शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

 



आज के दैनिक जागरण में प्रकाशित 

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संकट में काम आने वाला मित्र है इजरायल

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सुरेंद्र किशोर

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कारगिल संघर्ष के साथ 1971 के युद्ध में भी इजरायल ने हमारी मदद की थी,जबकि तब उससे हमारा राजनयिक संबंध नहीं था

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मित्रों का चयन सदैव सोच-समझकर और अपने हितों को ध्यान में रखकर करना चाहिए।

यह बात अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में भी लागू होती है।

हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि जवाहरलाल नेहरू की ओर से अनुपयुक्त मित्र का चयन होने के कारण हमने चीन के हाथों पराजय झेली थी।

मित्र सोवियत संघ ने उस कठिन दौर में भारत की मदद नहीं की।

आखिरकार भारत को अमेरिका के सामने मदद के लिए हाथ पसारना पड़ा।

प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 

इजरायल से दोस्ती करके पाकिस्तान के खिलाफ  कारगिल की कठिन लड़ाई जीती।

1962 के आसपास हमें ‘‘साम्यवादी अंतरराष्ठ्रीयतावाद’’ से लड़ना पड़ा था।

 1962 में चीन से युद्ध के बाद सी.पी.आई. से निकल कर 1964 में गठित सीपीएम अर्थात माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी दो हिस्सों में बंट गई।वैसे सी.पी.आई. से निकल कर 

 1964 में गठित सी.पी.एम.में शामिल हुए नेताओं ने भी तब चीन का ही साथ दिया था।

आज हमें ‘‘इस्लामिक अंतरराष्ट्रीयतावाद’’ से जूझना पड़ रहा है।यह किसी से छिपा नहीं है कि 

इस मामले में देश के कुछ लोग,दल एवं संगठन राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग राय रखती हैं।

   कठिन दौर में इजरायल ही हमारी मदद कर सकता है,इसे  ध्यान रखते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने

इजरायल-हमास युद्ध में इजरायल के साथ खड़े होने का  निर्णय किया।यह निर्णय देशहित में है।  

कारगिल युद्ध के समय हमारी मदद करके इजरायल ने यह साबित  किया था कि गाढ़े वक्त में वही हमारी मदद कर सकता है।

 1971 के युद्ध के समय भी इजरायल ने हमारी मदद की थी, जबकि तब उससे हमारा राजनयिक संबंध नहीं था।

 इजरायल से भारत का पूर्ण  राजयनिक संबंध सन 1992 में  कायम हो सका ।तब तक संबंध न होने का कारण इस्लामी देशों की नाराजगी का भय भी था और वोट बैंक की घरेलू राजनीति भी।इजरायल से संबंधों को मजबूत बनाने में मोदी सरकार ने विशेष सक्रियता दिखई।

इसके चलते आज दोनों देशों के संबंध कहीं अधिक प्रगाढ़ हैं।

 1962 के युद्ध के समय में सोवियत संघ ने कहा था कि ‘‘हम मित्र भारत और भाई चीन के बीच के झगड़े में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।’’

 बाद में यह पता चला कि चीन ने भारत पर हमला करने से पहले सोवियत संघ की सहमति ले ली थी। 

यह सही बात है कि बांग्लादेश युद्ध के समय सोवियत संघ की मदद भारत के बहुत काम आई थी।

लेकिन उसने हमेशा अपनी कम्युनिस्ट विचार धारा के हिसाब  से ही कदम उठाए।

अधिकतर देश अपने राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर ही फैसले करते हैं,लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने कई बार भावनाओं से काम लिया जो अव्यावहारिक साबित हुए और हमें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े।

आज यदि  मोदी सरकार रूस-उक्रेन युद्ध में निष्पक्ष

है तो यह राष्ट्रहित में है।

  कारगिल संघर्ष के समय की विषम स्थिति को याद करें।

पाकिस्तानी  सैनिक तब ऊंची पहाड़ियों पर छितरे हुए थे।उन्हें वहां से भगाने के लिए हमारी सेना को उच्च तकनीकी वाले हथियार चाहिए थे।

इसके अतिरिक्त सेटेलाइट की सुविधा की जरूरत थी।

गोला-बारूद की भी कमी थी।

किसी अन्य देश ने हमारी मदद नहीं की।उस विकट स्थिति में इजरायल ने हमें सब कुछ दिया जिसकी हमें जरूरत थी।

यहां तक कि चालक रहित विमान और बराक मिसाइल सिस्टम भी।

अन्य देशों ने भारत को ऐसी मदद करने से इजरायल को रोका भी,लेकिन उसने उनकी परवाह न करके हमारी मदद की।

उस मदद के कारण हम पाकिस्तानी सैनिकों को अपने भूभाग से भगा सके।   

दूसरी ओर, यह देखें कि चीन युद्ध के समय सोवियत संघ ने 

क्या किया था ?

 1987 में मशहूर वकील व लेखक एजी.नूरानी ने चीनी दस्तावेजों और सोवियत प्रकाशन का संदर्भ देते हुए अपने शोध पूर्ण लेख में लिखा था, ‘‘जब चीनी नेताओं ने सोवियत संघ के नेता निकिता खु्रश्चेव को बताया कि सीमा पर भारत का रुख आक्रामक है तो उन्होंने भारत के खिलाफ चीनी कार्रवाई को मंजूरी दे दी।’’     

     नुरानी के अनुसार  2 नवंबर, 1963 के चीनी अखबार ‘द पीपुल्स डेली’ ने

लिखा था कि  8 अक्तूबर 1962 को चीनी नेता ने सोवियत राजदूत से कहा कि भारत हम पर हमला करने वाला है और 

यदि ऐसा हुआ तो चीन खुद अपनी रक्षा करेगा।’’

13 अक्तूबर 1962 को खु्रश्चेव ने चीनी राजदूत से कहा कि ‘हमें भी ऐसी जानकारी मिली है और 

यदि हम चीन की जगह होते तो हम भी वैसा ही कदम उठाते जैसा कदम उठाने को वह सोच रहा है।’

  इसके बाद  20 अक्तूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया।

   सोवियत संघ की ओर से चीन का समर्थन करने का प्रमाण  सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘प्रावदा’ में भी मिलता है।

25 अक्तूबर, 1962 को ‘प्रावदा’ ने अपने संपादकीय में लिखा कि चीन मैकमोहन रेखा को नहीं मानता और हम इस मामले में चीन का समर्थन करते हैं।

 5 नवंबर 1962 को इसी अखबार ने लिखा कि ‘‘भारत को चाहिए कि वह चीन की शर्त को मान ले।’’

चीनी हमले के समय हमारी सेना के पास न तो गर्म कपड़े थे और न ही जूते।

जब चीन ने हमला किया तो भारतीय सेना ने कैसे मुकाबला किया ?

 एक युद्ध संवाददाता के अनुसार ,

 ‘‘ हम युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।

 हमारी सेना के पास अस्त्र,शस्त्र की बात छोड़िये,कपड़े तक नहीं थे।

 प्रधान मंत्री ने कभी सोचा ही नहीं था कि 

चीन  हम पर हमला करेगा।

अंबाला से 200 सैनिकों को एयरलिफ्ट किया गया था।

उन्होंने सूती कमीजें और निकरें पहन रखी थीं।

उन्हें बोमडीला में एयर ड्राप कर दिया गया

जहां का तापमान माइनस 40 डिग्री था।

वे इतनी भीषण ठंड का सामना नहीं कर सके।

  14 नवंबर 1962 को रक्षा मंत्री वाई.बी.चव्हाण ने पुणे में कहा था,‘हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि चीन के खिलाफ सोवियत संघ हमारा साथ देगा।’

   कुल मिलाकर अतीत में जब हमने सही दोस्त का चयन नहीं किया तो हमारे साथ धोखा हुआ।

बाद  में जब हम  सावधान हुए तो स्थिति सकरात्मक दिशा में बदली।इसी कारण इजरायल से मित्रता घनिष्ठ हुई।

इस घनिष्ठमता को और बढ़ाने की जरूरत है,क्योंकि वह हमारा सच्चा मित्र है और संकट में हमारा साथ देता है।

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20 अक्तूबर 23 


सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

 


अखबारों का बढ़ता-घटता प्रसार 

भी चुनावी हवा का एक संकेतक

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सुरेंद्र किशोर

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अस्सी के दशक में मशहूर फिल्म अभिनेता एन.टी.रामाराव ‘तेलुगु स्वाभिमान’ के लिए संघर्षरत थे।

तेलुगु दैनिक ‘इनाड’ु ने उनका पूरा साथ दिया।

इनाडु की प्रसार संख्या बहुत बढ़ गयी।

एन.टी.रामराव को भी तब बहुत बड़ी चुनावी सफलताएं मिली थीं।

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उस दौरान ‘इनाडु’ के बढ़ते प्रसार से भी पहले ही यह पता चल गया था कि एन.टी.रामाराव के पक्ष में चुनावी हवा है।

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 दमघोंटू इमरजेंसी की पृष्ठभूमि में सन 1977 में जब लोक सभा चुनाव की घोषणा हो गयी और इमरजेंसी की कठोरता में ढिलाई आई तो दो अखबारों के प्रसार अचानक बहुत बढ़ गये।

वे अखबार थे--इंडियन एक्सप्रेस और द स्टेट्समैन।

ये अखबार जेपी और जनता पार्टी के समर्थक और इंदिरा गांधी की राजनीतिक शैली और इमरजेंसी के सख्त खिलाफ थे।

1977 के चुनाव में इंदिरा सरकार का केंद्र की सत्ता से सफाया हो गया।यहां तक इंदिरा-संजय भी लोक सभा चुनाव हार गये।

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सन 2005 में जब नीतीश कुमार सत्ता में आए तो बिहार के एक अखबार ने उनकी सरकार के अच्छे कामों की सराहना शुरू कर दी।

अखबार का प्रबंधन परेशान था।

यदि सन 2010 में सरकार बदल गयी तो हमारा क्या होगा ?

मुझसे पूछा गया।

मैंने उनसे सवाल किया कि आपके अखबार का सर्कुलेशन बढ़ रहा है या घट रहा है ?

उन्होंने कहा कि वह तो बहुत बढ़ रहा है। 

मैंने कहा कि तब आपको चिंतित होने की जरूरत नहीं है। 

2010 में भी यही सरकार आएगी।

वही हुआ भी।

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अब आप आज की राजनीतिक स्थिति पर आइए।

सन 2024 में लोक सभा का चुनाव होना है।

नतीजों के बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं।कई लोगों के प्राण टंगे हैं।

वैसे भी हर जगह के अधिकतर अखबार आम तौर से दो हिस्सों में बंटे होते हैं।

एक की सहानुभूति सत्ता दल और दूसरे की सहानुभूति प्रतिपक्ष के साथ होती है।

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नरेंद्र मोदी के साथ सहानुभूति रखने वाले नई दिल्ली से प्रकाशित अखबार का सर्कुलेशन घट रहा है या बढ़ रहा है ?

प्रतिपक्ष के साथ सहानुभूति रखने वाले अखबार का प्रसार घट रहा है या बढ़ रहा है ?

यही बात निजी टी.वी.चैनलों पर भी लागू होती है--

किस चैनल के दर्शकों की संख्या बढ़ रही है और किसकी घट रही है ?

 किस चैनल की सहानुभूति कहां है और कहां नहीं है,या निष्पक्ष है,यह तो अधिकतर मामलों में जगजाहिर ही है,

चाहे आप जितना छिपाएं !

अब कम कहना अधिक समझना।

आप तो खुद समझदार हैं।

क्षेत्रीय अखबारों और क्षेत्रीय निजी न्यूज चैनलों पर भी यही फार्मूला अपनाइए।

सही आकलन पर पहुंच जाइएगा।

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23 अक्तूबर 23 


रविवार, 22 अक्तूबर 2023

 मिलावट खोरी के खिलाफ देश भर में विशेष अभियान जरूरी

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सुरेंद्र किशोर

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मेरी पत्नी हाल में तीर्थ यात्रा पर गयी थीं।

उज्जैन,

सोमनाथ,

द्वारका,

शिरडी,

नासिक और 

वाराणसी की यात्रा थी।

यात्रा का आयोजन इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म काॅरपोरेशन लिमिटेड ने किया था।

आई.आर.सी.टी.सी.का प्रबंध सराहनीय रहा।

कोई असुविधा नहीं।

पर,विभिन्न तीर्थ स्थलों में उपलब्ध मिठाइयों की गुणवत्ता पर मुझे संदेह हुआ है।

मैं समझता था कि सिर्फ बिहार में ही क्वालिटी कंट्रोल करने वाला सरकारी तंत्र भ्रष्ट तथा निकम्मा है।

पर,यह समस्या तो लगभग देशव्यापी है।

पत्नी ने मुझे यह भी बताया कि महाराष्ट्र की सड़कों की अपेक्षा बिहार की सड़कें बेहतर हैं।

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बड़ बोलापन हो जाएगा ,फिर भी कह ही देता हूं।

जीभ से गले तक का मेरा स्थान प्रयोगशाला की तरह है।

मुंह में डालते ही आम तौर पर मुझे लग जाता है कि पदार्थ शुद्ध है या नहीं।

मुंह का कौर जब शरीर में टहलते हुए आगे जाता है तो एक बार फिर उसकी ‘जांच’ हो जाती है।

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मैं शुद्ध चीजें खा-खाकर

गांव में बड़ा हुआ हूं।

मैं हरित क्रांति से पहले के छोटे दाने वाले गेहूं की स्वादिष्ट रोटी भी खा चुका हूं

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मैं पटना की सिर्फ एक ही मिठाई खाता हूं।

बार -बार उस मिठाई व बिक्री के स्थान का नाम बताना अच्छा नहीं लगता।

पर,संकेत दे देता हूं।

उस लड्डू में लापारवाही से छूट गए इलाइची के छिलके नहीं होते तो मुझे और अच्छा लगता।

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केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर मिलावटी खाद्य व भोज्य पदार्थों की गुणवत्ता की जांच के लिए विशेष अभियान चलाना चाहिए अन्यथा कैंसर मरीजों के इलाज पर हो रहा खर्च बढ़ता जाएगा।

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1.-बिक्रेता गण सब्जियों की ताजगी बरकरार रखने अथवा उनके परिरक्षण के लिए उन्हें कीटनाशकों में डूबोते हैं।

तेलों और मिठाइयों में वर्जित पदार्थों की मिलावट की जाती है।

2.-सब्जियों और दूसरे खाद्य पदार्थ को धोना फायदेमंद है।लेकिन पकाने से विषैले अवशेष बिरले ही खत्म होते हैं।निगले जाने के बाद छोटी आंत कीटनाशकों को सोख लेती हैं।

3.-शरीर भर में फैले बसायुक्त उत्तक इन कीटनाशकों को जमा कर लेते हैं।इनसे दिल,दिमाग,गुर्दे और जिगर सरीखे अहम अंगों को नुकसान पहुंच सकता है।

--इंडिया टूडे हिंदी-15 जून, 1989

(आज तो हालात और भी बिगड़ चुके हैं।

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कई साल पहले भारत की  संसद में यह कहा गया कि अमेरिका की अपेक्षा हमारे देश में तैयार हो रहे कोल्ड ड्रिंक में 

रासायनिक कीटनाशक दवाओं का प्रतिशत अधिक है।

इस पर केंद्र सरकार ने कह दिया कि यहां कुछ अधिक की अनुमति है।

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यह तब की बात है जब प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  थे।पटना हवाई अड्डे पर  जो बोतलबंद पानी उन्हें परोसा जाने वाला था,वह अशुद्ध पाया गया था।ऐसी ही घटना मनमोहन सिंह के साथ कानपुर में हुई थी जब वे प्रधान मंत्री के रूप में वहां गए थे।

यानी, प्रधान मंत्री तक मिलावट की पहुंच है।

वे इसलिए बच पा रहे हैं क्योंकि उन्हें परोसने से पहले उसकी जांच का प्रावधान है।

  एक खबर के अनुसार, इस देश में बिक रहे 85  प्रतिशत दूध मिलावटी है।जितने दूध का उत्पादन नहीं है,उससे अधिक की आपूत्र्ति हो रही है।  

सवाल है कि इस देश में अन्य कौन सा खाद्य व भोज्य पदार्थ कितना शुद्ध है ?

यह जानलेवा समस्या बहुत पुरानी है।बढ़ती जा रही है।

विभिन्न सरकारें लोक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए क्या -क्या करती हंै ? कितने दोषियों को हर साल सजा हो पाती है ?

राज्यों में कितनी प्रयोगशालाएं हैं ?

मिलावट का यह कारोबार जारी रहा तो कुछ दशकों के बाद हमारे यहां कितने स्वस्थ व कितने अपंग बच्चे पैदा होंगे ?

पीढ़ियों के साथ इस  खिलवाड़ को आप क्या कहेंगे ?

क्या सबके मूल मंे सरकारी भष्टाचार नहीं है ?   

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21 अक्तूबर 23






बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

 पुलिस को मारोगे तो नहीं बचोगे

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हाल में बिहार के वैशाली जिले में अपराधियों ने एक सिपाही की हत्या कर दी।

उसके तत्काल बाद उस सिपाही के हत्यारा गिरोह के दो बदमाश पुलिस मुठभेड़ में मार दिए गए।

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सिपाही या पुलिस अफसर के हत्यारे आम तौर पर पुलिस मुठभेड़ में मार दिए जाते हैं।ऐसा लगभग पूरे देश में होता है।

अपवाद के तौर पर ही कोई पुलिस हंता बचा हो।

ऐसा क्यों होता है ?

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सुरेंद्र किशोर

18 अक्तूबर 23


सोमवार, 16 अक्तूबर 2023

 इमरजेंसी मंे ‘शोले ग्राम’ की पहाड़ी पर हमने जार्ज 

फर्नांडिस के साथ एक खास तरह की ट्रेंनिंग ली थी।

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सुरेंद्र किशोर

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सन 1975 में रिलीज अभूतपूर्व ‘शोले’ फिल्म की अब भी जब- तब मीडिया में चर्चा होती रहती है।मैंने भी न जाने कितनी बार उसे देखा है !!

जब भी चर्चा होती है,मुझे वह पहाड़ी याद आ जाती है।

बंगलोर (तब यही नाम था।) से करीब 50 किलोमीटर दूर शोले के फिल्मांकन स्थल वाली पहाड़ी।--अब तो उस इलाके को लेते हुए रामनगर  जिला भी 2007 में बन गया।

पहले तो बंगलोर ग्रामीण जिले में शोले के ठाकुर साहब की हवेली !!!! ? थी। 

आपातकाल में जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में हमने वहां एक खास तरह की ट्रेनिंग ली थी।

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मैं तब जे.एच.पटेल और लाड़ली निगम के साथ बंगलोर के एक होटल में टिका हुआ था।कई दिन वहां रहे।

तीनों के लिए डबल बेड वाले एक ही कमरे में प्रबंध था।संभवतः एम.जी.रोड पर।

हम लोग दिन भर सिनेमा देखते थे और रात में उस पहाड़ी पर जाकर ट्रेनिंग लेते थे।

जार्ज फर्नांडिस मुझे महत्व देते थे।

वे अपने साथ कार की पिछली सीट पर बैठाते थे।

बीच में बैठती थी--नन्दना रेड्डी-मशहूर अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी की बेटी।

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वातानुकूलित सिनेमा हाॅल से बाहर निकलने पर बाहर का मौसम अधिक सुहाना लगता था।

सुनते हैं कि अब बंगलुरू में भी वायु प्रदूषण का प्रकोप छा गया है।

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जे.एच.पटेल बाद में कर्नाटका के मुख्य मंत्री बने।

लाड़ली निगम राज्य सभा के सदस्य बने।

मुझे जाननेवाले कहते हैं कि आपको तो किसी सरकारी कमेटी के मेम्बर लायक भी नहीं समझा गया।

मैं कहता हूं कि यही सच है।

मैं उस लायक कभी नहीं रहा।

उस लायक बनना पड़ता है भई !

वैसे कोई पद मिलता तो अच्छा ही रहता।

यदि नहीं मिला तो उससे भी अच्छा है।

संतोषम् परम सुखम्।

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रहिमन वे नर मर चुके ,जो कहुं मांगन जाहिं

उनते पहले वे मरे ,जिन मुख निकसत नाहिं।

मुझे इस बात की चिंता रहती थी कि ‘‘उनते पहले वे न मरें।’’

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इमरजेंसी की उस बंगलोर यात्रा में मुझे एक बात बुरी लगती थी।

मेेरे लिए कल्पनातीत थी।

मेरा भोला-भाला दिल-ओ-दिमाग तब तक यह कल्पना भी नहीं करता था कि देश के लिए जान देने पर तैयार रहने वाले नेता लोग शराब भी पी सकते हैं।

उस होटल में हम तीन के अलावा हर दिन एक

मशहूर मजदूर नेता आ जाते थे।

तीनों जमकर शराब पीते थे।मैं टुकुर -टुकुर देखता रहता था।

चिंतन करता था।चिंता होती थी।

लोहिया तो नहीं पीते थे।

कर्पूरी ठाकुर तो नहीं पीते थे।

पंडित रामानंद तिवारी तो ऐसा सोच भी नहीं सकते थे।

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खैर,उम्र बढ़ने के साथ ही मुझे बहुत सारे ‘ज्ञान’ प्राप्त होने लगे।

सब कुछ लिख दूं तो आपका मगज फट जाएगा और मैं जेल में रहूंगा।

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16 अक्तूबर 23

   


शनिवार, 14 अक्तूबर 2023

     टैक्स चोरों के खिलाफ गुस्सा जरूरी

    भरसक ईमानदार लोगों को ही वोट दें

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    --सुरेंद्र किशोर--

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हाल में मैंने अपनी कुछ जमीन बेची।

पूरा पैसा ‘व्हाइट’ में लिया।

उस पर पूरा आयकर दिया।

अपने रोज ब रोज के खर्चे के लिए बेचना जरूरी था।

आगे भी जमीन बेचनी है।

उस पर भी पूरा टैक्स दूंगा।

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    यदि हम टैक्स नहीं देंगे तो इस देश की केंद्र व राज्य सरकारें विकास -कल्याण के कार्य कैसे करंेगी ?

साथ ही,इस देश पर मंड़राते आंतरिक और बाह्य खतरांे से देश को बचाने के लिए अधिकाधिक सेना-पुलिस-हथियारों का इंतजाम कैसे सरकार करेगी ?

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आप जिस किसी पेशे में हों,अफसर हो,नेता हों या पत्रकार हांे,आप निजी जीवन ईमानदारी से नहीं बिताते तो आपको किसी को उपदेश देने का भी कोई नैतिक हक नहीं है।आप ईमानदार सरकार के हकदार नहीं हैं।

वैसे भी उपदेश दीजिएगा तो लोग हंसेंगे।

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पर उपदेश कुशल बहुतेरे

जे आचरहिं ते नर न घनेरे 

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मैंने यह सब इसलिए लिखा क्योंकि ऐसा करके भी हम अपना शांतिपूर्वक संतोषप्रद जीवन बिता सकते हैं।

यानी टैक्स चोरी जरूरी नहीं।

लाखों-करोड़ों-अरबों रुपए आपको शांति नहीं देंगे।

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युद्धरत इजरायल से भी आज कुछ सीखने की जरूरत है।

आज के दैनिक भास्कर ने खबर दी है कि 

‘‘दुनिया भर में फैले इजराइली जंग के लिए गाजे -बाजे के साथ स्वदेश लौट रहे।’’

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हाल में एक पाक जेहादी ने सार्वजनिक रूप से यह धमकी दी है कि जो काम हमास ने इजरायल में किया,वही काम हम भारत में करेंगे।

यानी खतरा सामने है।

भीतरी खतरे भी हैं।हथियारबंद जेहादी भारत में सक्रिय हैं।

चीन से खतरे के बारे में आजादी के बाद ही नेहरू सरकार को कई नेताओं ने लगातार आगाह किया था।

पर,उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया।

तब की सरकार की यह नीति भी थी कि सीमा पर बाड़ लगाने से दुनिया में भारत की छवि खराब होगी।

यह बात कई साल पहले टी.वी.पर नेहरू युग के एक आई एफ.एस. अफसर ने, जो पूर्व विदेश सचिव भी थे, कह भी दी थी।उस दिन उस टी.वी.कार्यक्रम में संजय निरूपम भी थे।

उस पर निरूपम ने क्या कहा,वह मैं यहां नहीं कहूंगा ।

क्योंकि तब हमारे मित्र निरूपम शिव सेना में थे।

चेतावनी को अनसुना करने का खामियाजा 1962 में हमें भुगतना पड़ा।

आज भी चेतावनी नहीं सुनोगे तो इजरायल यहां भी दुहरा सकता है। 

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जिन देशों पर खतरे रहते हैं ,वहां अनिवार्य सैनिक सेवा का प्रावधान है।

वे देश हैं-

रुस

उत्तरी कोरिया 

दक्षिणी कोरिया

इजरायल

ब्राजिल

इरान 

स्वीडन

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भारत में भी अनिवार्य सैनिक सेवा का प्रावधान होना चाहिए।

ऐसे प्रावधान का इस देश में भारी विरोध होगा।

तब कम से कम हम वैसे आंतरिक विरोधियों 

को पहचान तो जाएंगे।

जिनकी उम्र सैनिक सेवा की नहीं है,वे ईमानदारी से टैक्स दें।

और जात, पांत,धर्म  आदि से ऊपर उठकर ईमानदार लोगों को ही वोट देकर अच्छी सरकारें चुनें।

अन्यथा, यह देश इस रूप में अधिक दिनों तक नहीं बच सकेगा।

क्योंकि मध्य युग की पुनरावृति करने की कोशिश करने वाली शक्तियां आज इस देश में जितनी ताकतवर हो चुकी हैं ,उतनी पहले कभी नहीं थीं।

ताकतवर इसलिए भी हैं क्योंकि वोट लोलुप नेताओं का उन्हें पूरा समर्थन हासिल है।

वे नेता कभी उनके देश विरोधी गतिविधियों के खिलाफ बयान तक नहीं देते।बल्कि उनका बचाव करते हैं।

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12 अक्तूबर 23


 


 यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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अतिक्रमणकारियों के खिलाफ सख्त रुख से राहत की उम्मीद

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पटना में इन दिनों मुख्य सड़कों पर से अतिक्रमण हटाने का अभियान चल रहा है।

यह अभियान पहले भी चले और विफल हुए।

संकेत मिल रहे हैं कि इस बार का अभियान सख्त है।

हठीले अतिक्रमणकारियों के खिलाफ पहले की अपेक्षा इस बार अधिक कड़ी कार्रवाई हो रही है।वैसा प्रावधान भी किया गया है।

फिर से अतिक्रमण न हो,इस बार यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है।

मुख्य मार्ग पर भारी अतिक्रमण के कारण यातायात दुरुह हो चुका है।

अतिक्रमण के कारण घायलों ,गंभीर रूप से बीमार, गर्भवती महिलाओं और परीक्षार्थियों आदि को अपार असुविधाओं का सामना करना पड़ता है।

अतिक्रमणकारी शक्तियों के बारे में प्रशासन को भी मालूम रहता है।

इसलिए सख्ती होने पर उनके होश ठिकाने आ जाएंगे,ऐसी उम्मीद है।

प्रादेशिक राजधानी में यातायात सुगम हो जाए तो दूसरे राज्यों से यहां यदाकदा आने वालोें के दिल-ओ-दिमाग में बिहार की छवि बेहतर बनेगी।

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जिला मुख्यालयों में समस्या

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 अतिक्रमण की समस्या जिला मुख्यालय तथा छोटे शहर भी झेल रहे हैं।

अतिक्रमणकारियों और उनके संरक्षकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई जिला मुख्यालयों में भी होनी चाहिए।

बिहार में हाल के वर्षों में सड़कों का बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ है। कई पतली सड़कें चैड़ी भी हुई हैं।

पर,जैसे ही सड़कें चैड़ी होती हैं,उन पर अतिक्रमणकारी हावी हो जाते हैं।

अतिक्रमण कराने से कई सरकारी व गैर सरकारी लोगों की ऊपरी आय बढ़ जाती है।यह सब ढीले-ढाले शासन के लक्षण हैं।

यह अच्छी बात है कि पटना में वैसे कानून तोड़कों के खिलाफ वास्तविक सख्ती बढ़ रही है।उस सख्ती का विस्तार जिला स्तरों पर भी हो।

उससे जनता राहत महसूस करेगी।

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अंडरग्राउंड पार्किंग 

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नगरों की मुख्य सड़कों पर स्थित मार्केट काम्प्लेक्स में आम तौर पर भूतल पार्किंग की व्यवस्था नहीं है।

मार्केट काम्प्लेक्स का नक्शा तो पार्किंग के साथ ही पास होता है।पर,काम्पेक्स के मालिक संबंधित अफसरों को प्रभावित करके उसमें भी दुकान खोलवा देते हैं।

यदि शासन इस अनियमितता को दूर करे तो यातायात सुगम करने में सुविधा होगी।

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आर.टी.आई.कानून 

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यह खबर चैंकाती है।

देश के सूचना आयोगों के पास  3 लाख 21 हजार 537 अपील और शिकायतें लंबित हंै।निपटारे की गति धीमी हैं।इस बीच शिकायतों की संख्या बढ़ती जा रही हैं।

बड़ी उम्मीदों के साथ सन 2005 में सूचना अधिकार कानून बनाया गया था।

इसे मनमोहन सिंह सरकार की उपलब्धि मानी गयी।

शुरुआती वर्षों में इस मामले में अच्छे काम हुए भी।

पर,कई कारणों से बाद में शिथिलता आने लगी।

सूचना अधिकार कानून का जितना अधिक उपयोग होगा,भ्रष्ट और काहिल शासन पर उतनी ही अधिक लगाम लगेगी।जनता को राहत मिलेगी।

 इस दिशा में शिथिलता जनता के लिए नुकसानदेह है।

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़1998 के निर्णय पर विचार

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सन 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सांसदों पर सदन के भीतर कोई भी भाषण या वोट देने के लिए आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

संविधान के अनुच्छेद-105 ने इसकी छूट दे दी है।

पर,अब सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर विचार कर रहा है कि क्या कोई सांसद रिश्वत लेकर सदन में किसी के पक्ष में वोट दे तो उसे भी छूट मिलनी चाहिए ?

याद रहे कि नब्बे के दशक में यह आरोप लगा था कि कुछ प्रतिपक्षी सांसदों ने रिश्वत लेकर तत्कालीन सरकार के पक्ष में मतदान किया जिससे वह सरकार गिरने से बच गयी।

रिश्वत के पैसे उन सांसदों के बैंक खाातों में पाए गए थे।फिर भी तब सुप्रीम कोर्ट ने उन सांसदों को राहत दे दी।

सुप्रीम कोर्ट कभी -कभी अपने ही पिछले निर्णयों को बदल देता है।

राजनीतिक और कानूनी हलकों में यह उम्मीद की जा रही है कि

सुप्रीम कोर्ट सन 1998 के अपने निर्णय को बदल देगा।

यदि ऐसा हुआ तो क्या तब के आरोपितों के खिलाफ अब मुकदमा चलेगा ?

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और भी हैं ऐसे कुछ मामले 

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सुप्रीम कोर्ट को लगे हाथ इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि सदन में कुछ प्रमुख सदस्य भी इन दिनों अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा देते है।उन आरोपों के बारे में भाषण से पहले पीठासीन पदाधिकारी से पूर्वानुमति नहीं ली जाती।

टी.वी.पर सीधे प्रसारण के इस दौर में लोगबाग उन आरोपों के बारे में जान जाते हैं।बाद मंें पीठासीन पदाधिकारी उन आरोपों को कार्यवाही से निकाल देने का आदेश दे देते हैं।कई बार आदेश नहीं देते।

शालीनता वाले दौर में सदस्य किसी के खिलाफ गंभीर आरोप लगाने से पहले स्पीकर को उसका सबूत दिखाते थे।यदि स्पीकर संतुष्ट होते थे तभी  वे सदन में वह बात रखने देते थे।

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और अंत में

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आम चुनाव के तत्काल बाद एक प्रतिपक्षी

विधायक ने सत्ताधारी दल ज्वाइन कर लिया।

दल बदल विरोधी कानून के अनुसार उस दल बदलू की सदन की सदस्यता समाप्त हो जानी चाहिए थी।

सदस्यता समाप्त करने के लिए प्रतिपक्षी दल के नेता ने स्पीकर से लिखित शिकायत भी की।पर,स्पीकर ने सदन का कार्यकाल बीत जाने के बाद भी उस दलबदलू के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।

ऐसे मामलों पर भी सुप्रीम कोर्ट को विचार करना चाहिए।

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प्रभात खबर 

पटना

14 अक्तूबर 23

   


 कई साल पहले की बात है।

‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव ने मुझे फोन किया।

कहा कि मुझे जिस एक खास लेख की जरूरत है,वह आपके ही पास मिलेगा,ऐसा मुझे बताया गया है।

अन्यत्र कहीं नहीं मिल रहा।

क्या आप मुझे भेज सकते हैं।

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अब बताइए,राजेंद्र यादव आपको फोन करें और आप बात टाल दें,यह कैसे हो सकता है ?

जब तक राजेंद यादव जीवित रहे,मैं लगातार हंस खरीदता रहा।

हंस के राजेंद्र यादव और आउटलुक के विनोद मेहता मेंरे प्रिय संपादकों में से रहे हैं।विनोद मेहता के बाद मैंने आउटलुक खरीदना भी बंद कर दिया।

आप इन दोनों से भले कई मामलों में असहमत हों,पर एक बात तय है कि उनके लेखन और संपादन में नयापन रहा। 

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खैर,मैंने राजेंद्र यादव जी से कहा कि खोजने में मेहनत तो है,पर मैं आपके लिए यह काम जरुर करूंगा।

उन्हें एक ‘‘बौद्धिक बहस’’ में विजयी होने के लिए वह लेख जरूरी था।

मैंने खोजकर उन्हें भेज दिया।उसके आधार पर राजेंद्र यादव ने जवाबी लेख लिखा।

 मुझे धन्यवाद देते हुए उस लेख में मेरा जिक्र भी किया।

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अब मैं खुद पर आता हूं।

मुझे अफसोस है कि मैं खुद से संबंधित तीन सामग्री संजोकर नहीं रख सका।

1.-सन 1967 में मेरे नाम लिखी डा.राम मनोहर लोहिया की चिट्ठी।

हैदराबाद के बदरी विशाल पित्ती के प्रकाशन द्वारा तैयार ‘‘लोक सभा में लोहिया’’ में मेरी उस चिट्ठी की फोटो काॅपी छपी हुई है।मस्तराम कपूर वाले में नहीं है।

2.-सन 1970 में मेरी कविता को प्रथम पुरस्कार मिला था।वह कविता राजेंद्र काॅलेज ,छपरा की पत्रिका राका में छपी थी।

3.-1977 में मैंने और पारसनाथ सिंह ने मिलकर जेपी का लंबा इंटरव्यू किया था।वह दैनिक आज (वाराणसी और कानुपर संस्करण)के मार्च, 1977 के किसी अंक में छपा था।उस इंटरव्यू को बी बी सी ने भी उधृत किया था।

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ये तीन चीजें मेरे पास नहीं हैं।

मैंने देश के अनेक मित्रों -परिचितों से निवेदन किया।पर,मुझे 

अब तक अप्राप्त है।

मैंने राजेंद्र यादव के लिए जितनी मेहनत की,वैसी मेहनत करने के लिए कोई तैयार नहीं लगे।

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कभी -कभी मुझे लगता है कि मैं राजेंद्र यादव तथा उनके जैसे न जाने कितने मित्रों-परिचितों के लिए मेहनत क्यों करता रहता हूं ?

मेरा समय भी बहुमूल्य है।

 यूं कहिए कि मेरे पास अब समय कम है अब भी काम ज्यादा।

इसीलिए इन दिनों मैं अपने घर से निकलता ही नहीं हूं।

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13 अक्तूबर 23

  


शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

 सिर्फ भूमि का टुकड़ा नहीं बल्कि पूरी दुनिया में 

इस्लामिक शासन 

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हमास कह रहा है कि इजरायल तो सिर्फ शुरुआत,

पूरी दुनिया में हमारा कानून यानी शरीयत लागू होगा

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सुरेंद्र किशोर

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हमास के कमांडर महमूद अल जहर ने कहा है कि इजरायल तो सिर्फ शुरुआत है।

पूरी दुनिया में हमारा इस्लामिक कानून यानी शरीयत लागू होगा।

यानी, हमास की इजरायल से मौजूदा लड़ाई पूरी दुनिया में इस्लामिक शासन लागू करने की शुरूआत है।

हमास के इस बयान से यह साफ है कि 

यह संघर्ष सिर्फ जमीन के उस टुकडे के लिए नहीं है जिसे इजरायल ने ‘कब्जा’ कर रखा है।

    प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इजरायल का समर्थन इसीलिए किया है क्योंकि वे जानते हैं कि यह लड़ाई एक दिन हमारे दरवाजे पर भी आ सकती है।

वैसे भारत में सक्रिय पी.एफ.आई.के हिंसक कारनामों के रूप में उसे हम अपने यहां पहले से ही देख भी रहे हैं।

पर,हमारे देश के वोट लोलुप नेता व अतीत जीवी बुद्धिजीवी मानते हैं कि यह संघर्ष जमीन के टुकड़ों के लिए है जिसे इजरायल ने कब्जा कर रखा है।

यह नहीं भी मानते तौभी उसी की मदद में खड़े होते।

तथाकथित सेक्युलर दलों यानी ‘‘इंडिया’’ में कौन सा दल है जो पी.एफ.आई.और उसके राजनीतिक फ्रंट एस.डी.पी.आई. के खिलाफ एक भी बयान देता है ?

जबकि पी.एफ.आई. वर्षों से यह कह रहा है कि हम हथियारों के बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करेंगे।

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जो लोग इस देश में शांति चाहते हैं,वे हमास के उपर्युक्त बयान पर

गौर करें और अपनी रक्षा के उपाय करें।

कल्पना कर लें कि जो कुछ इजरायल में आज हो रहा है,वह यदि कल भारत में होगा तो आपकी रक्षा में कौन -कौन आगे आएगा और जेहादियों के साथ कौन- कौन खड़ा मिलेगा।

पी.एफ.आई.के राजनीतिक संगठन एस.डी.पी.आई. के साथ इस देश के राजनीतिक दल वोट के लिए तालमेल करते हैं।

हाल के कर्नाटका विधान सभा चुनाव में इन संगठनों ने कांग्रेस की मदद की थी।   

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13 अक्तूबर 23


बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

 क्या शुरू हो गया 

‘‘सभ्यताओं का संघर्ष’’ ?!!

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सुरेंद्र किशोर

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नब्बे के दशक में अमरीकी राजनीतिक वैज्ञानिक सेम्युएल 

पी. हंटिग्टन ने लिखा था कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अब देशों के बीच नहीं, बल्कि सभ्यताओं के बीच संघर्ष होगा।

  उस संघर्ष में चीन इस्लामिक देशों के साथ रहेगा।

   (इजरायल बनाम हमास युद्ध में चीन किधर है,देख ही लीजिए !)

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हंटिंग्टन की स्थापना के सामने आने के तत्काल बाद भारत के बहुत सारे सेक्युलर नेताओं व प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने हंटिग्टन की सख्त आलोचना की थी।

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पर, आज दुनिया के कई देशों में क्या हो रहा है ?

हाल में ब्रिटेन,फ्रांस आदि में क्या-क्या हुआ था ?

  सूचनाओं के विस्फोट के इस युग में कुछ भी छिपा नहीं रहता है।

आपने उन संघर्षों के चरित्र पर गौर किया है ?

हमास से लेकर भारत के पी.एफ.आई. तक के कारनामों पर गौर करें।

हमास के पक्ष में दुनिया के अनेक देशों में,जिसमें भारत के कुछ विश्व विद्यालय शामिल हैं, बड़े -बड़े प्रदर्शन हुए।

पाक के एक जेहादी ने कहा है कि हम भारत के साथ भी वही करेंगे जो हमास, इजरायल के साथ कर रहा है।  

क्या यह सब सभ्यताओं का संघर्ष नहीं है ?

भारतीय टी.वी.चैनलों पर और अखबारों के पन्नों पर जितने लोग जेहादी हमास के पक्ष में ‘बोल’ रहे हैं,उतने शायद मध्य युग में भी भारत में नहीं थे। 

   ध्यान से देख लीजिए कि कौन किधर से गेंदबाजी कर रहा है !

तथाकथित ‘सेक्युलर’ तत्वों की लीपापोती के बावजूद भारत में भी आज क्या-क्या  हो रहा है ?

आगे पूरी दुनिया में क्या -क्या होने वाला है ?

ईश्वर करे दुनिया में शांति रहे।

पर,वह इस बात पर निर्भर करेगा कि इजरायल-हमास युद्ध आगे कौन सा मोड़ लेता है।

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 इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने के बदले हमारे देश के अनेक लोग कब तक शुतुरमुर्ग बने रहेंगे ?

कब तक वे कवर फायर करते रहेंगे ?

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11 अक्तूबर 23 





मंगलवार, 10 अक्तूबर 2023

 इजरायली नागरिकों पर आघात,महिलाओं का अपहरण एवं उनके साथ दुष्कर्म और बच्चों को उठा ले जाने वाले हमास की आतंकी करतूतांे को जायज नहीं ठहराया जा सकता।

जो भी लोग इससे अलग सोचते हैं वे मजहबी कट्टरता में अंधे हो गये हैं।

  --हबीब खान

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दैनिक जागरण,

10 अक्तूबर 23 

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इसके अलावा इजरायली महिलाओं के मृत शरीरों के साथ जेहादियों द्वारा किए जा रहे पशुवत व्यवहार की तस्वीरें भी सोशल मीडिया में तैर रही हैं।

मध्य युग में राजस्थान में महिलाओं का जौहर शायद इसी तरह के कुकृत्यों से खुद को बचाने के लिए होता था।

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10 अक्तूबर 23


 


 लोहिया पर अटल जी के विचार

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अक्तूबर महीना गंाधी,जेपी और लोहिया को याद करने वाला महीना है।

इन तीनों नेताओं में एक समानता है।

वे कभी अपने लिए सत्ता की कुर्सी नहीं चाहते थे।

पहले डा.राम मनोहर लोहिया के बारे में अटल बिहारी वाजपेयी के कुछ शब्द --

‘‘डा.लोहिया से मेरा अच्छा परिचय था।

उनका व्यक्तित्व अनूठा था।

उनका कद छोटा था किन्तु व्यक्तित्व महान था।

मैं उनकी गणना चिन्तकों में करता हूं।

चिन्तक भी मौलिक चिन्तक-प्रतिबद्ध समाजवादी थे।

लेकिन व्यक्ति की स्वाधीनता और गरिमा में अटूट विश्वास था।

लोकतंत्र की बलि चढ़ा कर लाए गए समाजवाद के वह विरुद्ध थे।

लोकतंत्र और समाजवाद दोनों में मेल बैठाने के पक्ष में थे।

समाजवाद में सामाजिक न्याय पर उनका विशेष बल था।

मैं उन दिनों जनसंघ में था और इस दल का प्रमुख कार्यकर्ता था।

वे जनसंघ के प्रखर राष्ट्रवाद को पसंद करते थे,लेकिन इस बात पर बल देते थे कि प्रखर राष्ट्रवाद के साथ अगर सामाजिक न्याय नहीं जोड़ गया तो राष्ट्रवाद रुमानी रहेगा,उसमें शक्ति पैदा नहीं होगी।

हम भी इस दिशामें काम कर रहे हैं।..............।’’

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9 अक्तूबर 23



शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

 देवरिया सामूहिक नर संहार कांड के लिए दोषी 15 अफसरों को

योगी आदित्यनाथ सरकार ने निलंबित कर दिया

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पिछले दशकों में नीतीश सरकार के अच्छे कामों को भी समय -समय पर 

कई बार केंद्र व कुछ राज्य सरकारों ने अपने यहां लागू किया।

बिहार सरकार को भी चाहिए कि वह योगी राज के ऐसे कड़े कदम को अपने राज्य में भी दुहराएं और गावों में शांति कायम रखने में मदद करे।

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उत्तर प्रदेश की तरह ही बिहार में भी पुलिस और राजस्व महकमे मंे भारी भ्रष्टाचार है।

जनता का कोई भी काम पैसे के बिना नहीं होता।

यदि इस बात में राज्य स्तर के हुक्मरानों को कोई शक हो तो वे नमूना के तौर पर कुछ कार्यालयों की ‘खुफिया’ जांच करवा लें।

इस भ्रष्टाचार के कारण न जाने कितने निर्दोष व कमजोर लोग बिहार में भी रोज-ब-रोज पीड़ित हो रहे हैं।

हिंसा होती है।

मुकदमबाजी में गरीब लोगों को भी नाहक पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं।

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उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के रुद्रपुर क्षेत्र में जमीन को लेकर दो पक्षांे में हाल में खूनी संघर्ष हुआ जिसमें छह लोगों की जानें चली गयीं।

वहां के संबंधित उप जिलाधिकारी और पुलिस क्षेत्राधिकारी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ होते तो छह जानें नहीं जातीं।

यू.पी.सरकार ने उस घटना को लेकर उप जिलाधिकारी व क्षेत्रीय पुलिस पदाधिकारी सहित 15 भ्रष्ट व कर्तव्यच्युत सरकारी कर्मियों को निलंबित कर दिया है।उम्मीद है कि देर-सबेर वे सेवा से बखास्त भी होंगे।

ऐसे मामले देखकर केंद्र सरकार को चाहिए कि वे ऐसे दोषी अफसरों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान कराने के लिए कानून बनाए।

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बिहार सरकार को भी चाहिए कि वह भी जमीन विवाद के मामलों में भ्रष्टाचरण और काहिली करने वाले अफसरों व कर्मचारियों के खिलाफ विशेष अभियान चला कर सख्त कार्रवाई करे।

इससे सत्ताधारी पार्टी को अगले चुनाव में पूरा लाभ मिलेगा।

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भ्रष्ट नेता,अफसर व सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ जहां भी जो भी सरकार सख्त कार्रवाई करती है,उससे वोट बैंक के दायरे से बाहर वाली आम जनता बहुत खुश होती है।

चाहे कोई जितना भी ‘‘बदले की भावना’’ वाला राग अलापे।

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सुरेंद्र किशोर

6 अक्तूबर 23

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 सत्ता पर से कांग्रेस का एकाधिकार तोड़ने के लिए ही सन 1967 में गैर कांग्रेसी दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा था

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  सुरेंद्र किशोर

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सन 1967 में गैर कांग्रेसी दलों ने सात राज्यों में विजय हासिल की।

प्रतिपक्षी दलों का उद्देश्य तब सिर्फ सत्ता पाना नहीं बल्कि

कांग्रेस का एकाधिकार तोड़ना था।

गैर कांग्रेसी दलों के नेतागण तब यह कह रहे थे कि एकाधिकार मिल जाने के कारण कांग्रेस जन समस्याओं के प्रति लापरवाह हो चुकी है।

  1967 में लोक सभा में भी कांग्रेस का बहुमत कम हो गया । 

ऐसा कुछ प्रतिपक्षी दलों की चुनावी एकता के कारण संभव हुआ।

यदि प्रतिपक्षी दलों के बीच तब कुछ और अधिक एकता कायम हो गई होती तो संभवतः केंद्र में भी गैर कांग्रेसी सरकार उसी समय ही बन गई होती।

केंद्र में पहली गैरकांग्रेसी सरकार तो सन् 1977 में ही बन सकी।

  सन् 1966 में इन गैर कांग्रेसी सरकारों का नक्शा तैयार किया था स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी विचारक डा.राम मनोहर लोहिया ने।

उन्होंने ऐसा चमत्कार किया कि सी.पी.आई.और जनसंघ के नेतागण भी तब एक से अधिक  राज्य सरकारों में साथ- साथ मंत्री बन गए थे।

    उन दिनों गठबंधन की सरकारें अपनी ‘सत्ता’,दबदबा और निजी संपत्ति के लिए नहीं,बल्कि आम जनता की स्थिति में परिवत्र्तन करने के लिए बनी थीं।जितने दिनों तक रहीं,पहले की सरकारों की अपेक्षा बेहतर काम किया।

 पर, वे राज्य सरकारें कुछ दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षा के कारण समय से पहले गिर गयीं। 

   पर इसके साथ ही कांग्रेस का यह दंभ टूट गया कि वह अपराजेय है।सन् 1952,1957 और 1962 के आम चुनावों में विजयी होकर कांग्रेस को यह लग रहा था कि वह जनता की मूल समस्याओं की उपेक्षा करके भी अनिश्चितकाल तक शासन में बने रह सकती है।

पर जब उसे 1967 में चुनावी  झटका लगा तो वह दो साल में ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने को राजी हो गई। वह गरीबी हटाने का नारा देने लगी और प्रिवी पर्स समाप्त करने लगी।ऐसे कुछ और काम भी हुए।

याद रहे कि उससे पहले सन् 1957 में सिर्फ केरल विधान सभा चुनाव में ही कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था।सन् 1967 तक लोक सभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे।

  सन् 1967 के आम चुनाव में  कांग्रेस एक साथ पश्चिम बंगाल,बिहार,ओडिशा,मद्रास, (तब तक तमिनाडु नाम नहीं पड़ा था।)केरल,हरियाणा और पंजाब में विधान सभा चुनावों में हार कर प्रतिपक्ष में चली गई।

सन् 1967 के चुनाव के तत्काल बाद दल बदल के जरिए मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की कांग्रेसी सरकारें भी गिर गईं।वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं।

 जाहिर है कि इन गैर कांग्रेसी सरकारों ने कई मामलों में पिछली कांग्रेसी सरकारों से बेहतर काम किया।किंतु आपसी कलह के कारण ये गैर कांग्रेसी सरकारें कुछ ही महीने चल सकीं।याद रहे कि डा.लोहिया की बात तब कम्युनिस्ट और जनसंघ दोनों मानते थे।

  इस संबंध में डा.लोहिया की सहकर्मी प्रो.रमा मित्र ने लोहिया के आखिरी दिनों का वर्णन करते हुए लिखा था कि ‘डा.लोहिया कभी -कभी मायूस और दु‘खी हो जाया करते थे।चुनावी समझौते और तालमेल का उनका कार्यक्रम इस प्रकार व्यवहार में नहीं आ रहा था जिससे गैर कांग्रेसवाद को पूर्ण लाभ मिलता।’

   डा.लोहिया ने जनवरी, 1967 में एक भेंट में प्रेस को बताया था कि ‘गैर कांग्रेसी सरकार को अपने जीवन के पहले छह महीने में ही कोई क्रांतिकारी कदम उठाना चाहिए ताकि गैर कांग्रेसी सरकार और कांग्रेसी सरकार का फर्क जनता के सामने साफ -साफ सामने आ जाए।’

   पर कुल मिलाकर  ऐसा नहीं हो सका।डा.लोहिया यह मानते थे कि उनकी अपनी पार्टी  संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी राष्ट्रीय और भाषा जैसे मुद्दे पर जनसंघ के निकट है और स्वामित्व और समानता के बारे में कम्युनिस्टों के निकट।पर वे अपनी पार्टी को किसी भी मामले में कांग्रेस के निकट नहीं मानते थे।

 डा.लोहिया इस बात से बड़े दुःखी हुए थे कि उनके दल के नवनिर्वाचित सांसद बी.पी.मंडल बिहार में 1967 में मंत्री बन गए थे। वे सन् 1967 के चुनाव में मधे पुरा से लोकसभा के सदस्य चुने गए थे।

उनके मंत्री बन जाने के बाद लोहिया का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया।उन्होंने टिप्पणी की थी कि मुझे इस बात की उम्मीद नहीं 

थी हमारी पार्टी के लोग इतनी जल्दी पद की हवस के शिकार हो जाएंगे।उन्होंने मंडल को मंत्री पद से हटाने का निदेश दिया जबकि मंडल यह चाहते थे कि उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाकर मंत्री बनाए रखा जाए।

आखिर जब मंडल की जिद पूरी नहीं हुई तो उन्होंने बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार गिरा दी जो भीषण अकाल के बीच अच्छा काम कर रही थी।

लोहिया को सरकार का गिरना मंजूर था,पर सत्तालोलुपता के आगे झुकना मंजूर नहीं था। हालांकि बिहार की सरकार लोहिया के निधन के बाद ही गिरी,पर उसकी पृष्ठभूमि लोहिया तैयार कर गए थे।

   डा.लोहिया चाहते थे कि गैर कांग्रेसी नेताओं की साख कांग्रेसी नेताओं से बेहतर हो ताकि जनता उन पर कांगेस की अपेक्षा अधिक भरोसा कर सके।

  उनकी राय थी कि बी.पी.मंडल जैसे मामले में कड़ा रुख अपनाने से साख बढ़ेगी।पर कुछ सैद्धांतिक मामलों  में गैर कांगे्रसी सरकारी पूरी तरह खरी नहीं उतरी,इसका लोहिया को दुःख था। हालांकि तब की बिहार और उत्तर प्रदेश की उन गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन ही अपने आप में एक चमत्कार था जिन सरकारों में जनसंघ और कम्युनिस्ट प्रतिनिधि एक साथ मंत्रिमंडल में थे।

उन मंत्रिमंडलों के सदस्य आम तौर पर ईमानदार थे और जनता के हित में सोचते थे।सन् 1967 का महामाया प्रसाद सिंहा मंत्रिमंडल बिहार का सर्वोत्तम मंत्रिमंडल कहा जाता है।

 जनसंघ और सी.पी.आई.ने तब अपने सैद्धांतिक मतभेदों को भुलाकर साथ -साथ सरकार में रह कर उसे चलाने का निर्णय किया था।

 तब कुछ नेता किस तरह सत्ता का लाभ नहीं उठाते थे,उसका एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है।

 सन् 1967 में डा.लोहिया को ं अपनी पौरूष ग्रंथि के विदेश में आपरेशन कराने के लिए 12 हजार रुपए की जरूरत पड़ी । उन्होंने अपने दल के नेताओं से कहा कि इस मद मंे चंदा उन राज्यों से नहीं आएगा जहां हमारे दल के मंत्री सरकार में हैं।बल्कि महाराष्ट्र के  मजदूरों से आएगा।

वे उस पैसे से जर्मनी जाकर अपना आरेशन कराना चाहते थे।पर जब चंदा का पैसा किसी कारणवश महाराष्ट्र से नहीं आ सका तो उन्हें जल्दी -जल्दी दिल्ली के बेलिंगटन अस्पताल में ही आपरेशन कराना पड़ा।वहां  आपरेशन संबंधी गड़बड़ियों के कारण उनका असमय ही निधन हो गया।

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20 सितंबर 23

Moneycontrolhindi



बुधवार, 4 अक्तूबर 2023

 मेरे फेसबुक वाॅल से 

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1898 से 1990 तक मेरे परिवार की 

जनसंख्या में सिर्फ एक का इजाफा हुआ

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मेरे पिता का जन्म सन 1898 में हुआ।

हम आठ भाई -बहन हुए।

अब सन 1990 मंेे आ जाइए।

हम तीनों भाइयों की तीन-तीन संतान।

यानी कुल नौ।

यानी, करीब सौ साल में सिर्फ एक अधिक।

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बाबू जी के जीवन काल में परिवार में अधिक

‘आबादी’ की जरूरत थी।

खेती-बारी आदि -आदि की देखभाल।

हमारी पीढ़ी में यह सोच रही कि संतान कम रहे 

तो उन्हें बेहतर ढंग से शिक्षित करना आसान होगा।

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उधर खेती आधी बिक गयी।

हालांकि जो आधी रह गयी,वह पूरी से इस बीच कई गुणा अधिक कीमती हो गई है।

नीतीश सरकार के कार्यकाल में हुए हमारे ग्रामीण इलाके के अभूतपूर्व विकास के कारण जमीन की कीमत बढ़ी है।आवागमन आसान हुआ है।

अब उस जमीन के ‘‘भैल्यू एडिशन’’ के लिए वहां रह कर 

काम करने के लिए सिर्फ मैं ही ‘खाली’ हूं।

करूंगा।

यदि नीतीश कुमार की सरकार कानून-व्यवस्था बेहतर बना दें तो और सुविधा होगी।

वहीं से लिखा-पढ़ी होगी।

आज सवांग यानी परिजन की कमी महसूस होना स्वाभाविक है।

बाबू जी सीमित परिवार के खिलाफ थे।

अब लग रहा है कि वे सही थे।

सीमित में से भी कई सवांग रांची ,हैदराबाद और दिल्ली में ‘बथनिया’ गए।

उधर गांव का बथान यानी दालान निर्जन हो गया। 

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सुरेंद्र किशोर

3 अक्तूबर 23