न रही।

जहां जिसको कुशल दिखाई दी,वह उसी ओर भागा।

अफसरों की आज्ञाओं की किसी ने परवाह नहीं की।

व्यवस्था और कवायद का अंत हो गया।

चारों ओर आहों, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था।

 मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मरे।

किसी को दवा मिल सकना असंभव था।

 क्योंकि हमारे अस्पतालों पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था।

 कुछ वहीं गिर कर मर गए ।

बाकी को शत्रु ने काट डाला।

हमारे कहार डोलियां रख -रख कर भाग गए।

सब घबराए हुए थे,सब डरे हुए थे।

सोलह हाथियों पर हमारे घायल साथी लदे हुए थे।

 स्वयं जनरल लीगै्रण्ड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया।

  हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे।

उनमें अब बंदूक उठाने तक की शक्ति न रह गई थी।

 सिखों को वहां की धूप की आदत थी।

उन्होंने हमसे हथियार छीन लिए और हमसे आगे भाग गए।

गोरों का किसी ने साथ न दिया।

  199 गोरों में से 80 इस भयंकर संहार से जिन्दा बच सके।

हमारा इस जंगल में जाना ऐसा ही हुआ,जैसा पशुओं का कसाईखाने में जाना।

हम वहां केवल वध के लिए गए थे।’’

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इतिहास लेखक व्हाइट ने भी लिखा है कि 

‘‘इस अवसर पर अंग्रेजों ने पूरी और बुरी से बुरी हार खाई।’’

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  इससे पहले के युद्धों में अंग्रेजों 

  की लगातार पराजय के विवरण

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ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजें कई युद्धों में जिस भारतीय राजा से हार गयी थी ,उस राजा का नाम था बाबू वीर कुंवर सिंह।

वीर कुंवर सिंह की याद में बिहार में बड़े पैमाने पर 23 अप्रैल को विजयोत्सव मनाया जाता है।

बिहार के जगदीशपुर के कंुवर सिंह जब अंग्रेजों से लड़ रहे थे, तब उनकी उम्र 80 साल थी।

यह बात 1857 की है।

  याद रहे कि  भोजपुर जिले के जगदीशपुर नामक पुरानी राजपूत रियासत के प्रधान  को सम्राट् शाहजहां ने  राजा की उपाधि दी थी।

  मशहूर पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के यशस्वी लेखक पंडित सुंदरलाल ने उन युद्धों का विस्तार से विवरण लिखा है।

  (अंग्रेजों के शासनकाल में ही यह पुस्तक लिखी गई थी।अंग्रेज सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था।)

लेखक के अनुसार ‘जगदीश पुर के राजा कुंवर सिंह आसपास के इलाके में अत्यंत सर्वप्रिय थे।

 कुवंर सिंह बिहार के क्रांतिकारियों का प्रमुख नेता और सन 57 के सबसे ज्वलंत व्यक्तियों में थे।

  जिस समय दानापुर की क्रांतिकारी सेना जगदीशपुर पहंची, बूढ़े कुंवर सिंह ने तुरंत अपने महल से निकल कर शस्त्र उठाकर इस सेना का नेतृत्व संभाला।

 कुंवर सिंह इस सेना सहित आरा पहुंचे।

 बिहार में 1857 का संगठन अवध और दिल्ली जैसा तो न था,फिर भी उस प्रांत में क्रांति के कई बड़े -बड़े केंद्र थे।

 पटना में जबर्दस्त केंद्र था जिसकी शाखाएं चारों ओर फैली  थीं।

पटना के क्रांतिकारियों के मुख्य नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया।

 पीर अली की मृत्यु के बाद दानापुर की देशी पलटनों ने स्वाधीनता का एलान कर दिया।

ये पलटनें जगदीश पुर की ओर बढ़ीं।

बूढ़े कुंवर सिंह आरा पहुंचे।

उन्होंने आरा में अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया।

जेलखाने के कैदी रिहा कर दिए गए।

अंग्रेजी दफ्तरों को गिराकर बराबर कर दिया गया।

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     आरा के बाग का संग्राम

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    29 जुलाई को दानापुर के कप्तान डनवर के अधीन करीब 300 गोरे सिपाही और 100 सिख सैनिक आरा की ओर मदद के लिए चले।

आरा के निकट एक आम का बाग था।कुंवर सिंह ने अपने कुछ आदमी आम के वृक्षों की टहनियों में छिपा रखे थे।

रात का समय था।

जिस समय सेना ठीक वृक्षों के नीचे पहुंची,अंधेरे में ऊपर से गोलियां बरसनी शुरू हो गयीं।

सुबह तक 415 सैनिकों में से सिर्फ 50 जिंदा बचकर दाना पुर लौटे।

डनवर भी मारा गया था।

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बीबी गंज का संग्राम

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इसके बाद मेजर आयर एक बड़ी सेना और तोपों सहित आरा किले में घिरे अंग्रेजों की सहायता के लिए बढ़ा।

2 अगस्त को आरा के बीबी गंज में आयर और कुंवर सिंह की सेनाओं के बीच संग्राम हुआ।

इस बार आयर विजयी हुआ।

उसने 14 अगस्त को जगदीश पुर के महल पर भी कब्जा कर लिया।

कुंवर सिंह 12 सौ सैनिकों व अपने महल की स्त्रियों को साथ लेकर जगदीश पुर से निकल गए।

उन्होंने दूसरे स्थान पर जाकर अंग्रेजों के साथ अपना बल आजमाने का निश्चय किया।

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   मिलमैन की पराजय

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  18 मार्च, 1858 को दूसरे क्रांतिकारियों के साथ कुंवर सिंह आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया में डेरा डाला। 

मिलमैन के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने 22 मार्च 1858 को कुंवर सिंह से मुकाबला किया।मिलमैन हार कर भाग गया।

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    डेम्स की पराजय

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28 मार्च को कर्नल डेम्स के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने कुंवर सिंह पर हमला किया।

इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।

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   लार्ड केनिंग की घबदाहट

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कुंवर सिंह ने आजमगढ़ पर कब्जा किया।

किले को दूसरों के लिए छोड़कर कुंवर सिंह बनारस की तरफ बढ़े।

लार्ड केनिंग उस समय इलाहाबाद में था।

इतिहासकार मालेसन लिखता है कि बनारस पर कुंवर सिंह की चढ़ाई की खबर सुन कर कैनिंग घबरा गया।

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लार्ड मार्क की पराजय

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  उन दिनों कंुवर सिंह जगदीश पुर से 100 मील दूर  बनारस के उत्तर थे।

लखनऊ से भागे कई क्रांतिकारी कुंवर सिंह की सेना में आ मिले।

लार्ड कैनिंग ने लार्ड मारकर को सेना और तोपों के साथ कुंवर ंिसंह से लड़ने के लिए भेजा।

6 अप्रैल को लार्ड मारकर की सेना और कुंवर सिंह की सेना में संग्राम हुआ।

किसी ने उस युद्ध का विवरण इन शब्दों में लिखा है,‘

उस दिन 81 साल का बूढ़ा कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार ठीक घमासान लड़ाई के अंदर बिजली की तरह इधर से उधर लपकता हुआ दिखाई दे रहा था।’

अंततः लार्ड मारकर हार गया।

उसे अपनी तोपों सहित पीछे हटना पड़ा।

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लगर्ड की पराजय

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कुंवर सिंह की अगली लड़ाई सेनापति लगर्ड के नेतृत्व वाली सेना से हुई।

कई अंग्रेज अफसर व सैनिक मारे गए।

कंपनी की सेना पीछे हट गयी।

कुंवर सिंह गंगा नदी की तरफ बढ़े।वे जगदीश पुर लौटना चाहते थे।

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डगलस की पराजय

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एक अन्य सेनापति डगलस के अधीन सेना कुंवर सिंह से लड़ने के लिए आगे बढ़ी।

नघई नामक गांव के निकट डगलस और कुंवर सिंह की सेनाओं में संग्राम हुआ।

अंततः डगलस हार गया।

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कुंवर सिंह गंगा की तरफ बढ़े

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कुंवर सिंह अपनी सेना के साथ गंगा की ओर बढ़े।

कुंवर सिंह गंगा पार करने लगे।बीच गंगा में थे।

अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया।

एक अंग्रेज सैनिक ने गोली चलाई।गोली  कुंवर सिंह को लगी।

गोली दाहिनी कलाई में लगी।

विष फैल जाने के डर से कुंवर सिंह ने बाएं हाथ से तलवार खींच कर अपने दाहिने हाथ को कुहनी पर से काट कर गंगा में फेंक दिया।

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जगदीश पुर में प्रवेश

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22 अप्रैल को कंुवर सिंह ने वापस जगदीश पुर में प्रवेश किया।

आरा की  अंग्रेजी सेना 23 अप्रैल को लीग्रंैड के अधीन जगदीश पुर पर हमला किया।

इस युद्ध में भी कुंवर सिंह विजयी रहे।

पर घायल कुंवर सिंह की 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हो गयी।

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कुंवर सिंह का चरित्र

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इतिहास लेख के अनुसार ,

कुंवर सिंह का व्यक्तिगत चरित्र अत्यंत पवित्र था।

उनका जीवन परहेजकारी का था।

उनके राज में कोई मनुष्य इस डर से कि कुंवर सिंह देख न लंे, खुले तौर पर तंबाकू तक नहीं पीता था।

उनकी सारी प्रजा उनका बड़ा आदर करती थी और उनसे प्रेम करती थी।

युद्ध कौशल में वे अपने समय में अद्वितीय थे।

इतिहास लेखक होम्स ने लिखा है कि ‘‘उस बूढ़े राजपूत की,जो ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध इतनी बहादुरी और आन से लड़ा, 26 अप्रैल, 1858 को मृत्यु हुई।’’

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21 अप्रैल 23


 मोतीलाल नेहरू ने गांधीजी की मदद से वंशवाद-परिवारवाद 

का जो पौधा 1929 में रोपा था,वह अब वट वृक्ष बन रहा है

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लोकतांंित्रक भारत के ‘रजवाड़ो’ं की संख्या भी ब्रिटिश भारत के 

565 रजवाड़ों की संख्या तक पहुंचने में अधिक दिन नहीं लगंेगे

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सुरेंद्र किशोर

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यहां पहुंच रही ताजा खबर के अनुसार कर्नाटका के पूर्व मुख्य मंत्री व कांग्रेस नेता सिद्धरमैया ने अपने बेटे को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है।

इतना ही नहीं,उन्होंने यह भी कहा कि 17 साल का मेरा पोता भी 8 साल के बाद चुनावी राजनीति में प्रवेश करेगा।

(याद रहे कि जब सिद्धरमैया मुख्य मंत्री थे तो उन्होंने किसी से 70 लाख रुपए की घड़ी उपहार के रूप में स्वीकार की थी।) 

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उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार कांग्रेस में वंशवाद मोतीलाल नेहरू ने शुरू किया था।

तत्कालीन कांग्र्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू ने सन 1928 में महात्मा गांधी को बारी -बारीे से तीन चिट्ठयां लिखीं।

उनमें उन्होंने गांधी से आग्रह किया कि वे 1929 में जवाहरलाल को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दें।

पहली दो चिट्ठयों पर तो गांधी नहीं माने थे।

वे तब जवाहर को उस योग्य नहीं मानते थे।

पर, तीसरे पत्र पर गांधी जी मान गए।

(ये सारी चिट्ठयां मोतीलाल पेपर्स के रूप में नेहरू मेमोरियल,नई दिल्ली में उपलब्ध हैं।)

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   अब आइए सन 1958-59 में।

सन 1958 में इंदिरा गांधी कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य बनीं।

  कल्पना कीजिए,कितने बड़े -बड़े स्वतंत्रता सेनानी तब सदस्य बनने के काबिल थे।(कार्य समिति के करीब दो दर्जन ही सदस्य होते हैं।)

पर, उन्हें नजरअंदाज किया गया।

यही नहीं,इंदिरा गांधी सन 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बना दी गईं।

कांग्रेस सांसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री महावीर त्यागी ने इंदिरा गांधी को अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा।

नेहरू ने जवाब दिया,

‘‘ .......मेरा यह भी ख्याल है कि बहुत तरह से इस वक्त उसका (इंदु का) कांग्रेस का अध्यक्ष बनना मुफीद हो सकता है।’’

----पुस्तक -आजादी का आंदोलन -हंसते हुए आंसू--लेखक -महावीर त्यागी-पेज नंबर-230

प्रकाशक-किताब घर,नई दिल्ली।

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संजय गांधी,राजीव गांधी,सोनिया गांधी और राहुल गांधी तक कैसे उत्तराधिकार सौंपने का बारी -बारीे से काम हुआ,वह सब तो ताजा इतिहास है।आप सब जानते ही हैं।

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वंशवाद-परिवारवाद की संक्रामक बीमारी नेहरू-गांधी परिवार तक ही कैसे सीमित रह सकती थी !

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1947 के बाद देश के नए राजनीतिक रजवाड़े !! 

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नोट-किसी का वंशज या परिजन राजनीति में आगे आए,इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए।

पर अयोग्य वंश को किसी दल के शीर्ष पर थोपा न जाए।

अयोग्य वंशजों की लगातार चुनावी विफलताओं के बावजूद उसे शीर्ष पर ही बनाए नहीं रखा जाए।

क्योंकि राजनीतिक दल किसी व्यापारी का कारखाना नहीं होता।

उससे लाखों-करोड़ों  लोगों व हजारों कार्यकत्र्ताओं की उम्मीदें जुड़ी होती हैं।

लोकतंत्र का स्वरूप भी उससे तय होता है--यानी स्वस्थ लोकतंत्र या बीमार लोकतंत्र ?

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पर,अब तो लगता है कि इस देश के विभिन्न राजनीतिक परिवारों की संख्या एक दिन पहले जैसी 565 तक पहुंच सकती है।

आज भी सैकड़ों छोटे -बड़े राजनीतिक परिवार मौजूद हैं जिनके दादा-पिता-पोता बारी -बारी या एक साथ किसी न किसी सदन के सदस्य होते रहे हैं।

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 जिन दलों में यह बीमारी पहले नहीं थी,उसमें भी अब लग गई।

केरल के सी.एम.एम.मुख्य मंत्री के दामाद उनके मंत्रिमंडल में हंै।

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तेलांगना के मुख्य मंत्री के.चंद्रशेखर राव के पुत्र भी उनके मंत्रिमंडल में हैं।

कर्नाटका में देवगौड़ा के परिवार के करीब आधा दर्जन सदस्य या तो विधायिका के सदस्य हैं या चुनाव लड़ रहे हैं।

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आंध्र और तमिलनाडु के राजनीतिक परिवारों को तो आप जानते ही हैं।

देश के अन्य प्रदेशों खास कर हिन्दी प्रदेशों का हाल तो और भी जग जाहिर है।

दिक्कत यह है कि इन अधिकतर वंशवादी-परिवारवादी दलों के सदस्यों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। यह आरोप भी है कि अधिकतर दल खूंखार अपराधियों और टुकड़े -टुकड़े गिरोहों के साथ साठगांठ भी रखते हैं।

यह सब देश की सुरक्षा -सार्वभौमिकता-स्वतंत्रता के लिए अत्यंत चिंता की बात है।

इसी तरह ही विभक्त व परस्पर विरोधी राजनीतिक पृष्ठभूमि के रजवाड़ों कारण समय -समय पर विदेशी आक्रांताओं ने हम पर हमला करके हमें गुलाम बनाया था।

विदेशी ताकतें अब भी अपने अलग तरह के बल्कि अधिक खतरनाक लक्ष्य को साधने के लिए हथियारों के साथ मुख्य भूमि व सीमाओं पर सक्रिय हैं।

देश का दुर्भाग्य है कि अधिकतर वंशवादी-परिवारवादी दलों के लिए न तो भीषण भ्रष्टाचार कोई मुद्दा है और न ही इस देश के लगभग रग- रग में सक्रिय जेहादी संगठन। 

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21 अप्रैल 23



शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

 क्या इस देश की कोई भी सरकार अखबारों में विज्ञापन देकर 

गर्व पूर्वक यह घोषित कर सकती है कि हमारे फलां आॅफिस में 

आम जनता से कोई रिश्वत नहीं ली जाती ?!!

यदि कर सकती है तो जल्दी कर दे ।

मुझसे अधिक खुशी किसी और को नहीं होगी।

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सुरेंद्र किशोर

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मेरे आवास में मौजूद टाटा प्ले (डी टी एच सेटेलाइट टेलिविजन कनेक्शन) 

का एंटीना कल बदला गया।

दोपहर की रिकाॅर्ड गर्मी में भी टेक्नीशियन ने आकर सारा काम कर दिया।

मैंने पूछा कि कितने पैसे दूं।

उसने कहा कि आॅनलाइन पेमेंट होगा।

मुझे कोई पैसा मत दीजिए।

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आज टाटा प्ले के आॅफिस से मुझे फोन आया।

पूछा --क्या आपके यहां काम हो गया ?

मैंने कहा--हां।

उसने पूछा--क्या हमारे आदमी ने आपसे पैसे भी लिए ?

मैंने कहा - नहीं।

काम से आप संतुष्ट हैं ?

मैंने कहा --हां।

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इससे पहले भी टाटा स्काई (पूर्व नाम)के कर्मी ने जब कभी घर आकर कोई काम किया,मुझे बाद में फोन पर पूछा गया--आपसे कोई पैसा तो नहीं मांगा ?

मैंने सदा ना में जवाब दिया।वही सच भी था।

याद रहे कि टाटा प्ले का टाटा सन्स मालिक है।

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राजनीतिक या व्यक्तिगत कारणों से आप निजी कंपनियों को चाहे जितनी भी गालियां देते रहें,पर सार्वजनिक उपक्रम, जन सेवा में उनका मुकाबला नहीं कर सकते।

टाटा सन्स जैसी निजी कंपनी भले और जो काम कर रही होती है,पर आम जनता का भयादोहन तो नहीं करती।

दूसरी ओर आज शायद ही किसी सरकारी आॅफिस से अपमानित महसूस किए बिना कोई आप लौट सकता है।लगभग हर सरकारी सेवक ड्यूटी को अधिकार समझते हैं।

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मेरे यहां दशकों तक बी एस एन एल फोन था।

 बहुत खराब अनुभव रहा।

फोन कनेक्शन कटवाने के बाद मेरा सिक्युरिटी मनी आज तक नहीं मिला क्योंकि मैंने कमीशन नहीं दी।

अब मेरे पास निजी कंपनी का लैंड लाइन है।न नजराना,न शुकराना न हड़काना और न ही भयोदाहन।

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एक काल्पनिक बात

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टाटा प्ले का ब्लाॅक स्तर का कोई कर्मचारी यह नहीं कहता कि मैंने इतने   लाख रुपए देकर यहां अपनी पोस्ट्रिग कराई है।

इसलिए आपका काम मैं पैसे के बिना कैसे कर दूं ?

मुझे जन प्रतिनिधियों को भी कट मनी देनी पड़ती है सो अलग।

टाटा प्ले का जिला स्तर का अफसर अपने मातहत से यह नहीं कहता कि आप मुझे इतने लाख रुपए हर महीने दे देना।

क्योंकि मुझे  ऊपर भी देना पड़ता है।

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अब आप सरकारों के वैसे दफ्तरों की कार्य शैली पर गौर करें।

क्या भारत सरकार या कोई राज्य सरकार अपने किसी भी एक भी आॅफिस का नाम , जिस आॅफिस का जनता से रोज-रोज का सीधा संबंध रहता है,अखबारों में विज्ञापित करके यह चैलेंज कर सकती है कि वहां रिश्वत नहीं ली जाती ?!!

यदि कोई सरकार ऐसा दावा कर दे तो मुझे बड़ी खुशी होगी।

मैं मान लूंगा कि यहां जनता को सरकारी तंत्र परेशान नहीं करता।

शुकसागर में लिखा हुआ है कि कलियुग में राजा ही अपनी प्रजा को लूटेगा।

(साथ ही,यह भी बता दूं कि व्यक्तिगत आधार पर मुझे इस बात की जानकारी है कि कई सत्ताधारी नेता आज भी हैं जो खुद अपने लिए घूस नहीं लेते।

किंतु वे भी सर्वव्यापी घूसखोरी बंद करने मंें सर्वथा असमर्थ हैं।

नरेंद्र मोदी बड़े -बड़े काम कर रहे हैं।

पर वे भी चाहते हुए भी सांसद फंड (भ्रष्टाचार का रावणी अमृत कुंड )बंद नहीं कर पा रहे हैं।

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20 अप्रैल 23


सोमवार, 17 अप्रैल 2023

    राजनीतिक दल नदी की अविरल धारा बनें

     न कि तालाब का सड़ता पानी

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सुरेंद्र किशोर

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कर्नाटका के पूर्व मुख्य मंत्री और भाजपा नेता जगदीश शेट्टर ने भाजपा से इस्तीफा दे दिया।

टिकट न मिलने से वे नाराज थे।

जगदीश जी उम्रदराज नेता हैं।

लगता है कि भाजपा की यह समझ बन चुकी है कि यदि मृत्युपर्यंत जगदीश जी जैसे नेता ही टिकट पाते रहेंगे तो भाजपा के अन्य कार्यकर्ता सिर्फ झाल बजाने और पालकी ढोने के लिए ही तो भाजपा में नहीं आ रहे हैं।

कुछ समय पहले यह अपुष्ट खबर छपी थी कि भाजपा अगले लोक सभा चुनाव में उन सांसदों को टिकट नहीं देगी जिनके दो कार्यकाल पूरे हो चुके है।

  यदि ऐसा हुआ तो कल्पना कीजिए कि कितने अधिक नए लोगों को वहां मौका मिलेगा।

जब वोट, मोदी के ही नाम पर ही मिलना है तो उम्मीदवार का कितना महत्व है ? 

ऐसा हुआ तो भाजपा में, नदी की अविरल घारा की तरह, नए लोग जुड़ते जाएंगे।

दूसरी ओर, जो दल पीढ़ी-दर पीढ़ी एक ही परिवार को टिकट और पद देते रहेंगे, वे एक दिन तालाब के गंदे पानी में परिणत हो जाएंगे यदि किसी कारणवश उनका जातीय-धार्मिक वोट बैंक कम हो गया।

भाजपा ने सन 2022 के चुनावों से यह तय किया कि एक परिवार से एक ही को टिकट मिलेगा।

पार्टी ने उसका पालन भी किया।नरेंद्र मोदी ने कहा कि दल के कोई नेता एतराज करें तो उन्हें कह दीजिए कि यह मोदी का फैसला है। 

नतीजतन जो बाहरी नेतागण अपने पुत्र-पुत्री के साथ भाजपा में प्रवेश करना चाहते थे,वे रुक गए।

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17 अप्रैल 23



 अलग -अलग पुलिस मुठभेड़ों में दो मौतें ,

एक पर चुप्पी ,पर,दूसरे पर कानफाड़ू शोर

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      सुरेंद्र किशोर

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गत 11 अप्रैल 2023 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में ढाई लाख रुपए का इनामी बदमाश आदित्य राणा पुलिस मुंठभेड़ में मारा गया।

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उत्तर प्रदेश में ही 13 अप्रैल, 2023 को अतीक का बेटा असद पुलिस मुंठभेड़ में मारा गया।

उस पर पांच लाख का इनाम था।

यानी,उत्तर प्रदेश पुलिस असद को आदित्य की अपेक्षा अधिक खतरनाक अपराधी मानती थी।.

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असद की मौत पर सर्वत्र भारी शोर है।

क्या आपने किसी अखबार में आदित्य की मौत के खिलाफ किसी नेता का बयान पढ़ा ?

क्या किसी नेता ने सवाल खड़ा किया कि आदित्य को फर्जी मुंठभेड़ में क्यों मारा गया ?

क्या किसी नेता ने कहा कि ऐसा काम करना हो तो कोर्ट कचहरी बंद कर दो ?

आदि आदि.......

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मैंने तो ऐसा कोई बयान राणा पर नहीं पढ़ा।

क्योंकि लगता है कि आदित्य राणा वोट का सौदागर नहीं था।

उसे किसी सुप्रीमो नेता का संरक्षण प्राप्त नहीं था।

उसका किसी दूसरे देश के किसी विवादास्पद संगठन से रिश्ता नहीं था।

पता नहीं,वह विदेश से हथियार मंगाता था या नहीं !

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यानी,

मानवाधिकार उसी का है जो अतीक या उसके पुत्र जैसे लोगों के ‘‘गुणों’’ से भरा हुआ हो।

बाकी पर कोई नेता नकली आंसू भी नहीं बहाएगा।

यह भी नहीं कहेगा कि आदित्य राणा की हत्या से भाईचारा नष्ट होता है।

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अपने देश में कुछ भी चलता है।

ऐसे ही चल रहा है अपना ढीला ढाला लोकतंत्र !

ऐसा कब तक चलेगा ?

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14 अप्रैल 23


 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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 लोकतंत्र के लिए सही नहीं चुनाव सुधार में नेताओं की अनिच्छा

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चुनाव आयोग ने हाल में राजनीतिक दलों के समक्ष ‘रिमोट वोटिंग मशीन’ के इस्तेमाल का प्रस्ताव रखा था।

यदि यह प्रस्ताव मान लिया गया होता तो उसके जरिए वैसे मतदाता गण भी चुनाव में मतदान कर पाते जो अपने गृह राज्य से बाहर रह रहे हैं।

पर,राजनीतिक दलों ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

याद रहे कि इस देश की मतदाता सूचियों में नाम रहने के बावजूद करीब 30 करोड़ मतदाता मतदान नहीं कर पाते।

क्योंकि वे अपने घरों से दूर रहते हैं।

उनमंे से कुछ तो पोस्टल बैलेट के जरिए मतदान करते हैं,पर सारे मतदाता नहीं।

  यह पहली घटना नहीं है जब चुनाव सुधार का विरोध हुआ है।

नब्बे के दशक में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने मतदाता पहचान पत्र का प्रस्ताव किया तो भी कई राजनीतिक दलों ने उसका सख्त विरोध किया।पर,जब शेषन ने यह धमकी दी कि हम पहचान पत्र के बिना चुनाव की तारीख घोषित ही नहीं करेंगे तब मजबूरी में राजनीतिक दल मान गए।

 सन 2002 में चुनाव आयोग ने प्रस्ताव किया कि उम्मीदवार अपने शैक्षणिक योग्यता ,संपत्ति और आपराधिक रिकाॅर्ड का विवरण नामांकन पत्र के साथ ही दे दें।तत्कालीन केंद्र सरकार ने उसका कड़ा विरोध कर दिया।पर,सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा आदेश देकर उसे लागू करवा दिया।

  दशकों से यह मांग हो रही है कि लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ हों।

सन 1967 तक दोनों चुनाव एक साथ ही होते थे।

पर,राजनीतिक दल उसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं।

उम्मीदवार एक से अधिक सीटों से चुनाव नहीं लड़ें,यह व्यवस्था भी होनी चाहिए।पर,नहीं हो रही है।

इस तरह के अन्य अनेक चुनाव सुधारों को अधिकतर राजनीतिक दलों ने रोक रखा है।इसे लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए शुभ नहीं माना जा रहा है।

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रिमोट वोटिंग मशीन की सुविधा

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हाल में यह खबर भी आई थी कि 80 साल या उससे अधिक उम्र के मतदाताओं के लिए उनके घरों से ही मतदान करने की सुविधा प्रदान की जा सकती है।

यह सुविधा वैसे बुजुर्ग मतदाताओं को दी जानी थी जो स्वास्थ्य या अधिक उम्र के कारण मतदान केंद्रों पर जाने की स्थिति में नहीं हैं।

पता नहीं, इस प्रस्ताव का क्या हुआ।

आम तौर से आज की राजनीति ऐसे नए विचारों के पक्ष में नहीं है।

इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं होगा यदि राजनीतिक दल इस प्रस्ताव को भी नामंजूर कर दें।

  दरअसल कई राजनीतिक दल वैसे किसी भी प्रस्ताव का विरोध कर देते हैं जिससे मतदान का प्रतिशत बढ़े।

मतदान का प्रतिशत बढ़ने से चुनावों में किसी भी ‘‘वोट बैंक’’की भूमिका निर्णायक नहीं रह पाती।

इसीलिए अनिवार्य मतदान के प्रस्ताव का अब तक अधिकतर राजनीतिक दलों ने विरोध किया है। एक बार यह प्रस्ताव आया था कि जो व्यक्ति लगातार तीन चुनावों में मतदान न करंे,उन्हें कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाए।

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खालिस्तानियों की अदूरदर्शिता

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खालिस्तानी इन दिनों पंजाब को अलग देश बनाने की मांग कर रहे हैं।इसके लिए वे देश-विदेश में तोड़फोड़ और हिंसा भी कर रहे हैं।

सन 1962 से पहले मद्रास राज्य की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम में ऐसी ही अलगाववादी प्रवृति विकसित हुई थी।

पर,जब सन 1962 में चीन ने हमला करके भारत के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया तो डी.एम.के. के विचार बदले।

अन्ना दुरै के नेतृत्व वाले डी.एम.के.ने यह महसूस किया कि भारत संघ का हिस्सा रहने पर ही हमारी धरती की ओर कोई विदेशी आंखें नहीं उठा पाएगा।

   लेकिन खालिस्तानियों को यह बात समझ में नहीं आ रही है।जबकि पंजाब सीमावर्ती प्रदेश है और पाकिस्तान के अतिवादी तत्वों की बुरी नजरें भारत पर हैं।

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भूली-बिसरी यादें

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सन 1962 में चीन से पराजय के बाद ले.ज.बी.एम.कौल ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था-‘‘द अनटोल्ड स्टोरी’’।

उसमें दिवंगत कौल ने लिखा कि ‘‘प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री वी.के.कृष्ण मेनन को बार-बार चीनी हमले की चेतावनी दी गयी थी।

उनसे आग्रह किया गया था कि वे हिन्दुस्तानी फौजों को नये और आधुनिक हथियारों से लैस करें।

मगर दोनों ही नेताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

जनरल कौल ने यह भी लिखा कि मंत्रिमंडल की आपसी फूट का भयंकर असर फौजों पर पड़ा।

वित मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय दोनों एक दूसरे को फूटी आखें नहीं देखते थे।

इसका नतीजा हुआ कि प्रतिरक्षा उत्पादन के प्रयत्नों में शिथिलता आई।रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और वित मंत्री मोरारजी देसाई थे।याद रहे कि जनरल कौल ने पुस्तक की पांडुलिपि पर छपने से पहले रक्षा मंत्रालय से स्वीकृत करा ली थी।  

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और अंत में

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अतीक अहमद जैसे तत्व आपराधिक न्याय व्यवस्था की विफलता के कारण पैदा होकर फलते-फूलते हैं।

राजनीति और सत्ता उन्हें संपोषित करती है।अधिकतर राजनीतिक दल कई बार उनकी रोबिनहुड छवि का चुनावी लाभ उठाते हैं।

अतीक अहमद पर लगभग एक सौ आपराधिक मुकदमे लंबित थे।

यदि पहले के दो-तीन मुकदमों में ही अतीक को सबक सिखाने लायक सजा मिल गई होती तो लघु अतीक विकराल रूप ग्रहण नहीं करता।

अतीक तो एक प्रतीक है।देश में ऐसे अनेक छोटे-बड़े ‘अतीक’ फल-फूल रहे हैं।

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कानोंकान

प्रभात खबर

बिहार के संस्करण

17 अप्रैल 23


गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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राजनीतिक बयानों के घटाटोप में बिहार के विकास की खबरें ओझल

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गत सात अप्रैल को पटना में मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने मेट्रो के लिए सुरंग की खुदाई के काम का समारम्भ किया।

यानी, बिहार में विकास की गाड़ी यहां तक पहुंच गई है।

 सन 1969 से ही पटना में रहने के कारण मैं 

पहले और अब का फर्क बताने की स्थिति मंें हूं।

मेट्रो वाली खबर के साथ ही सन 1977 का एक संवाद याद आ गया।

वह संवाद काॅफी हाउस में मेरे और नीतीश कुमार के बीच हुआ था।

उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं एक दिन मुख्य मंत्री जरूर बनूंगा।मुख्य मंत्री के रूप में मैं अच्छा काम करूंगा।’’

उन्होंने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद काफी हद तक अपना वादा पूरा किया है।

  बिहार में विकास के कार्य सिर्फ शहरों तक ही सीमित नहीं हैं,बल्कि गांवों में भी हुए हैं और हो रहे हैं।

पहले और अब का फर्क वह व्यक्ति भी बता सकता है जिसने सन 2005 में किसी कारणवश बिहार छोड़ दिया था।तब से लौटा नहीं।यदि वह आज आकर बिहार को देखे तो उसे यह देखकर सुखद आश्चर्य होगा कि बिहार कितना बदल गया।

राजनीतिक- गठबंधन -परिवर्तन के आरोप के अलावा नीतीश कुमार पर कोई अन्य गंभीर आरोप नहीं है।इस बात पर गौर कीजिए कि इतने लंबे शासन काल में कितने नेताओं के खिलाफ गंभीर आरोप नहीं लगे।

नीतीश कुमार की इस बात में दम है कि ‘‘बिहार के अच्छे कामों की चर्चा नहीं होती।’’

यदि आप उनके गठबंधन परिवर्तन के कदमों से नाराज हैं तो जरूर रहिए।किंतु क्या सिर्फ उसी की खातिर अन्य उपलब्धियों को नकार देंगे ?

फिर विकास के काम को आगे बढ़ाने के लिए किसी अन्य शासक को कैसे प्रोत्साहन मिलेगा  ?

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 बेहतर होता रिकाॅर्ड 

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जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोपों के बीच सी.बी.आई.के बारे में एक सकारात्मक खबर आई है।

सन 2022 में सी.बी.आई केस में सजा की दर 74 .6 प्रतिशत रही।

सन 2009 में सी.बी.आई. ने जितने मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए,उनमें से सिर्फ 64 प्रतिशत मामलों में ही आरोपितांे को सजा हो पाई थी।

यानी, सन् 2022 में अदालतों ने कम से कम 74.6 प्रतिशत मामलों में सी.बी.आई.जांच को सही माना।इसकी तुलना आई.पी.सी.के तहत दायर मुकदमों से कीजिए।

वैसे मुकदमों में  देश में सजा की दर 2021 में 57 प्रतिशत ही रही।

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एक दवा से कई इलाज

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हाल के महीनों से बिहार में सरकारी नौकरियां देने की रफ्तार बढ़ी है।

आपात काल ( 1975-77)में भी बड़े पैमाने पर बिहार सरकार ने बेरोजगारों को नौकरियां दी थी।

  इन पंक्तियांे का लेखक एक ऐसे किसान परिवार को जानता है जिसके एक सदस्य को सन 1976 में सरकारी शिक्षक की नौकरी मिली थी।

उस स्टाइपेंडरी टीचर को मात्र सवा सौ रुपए मासिक मिलते थे।

पर,उतने ही पैसे से परिवार की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आने लग गया।

उससे पहले किसी भी बड़े काम के लिए वह किसान अपनी जमीन बेचता था।

इस बहाली के बाद जमीन बिकनी बंद हो गई।दरअसल जिस परिवार में कोई एक सरकारी कर्मचारी भी होता है,तो उसे कर्ज-उधार भी आसानी से मिल जाते हैं।

यदि देश की विभिन्न सरकारें ऐसे परिवारांे के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान कर दे जिन परिवारों में अब तक एक भी सरकारी या गैर सरकारी नौकरी नहीं हैं तो उससे गांवों की अर्थ व्यवस्था में काफी  फर्क पड़ेगा।

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भूली बिसरी यादें

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यह बात तब की है जब ब्रिटेन के प्रधान मंत्री हेराल्ड मैकमिलन भारत आए थे।

नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश हाई कमिश्नर एम.मैकडोनाल्ड के आवास पर भोज का आयोजन हुआ।

प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू उस भोज के मुख्य अतिथि थे।

ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने जब केंद्रीय मंत्री मोरारजी देसाई को भोज के लिए आमंत्रित किया तो देसाई ने एक शर्त रख दी।उन्होंने कहा कि वहां कोई व्यक्ति शराब नहीं पिएगा।

शर्त मान ली गई।

भोज में अजीब दृश्य था।सबके हाथों में फल के रस के ग्लास थे।

उस भोज में जो अंग्रेज शामिल हुए,उन्होंने बगल के कमरे में जाकर शराब का सेवन किया।

कट्टर गांधीवादी देसाई जिन बातों में विश्वास रखते थे,उसका वे कड़ाई से पालन करते थे।

सन 1977 में जब मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने देश भर में चरण बद्ध तरीके से शराबंदी लागू करनी शुरू कर दी।

उस दौरान पटना के प्रेस कांफ्रंेस में उनसे पूछा गया कि ‘‘आप कब तक पूर्ण शराबबंदी लागू करेंगे ?’’

प्रधान मंत्री ने जवाब दिया--‘‘मैं तो आज ही लागू कर दूं। किंतु तुम्हीं लोग इसके खिलाफ हो।’’

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और अंत में

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सन 2012 -13 में इस देश में कर दाताओं की कुल संख्या 2 करोड़ 82 लाख थी।

   सन 2020-21 में यह संख्या बढ़कर 6 करोड़ 84 लाख हो गई है।जबकि ब्रिटेन जैसे छोटे देश में कर दाताओं की संख्या 3 करोड़ 22 लाख है।

जानकार लोग बताते हैं कि यदि भारत में भी कर वसूली में कठोर कड़ाई की जाए तो केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को पैसों की कमी नहीं रहेगी।

उससे न सिर्फ विकास और कल्याण के कामों में तेजी आएगी,बल्कि ओल्ड पेंशन योजना जैसी कल्याणकारी योजना भी लागू की जा सकेगी।

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10 अपैल 23


मंगलवार, 11 अप्रैल 2023

 यदि कोई दैवीय शक्ति मदर टेरेसा के पास थी तो वैसी ही 

शक्ति धीरेंद्रकृष्ण शास्त्री के पास क्यों नहीं हो सकती ?

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  सुरेंद्र किशोर

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दो चमत्कारों के बाद सन 2016 में मदर टेरेसा को ‘संत’ की उपाधि दे दी गई।

मदर टेरेसा ने पश्चिम बंगाल की एक आदिवासी महिला को असाध्य रोग से मुक्ति दिला दी ।यह था उनका पहला चमकार।

माना गया कि ऐसा दैवीय शक्ति से हुआ जो शक्ति मदर टेरेसा के पास थी।

मदर टेरेसा की दैवीय शक्ति से ब्राजिल के एक व्यक्ति के मस्तिष्क का कैंसर ठीक हो गया।यह था उनका दूसरा चमत्कार।

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क्या अंध श्रद्धा उन्मूलन समिति ने मदर टेरेसा के इन चमत्कारों को सार्वजनिक रूप से कभी चुनौती दी थी ?

यदि दी होगी तो मुझे नहीं मालूम।

किंतु इन दिनों वह चर्चित समिति बामेश्वर धाम सरकार के पीठासीन धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के चमत्कारों को जोरदार चुनौती दे रही है।

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खुद मैं नहीं जानता कि कोई चमत्कार होता भी है या नहीं।

यदि होता है तो क्या वैसी दैवीय शक्ति सिर्फ गैर हिन्दू संतों में ही पाई जाती है ?

यदि वह शक्ति होती ही नहीं है तो मदर टेरेसा पर चुप्पी और धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के खिलाफ इतना शोर क्यों ? 

(मैं तो बहुत अच्छा मानूंगा,यदि दैवीय चमत्कार होता होगा तो।

मैं खुद ईश्वर से प्रार्थना करूंगा कि वे मेरे जीवन में भी कम से कम एक चमत्कार बरसाने की कृपा कर दें ताकि जीवन के आखिरी साल तनावमुक्त ढंग से कट जाए।)

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पहले से तो मैं यह जानता रहा था कि सिर्फ राजनीति में ही वोट के लिए दोहरा मापदंड अपनाया जाता है।

पर, मैं धार्मिक क्षेत्र भी वही सब देख रहा हूं।

यानी, यदि आप ‘‘सेक्युलर’’ हैं तो सिर्फ बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की तीव्र आलोचना करेंगे और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता को बढावा देंगे।

यदि आप ‘‘गैर-सेक्युलर’’ हैं तो सिर्फ अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता की आलोचना करेंगे और बहुसंख्यक साम्पद्रायिकता को संरक्षण देंगे।

पर,अब तो यह भी देख रहा हूं कि धार्मिक क्षेत्रों में भी मदर टेरेसा बनाम धीरेंद्र शास्त्री विवाद है।

यहां सांकेतिक तौर से ही दो नाम दिए गए हैं। 

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हाल में रामनवमी पर बिहार में भी दंगे हुए।

जिन दलों को मुस्लिम वोट मिलते हैं,उन दलों ने आरंम्भिक जांच रपट आने से पहले ही बहुसंख्यकों को दंगों के लिए दोषी ठहराते हुए बयान दे दिया।

जिन्हें मुस्लिम वोट कम मिलते हैं ,उन्होंने अल्पसंख्यकों को दोषी ठकरा दिया।

बाद में जब गिरफ्तारियां होने लगीं तो पता चला कि दोनों पक्षों के दंगाई गिरफ्तार हो रहे हैं।

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आम तौर पर दंगे एकतरफा नहंीं होते, कुछ थोड़े से अपवादों को छोड़कर।   

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11 अप्रैल 23