रविवार, 11 अक्तूबर 2009

नेहरू परिवार बनाम शास्त्री परिवार

सरकार के आश्वासन के बावजूद लाल बहादुर शास्त्री की विधवा ललिता शास्त्री को इलाहाबाद में कोई भूखंड नहीं मिल सका। इलाहाबाद में ललिता शास्त्री की एक छोटे घर की आस भी पूरी नहीं हो सकी। यह आस लिए वे 1993 में वे सिधार गईं।
पर दूसरी ओर नेहरू -इंदिरा परिवार के सिर्फ एक सदस्य राहुल गांधी की घोषित संपत्ति की एक हल्की झलक देखिए। उन्होंने गत लोस चुनाव में नामांकन पत्र दाखिल करते समय यह विवरण पेश किया था। याद रहे कि यहां सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी की घोषित संपत्ति का विवरण नहीं दिया जा रहा है न ही मेनका गांधी और वरुण गांधी की संपत्ति अभी यहां बताई जा रही है।
राहुल गांधी की नई दिल्ली के साकेत में एक माॅल मंे दो दुकानें हंै जिनकी कीमत क्रमशः एक करोड़ आठ लाख और 55 लाख 80 हजार रुपये हैं। फरीदाबाद में एक फार्म हाउस है जिसकी कीमत 18 लाख 22 हजार रुपये है। सुलतान गंज और मेहरौली में स्थित संपत्ति की कीमत 9 लाख 86 हजार रुपये है। इंदिरा गांधी फार्म हाउस में भी उनका हिस्सा है।
इसके अलावा भी उनके पास संपत्ति है। बीमा है, बचत है और आभूषण भी है। उनकी संपत्ति की एक झलक इस तथ्य से भी मिलती है कि उन्होंने गत वित्तीय वर्ष में करीब 11 लाख 20 हजार रुपये आयकर दिया। उन्होंने करीब 5 लाख 32 हजार रुपये सेवा कर और और 97,115 रुपये संपत्ति कर के रूप में जमा कराया।
नेहरू परिवार ने आजादी की लड़ाई के दौरान इलाहाबाद का अपना आनंद भवन जरूर कांग्रेस को दे दिया था। शास्त्री जी के पास ऐसा कुछ देने के लिए था ही नहीं। शास्त्री और नेहरू के बीच यह फर्क जरूर रहा। याद रहे कि करीब 62 साल की आजादी के बाद भी इस देश के 84 करोड़ लोगों की रोज की औसत आय मात्र बीस रुपये ही है। गत 62 साल में से कितने साल नेहरू-इंदिरा परिवार ने इस देश पर प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से शासन किया, इसकी गणना आप खुद कर लीजिए। आज यदि माओवादी देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं तो विशेषज्ञों के अनुसार उसका सबसे बड़ा कारण गरीबी ही है।
दलित और राहुल
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी इन दिनों दलित बस्तियों में जा रहे हैं। अपने आप में यह कोई गलत काम नहीं है। इस बात की कुछ लोग सराहना कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे हैं।
पर क्या दलितों के लिए इतना ही काफी है ? क्या यह सिर्फ प्रतीकवाद नहीं है ? इससे दलितों को अंततः क्या मिलने वाला है ? उनके जीवन में कितना फर्क आने वाला है ? बेहतर तो यह होता कि राहुल गांधी दलितों के यहां खुद पहंुच जाने से पहले उनके यहां वे सरकारी धन भिजवाने का समुचित प्रबंध करवाते जो धन बिचैलिये खा जाते हैं।
उनके पिता राजीव गांधी ने सन् 1984 में ही कहा था कि दिल्ली से गरीबों के लिए जो सौ पैसे चलते हैं, उनमें से 15 पैसे ही उन तक पहुंच पाते हैं। यानी बाकी के 85 पैसे बिचैलिये ही खा जाते हैं। वे बिचैलिये कौन हैं, यह बात सब जानते हैं। राहुल गांधी भी आज 25 साल बाद यही बात दुहराते फिर रहे हैं। पर सिर्फ कहने से क्या होगा ? ऐसी स्थिति को कौन बदलेगा ? राहुल गांधी चाहें तो इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं जिस तरह उन्होंने बुंदेलखंड के लिए हाल में सफल पहल की है।
राहुल और बुंदेलखंड
बुंदेलखंड की गरीबी से पसीज कर राहुल गांधी ने 28 जुलाई, 2009 को प्रधानमंत्री मनमोेहन सिंह से भेंट की। मनमोहन सिंह पहले ही सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि ‘राहुल गांधी देश के भविष्य हैं।’ फिर क्या था, इस मुलाकात के दो महीने के भीतर ही केंद्र सरकार ने बुंदेलखंड में 4000 मेगावाट के पावर प्लांट लगाने की योजना को मंजूरी दे दी। बुंदेलखंड विकास प्राधिकार का गठन किया जा रहा है और वहां के विकास के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बन रही है। इस से यह साबित होता है कि राहुल गांधी की केंद्र सरकार पर कितनी अधिक पकड़ है और वे चाहें तो और भी अनेक ऐसे काम हो सकते हैं। पर सवाल है कि क्या राहुल गांधी को देश की मूल समस्या की समझ भी है ? क्या वे अब तक यह बात समझ पाए हैं कि मूल समस्या भीषण सरकारी भ्रष्टाचार ही है ?
याद रहे कि हाल के लोकसभा चुनाव में चुनाव प्रचार के लिए कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी को जो भारी धनराशि भेजी थी, उसमें से तीन करोड़ रुपये का कोई हिसाब ही नहीं मिल रहा है। इस आरोप में राज्य कांग्रेस के कोषाध्यक्ष दीपक गुप्त को उनके पद से हटा दिया गया है। हालांकि वे खुद को निर्दोष बता रहे हैं। इस घोटाले से भी राहुल की आंखें खुलनी चाहिए। अब सवाल है कि जो पैसे बुंदेलखंड के विकास के लिए दिल्ली से जाएंगे, उनमें से कितने पैसे अफसर, ठेकेदार और नेतागण गरीब जनता के लाभ के लिए खर्च होने देंगे ? वे पैसे वास्तव में गरीबों के विकास व कल्याण पर ही खर्च हांे, पहले तो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। उसके बाद ही राहुल गांधी या किसी अन्य नेता को दलितों केा अपना मुंह दिखाने उनके घर जाना चाहिए।
भ्रष्टाचार पर गौर करें राहुल
गरीब जनता तक सौ में से 15 पैसे ही इसलिए पहुंच पा रहे हैं क्योंकि पूरे देश में फैली उच्चस्तरीय ब्यूरोक्रेसी का अधिकांश भी अब भ्रष्ट हो चुका है। हिंदी प्रदेशों की हालत इस मामले में और भी खराब है। अधिकतर राजनीतिक कार्यपालिकाएं तो पहले से ही भ्रष्ट हो चुकी हंै। चूंकि बड़े भ्रष्ट सरकारी अफसरों को सजा देने की प्रक्रिया काफी जटिल बना कर रखी गई है, इसलिए उनका अंततः आम तौर पर कुछ नहीं बिगड़ता। इसलिए वे एक कांड में रिश्वत लेते पकड़े जाने के बावजूद जल्दी ही येन केन प्रकारेण कानून की गिरत फ्त से छूट जाते हैं और दुबारा जनता के धन की लूटपाट में कुछ नेताओं से मिलकर वीरप्पन की तरह लग जाते हैं।
यदि ऐसे भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ दर्ज भ्रष्टाचार के मामलों की त्वरित अदालतों के जरिए सुनवाई हो और सुनवाई के दौरान उनकी भ्रष्टाचार से कमाई गई भारी निजी संपत्ति त्त को जब्त करने का कानूनी प्रावधान हो जाए तो वे लूट नहीं पाएंगे। और फिर गरीबों, पिछड़ों, दलितों व अन्य जरूरतमंद लोगों के पास सौ में से पंद्रह की जगह 85 पैसे पहुंच सकेंगे। यदि उसके बाद ही राहुल गंांधी दलितों की बस्ती में जाएंगे तो वे उनके चेहरों पर वास्तविक खुशी देखेंगे।
बिहार विधान मंडल ने भ्रष्ट लोक सेवकों की संपत्ति जब्त करने और उनके मामलों की सुनवाई त्वरित अदालतों के जरिए करवाने के लिए एक विधेयक मार्च में ही पास करके राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए केंद्र सरकार को भिजवा दिया है। पर लगता है कि भ्रष्ट लोग उस पर राष्ट्रपति की मंजूरी नहींे लेने दे रहे हैं। बुंदेलखंड की तरह राहुल गांधी अपने प्रभाव का उपयोग करके पहले तो बिहार विधेयक को मंजूरी दिलवाएं और बाद में ऐसा ही कानून पूरे देश के लिए बनवाएं तो दलितों तक पैसे जरूर पहुंच जाएंगे। अन्यथा एक तरफ राहुल दलित की झोपड़ी से निकलेंगे और दूसरी ओर माओवादी उस झोपड़ी में जाकर अपनी जगह बना लेंगे।
भ्रष्टाचार पर उपन्यास
भ्रष्टाचार की समस्या पर रमेश चंद्र सिन्हा का उपन्यास आया है जिसमें कुछ जगबीती है तो कुछ आपबीती हैं। उपन्यास का नाम है ‘अभय कथा।’ जिस समस्या से यह देश व प्रदेश सर्वाधिक पीड़ित रहा है, उस पर कोई उपन्यास आए तो वह स्वागतयोग्य है। अब तो भ्रष्टाचार पर चर्चा भी करने वालों का, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा प्रभु वर्ग, आज मजाक ही उड़ाता है।
‘अभय कथा’ के लेखक ने आजादी से पहले और उसके बाद के भारतीय समाज में घटित बदलावों का तलस्पर्शी अध्ययन प्रस्तुत किया है। उपन्यास में भ्रष्टाचार के विविध आयामों को गहराई से देखने- परखने की कोशिश की गई है। लेखक पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेजी प्रोफेसर रह चुके हैं।
और अंत में
बार -बार इस देश में एक सवाल पूछा जाता है कि चीन कैसे आगे बढ़ गया और हमारा देश क्यों पीछे रह गया ? इसका एकमात्र सही जवाब यही है कि चीन ने सरकारी खजाने के लुटेरों के लिए फांसी का प्रावधान किया और दूसरी ओर हमारे देश में जिस नेता या अफसर ने जितना अधिक सार्वजनिक धन लूटा, वह उतने ही अधिक ऊंचे पद पर पहुंचने के लायक समझा गया।
साभार प्रभात खबर

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

ऐसे विफल कर दी गई एक गांधीवादी की भूमि सुधार योजना

जय प्रकाश नारायण का सपना था कि कोशी क्षेत्र में माॅडल भूमि सुधार कार्यक्रम चलाया जाए। यह सन 1978 की बात है। तब कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी। स्वाभाविक ही था कि कर्पूरी ठाकुर इस काम के लिए तत्काल राजी हो जाएं। इस काम के लिए गांधी शांति प्रतिष्ठान से गांधीवादी बी।जी. वर्गीस पटना आये थे।

इस भूमि सुधार कार्यक्रम के तहत भूमि समस्याग्रस्त पूर्णिया जिले के पांच प्रखंडों में भूमि के रिकाॅर्ड को अद्यतन करना था। हदबंदी से फालतू घोषित जमीन का अधिग्रहण व भूमिहीनों में उनका वितरण करना था। साथ ही बटाईदारों के अधिकारों को स्वीकृति दिलानी थी। फिर उन चुने हुए पांच प्रखंडों के सर्वांगीण विकास का काम करना था। इसका नाम दिया गया कोशी क्रांति योजना।

इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए जेपी की सलाह पर बिहार सरकार ने तत्काल अलग से एक सरकारी कोषांग का गठन भी कर दिया और उसमें एक उपायुक्त व कई स्तरों के 119 अन्य लोक सेवक तैनात कर दिये गये। पर जैसे ही बनमनखी, भवानीपुर, बरहरा कोठी, धमदाहा और रुपौली में इस काम की शुरुआत करने की प्रक्रिया शुरू हुई कि भूस्वामियों और सामंती प्रवत्ति के लोगों व उनके संरक्षक नेताओं ने तगड़ा विरोध शुरू कर दिया। उस इलाके के सत्ताधारी जनता पार्टी के अनेक दबंग जन प्रतिनिधियों ने कर्पूरी सरकार के खिलाफ हल्ला बोल दिया। पटना में भी गोलबंदी शुरू हो गई। कर्पूरी सरकार के गिरने की नौबत आ गई। कर्पूरी ठाकुर दबाव में आ गए। जेपी मन मसोस कर रह गये। और बी।जी. वर्गीस अपनी आंखों में आंसू लिए दिल्ली लौट गये। कोशी क्रांति योजना निष्क्रिय हो गई।

भूमिपतियों का दबाव इतना बढ़ा कि इस संबंध में वर्गीस ने जो लम्बा लेख लिखा था, उसकी एक ही किस्त एक अखबार में छप सकी। दूसरी किस्त छापने की हिम्मत उस अखबार ने भी नहीं की। इस प्रकरण ने यह बात साबित कर दी कि बिहार में भूमि संबंधों को बदलने का मुद्दा कितना नाजुक है और यह काम कितना कठिन है।

अब उस कोशी क्रांति योजना के बारे में प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया द्वारा 2 अप्रैल, 1981 को जारी एक खबर का एक हिस्सा पढ़िए, ‘पूर्णिया, 2 अप्रैल (प्रे)। पूर्णिया जिले के पांच प्रखंडों में तीन वर्ष पूर्व शुरू की गई कोशी क्रांति योजना भूस्वामियों और भूमिहीनों के बीच सीधा टकराव उत्पन्न कर अपने ही भार से दबी जा रही है।

यहां अधिकारियों ने स्वीकार किया कि इस योजना की सफलता की उम्मीद नगण्य है। क्योंकि राजनीतिक संरक्षणप्राप्त कुछ भूस्वामी इस योजना के प्रत्येक स्तर पर अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं। स्थानीय नेताओं ने चेतावनी दी है कि यदि भूमि सुधार के काम बंद नहीं किए गए तो परसबिगहा कांड की पुनरावत्ति हो सकती है। याद रहे कि मध्य बिहार के परसबिगहा में एक जमीन विवाद के चलते कई लोगों को उनके घर में बाहर से बंद कर उन्हें जिंदा जला दिया गया था।

प्रेस ट्रस्ट के अनुसार गांधी शांति प्रतिष्ठान के श्री बीजी।वर्गीस की कोशी क्रांति योजना को तत्कालीन जनता पार्टी सरकार ने 1978 में पूर्णिया जिले में माडल भूमि सुधार कार्यक्रम के रूप में शुरू किया था। भूमि सुधार के उपायुक्त के अनुसार दोषपूर्ण भूमि पद्धति और उपज में हिस्सा बंटाने की शोषणात्मक प्रवृत्ति आदि को देखते हुए इस योजना की आवश्यकता महसूस की गई थी। एक अधिकारी के अनुसार दो वर्षों में कार्य का केवल पहला भाग ही पूरा किया जा सका। अधिकारी ने प्रेस ट्रस्ट से बातचीत में यह स्वीकार किया कि इस गति से समस्या के समाधान में एक दशक लग जाएगा। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार पूर्णिया जिले में लगभग 10 हजार ऐसे भूस्वामी हैं जिनके पास एक सौ एकड़ से अधिक भूमि है। इस क्षेत्र की भूमि समस्या 50 साल पुरानी है। उस समय यह पूरा क्षेत्र घना जंगल था।’

कोशी क्रांति योजना ही नहीं, बाद के वर्षों में भी जब -जब भूमि सुधार की कोशिश हुई, भूस्वामियों ने तगड़ा विरोध कर दिया। दरअसल रोजगार के अन्य साधन विकसित नहीं होने के कारण भी भूस्वामी अपनी जमीन के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए हैं और वे अपनी जमीन पर उनके स्वामित्व के मामले में किसी तरह के हल्के खतरे का भी पूरी जी-जान से विरोध कर देते हैं। आजादी के बाद राज्य का आम विकास हुआ होता तो जमीन मोह कम होता। पर सरकारी भ्रष्टाचार के कारण विकास नहीं हुआ।

इसी तरह 1992 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भूमि सुधार खास कर बंटाईदार कानून को सख्त करने की कोशिश की तो उनके ही वोट बैंक के तबके से भी इसका तगड़ा विरोध हो गया। भारी दबाव के बीच तब ही लालू प्रसाद ने कह दिया था कि मैं बर्र के छत्ते में हाथ नहीं डालूंगा। भ्ूमि सुधार के प्रति अपनी 1992 की नीति पर लालू प्रसाद तब तक कायम रहे जबतक वे और राबड़ी देवी सत्ता में थे।

(प्रभात खबर: 2 अक्तूबर, 2009 से साभार)