सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

    दीवाली की मिठाई में कितना 

   जहर और कितना अमृत ?!

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 सुरेंद्र किशोर

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‘‘बिना जहरीले रंगों और रसायनों के विशेष

 तौर पर बनी हुई मिठाई’’

..........भागलपुर स्थित तपोवर्धन प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र ने 

दीपावली की शुभ कामनाओं सहित जो मिठाई भिजवाई है,उसके डिब्बे पर उपर्युक्त बातें लिखी हुई हैं।

चिकित्सा केंद्र के संचालक डा.जेता सिंह ने बाजार से खरीद कर मिठाई नहीं भिजवाई,बल्कि अपनी देखरेख में ऐसी मिठाई तैयार करवाई जिसके खाने से कोई रोग नहीं होने वाला है।

इस बात का उन्होंने विशेष तौर पर ध्यान रखा है।

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  दरअसल अपवादों को छोड़कर बिहार सहित इस देश के बाजारों में मिल रही मिठाइयों में कौन -कौन से रसायन और जहरीले रंग मिले हुए होते हैं,उनके बारे में कोई गारंटी नहीं।

मिलावट खोरों के समक्ष पूरी शासन व्यवस्था विफल हो गई लगती है।

पटना के महावीर मंदिर में निर्मित नैवेद्यम लड्डू को छोड़ कर  पटना की किसी अन्य मिठाई पर मेरा कोई भरोसा नहीं।

संभव है कि कहीं इक्की दुक्की जगहों में शुद्ध मिठाई तैयार होती हो !!

आपको वैसी जगह का पता हो ,तो जरूर बताइएगा।

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1.-बिक्रेता सब्जियों की ताजगी बरकरार रखने अथवा उनके परिरक्षण के लिए उन्हें कीटनाशकों में डूबोते हैं।

तेलों और मिठाइयों में वर्जित पदार्थों की मिलावट की जाती है।

2.-सब्जियों और दूसरे खाद्य पदार्थ को धोना फायदेमंद है।

लेकिन पकाने से विषैले अवशेष बिरले ही खत्म होते हैं।

निगले जाने के बाद छोटी आंत कीटनाशकों को सोख लेती हैं।

3.-शरीर भर में फैले बसायुक्त उत्तक इन कीटनाशकों को जमा कर लेते हैं।

 इनसे दिल,दिमाग,गुर्दे और जिगर सरीखे अहम अंगों को नुकसान पहुंच सकता है।

----इंडिया टूडे हिंदी-15 जून, 1989

कई साल पहले भारत की  संसद में यह कहा गया कि अमेरिका की अपेक्षा हमारे देश में तैयार हो रहे कोल्ड ड्रिंक में 

रासायनिक कीटनाशक दवाओं का प्रतिशत काफी अधिक है ।इस पर  सरकार ने कह दिया कि यहां कुछ अधिक की अनुमति है।

सन 1999 में तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  को पटना हवाई अड्डे पर जो बोतलबंद पानी  परोसा जाने वाला था,वह अशुद्ध पाया गया था।

  ऐसी ही घटना 2010 में मनमोहन सिंह के साथ कानपुर में हुई थी जब वे प्रधान मंत्री के रूप में वहां यात्रा पर गए थे।

उन्हें परोसे जाने वाले मूंग की दाल और खरबूजे के बीज अशुद्ध और मिलावटी पाए गए थे। 

यानी प्रधान मंत्री भी नहीं बच पा रहे हैं।एस.पी.जी.ने उसकी जांच नहीं की होती तो पी.एम.द्वय भी मिलावट के कारण बीमारी की चपेट में आ जाते।

  हाल की खबर है कि इस देश में बिक रहे 85  प्रतिशत दूध मिलावटी है।जितने दूध का उत्पादन नहीं है,उससे अधिक की आपूत्र्ति हो रही है।  

सवाल है कि इस देश में अन्य कौन सा खाद्य व भोज्य पदार्थ कितना शुद्ध है ?

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विभिन्न सरकारें लोक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए क्या -क्या करती हंै ? 

कितने दोषियों को हर साल सजा हो पाती है ?

मिलावट का यह कारोबार जारी रहा तो कुछ दशकों के बाद हमारे यहां कितने स्वस्थ व कितने अपंग बच्चे पैदा होंगे ?

पीढ़ियों के साथ इस खिलवाड़ को आप क्या कहेंगे ?

क्या सबके मूल मंे भष्टाचार नहीं है ?   

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 विधान परिषद की विशेष समिति ने जांच के बाद सन 2002 में ही यह कहा था कि ‘‘पूरा समाज  मिलावटी कारोबार करने वालों की दया पर निर्भर हो गया है।यहां तक कि बिहार विधान सभा का कैंटीन भी अपमिश्रण के मामले में अछूता नहीं रहा।’’

  पटना की कई प्रतिष्ठित किराना दुकानों को भी समिति ने अपमिश्रण के मामले में अपवाद नहीं माना था।

मिलावटखोरों के खिलाफ मामले की सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर पीठ ने 2011 में ही कहा था कि उनके खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का इस्तेमाल किया जा सकता है।समय- समय पर इस देश की विभिन्न अदालतों ने भी कड़ी कार्रवाई की जरुरत बताई।

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एन.एस.ए.कौन कहे,मिलावटखारों के खिलाफ सामान्य कानूनों के तहत भी कार्रवाइयां नाममात्र की होती हंै।

 मिलावट पर काबू पाने के लिए तैनात सरकारी एजेंसियां अपवादों को छोड़कर मिलावटखोरों से नजराना-शुकराना वसूली के धंधे में लिप्त रहती हंै।

देश की विभिन्न सरकारों ने सामान्य उपभोक्ताओं को जहर के सौदागरों के राक्षसी चंगुल में धकेल रखा है।

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ऐसे में पटना के महावीर मंदिर और भागलपुर के चिकित्सा केंद्र जैसे इक्के -दुक्के संस्थानों से कैंसर पर कितना काबू पाया जा सकेगा ?

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दीपावली के अवसर पर मेरी यह कामना है कि आप मिलावट के जहर से खुद को और परिवार को बचाए रखें 

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शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

   

   मशहूर पत्रकार-लेखक-साहित्यकार-तर्कवादी  

   दिवंगत राज किशोर के बहाने कुछ मूल सवाल

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      सुरेंद्र किशोर

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स्वतंत्र विचार वाले मुक्त चिंतक राज किशोर के लेखन का मैं प्रशंसक रहा हूं।

उनका सन 2018 में निधन हो गया।

मैं उनके लेखों की कटिंग रखता रहा।

‘‘मेरा पतन’’ शीर्षकांतर्गत उनका एक लेख 28 मई 2013 को जनसत्ता में छपा था।

उसे मैंने देर से यानी कल ही पढ़ा।

बहुत मार्मिक लगा।

लगा कमोबेश यह मेरी भी कहानी है।

फिर मेरा ध्यान उनकी उस चिट्ठी की ओर गया जो उन्होंने मुझे करीब 20 साल पहले लिखी थी।

तब मैं के.के.बिड़ला फाउण्डेशन शोध वृति समिति का सदस्य था।

राजकिशोर जी चाहते थे कि उन्हें फेलोशिप मिले।

किंतु मैं उनकी मदद नहीं कर सका।

यह बात मुझे नहीं लिखनी चाहिए थी।

जिन बिघ्न संतोषियों के यह आरोप रहे कि वे किसी लाभ के लिए पक्ष बदलते रहे,उन्हें गलत साबित करने के लिए मैं यहां पहली बार यह बता रहा हूं।

उनके पत्र से यह बात साफ थी कि उन्हें पैसों की जरूरत थी,यदि वह सम्मानजनक तरीके से मिले।

 जाहिर है कि फैलोशिप एक सम्मानजनक रास्ता था।  

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जो अपनी शत्र्तों पर जीवन जीता है,चाहे वह राजकिशोर जी जैसा प्रतिभाशाली लेखक ही क्यों न हो,उसे कई बार आर्थिक कठिनाइयों से जूझना पड़ता है।

मुझे भी जूझना पड़ा।

पर, मेरे पास जमीन थी जिसे बेच कर मैंने उन पैसों का बैंक में ‘फिक्स्ड डिपोजिट’ करा दिया।

रोज ब रोज के खर्चे के लिए अब मैं निश्चिंत हूं।

मैं देश, काल, पात्र की जरूरतों के अनुसार अपने विचार व्यक्त कर सकता हूं।

पैसों के लिए ‘‘बंधुआ मजदूर’’ बनने की कोई जरूरत नहीं है।

पर, बेचारे राजकिशोर जी के पास बेचने के लिए जमीन नहीं रही होगी,अपनी जमीर बेचने वाले तो वे कत्तई नहीं थे।

उनके लेख मुझे याद आते रहते हैं जिनमें अक्सर नई बातें होती थी और लीक से हट कर और अकाट्य तर्कों के युक्त।

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अब उनका लेख पढ़िए

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मेरा पतन

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राज किशोर

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मैं नहीं जानता था कि मेरे शुभ चिंतकों में से वे भी हैं, 

जिन्हें जानने का मुझे कभी अवसर नहीं मिला।

मैं यह भी नहीं जानता था कि जब मेरा पतन होगा,तो वे मुझे न बता कर सार्वजनिक रूप से उसकी चर्चा करेंगे।

अगर मैं बीच-बीच में फेसबुक पर नहीं जाता, तो मुझे अपने पतन की खबर ही नहीं मिलती।

 मेरे पतन का प्रचार करने वाले वे हैं जिन्होंने मेरे उत्थान की कभी चर्चा नहीं की।

उनका सिद्धांत शायद यह है कि अच्छाई के बारे में बात करने से बुराई बढ़ती है और बुराई के बारे में बात करने से अच्छाई बढ़ती है।

  मैं एतद् द्वारा यह स्वीकार करता हूं कि मेरा पतन हाल में नहीं हुआ है,मैं शुरू से ही पतित रहा हूं।

 मेरा पहला पतन तब हुआ,जब माक्र्सवादियों द्वारा शासित राज्य में रहते हुए भी मैं कामरेड नहीं बना।

अगर यह गलती नहीं करता तो ,तो कम से कम रूस,पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया ,क्यूबा आदि देशों में से किसी एक देश की निःशुल्क यात्रा तो कर ही लेता।

कुछ दिन चीन में भी बिता सकता था।

मेरी पतित कलम सन 1977 से ही लिख रही थी कि पश्चिम बंगाल का हाल अच्छा नहीं है।

विद्वान लोगों को यह 30 साल बाद दिखने लगा

जब सिंगुर और नंदीग्राम जैसी बड़ी घटनाएं होने लगीं।

पतित से पतित भी उत्थान की उम्मीद करता है।

इसीलिए मैं जनवादी लेखक संघ की स्थापना के साथ ही उसका सदस्य हो गया था।

मुझे बताया गया था कि यह लेखकों का स्वतंत्र संगठन है।

साल भर तक संघ की गतिविधियों में शरीक होता रहा।

 जब नए पदाधिकारियों के चुनाव का मुहूर्त आया,तब मैंने पाया कि लेखकों की इच्छाओं पर माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की मर्जी भारी पड़ रही है।

   अब न मैं जनवादी लेखक संघ के लिए था और न जनवादी लेखक संघ मेरे लिए।

पतन ही मेरी नियति थी।

 जब मैं साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ में आया, तब मेरे पतन का दूसरा दौर शुरू हुआ।

मैंने तय किया कि पेशेवर पत्रकारिता करते हुए मुझे किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़ना चाहिए।

बहुत से लोग मुझे समाजवादी रूप में जानते रहे-यह दाग अब भी धुला नहीं है।

 जबकि मेरी मान्यता रही है कि डा.लोहिया के साथ उनका समाजवाद भी भस्मीभूत हो गया।

कुछ ऐसे नेता जरूर थे जिन्हें अखबारवाले अन्य विशेषण के अभाव में समाजवादी लिखते रहे।

मैं इन नेताओं के पास जाकर गिड़गिड़ा सकता था,उनकी जीवनी लिख सकता था और अपने लेखों में उन्हें महानता का अंतिम अवशेष बता सकता था।

तब मेरे पास भी नोयडा और पटना में एक बड़ा सा फ्लैट होता।

अर्जुन सिंह के घर माथा टेकता रहता तो केंद्रीय हिन्दी संस्थान का उपाध्यक्ष पद निश्चित था।

लेकिन मैं पतित का पतित ही रहा।

यह भी न बना कि तथाकथित कलावादियों से सांठगांठ कर लेता।

वहां भी रजा के नाम पर बहुत कुछ है।

  नवभारत टाइम्स में मेरे पतन का स्वरूप क्या था और मेरी किन बुराइयों के कारण एक संघी संपादक ने वहां से मुझे हटवा कर ही सांस ली,यह किस्सा बहुत दिलचस्प नहीं है।

क्योंकि यह हरेक पत्र-पत्रिका और चैनल के राशि फल का अनिवार्य अंग है।

अपना यह पतन जरूर कबूल करता हूं कि जिंदगी भर अंग्रेजी का विरोध करने के बाद मैं आठ पन्नों के एक अंग्रेजी मासिक का संपादन करने लगा।

मेरी इस ग्लानि को किसी ने नहीं छेड़ा,पर यह अफवाह कइयों ने फैलाई कि मैं एक एन जी.ओ.में रंगरेलियां मना रहा हूं।

वहां की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि निदेशक जार्ज मैथ्यू भी चाहते तो मौज मस्ती नहीं कर पाते।

 फिर भी पतन तो पतन ही है।

जब किसी और ने हिन्दी में काम करने का मौका नहीं दिया तो तब कायदे से मुझे अंग्रेजी में काम करने के बजाय भूख -प्यास सहते हुए,सरक-सरक कर निगम बोध घाट पहुंच जाना चाहिए था।

जाहिर है कि मैं किसी से कम कायर नहीं हूं।

मेरे ताजातरीन पतन का संबंध वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय से है।

  यहां आवासी लेखक  के रूप में रहने का अधिकार सिर्फ एक क्रांतिकारी छवि वाले कवि को था जिसे अपनी आखिरी कविता लिखे हुए दस वर्ष बीत चुके थे, जिसके उपन्यास का दूसरा संस्करण समाप्त होने ही वाला था और एक कविता संकलन हाल में प्रकाशित हो चुका था।

हिंदी समय डाॅट काॅम की जिम्मेदारी लेना पूरी तरह अनैतिक था,क्योंकि इससे विश्वविद्यालय की छवि सुधरने का अंदेशा था।

यह भी कम जघन्य नहीं है कि मैं विभूति नारायण राय की निंदा करता नहीं घूमता।

  अगर मेरा पतन नहीं हुआ होता तो ,तो मुझे हर शहर में उनकी तस्वीर के साथ यह पोस्टर लगवा देना चाहिए था कि इस आदमी को जहां भी देखो गोली मार दो।

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हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’

28 मई 2013


    

 


शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

 बिहार केसरी डा.श्रीकृष्ण सिंह की 

जयंती के अवसर पर

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श्रीबाबू का जीवन ही उनका संदेश था

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   सुरेंद्र किशोर

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महात्मा गांधी ने कहा था कि 

‘‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।’’

बिहार में लंबे समय तक मुख्य मंत्री रहे श्रीबाबू के जन्म दिन के अवसर पर फिलहाल यहां उनके सिर्फ दो गुणों की चर्चा करूंगा।

  सिर्फ दो ही इसलिए क्योंकि आज की राजनीति में उन गुणों का नितांत अभाव होता जा रहा है।

इस कारण देश-प्रदेश ही नहीं ,बल्कि कुछ राजनीतिक दलों का भी भारी नुकसान हो रहा है।

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रुपए-पैसों के मामलों में 

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सन 1961 में श्रीबाबू के निधन के 12 वें दिन तत्कालीन राज्यपाल की उपस्थिति में उनकी निजी तिजोरी खोली गयी थी।

   तिजोरी को तीन सदस्यीय समिति की देखरेख में खोला गया था।

  समिति के सदस्य थे तत्कालीन कार्यवाहक मुख्य मंत्री दीप नारायण सिंह,सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण और राज्य के मुख्य सचिव एस.जे.मजुमदार। 

 तिजोरी में कुल 24 हजार 500 रुपए मिले।

वे रुपए चार लिफाफों में रखे गए थे।

एक लिफाफे में रखे 20 हजार रुपए प्रदेश कांग्रेस कमेटी के लिए थे।

दूसरे लिफाफे में तीन हजार रुपए थे कांग्रेस नेता मुनीमी साहब की बेटी की शादी के लिए थे।

तीसरे लिफाफे में एक हजार रुपए थे जो कांग्रेस नेता महेश बाबू की छोटी कन्या के लिए थे।

चैथे लिफाफे में 500 रुपए उनके  विश्वस्त नौकर के लिए थे।

श्रीबाबू ने अपने पूरे शासन काल में कोई अपनी निजी संपत्ति नहीं खड़ी की।

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परिवारवाद के बारे में 

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चम्पारण के कुछ कांग्रेसी सन 1957 में श्रीबाबू से मिले।

कहा कि (उनके पुत्र)शिवशंकर सिंह को विधान सभा चुनाव लड़ने की अनुमति दीजिए।

श्रीबाबू ने कहा कि मेरी अनुमति है।

किंतु तब मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा।

क्योंकि एक परिवार से एक ही व्यक्ति को चुनाव लड़ना चाहिए।

(याद रहे कि यही बात कर्पूरी ठाकुर ने सन 1980 में अपनी पार्टी को कही थी जब कतिपय शीर्ष समाजवादी नेता रामनाथ ठाकुर को विधान सभा चुनाव में उम्मीदवार बनाना चाहते थे।) 

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श्रीबाबू के दो पुत्र थे - शिवशंकर सिंह और बंदी शंकर सिंह।

श्रीबाबू के निधन के बाद ही वे दोनों राजनीति में आए।

शिवशंकर सिंह विधायक बने और बंदी शंकर सिंह बिहार सरकार के मंत्री।

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21 अक्तूबर 22





  रिटायर पत्रकार को यदि नेता नहीं पूछते 

 तो पत्रकार भी अपवादों को छोड़ कर 

 हाशिए पर गए नेता को घास नहीं डालते

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  सुरेंद्र किशोर

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‘‘मेरे जीवन का यह अनुभव रहा है कि लोग आपको आपके पद की वजह से जानते हैं और उसी के मुताबिक आपको अहमियत देते हैं।

वे आपके करीब होने ,शुभचिंतक होने का कितना भी नाटक क्यों न करते रहें, वे यह देख कर आपसे संबंध बनाते हैं कि आप उनके कितने काम आ सकते हैं।’’

  नई दिल्ली से प्रकाशित एक चर्चित हिन्दी दैनिक के महत्वपूर्ण संवाददाता रहे पत्रकार ने ‘‘विनम्र’’ नाम से अपना अनुभव लिखा है।असली नाम उनका कुछ और है।

  तब तक वे रिटायर नहीं हुए थे।

उन्होंने लिखा कि ‘‘रिटायर होने के बाद मुझे कोई न पहचाने या मेरा काम न करे ,इसके लिए मैंने खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लिया है।

 वैसे भी इसमें नया कुछ नहीं है।

यह तो मानव स्वभाव है।

संबंध तो कपड़ों की तरह होते हैं।

 जिस स्वेटर को सर्दियों में हम कलेजे से लगाए रखते हैं,उसे मौसम बदलते ही नजरों से दूर कर के आलमारी में बंद कर देते हैं।’’

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 अब जरा मेरा अनुभव जानिये।

यह अनुभव अन्य लोगों का भी होगा।

जब मैं बारी -बारी से अखबारों से स्टाफ के रूप में जुड़ा हुआ था,तो मुझे हर शुभ अवसर पर औसतन करीब सवा सौ फोन आते थे।

शुभ कामनाएं देने के लिए।

होली,दिपावली,15 अगस्त,26 जनवरी और 1 जनवरी को।अब उन लोगों में से किसी का फोन मुझे नहीं आता।अन्य का जरूर आता है।

जबकि, एक पत्रकार के रूप में आज भी अपने लेखन के जरिए उतने अधिक पाठकों तक पहुंचता हंू जितना किसी अखबार में था तो शायद नहीं पहुंचता था।

दरअसल उन संवाददाताओं या पत्रकारों की नेताओं की नजर में कीमत होती है जो किसी नेता का बयान या तो छाप सके या छापना रोक सके या खबर को छोटा-बड़ा कर सके।

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़अस्सी के दशक में बिहार के एक बड़े चर्चित नेता से जब मैं मिलता था तो 

वे खास तरह की बातें करते थे।

जब वे तत्कालीन मुख्य मंत्री से नाराज रहते थे तो मुझसे कहते थे कि आप अरूण शौरी की तरह लिखिए।

जब मुख्य मंत्री से खुश रहते थे कि कहते थे कि आप इंदर मेहरोत्रा की तरह लिखिए।

इस बहाने वे मुझे उन दो बड़े पत्रकारों की श्रेणी में डाल देते थे ताकि वैसी तुलना से मुझे खुशी हो।

  अरूण शैारी तब सरकार विरोधी और मेहरोत्रा सरकार समर्थक पत्रकार माने जाते थे।

वही नेता जब किसी अन्य से मिलते थे तो मेरे बारे में कहते थे कि उसको तो कुछ लिखने आता ही नहीं है।

मैं ही उसे खबर बताता रहता हूं।

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कहानी का मोरल यह है कि 

पत्रकार किसी नेता की प्रशंसा या आलोचना से तनिक भी प्रभावित न हों।

अपना काम करते जाएं जो उचित समझें या जो उचित हो।

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नेता यदि रिटायर पत्रकारों को नहीं पूछते तो हम पत्रकार भी तो हाशिए पर गए नेताओं को घास नहीं डालते !!!!

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काम के कारण संबंध है।

उनका हमसे और हमारा उनसे।

वैसे भी कितने रिटायर पत्रकार के निधन पर उस अखबार में उनके मरने की खबर छपती है जिस अखबार में वे दशकों तक नौकरी कर चुके होते हैं ? !!!  

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सुरेंद्र किशोर

19 अक्तूबर 22


  नेतृत्व की अदूरदर्शिता के कारण ही सन 1962 में हमें 

चीन के हाथों शर्मनाक पराजय का मुंह देखना पड़ा

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   सुरेंद्र किशोर

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20 अक्तूबर, 1962 को चीन ने युद्ध में भारत को हराया था।

उन्हीं दिनों प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि मुझे असमवासियों के प्रति र्हािर्दक सहानुभूति है जिन्हें हम बचा नहींे पा रहे हैं।

   चीन के हाथों हमारी पराजय हमारे शासकों की अदूरदर्शिता के कारण हुई।

इस पर बहुत सारी बातें लिखी जा चुकी हैं।मैं सिर्फ दो-तीन बातों की याद दिलाऊंगा।

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 हंडरसन -भगत रिपोर्ट

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  चीन-भारत युद्ध में पराजय के कारणों की जांच का भार  भारतीय सेना के दो अफसरों को  

सौंपा गया था।

उनके नाम हैं 

 लेफ्टिनेंट जनरल हंडरसन ब्रूक्स और 

ब्रिगेडियर पी.एस..भगत ।

 सन् 1963 में ब्रूक्स-भगत रपट आई ।

 उसे तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जे.एन.चैधरी ने अपने  कवर लेटर के साथ रक्षा मंत्रालय को भेज दिया था।

केंद्र सरकार ने इसे वर्गीकृत यानी गुप्त सामग्री का दर्जा 

देकर दबा दिया।

 आखिर उसे क्यों दबा दिया गया ?

क्या उस रपट के प्रकाशन से तत्कालीन भारत सरकार और उसके नेतृत्व की छवि को नुकसान होने वाला था ?

 क्या यह बात सही है कि उस रपट के अब भी सार्वजनिक हो जाने पर आज के कुछ नेताओं की बोलती बंद हो जाएगी ?

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जनरल बी.एम. कौल के शब्दों में 

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  इस हार की कहानी लिखी है ले.ज.बी.एम.कौल ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘द अनटोल्ड स्टोरी’ में।

कौल ने हार के लिए प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू,रक्षा मंत्री वी.के.कृष्ण मेनन और वित्त मंत्री मोरारजी देसाई को मुख्यतः उत्तरदायी ठहराया। 

हालांकि खुद को उन्होंने जिम्मेवार नहीं ठहराया है।

खुद को कितने लोग जिम्मेवार मानते हैं ! 

मेनन और देसाई ने तो बाद में कौल के आरोपों का खंडन किया था।

पर खंडन के लिए तब नेहरू जीवित नहीं थे जब 1967 में पुस्तक छपी।

पर, उस किताब पर तब देश-विदेश में उन दिनों काफी चर्चाएं हुई थंीं।

  कौल के अनुसार,‘नेहरू और  मेनन को बार -बार चीनी हमले की चेतावनी दी गई थी।

उनसे आग्रह किया गया था कि वे हिन्दुस्तानी फौजांे को नये और आधुनिक हथियारों से लैस करें।

मगर दोनों ही नेताओं ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

क्योंकि उन्हें चीन की सैन्य शक्ति और तैयारी का कोई अंदाज नहीं था।’

‘........मेनन यह मांग स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे कि हिन्दुस्तानी फौजों की जरूरत के हथियार बनाने का काम गैर सरकारी उद्योग को भी दिया जाए।

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एक युद्ध संवाददाता के शब्दों में 

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देश के प्रमुख पत्रकार मन मोहन शर्मा के अनुसार,

‘‘एक युद्ध संवाददाता के रूप में मैंने चीन के हमले को कवर किया था।

  मुझे याद है कि हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।

 हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोड़िये,कपड़े तक नहीं थे।

 नेहरू जी ने कभी सोचा ही नहीं था कि 

चीन हम पर हमला करेगा।(जबकि विस्तारवादी चीन तिब्बत को हड़प चुका था।)

एक दुखद घटना का उल्लेख करूंगा।

अंबाला से 200 सैनिकों को एयर लिफ्ट किया गया था।

उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।

उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया

जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।

वहां पर उन्हें गिराए जाते ही ठंड से सभी बेमौत मर गए।

  युद्ध चल रहा था।

मगर हमारा जनरल कौल मैदान छोड़कर दिल्ली आ गया था।

ये नेहरू जी के रिश्तेदार थे।

इसलिए उन्हें बख्श दिया गया।

हेन्डरसन जांच रपट आज तक संसद में पेश करने की किसी सरकार में हिम्मत नहीं हुई।’’

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और अंत मंे

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एक अन्य खबर के अनुसार,चीनी हमले से पहले रक्षा मंत्रालय ने जरूरी खर्चे के लिए वित्त मंत्रालय से एक करोड़ रुपए मांगे थे। किंतु वित्त मंत्री और प्रधान मंत्री ने एक करोड़ रुपए भी नहीं दिए।

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20 अक्तूबर 22 




   


 

 


बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

 कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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बिहार से उठ रही राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ी जातियों  के वर्गीकरण की मांग 

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बिहार जनता दल (यू) के प्रदेश प्रवक्ता अरविंद निषाद ने केंद्र सरकार से मांग की है कि वह केंद्रीय स्तर पर अति पिछड़ा वर्ग का वर्गीकरण करे।

उससे देश की कमजोर जातियों का विकास संभव हो पाएगा।

इस विषय के जानकार लोग बताते हैं कि यह मांग जायज है।

यह एक पुरानी मांग है।

लगभग ऐसी ही मांग को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार ने सन 2017 में रोहिणी न्यायिक आयेाग का गठन किया था।     

उस आयोग ने मंडल आरक्षण के तहत निर्धारित 

27 प्रतिशत आरक्षण को चार भागों में बांट देने की 

सिफारिश केंद्र सरकार से कर दी है।

पर,सवाल है कि उस सिफारिश को लागू करने में केंद्र सरकार के सामने कौन सी दिक्कत आ रही है ?

रोहिणी आयोग ने विस्तृत सर्वे के बाद यह सिफारिश की है।

   यदि रोहिणी आयोग की सिफारिश मान ली गई तो केंद्र की सूची में शामिल 97 मजबूत पिछड़ी जातियों को 27 में 10 प्रतिशत आरक्षण का हिस्सा मिलेगा।

  1674 जातियों को दो प्रतिशत, 534 जातियों को 6 प्रतिशत और 328 जातियों को 9 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा।

इससे जदयू की ताजा मांग को भी काफी हद तक पूरा किया जा सकेगा।

  वर्षों से यह एक संवेदनशील मामला रहा है।

आरोप लगता रहा है कि आरक्षण का अधिक लाभ मजबूत पिछड़ी जातियों को ही मिलता रहा है।

रोहिणी आयोग ने भी पाया कि कुल 2633 पिछड़ी जातियों में से करीब 1000 जातियों को तो आज तक आरक्षण को कोई लाभ मिला ही नहीं।

  उम्मीद की जानी चाहिए कि रोहिणी आयोग की रपट लागू करने में  ‘‘चुनावी राजनीति’’ केंद्र सरकार के समक्ष बाधक नहीं बनेगी।

सन 1990 में केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने की वी.पी.सिंह सरकार ने घोषणा की।

यह विषय कोर्ट में चला गया।इसलिए सरकार  इस संबंध 1993 में ही अधिसूचना जारी कर सकी।

 करीब तीन दशक के बाद भी आज स्थिति यह है कि 27 में से सिर्फ औसतन 19 प्रतिशत सीटें ही भर पाती हैं।

जानकार लोगों को कहना है कि यदि पिछड़ों का वर्गीकरण हो जाए तो पूरी सीटें भर जाने की उम्मीद की जा सकती है।

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  दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई

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दंगा पीड़ितों को न्याय मिलने की तीन खबरें हाल में आई हंै।

एक खबर मध्य प्रदेश और दो खबरें उत्तर प्रदेश से आई हैं।

सन 2013 में मुजफ्फर नगर में दंगा हुआ था।उस सिलसिले में हाल में निचली अदालत ने भाजपा विधायक विक्रम सैनी तथा अन्य कुछ लोगों को दो-दो साल की सजा दी है।

 सन 2006 में डेनमार्क में बनाए गए एक विवादास्पद कार्टून को लेकर मुजफ्फर नगर में दंगे हुए थे।उस संबंध में हाल में कोर्ट ने फैसला दिया है।दस दंगाइयों को सजा दी गई है।

एक खबर मध्य प्रदेश के खरगौन की है।

गत रामनवमी के अवसर पर वहां दंगे हुए थे।

‘‘क्लेम ट्रिब्यूनल’’ ने हाल में यह आदेश दिया है कि 50 दंगाइयों से साढ़े सात लाख रुपए वसूले जाएंगे।

वहां के चार मामलों में बहुसंख्यकों को मुआवजा मिलेगा।अन्य दो प्रकरणों में अल्पसंख्यकों को हर्जाना मिलेगा।

  यदि इस देश में दंगाइयों के खिलाफ सजा में तेजी आने लगे तो आगे कुछ करने से पहले दंगाई सौ बार सोचेंगे।

यदि कानूनी तौर पर संभव हो तो दंगाइयों की आर्थिक रीढ़ तोड़ने की भी जरूरत है।

उसका असर पड़ता है।

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सेंसर बोर्ड पर ध्यान दे अदालत

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यह बहुत अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक वेब सीरीज

को आपत्तिजनक बताते हुए निर्माता को फटकार लगाई है।

सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि यह अदालत उनके लिए काम करती है जिनके पास आवाज नहीं हैं।

सुप्रीम कोर्ट की यह पहल सराहनीय है।

पर, इतना ही से काम नहीं चलेगा।

सुप्रीम कोर्ट को एक और काम करना होगा।

वह उस संगठन के कामकाज पर गहराई से गौर करे जो ऐसे वेब सीरीज को प्रमाण पत्र देता है।

वैसे फिल्म सेंसर बोर्ड की हालत सुधारने की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने प्रारंभिक वर्षों में बड़ी कोशिश की थी। सरकार उस काम में सफल नहीं हो पाई।

इस काम का जिम्मा व्यापक देशहित में सुप्रीम कोर्ट को उठाना चाहिए।

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रक्षा उत्पाद का निर्यात

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 गत साल भारत सरकार ने 13 हजार करोड़ रुपए के रक्षा उत्पादों का निर्यात किया।

यह निर्यात बढ़ता ही जा रहा है।

सबसे बड़ा खरीदार अमेरिका है।

अब अपने देश में रक्षा सामग्री के उत्पादन में तेजी आई है।

अनेक रक्षा उत्पादों के आयात पर मोदी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है।वे उत्पाद स्वदेश में ही बन रहे हैं या गैर जरूरी हैं। रक्षा उत्पाद पहले भी इसी देश में बनाए जा सकते थे।

पर,जानकार लोग  कहते  हैं कि आयात में कमीशनखोरी की गुंजाइश बनाए रखने के लिए जानबूझ कर इस देश में रक्षा उत्पादन को बढ़ाया नहीं गया।

ध्यान रहे कि कुछ साल पहले बोफोर्स घोटाले जैसे अनेक रक्षा घोटाले आए दिन इस देश में हुआ करते थे।

  रक्षा उत्पादों के मामलों में स्वावलंबी देशों को विश्व मंच पर  भी अधिक महत्व मिलता है।  

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और अंत में

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एक बार डा.राम मनोहर लोहिया ने जयप्रकाश नारायण से कहा था,‘‘आप अपनी राय तो कभी बताते नहीं,सिर्फ दूसरों की सुनते हैं।’’

उस पर जेपी हंस कर बाले,‘‘सबको साथ लेकर चलना है तो सबकी राय सुननी चाहिए।

अगर शुरू में ही मैं अपनी राय दे दूं तो लोग अपनी राय देने में संकोच करेंगे।’’

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प्रभात खबर

पटना 17 अक्तूबर 22



 


बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

 कल से आज तक मुलायम सिंह यादव की कोई ऐसी तस्वीर 

मीडिया में नजर नहीं आई जो डा.लोहिया,मधुलिमये या राजनारायण के साथ कभी उतारी गई हो।

    आश्चर्य हुआ।

क्या मीडिया को पुरानी तस्वीरें मुहैया कराने वाले नेता जी के परिजन यह मान रहे हैं कि मुलायम सिंह की समाजवादी शैली अलग है और लोहिया-लिमये -राजनारायण की बिलकुल अलग थी ?

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किसी ने कभी कहा था कि तीन तरह के लोहियावादी हुए

हैं 

1.-सरकारी लोहियावादी

2.-मठी लोहियावादी 

और कुजात लोहियावादी !

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सुरेंद्र किशोर

12 अक्तूबर 22