गुरुवार, 30 मई 2019

‘टुकड़े -टुकड़े गिरोह’

अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि हम दिल्ली में इसलिए हार गए क्योंकि हम जनता को यह नहीं बता सके कि वे हमें क्यों वोट दें।

पर, जनता तो आपको वोट न देने का कारण पहले से अच्छी तरह जानती थी।

एक बड़ा कारण यह भी था कि आपने ‘टुकड़े -टुकड़े गिरोह’ के खिलाफ राजद्रोह के मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति अभियोजन पक्ष को नहीं दी।

बुधवार, 29 मई 2019

सी.पी.एम. : पुनरुद्धार की कोई उम्मीद नहीं ?

पश्चिम बंगाल के एक सी.पी.एम. विधायक आज भाजपा में शामिल हो गए। सी.पी.एम. के कार्यकर्ता और समर्थक तो भाजपा में जा ही रहे थे, अब विधायक भी ?

क्या कभी के महाबली संगठन सी.पी.एम. का पश्चिम बंगाल से तम्बू पूरी तरह उखड़ जाएगा ? पुनरुद्धार की कोई उम्मीद नहीं ?

इसके लिए कौन जिम्मेवार है ?

सी.पी.एम. नेतृत्व ? 

नया जमाना ?

या फिर सांप्रदायिक ताकतें ? 

रविवार, 26 मई 2019

नेहरू देश भर में शौचालय बनवा दें तो मैं उनका समर्थक हो जाऊंगा : डा. लोहिया

नरेंद्र मोदी गांधी, दीनदयाल उपाध्याय और डा. लोहिया का नाम लेते हैं। उन्होंने आज भी लिया। डा. राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि कम्युनिस्टोंं में राष्ट्रवाद की भावना नहीं है तो जनसंघ में गरीबों के प्रति दर्द नहीं है। हमारी पार्टी में दोनों है।

कम्युनिस्ट तो अब भी उस पर कायम हैं, पर लगता है कि भाजपा ने दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय और लोहिया की गरीबपक्षी नीतियों से प्रभावित होकर मोदी सरकार ने गत पांच साल में अंतिम व्यक्ति के लिए कई काम किए हैं।

इस बार के जनादेश सर्जिकल स्ट्राइक के लिए है तो गरीबपक्षी कार्यक्रमों के लिए भी। उनमें बड़े पैमाने पर शौचालय का निर्माण शामिल है।

शौचालय के अभाव में ग्रामीण महिलाओं की पीड़ा की चर्चा करते हुए डा. लोहिया ने एक बार कहा था कि यदि जवाहरलाल नेहरू देश भर में शौचालय बनवा दें तो मैं उनका समर्थक हो जाऊंगा। 

शनिवार, 25 मई 2019

समकालीन इतिहास की भी गहरी समझ का अभाव


एक और राजनीतिक पंडित ने आज लिखा है कि ‘साल 1971 के बाद पहली बार कोई प्रधानमंत्री न सिर्फ अपने दम पर दूसरी बार सत्ता में लौटा है, बल्कि बहुमत में भी इजाफा किया है।’

इस पूरे वाक्य पर ध्यान दें। 

लेखक का आशय यह है कि 1967 में ‘अपने दम’ पर इंदिरा गांधी ने लोकसभा में बहुमत हासिल किया था। क्या यह सच है ? कत्तई नहीं।

1969 के पूर्वाद्ध तक कांग्रेस पार्टी सिर्फ किसी एक नेता पर निर्भर भी नहीं थी। तब तक स्वतंत्रता सेनाननियों की बड़ी जमात का देश के अलग-अलग हिस्सों पर भारी असर था। बिहार में भी आजादी के बाद के कई वर्षों तक श्रीबाबू-अनुग्रह बाबू की जोड़ी की तूती बोलती थी।

एक बार जवाहरलाल नेहरू ने लक्ष्मी नारायण सुधांशु को मुख्यमंत्री बनाना चाहा था। सुधांशु जी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि बिहार की जनता श्रीबाबू और अनुग्रह बाबू के साथ है। मेरे साथ जनता नहीं है। जिसके साथ जनता न हो, उसे मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहिए।

हां, 1969 में कांग्रेस में हुए महाविभाजन के बाद इंदिरा जी जरूर अपने गुट की एकछत्र नेता बन गईं। 1971 के चुनाव के बाद तो यह साफ हो गया कि इंदिरा जी की कांग्रेस ही असली कांग्रेस है। 

1967 में तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वी.के. कृष्ण मेनन को लोकसभा का टिकट तक नहीं दिलवा पाई थीं। जबकि, वे निवर्तमान सांसद थे। उनकी जगह कांग्रेस ने डा. बर्वे को दिया और वे जीते भी। इस तरह के कई अन्य उदाहरण भी हैं।

शुक्रवार, 24 मई 2019

प्रतिपक्ष के लिए चेतावनी और सत्तापक्ष के लिए नई जिम्मेवारी


इस चुनाव नतीजे ने 1977 के लोकसभा चुनाव की याद दिला दी। इमरजेंसी की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में अविभाजित बिहार की सभी 54 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस हार गई थी। इस बार भी बिहार में कमोवेश वैसा ही रिजल्ट आया है। यानी आमजन में इमरजेंसी से थोड़ा ही कम गुस्सा इस बार था। गुस्सा प्रतिपक्ष पर निकला। गुस्सा बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर प्रतिपक्ष के विरोध पर था।

एक ओर काम करने वाली मोदी-नीतीश सरकार तो दूसरी ओर कथित भ्रष्टाचार, वंशवाद व महत्वाकांक्षी नेताओं की अव्यवस्थित भीड़ से जूझ रहा प्रतिपक्ष था। ऐसे में जीतना उसे ही था, जिसकी जीत हुई। पर इस चुनावी संघर्ष में कई व्यक्तिवादी नेताओं की वास्तविक राजनीतिक ताकत का भी पता चल गया।

जातीय व साम्प्रदायिक वोट बैंक की ताकत पर गुमान करने वाले कुछ बिहारी नेताओं को राजग ने औकात बता दी। एक खास संकेत भी मिल रहा है। डबल इंजन की सरकार अगले वर्षों में ऐेसे -ऐसे काम करने वाली है जिससे वोट के ठेकदारों की ताकत और भी कम हो सकती है।

एक उदाहरण काफी होगा। कल्पना कीजिए कि किसानों को मिल रही छह हजार रुपए सालाना की राशि में केंद्र सरकार वृद्धि कर दे। जमीन की मौजूदा सीमा को हटा दे तो उसका क्या असर पड़ेगा ? इस तरह के कई अन्य काम केंद्र की पाइप लाइन में हैं। इसलिए वोट बैंक के आधार पर चलने वाले दलों के लिए यह चुनाव परिणाम एक संदेश दे रहा है। संदेश यह कि आप अपना चाल, चरित्र और चेहरा बदलिए। यदि बदलाव का तरीका समझ में नहीं आ रहा है तो किन्हीं विशेषज्ञों से पूछिए।

अपने उन बचे -खुचे समर्थकों का ध्यान रखते हुए भी आपका राजनीति में प्रासंगिक बने रहने जरूरी है। अब भी अनेक लोग आपकी ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी यह जरूरी है कि प्रतिपक्ष में बेदम नहीं हो।

यह चुनाव शत्रुघ्न सिन्हा, उपेंद्र कुशवाहा और शरद यादव जैसे बड़े नेताओं के लिए भी एक कड़ा संदेश है। ऐसे नेताओं को समझना होगा कि आप खुद क्या चाहते हैं और आम जनता आपसे क्या चाहती है। यह बात आप जानें और समझें, समय रहते। उसी के अनुसार अपने राजनीतिक कदम उठाएं। आपके सामने सीरियस नेता हैं जिनसे आपका मुकाबला है।

इस चुनाव में भारी जीत का श्रेय तो नरेंद्र मोदी को ही जाता है। पर राजग के लिए यह अनुकूल स्थिति रही कि यहां नीतीश के रूप में एक अच्छी छवि वाले मुख्यमंत्री हैं। नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की मिलीजुली ताकत का लाभ इस पिछड़े बिहार को पूर्ण विकसित करने में अब होना चाहिए। नीतीश कुमार के कार्यकाल में बिहार का विकास तो हुआ है, पर आर्थिक सीमाओं के कारण पूर्ण विकास की राह में बाधाएं बनी हुई हैं।

बिहार में उद्योगीकरण के लिए केंद्र से मदद की उम्मीद अब बढ़ी है। मुख्यमंत्री कहते हैं कि  विशेष राज्य का दर्जा देने से ही यहां उद्योग बढ़ेंगे। श्री कुमार ने चुनाव प्रचार में मतदाताओं से अपील की कि यदि आप हमें 15 या उससे अधिक सीटें जितवाएंगे तो हम बिहार को विशेष राज्य का दर्जा के लिए केंद्र के समक्ष मजबूती से अपनी मांग रख पाएंगे। पर, चौदहवें वित्त आयोग ने कह दिया है कि किसी भी राज्य को विशेष दर्जा नहीं दिया जाएगा।

इस पृष्ठभूमि में केंद्र के सामने भी संभवतः दिक्कत आएगी। पर एक रास्ता बीच का भी है। केंद्र सरकार यदि एक्साइज ड्यूटी, आयकर और जी.एस.टी. में बिहार में छूट दे दे तो उद्योगपतियों को बिहार आमंत्रित किया जा सकता है।

मोदी सरकार ने अन्य धनराशि के अलावा सिर्फ सड़कों  के लिए बिहार को 50 हजार करोड़ रुपए दिए हैं। बिजली के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम हुए हैं।

(24 मई 2019 के दैनिक भास्कर,पटना में प्रकाशित)

गुरुवार, 23 मई 2019

   पैसावाद, जातिवाद और विचार धारा वाद, निष्पक्ष और वस्तुपरक पत्रकारिता की राह में मुख्य बाधक तत्व हैं।
अखबार को ‘रफ हिस्ट्री’ भी कहा गया है।
 ऐसा इतिहास जो जल्दीबाजी में लिखा जा रहा  है।
 मेरी समझ से निष्पक्ष और वस्तुपरक पत्रकारिता वह है 
जिसके जरिए जो चीज जैसी है,उसकी हू ब हू जानकारी पाठकों-दर्शकों तक पहुंचे।
हां, आप अपना विश्लेषण आप कर सकते हैं।
मेनचेस्टर गार्जियन के मालिक-सह संपादक सी.पी.स्काॅट ने कहा था कि ‘फैक्ट्स आर सेक्रेड एंड ओपिनियन इज फ्री।’
 दूसरी ओर, अभियानी पत्रकारिता के लिए भी लोकतंत्र में पूरी गुंजाइश है।
 जो करना चाहें, वे अभियानी पत्रकारिता खूब करें। जिस सरकार ,नेता या विचार धारा को आप गलत मानते हैं,उसके खिलाफ जम कर अभियान चलाइए।पर तर्कों और तथ्यों से लैस होकर।
जिसे ठीक मानते हैं,उसे अपने लेखन के जरिए मजबूत करने की कोशिश कीजिए।
हां,यह बात और है कि मीडिया का कौन मालिक अभियान के
लिए अखबार या चैनल चला रहा है और कौन मालिक पेशेवर ढंग से मीडिया को चलाना चाहता है।
पेशेवर पत्रकारिता का मूल मंत्र यह है कि जिस पर आप आरोप लगाते हैं,उस विषय पर उस व्यक्ति का पक्ष भी साथ -साथ आना चाहिए।
अभियानी पत्रकारिता में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।
हालांकि साठ के दशक में एक मीडिया घराने ने अपने अखबार को तो पेशेवर बना रखा था,पर एक  मैगजिन में  सोशलिस्ट और दूसरी मैगजिन में  कम्युनिस्ट विचारधारा का संपादक बना रखा था। 
 मुख्य धारा की पत्रकारिता वह है जिसे आम लोग पढ़ें और उसकी सूचनाओं पर विश्वास करें।
स्वाभाविक है कि आम लोगों में तो हर जाति, धर्म और विचारधारा के लोग होंगे ही।
    


शुक्ल जी और व्यास जी सही थे !
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शम्भूनाथ शुक्ल तथा कुछ अन्य जानकार लोगों से बातचीत के बाद हरिशंकर व्यास ने बहुत पहले अपने अखबार ‘नया इंडिया’ में लिख दिया था कि हम कुछ भी लिखें,पर सही बात यह है कि उत्तर प्रदेश में मोदी का अंडर करंट है।
 शुक्ल जी और व्यास जी की पत्रकारीय ईमानदारी के लिए उन्हें धन्यवाद !
@23 मई 2019@

देश की राजनीति की मुलायम गति
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24 अक्तूबर 2016-मुलायम सिंह यादव ने कहा कि मैं अमर सिंह के खिलाफ कुछ भी बर्दाश्त नहीं करूंगा।उन्होंने मुझे जेल जाने से बचा लिया था। 
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13 फरवरी 2019--मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए कहा कि मेरी कामना है कि आप फिर प्रधान मंत्री बनें। 
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23 अप्रैल 2019-मुलायम सिंह यादव अपने पूरे परिवार के साथ एक निजी विमान से लखनऊ से सेफई जाकर मतदान किया।
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9 मई 2019-सी.बी.आई.ने सुप्रीम कोर्ट से कह दिया कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के खिलाफ कोई केस नहीं बनता।
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याचिकाकत्र्ता विश्वनाथ चतुर्वेदी ने कहा कि सी.बी.आई.अपने कत्र्तव्य के पालन में विफल रही।

मंगलवार, 21 मई 2019

राजग में जिसको जन समर्थन,उसी को गद्दी
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देश भर में महीनों से एक खबर भीतर -भीतर अफवाह के रूप में दौड़ रही है।
 वह यह कि यदि भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा,राजग को बहुमत मिलेगा तो नरेंद्र मोदी के बदले भाजपा के कोई अन्य व्यक्ति प्रधान मंत्री बनेंगे।
  यह भी प्रचार जारी है कि ऐसी इच्छा न सिर्फ भाजपा के भीतर -बाहर के कुछ नेताओं की है बल्कि संघ भी यही चाहता है।संघ के बारे में मैं कुछ नहीं जानता,पर भाजपा के बाहर-भीतर के नेताओं की मनःस्थिति मैं आसानी से समझ सकता हूं।
  उसके कारण भी मैं जानता हूं।
 उस पर चुनाव रिजल्ट के बाद।
23 मई से पहले 1989 का उदाहरण मोदी विरोधियों को याद कर लेना  चाहिए।
  वी.पी.सिंह की लोकप्रियता के कारण ही 1989 में कांग्रेस अल्पमत में चली गई थी।
पर, वी.पी.सिंह के दल के ही चंद्र शेखर प्रधान मंत्री पद के गंभीर उम्मीदवार बन गए थे।
  नतीजा क्या हुआ ?
बन सके ?
नहीं बने।
क्योंकि जो सांसद जीत कर गए थे,वे वी.पी.के नाम पर ही।
 वे अपने मतदाताओं से दगा नहीं कर सकते थे।
देवीलाल भी यह बात अच्छी तरह समझते थे।
चूंकि चंद्रशेखर बडे़ नेता थे,इसलिए उन्हें पद से दूर रखने  के लिए एक नाटक का सहारा लेना पड़ा।
  आज यदि भाजपा या राजग को बहुमत मिलेगा तो उसमें सबसे बड़ा श्रेय नरेंद्र मोदी का ही रहेगा।
मोदी के नाम पर अंडर करंट है।मैं यह नहीं कह सकता कि वह अंडर करंट बहुमत दिलाने लायक है या नहीं।हालांकि अंडर करंट रहता है तो वह बहुमत दिला ही देता है।
 ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मोदी यानी राजग के खिलाफ ‘कुुछ खास तरह की शक्तियां’ जी जान लगाकर  आखिरी लड़ाई लड़ रही है।उनके जीवन-मरण का सवाल है।
 ऐसी लड़ाई में क्या होगा,उसका पता पहले 19 और अंततः 23 मई को ही चल पाएगा।      

जले तेल का बार -बार इस्तेमाल करने वाले 
होटल - ढाबों की निगरानी शुरू
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बड़े रेस्तरां में इस्तेमाल खाद्य तेल का 
अब ब्योरा देना होगा।
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आज के ‘हिन्दुस्तान’ में नई दिल्ली से छपी खबर के यही शीर्षक हैं।
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 याद रहे कि बार- बार इस्तेमाल तेल के फिर से इस्तेमाल से पकाए गए भोज्य पदार्थ खाने से कैंसर होता है।
 पर इसकी ओर से सरकारी एजेंसियां लापारवाह रही हैं।
उन्हें  तो सिर्फ नजराना व शुकराना से मतलब होता है।
इधर सरकार के किसी कत्र्तव्निष्ठ  व्यक्ति को पता चला कि बड़े होटलों में इस्तेमाल हुए खाद्य तेल को 20 -25 रुपए लीटर ढाबों और छोटे होटलों को बेच दिया जाता है ताकि वे उसका बार- बार इस्तेमाल कर सकंे। उनको देश में फैल रहे कैंसर से क्या मतलब ?
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अब रोजाना 50 लीटर से अधिक तेल
की खपत करने वाले होटलों को यह हिसाब देना होगा कि वे इस्तेमाल किए गए तेलों का क्या करते हैं ?
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बार-बार तेल इस्तेमाल करने वालों के लिए सजा का भी प्रावधान है।
क्या आपने कभी सुना कि इस दफा में किसी को देश में 
कहीं गिरफ्तार किया गया है ? मैंने तो नहीं सुना।
ऐसे ही चलती रही हंै हमारी सरकारें।
पता नहीं , आगे भी यह कार्रवाई जारी रह पाएगी या नहीं ?
20 मई 2019

आज के ‘दैनिक भास्कर’ में सेफोलाॅजिस्ट योगेंद्र यादव के
लंबे लेख की कुछ पंक्तियां यहां दी जा रही हैं।
वैसे पूरा लेख पठनीय है।
आज के ही ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में शेखर गुप्त, टाइम्स आॅफ इंडिया में आर.जगन्नाथन और इकोनामिक टाइम्स में प्रणब के लेख भी पढ़ने लायक हंै।
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योगेंद्र यादव ने लिखा है कि 
‘एग्जिट पोल से चुनाव परिणामों को लेकर काफी धुंध छंट गई है।
बाकी कसर 23 तारीख को परिणाम से पूरी हो जाएगी।
अब वक्त है सच का सामना करने का।
पहला बड़ा सच यह है कि इस चुनाव के परिणाम एकतरफा होने जा रहे हैं।
माना कि एग्जिट पोल ‘एग्जैक्ट पोल’ नहीं होते हैं,लेकिन जब सभी सर्वेक्षण एक ही दिशा में इशारा करें तो वह तस्वीर गलत नहीं होती।
 यूं भी यह सच पिछले दो महीनों से हर सड़क, हर ढाबे, हर गाड़ी या पनवाड़ी के यहां सुना जा सकता था।
सीटों के अनुमान में कुछ ऊपर -नीचे हो सकता है, लेकिन बड़ी तस्वीर बदलने की संभावना नहीं दिखाई देती।
बड़ी तस्वीर यह है कि भाजपा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिलने जा रहा है ।
 मोदी सरकार पांच साल के लिए दोबारा सत्ता में वापस आ रही है।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या भारतीय जनता पार्टी को स्वयं पूर्ण बहुमत मिल जाएगा।
हैरानी जरूर होगी,लेकिन आज इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।’
         @--योगेंद्र यादव ‘स्वराज इंडिया’ के अध्यक्ष हैं।@   

सोमवार, 20 मई 2019

 साझा सरकार भी कर सकती है कमाल बशर्ते...
        --सुरेंद्र किशोर--    
आपने कोई ऐसी ईमानदार राज्य सरकार देखी है जिसकी 
धमक से कचहरियों में पेशकार भी नजराना लेना बंद कर दंे ?
मैंने तो देखी है।सन 1967 में बिहार में वैसी ही मिलीजुली सरकार बनी  थी।
तब मेरा अनुभव एक जिला अदालत का था।हालांकि जिला कचहरियों पर राज्य सरकार का नहीं बल्कि हाईकोर्ट का कंठ्रोल रहता है।फिर भी यह कमाल देखा गया था।
गैर कांग्रेसी सरकार आते ही जब राज्य सरकार के दफ्तरों में घूसखोरी बंद हो गई तो कचहरियों के कर्मचारी भी डर गए थे।उन्हें लगा कि पता नहीं, कब किसके यहां छापा पड़ जाए।
  महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी 1967 की उस गैर कांग्रेसी सरकार में जो भी मंत्री बने थे, वे तपे -तपाए और ईमानदार नेता थे।
दशकों से उन्होंने जनता के लिए संघर्ष किया था।
  पर, उसी राज्य सरकार के कुछ मंत्रियों ने बाद के महीनों में जब अपनी हल्की सी कमजोरियां दिखार्इं तो फिर सामान्य सरकारी दफ्तरों और कचहरियों में भी पुराना नजारा दिखाई पड़ने लगा था।
  फिर भी मेरा मानना है कि 1967 की  महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार बिहार की अब तक की सर्वाधिक  ईमानदार सरकार रही।
हालांकि वह मिलीजुली सरकार ही थी।उससे पहले और बाद के कुछ मुख्य मंत्री भी ईमानदार जरूर  रहे ,पर  उनके सभी मंत्रियों के बारे में वैसी ही बात नहीं कही जा सकती।
पूरी महामाया सरकार अपने कार्यकाल के  प्रारंभिक महीनों
में कुल मिलाकर ईमानदार व कर्मठ बनी रही थी।
यदि आज भी कोई वैसी  मिलीजुली  सरकार केंद्र में बने जिसके प्रधान मंत्री से लेकर मंत्री तक अच्छी मंशा वाले हों तो 
वह सरकार भी कमाल कर सकती है ! वैसे तो यह एक भोली आशा ही है,पर उसकी कल्पना कर लेने में क्या दिक्कत है ? 
पर 1967 में अधिकतर गैरकांग्रेसी  नेतागण तब तक अच्छी मंशा वाले थे और महामाया सरकार के मंत्री गण आत्म  अनुशासन की भावना से भी लैस थे।
 हालांकि उन्हीं मंत्रियों में कुछ मंत्री बाद के वर्षों में संयम नहीं रख सके।बाद के दशकों में  तो कुछ अपवादों को छोड़कर उन नेताओं में से कुछ की और भी खराब स्थिति हो गई ।
  पर अभी बात एक खास कालावधि के दलों ,नेताओं और उनके मंत्रियों की हो रही है।
  1966-67 की कालावधि में डा.राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद चलाया और कई दलों को साथ मिलकर 1967 का चुनाव लड़ने के लिए राजी किया।
 जो गैर कांग्रेसी दल चुनाव मिलकर नहीं लड़े,वे भी सरकार में शामिल हो गए।
 प्रतिपक्षी एकता के कारण सात राज्यों में 1967 में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं।बाद में दो राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की कांग्रेसी सरकारें दल बदल के कारण कुछ सप्ताह में ही गिर गई और वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं।
उत्तर प्रदेश के गैर कांग्रेसी मुख्य मंत्री चरण सिंह बने और मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह।
चरण सिंह और गोविंद नारायण सिंह पहले कांग्रेस में थे।
  डा.लोहिया ने कहा था कि गैर कांग्रेसी सरकारों को पहले छह महीनों में ही कोई क्रांतिकारी कदम उठाना चाहिए ताकि गैर कांग्रेसी सरकार और कांग्रेसी सरकार का भेद साफ-साफ लोगों के सामने  आ जाए।
 1967 में बिहार में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ,जनसंघ,सी.पी.आई.,जन क्रांति दल और प्रजा समाजवादी पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई थी।
महामाया प्रसाद सिन्हा जन क्रांति दल के नेता थे।संसोपा के कर्पूरी ठाकुर उप मुख्य मंत्री और वित्त मंत्री बने।उनके पास शिक्षा विभाग भी था।
67 विधायकों के साथ सबसे बड़ा दल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ही था।
डा.लोहिया कर्पूरी ठाकुर को मुख्य मंत्री बनवाना चाहते थे ,पर घटक दल के कतिपय सामंतवादी नेताओं ने वीटो लगा दिया।
      यह पहला और आखिरी अवसर था जब  जनसंघ और सी.पी.आई.एक ही सरकार के अंग बने थे।
तब उत्तर प्रदेश में भी चरण सिंह की सरकार में दोनों दल एक साथ मंत्रिमंडल  में थे।
यह गैर कांग्रेसवाद की भावना का दबाव था।
बिहार की  वह सरकार 33 सूत्री न्यनत्तम कार्यक्रम के आधार पर चल रही थी।हालांकि एक सूत्र यानी उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के सवाल पर जनसंघ का विरोध था।
 उस सरकार की मोनिटरिंग दिल्ली में बैठकर संसोपा के सुप्रीमो डा.लोहिया कर रहे थे।
 डा. लोहिया चाहते थे कि मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही मैट्रिक पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म हो और अलाभकर जोत यानी सवा छह एकड़ से कम की जोत पर से लगान समाप्त कर दिया जाए।
  पर,ऐसा नहीं हो सका था।
इस बीच जब कर्पूरी ठाकुर दिल्ली गए तो लोहिया ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया।वे सख्त नाराज थे।
लोहिया अपने कमरे में थे।कर्पूरी ठाकुर उनके बैठकखाने में देर तक बैठे रहे।लोहिया जी के निजी सचिव उर्मिलेश झा कर्पूरी ठाकुर के आने की सूचना लेकर लोहिया के कमरे में गए।
लोहिया ने कहा कि उससे कह दो मैं नहीं मिलूंगा।
झा जी बिहार के ही थे।वे नहीं चाहते थे कि बिना मिले कर्पूरी जी वापस  जाएं।वे लोहिया जी को मनाने की कोशिश करते रहे।
लोहिया नहीं माने।अंत में उर्मिलेश जी ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि डाक्टर साहब की तबियत ठीक नहीं है।
चतुर कर्पूरी जी को यह समझते देर नहीं लगी कि सिर्फ तबियत की सूचना लेने-देने  मंे उर्मिलेश जी को आधा घंटा क्यों लग गया।
जरूर लोहिया जी नाराज हैं।
कर्पूरी जी बिना मिले पटना लौट गए।उन्होंने मंत्रिमंडल की तुरंत बैठक बुलवाई और दोनों काम कर दिए।
   जब महामाया  सरकार बनी थी तब राज्य सूखा और बाढ़ की विभीषिका से अभूतपूर्व ढंग से तबाह था।मिलीजुली सरकार के मंत्रियों ने इन समस्याओं से मेहनत और ईमानदारी से जूझने का काम किया और सफलता भी हासिल की।
 उसको लेकर महामाया सरकार की हर जगह तारीफ हुई।
  पर महामाया सरकार कुछ सत्तालोलुप नेताओं की महत्वाकांक्षा के कारण समय से पहले गिर गई।
संसोपा ,  जनसंघ और सी.पी.आई.सहित घटक दलों के करीब तीन दर्जन विधायकों ने सत्ता पाने के लिए दल बदल कर लिया।
  सरकार गिर गई।
पर, उससे पहले महामाया सरकार ने एक दूरगामी परिणाम वाला काम किया था।उसने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज 
टी.एल.वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता में एक जांच आयोग गठित किया।
1946 से 1966 तक सत्ता  में रहे जिन 6 कांग्रेसियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे,उनकी जांच इस आयोग ने शुरू की थी।
उससे परेशान प्रमुख कांग्रेसियांे ने महामाया सरकार गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
 यदि अय्यर आयोग द्वारा दोषी करार दिए गए नेताओं को तौल कर सजा हो गई होती तो बाद के दिनों में बिहारी नेता लोग भ्रष्टाचार करने के पहले सौ बार सोचते।पर सरकार बदलने के कारण वैसा न हो सका। 
उसका खामियाजा बिहार को दशकों तक भुगतना पड़ा। 
  @हस्तक्षेप-राष्ट्रीय सहारा-19 मई, 2019@                                                                                                                                                                                                           

एग्जिट पोल रिजल्ट--मेरा भरोसा टूडेज चाणक्य पर
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मेरा अपेक्षाकृत अधिक भरोसा ‘टूडेज चाणक्य’ पर रहता है।
इस बार उसके एग्जिट पोल के अनुसार भाजपा को 300 और राजग को 350 सीटें मिलने जा रही है।
   2014 के लोक सभा चुनाव के एग्जिट पोल का टूडेज चाणक्य का आंकड़ा 340 का था।
  राजग को मिली थी  336 सीटें।
यानी वास्तविकता के सर्वाधिक करीब टूडेज चाणक्य ही रहा था।
  कई चुनावों से देख रहा हूं।एक या दो अपवादों को छोड़कर टूडेज चाणक्य अपेक्षाकृत अधिक सटीक रहा है।
  

पूर्व प्रधान मंत्री देवगौड़ा के दो पोते लोकसभा
का चुनाव लड़ रहे हैं।
इस पर जब कुछ लोगों ने उन पर वंशवाद का आरोप लगाया तो देवगौड़ा सार्वजनिक तौर पर रो पड़े !
वाह ! देवगौड़ा साहब आपके भोलपन पर कौन न फिदा हो जाए !!
  उधर पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने भी सोचा कि अपने पोते को जिताने के लिए मतदाताओं के सामने रो देना कारगर भावनात्मक हथियार साबित होगा,तो वे हाल में रो पड़े।मैंने वह खबर एक्सप्रेस में देखी थी।
पता नहीं, इन दोनों के वंशजों  पर मतदातागण द्रवित हुए या नहीं।
 इस तरह न जाने कितने अन्य वी.आई.पी.के पोते और वंशज  इस ‘राजवंशीय लोकतंत्र’ में अपनी तकदीर आजमा रहे हैं।
   इस बात के बावजूद यह सब हो रहा है कि अपात्र उत्तराधिकारियों के कारण इस देश में वंशवाद ने कुछ राजनीतिक दलों को बर्बाद करना शुरू कर दिया है।   

मंगलवार, 14 मई 2019

‘छोटी सी आशा’ 
मई में शपथ ग्रहण करने वाले पी.एम. से
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एक छोटी सी आशा है।इसे मेरी भोली आशा भी मान सकते हैं।
क्योंकि अनेक चतुर -सुजान लोग यह मानते रहे हैं कि इस देश में कुछ भी बदल नहीं सकता।
 यह भोली आशा मुझे उनसे है जो रिजल्ट के बाद इस माह के अंत में प्रधान मंत्री पद की शपथ लेंगे।मैं नहीं जानता कि वह नरेंद्र मोदी ही होंगे या कोई और !
 2018 -19 वित्तीय वर्ष में केंद्र सरकार को कर राजस्व के रूप में करीब 19 लाख करोड़ रुपए मिले।
सरसरी नजरों  से मैं जब चहंुओर कर चोरियां  देखता हूं, उससे साफ लग जाता है कि  यह राशि थोड़ी सी कड़ाई के बाद दुगुनी हो सकती है।अधिक कड़ाई के बाद और भी अधिक।
 हालांकि मेरी छोटी सी आशा है कि कड़ाई अधिक ही हो।
सिंगा पुर के शासक ली कुआन यू @1923-2015@ने जिस तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही थोड़ी सी कड़ाई करके सिंगापुर का काया पलट कर दिया ,उसी तरह के काम की उम्मीद अगले प्रधान मंत्री से है।भले उम्मीद पूरी हो या नहीं।
 जिन जरूरी क्षेत्रों में तत्काल अधिक पैसे लगाने और ढीली -ढाली  व्यवस्था को सख्ती करके ठीकठाक करने की सख्त जरूरत है ,उनमें क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र प्रमुख  हंै।रक्षा क्षेत्र मंें बेहतरी की रफ्तार संतोषजनक है।
  इस देश में अधिकतर लोग समझते हैं कि वे कोई भी अपराध करके बच सकते हैं।
देश में औसत अदालती सजाओं का प्रतिशत सिर्फ 46 है।
यानी 54 प्रतिशत लोग अपराध करके साफ बच जाते हैं।
 इसी देश में केरल में सजा की दर 84 है,वहींं बिहार में मात्र दस।इतना अंतर क्यों ?
देशव्यापी सुधार के लिए इन दोनों राज्यों के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का अध्ययन किया जा सकता है।
  हमारे यहां जो डाॅक्टर और इंजीनियर बन रहे हैं,उनमें से अधिकतर की गुणवत्ता संदिग्ध है।इसे नए प्रधान मंत्री किसी भी कीमत पर सुधारें ।
  अपवादों को छोड़ कर देश की सामान्य शिक्षण-परीक्षण व्यवस्था भी ध्वस्त हो चुकी है।
अधिकतर शिक्षकों की गुणवत्ता ही रसातल में जा रही है।
पर्यावरण रक्षा के प्रति न तो कोई सावधानी है और न ही जरूरी कड़ाई जबकि इसके कुपरिणाम भयानक होंगे।
इन सब के परिणाम अगली पीढि़यों को भुगतने पडं़ेगे,यदि तत्काल सुधार नहीं हुआ तो।
       

सोमवार, 13 मई 2019

बिहार के साथ केंद्र की पुरानी नाइंसाफी
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1---1942 में प्रति व्यक्ति आय के मामले में बिहार 
का देश में ऊपर से चैथा स्थान था।
2---1969-70 में पंद्रहवें स्थान पर चला गया।
तब तक रेलभाड़ा समानीकरण का नियम केंद्र ने बना 
दिया  था।
3---प्रथम पंचवर्षीय योजना अवधि में बिहार को केंद्र से प्रति व्यक्ति 14 रुपए की मदद मिली  जबकि पंजाब को 88 और पश्चिम बंगाल को 43 रुपए।
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विशेष राज्य का दर्जा देकर उपर्युक्त क्षति की पूत्र्ति की जा सकती थी।पर वह काम भी नहीं हुआ।
न मनमोहन सरकार ने दिया और न ही मोदी सरकार ने।
हां, जो लोग पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं हैं,वे मानते हैं कि मोदी सरकार ने अभूतपूर्व आर्थिक मदद बिहार को जरूर दी है,पर वह स्थायी इलाज नहीं है।
बिहार की उपेक्षा पर 1974 में मशहूर समाजवादी बुद्धिजीवी सच्चिदानंद सिन्हा की पुस्तक आई थी जिसका नाम है--‘द इंटरनल काॅलोनी।’
  उसमें यह साबित किया गया है कि बिहार किस तरह केंद्र का आंतरिक उपनिवेश रहा है।

जिस पत्रकार ने कर्नाटका,गुजरात और उत्तर प्रदेश की विधान सभाओं के नतीजों का सही -सही पूर्वानुमान लगा दिया था,उसी पत्रकार ने अपने ताजा लेख में यह संकेत दिया है कि केंद्र  में राजग की ही एक बार फिर सरकार बन सकती है।
   याद रहे कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव नोटबंदी और गुजरात चुनाव जी.एस.टी.की पृष्ठभूमि में हुए थे।तब नतीजे का अनुमान लगाना अधिकतर पंडितों के लिए कठिन काम था।

रविवार, 12 मई 2019

युगांतरकारी चुनाव
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 वैसे तो हर चुनाव महत्वपूर्ण होता है,पर इस देश का मौजूदा लोक सभा चुनाव युगांतरकारी साबित हो सकता है।
न सिर्फ नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों के लिए ,बल्कि उनके राजनीतिक व अन्य तरह के विरोधियों के लिए भी।
  इसलिए बेहतर होगा कि दोनों पक्ष अपनी -अपनी  जीत के लिए पूरा जोर लगा दें।लगा ही रहे हैं,पर अंतिम दौर में कुछ और जोर लगाएं।
अन्यथा,बाद में पछताना पड़ सकता है।
किसी को हराने-जिताने वाले अपने-अपने संकल्पों को वोट देकर जरूर पूरा करंे।
मुझे लगता है कि हार-जीत की स्थिति में दोनों पक्षों की दुनिया बदलने वाली है।किसी की सकारात्मक ढंग से बदलेगी तो किसी अन्य की नकारात्मक ढंग से।साथ ही देश की भी।
कैसे बदलेगी,यह मैं चुनाव रिजल्ट आने के बाद लिखूंगा। 
  मेरा इशारा किन संभावित-आशंकित स्थितियों की ओर है,उसको लेकर लोगबाग अपनी -अपनी सुविधा के अनुसार फिलहाल अनुमान के घोड़े दौड़ा ही सकते हैं।दौड़ाइए !
हालांकि कुछ चतुर -सुजान लोग समझ ही गए होंगे।
कुल मिलाकर मेरा आग्रह यह है कि मोदी को हराने या जिताने के इस ऐतिहासिक अवसर को 
हाथ से न जाने दें।
मतदान के दिन घर में बैठे रह जाएंगे तो बाद में आपको अफसोस ही होगा।

सन 1962  में तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ डा.राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के फूल पुर में लोस चुनाव लड़ रहे थे।
दोनों के बीच का पत्र -व्यवहार  पढि़ए
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लोहिया - ‘इस चुनाव में आपकी जीत तय है।लेकिन अगर यह जीत आपकी हार में बदल जाती है तो मैं काफी खुश होऊंगा और यह देशहित में भी होगा।
इससे आपको अपने में सुधार करने का मौका मिलेगा और आप अच्छे व्यक्ति बन पाएंगे।
अंत में, मैं आपके लंबे जीवन की कामना करता हूंं ताकि आपको सुधारने का मुझे मौका मिले।’
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नेहरू-‘मुझे खुशी है कि आप जैसा सौम्य व्यक्ति चुनाव में मुझे चुनौती दे रहा है।मेरा मानना है कि इस चुनाव अभियान का केंद्र बिंदु राजनीतिक योजनाएं होंगी।
इस बात का ख्याल रखें और सुनिश्चित करें कि व्यक्ति आधारित कोई चर्चा नहीं होगी।
राजनीतिक विरोध के बीच सौम्य व्यवहार को नहीं भूलना चाहिए।’
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अब नेहरू की इस कसौटी पर आज के नेताओं को कस कर देखिए।
  

शनिवार, 11 मई 2019

गलत खबर से खिन्न डा.लोहिया 
ने किया था ‘टाइम’ पर मुकदमा 
  .....सुरेंद्र किशोर---
डा.राम मनोहर लोहिया ने साठ के दशक में अमरीकी 
साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ पर मानहानि का मुकदमा 
दायर किया था।
उन्होंने दस पैसे के हर्जाने की मांग की थी।
  याद रहे कि फूल पुर लोक सभा उप चुनाव के संबंध ‘टाइम’ ने निराधार खबर छापी थी।
‘टाइम’ ने अन्य बातों के अलावा यह भी लिख दिया था 
कि ‘ डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं।’
  भारत की राजनीति के बारे में ‘टाइम’ की छिछली जानकारी का ही यह नतीजा था।
दरअसल समाजवादी नेता डा.लोहिया जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का विरोध करते थे न कि वे उनके आजीवन शत्रु थे।
एक बार डा.लोहिया ने अपने मित्रों से कहा था कि यदि मैं बीमार पड़ूंगा तो मेरी सबसे अच्छी सेवा- शुश्रूषा जवाहर लाल नेहरू के घर में ही होगी।
एक बार डा.लोहिया जब दिल्ली जेल में थे,प्रधान मंत्री  नेहरू ने उनके लिए आम भिजवाया था।इसको लेकर गृह मंत्री सरदार पटेल प्रधान मंत्री से नाराज हुए थे।
 1964 में नेहरू के निधन के बाद डा.लोहिया ने कहा था,‘ ‘1947 के नेहरू को मेरा सलाम !’
पर छिछली रिपोर्टिंग करने वाली पत्रिका को इन तथ्यों से क्या मतलब !  
  खैर ‘आजीवन शत्रु’ वाली बात लोहिया को अधिक बुरी लगी थी।
दरअसल नेहरू के निधन के बाद फूल पुर में उप चुनाव हुआ।डा.लोहिया कांग्रेस की उम्मीदवार विजयलक्ष्मी पंडित के खिलाफ चुनाव प्रचार में गए थे।
 टाइम के 4 दिसंबर 1964  के अंक में लिखा गया कि ‘डा.लोहिया नेहरू परिवार के आजीवन शत्रु हैं और इस कारण वे उप चुनाव में विजयलक्ष्मी पंडित के विरूद्व प्रचार करने गए थे।
इस बात को नजरअंदाज करते हुए कि 1962 में खुद लोहिया,नेहरू के खिलाफ वहां  चुनाव लड़ चुके थे, पत्रिका ने यह भी लिख दिया कि ‘लोहिया ने मतदाताओं से कहा कि विजयलक्ष्मी पंडित की सुन्दरता के जाल में न फंसें।उनके अंदर केवल विष है।’
‘टाइम’ के अनुसार डा.लोहिया ने मतदाताओं से  कहा कि श्रीमती पंडित की युवावस्था जैसी सुन्दरता इसलिए कायम है क्योंकि उन्होंने यूरोप में प्लास्टिक शल्य चिकित्सा करायी है।
 डा.लोहिया ने दिल्ली के सीनियर सब जज की अदालत में टाइम  के संपादक,मुद्रक,प्रकाशक और नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं के विरूद्व मानहानि का मुकदमा किया।  
  अदालत में प्रस्तुत अपने आवेदन पत्र में डा.लोहिया ने कहा कि टाइम में प्रकाशित उक्त सारी बातेें बिलकुल मन गढंत हैं और मुझे बदनाम करने के इरादे से इस तरह की कुरूचिपूर्ण बातें मुझ पर आरोपित की गई हंै।
डा.लोहिया ने  कहा कि टाइम ऐसे दकियानूसी कट्टरपंथी तत्वों का मुखपत्र है,जिन्हें हमारी समतावादी और लोकतांत्रिक नीतियां पसंद नहीं हैं।
  नई दिल्ली स्थित संवाददाताओं ने, जो उक्त समाचार भेजने के लिए जिम्मेदार हैं,मुझसे कभी भंेट तक नहीं की।
 ये संवाददाता स्थानीय भाषा भी नहीं जानते।
इसलिए मेरे भाषण की उन्हें सीधी जानकारी भी  नहीं हो सकती थी।
शत्रुता का आरोप का खंडन करते हुए डा.लोहिया ने कहा कि
कांग्रेसी शासन अथवा दिवंगत प्रधान मंत्री की जब भी मैंने आलोचना की है तो नीति और सिद्धांत के प्रश्नों पर ही।
किसी निजी द्वेष पर नहीं।@11 मई 2019@
    
   

मां की यादें
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मां के साथ संतान के संबंध में कोई स्वार्थ नहीं होता।
यानी, निःस्वार्थ प्यार सिर्फ मां का प्यार ही होता है।
पिता का तो कम से कम यह स्वार्थ रहता ही है कि मेरी संतान मुझसे आगे बढ़ जाए।अधिक तरक्की करे।
  पर मां को इन सबसे भी कोई मतलब नहीं।
बाकी लोगों के साथ आपसी ‘लेन देन’ का रिश्ता होता है।
जरूरी नहीं कि उससे पैसे ही जुड़े हों।
लेन देन मतलब आप जितना स्नेह दीजिएगा,उतना पाइएगा।
जितना सम्मान दीजिएगा,उतना पाइएगा।
जितना दूसरे का ध्यान रखिएगा,उतना वह आपका ध्यान रखेगा।
अपवाद की बात और है।
ठीक ही कहा गया है,
‘कुछ हंस कर बोल दो,
कुछ हंस कर टाल दो।
परेशानियां बहुत हैं,
कुछ वक्त पर डाल दो।’ 
मां के अलावा बाकी लोगों से संबंध निभाते रहने  के लिए इस फार्मूले का इस्तेमाल किया जा सकता है।
संबंध तो कच्चा धागा है जिस पर निरंतर प्रेम का मांझा
लगाते रहना पड़ता है।
पर मां के मामले में इसकी भी जरूरत नहीं पड़ती।
और अंत में
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एक बार मेरी पत्नी मेरे नन्हे पुत्र को पीट रही थीं।शिक्षिका हैं,वैसे भी उनका अधिकार था।
तब तक सरकार ने शिक्षकों के हाथों से छडि़यां नहीं छीनी थीं।
खैर ,मेरी मां भी मेरे साथ ही रहती थीं।
उसे पोते  पर दया आ गई।
बोली, क्यों मार रही हो ?
उसने कहा कि ‘होम वर्क नहीं बनाया है।’
 मेरी मां ने कहा कि 
‘मैंने तो कभी एक चटकन भी नहीं मारा,
 फिर भी मेरे दोनों बबुआ कैसे पढ-लिख गए ?’ 

शुक्रवार, 10 मई 2019

मशहूर सी.पी.आई.नेता व पूर्व विधायक दिवंगत राज कुमार 
पूर्वे ने अपनी पुस्तक ‘स्मृति शेष’ में लिखा है,
‘हमारे एक साथी जिला मंत्री, जहानाबाद ने कहा कि ‘जनशक्ति’ की 50 प्रति वे 8 दिनों में बेच सके और भाजपा के एक व्यक्ति ने सरकारी घोटालों पर लिखी गयी पुस्तक की 200 प्रतियां 20 मिनट में बेच दिया।’@पेज-184@
  याद रहे कि यह तब की बात है जब बिहार में लालू प्रसाद की सरकार थी और सी.पी.आई.उस सरकार के समर्थन में थी।
पूर्वे की बात तब जितनी सही थी,उतनी ही आज भी प्रासंगिक है।
देश,प्रदेश और समाज के अधिकतर लोग भ्रष्टाचार को पसंद नहीं करते। 

पार्ट-1
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आईएनएस विराट के इस्तेमाल पर इंडिया टूडे
-31 जुलाई 1988-में अनीता प्रताप की रपट
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प्रधान मंत्री की छुट्टियां
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निर्जन टापू पर निश्चिंत पड़ाव
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आलोचनाओं के बावजूद राजीव परिवार 
और दोस्तों की पिकनिक मस्त रही
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लगता है कि 1987 की तनाव भरी घटनाओं ने दुनिया के बड़े -बड़े राजनेताओं के भी छक्के छुड़ा दिए।
शायद यही कारण था कि साल खत्म होने पर मिखाइल गोर्बाचेव ने काला सागर तट की सैरगाह का रुख किया,रोनाल्ड रेगन ने सांता बारबरा में अपने लंाच की शरण ली और भारत में राजीव गांधी ने बंगारम की ओर कूच कर दिया।
 छुट्टियां मनाने के इस फैसले के पीछे उनका इरादा चमचों की भीड़, फाइलों , समस्याओं और असंतुष्टों से पीछा छुड़ाने के लिए ऐसे दूर और एकांत स्थान पर जाकर बैठना था जहां किसी तरह की चीख-पुकार न पहुंच सके। 36 टापुओं और 44 हजार आबादी वाले लक्षद्वीप में बंगारम टापू मात्र आधे वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वाला ऐसा ही निर्जन स्थल है। 
सामरिक दृष्टि से नाजुक माने जाने वाले लक्ष्यद्वीप का यह इकलौता ऐसा टापू है जहां विदेशियों को जाने की छूट है और जहां नशाबंदी नहीं है।
 बाकी दुनिया से पूरी तरह कटा होने के कारण यह टापू पूरी तरह सुरक्षित माना जाता है।
लक्ष्यद्वीप के पुलिस प्रधान पी.एन.अग्रवाल कहते हैं ,‘
‘यह प्राकृतिक कारणों से भी एक सुरक्षित स्थान है।’
  हालांकि सरकार की ओर से इस टापू तक किसी बाहरी आदमी को न पहुंचने देने के सभी संभव उपाय किए गए थे, पर इसके बावजूद यहां होने वाले कार्यकलापों के बारे में समाचार माध्यमों की रूचि को कम नहीं किया जा सका।
 यह टापू उत्सुकता का केंद्र 26 दिसंबर के दिन बना जब स्थानीय प्रशासन के नारंगी और सफेद रंग के हेलिकाॅप्टर से राजीव के बेटे राहुल और उनके चार दोस्त उतरे।
उनके बाद छुट्टी मनाने के लिए आने वालों का सिलसिला 
बंध गया।
पत्रकारों को यहां से दूर रखने के लिए सरकारी मशीनरी ने पूरा जोर लगा दिया।
   टापू पर आमंत्रित मेहमानों की सूची ही अपने आप में गरमागरम खबरों का स्त्रोत रही।
किस्मत वालों की इस सूची में राहुल और प्रियंका के चार दोस्त ,सोनिया गांधी की बहन ,जीजा और उनकी बेटी ,सोनिया की विधवा माता आर.मायनो तथा भाई और मामा भी थे।
इनके अलावा पूर्व सांसद अमिताभ बच्चन,जया बच्चन और उनके बच्चे भी थे।
बच्चन परिवार से आने वाले मेहमानों में फेरा के तहत कथित हेरा फेरी के लिए विवादास्पद अजिताभ बचन की बेटी भी थी।
बाकी मेहमानों में केवल दो हिन्दुस्तानी और थे-पूर्व केंद्रीय मंत्री अरूण सिंह और भाई बिजेंद्र सिंह और उनकी पत्नी।बाकी सभी विदेशी थे। 
@जारी@  
     

पार्ट-2
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निर्जन टापू पर निश्चिंत पड़ाव
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हालांकि राजीव और सोनिया ने अपनी छुट्टियों की शुरूआत 30 दिसंबर की दोपहर के बाद की, पर अमिताभ को लेकर विशेष कोचीन -कवाराती उड़ान पर आया हेलिकाॅप्टर इससे अगले दिन वहां पहुंचा।
उनकी पत्नी जया अपने बच्चों और प्रियंका को लेकर चार दिन पहले ही वहां पहुंच गई थीं।
इस रणनीति का लक्ष्य बंगारम में अमिताभ की मौजूदगी पर परदा डाले रखना था।
लेकिन 31 दिसंबर के दिन यह भेद छिपाए छिप न सका क्यांेकि हेलिकाॅप्टर को बंगारम पहंुचने से पहले कवाराती टापू पर ईंधन लेेेने के लिए 50 मिनट के लिए रुकना पड़ा।
बाद में जब वे वापसी के समय कोचीन हवाई अड्डे पर उतरे तो इंडियन एक्सप्रेस के एक फोटो ग्रफर ने उन्हें देख लिया और उसने अमिताभ की गुस्से भरी चेतावनी के बावजूद उनके चार फोटो खींच लिए।
 राजीव के इतालवी ससुराली रिश्तेदारों के अलावा बच्चन परिवार की मौजूदगी ने राजीव के आलोचकों को सबसे अधिक राजनीतिक बारूद उपलब्ध कराया।
विरोधियों का एक सवाल यह था कि अजिताभ के परिवार के लोगों और उनके भाई के साथ रंगरेलियां मना कर आखिर राजीव उन सरकारी अधिकारियों को क्या संकेत भेजने की कोशिश कर रहे हैं जो आजकल स्विट्जरलैंड में अजिताभ की संपत्ति की जांच कर रहे हैं।
कवाराती में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के महा सचिव कुंजी कोया का कहना है कि हेलिकाॅप्टर का इस्तेमाल केवल एक आदमी के लिए किया जाए और वह भी एक ऐसे शख्स के लिए जिसका नाम देश के बड़े स्कैंडल में उलझा हुआ है।
@जारी@ 



पार्ट-3
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निर्जन टापू पर निश्ंिचत पड़ाव
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लेकिन छुट्टी मनाने वाले हफ्ता भर मस्त रहे।
एक खूबसूरत और गैर आबाद टापू पर उनका पूरा कब्जा था।
लिहाजा पूरा वक्त उन्होंने निश्चिंतता के साथ तैरने, धूप सेंकने मछली पकड़ने और नौका चलाने में बिताया। 
इस मौज मस्ती के दौरान यह दल पास ही के दो निर्जन टापुओं तिन्नाकारा और पराली पर पिकनिक मनाने भी गया।
इसके अलावा बीच-पार्टियों ,संगीत और मछली मार अभियानों की भी भरमार रही।
जहां राजीव, राहुल और प्रियंका ने  अपना काफी समय पानी में बिताया,वहां सोनिया ने दमे के कारण अपनी मां और जया के साथ शीशे की तली वाली नौका में समद्र तट में फैली मूंगे की चट्टानों को निहारने का आनंद लूटा।
 इस दौरान राजीव कई बार टापू पर टहलने के लिए निकले मानो वे इस जगह से पूरी तरह वाकिफ हों ।
एक बार तो वे छिछले पानी में आ फंसी एक डाल्फिन को बचाने के लिए पानी में कूद पड़े ।इससे पहले नवंबर 1985 में भी राजीव ने बंगारम में एक दिन बिताया था।
  लेकिन इस बात का अनुमान लगा पाना बहुत कठिन है कि साल के अंत में हुए इस तमाशे पर कुल कितना खर्च आया।कारण यह है कि कई एजेंसियों ने अपनी -अपनी तरह से इस पर खर्च उठाया।
उदाहरण के लिए खाने की व्यवस्था, मनोरंजन, पर्यटन और जल संबंधी खेलों  के विकास संगठन स्पोर्टस की ओर से की गई थी।
यह लक्ष्यद्वीप प्रशासन का एक विभाग है।
छुट्टियों के दौरान इस संगठन के दो बावर्चियों समेत पांच कर्मचारी वहां मौजूद रहे।
लेकिन भोजन के निर्धारण और पकाने का निरीक्षण दिल्ली से आए प्रधान मंत्री के निजी रसोइए ने किया।
   दिल्ली से ही तरह -तरह की शराब मंगाई गई थी।
इस मौके के लिए अगाट्टी में खास तौर पर 100 मुर्गे-मुर्गियों का फार्म लगाया गया।चीनी और ताजा मछली के अलावा पपीते,सपोटा,केले और अमरूद की व्यवस्था की गई थी।कवाराती से  मक्खन और 100 डबल रोटियों की व्यवस्था की गई और कोचीन से चाॅकलेट ,कोल्ड ड्रिंक के 40 क्रेट, 300 बोतल मिनरल वाटर,अमूल मक्खन,काजू ,खाने की दूसरी चीजें ,20 किलो आटा,105 किलो बासमती चावल और ताजा सब्जियां कोचीन से लाई गईं।
@जारी@ 


पार्ट-4 और अंतिम
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निर्जन टापू पर निश्ंिचत पड़ाव
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स्पोर्टस के अधिकारियों का कहना है कि प्रशासन ने सभी बिल मंगवाए हैं ताकि राजीव इनका भुगतान कर सकें।
लक्ष्यद्वीप के कलेक्टर के.के.शर्मा का कहना था,‘हमने वीआईपी लोगों की छुट्टियों के लिए किसी तरह की विशेष व्यवस्था नहीं की है।और हबीबुल्ला की सफाई थी,‘मेरा काम तो प्रधान मंत्री को बस बंगारम पहुंचाना भर था।’
लेकिन इन सब दावों के बावजूद  वहां की गई 
फिजूल खर्ची साफ दिखाई दे रही थी।देश के सबसे प्रमुख युद्धपोत आईएनएस विराट का इस्तेमाल राजीव गांधी के परिवार की सवारी के तौर पर किया गया।
  इस दौरान 10 दिनों तक @विराट@अरब सागर में ही घूमता रहा।इस युद्धपोत पर होने वाला दैनिक खर्च बेहिसाब है।क्योंकि यह जहां भी जाता है, इसके साथ सुरक्षा पोतों का पूरा काफिला चलता है।
  बताया जाता है कि इस काम के लिए वहां एक पनडुब्बी भी तैनात की गई थी।इसके अलावा अगाट्टी में विशेष उपग्रह संचार संपर्क की व्यवस्था भी की गई।
  बहरहाल ,लक्ष्यद्वीप को जमकर प्रचार मिला है।स्थानीय प्रशासन को उम्मीद है कि इस कारण अब यहां पर्यटकों की संख्या में भारी वृद्धि होगी।
यह असर दिखने भी लगा है।
उदाहरण के लिए कोचीन में लक्ष्यद्वीप के पर्यटन कार्यालय का कहना था कि 8 जनवरी के दिन सामान्य से पांच गुना लोगों ने जानकारी मांगी।
   6 जनवरी के दिन जब यह पिकनिक खत्म हुई  तब 
वहां से सबसे पहले प्रियंका और उसके साथी गोवा के लिए निकले।
उनके बाद बुजुर्ग विदेशी लोग रवाना हुए।और फिर अमिताभ और उनका परिवार।
उसी दिन दोपहर 1.20 बजे राजीव ने राहुल के साथ हेलिकाॅप्टर में प्रस्थान किया।
आखिर में सोनिया अपने रिश्तेदारों के साथ मुस्कराते हुए रवाना हुई।
लेकिन यह मुस्कराहट कोचीन पहुंचते ही गायब हो गई।
लेकिन इसके ठीक विपरीत नौसैनिक हेलिकाॅप्टर से उतरते समय राजीव प्रसन्न चित्त दिखाई दे रहे थे।
  6 जनवरी के दिन अमीनी द्वीप में अपनी जन सभा में उन्होंने कहा कि ‘बहुत शानदार छुट्टियां थीं।’
बाद में उन्होंने  विकास कार्यक्रमों का मुआयना किया।इस दौरान उनके साथ छुट्टियांें का जो एक स्मृति चिन्ह था, वह एक वाटर प्रूफ घड़ी थी जिसे वे नौका चलाने और गोताखोरी के दौरान पहनते आ रहे थे।
@समाप्त @   
@इंडिया टूडे के 31 जनवरी, 1988 के अंक में प्रकाशित अनीता प्रताप की रपट @ 

बुधवार, 8 मई 2019


अनुत्तरित हैं बोफर्स सौदे के कई प्रश्न
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     -सुरेंद्र किशोर- 
अभी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राजीव गांधी का नाम लिए बिना बोफर्स तोप सौदे की चर्चा की।
इससे कांग्रेस के नेता और कुछ अन्य लोग आपे से बाहर हो गए।
लेकिन यह समझने की जरूरत है कि जब तक बोफर्स तोप सौदे को लेकर उठे प्रश्न अनुत्तरित बने रहते हैं तब तक उनसे पीछा नहीं छूटने वाला है।
  जनहित याचिका के रूप में अब भी बोफर्स का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।सी.बी.आई.ने भी इस केस को फिर से खोलने की अपील सुप्रीम कोर्ट से की थी।अदालत ने देर हो जाने के आधार पर सी.बी.आई. की याचिका को नामंजूर करते हुए कहा कि अजय अग्रवाल की लोकहित याचिका पर जब सुनवाई होगी तब आप अपना भी पक्ष रख सकते हैं।
हालांकि सी.बी.आई.ने यह तर्क भी दिया था कि बाबरी मस्जिद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने देर को ध्यान में नहीं रखते हुए आडवाणी तथा अन्य के खिलाफ फिर से सुनवाई करने का आदेश दे दिया ।  
खैर, यह सभी पक्षों के हक में होगा कि  बोफर्स सौदे से संबंधित मुकदमे को तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया जाए।
 यह बात उन लोगों के हक में अधिक होगी जो यह मानते हैं कि इस सौदे में राजीव गांधी का कोई हाथ नहीं था।
  लेकिन यह तभी हो सकेगा जब इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण सवालों के जवाब मिल जाएं।
 जब भी कोई व्यक्ति बोफर्स सौदे से राजीव गांधी या किसी अन्य का नाम जोड़ता है तो सवाल उठाया जाता है कि किसी अदालत ने राजीव गांधी को दोषी तो नहीं ठहराया है।
यह बात सही है।नहीं ठहराया है,
पर सवाल है कि क्या अदालतों को इस मामले में ंकाम करने दिया गया ? 
क्या जांच एजेंसियों को भी काम करने दिया गया ?
 सच तो यह है कि सरकार बदलते ही जांच एजेंसियों के रुख भी बदलते रहे।
क्या बोफर्स से संबंधित मुकदमे की सुनवाई लोअर कोर्ट से होते हुए अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची ? 
क्या पहुंचने दी गई ?
जब दिल्ली हाईकोर्ट ने  राजीव गांधी और अन्य आरोपितों को दोषमुक्त घोषित किया तो क्या जांच एजेंसी को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की इजाजत केंद्र सरकार ने दी ? 
नहीं दी।पूछे जाने पर तत्कालीन प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ने कहा कि ‘सरकार गैर जरूरी अपीलों में नहीं जाती।’
जिस घोटाले के पैसे दो बैंक खातांे में पाए जा चुके थे ,उस मामले को भी सरकार ने गैर जरूरी समझा। आखिर क्यों ?
   खुद भारत सरकार के आयकर अपीलीय न्यायाधीकरण ने भी 3 जनवरी 2011 को कहा कि बोफर्स तोप सौदे में ओट्टावियो क्वात्रोचि और विन चड्ढा को 41 करोड़ रुपए दलाली  दी गई थी।
ऐसी आय पर उन पर भारत में टैक्स की देनदारी बनती है।
सवाल है कि  उनसे टैक्स की वसूली क्यों नहीं हुई  ?
 बोफर्स  दलाली मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे.डी.कपूर ने 4 फरवरी 2004 को राजीव गांधी को क्लीन चीट दे दी।अदालत ने हिन्दुजा बंधुओं  को भी आरोप मुक्त कर दिया।
 सन 2009 में सी.बी.आई.ने अदालत से क्वात्रोचि के खिलाफ दायर केस को वापस करने की अनुमति मांगी।
  दिल्ली हाईकोर्ट के क्लीन चीट वाले निर्णय के खिलाफ अपील क्यों नहीं की गई जबकि  जानकारों के अनुसार हाईकोर्ट ने ठोस सबूतों को अनदेखी करते हुए वैसा जजमेंट दिया था ?
इस सवाल का जवाब अनुत्तरित है ।
  इस मामले को जरा शुरू से देखें।
24 मार्च 1986 को भारत सरकार और स्वीडन की कंपनी ए.बी.बोफर्स के बीच 1437 करोड़ रुपए का 400 हाउजर फील्ड गन खरीद के लिए अनुबंध हुआ।
  16 अप्रैल 1987 को स्वीडेन रेडियो ने यह खबर प्रसारित की कि इस सौदे में प्रमुख भारतीय नेताओं और प्रमुख रक्षा अधिकारियों को रिश्वत दी गई। 
जब यह खबर भारतीय मीडिया में जोर- शोर से छपने लगी तो केंद्र सरकार ने कहा कि इस सौदे में कोई दलाली नहीं दी गई।
एक तरफ इनकार और दूसरी तरफ सबूत पर सबूत आने लगे।
बोफर्स तथा उस समय के कुछ अन्य घोटाले लोस चुनाव के मुख्य मुद्दा बन गए।
प्रतिपक्ष हमलावर था और सरकार बचाव की मुद्रा में ।पूरा 1989 लोक सभा चुनाव बोफर्स घोटाले के मुद्दे पर लड़ा गया।गांव -गांव बोफर्स शब्द प्रचलित हो गया।लोगों ने इसे संवदेनशील मामला माना क्यांेकि
देश की रक्षा से जुड़ा था।
राजीव गांधी सत्ता से हटे।
वी.पी.सिंह प्रधान मंत्री बने।
वी.पी.सिंह सरकार के कार्यकाल में  सी.बी.आई.ने जनवरी, 1990  में इस मामले में केस दर्ज किया।
अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में सन 1999 और 2000 में आरोप पत्र दाखिल किए गए।
आरोप पत्र में राजीव गांधी का नाम 20 बार आया है।
 जब- जब कांग्रेस या कांग्रेस समर्थित सरकार बनी बोफर्स मामले की जांच में  पूरी ढिलाई हुई ।
 मुकदमे को रफादफा करने की कोशिश हुई।
 स्वीडेन की नेशनल आॅडिट ब्यूरो ने 4 जून 1987 को कह दिया था कि बोफर्स में दलाली खाई गई है।उसके बाद से सत्ताधारी नेताओं ने दोषियों को बचाने की जोरदार कोशिश शुरू कर दी।
वे किसे बचा रहे थे ? और क्यों ?
1988 में वी.पी.सिंह ने पटना की जन सभा में स्विस बैंक की लंदन शाखा के उस बैंक खाते का नंबर भी जाहिर कर दिया जिसमें दलाली के पैसे जमा थे।
फिर भी सरकार व जांच एजेंसियों ने कोई कार्रवाई नहीं की।
उल्टे बी.शंकरानंद के नेतृत्व में गठित संयुक्त संसदीय समिति 
ने कह दिया कि कोई दलाली नहीं ली गई है।
 पर सरकार बदलने पर जांच शुरू हुई तो पता चला कि वी.पी.सिंह द्वारा बताया गया खाता नंबर सही है।
1990 में ही उस खाते को जब्त करवा दिया गया था।
पर 2006 में केंद्र सरकार ने एक अफसर लंदन भेज कर उस खाते को चालू करवा दिया।जबकि उसी दिन सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश आया कि खाते को चालू नहीं किया जाएगा।
उस खाते में क्वात्रोचि के करीब 21 करोड़ रुपए थे।उसे उसने निकाल भी लिया।
बोफर्स केस में नाम आने के बाद क्वात्रोचि 1993 में भारत छोड़कर इटली भाग गया।
उसे भगाने में किसने मदद की ?
सरकार ने क्वात्रोचि को लाभ पहुंचाने के लिए ऐसा कदम क्यों उठाया ?
  इस मामले को लेकर विदेश मंत्री माधव सिंह सोलंकी को मंत्री पद से क्यों हटना पड़ा ?
पी.वी.नरसिंंह राव के प्रधान मंत्रित्वकाल में विदेश मंत्री दावोस गए थे।वे अपने साथ एक नोट  भी ले गए थे।सोलंकी ने स्विस विदेश मंत्री से आग्रह किया था कि वे जांच एजेंसी को 
सहयोग न करें क्योंकि बोफर्स केस राजनीति से प्रेरित है।यह जानकारी जब भारत आई तो देश में भारी हंगामा हुआ तो माधव सिंह सोलंकी को मंत्री पद छोड़ना पड़ा था।
सोलंकी आखिर किसे बचाना चाहते थे ? किसने उन्हें स्विस विदेश मंत्री से ऐसा कहने के लिए कहा था ?
  18 अगस्त 2016 को मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ में कहा था कि रक्षा मंत्री के रूप में मैंने बोफर्स की फाइल गायब करवा दी थी।
उन्होंने यह भी  कहा कि चूंकि बोफर्स तोप ने अच्छा काम किया ,इसलिए मैंने उस केस को आगे बढ़ाने में रूचि नहीं ली।
सवाल है कि  सी.बी.आई.ने मुलायम से क्यों नहीं पूछा  कि आपने किसके दबाव मंंे ऐसा किया ? याद रहे कि मुलायम सिंह यादव उस सरकार के मंत्री थे जो कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चल रही थी।
क्या सचमुच बोफर्स तोप  अच्छी है ?
  अच्छी तो है,पर फ्रंेच तोप सोफ्मा से बेहतर नहीं है।
सोफ्मा को भी तब भारत में बेचने की कोशिश हुई थी।
 तत्कालीन सेनाध्यक्ष ने सोफ्मा खरीदने की ही सिफारिश सरकार से की थी।
 पर सरकार बोफर्स के पक्ष में थी क्योंकि सोफ्मा कंपनी किसी को दलाली नहीं देती थी।
बोफर्स देती थी।
 बाद में उच्चस्तरीय  निदेश  पर सेनाध्यक्ष ने अपनी राय बोफर्स के पक्ष में दे दी।
सरकार में कौन थे जो बोफर्स की खरीद में पूरी रूचि ले रहे थे ?
 पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल के.सुंदरजी ने 7 फरवरी 1997 को  कहा कि इस बात में संदेह की बहुत कम गुंजाइश है कि बोफर्स तोप सौदे की दलाली को छिपाने में तत्कालीन प्रधान मंत्री कार्यालय सक्रिय था।
मुझे बताया गया कि स्वर्गीय राजीव गांधी को बचाने के लिए ऐसा किया गया।  
  सुंदरजी ने यह भी कहा कि तत्कालीन रक्षा राज्य मंत्री अरुण सिंह सरकार से इस्तीफा देने के बाद मेरे पास आए और कहा कि केवल एक व्यक्ति की खाल बचाने के लिए इस प्रकरण को छिपाया गया।
पूछे जाने पर सुंदर जी ने खोल दिया।कहा कि जाहिर है कि वे तत्कालीन प्रधान मंत्री का जिक्र कर रहे थे।
@ मेरे इस लेख का संपादित अंश 8 मई 2019 के दैनिक जागरण में प्रकाशित@





      

क्या आप किसी नेता को दिल्ली में पढ़ रहे अपने पुत्र का लोकल गार्जियन बनाना पसंद करेंगे ?
क्या आपको ऐसे नेता मिल पाएंगे ?
संभव है कि ऐसे नेता आपको मिल भी जाएं।
पर क्या कभी इस देश के मतदातागण सिर्फ वैसे ही नेता को चुनकर संसद में भेजेंगे जिसे वे अपने पुत्र का लोकल गार्जियन बनाने लायक समझते हैं ?
 यह और बात है कि वह नेता किसी का लोकल गार्जियन बनता है या नहीं।

उधार की बौद्धिकता से भारतीय कम्युनिस्टों का बुरा हाल 
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माकपा महा सचिव  सीताराम येचुरी ने कहा है कि रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों से यह साबित होता है कि हिन्दू भी हिसंक हो सकते हैं।
 येचुरी हिंसक होने और अपने बचाव में युद्ध करने में अंतर नहीं कर पाए।
 तलवार के बल पर दुनिया भर में धर्म परिवत्र्तन कराने वालों की ओर से येचुरी ने सुविधापूर्वक अपनी नजरें फेर रखी हैं।
 येचुरी को इतना भी नहीं मालूम कि रावण ने सीता का अपहरण किया था।
युद्ध उस कारण हुआ।
वह युद्ध इतना न्यायपूर्ण था कि एक ब्राह्मण रावण की हत्या के बावजूद श्रीराम को आम व खास ब्राह्मणों का आशीर्वाद मिला था।
  उधर युद्धिष्ठिर व उनके भाइयों को दुर्याेधन पांच गांव भी देने को तैयार नहीं था जबकि राजपाट में वे आधे के हकदार थे।
साथ ही द्रोपदी का चीर हरण हुआ था।
उस समय के भगवान कृष्ण पाण्डु पुत्रों के साथ थे।
 नन्दीग्राम में गरीबों की जमीन हड़पने के कारण गद्दी से उतरे कम्युनिस्टगण समकालीन इतिहास से भी तो कुछ नहीं सीखते।
भारत जैसे गरीब देश में कम्युनिस्टों के लिए बहुत संभावनाएं थीं।
 पर इस देश व समाज को समझने में विफल कम्युनिस्ट अपने अंतिम दिन गिन रहे हंै।फिर भी वे तुष्टिकरण के चक्कर में गलत -सलत बोलते जा रहे हैं।
 पिछड़ों के लिए आरक्षण की जरूरत कम्युनिस्टांे को कभी समझ में नहीं आई।यह बात भी समझ में नहीं आई कि भाजपा विरोध के नाम पर राज्यों व केंद्र में भ्रष्ट सरकारों को समर्थन करते जाओगे तो भाजपा बढ़ेगी, घटेगी नहीं ।
 हद तो तब हो गई जब हाल में केरल सी.पी.एम. के सचिव ने यह बयान दे दिया कि अमरीका,आस्ट्रेलिया और भारत चीन को घेरने में लगे हुए हैंं।
भारत को कौन -कौन देश घेरने में लगे हैं,इसकी चिंता उन्हें नहीं है।बल्कि चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया तो इन्हीं कम्युनिस्टों ने कहा कि भारत ने ही चीन पर हमला किया था।
इसी कारण कम्युनिस्ट पार्टी टूटी भी। 
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय कम्युनिस्टों की भूमिका जगजाहिर है।
 खुद चीन अपने यहां के जेहादियों से किस तरह निपट रहा है, यह भी तो यहां के कम्युनिस्ट कभी सीख लेते !
 अपनी गलत,उटपटांग  व उधार की नीतियों के कारण इस देश के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने इस देश की सर्वहारा जनता को कुछ अनजाने में, कुछ अज्ञानतावश और  व भरपूर बौद्धिक अहंकार के कारण धोखा ही तो दिया है ! उनमें से अनेक लोगों को भाजपा की शरण में जाने को भी बाध्य कर दिया।
     

मंगलवार, 7 मई 2019

     बिला जाएगा वोट बैंक
     --  सुरेंद्र किशोर --   

यदि अनिवार्य मतदान से ‘वोट  बैंक’ की विवादास्पद राजनीति की बुराइयां कम होती हंै तो इसे आजमाया जाना चाहिए।
  आस्ट्रेलिया और मैक्सिको सहित  दुनिया के 22 देशों में मतदान करना अनिवार्य है।
वहां की अनिवार्यता के तर्क व कारण कुछ और भी हो सकते हैं।पर भारत में पिछले कुछ दशकों से वोट बैंक की  राजनीति ने प्रशासन व राजनीति को जितना नुकसान पहुंचाया है,उतना किसी अन्य एक तत्व ने नहीं।
  राजनीति और प्रशासन में सत्तर के दशक से यह बीमारी घर कर गई।तब चार सामाजिक समूहों के बल पर केंद्र मे सरकार सत्ता में थी।अब तो इसने विकराल रूप धारण कर लिया है।यह राजनीति राज्यों में यह अपना खूब रंग दिखा रही है। 
 किसी राज्य में मात्र दो सामाजिक समूहों का अपना वोट बैंक बनाइए और तालमेल करके राज्य की  सत्ता पा लीजिए।
सिर्फ उन सामाजिक समूहों की जरूरतों को पूरा करते रहिए ।आप अगली बार भी चुनाव जीत सकते हैं।कमी पड़े तो इसी तरह के वोट बैंक के किसी अन्य ‘स्वामी  दल’ से चुनावी समझौता कर लीजिए।
 पूरे समाज के सम्यक विकास की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।आराम कीजिए।पैसे कमाइए।समय आने पर अगली पीढ़ी को सत्ता सौंपने कव इंतजाम कर दीजिए।
 इसी तरह के बड़े गठजोड़ों 
के जरिए केंद्र की सत्ता हासिल की ही जा सकती है।हासिल होती भी रही है।
  हाल के दशकों के अनुभव बताते हैं कि जातीय व साम्प्रदायिक वोट बैंक के सहारे सत्ता में आने वाले दलों के राज में भ्रष्टाचार और अपराध अपेक्षाकृत अधिक होते हैं।क्या इस समस्या के समाधान के लिए कोई उपाय नहीं होना चाहिए !
  इस बीच नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी 
अमिताभ कांत ने कहा है कि 
‘आस्ट्रेलिया में भी चुनाव चल रहे हैं।वहां मतदान अनिवार्य है।और ऐसा न करने पर 20 डालर का जुर्माना लगता है।
जेल भी हो सकती है।शहरी भारत में मध्य वर्ग और अमीरों की मतदान को लेकर बेरुखी को देखते हुए भारत में भी इसे आजमाया जाना चाहिए।’
  यदि सचमुच कभी अमिताभ कांत की बातों पर गौर किया गया और यहां भी मतदान अनिवार्य हो गया तो जातीय -साम्प्रदायिक वोट बैंक के आधार पर राजनीति करने वाले कुछ दलों  की खटिया खड़ी हो सकती है।कई दुकानें बंद हो सकती हैं।
  कोई भी सामाजिक वोट बैंक 10 से 20 प्रतिशत तक की आबादी का  ही होता  है।
  यदि 90 प्रतिशत  वोट पड़ने लगेंगे तो वोट बैंक के दायरे वाले 10-20  प्रतिशत वोट उस 90 प्रतिशत में बिला जाएंगे।महत्वहीन हो जाएंगे।चुनाव नतीजोें को शायद ही प्रभावित कर सकें।
 आस्टे्रलिया में मतदान करना अनिवार्य है।फिर भी वहां औसतन 90 प्रतिशत ही मतदान हो पाता है।सौ प्रतिशत नहीं।
  हमारे यहां अभी अनिवार्य नहीं है।फिर भी लोक सभा के मौजूदा चुनाव के पहले फेज में  त्रिपुरा में 81 दशमलव 8 प्रतिशत मतदान हुए।यानी लगभग 82 प्रतिशत।आस्ट्रेलिया से सिर्फ आठ  प्रतिशत कम।
इस बार पश्चिम बंगाल में भी उस फेज में 81 प्रतिशत वोट पड़े हैं।
 अन्य राज्यों में मतदान का प्रतिशत जरूर अभी काफी कम है।
पर अनिवार्य करने पर वहां भी 90 प्रतिशत पहुंच ही सकता है।
  जब अधिक लोग मतदान करने लगेंेगे तो आम राजनीतिक दल व नेता भी मतदाताओं के प्रति उदासीन नहीं रह पाएंगे।
 उधर  जातीय -साम्प्रदायिक वोट बैंक के किले में सुरक्षित रहने वाले दल व उनके नेता भी नींद से जगेंगे।
 उन्हें अपनी पुरानी राजनीतिक शैली को बदलने के बारे में सोचना पड़ेगा।अन्यथा समय के साथ वे विलोपित हो जाएंगे। 
यह छिपी हुई बात नहीं है कि जातीय और साम्प्रदायिक वोट बैंक के किले में सुरक्षित दलों व नेताओं के शासन काल में  भ्रष्टाचार और अपराध कुछ अधिक ही होते हैं।वे यह समझते हैं कि हमारी सारी गलतियों को हमारा वोट बैंक नजरअंदाज  कर देगा।
  जो दल जातीय-साम्प्रदायिक वोट बैंक पर कम निर्भर हैं,उनके समक्ष  विकास -कल्याण कार्यक्रमों को करने की मजबूरी रहती है।उन्हें काम पर ही वोट मिलते हैं,भावना पर नहीं। 
   वोट बैंक वाले दल हर चुनाव में अपने खास मतदाताओं के सामने एक काल्पनिक भय दिखा कर उन्हें अपने साथ बांधे रखते हैं। 
कोई नेता कहता है कि हमारी जाति को उचित सम्मान नहीं मिल रहा है।इस काम में फलां दल या जाति बाधक है।इसलिए उन्हें हराना है।
कोई दूसरा नेता कहता है कि हमारे आरक्षण पर खतरा है।कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ अन्य बात।
सारी बातें मंच से ही नहीं कही जाती।
कई बातें कानोंकान सफर कराई जाती है।
   कई साल पहले कतिपय भाजपा नेताओं ने यह संकेत दिया था कि हम मतदान अनिवार्य  कर सकते हैं।
यदि नरेंद्र मोदी की सरकार अगली बार भी सत्ता में आ गई तो वह अमिताभ कांत के सुझाव पर विचार कर सकती है।क्या भाजपा नेताओं की मंशा को भांप कर ही अमिताभ कांत ने लिखा है कि आस्टे्रलिया की तरह भारत में भी आजमाया जा सकता है ? पता नहीं।
  पर यदि कोई सरकार इसे कार्य रूप दे दे तो वह काम व्यापक जनहित में होगा।
   दुनिया के कुछ देशों में  मतदान नहीं करने पर सजा का प्रावधान है।
   भारत में वह कुछ ज्यादा ही हो जाएगा।इसलिए यहां की सजा यही हो सकती है कि कुछ समय के लिए कतिपय सरकारी सुविधाएं रोक दी जाए जो मतदान करने न जाएं।
इसका सकारात्मक असर होगा।धीरे -धीरे लोगों को आदत लग जाएगी।
   वोट बैंक की ताकत के बल पर अभी अनेक चुनाव क्षेत्रों में बाहुबली और धनवान उम्मीदवार आसानी से चुनाव जीत जाते हैं।यदि अनिवार्य मतदान के कारण ऐसे उम्मीदवार हारने लगेंगे तो अनिवार्य मतदान की कठोरता भी लोगों को बुरा नहीं लगेगी।
   आज तो औसतन  60-70  प्रतिशत मतदाता ही इस देश में मतदान करते हैं और मतों के भारी बंटवारे के कारण 20 -25 प्रतिशत या उससे भी कम मत पाने वाले उम्मीदवार भी कई बार चुनाव जीत जाते हैं।कुछ दफा  तो ऐसा भी होता है कि जिस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है,वह भी चुन लिया जाता है।
    यदि अस्सी -नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान करने लगे तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंकों के सौदागर अत्यंत कम वोट पाकर  चुनाव नहीं जीत पाएंगे।भारत में आम तौर पर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी धार्मिक या जातीय समूह  की आबादी 20-25  प्रतिशत से अधिक नहीं है।अपवादस्वरूप कुछ ही क्षेत्र ऐसे हैं जहां बात इसके विपरीत है।
   यदि कोई जातीय या धार्मिक समूह अधिकतर चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं होंगे तो नेतागण भी सिर्फ सांप्रदायिक या जातीय आधार
पर ही अपनी पूरी राजनीति और रणनीति तय नहीं करेंगे।
इससे देश का भी भला होगा।
  जातीय व साम्प्रदायिक वोट बैंक की एक बड़ी बुराई हाल के वर्षों से  सामने आई है।
 आज तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक की खातिर कई नेता व दल इस देश को तोड़ने व कमजोर करने वाली शक्तियों को भी ताकत पहुंचाने से बाज नहीं आ रही हैं। यह अधिक खतरनाक स्थिति है।
@4 मई, 2019 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित@

बुधवार, 1 मई 2019

पटना में गंगा नदी पर गांधी सेतु का शिलान्यास जिस दिन हुआ,उसी दिन राहुल गांधी का जन्म हुआ था।
शिलान्यास समारोह में मंच पर ही प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी 
को यह खुशखबरी दी गई थी।
  पर एक और संयोग देखिए।
 बाद के वर्षों में गांधी सेतु की ठीक से देखभाल नहीं होने के कारण दस साल में ही वह जर्जर हो गया।
उसी तरह लगता है कि राहुल गांधी की भी ठीक देखभाल नहीं हुई।
  गांधी सेतु की तो इन दिनों भारी मरम्मत हो रही है।पूरा सुपर स्ट्रक्चर बदला जा रहा है।
यदि किसी व्यक्ति में कुछ कमी रह गई हो तो उसमें सुधार के लिए क्या किया जाए ?
 आज सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को फटकारा है।
क्या सुधार की दिशा मंे इस फटकार का कोई असर पड़ेगा ?
पता नहीं।
जरूरत तो हेवी मरम्मत की रही है,पर वंशवादी राजनीति में 
भला किसी राजकुमार में बेहतर गुण विकसित करने की कोशिश करने का जोखिम कौन उठाए ! ?


इस भीषण गर्मी में भी अधिकतर छोटे- बड़े नेता लोग निरंतर प्रचार कार्य में लगे हुए हैं।
  मंच पर कभी  बेहोश हो जाने के बाद भी फिर काम
में लग जा रहे हैं।अस्पताल में शायद ही कोई भर्ती हो रहा रहा है।कोई थकावट नहीं,कोई बीमारी नहीं।
 इन्हीं नेताओं में से कुछ के खिलाफ यदाकदा मुकदमे चलते रहते हैं।ये लोग जेल भी जाते हैं।
पर जेल क्या जाएंगे,गिरफ्तार होते ही अधिकतर नेता अस्पतालों में भर्ती हो जाते हैं।

यदि बिहार के आरा में इस बार भी आर.के.सिंह जैसे ‘अ-राजनीतिक’ और ईमानदार उम्मीदवार जीत गए तो मेरी समझ से दो बातें मानी जाएंगी।
  पहली बात तो यह कि इस बार भी जबर्दस्त मोदी लहर चली ।
साथ ही, यह भी माना जाएगा कि दलाल, भ्रष्ट और इस तरह के कुछ अन्य तत्व इतने अधिक प्रभावकारी नहीं रहे जो ‘मोदी लहर’ को भी काट सकें।