सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

बाते हाथी पाइए,बाते हाथी पांव

मध्य युग की यह कहावत  आज भी दूसरे रुप में लागू होती है। दरबार में अच्छी बातें बोलने पर तब इनाम में हाथी भी  मिल जाता था।गलत  बोलने पर कई बार हाथी के पांव से कुचलवा दिया जाता  था।

 चुनाव के मौसम मेें  जनता के दरबार में अनेक नेताओं के बोल, कुबोल हो गए हैं। ऐसे कुबोल का जवाब मतदातागण वोट की चोट से देते हैं।उस चोट को हाथी का पांव मान लीजिए।

 हाल में एक बड़ी हस्ती ने आरक्षण-व्यवस्था के पुनरीक्षण  की जरुरत बता दी।दूसरे पक्ष के एक  नेता ने फरमाया कि  हिंदू भी कभी गोमांस खाते थे।  ये बातेें पहली बार नहीं कही गईं ।पर अभी  गलत समय पर कही गई।
  अब इसका खामियाजा ऐसी बात कहने वालों को भुगतना पड़ सकता है।क्योंकि बिहार में  आरक्षण और गोमंास बहुत ही नाजुक मुददे रहे हंै।

 हिंदुओं के गोमांस खाने की सूचना देने वाले नेता जी के बारे में भी मतदाताओं के एक वर्ग में अच्छी धारणा नहीं बनी है। हमारे पूर्वज ने ठीक ही कहा था कि  ‘सत्य बोलिए, प्रिय बोलिए, पर अप्रिय सत्य मत बोलिए।’

नाच न जाने आंगन टेढ़ा

   केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने लोगों से ठीक ही कहा है कि ‘हम लोग यह कह कर नहीं बच सकते कि बयान तोड़-मरोड़ कर पेश कर दिया गया।हमें बोलते समय सावधान रहना होगा।’

  इसके साथ ही उन्हें  यह सलाह भी देनी चाहिए थी कि जिस विषय पर आपका बोलना जरुरी नहीं है,उस पर आप अपना मुंह बंद ही रखिए।
नो कमेंट कहना सीखिए।

  पर दरअसल दृश्य मीडिया के इस युग में  ऐसे अनेक नेता उभरकर सामने आ गए हैं जो कुछ भी बोलकर पब्लिसिटी पाने से खुद को रोक ही नहीं पाते।जबकि,
उन्हें  यह सीखना बाकी है कि मीडिया से किस मुद्दे पर किस तरह और दलहित तथा  देशहित में बातेें की जानी चाहिए।


ऐसी सर्वसम्मति के कैसे संकेत ?

  इस देश की सीमा पर कोई हमला भी हो जाता है तो उस मुददे पर भी आम तौर पर संसद या  राजनीति में सर्वसम्मति नहीं होती। महाघोटालों पर भी संसद में सर्वसम्मति नहीं देखी जाती।

पर जब भी सांसदों के वेतन -भत्ते की वृद्धि का प्रस्ताव आता है तो सदन में  सर्वसम्मति हो जाती है। आखिर ऐसा क्यों है  ! ?

 हाल में एक और मामले में संसद में सर्वसम्मति हो गई थी।उसके पीछे क्या है ?
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक  संसद से  सर्वसम्मति से पास हुआ।
पर जब सुप्रीम कोर्ट ने इस  एक्ट को रद कर दिया तो  केंद्रीय कानून मंत्री  ने कहा कि ‘संसद और विधायिका के जरिए लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व होता है।इसे किसी अन्य माध्यम से पूरी दुनिया के संज्ञान में नहीं लाया जा सकता।’

  क्या इस देश के दूसरे लाचार लोगों को उनके हाल पर छोड़कर खुद के वेतन-भत्ते में भारी वृद्धि कर लेने वाले सांसदगण पीएफ पेंशनधारियों को भरोसा दे सकते हैं कि वे पेंशनधरियों की आकांक्षाओं का भी प्रतिनिधित्व करते हैं ?हालांकि इस देश में ऐसे पीडि़तजनों में  सिर्फ पीएफ पेंशनधारी ही नहीं हैं।


सांसद बनाम आम जन

   पटना के एक पत्रकार को आज भी पीएफ पेंशन के रुप में  हर माह 1046 रुपए मिलते हंै। सन् 2005 में यह राशि तय हुई थी। नियमानुसार  उस पत्रकार को आजीवन 1046 रुपए ही मिलेंगे। पर,दूसरी ओर सांसदों के वेतन में दुगुनी वृद्धि का प्रस्ताव है। इस बढ़ोत्तरी की सिफारिश संसदीय समिति ने की है।

 याद रहे कि 2010 में ही सांसदों के वेतन-भत्ते में  300 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। महंगाई और कार्य कुशलता को ध्यान में रखते हुए सांसदों के वेतन-भत्ते में  वृद्धि का प्रस्ताव है।याद रहे कि 1968 में सासंदों का वेतन 400 रुपए और दैनिक भत्ता 31 रुपए थे। क्या तब के सांसद कार्यकुशल नहीं थे ? क्या उन्हें महंगाई की मार नहीं झेलनी पड़ती थी ?

 1963 से 1967 तक सांसद रहे डा.राम मनोहर लोहिया को  निजी कार खरीद लेने की सलाह दी गई थी।इस पर  उन्होंने कह दिया था कि कार का खर्च उठाने लायक मेरी  आय नहीं है।आज कौन सांसद  है जिसने राजनीति और समाज को लोहिया से अधिक प्रभावित किया है ?

 क्या सरकार यह मानती है कि पीएफ पेंशनधारियों पर महंगाई का कोई असर नहीं होता ?


और अंत में

   राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति कानून पर उठे विवाद को लेकर एक न्यायविद् ने सवाल उठाया ।उन्होंने  कहा कि व्यापम घोटाला करनेवाले और उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में धांधलियों को पराकाष्ठा पर पहुंचाने वाले नेतागण यदि कभी केंद्र की सत्ता में आ गए तो वे इस  कानून का कितना  सदुपयोग  करंेगे ?

(24 अक्तूबर 2015)


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