गुरुवार, 30 नवंबर 2017

सत्तर के दशक में पटना विश्व विद्यालय


  इतिहासकार डा.ओम प्रकाश प्रसाद ने ठीक ही लिखा है कि पटना विश्व विद्यालय में दाखिला लेने से ही समाज में प्रतिष्ठा बढ़ जाती थी। 
  हालांकि 1972 जब मैंने पटना लाॅ कालेज में दाखिला लिया,तब तक वैसी बात नहीं रह गयी थी। फिर भी चीजें उतनी बिगड़ी भी नहीं थी।कभी ‘पूरब का आॅक्सफोर्ड’ कहलाने वाले इस विश्व विद्यालय में मेरे जमाने में  क्लासेज होते थे और छात्रावासों में पढ़ने के समय छात्र सिर्फ पढ़ा करते  थे।
परिसर में अपेक्षाकृत शांति रहती थी।
हां, इस विश्व विद्यालय से जुड़े लाॅ कालेज में थोड़ी स्थिति भिन्न जरूर थी।थोड़ी उन्मुक्तता थी।
 फिर भी वहां भी रेगुलर क्लासेज होते थे ।यहां तक कि मूट कोर्ट भी।
  हां, मेरे जैसे कुछ छात्रों को पढ़ने में रूचि कम थी।राजनीति में अधिक थी।
इसलिए हाजिरी लगा कर हम पास की  चाय  दुकान पर अड्डा मारने और राजनीतिक गपशप करने चले जाते थे।
 इस काम में मुख्य तौर पर मेरे साथ होते थे दीनानाथ पांडेय जो इन दिनों कलिम्पांग में वकालत करते हैं।
  दरअसल तब तक मैं सक्रिय राजनीति में था और सोद्देश्य पत्रिकाओं के लिए लिखता भी था।
  मैंने लाॅ कालेज में दाखिला इसलिए भी कराया था ताकि जरूरत पड़ने पर रोजी -रोटी  के लिए वकालत कर सकूं।
  उससे पहले राजनीतिक कार्यकत्र्ता के रूप में मैं छपरा के  वकील रवींद्र प्रसाद वर्मा के यहां रहता था।वर्मा जी एक समर्पित लोहियावादी थे और कम में ही गुजारा कर लेने की आदत मैंने उनसे सीखी थी।
अब वह नहीं रहे।पर मैं इतना कह सकता हूं कि वह यदि किसी बहुसंख्या वाली जाति से होते तो कम से कम विधायक तो जरूर ही हो गए होते ।
 खैर धीरे -धीरे  मैंने यह महसूस किया कि न तो राजनीति मेरे वश की बात है और न ही वकालत।इसलिए लाॅ कालेज में तीन साल पढ़ा जरूर , पर कोई परीक्षा नहीं दी।
प्रथम वर्ष की परीक्षा नहीं देने के बावजूद सेकेंड और बाद में थर्ड इयर में प्रवेश ले लेने की छूट थी।
 इस तरह मैं करीब तीन साल तक कभी के  ‘पूरब के आॅक्सफोर्ड’ कहलाने वाले विश्व विद्यालय का छात्र होने का सुख हासिल करता रहा। आपातकाल में सी.बी.आई.मेरी तलाश में लाॅ कालेज तक भी गयी थी।
सी.बी.आई. बड़ौदा डायनामाइट केस की जांच कर रही थी।उसे मेरे सिर्फ एक ही पक्के ठिकाने का पता चल सका था यानी पटना लाॅ कालेज।  
 लाॅ कालेज में  प्रेम प्रकाश सिंहा और महितोष मिश्र जैसे सिरियस छात्र भी मेरे मित्र थे और अक्षय कुमार सिंह जैसे छात्र नेता भी।
इन्हें राजनीति में गहरी रूचि थी।प्रेम प्रकाश तो शिक्षा अधिकारी बने थे,पर महितोष से बाद में कोई संपर्क नहीं रहा।
 कुछ अन्य  मित्र भी याद आते हैं जिनसे संपर्क नहीं रहा।वैसे लव कुमार मिश्र से लगातार संपर्क रहता है क्योंकि वह भी पत्रकारिता में ही हैं।
मेरे सहपाठी दुबले -पतले किंतु तेजस्वी अशोक जी
भी थे जो पटना हाईकोर्ट में वकालत करते हैं।कभी -कभी उनसे फोन पर बात हो जाती है।कभी देखना है कि वे अब भी उतने ही दुबले हैं क्या ?
अशोक जी  विदेशी लहजे में फर्राटे से अंग्रेजी बोलते थे।
तब लाॅ कालेज में बी.एन.श्रीवास्तव  प्राचार्य थे।पोद्दार साहब,प्रयाग सिंह  और हिंगोरानी जी प्रमुख  शिक्षकों में थे। 
 1972 से पहले भी पटना विश्व विद्यालय के छात्रावासों में मैं जाता  था राजनीतिक चर्चाओं के लिए।
उन दिनों की एक खास बात मुझे याद है ,वह यह कि शाम में पढ़ाई के समय छात्रावासों में कोई बाहरी व्यक्ति जाकर गपशप नहीं कर सकता था।
  छात्रावासों के मेरे समाजवादी मित्र राम उदगार महतो,राम नरेश शर्मा ,राज किशोर सिंहा और सुरेश शेखर याद आते हैं।
 सुरेश प्रसाद सिंह उर्फ सुरेश शेखर ने 1966 में मैट्रिक में पूरे बिहार में टाॅप किया था।वह डा.लोहिया से प्रभावित थे।
 प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले सुरेश अत्यंत तेजस्वी और दबंग थे।
उन्होंने तब के युवा तुर्क चंद्र शेखर से प्रभावित होकर अपने नाम के साथ शेखर जोड़ा था।बाद में उन्हें राजनीति से निराशा हुई और रिजर्व बैंक की नौकरी में चले गये।अब वह इस दुनिया में नहीं रहे।वह नीतीश कुमार के दोस्त  थे।
  बातें तो बहुत है।फिलहाल इतना ही।
हां,एक इच्छा जरूर है । काश ! पटना विश्व विद्यालय में एक बार फिर कम से कम 1972 का भी माहौल कोई लौटा देता तो वह राज्य का बड़ा कल्याण करता।उससे पहले जाना तो बहुत कठिन काम है।  


  



मंडल आरक्षण लागू कर गोल तो कर दिया पर अपनी टांगंे तुडव़ा लीं वी.पी.ने


         
सन् 1990 में ‘मंडल आरक्षण’ लागू करने के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था कि ‘ मैंने गोल तो कर दिया,पर अपनी टांगें तुड़वा लीं।’
हालांकि सच यह भी है कि उस एक फैसले का ऐसा राजनीतिक असर हुआ कि उसके बाद कभी कांग्रेस को लोक सभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका।
  साथ ही मंडल आरक्षण के खिलाफ शुरू हुए मंदिर आंदोलन के
कारण भाजपा को केंद्र में सत्ता मिलनी शुरू हो गयी।
   मंडल आरक्षण के कारण तब न सिर्फ वी.पी.सिंह की सरकार गिरा दी गयी थी बल्कि राजनीतिक तौर पर खुदवी.पी.हाशिए पर चले गए।
एक तरफ जहां आरक्षण विरोधी लोग उनके कट्टर दुश्मन बन गए तो दूसरी ओर आरक्षण समर्थकों ने वी.पी.को नहीं स्वीकारा।क्योंकि वे उनके ‘बीच’ से नहीं थे।
 इतना ही नहीं, जो वी.पी.सिंह  1987-89 के ‘बोफर्स अभियान’ के जमाने में  मीडिया के अधिकतर हिस्से के हीरो थे, वे मंडल आरक्षण के बाद खलनायक बन गए।
मीडिया के बड़े हिस्से के उनके प्रति बदले रुख से वी.पी.इतना दुःखी हुए थे कि उन्होंने 1996 में प्रधान मंत्री का पद ठुकरा दिया।ज्योति बसु से लेकर संयुक्त मोर्चा के कई नेता उन्हें प्रधान मंत्री बनाने के लिए दिल्ली में खोज रहे थे और वी.पी. भूमिगत हो गए थे।
  इस संबंध में वी.पी.सिंह ने बाद में पत्रकार राम बहाुदर राय को बताया कि ‘जब मैंने  मंडल आयोग की सिफारिशों को  लागू किया तो मीडिया का मेरे प्रति दृष्टिकोण बदल गया।वे लोग कहने लगे कि विश्वनाथ प्रताप सिंह पद लोलुप हैं।याद दिलाया गया कि मैंने कहा था कि मैं प्रधान मंत्री पद नहीं लूंगा।जो लोग तब 1989 के जनादेश   की व्याख्या मेरे पक्ष में करते थे ,वे ही मुझे पद लोलुप कहने लगे।उन लोगों को यह कहां मालूम है कि लालकृष्ण आडवाणी ने मेरी पत्नी को कई बार फोन किया था कि मैं जनता दल संसदीय दल के नेता के पद को स्वीकार कर लूं।
इसलिए इस बार यानी 1996 में मैं यह नहीं चाहता था कि मेरे बाल -बच्चों को यह सुनना पड़े कि तुम्हारे पिता पद लोलुप थे।
मैं चाहता था कि वे  यह कह सकें कि मेरे पिता ने प्रधान मंत्री पद ठुकराया भी।’
  उत्तर प्रदेश के डैया रियासत में वी.पी.सिंह का 25 जून 1931 को जन्म हुआ था।पांच साल की उम्र में माण्डा रियासत के राजा ने विश्वनाथ को दत्तक पुत्र के रूप में अपना लिया।
  उथल -पुथल वाला जीवन जीने वाले विश्वनाथ जी 1969 में पहली बार उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य बने थे।
बाद में तो वे मुख्य मंत्री और प्रधान मंत्री भी बने।
वी.पी. का  विवादों से लगातार संबध रहा।उन्होंने उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री पद भी विवादास्पद परिस्थितियों में छोड़ा।
केंद्रीय मंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के सवाल पर उनका प्रधान मंत्री राजीव गांधी से लंबा विवाद चला।
 पर जब 1989 के लोक सभा चुनाव के बाद  गैर कांग्रेसी सरकार के गठन का वक्त आया तो भी विवाद उठा।
   जनता दल संसदीय दल ने पहले चैधरी देवी लाल को नेता चुना और उसके तुरंत बाद देवी लाल ने अपनी पगड़ी 
 वी.पी.के सिर पर बांध दी।
उससे पहले देवी लाल और वी.पी. के बीच अकेले में दिलचस्प संवाद हुआ था।
 मंच पर पेश होने वाले राजनीतिक नाटक का स्क्रिप्ट तैयार करते समय देवीलाल ने वी.पी.सिंह को व्यक्तिगत बातचीत में कहा कि ‘नेता पद के लिए पहले मेरे नाम का प्रस्ताव पास हो जाएगा,फिर मैं मना कर दूंगा और आप हो जाइएगा।’
इस पर वी.पी.ने उनसे कहा कि आपको मना करने की क्या जरूरत है ?
आप प्रधान मंत्री बनिए।
देवीलाल ने कहा कि ‘वोट आपके नाम पर मिला है।मैं बनूंगा तो जनता डंडा लेकर मारेगी।’
फिर वही हुआ जो नेपथ्य में तय हुआ था।उस पर चंद्र शेखर ने सभा भवन से वाॅकआउट किया क्योंकि इस स्क्रिप्ट की पूर्व सूचना उन्हें नहीं थी।
  किसी बड़े नेता के अनशन के दौरान भी कितनी  बड़ी बदइंतजामी हो सकती है, वह 1993 में मुम्बई में साबित हुआ।उसके शिकार वी.पी.सिंह हुए।
 वहां उनकी किडनी खराब हो गयी तथा समय बीतने के साथ उनकी स्थिति बिगड़ती  चली गयी।कुछ अन्य बीमारियों ने भी उनके शरीर में घर बना लिया।
अंततः 27 नवंबर 2008 को वी.पी.सिंह का निधन हो गया।
उस अनशन के बारे में कुछ बातें वी.पी.सिंह के शब्दों में ‘जहां मैं भूख हड़ताल पर बैठा था ,वह बहुत व्यस्त चैराहा था।
जनता दल वालों ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि वे पेशाब वगैरह के लिए कोई प्रबंध  करते।
और लोग तो उठकर इधर -उधर चले जाते थे ।मैंने उस दौरान पानी कम पिया जिससे मेरी किडनी को नुकसान पहंुचा।’
  इस बात को लेकर भी वी.पी.सिंह की बदनामी हुई थी कि बोफर्स घोटाले के बारे अपने पहले के आरोप से  बाद में वे पलट गए थे।
  पर 6 फरवरी 2004 को वी.पी सिंह ने मीडिया से कहा कि ‘मैं अपने आरोप पर कायम हूंं।बोफर्स में दलाली दी गयी थी।मैंने उस बैंक खाते का नंबर भी बताया था जिसमें दलाली के पैसे जमा किए गए। जांच में नंबर सही पाया गया।पर मैंने कभी यह आरोप नहीं लगाया था कि राजीव गांधी को पैसे मिले हैं।’ 
@ फस्र्टपोस्ट हिंदी 27 नवंबर 2017 @



       
  

बुधवार, 29 नवंबर 2017

संयोग से मैंने आज सुबह इ टी नाउ चैनल लगा दिया।
उस पर न्यायपालिका पर गंभीर चर्चा चल रही थी।
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि अतिथियों में कोई
 व्यक्ति अपनी बारी से पहले नहीं बोल रहा था।
विभिन्न  चैनलों पर इन दिनों जारी  टाॅक शो के भारी शोर गुल, हंगामे और अशालीन शब्दों के प्रयोग के कारण उत्पन्न भीषण गर्मी के बीच  इ टी नाउ पर  आज की चर्चा ठंडीे हवा के झोंके की तरह थी।
   अन्य चैनलों को भी चाहिए कि जहां तक संभव हो सके वे शालीन स्वभाव के वैसे अतिथियों को ही बुलाएं जिनकी आदत बारी से पहले बोलने की ना हो।यदि कोई बोलते हैं तो उनकी आवाज बंद कर दी जानी चाहिए।
इससे होगा यह कि श्रोतागण  बातें सुन और समझ सकेंगे ।उनके समय का सदुपयोग होगा।चैनलों और एंकरों की साख बढ़ेगी।
 चैनलों पर आने वाले कुछ खास नेता तथा अन्य पेशे के कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी उदंडता के लिए कुख्यात हैं।वे न तो शालीनता का ध्यान रखते हैं और न ही एंकरों की बात मानते हैं।यह भी नहीं सोचते कि उनकी बात  कोई सुन या समझ पा रहा है भी या नहीं ।
पता नहीं, कुछ एंकर भी ऐसे शोरगुल की अनुमति क्यों देते हैं ! जहां भी मैं किसी चैनल पर ऐसे उदंड वक्ताओं-प्रवक्ताओं  को देखता हूं, तुरंत चैनल बदल देता हूं।
 वैसे भी शोरगुल और हंगामे के कारण ऐसी टी वी चर्चाओं में मेरी रूचि कम होती जा रही है।
आप कहेंगे कि इ टी नाउ की आज की चर्चा में जितने प्रतिष्ठित व शालीन लोगों को बुलाया गया था,उतनी संख्या में  प्रतिष्ठित व शालीन लोग राजनीतिक चर्चाओं के लिए  उपलब्ध ही नहीं हैं।पर मेरी समझ है कि चैनल वाले यदि खोजेंगे तो मिल सकते हैं।राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं में से भी कुछ शालीन हैं तो कुछ अन्य अशालीन।
 हालांकि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जितने अतिथि इन दिनों चैनलों पर आते हैं, वे सब के सब अशालीन ही हैं।उनमें कुछ  शालीन लोग भी हैं।पर उनकी आवाज दब  जाती है। 
@ 2017@  

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

नब्बे के दशक में केंद्र में निदेशक पद पर तैनाती के लिए लगते थे दस लाख रुपए


      
नब्बे के दशक में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से जुड़े संस्थान के   निदेशक पद पर तैनाती के लिए उम्मीदवार को दस लाख रुपए की रिश्वत देनी पड़ती थी।
  यह रहस्योद्घाटन तब के केंद्रीय कृषि मंत्री चतुरानन मिश्र ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक में किया है। मिश्र जी 1996 से 1998 तक केंद्र में मंत्री थे।तब संयुक्त मोर्चा की सरकार थी।बारी -बारी से एच.डी.देवगौड़ा और आई.के.गुजराल प्रधान मंत्री थे।
 देश में  पहली बार कम्युनिस्ट नेता केंद्र सरकार में शामिल हुए थे।
  ‘मंत्रित्व के अनुभव’ नामक अपनी पुस्तक में दिवंगत कम्युनिस्ट नेता चतुरानन मिश्र ने लिखा कि ‘ एक बार एक वैज्ञानिक संस्थान के निदेशक की नियुक्ति के लिए मेरे पास विभाग से तीन नाम आए।
मैंने योग्यता को देख कर  नियुक्ति के लिए उनमें से एक का चयन किया।
  जिन्हें चुना गया था,वे इस बात से अकचका गए कि वे डायरेक्टर कैसे हो गये ? मेरा उनसे न कोई परिचय था और न ही कोई पैरवी आई थी।
बाद में वे मुझसे मिलने आए तो कहा कि डायरेक्टर की नियुक्ति में दस लाख रुपए लगते थे, इसलिए मैं निराश बैठा था।
उन्होंने बताया कि वे बिहार के बक्सर जिले के हैं।
 वैसा ही बम्बई स्थित मछली अनुसंधान संस्थान के निदेशक की बहाली में हुआ।
वह मुसलमान थे।
 वह ताज्जुब में पड़े कि उनकी बहाली कैसे हो गयी।उच्च पदों पर नियुक्ति में दलितों और कम्युनिस्टों के बारे में विरोध होता था।
  जब कोई कम्युनिस्ट नेता पहली बार सत्ता में आता है,उसे तरह -तरह के नये  अनुभव होते हैं।कई बार उन्हें कुछ अजीब लगता है।
चतुरानन मिश्र ने भी अपने कई तरह के  अनुभव विस्तार से लिखे हैं।
 उन्हें एक अनुभव यह भी हुआ कि ‘मंत्रियों के यहां उनके अधीनस्थ 
सहकारी संगठन और लोक उपक्रम से जरूरत से अधिक अनेक गाडि़यां आ जाती हैं।
उनके अनुसार ‘मैं संासद वाला मकान में ही रह गया था।जब देखा कि चार गाडिय़ां लगी हुई हैं तो उन्हें हटवा दिया।
बाद में पता चला कि दफ्तर में भी ऐसे संसाधन राजकीय क्षेत्र से लिए जाते हैं।
संबंधित अफसर डर से कुछ नहीं बोलते।’
एक महत्वपूर्ण बात मिश्र जी ने लिखी है।उन्होंने लिखा कि ‘ मुझे सूचित किया गया था कि मंत्रियों के भ्रष्टाचार के संबंध में प्रधान मंत्री को खुफिया तंत्र द्वारा खबर चली जाती है।
गठबंधन सरकार में इस पर काम करना प्रधान मंत्री के लिए कठिन होता है।इसलिए वे चुप रह जातें हैं।
मगर प्रधान मंत्री की यदि अपनी बड़ी पार्टी है तो इस विषय पर चुप क्यों रह जाते हैं,यह समझ में नहीं आता है।’
  मंत्रिमंडल की कार्य प्रणाली के बारे में भी उन्होंने लिखा है। कार्य -पद्धति में  एक बड़ी कमी उन्होंने  महसूस की।उन्होंने लिखा कि  राष्ट्र की  सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं जैसे वित्तीय संकट, सब्सीडी ,बेरोजगारी,गरीबी रेखा वालों के सवाल ,कृषि समस्या आदि पर सर्वांगीण रूप से वहां कभी विचार नहीं होता है।
ऐसा विचार योजना आयोग में हुआ था लेकिन वह भी सीमित था।
मं़ित्रमंडल में प्रधान मंत्री जो चाहे ,वह तो होता ही है,लेकिन उनके सामने मंत्रियों के विचार आने की जरूरत है।
वे सिर्फ सचिवों की राय पर काम करते हैं।
दूसरे विभागों के एजेंडा पर भी वे बोलते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि हर विभाग अलग -अलग सरकार है।’
  चतुरानन जी ने मंत्री के रूप में एक नयी परंपरा डाली थी।पता नहीं वह बाद में कायम रही या नहीं।
वे लिखते हैं कि ‘रोजाना जो पत्र आते थे, उसकी सिर्फ प्राप्ति का पत्र भेजने का रिवाज था।किंतु मैंने ए.पी.एस.को कहा कि किस पदाधिकारी के पास उनकी शिकायत भेजी जा रही है,वह भी प्राप्ति पत्र में लिखा करें।उस पदाधिकारी से ंसंपर्क के लिए लिख दें।’
  सांसदों के बारे में अपना अनुभव उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया,‘ मंत्री के रूप में मेरे पूरे  कार्यकाल में कामरेड ए.के.राय ही एकमात्र थे जिन्होंने आकर मुझसे पूछा कि यह तो नया काम है, आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?
 बाकी साथी कुछ काम-धंधा के लिए ही आते थे।
जब उनसे बताया कि यहां बैठकर पूंजीवाद का विकास कर रहा हूं तो वे आश्चर्य में पड़े और पूछा कि तब फिर क्यों हैं  यहां ?
मैंने कहा कि पूंजीवाद में विकास कार्यों में भी दर्द अवश्यम्भावी है।मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि न्यूनत्तम दर्द हो।’मेरे इस दृष्टिकोण के बावजूद एक बड़ा टकराव हुआ जिसमें मैंने इस्तीफा दे दिया।निदान होने पर फिर वापस ले लिया।’
  जाहिर है कि चतुरानन जी बिहार से थे।उन दिनों बिहार में कुख्यात चारा घोटाले की धूम थी।
जिन नेताओं पर चारा घोटाले के आरोप थे,वे केंद्र सरकार पर दबाव डाल रहे थे।
 उस घटना पर खुद मिश्र जी और तब के केंद्रीय गृह मंत्री की क्या राय थी, इस संबध्ंा में मिश्र जी कोई ठोस बात लिख देते तो उनकी संस्मरणात्मक पुस्तक अधिक  पठनीय होती।
याद रहे कि तब के सी.बी. आई. के निदेशक जोगिंदर सिंह ने उस बारे में अपनी किताब में खुल कर लिखा है।  
  @ लाइवबिहार.लाइव पर भूले-बिसरे काॅलम के तहत  28 नवंबर 2017 को प्रकाशित मेरा लेख@

   





ब्रज नंदन जी नहीं रहे।यह सुन कर झटका लगा।
क्योंकि मुझे तो ऐसी उम्मीद कत्तई नहीं थी।
वे पत्रकारिता में अंतिम समय तक सक्रिय रहे ।
उन्होंने अपनी सक्रिय पत्रकारिता की लगभग आधी सदी से भी अधिक की अवधि पूरी की। 
उन्होंने जवाहर लाल नेहरू से लेकर बाद के लगभग
सभी प्रधान मंत्रियों को ‘कवर’ किया।
  बहुत पहले मैंने उनके आवास पर जवाहर लाल जी के साथ ब्रज नंदन जी का फोटो देखा था।
पूछा तो उन्होंने बताया कि यह फोटो रांची हवाई अड्डे का है।
तब रांची के किसी प्रकाशन के लिए ब्रज नंदन जी काम कर रहे थे।
 करीब दस साल तक  राजनीति में सक्रिय रहने  के बाद जब मैं पत्रकारिता में आया, तब तक ब्रजनंदन जी  पटना के प्रमुख पत्रकार बन चुके थे। उन दिनों वे समाचार एजेंसी हिंन्दुस्तान समाचार में काम करते थे।
मैंने उन्हें हमेशा स्नेहिल पाया।
 संभवतः वे पहले पत्रकार थे जिनके पास स्कूटर था।
मेरे पास तो तब साइकिल भी नहीं थी।उनके स्कूटर पर सवार होकर मुझे कई बार प्रेस कांफ्रेंस में जाने का मौका मिला।मैंने 1977 में दैनिक ‘आज’ से मुख्य धारा की पत्रकारिता शुरू की थी।  
  तब संवाददाताओं को फ्रेजर रोड और बुद्ध मार्ग से सचिवालय या मंत्रियों के आवास पर ले जाने के लिए सरकारी एम्बेसडर गाडि़यां आती थीं।
 पर, ब्रज नंदन जी और टाइम्स आॅफ इंडिया के संवाददाता अपने वाहन से जाते थे।
 टाइम्स आॅफ इंडिया के जितेंद्र सिंह के अलावा पेट्रियट के संवाददाता चंद्र मोहन मिश्र के पास भी  कार थी। किसी अन्य पत्रकार के पास उस समय निजी कार या स्कूटर थी या नहीं, मुझे याद नहीं। 
  पर तब हम कुछ पत्रकार यह सोचते थे कि काश ! हमारे पास भी होती तो खबरें एकत्र करने में अधिक सुविधा होती।
  ब्रजनंदन जी हमेशा समय से पहले संवाददाता संम्मेलनों या अन्य कार्यक्रमों में पहुंच जाते थे।
 संवाददाता सम्मेलनों में वे अक्सर आगे की सीट पर बैठते थे।सवाल जरूर पूछते थे।
 ऐसे सवाल पूछते थे जिनसे अक्सर खबर बन जाती थी।आंकड़ों के प्रति उनका विशेष आग्रह रहता था।
   गरिमायुक्त व्यक्तित्व के धनी ब्रज नंदन जी को मैंने कभी किसी की निंदा करते नहीं सुना ।
हिन्दुस्तान समाचार और आर्यावत्र्त होते हुए जब उन्होंने दैनिक आज ज्वाइन किया तो उनके समकालीन पत्रकारों को आश्चर्य हुआ कि आखिर वे कितने दिनों तक काम करेंगे ?
 पर वे तो कर्मयोगी थे।अंत तक काम ही करते रहे।उन्होंने एक सार्थक जीवन जिया। 
    

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

शिक्षा-परीक्षा में सुधार के लिए सर्जिकल स्ट्राइक अब जरूरी----


बिहार ही नहीं ,बल्कि इस देश की शिक्षा की दुर्गति के कारणों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज के नेतृत्व में न्यायिक जांच आयोग का गठन होना चाहिए। आयोग अपनी रपट में सुधार के उपायों को रेखांकित करे।
पर पहले दुर्दशा के असली कारणोें का पता जरूर होना चाहिए।
साथ ही, केंद्र और राज्य सरकारें उन सिफारिशों को कड़ाई से लागू करेें , यदि सरकार के लोगों को अपनी अगली पीढि़यों के भले का कुछ भी खयाल हो।
  दरअसल शिक्षा-सुधार  को लेकर कई समितियों और आयोगों की सिफारिशें धूल फांकती रह जाती हैं।कुछ लागू भी होती है तो आधे मन से।
  शायद सुप्रीम कोर्ट के जज के नेतृत्व वाले किसी आयोग की सिफारिशों में अधिक नैतिक बल हो।
उससे आम जनता का भी समर्थन उन सिफारिशों को मिलेगा।
  दरअसल शिक्षण-परीक्षण को बिगाड़ने में समाज के लगभग हर हिस्से के अनेक प्रभावशाली लोगों का हाथ रहा है।
उनके व्यक्तिगत स्वार्थ भी उससे जुड़ गए हैं।वे शिक्षा को सुधरने नहीं देते ।
किसी अच्छे कदम का बाहर या भीतर से विरोध कर देते हैं।
 इस बीच शिक्षा की स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि बिल गेट्स को  भी हाल में  यह कहना पड़ा कि  आज इस देश में शिक्षा की जो स्थिति से उसकी अपेक्षा  इसे बहुत -बहुत  बेहतर करने की जरूरत है।यानी एक विदेशी को भी इस देश की शिक्षा की खराब स्थिति अखर रही है।भारत के कुछ सत्तावानों को इसलिए नहीं अखरती क्योंकि उनमें से अनेक लोग तो अपने बाल -बच्चों को विदेशों में पढ़ाते हैं और विदेशों में ही बसा भी देते हैं।
इधर इस देश और खास कर बिहार जैसे पिछड़े राज्यों की शिक्षा चैपट होती जा रही है।
  चैपट शिक्षा का इतना अधिक कुप्रभाव पड़ रहा है कि 
न सिर्फ  सही प्रश्न पत्र तैयार करने वाले शिक्षकों की कमी पड़ रही है ,बल्कि उत्तर पुस्तिकाएं जांचने की क्षमता वाले शिक्षक भी कम हो रहे हैं।
 उत्तर पुस्तिकाओं में दिए गए अंकों को जोड़ने में भी कई शिक्षकों को दिक्कत आ रही है। 
 बिहार की  ताजा खबर यह है कि  इंटर  हिंदी के माॅडल पेपर में
गलतियां सामने आईं हैं।
मैट्रिक के माॅडल पेपर में भी गलतियां मिली थीं।
उसके लिए संबंधित शिक्षिका को निलंबित किया गया था।
ऐसी गलतियां आए दिन सामने आती रहती हैं।
  पर किसी को सिर्फ निलंबित करने से काम चलने वाला नहीं है।
क्योंकि दोष व्यक्ति से अधिक व्यवस्था का है।
शिक्षण-परीक्षण की जो हालत है,यदि वह जारी रही तो कुछ साल के बाद ऐसे ही शिक्षक मिलेंगे जो दो जोड़ दो बराबर पांच पढ़ाएंगे।
उस पढ़ाई से निकले छात्र जो- जो  गुल खिलाएंगे, भविष्य में उसे भी झेलना पड़ेगा।
  सामान्य शिक्षा की बात कौन कहे,मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों की स्थिति भी बदतर होती जा रही है।
देश के सैकड़ों इंजीनियरिंग कालेज हाल के वर्षों में बंद हो गए।
अनेक मेडिकल काॅलेजों में रिश्वत के बल पर दाखिले होते हैं।कई मेडिकल काॅलेजों के छात्रों को शिक्षा-परीक्षा में कोई खास रूचि नहीं।
फिर भी वहां के छात्र डाक्टर बन कर निकल रहे हैं।
ऐसे डाक्टर -इंजीनियर इस देश व जनता के साथ कैसा सलूक करेंगे ?हालांकि यहां यह नहीं कहा जा सरहा है कि देश के सारे सामान्य ग्रेजुएट, डाक्टर और इंजीनियर अयोग्य ही हैं।उनमें बहुत लोग योग्य हैं।पर अपवादों से देश नहीं चलता। 
शिक्षा -परीक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए निहितस्वार्थियों के खिलाफ शीघ्र सर्जिकल स्ट्राइक की जरूरत है।
 तब अपराधी छोड़ देते थे पटना-----
बिहार में कुछ पुलिस  अफसर ऐसे भी हुए हैं जिनके डर से 
खूंखार अपराधी जिला छोड़ देते थे।
पटना के कम से कम दो एस.एस.पी. के कार्यकाल में भी ऐसा ही हुआ था।
एक एस.एस.पी. नब्बे के दशक में थे।
उन्होंने अपराध नियंत्रण की कुछ ऐसी  तकनीकी अपनाई कि अपराधी बाप-बाप करने लगे।कुछ ने पटना छोड़ा तो कुछ अन्य की  दुनिया ही छूट गयी।यानी पुलिस से मुंठभेड़ करना उन्हें महंगा पड़ा।
  2005 के बाद एक अन्य एस.एस.पी.ने भी उसी तरह की करामात दिखाई।बल्कि पहले वाले एस.एस.पी. से भी बेहतर।
पहले वाले पर तो आरोप था कि उनकी  एक खास समूह के अपराधियों पर उनकी अधिक नाराजगी थी।
पर दूसरे वाले ‘समदर्शी’ थे।
पटना के मौजूदा एस.एस.पी. भी कत्र्तव्यनिष्ठ हैं और कई बार अपनी  जान
हथेली पर लेकर  अपराधियों से मुकाबला करते हैं।पर लगता है कि 
इन्हें वह तकनीकी नहीं मालूम जो उन अफसरों को  मालूम थी जिनकी चर्चा मैंने उपर की पंक्तियों में की है।
कोई हर्ज नहीं कि उन पूर्ववर्ती अफसरों से मौजूदा अफसर दिशा -निदेश ले लें।
 उधर राम जेठमलानी के पास राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय जेहादियों से कारगर ढंग से निपटने का एक खास तकनीकी है।जेठमलानी  ने उसकी चर्चा एक बार सार्वजनिक रूप से भी की थी।
पर,लगता है कि  उनकी तकनीकी को अपनाने की इच्छा शक्ति किसी में नहीं है।
ऐसे कैसे चलेगा ?
जब समस्याओं से निपटने के लिए तकनीकी उपलब्ध है ही तो फिर देशहित और राज्यहित में उन्हें अपना लेने में क्यों संकोच होना चाहिए ?    
     क्या देनी पड़ी थी दहेज ?-----
  बिहार में जब से दहेज विरोधी अभियान चल रहा है, वर पक्ष के कुछ व्यक्ति  सार्वजनिक रूप से  दावा कर रहे हैं कि उन्होंने दहेज नहीं ली थी।संभव है कि उनका दावा सही हो।कुछ लोग नहीं लेते।यह भी सच है।पर अधिकतर लोग लेते ही लेते हैं।पर बेहतर तो यह होगा कि बधू पक्ष के लोग स्वेच्छा से यह बात सार्वजनिक रूप से कहें कि उन्हें दहेज नहीं देनी पड़ी थी।जब वे ऐसा कहेंगे तभी  संबंधित वर पक्ष की साख बढ़ेगी।
      एक भूली बिसरी याद-----
बात तब की है कि जब मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता था।
पूर्व मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर ने मुझे अपना एक बयान लिख कर दिया। कहा कि यह संपादक के नाम पत्र है।सर्चलाइट के एडिटर को जाकर दे आइए।
उन दिनों सुभाष चंद्र सरकार संपादक थे।मैं उनसे मिला और कहा 
कि यह कर्पूरी जी का ‘संपादक के नाम पत्र’ है।उन्होंने मुझे बैठा लिया और कहा कि  जिन-जिन नेताओं के खिलाफ हमारे अखबार में छपा, वे सब मुझसे नाराज हो गए।पर खिलाफ लिखने पर भी कर्पूरी जी कभी नाराज नहीं हुए।मैं उनसे मिलना चाहता हूं।
आप उनसे मुझे समय दिलवा दीजिए।
 आकर मैंने कर्पूरी जी से कहा।दोनों की फोन पर बात भी हुई।दोनों मिले भी ।मुझे नहीं मालूम कि वे कहां मिले।पर जितना मैं कर्पूरी जी को जानता था,उसके अनुसार उन्होंने संपादक जी को नहीं बुलाया होगा बल्कि वे खुद ही उनके घर चले गए होंगे।
  खैर जो ‘संपादक के नाम पत्र’  मैं सरकार साहब को दे आया था,वह बयान के रूप मंें  दूसरे दिन सर्चलाइट के पहले पेज पर छपा ।
    यानी पहले के कई बड़े नेता किसी अखबार में संपादक के नाम पत्र छप जाने पर ही  संतुष्ट हो जाते थे।पर, आज  ?
अज्ञेय के संपादकत्व वाले साप्ताहिक ‘दिनमान’ में मैंने पूर्व गवर्नर जनरल राज गोपालाचारी जैसे बड़े नेताओं के विचार ‘मत सम्मत’ कालम में छपे देखे थे।
और अंत में----
सिंगापुर के पूर्व प्रधान मंत्री ली कुआन यू के 2015 में निधन के बाद मशहूर कूटनीतिज्ञ हेनरी किसिंजर ने कहा था कि ‘ली और उनके सहयोगियों ने अपने देश के लोगों की प्रति व्यक्ति आय ,जो आजादी के बाद 1965 में 5 सौ डालर थी ,को वत्र्तमान में 55 हजार डाॅलर तक पहुंचा दिया।
एक पीढ़ी की अवधि में सिंगापुर एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र ,दक्षिण पूर्व एशिया का प्रमुख बौद्धिक महा नगर, क्षेत्र के बड़े अस्पतालों का स्थान और अंतरराष्ट्रीय मामलों से संबद्ध सम्मेलनों की पसंदीदा जगह बन गया।’
   कुछ अन्य राजनीतिक विचारकों ने तब कहा था कि सिंगापुर की प्रगति को  देख कर यह तर्क गलत साबित हो गया है कि सिर्फ कम्युनिस्ट तानाशाही वाले देश में ही तेज विकास संभव है।पर भारत  ली कुआन से भी कुछ नहीं सीख सका।
@ 24 नवंबर 2017 के प्रभात खबर --बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 
  



    
   

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

 आत्म हत्याओं के संदर्भ में किशोर कुणाल ने ठीक ही कहा है कि ‘कुछ लोग परेशानियों से जुझने के बजाए हार मानना पसंद करते हैं।कह सकते हैं कि कुछ लोगों में आत्म हत्या करने की मनोवैज्ञानिक प्रवृति होती है।
जीवन में आने वाली मुसीबतों का निर्भीकता से सामना करना चाहिए।
मानसिक परेशानी हो तो मित्रों से बात कीजिए।’
@पटना  जागरण सिटी - 22 नवंबर 2017@
मुझे लगता है कि कुणाल जी जैसे जिनके मित्र हों, वे तो ऐसी स्थिति से बचा लिए जा सकते हैं।पर आम लोगों के बीच के जो लोग ऐसी परेशानियों से जूझ रहे हों,उनके लिए कोई संस्थागत उपाय होना चाहिए।
 कुणाल जी ने समाज सेवा के क्षेत्र में जितना काम किया है,वह एक मिसाल हैं।
उन्हें इस क्षेत्र में भी कदम बढ़ाना चाहिए।
उनके नेतृत्व में एक ऐसी परामर्श दात्री समिति बननी चाहिए जो आत्म हत्या के कगार पर खड़े लोगों को सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित कर सके।  

  सत्तर के दशक की बात है। बिहार के एक बड़े नेता ने आत्म हत्या कर ली।उन दिनों इस बात की चर्चा थी।
नेता जी स्वतंत्रता सेनानी थे।बाद में बिहार सरकार के मंत्री बने थे।उन पर भ्रष्टाचार केे आरोप लगे थे।जेल जाने की नौबत आ गयी थी।
स्वतंत्रता सेनानी के रूप में तो वे सगर्व जेल जाते थे।पर, भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाने से बेहतर उन्होंने मर जाना समझा।
हालांकि उन पर मामूली आरोप थे।
  देश में आज के अनेक नेताओं पर सरकारी खजाने की लूट और महा लूट के जितने बड़े-बड़े आरोप लग रहे हैं,उनके मुकाबले उस नेता जी  पर जो आरोप थे,उसे अधिक से अधिक ‘पाॅकेटमारी’ का आरोप कहा जा सकता है।आज कितना फर्क आ गया है राजनीति में पहले के मुकाबले !
  

रविवार, 19 नवंबर 2017

अस्पतालों-बाजारों के शौचालयों को ठीक कराए राज्य सरकार



बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय और नगर विकास मंत्री सुरेश शर्मा इन दिनों अपने -अपने विभाग के कामों को ठीकठाक करने के लिए सक्रिय नजर आ रहे हैं।
  अच्छी बात है।उत्साह और अच्छी मंशा को देख कर उम्मीद की जा सकती है कि इन विभागांे में अब बेहतरी आएगी।
पर पुराने अनुभव बताते हैं कि  शुरूआती उत्साह पर पानी फिर जाता है जब वास्तविकता से पाला पड़ता है।
दरअसल  आम लोगों से संबंधित इन विभागों को भीषण भ्रष्टाचार ने जितनी मजबूती से जकड़ रखा है,उसमेंे कुछ परिणामदायक काम कर पाना असंभव नहीं तो बहुत कठिन जरूर है।
न तो सभी सरकारी डाक्टरों को उनकी ड्यूटी पर हाजिर कराना
आसान काम है और न ही नगरों की सफाई कराना।
देखना है कि नये मंत्री कितना सफल होते हैं ! मेरी शुभकामना हे।
  हां, ये मंत्री द्वय अपने- अपने महकमे के तहत आने वाले   शौचालयों को ही ठीक कर पाएं तो भी वे नाम कमा लेंगे।
 किसी व्यक्ति की सफाई पसंदगी की जांच इससे नहीं होती कि वह अपना ड्राइंग रूम कितना साफ रखता है बल्कि इससे होती है कि वह शौचालय और रसोई घर के साथ कैसा सलूक करता है।
सन 1972 के मुख्यमंत्री केदार पांडे सिर्फ एक काम के लिए आज भी यदा-कदा याद किए जाते हैं।उनकी सरकार ने परीक्षाओं में कदाचार को बिलकुल ही समाप्त कर दिया था।
    क्या पटना के मौर्य लोक मार्केट काम्प्लेक्स के शौचालयों को ठीक करना आसान काम है ? वर्षों  के अनुभव बताते हैं कि इस काम में बड़े -बड़े हुक्मरान फेल कर गए हैं।
उधर मौर्य लोक जाने वाले हजारों स्त्री -पुरुषों को कितनी परेशानी होती है, वह वे ही जानते हैं।
 वहां अभी जो शौचालय है, वह नरक तुल्य है।उसमें कोई प्रवेश भी नहीं करना चाहता।
 यही हालत राज्य के अन्य मार्केट के शौचालयों का भी  है।कई स्थानों में तो शौचालय हैं ही नहीं।
इससे अधिक मुश्किल काम तो है सरकारी अस्पतालों और निजी क्लिनिकों के शौचालयों को इस्तेमाल लायक बनाना है।
अनेक निजी क्लिनिकों में तो शौचालय का कोई प्रावधान ही नहीं होता है।हैं भी वे इस्तेमाल लायक नहीं होते जबकि चिकित्सकों की आय कम नहीं है।
वैसे विभिन्न पैथों से जुड़े वैसे चिकित्सकों के क्लिनिकों में भी शौचालय नहीं हंै जहां रोज सैकड़ों मरीज और उनके परिजन जाते हैं। इस मानवीय पक्ष की ओर संबंधित मंत्री ध्यान देंगे तो उन्हें लोगबाग याद रखेंगे।
  भ्रष्टाचार के खिलाफ हाईकोर्ट की सराहनीय पहल--
एक निजी चैनल ने स्टिंग आपरेशन के जरिए पटना लोअर कोर्ट के 
कर्मचारियों को रिश्वत लेते पकड़ा और पटना हाई कोर्ट ने तत्काल  उन्हें निलंबित कर दिया।
हाई कोर्ट की इस पहल की सराहना हो रही है।
इस कदम से हाई कोर्ट से लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं।
दरअसल ऐसा भ्रष्टाचार सिर्फ पटना कोर्ट तक ही सीमित नहीं है।हाईकोर्ट से उम्मीद बंधी है कि वह अन्य जिलों की ओर भी
ध्यान देगा ताकि आम लोगों की कठिनाइयां कम हो सकें। 
  कचहरियों में ऐसी घूसखोारी की खबरें पहले भी मिलती रही हैं।
पर ताजा स्टिंग आपरेशन में जिस तरह निर्भीक होकर बेशर्मी से और अधिकारपूर्ण ढंग से पैसे ऐंठते हुए कर्मचारी देखे जा रहे हैं,उससे लगता है कि हाल के वर्षों में भ्रष्ट कर्मी अधिक निर्भीक हो गए हैं।
ऐसी निर्भीकता उनमें कैसे आई ?
हाई कोर्ट प्रशासन को इस मनोवृति के पीछे के कारणों की जांच करनी होगी।तभी इस समस्या का समाधान हो पाएगा और गरीब व निःसहाय वादी -प्रतिवादी राहत पा सकेंगे।
   भ्रष्टाचार चीन में अधिक या भारत में ?---
चीन में यह कहा जा रहा है कि ‘यदि चीन खुद को सोवियत संघ की तरह तबाह होने से बचाना चाहता है तो उसे भ्रष्टाचार से और मजबूती से लड़ना होगा।’ क्या भारत के हुक्मरान और विरोधी दलों के नेतागण इस बात पर आकलन  करेंगे कि हमारे यहां चीन से कम भ्रष्टाचार है या अधिक ?
यदि इस देश में भ्रष्टाचार बढ़ता गया तो इस देश का क्या हाल होगा ?
भारत में क्यों भ्रष्टाचार हमेशा ही एक राजनीतिक मुद्दा बन जाता है ?
क्या भ्रष्टाचार कभी देशहित का मुददा  भी बनेगा ? कुछ अपवादों को छोड़ दें तो देश के हर कोने से और हर महकमे से भीषण भ्रष्टाचार की खबरें आ रही हैं।
भ्रष्टाचार को लेकर दिग्गजों की चिंता पुरानी--
महात्मा गांधी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने इस देश में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार पर समय -समय पर गहरी चिंता व्यक्त की है।
पर भ्रष्टाचार है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है।
महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार को लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज नहीं बनने दिया जाना चाहिए।’
जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के तत्काल बाद कहा था कि ‘भ्रष्टाचारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए।’
1988 में समाजवादी नेता और पूर्व सांसद मधु लिमये ने कहा था कि ‘ इस देश के शक्तिशाली लोग इस देश को बेच कर खा रहे हैं।’
सन 1998 में पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री मन मोहन सिंह ने कहा था कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है।’
सन 2008 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूत्र्ति बी.एन.अग्रवाल और न्यायमूत्र्ति जी.एस.सिंघवी ने कहा कि ‘भगवान भी इस देश को नहीं बचा सकता।’
2003 में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम.लिंगदोह ने कहा कि ‘राज नेता कैंसर हैं जिनका इलाज संभव नहीं है।’
सन् 1998 में केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन. सी.सक्सेना ने कहा कि ‘भ्रष्टाचार में जोखिम कम और मुनाफा अधिक है।’
1997 में तो संसद ने राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ मिल कर अभियान चलाने के लिए सर्वसम्मत प्रस्ताव पास किया।
इन सब के बावजूद चीजें सुधरती नजर नहीं आ रही हैं।जो थोड़े लोग भ्रष्टाचार के महा दानव के खिलाफ अभियान शुरू करते हैं,उनके खिलाफ ही ताकतवर शक्तियां उठ खड़ी हो जाती हैं।  
     एक भूली बिसरी याद---
सन् 1986 में पुष्पा भारती ने ‘धर्मयुग’ के लिए  लिखे अपने लेख में इन शब्दों में इंदिरा गांधी को याद किया था-- ‘इंदिरा जी के जन्म दिवस पर सोनिया हमेशा चावल और चने से बने कश्मीरी व्यंजन ‘सरवारी’ और मीठे चावल बनवाती थीं।नेहरू परिवार में हर मांगलिक अवसर पर ये चीजें जरूर पकती हैं।
पर अब उनका मन नहीं होता।
एक हूक सी उठती है जी में।पर समय चक्र तो घूमेगा ही और 19 नवंबर आएगा ही।
सोनिया चुपचाप मां के कमरे के सामने दरवाजे पर आम की पत्तियों 
का तोरण लगवा देंगी।प्रियंका के साथ कमरे के हर कोने में फूल सजा देंगी।चादरें ,तकियों के गिलाफ, मेजपोश और तौलिये, सभी कुछ नये रखवा देंगी।
कमरे का माहौल तो नया हो जाएगा, पर क्या होगा उन यादों का जो हमेशा पुरानी ही होती हैं !’  
   और अंत में---
मशहूर भौतिकशास्त्री  स्टीफन हाॅकिन्स ने हाल में यह कहा है कि ‘सन् 2600 तक पृथ्वी आग का गोला बन जाएगी।’
हाॅकिन्स की ऐसी भविष्यवाणियां पढ़कर अनेक लोग उनका मजाक उड़ाते हैं।
पर, दिल्ली के पर्यावरण का जो हाल है,उसे देखकर आप हाॅकिन्स की बातें हवा में उड़ा सकते हैं ?
@प्रभात खबर-बिहार -में 17 नवंबर 2017 को प्रकाशित मेरे कानोंकान काॅलम से@

शनिवार, 18 नवंबर 2017

  इस देश में भ्रष्टाचार पर नेताओं की चिंता लगभग 70 साल पुरानी है।
 यानी भ्रष्टाचार पर बोलना- लिखना कोई फैशन नहीं बल्कि इस गरीब देश के लिए जरूरत है।
कुछ शक्तिशाली लोग इस देश के सरकारी खजानों को लूटकर अरबपति बन रहे हैं और दूसरी ओर 20 करोड़ लोग हर शाम भूखा सो जाते हैं।यह संख्या अधिक भी हो सकती है।
शुरूआत  महात्मा गांधी की चिंता  से की जाए।
1 - महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार को लोकतंत्र की   अपरिहार्य उपज नहीं बनने दिया जाना चाहिए।’
--- दरअसल गांधी जी ने 1937-39 में राज्यों में और 1946 से राष्ट्रीय स्तर पर सरकारों को काम करते देखा तो उन्हें निराशा हुई।
उन्होंने केंद्र से तो एक मंत्री को हटवा भी दिया था,पर वे बिहार में विफल रहे।
2.- सत्ता संभालने के बाद प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि  ‘जमाखोरों,मनाफाखोरों और काला बाजारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका देना चाहिए।’
 ---लगता है कि यह उनके शुरूआती उत्साह के दौर की बात है।पर जब उन्होंने देखा कि समझौता किए बिना सरकार चलाना मुश्किल होगा तो उन्होंने वैसा ही कर लिया।प्रताप सिंह कैरो और वी.के. कृष्ण मेनन प्रकरण प्रमुख उदाहरण हंै।
जांच आयोग ने पंजाब के मुख्य मंत्री प्रताप कैरो को भ्रष्टाचार का देाषी माना ।इसके बावजूद नेहरू ने उन्हें मुख्य मंत्री पद से नहीं हटाया।पर लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधान मंत्री बनते ही यह काम कर दिया।
नेहरू की दूसरी कमजोरी जीप घोटाले के नायक  वी.के.कृष्ण मेनन थे ।उन्हें प्रमोशन देकर रक्षा मंत्री बना दिया गया।
3. - इंदिरा गांधी ने कोई ढांेग नहीं किया।उन्होंने कहा कि ‘भ्रष्टाचार सिर्फ भारत में ही नहीं है बल्कि यह वल्र्ड फेनोमेना है।’
जेपी ने जब उनकी सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो इंदिरा जी ने यह कह कर पलटवार किया कि पूंजीपतियों के पैसे लेने वाले को भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि इंदिरा गांधी के शासन काल में भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप मिल गया।
4. - मन मोहन सिंह ने सन 1998 में कहा कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है।’वे ठीक कह रहे थे।
क्योंकि तब वे राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे।
दरअसल प्रतिपक्ष में रहने पर नेताओं की तीसरी आंख खुल जाती है।पर सत्ता मिलते ही वह बंद हो जाती है।
याद रहे कि 1998 से पहले मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री थे और बाद में प्रधान मंत्री।
5.-1988 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने कहा था कि ‘मुल्क के शक्तिशाली लोग इस देश को बेच कर खा रहे हैं।’
मधु लिमये कभी सत्ता में नहीं रहे,इसलिए उन पर क्या कहा जाए ! वह ईमानदारी से अपनी बात कह रहे थे।
 पर एक सवाल जरूर है।मुलायम सिंह उनके पास  अक्सर विचार-विमर्श करने जाते थे।मधु जी ने उन्हें क्या सिखाया ?
6. - 2008 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूत्र्ति बी.एन.अग्रवाल और न्यायमूत्र्ति जी.एस.सिंघवी ने कहा कि ‘भगवान भी इस देश को नहीं बचा सकता।’
7 - दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूत्र्ति एस.एन.धींगरा ने 2007 में कहा कि भ्रष्टाचार को साधारण अपराध के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।
---- यह कह कर न्यायमूत्र्ति धींगरा ने उन लोगों के इस विचार को बल प्रदान किया कि भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान होना चाहिए।
8 - इस देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे. एम. लिंगदोह ने 2003 में कहा कि ‘राजनेता कैंसर हैं जिनका इलाज अब संभव नहीं।’
---लिंगदोह चुनाव आयोग में  काम करते हुए विभिन्न दलों के नेताओं के रुख -रवैये को देखकर इस नतीजे पर पहुंचे थे।
  याद रहे कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने चंदे का पूरा हिसाब देने को आज भी तैयार नहीं हैं।भाजपा और कांग्रेस की बात कौन कहे  ! क्यों भाई ? 
9 - केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन.सी.सक्सेना ने 1998 में कहा था कि ‘भ्रष्टाचार में जोखिम कम और लाभ ज्यादा है।’
--इस स्थिति को उलट देने के लिए सख्त कानून और उससे अधिक कड़ी कार्रवाई की जरूरत है।क्या इसका प्रबंध हो रहा है ?हो रहा है तो कितना और कब तक ?


गुरुवार, 16 नवंबर 2017

 रिपब्लिक टी.वी.पर प्रकाश सिंह की यह दूसरी बड़ी स्टोरी 
है।ताजा स्टोरी पटना लोअर कोर्ट के घूसखोर कर्मियों के स्टिंग आपरेशन से संबंधित है।
प्रकाश ने पहली बड़ी और सनसनीखेज स्टोरी इस टीवी के उद्घाटन के दिन ही यानी गत मई में ब्रेक की थी।
उसमें  जेल से मो.शहाबुद्दीन से लालू प्रसाद की फोन पर बातचीत का विवरण था।
उस स्टोरी की भी देश भर में चर्चा हुई थी।
दूसरी बड़ी स्टोरी भी कानून के शासन से जुड़ी है जो कल ब्रेक हुई।
पटना सिविल कोर्ट के कर्मियों द्वारा रिश्वत लेकर काम करते हुए स्टिंग आपरेशन किया था प्रकाश सिंह ने।यह हिम्मत का काम है।ऐसी हिम्मत की पत्रकारिता जगत में कमी होती जा रही है।
 रिश्वत तो अन्य सरकारी दफ्तरों में भी ली जाती रही है।
 पर यह काम ‘न्याय के घर’ में हो तो बात चिंताजनक हो जाती है।फिर कोई कहां जाएगा ?
 यह माना जाता है कि जिसे पुलिस-प्रशासन से  न्याय नहीं मिलता,उसे अदालतों से मिलता है।अनेक मामलों में मिल भी रहा है।
  पर यदि एक मामले मंे भी अदालत मेंे घूस चल जाए तो फिर उससे लोगों का विश्वास हिल जाता है।
यह अच्छी बात है कि रिपब्लिक टी.वी.के स्टिंग आपरेशन को पटना हाई कोर्ट ने गंभीरता से लिया है।उम्मीद है कि हाई कोर्ट विश्वास बहाली का काम करेगा।
  यह किसी न्यूज चैनल और उसके संवाददाता की सफलता है।
 ऐसी रिर्पोंटिंग के लिए जितनी कुशलता और हिम्मत की जरूरत है,वह सब इस चैनल और उसके संवाददाता में मौजूद है।यह लोकतंत्र के लिए अच्छी बात है।
लोकतंत्र की सफलता इसी में है कि उसके चारों प्रमुख स्तम्भ ईमानदारी से काम करते रहें।


बुधवार, 15 नवंबर 2017

संयोग से मैंने आज सुबह इ टी नाउ चैनल लगा दिया।
उस पर न्यायपालिका पर गंभीर चर्चा चल रही थी।
मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि अतिथियों में कोई
 व्यक्ति अपनी बारी से पहले नहीं बोल रहा था।
विभिन्न  चैनलों पर इन दिनों जारी  टाॅक शो के भारी शोर गुल, हंगामे और अशालीन शब्दों के प्रयोग के कारण उत्पन्न भीषण गर्मी के बीच  इ टी नाउ पर  आज की चर्चा ठंडीे हवा के झोंके की तरह थी।
   अन्य चैनलों को भी चाहिए कि जहां तक संभव हो सके वे शालीन स्वभाव के वैसे अतिथियों को ही बुलाएं जिनकी आदत बारी से पहले बोलने की ना हो।यदि कोई बोलते हैं तो उनकी आवाज बंद कर दी जानी चाहिए।
इससे होगा यह कि श्रोतागण  बातें सुन और समझ सकेंगे ।उनके समय का सदुपयोग होगा।चैनलों और एंकरों की साख बढ़ेगी।
 चैनलों पर आने वाले कुछ खास नेता तथा अन्य पेशे के कुछ ऐसे लोग हैं जो अपनी उदंडता के लिए कुख्यात हैं।वे न तो शालीनता का ध्यान रखते हैं और न ही एंकरों की बात मानते हैं।यह भी नहीं सोचते कि उनकी बात  कोई सुन या समझ पा रहा है भी या नहीं ।
पता नहीं, कुछ एंकर भी ऐसे शोरगुल की अनुमति क्यों देते हैं ! जहां भी मैं किसी चैनल पर ऐसे उदंड वक्ताओं-प्रवक्ताओं  को देखता हूं, तुरंत चैनल बदल देता हूं।
 वैसे भी शोरगुल और हंगामे के कारण ऐसी टी वी चर्चाओं में मेरी रूचि कम होती जा रही है।
आप कहेंगे कि इ टी नाउ की आज की चर्चा में जितने प्रतिष्ठित व शालीन लोगों को बुलाया गया था,उतनी संख्या में  प्रतिष्ठित व शालीन लोग राजनीतिक चर्चाओं के लिए  उपलब्ध ही नहीं हैं।पर मेरी समझ है कि चैनल वाले यदि खोजेंगे तो मिल सकते हैं।राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं में से भी कुछ शालीन हैं तो कुछ अन्य अशालीन।
 हालांकि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जितने अतिथि इन दिनों चैनलों पर आते हैं, वे सब के सब अशालीन ही हैं।उनमें कुछ  शालीन लोग भी हैं।पर उनकी आवाज दब  जाती है।   

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

खुशवंत सिंह चाहते थे कि नेहरू के खिलाफ लिखने वाले मथाई पर सरेआम लगे कोड़े




मशहूर पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह ने कहा था कि जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ लिखने वाले एम.ओ.मथाई को सरेआम कोड़े लगाए जाने चाहिए।
पाकिस्तान  के जिया उल हक जैसा शासक यहां होता तो वह मथाई को चैराहे पर कोड़े लगाने के लिए यहां भी कानून बनाता।
 पर, अपने खिलाफ लिखने वालों के साथ  खुद प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू का ऐसा सलूक नहीं था।वे कैसा  सलूक  
करते थे,उसका नूमना दिल्ली का एक बड़ा अखबार समूह था।
  प्रधान मंत्री नेहरू ने उस अंग्रेजी दैनिक अखबार और उस ग्रूप की साप्ताहिक पत्रिका का प्रवेश तीन मूत्र्ति भवन में बंद करवा दिया था।बस इतना ही।कोई दूसरी दंडात्मक कार्रवाई नहीं।तब प्रधान मंत्री तीन मूत्र्ति भवन में रहते थे।
  एम.ओ.मथाई प्रधान मंत्री नेहरू के 13 साल तक निजी सचिव रहे।
मथाई ने  नेहरू के सार्वजनिक जीवन और निजी जीवन के बारे में सत्तर के दशक में कई जानी-अनजानी बातें लिखीं।
 दो खंडों में लिखी गयी संस्मरणात्मक पुस्तकों को तब इंदिरा गांधी ने भी पढ़ी थी।
उन्होंने तो मथाई पर कोई कार्रवाई नहीं की किंतु  मीडिया और राजनीतिक हलकों में उस पर काफी चर्चाएं हुईं।तीखी प्रतिक्रियाएं भी हुईं।
उन पुस्तकों में जहां अधिकतर मामलों में नेहरू की तारीफ की गयी है,वहीं कुछ बातें  उनके खिलाफ भी जाती हैं।
इन पुस्तकों को पढ़ने पर  कई लोगों की यह धारणा बनी  कि किसी नेता के निजी सचिव को अपने बाॅस के बारे में ऐसी बातें ंंनहीं लिखनी चाहिए।यदि लिखता है तो उसे नमक हराम ही माना जाएगा।
कुछ लोगों ने मथाई को सरेआम नमक हराम  कहा। मथाई ने इस पर यह सफाई दी कि ‘सच कहा जाए तो नेहरू जी भी मेरे उतने ही आभारी थे जितना मैं उनका।’
  मथाई की नेहरू के बारे में कुल मिलाकर कैसी राय थी,उसे मथाई की सिर्फ एक टिप्पणी से समझा जा सकता है।
एक बार जार्ज फर्नांडिस ने नेहरू के खिलाफ एक कड़ा बयान दिया था।उस पर मथाई ने कहा कि नेहरू एक महान नेता थे।
जार्ज फर्नांडिस नेहरू के जूते का फीता बांधने की भी औकात नहीं रखते ।’
  लोहियावादी समाजवादियों की एक विचार पत्रिका ‘सामयिक वात्र्ता’ ने मथाई की पुस्तकोंे के बारे में अपने 1979 के  जुलाई अंक में लिखा कि ‘पुस्तक में इंदिरा गांधी और उनके बेटों के बारे में ऐसी चर्चाएं हैं जिसे हमारे भद्र समाज के लोग अच्छा नहीं मानते हैं।अपनी दोनों पुस्तकों से मथाई ने अपने को निश्चय ही छिछला व्यक्ति साबित कर दिया है।पर दोनों पुस्तकें उन लोगों के छिछलेपन को भी प्रकट करती है जिन्हें हम संभ्रांत ,सुरूचिसंपन्न और बहुत कुछ समझते हैं।
और इसी अर्थ में मथाई के छिछलेपन के बावजूद उनकी पुस्तकों का अर्थ गंभीर हो जाता है।’
 मथाई की एक पुस्तक का नाम है -नेहरू युग,जानी-अनजानी बातेंें।दूसरी पुस्तक का नाम है-नेहरू के साथ तेरह वर्ष।हिंदी में उन्हें वाणी प्रकाशन ने छापा था।पर अब वे पुस्तकें शायद आउट आॅफ प्रिंट हो गयी हंै।
 कुछ बातों और विवादों को नजरअंदाज कर दें तो इन दो पुस्तकों को पढ़ने से यह लग जाता है कि आजादी के बाद के हमारे शासकों ने देश के साथ कितना अच्छा और कितना बुरा किया।
दरअसल मथाई तेरह साल तक केंद्र की सत्ता के जितना करीब थे,उतना अन्य कोई नहीं था।इसीलिए कुल मिलाकर मथाई की किताबों का कोई जोड़ नहीं है।
   किसी एक लेखक की पुस्तक से किसी शीर्ष नेता की पूरी अच्छाइयों और सारी कमियों का एक साथ पता चल जाए,ऐसा बहुत कम होता है।पर मथाई ने यह काम कर दिया है।
 मथाई की पुस्तक के महत्व का इस बात से भी पता चलता है कि  यू.पी.एस.सी.की तैयारी कराने वाली एक नामी संस्था ने अनिवार्य रूप से पढ़ी जाने वाली पुस्तकों की सूची में मथाई की पुस्तकों को भी उन दिनों शामिल किया था।
मेरी भी यह राय रही है कि आजादी के तत्काल बाद के भारत की दशा-दिशा किसी को जाननी हो तो उसे मथाई की पुस्तकें पढऩी  चाहिए ।और, आजादी के शुरूआती वर्षों के  बिहार के हुक्मरानों  को बाहर -भीतर से जानना हो तो अय्यर कमीशन की रपट पढ़ी जानी चाहिए।@लाइवबिहार.लाइव में 14 नवंबर 2017 को प्रकाशित मेरे काॅलम भूले-बिसरे से@

   
  
  


  

दुनिया के अनेक देशों के नागरिकों के लिए अनिवार्य 
सैनिक सेवा या ट्रेनिंग का कानूनी प्रावधान है।
ब्रिटेन के राज कुमार भी युद्ध भूमि में सैनिक बन कर जा चुके हैं।
  ऐसे देशों में भी नागरिकों के लिए भी सैनिक प्रशिक्षण व सीमित अवधि के लिए सेवा का प्रावधान है जिन देशों पर युद्ध का खतरा नहीं रहता है।
पर हमारे देश में न सिर्फ बाहरी बल्कि ‘घोषित -अघोषित आंतरिक युद्ध’ भी होते रहते हैं।फिर भी यहां ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
 इस देश के भीतर ही इस देश के खिलाफ सक्रिय लोगों की ताकतवर जमात सक्रिय है।वे ऐसा नहीं होने देंगे।
 यहां के राजनीतिक नेताओं के परिजन तो शायद ही सैनिक सेवा में जाते हैं।
  ऐसे में कुछ अच्छे नेताओं को ही इस दिशा में पहल करनी होगी।
देश से ममता रखने वाले जो राजनीतिक दल हैं,वे इस दिशा में एक महत्वपूर्ण काम कर सकते हैं।
वे संसद और विधान सभाआंे के 10 प्रतिशत सीटें ऐसे उम्मीदवारों के लिए रिजर्व कर दें जिनके पुत्र सेना में हैं।फिर देखिए कितना फर्क पड़ता है।
    


शालीन हंसी और चुटीले व्यंग्यों से संसद को जीवंत बनाये रखते थे पीलू




बात उस समय की है जब पीलू मोदी भारतीय लोक दल में थे।संभवतः वे दल के राष्ट्रीय महा सचिव थे।उसके नेता चैधरी चरण सिंह थे और बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर भी उसी दल में थे।
 पीलू मोदी पटना आए थे।भालोद के राज्य कार्यालय में मोदी एक आराम कुर्सी पर बैठे थे।
  बगल की एक कुर्सी पर बैठकर कर्पूरी ठाकुर उनसे बातचीत कर रहे थे।
  कर्पूरी जी ने कहा कि ‘मोदी साहब, यदि आप बिहार पार्टी के लिए एक हेलिकाॅप्टर का प्रबंध कर दें तो हम विधान सभा की आधी सीटें जीत जाएंगे।’
  इस पर बिना देर किए मोदी ने कहा कि ‘दो का प्रबंध कर देता हूं।पूरी सीटें जीत जाओ।अरे भई, चुनाव हेलिकाॅप्टर से नहीं जीते जाते।’
  हंसी में बात आई -गई हो गयी।
देर तक पास में बैठ कर मैं उन दोनों दिग्गजों की बातें सुनता रहा था।
उस संवाद के जरिए  मुझ पर पीलू मोदी ने एक छाप छोड़ दी।
 उनके बारे में अधिक जानने की कोशिश करने लगा।जाना भी। उनके साथ सबसे बड़ी बात यह थी कि वे सदाबहार व्यक्तित्व के धनी थे।
उनके समकालीन पत्रकार शरद द्विवेदी ने उनके बारे में लिखा है कि ‘पीलू मोदी की भाषण कला,अंग्रेजी भाषा पर अद्वितीय अधिकार, वाक् पटुता और सुलझे हुए विचार सभी को आकर्षित करते थे।कटाक्ष करने में वह माहिर थे।उनके कटाक्ष और हाजिरजवाबी सुनने वालों को हंसा देते थे।जिसकी भाषा ऐसी होती थी कि कटाक्ष के शिकार भी उनका आनंद लेते थे।
लेकिन कभी किसी के लिए बुरी भावना उनके मन में नहीं थी।
पत्रकार सी.एस.पंडित के अनुसार ‘ उस घटना को शायद ही कोई भूल सकता है जब एक दिन संसद के केंद्रीय हाल में पीलू मोदी अपने गले में एक पट्टा पहन कर आए जिस पर लिखा था ‘ मैं सी.आई.ए.का एजेंट हूं।’ यह उस आलोचना का जवाब था जो संसद में कुछ दिन पहले सत्तारूढ़ दल की ओर से की गयी थी।
  पीलू मोदी, सर होमी मोदी के पुत्र थे जो संयुक्त प्रांत के गवर्नर रह चुके थे।
पीलू मोदी के भाई रूसी मोदी टिस्को के चेयरमैन थे।
पीलू ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में वास्तु शिल्प की पढ़ाई की थी।
वहां पीलू मोदी जुल्फिकार अली भुट्टो के रूम मेट थे।
पीलू की एक चर्चित किताब है ‘जुुल्फी माई फं्रेंड।’ वह 1973 में लिखी गयी।
  14 नवंबर 1926 को जन्मे पीलू मोदी का 29 जनवरी 1983 को निधन हो गया।तब वे राज्य सभा के सदस्य थे।
उससे पहले पीलू मोदी 1967 और 1971 में गोधरा से लोक सभा के लिए चुने गए थे।पर वे 1977 में हार गए थे।
1960 में स्थापित स्वतंत्र पार्टी के संस्थापकों में एक पीलू मोदी राज गोपालाचारी के करीबी थे।
  कम ही लोग जानते हैं कि दिल्ली के ओबराय होटल की वास्तु रचना पीलू मोदी ने ही की थी।
 पर वे देश में जिस नयी राजनीति की रचना करना चाहते थे,वह काम वे पूरा नहीं कर सके।
 वे कहा करते थे कि इस देश के 50 हजार बदमाश विभिन्न तरह की ताकत की कुर्सियों पर बैठ कर अपनी स्वार्थ सिद्धि कर रहे हैं।
उनको सबक सिखाने  के लिए हम 5 लाख युवक -युवतियों की फौज बनाना चाहते हैं।
इस सिलसिलमें वे करीब डेढ़ लाख नाम एकत्र भी कर चुके थे।पर इस बीच उनका निधन हो गया।
  यानी सदाबहार व्यक्तित्व के स्वामी पीलू लोगों को हंसाने के अलावा गंभीर काम में भी लगे रहते थे।वे एक पत्रिका भी निकालते थे। 
 वे बाहर -भीतर से एक थे।
एक बार उन्हें जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का
प्रयास कुछ लोगों ने किया था।पर उस राह में शराब बाधक बन गयी।जनता पार्टी से जुड़े किसी बड़े गांधीवादी नेता ने मोदी से पूछवाया कि क्या आप शराब भी पीते हैं ? पीलू ने बिना देर किए कह दिया हां, अवश्य पीता हंू, ।इसी आधार पर उनका नाम कट गया।पर उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं थी।
 इस संबंध में पीलू के एक समकालीन सांसद ने लिखा है कि हम सब जानते हैं कि पीलू का पीना महीने में एकाध बार ही होता है।फिर भी पीलू ने कह दिया था कि ‘मैं जो खाउं, जो पीउ, वह मेरा अधिकार है।इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं मानूंगा।’
 चैथी लोक सभा में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के डा.राम मनोहर लोहिया ने लोक सभा में एक निजी विधेयक पेश किया था।लोहिया का प्रस्ताव था कि किसी भी व्यक्ति का खर्च प्रति माह 15 सौ रुपए से अधिक नहीं होना चाहिए।
स्वतंत्र पार्टी के एक सांसद ने उस विधेयक का सदन में मजाक उड़ाया।
सांसद का कहना था कि लोहिया का मजाक उड़ाने का निदेश उनकी पार्टी ने दिया था।
 पर पीलू मोदी ने इसे लोहिया का अपमान माना।उस संासद को लेकर पीलू लोहिया के आवास पर गए।
सांसद ने लोहिया के सामने अपने किए पर अफसोस प्रकट किया।
लोहिया ने उस सांसद से कहा कि  ‘तुमने तो यह  असंभव मांग कर दी कि मैं लोगों की मनोवृत्ति बदलूं। अरे भई, मैं संन्यासी तो हूं नहीं।राजनीति का खिलाड़ी हूं।’   
 @ मेरा यह लेख 14 नवंबर, 2017 के फस्र्टपोस्ट हिंदी में प्रकाशित@ 


   

चीन युद्ध के बाद अगर नेहरू लंबी जिंदगी जीते तो बदल जाती भारत की विदेश नीति




    चीन और सोवियत संघ से झटके खाने के बाद यदि प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू कुछ अधिक दिनों तक जीवित रहते तो वे संभवतः भारत की विदेश नीति को पूरी तरह बदल देते।
  उसका असर घरेलू नीतियों पर भी पड़ सकता था।
 चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय के दिनों के कुछ दस्तावेजों से यह साफ है कि नेहरू के साथ न सिर्फ चीन ने धोखा किया बल्कि सोवियत संघ ने भी मित्रवत व्यवहार नहीं किया।
 याद रहे कि जवाहर लाल नेहरू उन थोड़े से उदार नेताओं में शामिल थे जो समय -समय पर अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते रहे।
 कांग्रेस पार्टी के भीतर भी कई बार वे अपने सहकर्मियों की राय के सामने झुके।
1950 में नेहरू ने पहले तो राज गोपालाचारी  को राष्ट्रपति बनाने की जिद की, पर जब उन्होंने देखा कि उनके नाम पर पार्टी के भीतर आम सहमति नहीं बन रही है तो नेहरू बेमन से राजेंद्र बाबू के नाम पर राजी हो गए।ऐसा कुछ अन्य अवसरों पर भी हुआ था।
उन्होंने समाजवादी व प्रगतिशील देश होने के कारण चीन और सोवियत संघ पर पहले तो पूरा भरोसा किया,पर जब उन लोगों ने धोखा दिया तो नेहरू टूट गए।उन्होंने अपनी पुरानी लाइन के खिलाफ जाकर अमेरिका की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया।
अमेरिका के भय से ही तब चीन ने हमला बंद कर दिया था।
  यह आम धारणा है कि 1962 में सोवियत संघ ने कहा कि ‘दोस्त भारत’ और ‘भाई चीन’ के बीच के युद्ध में हम हस्तक्षेप नहीं करंेगे।
 पर  मशहूर राजनीतिक टिप्पणीकार व कई पुस्तकों के लेखक ए.जी.नूरानी ने 8 मार्च , 1987 के  साप्ताहिक पत्रिका  इलेस्ट्रेटेड वीकली आॅफ इंडिया में एक लंबा लेख लिख कर यह साबित कर दिया कि सोवियत संघ की सहमति के बाद ही चीन ने 1962 में भारत पर चढ़ाई की थी।
 उस लेख में नूरानी ने सोवियत अखबार ‘प्रावदा’ और चीनी अखबार पीपुल्स डेली में 1962 में छपे संपादकीय को सबूत के रूप में पेश किया है।
  उससे पहले खुद तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू वास्तविकता से परिचित हो चुके थे।
 इसीलिए उन्होंने अमेरिका के साथ के अपने ठंडे रिश्ते को भुलाकर 
राष्ट्रपति जाॅन एफ.कैनेडी को मदद के लिए कई त्राहिमाम संदेश भेजे।
  उससे कुछ समय पहले कैनेडी से नेहरू की एक मुलाकात के बारे में खुद कैनेडी ने एक बार कहा था कि ‘नेहरू का व्यवहार काफी ठंडा रहा।’
 चीन ने 20 अक्तूबर, 1962 को भारत पर हमला किया था।
चूंकि हमारी सैन्य तैयारी लचर थी।हम ‘पंचशील’ के मोहजाल में जो फंसे थे ! नतीजतन चीन हमारी जमीन पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रहा था।
 उन दिनों बी.के.नेहरू अमेरिका में भारत के राजदूत थे।
नेहरू का कैनेडी के नाम त्राहिमाम संदेश इतना दयनीय और समर्पणकारी था कि नेहरू के रिश्तेदार बी.क.े नेहरू कुछ क्षणों के लिए इस दुविधा में पड़ गए कि इस पत्र को व्हाइट हाउस तक पहुंचाया जाए या नहीं।पर खुद को सरकारी सेवक मान कर उन्होंने वह काम बेमन से कर दिया।दरअसल उस पत्र में अपनाया गया रुख उससे ठीक पहले के नेहरू के अमेरिका के प्रति विचारों से  विपरीत था।
 लगा कि इस पत्र के साथ नेहरू अपनी गलत विदेश नीति और घरेलू नीतियों को बदल देने की भूमिका तैयार कर रहे थे।
  शायद नयी पीढ़ी को मालूम न हो, इस देश की कम्युनिस्ट पार्टी  इस सवाल पर दो हिस्सों  में बंट गयी ।
एक गुट मानता था कि भारत ने ही चीन पर चढ़ाई की थी।
 याद रहे कि नेहरू ने 19 नवंबर, 1962 को कैनेडी को लिखा था कि ‘न सिर्फ हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए बल्कि इस देश के अस्तित्व की रक्षा के लिए भी चीन से हारता हुआ युद्ध लड़ रहे हैं।इसमें आपकी तत्काल सैन्य मदद की हमें सख्त जरूरत है।’
भारी तनाव, चिंता और डरावनी स्थिति के बीच उस दिन नेहरू ने अमेरिका को दो -दो चिट्ठियां लिख दीं।
इन चिट्ठियों को पहले गुप्त रखा गया था ताकि नेहरू की दयनीयता देश के सामने न आए।
पर चीनी हमले की 48 वीं वर्षगाठ पर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने उन चिट्ठियों को छाप दिया।
  याद रहे कि आजादी के बाद भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाने की घोषणा की थी।
पर वास्तव में कांग्रेस सरकारों का झुकाव सोवियत लाॅबी की ओर
था।
यदि नेहरू 1962 के बाद कुछ साल और जीवित रहते तो अपनी इस असंतुलित विदेश नीति को बदल कर रख देते।
पर एक संवदेनशील प्रधान मंत्री, जो देश के लोगों का ‘हृदय सम्राट’ था, 1962 के  धोखे के बाद भीतर से टूट चुका  था।इसलिए वह युद्ध के बाद सिर्फ 18 माह ही जीवित रहे।
  चीन युद्ध में पराजय से हमें यह शिक्षा मिली कि किसी भी देश के लिए राष्ट्रहित और सीमाओं की रक्षा का दायित्व सर्वोपरि होना चाहिए।भारत सहित विभिन्न देशों की जनता भी आम तौर इन्हीं कसौटियों पर हमारे हुक्मरानों को कसती रहती है। 
@ फस्र्टपोस्ट हिंदी में 14 नवंबर, 2017 को मेरा यह लेख प्रकाशित हुआ@




    

सोमवार, 13 नवंबर 2017

विदेशी तो लुटेरे थे ही देसी का भी वही हाल !


जदयू के राज्य सभा सांसद और प्रभात खबर के पूर्व 
प्रधान संपादक हरिवंश ने काले धन को लेकर ‘प्रभात खबर’ में दो हिस्सों में सरल भाषा में महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं।
 उसकी कुछ ही लाइनें यहां उधृत कर रहा हूं।
‘नोटबंदी के बाद जिन तीन लाख संदिग्ध कंपनियों के बारे में  पता चला था,जिनके  माध्यम से काले धन की लेनदेन की आशंका है, उनमें से दो लाख 20 हजार कंपनियों का रजिस्ट्रेशन रद किया जा चुका है।’
     ‘.......हमारे देश में एक कंपनी भी बंद करो  तो काले झंडों के जुलूस निकलते हैं।दो लाख से अधिक कंपनियां बंद की गयी।पर कोई समाचार नहीं आ रहा है।’
  ‘......शेल कंपनियों द्वारा निर्यात का फर्जी बिल बना कर विदेशों से भारत में पैसे लाए जाते हैं।ऐसी कंपनियां बनाने वालों में बड़े राज नेता और बड़े कारोबारी शामिल हैं।’
   कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आजादी के बाद से ही  हमारे अधिकतर हुक्मरानों ने इस देश को चारों -डकैतों के लिए अच्छा -खासा चारागाह बना कर रख दिया।
1985 में राजीव गांधी ने यूं ही नहीं , सौ पैसों में से 85 पैसे बीच में गायब कर दिए जाने की  बात नहीं उठाई थी।
  शेल कंपनियां ऐसी डकैती की बहुत बड़ी साधन रही है।इसकी गंभीरता का पता देश में कम ही लोगों को रहा है।
ऐसी सूचनाएं आम जनता की भाषा में देकर हरिवंश ने देश का कल्याण किया है।
  पर दूसरी ओर इसी तरह की भयंकर लूट
की खबर इन दिनों इंडियन एक्सप्रेस दे रहा है।उस पैराडाइज पेपर्स मामले की जांच इस देश की बहु एजेंसी समूह करेगा।
पैराडाइज के दस्तावेज के मुताबिक 714 भारतीय व्यक्तियों और इकाइयों ने भारत सरकार को  बताए बिना विदेश में निवेश किया है।
  अंग्रेजी नहीं जानने वाली जनता उन खबरों को विस्तार से नहीं जान-समझ  पा रही है।
प्रभाष जोशी आज होते तो  संभवतः वे जनहित में उसे पूरा का पूरा अनुवाद करा कर जनसत्ता में भी छापते।
यदि एक्सप्रेस को एतराज होता तो जनसत्ता में  एक दिन बाद ही छपता।एक दिन देर से ही सही, पर देश की अधिकतर आबादी यह जान तो पाती कि आजादी के बाद भी हमारे देश के साथ क्या-क्या होता रहा है।आजादी के पहले इस सोने की चिडि़या को जम कर लूटा ही गया था।
   
  




नटवर लाल ः इसके जैसा ना कोई था,ना होगा


      
आज के ‘नटवर लालों’ से चाहे जो भी समानता  हो ,पर 
आज का कोई ‘नटवर लाल’ 84 साल की उम्र में हथियारबंद संतरियों को धोखा देकर तो फरार नहीं ही हो सकता !
 इस मामले में मिथिलेश कुमार श्रीवास्तव उर्फ नटवर लाल 
को ‘न भूतो न भविष्यति’ ही माना जा सकता है।
25 जून 1996 की बात है।दिल्ली रेलवे स्टेशन पर नटवर लाल कान पुर जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहा था।डाक्टरी जांच के लिए उसे कान पुर जेल से दिल्ली लाया  गया था।
उसके साथ दो संतरी और एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे।
लाचार नटवर लाल को बेंच पर लिटाकर चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी व्हील चेयर  लौटाने चला गया। एक संतरी टिकट का प्रबंध करने गया।बचे संतरी को नटवरलाल ने चाय के लिए भेज दिया।
पर जब वह चाय लेकर लौटा तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी।
  नटवर लाल तो फरार हो चुका था।
वह पहले भी कई बार फरार हो चुका था, पर इस फरारी के बाद वह पुलिस के हाथ कभी नहीं आया।
 जब नटवर लाल के एक करीबी रिश्तेदार के घर श्राद्ध हुआ तो मान लिया गया कि मिथिलेश श्रीवास्तव अब दुनिया में नहीं हैं।
 एक बार नटवर लाल ने कहा था कि जीरादेई ने दो राष्ट्रीय पुरूषों को जन्म दिया।
--डा.राजेंद्र प्रसाद और मुझे।वे राष्ट्रपति बने और मैं चतुर कलाकार !
पर लोग मुझे कलाकारी को ठगी का नाम देते हैं।
याद रहे कि जीरादेई बिहार के अविभाजित सारण जिले में है।
अब वह सिवान जिले में है।हालांकि यह संयोग ही है कि उसी जीरादेई विधान सभा क्षेत्र से  राजद नेता और चर्चित मो.शहाबुद्दीन पहली बार विधायक बने थे।अब वे तिहाड़ जेल में हैं।
 ‘दुनिया का कोई जेल गब्बर सिंह को अधिक दिनों तक बंद नहीं रख सकता।’ शोले में गब्बर सिंह ने तो यह डायलाॅग बाद में बोला ।किंतु नटवर लाल तो उससे पहले यह कहा करता था कि कोई भी जेल मुझे एक साल से अधिक समय तक नहीं रख सकता।वह आठ या नौ बार फरार हो चुका  था।
पहली बार 1957 में वह लखनउ जेल से और दूसरी बार 1963 में आंध्र प्रदेश के जेल से फरार हुआ था।
अपने पूरे ‘नटवरी जीवन’ में वह करीब 400 लोगों को ठगा था।उसने लगभग 3 करेाड़ रुपए की ठगी की।
विभिन्न राज्यों की अदालतों ने उसे कुल मिलाकर करीब 150
साल की सजा दी थी।
 वह कहा करता था कि मैंने कभी गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों को नहीं ठगा।बड़े लोगों को ठगा और गरीबों के साथ मिल बांट कर खाया।
उसने दो तीन लोगों से अधिक  कभी अपने गिरोह में शामिल नहीं किया।
 एक बार वह नई दिल्ली के एक आभूषण बिक्रेता के यहां गया और खुद को नारायण दत्त तिवारी काव निजी सहायक बताया।
उसने दुकानदार का विश्वास जीत लिया और एक लाख 60 हजार रुपए के जेवर लेकर फरार हो गया।
 रेलवे में राजस्व कलक्टर रघुनाथ प्रसाद श्रीवास्तव को बेटा 
नटवर लाल पढ़ा लिखा था।अंग्रेजी बोलता था और किसी के हस्ताक्षर की हू ब बहू नकल कर लेता था।
पचास-साठ के दशकों में बिहार के गांवों में यह चर्चा थी कि नटवर लाल ने केंद्र सरकार
से कह रखा है  कि यदि वह अनुमति दे तो वह भारत सरकार का सारा कर्ज भुगतान करवा देगा।
उसे लगता था कि वह किसी भी कर्जदार देश के संबंधित अधिकारी के हस्ताक्षर की नकल करके  यह काम कर सकता है।
 वह फर्जी बिल्टियों द्वारा रेलवे से माल छुड़वा कर बेचता था।
चूंकि उसके पिता रेलव में थे,इसलिए वह वहां के काम का जानकार हो गया था।
उसने ठगी की शुरूआत वाराणसी से की थी।
वह एक सेठ के यहां उसके बच्चे को ट्यूशन पढ़ाने के लिए रखा गया था।
चर्चा है कि नटवर लाल ने अपनी बीमार बेटी के इलाज के लिए सेठ जी से एडवांस मांगा।नहीं मिला।बेटी मर गयी।उसने अमीरों को लूटने का मन बना लिया।
 1980 की बात है।लखनउ की एक अदालत ने उसे पांच साल की सजा दी थी।
सजा सुनाने के बाद जज साहब ने नटवर लाल से पूछा कि तुम यह सब कैसे करते हो ?
नटवर ने कहा कि ‘आप हुजूर, एक रुपए का नोट अपनी जेब  से निकाल कर देंगे ?’
जज साहब ने नोट उसकी तरफ बढ़ा दिया।
नटवर ने उस नोट को अपनी जेब में रखा और मुस्कराते हुए कहा कि ‘ठीक इसी तरह !’
जज साहब देखते रह गए और नटवर सिपाहियों के साथ कोर्ट रूम से बाहर निकल गया।
 नटवर लाल के बारे में एक  दिलचस्प किस्सा है।
उन दिनों भी वह एक  जेल में था।उसकी पत्नी  उसे अक्सर पत्र लिखती थी।चिट्ठियांे में कोई न कोई शिकयत रहती थी।पत्र सेंसर होकर नटवर लाल को मिलता था।एक दिन जेलर ने पूछा कि तुम जवाब क्यों नहीं देते ?अपनी पत्नी को नटवर ने जवाब में लिखा कि तुम परेशान मत हो।खेत के बीच में जहां मेड़ बनी है,मैंने वहां कुछ सोना गाड़ रखा है।एक हाथ मिट्ठी खोदने पर तुम्हंे एक पोटली मिलेगी।सारा सोना मत बेचना।जेल से छूटते ही मैं तुमसे मिलूंगा।
उधर खेत में सोना गड़े होने की खबर सुनकर पुलिस का एक दस्ता उसके गांव रवाना हो गया।जेल पुलिस ने चिट्ठी नहीं भेजी।पुलिस ने खुद जाकर सोने की तलाश में सारी जमीन की जुतवाई-खुदाई करवा दी।
 न कुछ मिलना था और न मिला।कुछ महीने बाद नटवर की पत्नी जेल में मिलने आई और उसने जेलर को यह कहते हुए धन्यवाद दिया कि मेरे खेत काफी दिनों ंसे खाली पड़े थे ,कोई जोतने वाला नहीं था।
आपकी मेहरबानी से इस बार अच्छी फसल हुई है। 
--सुरेंद्र किशोर।
@ 13 नवंबर, 2017 को फस्र्टपोस्ट हिंदी में प्रकाशित@     
   

  

रविवार, 12 नवंबर 2017

अवैध निर्माण में मददगार अफसरों को कब मिलेगी सजा !



पटना हाई कोर्ट के आदेश से फुलवारी शरीफ के अपार्टमेंट के 
अवैध हिस्से को तोड़ने क़ा काम शुरू हो गया है।
 कहीं भी कोई ताजा निर्माण टूटते हुए देखना अच्छा नहीं लगता।
टूटने से एक साथ कई लोगों का नुकसान जो हो जाता है !
पर यदि निर्माण अवैध है तो उसे टूटना ही चाहिए।
 कानून के शासन वाले राज्य में यह जरूरी है। 
पर, आखिर ऐसी स्थिति आती ही क्यों  है ? दरअसल बिल्डरों के लोभ और खरीदारों की लापारवाही का यह नतीजा है।
   पर क्या सिर्फ वही लोग दोषी हैं ?
ऐसे अवैध निर्माण पूरे बिहार कौन कहे ,पूरे देश में जहां -तहां होते रहते हैं।अदालतें आदेश देकर उन्हें कहीं -कहीं तुड़वाती भी रहती हैं।
मध्य पटना के बंदर बगीचा मुहल्ले में हाल में एक आलीशान अपार्टमेंट के अवैध हिस्से टूटे।
 यह अच्छी बात है कि उस मामले में दोषी बिल्डरों को सुप्रीम कोर्ट ने भी राहत नहीं दी।
 पर नगर निगम, नगर परिषद और पी.आर.डी.ए. तथा इस तरह के अन्य निकाय  के संबंधित अधिकारियों की ऐसे मामलों में कैसी भूमिका रहती है ?
जाहिर है कि वे आम तौर पर अवैध निर्माणकत्र्ताओं से मिले हुए होते हैं।कारण सबको मालूम है।सारे अवैध निर्माणों की तरफ अदालतों की नजरंे जा भी नहीं सकतीं।
 अब सवाल है कि किसी अपार्टमेंट के बन जाने के बाद नगर निकाय के संबंधित अफसर बिल्डर्स को अकुपेंसी सर्टिफिकेट यानी भोगाधिकार देते भी हैं क्या ?
क्या वे उससे पहले यह सुनिश्चित कर लेते  हैं कि निर्माण कार्य पास किए गए नक्शे के अनुकूल हुआ या विचलन  है ?
अधिकतर मामलों में  अधिकारी ऐसा नहीं करते।
 फुलवारी शरीफ में जो अपार्टमेंट टूट रहे हैं,उनके बिल्डरों को संबंधित अफसर ने भोगाधिकार प्रमाण पत्र दिया था ?
क्या नगर निकाय के अफसरों की यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि निर्माण कार्य जारी रहते समय ही वे स्थल निरीक्षण करें ?
 यदि वे अपने कत्र्तव्य का पालन नहीं करते तो क्या उनके लिए  सजा की सुनिश्चित व्यवस्था  है ? यदि नहीं है तो वैसा प्रावधान किया जाएगा ?
दरअसल ऐसे मामलों में जब तक सभी संबंधित पक्षों को सबक सिखाने लायक सजा नहीं मिलेगी, तब तक अवैध निर्माण होते रहेंगे और उनमें से कुछ टूटते भी रहेंगे।
सब तो कोर्ट नहीं जा सकते ।इसलिए अपुष्ट खबर यह भी है कि पटना में ही अब भी जितने अपार्टमेंट नक्शे के अनुसार बने हैं,उससे कम विचलन करके नहीं बने हैं।
  एन.एच.निर्माण में विलंब से शादियां रुकीं--
पटना-कोइलवर नेशनल हाईवे के निर्माण का काम कई साल से लटका हुआ है।नतीजतन उस इलाके के किसान अपनी जमीन के
भविष्य को लेकर असमंजस में हैं।यानी उन्हें  यह पता ही नहीं चल रहा है कि उनका कौन सा भूखंड नेशनल हाईवे में जाएगा और कौन नहीं जाएगा।
 आम तौर पर किसानों को अपनी लड़कियों की शादियों के लिए अपनी जमीन बेचनी पड़ती है।
उसके सामने समस्या यह है कि वह कौन जमीन बेचें और कौन न बेचंे।खरीदार भी असमंजस में रहते हैं।
प्रस्तावित नेशनल हाईवे के पास पड़ने वाले फुलवारीशरीफ अंचल के सिर्फ एक गांव में मेरी जानकारी के अनुसार एक दर्जन शादियां कुछ साल से रुकी हुई हैं।क्या सरकार इस मानवीय पक्ष पर विचार करते हुए हाईवे के लिए जमीन के अधिग्रहण के प्रस्ताव को जल्द मंजूरी देगी ? या फिर हाईवे का स्थल बदलना है तो वह काम भी वह जल्द करेगी  ताकि जरूरी शादियां तो शीघ्र संपन्न हो सकंे ?  
डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर योजना कितनी सफल--
 अस्सी के दशक में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने यह स्वीकार किया था कि हम आपके विकास के लिए सौ पैसे निर्धारित  करते हैं तो उसमें से विकास पर वास्तव में 15 पैसे ही लग पाते हैं। यानी 85 पैसे बिचैलियों की जेबों में चले जाते हैं।
मौजूदा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी  ने यह दावा किया है कि डायरेक्ट बेनिफिट टा्रंसफर योजना शुरू करके हमने बिचैलियों के काम तमाम कर दिए हैं।
 काश ! मोदी जी  का यह दावा सही होता।
  इस दावे के विपरीत सुदूर जगहों से मिल रही खबरों के अनुसार अनेक मामलों में सरकारी बैंक  के अधिकारी बिचैलियों के जरिए  अब भी लाभुकों से पहले ही एक खास राशि की उगाही करवा लेते हैं।तभी भुगतान होता है।
क्या यह खबर सही है ? सही है तो कितने प्रतिशत की लूट अब भी हो रही है ?
उस लूट में कौन -कौन लोग शामिल हैं ?
क्या सरकार इस खबर की नमूने के तौर पर खुफिया जांच करवाएगी ?
आरोप सही पाए जाने पर दोषी लोगों को सजा देगी और दिलवाएगी ?
यदि सरकार ऐसा नहीं करेगी तो जिस चुनावी लाभ की कल्पना सत्ताधारी पार्टियां कर रही हैं, वह अनिश्चित हो जाएगा।
लोकल ट्रेन  बढ़ने से घटेगा पटना में प्रदूषण---
पटना के पास गंगा नदी पर रेल सह सड़क पुल बनाने का एक उद्देश्य यह भी रहा है कि इससे पटना पर आबादी का दबाव कुछ घटेगा।यानी पास के जिलों के मूल निवासी अपने ही जिले में अपना घर बनाएंगे और उससे राजधानी पर आबादी का बोझ कम होगा।आबादी का कम बोझ यानी महा नगर में कम प्रदूषण।
 पर इस दिशा में अधूरी कोशिश ही हो रही है।
पटना से छपरा के बीच सिर्फ एक जोड़ी ही पैसेंजर ट्रेन उपलब्ध हैं।
यदि आॅफिस आने -जाने के लिए सिवान और पटना के राजेंद्र नगर के बीच एक जोड़ी और पैसेंजर ट्रेन चलाई जाए तो कुछ कर्मचारी पटना में अपना निजी मकान बनाने के बदले अपने मूल निवास में ही बस सकते हैं।
इन दिनों दिल्ली में गैस चैंबर जैसे हालात हैं।यदि हम प्रदूषण की समस्या के प्रति लापारवाह रहे तो वैसी स्थिति पटना में भी 
आ जाने में देर नहीं लगेगी ।
हाल के वर्षों में मध्य पटना में कई बड़े निर्माण हुए हैं।बुद्ध स्मृति पार्क, कन्वेंशन सेंटर और  बिहार म्युजियम।ये भीड़ बढ़ाने वाले स्थल हैं।अधिक भीड़ यानी अधिक गाडि़यां और अधिक प्रदूषण।इनका निर्माण नगर से बाहर होना चाहिए था।पर, खैर अब तो हो गया।
पर इस तरह का कोई अगला निर्माण मध्य पटना में होगा तो वह इस महा नगर को गैस चैंबर बनाने में ही मददगार ही होगा।  
जाति के नाम पर वोट मांगने पर कितनी कार्रवाइयां !---
जन प्रतिनिधित्व कानून, 1952 की धारा - 123@3@ में यह स्पष्ट प्रावधान  है कि जो उम्मीदवार जाति, समुदाय,धर्म  या भाषा  के नाम पर  वोट मांगेगा,विजयी होने पर उसका चुनाव रद हो जाएगा।
यदि यह काम उम्मीदवार की सहमति से उसका चुनाव  एजेंट या कोई अन्य व्यक्ति भी करता है तो भी उस उम्मीदवार का चुनाव रद हो जाएगा।
  चुनाव आयोग के सूत्र बताते हैं कि ऐसे मामलों में चुनाव के दौरान चुनाव आयोग के प्रतिनिधि जहां -तहां अनेक एफ.आई.आर. तो दर्ज करा देते हैं ,पर चुनाव के बाद स्थानीय पुलिस उस पर कोई कार्रवाई ही नहीं करती।
 आयोग पुलिस को स्मार पत्र देते -देते थक जाता है, फिर भी कुछ नहीं होता।
   कोई सजा नहीं होने के कारण  भावनाएं उभारने वाले उम्मीदवार और उनके लोग फिर अगले चुनाव में भी वही काम करते हैं।
 क्या देश की सरकारें पुलिस से ऐसी प्राथमिकियोें के आंकड़े एकत्र करवा कर सजा दिलाने के लिए कुछ करेंगी ?  
        और अंत में---
  कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ कैसा व्यवहार किया,उसका 
सबसे बड़ा उदाहरण जग जाहिर है ।सरदार साहब को  1991 में ही ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया जा सका।
जबकि, सरदार  पटेल से पहले एम.जी.आर.,कामराज, वी.वी.गिरि,बी.सी.राय , जी.बी.पंत, राज गोपालाचारी और डा.आम्बेडकर को भारत रत्न मिल चुका था। इन लोगों को बारी -बारी से सर्वोच्च सम्मान देते समय नेहरू-इंदिरा-राजीव को  सरदार पटेल याद नहीं रहे ।
  प्राथमिकताएं तो देखिए ! अब इस बात पर शोर गुल क्यों कि सरदार की बड़ी मूत्र्ति कोई और क्यों बनवा रहा है ? पटेल तो हमारे हैं।तुम्हारे होते तो पटेल को नेहरू के साथ ही ‘भारत रत्न’ मिल गया होता।
@ कानोंकान-प्रभात खबर -बिहार -10 नवंबर 2017@

शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

  पटना के पास गंगा नदी पर रेल सह सड़क पुल बनाने का एक उद्देश्य यह भी रहा है कि इससे इस प्रादेशिक राजधानी  पर आबादी का दबाव कुछ घटेगा।यानी, गंगा पार के जिलों के मूल निवासी अपने ही  घर में रह कर पटना रोज आ -जाकर नौकरी कर सकेंगे। उससे पटना  पर आबादी का बोझ कम होगा।आबादी का कम बोझ यानी बनते महा नगर में कम प्रदूषण।
 पर इस दिशा में अभी अधूरी कोशिश ही हो रही है।
पटना से सारण  के बीच सिर्फ एक जोड़ी ही पैसेंजर ट्रेन उपलब्ध है।
यदि आॅफिस आने -जाने के लिए सिवान और पटना के राजेंद्र नगर स्टेशनों के बीच एक जोड़ी पैसेंजर ट्रेन चलाई जाए तो कुछ कर्मचारी पटना में अपना निजी मकान बनाने के बदले अपने मूल निवास में ही बने रह सकते हैं।
इन दिनों दिल्ली में गैस चैंबर जैसे हालात हैं।यदि हम प्रदूषण की समस्या के प्रति लापारवाह रहे तो वैसी स्थिति पटना में
भी आ जाने में देर नहीं लगेगी ।
हाल के वर्षों में मध्य पटना में कई बड़े निर्माण हुए हैं।बुद्ध स्मृति पार्क, कन्वेंशन सेंटर और  बिहार म्युजियम।ये भीड़ बढ़ाने वाले स्थल हैं।अधिक भीड़ यानी अधिक गाडि़यां और अधिक प्रदूषण।इनका निर्माण नगर से बाहर होना चाहिए था।पर, खैर अब तो हो गया।
पर इस तरह का कोई अगला निर्माण मध्य पटना में होगा तो वह इस महा नगर को गैस चैंबर बनाने में ही मददगार होगा।  
@ कानोंकान-प्रभात खबर  से @

राजनीति के अपराधीकरण का इलाज--


   सुप्रीम कोर्ट ने बीते दिनों केंद्र सरकार को सांसदों और विधायकों के खिलाफ जारी आपराधिक मुकदमों की जल्द सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन का
 आदेश  दिया है।
 राजनीति के अपराधीकरण  के खिलाफ सर्वोच्च अदालत की इस पहल को  सराहनीय माना जा रहा है।
 पर  कुछ अन्य महत्वपूर्ण सवाल और मुददे भी इससे जुडे़ हुए  हंै जो दशकों से अनुत्तरित हैं।
क्या गवाहों की सुरक्षा के बिना अत्यंत प्रभावशाली लोगों के खिलाफ जारी किसी मुकदमे को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया जा सकता है ?
 क्या अधिकतर विवेचना अधिकारियों  की मौजूदा लचर कार्य शैली में सुधार के बिना सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य पूरा हो पाएगा ?
 क्या नार्को टेस्ट और ब्रेन मैपिंग पर रोक से संबंधित खुद सुप्रीम कोर्ट के 2010 के आदेश को पलटे बिना सुप्रीम कोर्ट के ताजा  आदेश का सकारात्मक असर हो पाएगा ? 
  इसलिए यह भी उम्मीद की जा रही है कि राजनीतिक तंत्र को दागियों से मुक्त करने के अच्छे उद्देश्य से सुप्रीम कोर्ट की ओर से कुछ अन्य दिशा - निदेश भी आने चाहिए।  
  इस देश की पुलिस, हत्या के मामले में जितने लोगों के खिलाफ अदालतों में आरोप पत्र दाखिल करती हैं,उनमें से सिर्फ 10 प्रतिशत आरोपितों  को ही सजा हो पाती है।बलात्कार के मामले में यह प्रतिशत सिर्फ 12 है।
 अधिकतर मामलों में गवाह अदालत  में जाकर बदल जाते हैं।क्योंकि वे अपार राजनीतिक, प्रशासनिक तथा बाहुबल की  ताकत से लैस आरोपियों ं  के सामने टिक नहीं पाते।वे डर जाते हैं।
  अमेरिका और फिलीपीन्स सहित दुनिया के कई देशों में गवाहों की सुरक्षा के लिए कई कानूनी तथा अन्य उपाय किए गए हैं।अमेरिका में 8500 गवाहों और उनके 9900 परिजनों को 1971 से ही मार्शल सर्विस सुरक्षा दे रही है।
खुद इस देश के सुप्रीम कोर्ट ने पिछले ही साल केंद्र सरकार को निदेश दिया था कि वह गवाहों की सुरक्षा के उपाय करे।
 सन् 1958 में ही इस देश के विधि आयोग ने गवाहों की सुरक्षा के उपाय करने के लिए केंद्र सरकार को सुझाव दिए थे।पर कुछ नहीं हुआ।
  इस तरह की अनेक कमियों के कारण आपराधिक मामलों में पूरे देश में सजा का औसत प्रतिशत सिर्फ 45 है। सन 1953 में यह प्रतिशत 64 था।हां,इस मामले में सी.बी.आई. थोड़ा बेहतर नतीजे जरूर देती है। फिर भी विकसित देशों के मुकाबले यहां की स्थिति दयनीय ही कही जाएगी।अमेरिका में सजा का प्रतिशत 93 है तो जापान में 99 प्रतिशत।
 इस देश में सत्तर के दशक से ही  सजा के  प्रतिशत में गिरावट शुरू हो गयी थी।
यह संयोग नहीं है कि राजनीति के अपराधीकरण का भी वही शुरूआती दौर था।जिन राज्यों में राजनीति का  अपराधीकरण अधिक हुआ है,उन राज्यों में सजा का प्रतिशत भी अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है।
  न सिर्फ गवाह ताकतवर आरोपित के प्रभाव में  आ जाते हैं बल्कि अनेक जांच अधिकारी भी  रिश्वत के प्रभाव  से बच नहीं पाते।
वैसे भी पुलिस में भ्रष्टाचार का क्या हाल है,यह किसी से छिपा नहीं है।
  इसलिए गवाहों की सुरक्षा के साथ-साथ  मुकदमे के अनुसंधान के काम में लगे जांच पदाधिकारियों पर भी नजर रखने का विशेष प्रबंध करना पड़ेगा।बेहतर तो यह होगा कि धनवान लोगों के केस देखने वाले जांच पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते नजर रखें।
 समय सीमा के भीतर सांसदों-विधायकों के खिलाफ चल रहे मुकदमों की सुनवाई पूरी कर लेने के मामले में कोई भी ढील आरोपितों को मदद पहुंचाने के समान ही साबित होती है।
   सजा के बाद पूरे जीवन में फिर कभी चुनाव नहीं लड़ने के प्रावधान का भी सवाल सामने है।दरअसल  वह किए बिना लोकतंत्र को इस गंदगी से मुक्त नहीं किया जा सकता।
 पर इस पर केंद्र सरकार की शुरूआती प्रतिक्रिया से कोई खास उम्मीद नहीं बंधती।क्योंकि आजीवन प्रतिबंध लगाने की लोकहित याचिकाकत्र्ता की मांग पर सरकारी वकील ने गत 1 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि ‘इस पर विचार हो रहा है।’ 
 सरकारी सूत्रों ने अलग से बताया कि इस पर तो राजनीतिक दलों में आम सहमति की जरूरत पड़ेगी।
  समस्या है कि ऐसे मामलों में राजनीतिक दलों में आम तौर से कोई आम सहमति नहीं बन पाती।क्योंकि यह सांसदों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं बढ़ाने का मामला तो है नहीं !
उस पर तो आम सहमति मंे कभी कोई देर नहीं होती।
 इसी आम सहमति के चक्कर में केंद्र की राजग सरकार को 2002 में फजीहत झेलनी पड़ी थी।क्या केंद्र की राजग सरकार मौजूदा मामले में भी उसकी पुनरावृत्ति चाहती है ? पता नहीं।
 याद रहे कि  सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में  सख्त आदेश देकर केंद्र सरकार के उस निर्णय को बदल दिया था जिसके तहत  केंद्र सरकार ने उम्मीदवारों के बारे में निजी सूचनाएं देने की पहले कानूनी मनाही कर दी थी।
   उम्मीदवारों के लिए शैक्षणिक योग्यता,आपराधिक मुकदमे और संपत्ति का व्योरा देना जरूरी  तभी हो सका था जब सुप्रीम कोर्ट ने सन 2002 में  ऐसा करने के लिए केंद्र की राजग  सरकार  को स्पष्ट आदेश दे दिया ।उससे पहले तत्कालीन केंद्र सरकार  इसके लिए कत्तई तैयार ही नहीं थी।तब के एक केंद्रीय मंत्री ने मीडिया को बताया था कि हमारे मामले कई बार आयकर महकमे में लंबित रहते हैं,फिर हम आय व संपत्ति का विवरण सार्वजनिक कैसे कर सकते हैं ?      
 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया था कि जन प्रतिनिधि बनने की इच्छा रखने वालों को महत्वपूर्ण सूचनाएं सार्वजनिक करनी ही होंगी।इन सूचनाओं में शैक्षणिक योग्यता,आपराधिक रिकार्ड और संपत्ति के विवरण शामिल हैं।
   केंद्र सरकार ने तब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को पसंद नहीं किया।अधिकतर  राजनीतिक दल भी नहीं चाहते थे कि ऐसी व्यक्तिगत सूचनाएं जग जाहिर की जाएं।नतीजतन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को बेअसर करने के लिए केंद्र सरकार ने तब राष्ट्रपति से  अध्यादेश जारी करवा दिया।बाद में उसे संसद ने पास करके कानून का भी दर्जा दे दिया।पर सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को रद कर दिया। उसके बाद ही उपर्युक्त सूचनाएं नामांकन पत्र के साथ उम्मीदवार देने को बाध्य हो रहे हैं।
  यानी जिस देश के अधिकतर राजनीतिक दल व नेतागण अपने बारे में ऐसी ‘निर्दोष’ सूचनाएं भी सार्वजनिक करने को तैयार नहीं रहे  हैं,वे अपराधियों को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए रोकने के लिए खुद कोई कानून बनाने को तैयार हो जाएंगे,ऐसा फिलहाल लगता नहीं है।
  याद रहे कि लोकहित याचिका कत्र्ता ‘लोक प्रहरी’ और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट से यह गुहार की है कि सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए वंचित कर दिया जाना चाहिए।क्योंकि सरकारी कर्मचारी या जज को सजा हो जाए तो उन्हें फिर से नौकरी नहीं मिलती।
यह समानता के अधिकार से संबंधित संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ है कि सजा की अवधि पूरी कर लेने के छह साल बाद नेता फिर से चुनाव लड़ने के योग्य माने जाएं।
 उम्मीद है कि 13 दिसंबर को जब इस मामले की अगली सुनवाई होगी तो केंद्र सरकार आजीवन प्रतिबंध के मामले में अपनी अंतिम राय सर्वोच्च न्यायालय को बता पाएगी।
चुनाव आयोग तो ऐसे प्रतिबंध के पहले से ही पक्ष में है।
  उधर खुद सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर भी विचार करना होगा कि 2010 के उसके ही एक निर्णय का आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया पर कैसा असर पड़ रहा है।
  याद रहे कि  सुप्रीम कोर्ट ने मई, 2010 में यह कहा था कि अभियुक्त की सहमति के बिना उसका न तो नार्काे एनालिसिस टेस्ट हो सकता है और न ही ब्रेन मैपिंग।उस पर झूठ बताने वाली मशीन का भी इस्तेमाल नहीं हो सकता।
  अब इस बात पर विचार करने की भी जरूरत है कि इस आदेश के बाद जांच अधिकारियों  को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।याद रहे कि 2010 के बाद जाने -माने कानून तोड़क अक्सर ऐसी जांच से साफ इनकार कर देते हैं।         
@मेरे इस लेख का संपादित अंश 10 नवंबर, 2017 के दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर प्रकाशित@