मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

   गिरिराज सिंह का बयान अनावश्यक
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‘तीन हाथ कब्र‘ को लेकर गिरिराज सिंह का हाल का बयान 
न सिर्फ आपत्तिजनक है,बल्कि अनावश्यक भी है।
अल्पसंख्यकों के बीच के अतिवादियों को जवाब देने तथा समाज में ध्रुवीकरण करके उसका राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ऐसे बयान दिए जाते हैं।ऐसे बयान दोनों पक्षों के लोग यदाकदा देते रहते हैं।
कुछ लोग इसे पसंद भी करते हैं।
  पर, शायद गिरिराज सिंह को  सरजमीन की हकीकत का पता नहीं है।
मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक और आम लोगों के लिए आर्थिक लाभ के काम करके अन्य तरह का ध्रुवीकरण पहले ही करा दिया है।
उसका चुनावी लाभ गिरिराज सिंह को भी मिलेगा।उसके लिए खुद गिरिराज सिंह  को कोई मानसिक कसरत करने की जरूरत नहीं है।
   यदि कोई समुदाय सिर्फ खुदा की ही बंदगी करना चाहता है तो उसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए।
जब तक राष्ट्र की सुरक्षा के खिलाफ कोई व्यक्ति कुछ नहीं करता है तब तक वह 
इस देश का सम्मानित नागरिक है जैसा अन्य लोग हैं।
  सर्जिकल स्ट्राइक से भी कोई धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण नहीं हुआ है।हालांकि इसकी कोशिश मोदी विरोधियों ने परोक्ष रूप से खूब की है।
  सर्जिकल स्ट्राइक से उसी तरह की खुशी देशवासियों में है जिस तरह की खुशी लोगों को 1965 और 1971 के युद्ध में विजय के बाद मिली है।तब तो किसी ने यह नहीं कहा कि उस समय की सरकारें ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की ओर बढ़ रही है।
राजग खास कर मोदी को सर्जिकल स्ट्राइक का चुनावी लाभ मिलना ही मिलना है।उस पर सवाल उठाकर प्रतिपक्ष ने मोदी के लाभ में इजाफा ही कर दिया है।
   बिहार के गांवों में मिल रही जानकारियों के अनुसार मोदी सरकार के कुछ आर्थिक कदमों से वैसे अल्पसंख्यक भी खुश हैं जो सदियों से हिन्दुओं के साथ भाई -भाई की तरह रहते आए हैं।
हां, कुछ मुल्लाआंे और जो लोग उनके प्रभाव में हैं उनकी बात अलग है।
 ऐसे में गिरिराज सिंह के ताजा बयान की कोई जरूरत नहीं थी।
हर वर्ग के लोग बिजली, गैस, किसान सम्मान योजना तथा इस तरह के अन्य कल्याणकारी कामों से खुश हैं।
 सबसे बड़ी बात कि पैसे सीधे लोगों के बैंक खातों  में आ रहे हैं।
 जो लोग राजग को वोट नहीं भी देंगे,वे लोग भी आम तौर पर इस चुनाव में  तनाव पैदा नहीं कर रहे हैं।पहले के चुनावों में तनाव रहता था।
उन आर्थिक लाभों से वे मुलायम हो गए हैं।ऐसे में देश के भले में यह बात होगी कि गिरिराज सिंह जैसे नेता खुद पर संयम रखें। 
उनके राजनीतिक विरोधी जो कर रहे हैं,उसका खामियाजा वे भुगतेंगे ही।सत्ताधारी दल की जिम्मेदारी अधिक होती है।

एक संपादक जिसके लिए पद्मभूषण निरर्थक था
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महान पत्रकार दिवंगत एम.चेलापति राव के संबंध में एक प्रसंग पढ़कर मुझे पत्रकार होने पर गर्व हुआ।
यह प्रसंग 1969 में छपा था।संपादक राव ने यह कहते हुए पद्मभूषण लौटा दिया था कि पदकों -उपाधियों से पत्रकारों को मुक्त रखा जाना चाहिए।
चेलापति राव @ 1910-1983@नेशनल हेराल्ड के 30 साल तक संपादक थे।उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं।
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त्वदीय वस्तु गोविंदम्
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‘पत्रकार को अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए अस्पष्ट विशिष्टता से भी दूर रहना चाहिए।’
  यह विचार ‘नेशनल हेराल्ड’ के संपादक श्री चेलापति राव ने 
पद्म भूषण की अपनी सनद और पदक सरकार को वापस करते हुए व्यक्त किया है।
   पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर 1967 की उपाधि वितरण सूची के अनुसार श्री चेलापति राव को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।
उन्होंने यह सम्मान वापिस करते हुए राष्ट्रपति के सचिव के नाम अपने  संक्षिप्त पत्र में  इच्छा व्यक्त की है कि वर्गीकृत विशिष्टता के बजाय वह अविशिष्ट ही रहना पसंद   
करेंगे।
अपने पत्र में उन्होंने लिखा है,‘मैं पद्मभूषण सनद और पदक वापिस कर रहा हूं जो मुझे 1968 के गणराज्य उपाधि वितरण के अवसर पर प्रदान किये गये थे।
1967 में मैं इस सम्मान को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर चुका था।
लेकिन फिर मुझसे कहा गया कि और 1968 में मैं अपने आप को इसके लिए राजी भी कर सका।
पर तब से मुझे अपने इस निश्चय पर बराबर पश्चाताप रहा।
    मैं उस विशिष्टता को ढोते रहना नहीं चाहता जो मेरे लिए निरर्थक है।इसमें तो संदेह नहीं कि बहुत योग्य और ईमानदार लोग ही इस सम्मान के लिए व्यक्तियों का चुनाव करते होंगे।
 पर इस माध्यम से विशिष्टता लादने का प्रयास तो इसमें रहता ही है। सम्मान वापिस करने में मेरा अवज्ञा भाव बिलकुल नहीं है।मैं सिद्धांत के लिए ही यह सब कर रहा हूं।
स्तर और मान्यता का कोई सिद्धांत तो होना ही चाहिए। 
   श्री चेलापति राव ने इस वर्ष के गणराज्य दिवस के दो दिन बाद ही पदक और उपाधियों पर अपने पत्र में जो संपादकीय लिखा था उससे इस प्रथा के प्रति उनके विचारों का स्पष्ट आभास मिलता था।
उनका विचार था कि पदक और उपाधि हर देश में आवश्यक होती है।समाजवादी देशों में भी सैनिक और असैनिक क्षेत्रों में विशिष्टता के लिए पदक और उपाधियां प्रदान की जाती हैं।पर हमारे देश में ये उपाधियां और पदक विभिन्न स्तरों पर विशिष्टता को जन्म दे रहे हैं और खान बहादुरों और राय बहादुरों जैसा एक वर्ग बन रहा है।
जो उपाधियां और पदक प्रेरणा और उत्साह का स्त्रोत न हो उन्हें देने की प्रथा रखने से ही क्या लाभ ?
गुणों की परख जहां जल्दबाज मंत्रियों और उनके सचिवों तथा हां में हां मिलाने वालों पर छोड़ दी जाए , वहां परख का कोई महत्व ही नहीं रहता।
इन उपाधियों और पदकों से सरकार जो अपनी अस्पष्ट कृपा बिखेरती है ,कम से कम पत्रकारों को तो उससे मुक्त रखा जाना चाहिए।
  @दिनमान-16 फरवरी 1969@


इलेक्शन रेफरेंस
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जेपी की धमकी के बाद 
एकजुट हो गए चार दल
   --सुरेंद्र किशोर--
 आपातकाल की जेल यातना सहने के बावजूद कुछ प्रतिपक्षी दल एकजुट होने को तैयार नहीं थे।
  18 जनवरी 1977 को प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने जब अचानक नए चुनाव की घोषणा कर दी तो प्रतिपक्षी दल चुनाव की अधूरी तैयारी को लेकर चिंतित हो गए।
जयप्रकाश नारायण ने  कहा कि आप सब मिलकर एक दल बना लीजिए।
इस पर कुछ प्रतिपक्षी नेता आनाकानी करने लगे।
  जेपी ने कह दिया कि तो फिर अब आंदोलन की नई पार्टी बनेगी।
तुरंत गैर कांग्रेसी दल रास्ते पर आ गए।
उन्होंने  सप्ताह के भीतर मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में जनता पार्टी बना ली।
 जल्दीबाजी में चूंकि चुनाव चिन्ह  नहीं मिल सकता था,इसलिए जनता पार्टी ने भारतीय लोक दल के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा।
23 जनवरी, 1977 से नई पार्टी ने काम करना शुरू कर दिया।
भारतीय जनसंघ,संगठन कांग्रेस,भारतीय लोकदल और सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर जनता पार्टी बनी थी।
इस पार्टी में चंद्र शेखर  जैसे पूर्व कांग्रेसी नेता
भी शामिल हुए जिन्हें जेपी का साथ देने के कारण इमरजेंसी में जेल जाना पड़ा था।
  यानी, इमरजेंसी वाली सरकार का मुकाबला करने के लिए तो उन दिनों चार-चार  दलों ने  आपस में विलयन कर लिया,पर आज जो नेता अघोषित इमरजेंसी लगाने का मोदी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं,वे सही ढंग से आपस में चुनावी तालमेल भी करने को तैयार नहीं हुए ।व्यक्तिगत  महत्वाकांक्षा जो न कराए !
  1977 में तत्कालीन सरकार के खिलाफ लोगों में जिस तरह का गुस्सा था,वैसा गुस्सा आज नहीं है।साथ ही, प्रतिपक्ष के पास  जेपी जैसा नेता भी नहीं है।इसीलिए  प्रतिपक्ष बिखरा- बिखरा है।
2019 के लोक सभा चुनाव का नतीजा जो भी हो,पर 1977 के लोक सभा चुनाव के बाद तो पहली बार कांग्रेस से केंद्र की सत्ता छिन गई थी।
@दैनिक भास्कर-पटना-22 अप्रैल 2019@ 

सोमवार, 29 अप्रैल 2019

राजनीति में अपराधियों के प्रवेश की भी पृष्ठभूमि है।
देश में औसतन सिर्फ 46 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजाएं हो पाती हैं।
कई राज्यों में सजा का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से भी काफी कम है।
यानी, वहां अपराधियों का एक गिरोह समाज के एक हिस्से को और दूसरा गिरोह दूसरे हिस्से को न्याय दिलाता है या रक्षा करता है।
भले यह अधूरा न्याय है,पर कुछ तो है।
नतीजतन,ऐसे अपराधी अपने -अपने समाज के हीरो बन रहे हैं।वे चुनाव लड़ते हैं।कुछ जीत भी जाते हैं।सिद्धांत-निष्ठा और कत्र्तव्यविहीन होते राजनीतिक दलों के लिए आसान हो गया है कि ऐसे अपराधियों को टिकट देकर जीत के लिए निश्चिंत हो जाया जाए।
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--- कौन रोक पाएगा राजनीति में अपराधियों व धनबलियों को ?  
   --सुरेंद्र किशोर--
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इस चुनाव के दौरान जितने अधिक पैसों की जब्ती हुई है,वह एक रिकाॅर्ड है।इन पैसों का इस्तेमाल चुनाव को प्रभावित करने के लिए होने वाला था।
 पर, इसके अलावा कितने पैसे इस बार भी जब्ती से बच गए,उसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।
 अनेक राज्यों से यह खबर आती रहती है कि मतदाताओं के बीच उपहारों के अलावा नकद पैसे भी बांटे जा रहे हैं।यह काम बड़े पैमाने पर हो रहा है।इसका कितने मतदाताओं पर कितना असर होता रहा है,यह शोध और जांच का विषय है।
एक और चलन व्यापक होता जा रहा है।चुनाव की टिकटें खुलेआम बेची जा रही है।पहले एक या दो राजनीतिक दल ऐसा करते थे।अब ऐसे दलों की संख्या बढती़ जा रही है।कोई भी ‘धनपशु’ सरीखा नेता दल बदल कर किसी भी दल से टिकट हासिल कर रहा  है।अपवादों की बात और है। 
  इतना ही नहीं,राजनीति में मलीनता  के और भी लक्षण सामने आते जा  रहे हैं।
वे तो अधिक गंभीर हैं।
  इस बार जितनी बड़ी संख्या में बाहुबली और उनके परिजन चुनाव लड़ रहे हैं,वह भी एक रिकाॅर्ड ही है।वंशवाद और परिवारवाद की समस्या अलग है।इस समस्या के कारण तो कतिपय दल बर्बादी के कागर पर हैं।पर उसकी परवाह किसे है ?
  दलों व नेताओं के बड़े -बड़े दावों और सुनहरे सपनों के बीच ये  तत्व देश की राजनीति को बुरी तरह बदरंग कर रहे हैं। 
  इस पर आखिर कौन और कब काबू पाएगा ?
क्या अब काबू पाया भी जा सकेगा या नहीं !
यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है।
वैसे आधे मन से प्रयास तो राजनीतिक व्यवस्था की तरफ से भी  होते रहे हंै।
  कुछ दल  खुलेआम कहते रहे हैं कि हम बाघ के खिलाफ बकरी को तो चुनाव में खड़ा नहीं कर सकते !
बाघ यानी खूंखार अपराधी और बकरी से उनका आशय  शरीफ आदमी से होता है।
 भ्रष्टाचार व अपराधीकरण के खिलाफ सबसे गंभीर प्रयास सन 1997 में भारतीय संसद ने किया था।
आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर जब लोक सभा के अंदर ही  दो बाहुबली सांसदों ने आपस में मारपीट कर ली तो पूरी संसद चिंतित हो उठी।
  इस पर  संसद की विशेष बैठक हुई। सर्वसम्मत  प्रस्ताव पास किया गया।प्रस्ताव के जरिए  ‘भ्रष्टाचार  समाप्त करने ,राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ- साथ चुनाव सुधार करने का संकल्प भी किया गया। 
जनसंख्या वृद्धि,निरक्षरता और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का भी संकल्प किया गया।’
  मुख्यतः भ्रष्टाचार व अपराध  विरोधी उस प्रस्ताव को  प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सदन में रखा था।
तब प्रधान मंत्री इंदर कुमार गुजराल थे।
स्पीकर पी.ए.संगमा ने भी लीेक से हटकर उस प्रस्ताव पर  लोक सभा में भाषण किया था। कुल 218 सदस्य बोले थे।
  सबने भ्रष्टाचार और अपराधीकरण  पर गंभीर चिंता प्रकट की।पर आज तक जब कुछ नहीं हुआ तो कहा जा सकता है कि उन्होंने तब घडि़याली आंसू ही बहाए थे।
दोनों सदनों ने एक जैसे प्रस्ताव पास किये ।प्रस्ताव की प्रति पर लोक सभा के अध्यक्ष पी.ए.संगमा और राज्य सभा के सभापति कृष्णकांत  सहित सभी सदस्यों ने हस्ताक्षर किये थे।प्रस्ताव  सदन की कार्यवाही का हिस्सा बन गया।
  पर अंततः क्या हुआ  ? उन नेताओं ने जिन्होंने संसद में घडि़याली आंसू बहाए थे,अपराध व भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कोई कारगर उपाय नहीं किए।
  दरअसल राजनीति में अपराधियों के प्रवेश की भी पृष्ठभूमि है।
इस देश में औसतन सिर्फ 46 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा हो पाती है।
कई राज्यों में सजा का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से भी काफी कम है।
  यानी वहां अपराधियों का एक गिरोह समाज के एक हिस्से को और दूसरा गिरोह दूसरे हिस्से को ‘न्याय’ दिलाता है या रक्षा करता है।भले यह अधूरा न्याय है ,पर कुछ तो है।नतीजतन ऐसे अपराधी अपने -अपने समाज के हीरो बन रहे हैं।वे चुनाव लड़ते हैं।कुछ जीत भी जाते हैं।
सिद्धांत-निष्ठा  व कार्यकत्र्ता विहीन होते  राजनीतिक दलों के लिए यह आसान हो गया है कि ऐसे अपराधियों को टिकट देकर जीत के लिए निश्चिंत हो जाया जाए।
  यदि इस बीच किसी अपराधी को सजा हो गई तो उसके परिजन को राजनीतिक दल टिकट दे देते हैं।
इससे कानून का शासन कायम करने में और भी दिक्कतें आने लगी हैं।
 इधर राजनीति का अपराधीकरण बढ़ता जा रहा है।
अपराधी से जन प्रतिनिधि बने नेतागण अपने प्रभाव क्षेत्र में ऐसे अफसरों की तैनाती में भी भूमिका निभाते हैं जो उनके अपराधों की ओर से आंखें मूंदे रहें।
इस पृष्ठभूमि में अपराध व भ्रष्टाचार पर काबू पाना दिन प्रति दिन कठिन होता जा रहा है।
 इस स्थिति पर काबू पाने के लिए सर्वाधिक जरूरी यह है कि अदालतों से सजाओं का प्रतिशत बढ़ाया जाए।क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम को मजबूत किया जाए।
 पर इसे करेगा कौन ?
किसी मसीहा के इंतजार के सिवा आम लोगों के सामने कोई अन्य उपाय फिलहाल नजर ही नहीं आ रहा है। 
   @हस्तक्षेप-राष्ट्रीय सहारा में 28 अप्रैल 2019 को प्रकाशित@

 पाॅकेटमारों के नाम अखबारों में,पर लोन डिफाल्टरों के नाम छिपाए रखने के लिए  आर.बी.आई. लगातार प्रयासरत !
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कोई सौ रुपए की भी पाॅकेटमारी करता है तो उसका नाम अखबारों में छप जाता है।
पर, इस देश में बैंकों के अरबों रुपए जो हजम कर जाता है तौभी रिजर्व बैंक कहता है कि हम उसका नाम तक जाहिर नहीं करेंगे।
ये अरबों रुपए जनता से मिले टैक्स के पैसे ही तो हैं !
तुम्हारी पुश्तैनी माल तो नहीं !
 सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को भारतीय रिजर्व बैंक को आखिरी बार चेतावनी दी है कि डिफाल्टरों की लिस्ट जारी करो ।
  याद रहे कि यह देश 9 लाख 50 हजार करोड़ रुपए के बैंकिंग एन.पी.ए से जूझ रहा है।
चार साल पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने आर.बी.आई.को उन बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने का निदेश दिया था जो गलत तरीके से कारोबार करते हैं।
   कल्पना कीजिए कि यदि इस देश में सुप्रीम कोर्ट नहीं होता तो इस देश का क्या होता !
उसी सुप्रीम कोर्ट के पीछे इन दिनों कुछ लोग पड़ गए हैं।
अरे भई, कमियां हर जगह हैं,पर विपरीत परिस्थितियों में जो व्यक्ति या संस्थान देशहित में बेहतर काम कर रहे हैं,उन्हें तो तंग -तबाह न करो ! अन्यथा यह देश बचेगा कैसे ?
इसे बर्बाद करने के लिए बाहर -भीतर की शक्तियां जी -जान से लगी हुई हैं।

रेलवे ने कर दिया मुझे अपने घर की 
सारी खिड़कियां बदलवाने को मजबूर
      --सुरेंद्र किशोर-- 
पटना जिले के फुलवारीशरीफ के कोरजी गांव 
के मेरे घर के बगल से रेलवे लाइन बन रही है।
नेऊरा-दनियावां रेलवे लाइन।
अच्छा लग रहा है, विकास हो रहा है।
   पर, इस विकास की कीमत मुझे भी चुकानी पड़ रही है।
पैसे और स्वास्थ्य के मामले में ।
इस विकास ने मेरा निजी खर्च अचानक बढ़ा दिया है।ऐसा खर्च जो मुझ पर फिलहाल भारी पड़ रहा है।
यानी, मुझे अपने घर की सारी खिड़कियां बदलवानी पड़ रही हैं।
पहले की खिड़कियों में थोड़ी फांक थीं जिनसे होकर धूल आ रही थी।वाहनों की तेज रफ्तार के कारण जब निर्माणधीन लाइन की सड़क पर धूल उड़ती है तो पीछे की कोई चीज दिखाई तक नहीं पड़ती।इतनी मोटी धूल ! 
  रेलवे ने निर्माणाधीन  लाइन के लिए मिट्टी तो डालनी शुरू कर दी है,पर उस पर गाडि़यों को चलने से रोका नहीं है।नतीजतन सारी धूल की भारी परतें खिड़कियों के जरिए मेरे घर में भी प्रवेश कर रही हंै।धूल अन्य लोगों को भी नुकसान पहुंचा रही हैं।
खुली छत पर मेरा धूप लेना बंद है,टहलना मुश्किल है।
  किससे कहूंं ?
मैं जानता हूं कि कोई नहीं सुनेगा।कहने का शायद कोई बुरा  भी मान ले और उल्टे मेरा कुछ नुकसान कर दे।इसलिए मैं किसी से कह नहीं रहा हूं।
  करीब एक लाख रुपए के खर्च का बोझ यह कमजोर कंधा उठा रहा है।मजबूरी है।
  छिटपुट आबादी के अलावा मेरे घर के पास में ही बच्चों के दो-दो स्कूल भी हैं।महीनों तक यह धूल उन कोमल बच्चों को भी  फांकनी पड़ेगी। 
  धूल से किसी के स्वास्थ्य पर कैसा विपरीत असर पड़ेगा, इसकी चिंता भला किसे है ?!
  रेलवे के संबंधित अधिकारी या ठेकेदार एक काम आसानी से कर सकते थे।यदि सड़क के लिए मिट्टी डाल रहे हो तो उस रास्ते पर वाहन तो मत चलने दो !
 पर, अपने इस प्यारे देश में ऐसी समझदारी विकसित होने में शायद अभी सदियों लग जाएं। 




  


अखबार भी मुख्यतः तीन तरह के होते हैं।
भारत में भी हैं।
1.- शासक दल के समर्थक अखबार ।
2.-शासक दल के विरोधी अखबार।
3.-बीच- बीच के अखबार।
प्रदेश दर प्रदेश अखबारों की स्थिति बदलती रहती है।
हालांकि सारे अखबार खुद को निष्पक्ष बताते हैं। 
  इस महा चुनाव के दौरान एक बात पर गौर कीजिए।
अपने हाॅकर से पूछिए,किस अखबार का प्रसार बढ़ रहा है ?
किसका घट रहा है ?
सत्ता समर्थक अखबार बढ़ रहे हैं तो समझिए कि सत्ता जीतेगी।
सत्ता विरोधी अखबार बढ़ रहे हैं तो समझिए विरोधी दल जीतेंगे।
  यह भी एक बढि़या ओपिनियन पोल है।
इसे आप घर बैठे कर सकते हैं।
मैंने इसे आजमाया है।नतीजा सटीक आया था।
मेरे मामले में संभव है कि संयोग रहा हो।
 आप भी अनुभव करके देख लीजिए।
23 मई को आने वाले नतीजों से मिलाइए।
यदि सटीक आ जाए तो 
आगे के चुनावों में भी इसे आजमाइए। 

संदर्भ-गुजरात दंगे पर राजदीप सरदेसाई की ताजा 
टिप्पणी।
राजदीप ने कहा कि दंगे के लिए मोदी जिम्मेवार नहीं थे।
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दंगों की रिपोर्टिंग में समस्या यह आती है कि आम तौर पर संवाददाता संतुलन बनाए नहीं रख पाता।
कई बार उसकी निजी विचारधारा हावी हो जाती है।
ऐसी बात मैं दोनों पक्षों के लिए कह रहा हूंं।
अपवादों की बात और है।
 सत्तर-अस्सी के दशकों में मेरा छोटा भाई साप्ताहिक ‘संडे’ मैगजिन नियमित रूप से खरीदता था।
बाद में उसे मैं अपने संदर्भालय में रख लिया करता  था।
एक दंगे पर एम.जे.अकबर की रपट आई।वह उसे एकतरफा लगी।उसने संडे खरीदना बंद कर दिया।
उसे जारी रखने के लिए मुझ पर खर्च बढ़ गया।तब मेरी आय बहुत कम थी।
  खैर, गुजरात दंगे में बहुसंख्यक समुदाय के भी 254 लोग मारे गए थे।
करीब 200 पुलिसकर्मी भी दंगा रोकने की कोशिश में मरे।
जिस गोधरा टे्रन कार सेवक दहन के कारण दंगा शुरू हुआ,वह भी हृदय विदारक घटना थी।
पर जहां तक मुझे याद है,उन घटनाओं की रिपोर्टिंग के साथ अधिकतर मीडिया ने सौतेलापन का व्यवहार किया।
 यह सही है कि अल्संख्यकों की पीड़ा अपेक्षाकृत बहुत बड़ी थी,उसकी रिपोटिंग होनी ही चाहिए थी।
पर बाकी लोगों की ! ?
संतुलन नहीं रखे जाने के कारण भी नरेंद्र मोदी के साथ बहुसंख्यकों की सहानुभूति बढ़नी स्वाभाविक ही थी।
 गोधरा ट्रेन दहन की खबर सुबह -सुबह आ गई थी।
एक बड़े ‘सेक्युलर नेता’ जी के सहकर्मी ने उस घटना की निंदा करते हुए एक बयान तैयार किया ताकि उसे उनकी ओर से मीडिया में जारी किया जा सके।
सहकर्मी ने फोन पर उसे नेता जी को पढ़कर सुनाया भी।
नेता जी ने कहा कि उस बयान को आप फाड़कर फेंक दीजिए।
फंेक दिया गया।
पर, जैसे ही प्रतिक्रियास्वरूप अल्पसंख्यक संहार होने लगा ,बयान वीर नेता जी मीडिया में सक्रिय हो गए।
ऐसी घटनाओं ने भी मोदी व भाजपा को बढ़ाया।
गुजरात दंगे के अनुभव से सीख कर यदि मीडिया व नेता गण संतुलन बनाए रखने का अब भी सबक ले लें तो देश में शांति-सौहार्द बनाए रखने में मदद मिलेगी।कोई नेता किसी दंगे के कारण मिली ‘लोकप्रियता’ का लाभ नहीं उठा पाएगा।  
पर असंतुलित सोच और झूठ से भरी हमारी राजनीति में क्या ऐसा हो कभी पाएगा ?
   

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

इलेक्शन रेफरेंस
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जाति पर वोट मांगने से 
जीत कर भी हारे थे मंडल
        --सुरेंद्र किशोर-- 
1962 में सहरसा लोक सभा क्षेत्र में भूपेंद्र नारायण मंडल ने
ललित नारायण मिश्र को हराया था।
पर उस क्षेत्र के मतदाता ने विजयी उम्मीदवार पर यह आरोप लगाया कि मंडल ने जातीय आधार पर वोट मांगे।
नतीजतन अदालत ने भूपेंद्र नारायण मंडल का चुनाव रद्द कर दिया।
 याचिकाकत्र्ता  ने कोर्ट में  आरोप साबित कर दिया था।
   बिहार सहित देश भर में कई नेता व उम्मीदवार जाति व धर्म के नाम पर मतदाताओं को प्रभावित करने की इन दिनों कोशिश कर रहे हैं।
उन लोगों को भूपेंद्र नारायण मंडल से संबंधित जजमेंट को पढ़ लेना चाहिए।
 बी.एन.मंडल बनाम एक नारायण लालदास केस में पटना हाईकोर्ट ने 1964 में निर्णय दिया था।
 आरोप  था कि मंडल व उनके चुनाव एजेंट  ने पूरे क्षेत्र में यादव मतदाताओं से यह अपील की कि आप लोगों
को ब्राह्मण उम्मीदवार के बदले अपनी जाति के उम्मीदवार को ही वोट देना चाहिए।
ऐसी अपील करते हुए पर्चे भी बंटवाए गए थे।
उस पर्चे को भी कोर्ट में पेश किया गया। 
   मंडल के वकील ने अदालत में कहा कि हमें 
चुनाव नियमों की जानकारी नहीं थी।इसलिए ऐसा हो गया।
इस पर अदालत ने कहा कि बी.एन.मंडल 1952 और 1957 में चुनाव लड़ चुके हैं।1957 में वे विधान सभा का चुनाव जीत भी चुके हैं।
उन्होंने  खुद वकालत पास की है,भले वे अब प्रैक्टिस नहीं करते।
इसलिए इस तर्क में दम नहीं है कि उन्हें चुनाव नियमों की जानकारी नहीं थी।
अदालत ने जन प्रतिनिधित्व की धारा -100 @1@ के तहत  मंडल का चुनाव रद्द किया।
 याद रहे कि मंडल लोहियावादी समाजवादी पार्टी के बिहार में  सबसे बड़े नेता थे।बाद में वे राज्य सभा के सदस्य बने।
 ललित नारायण मिश्र नेहरू मंत्रिमंडल में संसदीय सचिव  थे।बाद में कैबिनेट मंत्री बने।
@-दैनिक भास्कर, पटना-18 अप्रैल 2019@
  

सीढि़यां
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लोग अक्सर 
भूल जाते हैं कि 
सीढि़यां उन्हें सिर्फ
ऊपर नहीं ले जातीं
नीचे भी उतारती हैं
     -- जाबिर हुसेन
उनका क्या जो 
ऊपर पहुंच कर
तोड़ देते हैं 
सीढि़यां,
वे कमबख्त क्या
जानें टूटने वाली हैं
उनकी टांगें !
         -- सुरेंद्र किशोर   

गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

कांग्रेस ने प्रियंका वाड्रा को  उम्मीदवार नहीं बना कर 
समझदारी दिखाई है।
उम्मीदवार होने पर प्रियंका को अपने पति राबर्ट की संपत्ति का विवरण भी देना पड़ता।



सी.पी.आई.के महा सचिव एस.सुधाकर रेड्डी ने
25 अप्रैल को पटना में मीडिया के जरिए सार्वजनिक रूप से 
राजद से अपील की कि
वह  बेगूसराय में कन्हैया कुमार के पक्ष में अपने उम्मीदवार तनवीर हसन को चुनाव मैदान से हटा ले।
  स्वाभाविक है कि राजद अपना उम्मीदवार नहीं हटाएगा।
गत चुनाव में वहां तनवीर हसन को तीन लाख से अधिक मत मिले थे।
61 हजार से तनवीर भाजपा से हारे थे।सी.पी.आई.को एक लाख 92 हजार मत मिले थे।
  सार्वजनिक रूप से राजद से रेड्डी की अपील से क्षेत्र में कन्हैया की मौजूदा स्थिति की एक झलक मिल जाती है।

बुधवार, 24 अप्रैल 2019


इलेक्शन रेफरेंस
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सत्येंद्र नारायण सिंह ने 
मानी थीं अपनी गलतियां
        सुरेंद्र किशोर 
 बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह ने आत्म कथा में यह स्वीकार किया है कि ‘मैंने अपने ही दल यानी कांग्रेस  के उम्मीदवार को फतुहा विधान सभा  उप चुनाव में पराजित करवा दिया था।
उम्मीदवार देव शरण सिंह को हराने के पक्ष में  विनोदानंद झा और वीरचंद पटेल  भी थे। 
   ‘मेरी यादें मेरी भूलें’ नामक आत्म कथा में सत्येंद्र बाबू  ने लिखा है कि 
‘देव शरण सिंह  1952 में बिहार के स्वास्थ मंत्री बनाये गये ।उस समय वे एम.एल.सी. थे।परिषद में  उनका  कार्यकाल   समाप्त हो रहा था। उधर  फतुहा विधान सभा चुनाव क्षेत्र खाली हो गया था।
  उस समय के.बी.सहाय, मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंह के पक्षधर थे। 
 कृष्ण बल्लभ बाबू ने तय किया था कि वे मेरे पिता डा.अनुग्रह नारायण सिंह की मदद लिए बगैर देव शरण सिंह को विजयी बना कर खंडू भाई देसाई की रपट को गलत साबित कर देंगे।
 याद रहे कि  कांग्रेस सांसद खंडू भाई देसाई ने यह रिपोर्ट केंद्र दी थी कि ‘श्रीबाबू और अनुग्रह बाबू के एक साथ रहे बिना बिहार नहीं चलेगा।’ 
   सत्येंद्र बाबू ने लिखा कि ‘कृष्ण बल्लभ बाबू के दम्भ को चूर करने के लिए हम लोगांे ने निर्णय किया कि देवशरण सिंह को हरा देना चाहिए।उसी क्षेत्र से शिव महादेव, पी.एस.पी.के उम्मीदवार थे।हमलोगों ने उन्हें समर्थन देना शुरू कर दिया।ब्रजनंदन यादव और परमात्मा सिंह को माध्यम बनाया गया।जगजीवन राम  ने भी वहां जन सभाएं कीं और भाषण किया।पर उन्होंने भी अपने समर्थकों  को बुलाकर कह दिया कि पटना जिला के अध्यक्ष अवधेश बाबू जैसा कहें,चुनाव में आप सभी वैसा ही करें।अंततः देवशरण बाबू सात या आठ सौ मतों से हार गये।’
  कांग्रेस के कई अन्य नेतागण भी अपने ही दल के प्रतिद्वंद्वी गुट के उम्मीदवारों को भितरघात करके हरवाते रहे हैं।पर आम तौर पर  किसी में ऐसी हिम्मत नहीं होती कि वे अपनी गलती स्वीकार करे।
पर, कुछ अन्य मामले में भी सत्येंद्र नारायण सिंह ने अपनी गलती स्वीकारी है। 
@--दैनिक भास्कर, पटना,11 अप्रैल 2019@
@ध्यान रहे कि आत्म कथा का नाम ही है-मेरी यादें,मेरी भूलें। अपनी भूलें गिनाने वाली ऐसी  अन्य आत्म कथाएं  हांे ,तो जरूर बताइएगा।मैं उन्हें  हासिल करने की कोशिश करूंंगा।
वैसे ब्रटंे्रड रसेल की जैसी  आत्म कथा तो दुर्लभ है।@ 

साध्वी प्रज्ञा को बाबरी मस्जिद को  ध्वस्त करने पर गर्व है। 
फिर तो वह उसी तरह का काम करें और उसका कानूनी परिणाम भुगतने को भी तैयार रहें।
चुुनाव मैदान से हटें।
या तो भाजपा उन्हें हटाए या चुनाव आयोग भोपाल का चुनाव तत्काल स्थगित कर दे।लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजाक बनाने का अधिकार किसी को नहीं मिलना चाहिए।चाहे प्रज्ञा हों या उनकी पार्टी।

 डाकू-लुटेरे समान होंगे कलियुग 
 के राजे-महाराजे -शुक सागर
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श्रीशुकदेवजी कहते हैं --परीक्षित ! समय बड़ा बलवान है,
ज्यों -ज्यों घोर कलियुग आता जाएगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्ति का लोप होता जाएगा।
 --कलियुग में जिसके पास धन होगा,उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे।
--जिसके हाथ में शक्ति होगी,वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा लेगा।
---जो जितना छल-कपट करेगा,वह उतना ही 
व्यवहार कुशल माना जाएगा।
---जो घूस देने या धन खर्च करने में असमर्थ होगा,उसे अदालतों से ठीक- ठीक न्याय न मिल सकेगा।
---सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा अपना पेट भर लेना।
---उस समय के नीच राजा अत्यंत निर्दय और क्रूर होंगे।
लोभी तो इतने होंगे कि उनमें और लुटेरों में कोई अंतर नहीं किया जा सकेगा।
वे प्रजा की पूंजी और पत्नियों तक को छीन लेंगे।
उनसे डर कर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में भाग जाएगी।
--राजे-महाराजे डाकू-लुटेरों के समान हो जाएंगे।
....................................................................................................
 --अध्याय-कलियुग के धर्म - शुक सागर, पृष्ठ संख्या-935
गीता प्रेस,गोरख पुर।

मुम्बई सट्टा बाजार के अनुसार मोदी फिर पी.एम.
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12 मार्च, 2014 को ही मुम्बई सट्टा बाजार ने 
अनुमान लगा लिया था कि इस बार नरेंद्र मोदी की
 सरकार बनेगी।बनी भी।
  एक बार फिर मुम्बई सट्टा बाजार ने अनुमान लगाया है 
कि राजग को इस बार लोक सभा की 347 सीटें मिलेंगी।इनमें से सिर्फ भाजपा को 299 सीटें मिलेंगी।
पश्चिम बंगाल में 22 और बिहार में 30 सीटें मिलने का अनुमान है।
  अब मुझसे अधिक जानकार लोग बता सकते हैं कि सट्टा बाजार के चुनावी अनुमान कब- कब गलत साबित हुए हैं और कब -कब सही। 
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फलौदी राजस्थान सट्टा बाजार के अनुसार राजग को बहुमत मिलेगा।सिर्फ भाजपा को नहीं।

इलेेक्शन रेफरेंस
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हर बार बढ़ती ही गई 
 दागी सांसदों की संख्या
     सुरेंद्र किशोर  
आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर भारतीय  संसद की विशेष बैठक हुई।संसद ने सर्वसम्मत  प्रस्ताव पास किया।प्रस्ताव के जरिए  भ्रष्टाचार  समाप्त करने ,राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ- साथ चुनाव सुधार करने का संकल्प किया गया। 
जनसंख्या वृद्धि,निरक्षरता और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का भी संकल्प किया गया।’
   उसके छह माह बाद मुख्य चुनाव आयुक्त एम.एस.गिल ने देश के सभी 43 राजनीतिक दलों से  अपील की कि आप चुनाव में अपनी ओर से आदर्श इंसान को  उम्मीदवार बनाएं ताकि राजनीति में अपराधियों के प्रवेश पर काबू पाया जा सके।
 2002 में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से एक ऐसा कानून बना जिसके तहत उम्मीदवारों को अपने बारे में विवरण देेना अनिवार्य हो गया।
वे  शैक्षणिक योग्यता,संपत्ति और आपराधिक मुकदमों का विवरण नामांकन पत्र के साथ ही दाखिल करते हैं।
   इसके बावजूद  विधायिकाओं में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का  प्रवेश  रोका नहीं जा सका। 1996 के लोक सभा चुनाव में विभिन्न दलों की ओर से 40 ऐसे व्यक्ति लोक सभा के सदस्य चुन लिए गए थे जिन पर गंभीर आपराधिक मामले अदालतों में चल रहे थे।
उनमें से दो बाहुबली बिहारी सांसदों ने 1997 में  लोक सभा के अंदर ही आपस में मारपीट कर ली।संसद का सर्वसम्मत प्रस्ताव उसके तत्काल बाद ही आया।
   पर बाद के चुनावों में भी राजनीतिक दलों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वालों को संसद-विधायिकाओं में भेजना जारी रखा ।उस प्रस्ताव की लाज नहीं रखी गई।निवत्र्तमान लोक सभा में उनकी संख्या बढ़कर 186 हो चुकी है।
 2009 में गठित लोक सभा के  30 प्रतिशत सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे थे।
2014 में गठित लोक सभा में उनकी संख्या बढ़कर 34 प्रतिशत हो गई।
 अब देखना है कि मौजूदा  चुनाव के बाद जो लोक सभा गठित होगी,उसमें उनकी संख्या  कितनी होती है।
@इस लेख का संपादित अंश 24 अप्रैल, 2019 के दैनिक भास्कर,पटना में प्रकाशित@ 

इलेक्शन रेफरेंस
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जब हार से हिल गए थे लालू-सुरेंद्र किशोर  
मंडल आरक्षण विवाद से उत्पन्न सामाजिक तनाव की 
पृष्ठभूमि में 1991 में लोक सभा का चुनाव हुआ था।
बिहार में मुख्य मंत्री लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले जनता दल को भारी सफलता मिली थी।उस जीत का श्रेय लालू प्रसाद को जाता है।
पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की अभूतपूर्व गोलबंदी के कारण ऐसा हुआ।
  पर 1994 में वैशाली लोक सभा उप चुनाव में जनता दल की हार से लालू प्रसाद हिल गए थे।कुछ समय के लिए वे सहम गए थे।बाद में सम्भल भी गए।
उन्होंने अपनी सरकार और पार्टी के कामकाज की ओर अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया।
  बिहार विधान सभा के 1995 के चुनाव में लालू प्रसाद के दल को अच्छी सफलता मिली। पर उससे पहले के वैशाली झटके की उम्मीद लालू प्रसाद को नहीं थी।
उसी साल यानी 1994 में ही जार्ज फर्नांडिस और  नीतीश कुमार ने जनता दल छोड़कर समता पार्टी बना ली।
 1991 में जनता दल के उम्मीदवार शिवशरण सिंह विजयी हुए थे।उनके निधन के कारण यह सीट खाली हुई तो बिहार पीपुल्स पार्टी के प्रधान आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद वहां उम्मीदवार बनीं।
उनके खिलाफ पूर्व मुख्य मंत्री सत्यंेद्र नारायण सिंहा की पत्नी किशोरी सिन्हा को लालू प्रसाद ने जनता दल के टिकट पर खड़ा किया।पूर्व सांसद किशोरी सिंहा पहले कांग्रेस में थीं।
कांग्रेस ने वहां उषा सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाया।
सवर्ण वर्चस्व वाले उस क्षेत्र में लवली आनंद ने किशोरी सिन्हा को हरा दिया ।कांग्रेस की तो जमानत ही जब्त हो गई।
 इस चुनाव नतीजे पर लालू प्रसाद ने कहा कि ‘मंडल आरक्षण विरोधी और प्रतिक्रियावादी ताकतों ने मिलकर हमारी पार्टी को हरा दिया।’
   उप चुनाव से पहले लालू प्रसाद ने कहा था कि ‘वैशाली में मेरी व सरकार की उपलब्धियों पर जनमत संग्रह होगा।’
पर  उप चुनाव नतीजे ने लालू प्रसाद को संभलने का मौका दे दिया जिसका लाभ उन्हें 1995 के विधान सभा चुनाव में मिला।जनता दल को 1990 में बहुमत नहीं मिला था। 1995 में मिल गया। 
@दैनिक भास्कर,पटना,15 अप्रैल 2019@
  

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

   पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री मो.अली अशरफ फातमी ने कहा है कि आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के महा सचिव सैयद वली रहमानी के आग्रह पर मैंने अपना नामांकन पत्र वापस ले लिया है।
फातमी ने यह भी कहा कि उन्हें मैं अपना गुरु मानता हूं।पहले भी उन्होंने मुझे समर्थन दिया था।इसलिए उनके आग्रह को ठुकरा नहीं सका।
   राजद के टिकट से वंचित फातमी ने मधुबनी लोक सभा क्षेत्र में नामांकन पत्र दाखिल किया था।
इस नाम -वापसी के बाद कांग्रेस के  टिकट से वंचित निर्दलीय उम्मीदवार डा.शकील अहमद की उम्मीदवारी में मजबूती आने की उम्मीद बताई जा रही है।हालांकि खतरा यह भी है कि त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा की जीत का ‘चांस’ बेहतर हो सकता है।
  मधुबनी में मुख्य मुकाबला निवत्र्तमान सांसद हुकुमदेव नारायण यादव के पुत्र व पूर्व विधायक अशोक यादव@भाजपा@,महा गठबंधन के उम्मीदवार बद्री पूर्वे और डा.शकील अहमद के बीच होगा।
वहां 6 मई को वोट डाले जाएंगे।
याद रहे कि संभवतः किसी उम्मीदवार ने  पहली बार सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारा है कि उसने  मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के वली रहमानी के आग्रह पर नामांकन पत्र वापस ले लिया  है।
फातमी इससे पहले दरभंगा से सांसद रहे।पर इस बार राजद ने वहां से अब्दुल बारी सिद्दिकी को अपना उम्मीदवार बना दिया है।
@23 अप्रैल 2019 के अखबार एचटी की खबर पर आधारित@

इलेक्शन रेफरेंस
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 ऐसे बदल गया  3 महीने 
 में मतदाताओं का मूड !
      सुरेंद्र किशोर 
सन 2009 के लोक सभा चुनाव  में 
राजग बिहार की 40 सीटों में से 32 सीटें जीत गया था।चुनाव साल के प्रारंभ में हुआ था।
  बिहार विधान सभा का चुनाव 2010 में हुआ।
उसमें  राजग 243 में से 206 सीटें जीत गया था।
  पर, इन दो चुनावों के बीच 
मतदाताओं का मन कुछ समय के लिए राजग से उचट गया था।
  2009 के सितंबर में जब बिहार विधान सभा की  18 सीटों के लिए उप चुनाव हुए तो पांसा पलट गया था।
  18 में से 13 सीटें राजग हार गया।
  ऐसा आखिर क्यों हुआ ? तीन ही महीने में मतदाताओं का मूड क्यों पलट गया ?
इसे चुनावी राजनीतिक चमत्कार माना गया।
  एक खबर ने लोगों का मन पलट दिया था।
 सरकारी सूत्रों के हवाले से जुलाई, 2009 में यह खबर छपी कि बिहार  सरकार बटाईदारी कानून लागू करने जा रही है।
फिर क्या था ! रातोंरात नीतीश सरकार के खिलाफ किसानों में गुस्सा फैल गया।
राज्य सरकार सफाई देती रह गई। 5 अगस्त 2009 को सरकारी सूत्रों ने बताया कि ऐसा कोई प्रस्ताव  नहीं है। पर  सरकारी सफाई काम नहीं आई।
  इस बीच एक महत्वपूर्ण बात हुई। राजग के ही कुछ नेताओं ने इस अफवाह को फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई।दरअसल वे नेता  अपने परिजन को उप चुनाव में उम्मीदवार बनाना चाहते थे।पर राजग नेतृत्व ने टिकट देने से साफ मना कर दिया था।
   दरअसल बटाईदारी कानून एक नाजुक मामला है।किसान समझते हैं कि ऐसा होने से उनकी जमीन उनके हाथों से निकल जाएगी।
1992 में तत्कालीन मुख्य मंत्री लालू प्रसाद ने ऐसी कोशिश की थी।पर तत्कालीन दबंग विधायक पप्पू यादव ने  विरोध कर दिया।उन्होंने  कहा कि  सरकार छोटे किसानों की जमीन बटाईदारों  में बांटना चाहती है। पर  पहले अट्टालिकाओं में रहने वाले उद्योगपतियों की संपत्ति बंटे।
@23 अप्रैल, 2019 के दैनिक भास्कर,पटना में प्रकाशित@ 

सोमवार, 22 अप्रैल 2019

एक जरूरी सूचना
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  कभी मेरे एक पोस्ट पर ‘गोदी गिरोह’ नाराज हो जाता है तो कभी मेरे किसी दूसरे पोस्ट पर ‘टुकड़े -टुकड़े’ गिरोह।
गिरोह के नाम मैंने यूं ही समझने की सुविधा के लिए
 लिख दिया।संभव है कि कुछ नाराज होने वाले सज्जन इनमें से किसी गिरोह के न हों।
या हों भी तो खुल कर सामने नहीं आना चाहते हों।
मैं भरसक हर तरह की सूचनाएं समय- समय पर देता रहा हूं और देता रहूंगा-देश हित में, न कि किसी दल के हित में या किसी विचारधारा के हित में।
 देशहित को लेकर मेरी अपनी समझ है जो किसी गिरोह से मेल नहीं खाती।हां,मेरी समझ भारतीय संविधान के काफी करीब जरूर है।
 जाहिर है कि न तो मैं ‘गोदी गिरोह’ में हूं और न ही ‘टुकड़े -टुकड़े’ गिरोह मंें।
हां, कुछ के बारे में सूचनाएं अधिक होंगी और कुछ के बारे में कम।
 यह और बात है कि प्रत्येक गिरोह चाहता है कि मैं सिर्फ उसके मन लायक ही सूचनाएं दूं।बाकी सूचनाओं को गोल कर दूं।
ऐसा नहीं हो सकता।
क्यों होना चाहिए ? 
इसीलिए गिरोहों से मैं कहता रहा हूं कि आप अपने -अपने गिरोह की सूची से मेरा नाम यथाशीघ्र काट दीजिए,यदि मेरा नाम पहले से वहां है तो ।
हां, मेरे तथ्य में कभी कोई गलती हो तो जरूर बताएं।मैं उसके लिए आभार मानूंगा।अनजाने में तथ्यात्मक गलती किसी से भी हो सकती है। 


रविवार, 21 अप्रैल 2019

  बिहारी बाबू के मतदाता की विपत्ति में काम आए देवानंद
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धर्मदेव अपना।यही नाम है उनका।कथा लेखक हंै।बख्तियार पुर के निवासी।
यानी शत्रुघ्न सिन्हा के चुनाव क्षेत्र में मतदाता।
 कई साल पहले की बात है।
धर्मदेव जी के पुत्र कैंसर ग्रस्त हो गए।
पुत्र को लेकर परेशान धर्मदेव जी  मुम्बई पहुंचे।उन्होंने बिहारी बाबू के यहां फोन किया।
उनके यहां किसी शर्मा जी ने फोन उठाया।अपनी बात कही और अस्पताल में मदद की गुहार की।
 फिर भी कहा गया कि अभी शत्रु जी व्यस्त हैं।दो दिन बाद फोन कीजिए।
दो दिन बाद फोन किया तो भी अपने एम.पी.से धर्मदेव जी की बात नहीं हो सकी।
उधर से जवाब आया कि कहीं और से मदद ले लीजिए यहां से कुछ नहीं हो सकता।
  धर्मदेव जी संयोग से  फिल्म अभिनेता देवानंद से परिचित थे।उनके यहां संपर्क किया।
देवानंद ने नरगिस कैंसर अस्पताल में किसी गुप्त जी से कह दिया।
 धर्मदेव जी ने गुप्त जी से दिखवाया।धर्मदेव जी संतुष्ट हुए।
आज  धर्मदेव जी का मेरे यहां फोन आया।उन्होंने कहा कि मैं खुश हूं कि शत्रुघ्न सिन्हा को भाजपा से टिकट नहीं मिला।
मैं तो भाजपा का समर्थक हूं।पर, यदि शत्रुघ्न सिन्हा को टिकट मिलता तो मेरे सामने दुविधा होती कि ऐसे व्यक्ति को मैं कैसे वोट दूं ?



मशहूर पत्रकार दिवंगत जीतेंद्र सिंह पर हरिवंश 
का संस्मरणात्मक लेख
--- 8 अक्तूबर, 2003-प्रभात खबर।
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जीतेंद्र बाबू को जानना गौरव की बात है - हरिवंश
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महीने भर भी नहीं हुए होंगे। अचानक एक शाम ,लंबे अरसे बाद, पटना से  उनका फोन आया था।
 वह महीन, विशिष्ट और शालीन आवाज।
तुरंत मैं पहचान गया। अपना नाम बताएं, अपनी बात कहें ,इससे पहले ही अपना निवेदन कर बैठा।
वर्षाें पहले प्रभात खबर में वह स्तम्भ लिखते थे।
संपादकीय पेज पर।
पुनः शुरू करने का हम आग्रह कर रहे थे।
इस बार रांची आने और प्रभात खबर के पत्रकारों से अपने अनुभव बांटने की मेरी जिद उन्होंने मान ली थी।
वह काॅलम शुरू करने वाले थे और रांची आकर हमारे साथ रहने वाले भी थे, इसी बीच अचानक पटना कार्यालय से फोन आया, ‘जीतेंद्र बाबू चल बसे।’
 उम्र 79 वर्ष थी।वह खबर अकस्मात और अप्रत्याशित थी।
   जीतेंद्र बाबू ! जेपी के विश्वस्त, राजेंद्र बाबू के प्रिय।वह राजेंद्र बाबू को बाबू जी शब्द से ही पुकारते थे।नेहरू जिन्हें जानते थे।लोहिया के सम्मान पात्र।समाजवादी आंदोलन से गहरे सरोकार वाले।हालांकि वह खुद को बुद्धिस्ट गांधीयन 
सोशलिस्ट मानते थे।कोइराला परिवार से उनका घरेलू ताल्लुक था।
अज्ञेय, धर्मवीर भारती, फणीश्वरनाथ रेणु ,रघुवीर सहाय के वह मित्र और सम्मान के पात्र थे।
    कर्पूरी ठाकुर के स्नेह पात्र,सांसद लेखक शंकर दयाल सिंह के ‘भईया’।
   पत्रकारिता में वह 1948  में आए।‘द सर्चलाइट’ में प्रशिक्षण पाया।
पत्रकारिता की विभूति के.रामाराव@नेशनल हेराल्ड-सर्चलाइट के पूर्व संपादक@के साथ पत्रकारिता की।उनके प्रिय बने। 1950 से 1961 तक इलाहाबाद के मशहूर अखबार लीडर@मालवीय जी द्वारा स्थापित ,सी.वाई.चिंतामणि जैसे मनीषी से जुड़ा पत्र@में सहायक संपादक और संयुक्त संपादक की हैसियत से काम किया।
 पी डी टंडन के प्रिय मित्र रहे।1961 में टाइम्स आॅफ इंडिया के विशेष संवाददाता बन कर बिहार आये ।इमर्जेंसी में  1976 जून में उड़ीसा भेजे गये।बाद में हटा दिए गए।
  1962 में राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति भवन छोड़ कर सदाकत आश्रम @पटना@लौट रहे थे,उधर प्रयाग की बौद्धिकता छोड़कर जीतेंद्र बाबू पटना आने का मन बना चुके थे।
  अत्यंत गरीबी में उनका जीवन शुरू हुआ।मां ने पाला -पोसा ।सकलडीहा कोट @बनारस के पास@में उनका मकान खंडहर बन चुका था।
 आजादी की लड़ाई में जीतेंद्र बाबू के परिवार ने शिकरत की थी।उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी।
मां ने गहने बेच कर बनारस के स्कूल में उनका दाखिला कराया। 1938 में मिडिल स्कूल में सर्वश्रेष्ठ अंक पाने के लिए जीतेंद्र बाबू संपूर्णानंद से पुरस्कृत हुए -मेडल पाकर।
हाई स्कूल से एम.ए.@बी.एच.यू.@तक छात्रवृति पाकर पढ़ाई पूरी की।
  प्रतिभा के कारण संस्थाओं ने मदद की।
 बाद में परिवार पर मुसीबतों की दूसरी आंधी आई।
1942 में अगुआ बनने के कारण जीतेंद्र बाबू के परिवार पर जुल्म हुए।
आचार्य नरेंद्र देव,डा.राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का यह परिवार अनुयायी था। 
जीतेंद्र बाबू एक जाने माने पत्रकार के रूप में प्रयाग पहुंचे थे।
उन दिनों इलाहाबाद की अहमियत राजनीतिक-बौद्धिक दुनिया और साहित्य में शिखर पर थी।
 उस दौर के सारे बड़े नामों से जीतेंद्र बाबू का निजी संबंध था।
   बनारस में वह पढ़े।इलाहाबाद में रहे।पंत,महादेवी निराला की छाया में भाषा, भाव और संस्कार अर्जित किये।प्रयाग की बौद्धिकता पाई।काशी की विद्वता ,लीजेंडरी जर्नलिस्ट रामाराव 
की सोहबत में रहे।
पत्रकारिता के सर्वश्रेष्ठ प्रतिमान लीडर जैसे संस्कारवान अखबार में पत्रकारिता की।
प्राचीन भारतीय समाज इतिहास के अनूठे विद्वान नेहरू जी के आग्रह पर ख्रुश्चेव की भारत यात्रा में वह ऐतिहासिक स्थलों पर साथ रहे-इतिहास बताने वाले के रूप में।
 अज्ञेय की ‘जय जानकी यात्रा’ के साथी।इंटेलेक्चुअल फ्लेवर के बाद भी जीतेंद्र बाबू की अद्भुत सादगी,विनय और मीठी जुबान।
   जीतेंद्र का हिन्दी-अंग्रेजी पर समान अधिकार था ।
  जेपी के प्रिय पात्र थे।इसलिए इमर्जेंसी में मुख्य मंत्री जगन्नाथ मिश्र ने उन्हें हर तरह से सताया।
हाउसिंग बोर्ड से कह कर घर की किस्तों @कर्ज@के लिए तबाह किया।मुख्य मंत्री हाउसिंग बोर्ड से खरीदे गए घर को छीनना चाहते थे -समय पर घर की किस्त चुकाने के बावजूद।
   और जीतेंद्र बाबू अपनी निजी पीड़ा की भनक किसी को नहीं लगने देते थे।
प्रखरता,तेजस्विता और गंभीर व्यक्तित्व के धनी जीतेंद्र बाबू की पृष्ठभूमि क्या थी ?
जीतेंद्र बाबू  नेहरू के घनिष्ठ मित्र पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्य नारायण सिन्हा के दामाद थे।
उनके करीबी मित्रों में से शायद ही उनके इस संबंध को जानता हो।
 क्योंकि वे उस पीढ़ी के संस्कारों में पले बढ़े थे ,जो अपने संबंधों के बल पर हैसियत -पहचान नहीं बनाती थी।
पद नहीं पाती थी।उस संबंध को बताने में संकोच करती थी।
जीतेंद्र बाबू खुुद अपनी प्रतिभा से बने।
जीये और पहचान बनाई।
संबंधों की सीढ़ी चढ़ना जानते ,तो कहीं पहुंच सकते थे।
पर उनकी मिट्टी अलग थी।
वह समर्पित गांधीवादी थे।गांधीवाद जीते थे।कार्य में, जीवन में वचन में।
   टाइम्स आॅफ इंडिया के पत्रकार, खुद ज्ञानवान, संपर्कों की कसौटी मानें तो सबसे अधिक संपर्कवान, अद्भुत विनम्रता,शालीनता।फिर भी पत्रकार।
गौर करिए ऐसी पृष्ठभूमि के पत्रकार आज क्या कहर ढा सकते हैं ?
  हमेशा नेपथ्य में रहने की कोशिश।दिल्ली में अक्सर सांसद शंकर दयाल सिंह जी के घर पर पता चलता कि जीतेंद्र बाबू पटना से आए हैं।पर अपने कमरे में हैं।काम में डूबे हुए हैं।अकेले,काम ?
गांधी के ऊपर लेखन।पत्रिका प्रकाशन।गांधी संग्रहालय ,गांध्ंाी स्मारक तक दुनिया सिमटी हुई।इतना प्रतिभावान,संपर्कवान इंसान, गंभीर कठिनाइयों में जीया,पर आत्म सम्मान के साथ जीया।पानीदार इंसान।पुरानी कहावत सही है, इंसान का पानी उतर गया तो क्या बचा ?
स्वाभिमानी पत्रकार।ईमानदारी की मिसाल।संपर्कों को नहीं भुनाया।गांधी पर काम करना नहीं छोड़ा।
इन सबके बावजूद अपने बारे में जल्द बोलते नहीं थे।आज लोग अपना बखान-आत्म गान करते नहीं अघाते।
कितना फर्क आ गया है पत्रकारिता में।वर्षों पूर्व अपने पटना निवास पर नाश्ते पर उन्हें बुलाया।कुरेद कर मैं उनका अतीत जानना-समझना चाहता था।वह मौजूदा पत्रकारिता के बारे में बताना चाहते थे।

   





इलेक्शन रेफरेंस
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कांग्रेस टूटी तो पहला मध्यावधि चुनाव हुआ-सुरेंद्र किशोर
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आजादी के बाद अब तक कायदे से लोक सभा के सिर्फ 14 चुनाव ही होने चाहिए थे।
पर लोक सभा की आयु के घटते -बढ़ते के कारण अभी 17 वीं लोक सभा के लिए चुनाव हो रहे हैं।
  1952 से 1967 तक समय पर  चुनाव हुए।
पर 1971 से यह सिलसिला  बिगड़ गया।
1971 में चुनी गई लोक सभा की आयु 1977  तक के लिए बढ़ा दी गई थी।
 1980 और 1984 में समय से पहले चुनाव हुए तो 
1989 में चुनी गई संसद भी पांच साल पूरा नहीं कर पाई।
1996 ,1998 और 1999 में लोक सभा के चुनाव हुए।
 क्रम बिगड़ने की शुरूआत 1971 में हुई।इसके साथ ही 
लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव भी अलग -अलग होने लगे।
  इससे सरकार व राजनीतिक दलों का खर्च बढ़ गया। 
 1967 में चुनी गई लोक सभा को तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने बीच मेें ही भंग कर दिया।1971 में पहली बार लोक सभा का मध्यावधि चुनाव हुआ।
 इंदिरा जी की सरकार को बहुमत  नहीं था और इस स्थिति में वह असंतुष्ट थीं।
1969 में कांग्रेस में महा विभाजन हुआ ।वह एक अल्पमत  सरकार का नेतृत्व कर रही थींं।
  संसद में कोई भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास कराने से पहले समर्थक दलों पर निर्भर रहना पड़ता था।
    इस स्थिति से तंग आकर प्रधान मंत्री कई हफ्तों तक सोचती रहीं कि चुनाव कराया जाए या नहीं।
  सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से कि पूर्व राजाओं के विशेषाधिकारों को खत्म करने का उनका निर्णय गैर संवैधानिक है,श्रीमती गांधी की द्विविधा समाप्त हो गई।
 1971 में चुनाव कराने का सीधा राजनीतिक लाभ इंदिरा गांधी को मिला।उनकी पार्टी इंका को बिहार में भी उतनी अधिक सीटें मिल गर्इं जितनी सीटें अविभाजित पार्टी को 1967 के चुनाव में भी नहीं मिली थीं।
 कांग्रेस @संगठन @को बिहार में सिर्फ तीन सीटें मिल पार्इं।
@इस लेख का संपादित अंश 21 अप्रैल 2019 के दैनिक भास्कर,पटना में प्रकाशित@ 


आज शाम टहलने के क्रम में ग्रामीण सड़क के किनारे 
एक पुलिया पर बैठे दो व्यक्तियों की बातचीत सुनी।
 उनमें से एक ने दूसरे से कहा कि इस चुनाव में वे नेता लोग हार गए तो वे बर्बाद हो जाएंगेे।जेल जाएंगे।
लेकिन यदि वे जीत गए तो वे देश को ही बर्बाद कर देंगे।
परिचय रहता तो उनसे मैं पूछता कि वे नेता लोग कौन हैं ?

शनिवार, 20 अप्रैल 2019

 नलिन वर्मा लिखित लालू प्रसाद की जीवनी ‘गोपालगंज से रायसीना’ छप कर आ जाने और उस पर व्यापक चर्चा के बाद
सुशील कुमार मोदी को इस ताजा रहस्योद्घाटन के साथ
आना ही था।
  मैं भी इसकी उम्मीद कर रहा था।क्योंकि उस किताब का जवाब यही हो सकता था।
 हालांकि मुझ सहित अनेक लोगों के लिए यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं है।
  यह बात तभी से मीडिया और राजनीतिक हलकों के सीमित दायरे में तैर रही थी जब लालू प्रसाद और प्रेम गुप्त ने जेटली से संपर्क किया था।
इसमें कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें भी हैं।शायद सुशील मोदी ने उन्हें जाहिर करना जरूरी नहीं समझा हो।
मुझे तो वे बातें भी बताई गई थीं।
अब कोई मुझसे पूछ सकता है कि आपने तब जाहिर क्यों नहीं किया ?
दरअसल मैं खंडन के खतरे के बीच कोई बे्रकिंग न्यूज भी नहीं दे सकता।उम्र का यही तकाजा है।
  यह बात उस समय की है जब राजद की मदद से नीतीश कुमार की सरकार चल ही रही थी।
  पर, उस बात को किसी अन्य पत्रकार ने भी नहीं लिखकर ठीक ही किया  क्योंकि कोई आधिकारिक स्वीकृति नहीं थी।
अरूण जेटली या प्रेेम गुप्त ने भी इसे राज बनाए रखा।
 खुद लालू प्रसाद तो बता नहीं सकते थे।
  पर अब जब सुशील मोदी ने इसे सार्वजनिक कर दिया तो यह मान कर चला जा रहा है कि अरूण जेटली ने सार्वजनिक करने की स्वीकृति दे दी होगी।
उन दिनों किसी ने यह भी कहा था कि इस मामले में सी.सी.टी.वी.कैमरे भी गवाह हैं।
  खैर, ऐसी बातें अब राजनीति में आश्चर्य पैदा नहीं करतीं।
ठीक ही कहा गया है कि राजनीति संभावनाओं का खेल है।हां, कुछ नेता कुछ बातें वोट बैंक का ध्यान रखते हुए  सार्वजनिक रूप से नहीं स्वीकारते। 

जब चैधरी चरण सिंह ने चुनाव को बताया था धर्म युद्ध 
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चैधरी चरण सिंह ने 1977 के लोक सभा चुनाव को धर्म युद्ध करार दिया था।
  संभवतः किसी चुनाव को धर्म युद्ध बताने की वह पहली घटना थी।
 धर्म युद्ध का उनका मतलब था कि अन्याय और न्याय के बीच युद्ध।
  इस संबंध में साप्ताहिक ‘दिनमान’ के 6 फरवरी 1977 के  अंक में छपी यह  रपट प्रासंगिक होगी,
‘कान पुर में जनता पार्टी की चुनाव सभा में दल के उपाध्यक्ष चैधरी चरण सिंह ने लोगों से अपील की कि वे भय त्याग कर चुनाव में खुल कर भाग लें ।
उन्होंने आगामी लोक सभा चुनाव को धर्म युद्ध की संज्ञा देते हुए यह विश्वास व्यक्त किया कि लोग बुरी शक्तियों को शिकस्त देंगे।’

2019 का चुनावी दृश्य
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एक दल दूसरे दल से -- ‘तुम चोर !’
दूसरा दल- ‘तुम तो डबल  चोर !!’
एक दल- ‘तुम अपराधियों के संरक्षक।’ 
दूसरा दल- ‘तुम्हारे साथ भी तो अपराधी !’
एक दल- ‘तुम सांप्रदायिक !’ 
दूसरा दल -‘तुम घनघोर सांप्रदायिक !’
एक दल- ‘तुम राजद्रोही !
दूसरा दल -‘तुम तो देशद्रोही !
इस संवाद को और भी लंबा कर सकते हैं---
----ऐसा  संवाद इस देश में दशकों से चल रहा है।
आगे कितने दिनों तक चलता रहेगा ? !
कोई कठोरता से रोकने वाला है नहीं हो तो चलता ही रहेगा।
अधिक दिन नहीं लगेंगे जब अधिकतर दल चोरों , ,माफियाओं, बलात्कारियों ,हत्यारों, देशद्रोहियों, सांप्रदायिक तत्वों से लबालब भर जाएंगे ।
  ये तत्व अब भी मौजूद हैं । पर लबालब नहीं भरे हैं।
जिस दिन लबालब भर जाएंगे तो उसके बाद एक न एक दिन कोई तानाशाह आएगा और इस लोकतंत्र को समाप्त कर देगा।
  अधिकतर जनता उस तानाशाह की पीठ भी ठोगेगी।
क्या ऐसी कल्पना निराधार है ?
 इस पोस्ट पर कुछ लोग कहेंगे कि आप ही तानाशाह बुला रहे हैं।
मैं कहता हूं कि मैं कौन होता हूं बुलाने वाला।
 जाने-अनजाने बुला तो वे रहे हंै जो राजनीति के बीच के चोरों,डकैतों,हत्यारों,सांप्रदायिक तत्वों,देशद्रोहियों माफियाओं का किसी न किसी बहाने समर्थन कर रहे हैं।
@20 अप्रैल 2019@

 30 सितंबर, 2001 को बोस्टन के एक अखबार में न्यूज एजेंसी एएफपी की एक खबर छपी ।
खबर के अनुसार भारत का एक नेता बोस्टन हवाई अड्डे पर 
रोक रखा गया ।क्योंकि उसके पास प्रतिबंधित नशीली 
पदार्थ और हिसाब से अधिक  कैश पाए गए।
बताया गया कि वह  भारत के एक बड़े राजनीतिक घराने से है।
  बाद में अमरीका स्थित भारतीय राजदूत के हस्तक्षेप से उसे छोड़ दिया गया।
 उस खबर की फोटोकाॅपी किसी ने आज मुझे भेजी है।
उसमें उस राजनीतिक परिवार को संकेत से इंगित भी किया गया है।पर, मैं कोई अनुमान नहीं लगा रहा हूं।शायद मेरा अनुमान गलत निकले ! आप भी मत लगाइएगा।
जानते भी हों तो चुप ही रहिएगा।
मैं तो सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि हमारे देश के जो थोड़े से नेता गण प्रतिबंधित नशीला पदार्थ लेते हैं, वे वह काम भारत में तो कर ही रहे हैं।यहां कानून ढीला -ढाला है।
यहां सब चलता है।
ऊपर से इस देश में किसी बड़े नेता को छेड़ना कानून के तथाकथित लंबे हाथ के लिए आसान काम है नहीं।
यह सब काम विदेशी धरती पर करने  से इस देश की बड़ी बदनामी होती है।
फिर यहां के प्रधान मंत्री या विदेश मंत्री को हस्तक्षेप करके छुड़वाना पड़ता है।यहां के अखबारों में वह खबर दबवानी पड़ती है।
वह सब अलग से शर्मनाक स्थिति है।अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में कानून का शासन है।वहां कानून की गिरफ्त से किसी को बचा लेने में बड़ी परेशानी होती है।
कल्पना कीजिए कि 2001 में इस देश के प्रधान मंत्री या विदेश मंत्री को भी न जाने अमेरिका में किस -किस से अनुनय-विनय करना  पड़ा होगा,उस नेता जी को बाइज्जत छुड़वा लेने के लिए !  


राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने 17 अप्रैल को 
कहा कि जातीय संतुलन बनाने के लिए राम नाथ कोविंद जी को राष्ट्रपति बनाया गया।
यह और बात है कि बाद में गहलोत ने कहा कि मीडिया ने मुझे गलत ढंग से पेश किया था।फंसने के बाद नेता आम तौर पर मीडिया को ही दोषी ठहरा ही देते हैं।
  पर मेरा मानना है कि यदि जातीय संतुलन बनाने के लिए ही उन्हें बनाया गया तो भी उसमें बुरा क्या था ?
कांग्रेसी नेता को यह भी ध्यान नहीं है  कि जातीय असंतुलन रखने के कारण खुद कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पड़ा है।
बिहार और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर से सत्ता पाने के लिए तरस ही रही है।केंद्र में भी ऐसी ही नौबत है।
आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ने सी.राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाने के लिए ऐड़ी -चोटी का पसीना एक कर दिया था।जबकि वह खुद ब्राह्मण थे ही उप राष्ट्रपति पद पर भी डा.राधा कृष्णन को बैठना था ।
यानी नेहरू जी का वश चलता तो तीनों शीर्ष पदों पर एक ही जाति के नेता बैठते।वह कैसा संतुलन होता !
वह पटेल थे जिनके कारण राजेन बाबू राष्ट्रपति बन गए
उत्तर प्रदेश में जब भी कांग्रेस को विधान सभाओं में पूर्ण बहुमत मिला,उसने  सवर्णों खास कर ब्राह्मणों को ही मुख्य मंत्री बनाया।
   इस तरह के अनेक उदाहरण आपको मिल जाएंगे।रणदीप सुरजेवाला ने पिछले दिनों सार्वजनिक से कहा कि कांग्रेस के डी एन ए में ही ब्राह्मण है।
  वी.पी.सिंह ने भी माना  था कि उत्तर प्रदेश में आजादी की लड़ाई में ब्राह्मण अधिक थे।पर क्या आजादी सिर्फ ब्राह्मणों के लिए ही हुई  ?
 सुब्रह्मण्यम स्वामी कहते हैं कि ब्राह्मण  ज्ञानी और त्यागी होते हैं।उनका इशारा राहुल गांधी की ओर होता है जिनमें ये गुण नहीं हैं।जबकि राहुल  कहते हैं कि मैं ब्राह्मण हूंंं।
 क्या आजादी के बाद सत्ता में सबको हिस्सेदारी देने की कोशिश हुई ?
आजादी के बाद के पहले कैबिनेट में एक भी यादव या राजपूत क्यों नहीं थे ?
मोरारजी देसाई के कैबिनेट की इस कमी की ओर तो खुद मधु लिमये ने देश का ध्यान खींचा था।
संविधान में प्रावधान रहने के बावजूद कांग्रेस सरकार ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू क्यों नहीं किया ?
क्या उसका नतीजा यह नहीं हुआ कि लालू और मुलायम जैसे एक तरफा सोच वाले नेता उभर कर सामने आए ? वे दरअसल कांग्रेस की एकतरफा सोच के जवाब थे ।
  आज राष्ट्रपति ,प्रधान मंत्री ,स्पीकर तथा अन्य बड़े पदों को देखिए और आजादी के बाद के अधिकतर वर्षों को याद कर लीजिए।
यह कांग्रेस के भी हक में है कि वह सामाजिक संतुलन बना कर चलना अब से भी सीख ले।





मोरारजी देसाई की पुण्य तिथि पर
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    प्रधान मंत्री के रूप में  मोरारजी देसाई जब पटना आए थे तो वे रात में राज भवन की खुली जगह में ही मच्छरदानी लगा कर सो गए थे।तब सुना था कि उन्होंने  पंखा भी नहीं चलने दिया था।
तब कुछ लोगों को इस बात पर  आश्चर्य हुआ था कि उन्होंने एयर कंडीशनर का इस्तेमाल नहीं किया।
  आजादी की लड़ाई में तरह -तरह की तकलीफें झेलने के अभ्यस्त ऐसे गांधीवादी नेताओं की  साधारण जीवन शैली की कल्पना शायद आज की पीढ़ी को नहीं होगी।
आजादी के तत्काल बाद के कुछ नेता जब दिल्ली या अपने  राज्य से बाहर जाते थे तो वे अपने मित्र नेताओं व राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के आवास में टिकते थे।पर, बाद के वर्षों में वह परंपरा लगभग समाप्त हो गयी ।
उसके कई कारण थे।एक कारण तो बड़ा शर्मनाक था।कुछ लोग अनैतिक संबंधों की अफवाह फैलाने लगे।
 अपवादों को छोड़ दें तो आज तो अधिकतर दलों के  सामान्य राजनीतिक कार्यकत्र्तागण भी शीत ताप नियंत्रित जीवन शैली  के अभ्यस्त हो चुके हैं।
  आज अधिकतर नेताओं के लिए राजनीति, बेईमानी से भरे  व्यापार में परिणत हो चुकी है । राजशाही जैसी वंशवादी बन गई है।ऐसे में  ऐयाशी स्वाभाविक ही है।
  मोरारजी देसाई ने अपने लिए कोई निजी घर तक नहीं बनवाया।
जबकि उप समाहत्र्ता की नौकरी छोड़ कर आजादी की लड़ाई में कूदे थे।प्रधान मंत्री के रूप में सर्विस प्लेन से ही विदेश जाते थे,विशेष विमान से नहीं।
 सरकार के पैसे बचाने के लिए वे वैसा करते थे।
पर उस कारण अनेक पत्रकारों को विदेश यात्रा से वंचित रह जाना पड़ता था। 
नतीजतन कुछ नाराज पत्रकार उनकी मूत्र चिकित्सा को लेकर उनका मजाक उड़ाते रहते थे।
  तब घनश्याम पंकज समाचार भारती के पटना ब्यूरो प्रमुख थे।
 प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई मास्को जाने वाले थे।पत्रकारों ने जब साथ ले चलने का उनसे आग्रह किया तो मोरार जी ने कहा कि तुम्हारे संस्थान खर्च नहीं देंगे ? तुम भी अपने खर्च से सर्विस विमान से चलो।मैं तुम सब के लिए जनता का पैसा बड़े विमान पर क्यों खर्च करूं ?
पंकज जी समाचार भारती के खर्चे पर सर्विस विमान से मास्को गए थे।लौटकर पंकज जी ने  दैनिक ‘आज’ के पटना आॅफिस में उस यात्रा का रोचक  संस्मरण सुनाया था। तब मैं आज में काम करता था।ऐसे थे मोरारजी भाई।
जीवन के आखिरी दिनों में  जब एक मुकदमे के कारण मुम्बई के उनके किराए के मकान को भी उन्हें खाली करना पड़ा तो इस बेघर पूर्व प्रधान मंत्री के लिए शरद पवार के रहने की व्यवस्था कराई थी।
  इस बीच कुछ  अन्य पूर्व प्रधान मंत्रियों,पूर्व उप प्रधान मंत्रियों,पूर्व केंद्रीय मंत्रियों व पूर्व मुख्य मंत्रियों  और उनके रिश्तेदारों कीे अपार धन दौलत की खबरें समय- समय पर पढ़ते जाइए !
याद रहे कि मोरारजी भाई बारी -बारी से इन सभी पदों पर बैठ चुके थे।खुद का बैठकखाना यानी घर नहीं बनवा सके क्योंकि वेतन के पैसों से घर बनाना संभव नहीं हुआ।

राहुल गांधी को किसी ने सिखाया कि बोलिए कि नरेंद्र मोदी ने 30 हजार करोड़ रुपए अनिल अंबानी की जेब में डाल दिए।
बोलने को तो राहुल जी यह लगातार बोलते जा रहे हैं।किन्तु राहुल जी भी कभी -कभी यह सोचते होंगे कि कैसा मूरख है यह मोदी ! कमाया हुआ पैसा दूसरे की जेब में डाल देता है !
पता नहीं, लौटाएगा या नहीं ?
इधर देखिए हमारे लोगों को !  सारे पैसे अपने ही पास रखते हैं, चाहे छापामारी हो या जेल जाना पड़े या जमानत पर रहना पड़े।
आखिर में तो अपना राज भी कभी आएगा ही न !
फिर बोफर्स की तरह रफा-दफा कर देने में भला कहां दिक्कत है ? 

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

इलेक्शन रेफरेंस
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रशियन स्याही की बात 
मधु लिमये ने नहीं मानी  
सुरेंद्र किशोर 
समाजवादी नेता मधु लिमये ने 1971 में कहा था कि ‘रसायन अथवा अदृश्य स्याही के प्रयोग के आरोपों पर मैंने कभी विश्वास नहीं किया और अपने चुनाव क्षेत्र के मतपत्रों की जांच से मेरी धारणा और भी अधिक पुष्ट हुई।’
   1971 मेें लिमये मुंगेर लोक सभा चुनाव हार गए थे।
  उससे पहले वहां से वे दो बार जीते थे।
याद रहे कि 1971 के लोक सभा चुनाव के तत्काल बाद जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने  मतपत्रों पर रशियन स्याही का इस्तेमाल करके प्रतिपक्षी दलों को हरवा देने का आरोप लगाया था।इस पर  चुनाव आयोग ने उसकी सीमित जांच करवाई।
 जांच चुनाव कानून, 1961 की धारा - 93@1@ के तहत  हुई।
 विभिन्न दलों के 13 सदस्यों को मतपत्रों की जांच की अनुमति चुनाव आयोग ने  दी थी।
जिन दलों के नेताओं को जांच की अनुमति मिली  ,उनमें सत्ताधारी कांग्रेस, भारतीय क्रांति दल, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी,सी.पी.आई.और अकाली दल शामिल थे।
 मधोक और समाजवादी नेता राज नारायण ने प्रयुक्त और अप्रयुक्त मतपत्रों की जांच की अनुमति प्राप्त करने के लिए जो याचिका दायर की थी, उसे मुख्य चुनाव आयुक्त एस.पी.सेनवर्मा ने पहले ही अस्वीकार कर दिया था।
मधोक ने मतपत्रों में रसायन और अदृश्य स्याही के प्रयोग के अलावा यह जांचने की भी अनुमति चाही थी कि मतपत्रों में ठीक गाय -बछड़े के चिह्न में ही मुहर लगाई गई है या नहीं।
कहीं जनसंघ के चुनाव चिह्न के खाने तक तो मुहर की स्याही नहीं फैल गई है ?
सभी मतपत्रों के कागज का स्तर समान था या नहीं।
चुनाव आयोग ने इन आरोपांे को निराधार बताया।
  बाद में राजनारायण ने  प्रतिपक्ष की हार के दूसरे कारण गिनाए।उन्होंने कहा कि चार दलों के मोर्चे से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी को कोई लाभ नहीं मिला।
अन्य दलों के प्रतिबद्ध मत हमें नहीं मिले।
बहुत से अल्पसंख्यक  मत हमसे कट गए।
@इस लेख का संपादित अंश आज के दैनिक भास्कर,पटना  में प्रकाशित@


  


स्वच्छ चुनाव के लिए अदालत और आयोग की पहल सराहनीय-सुरेंद्र किशोर
तमिलनाडु के वेलौर और त्रिपुरा के त्रिपुरा पूर्व लोकसभा क्षेत्रों के चुनाव रद्द कर दिए गए।
  कानून-व्यवस्था की समस्या और भारी नकदी की बरामदी के बाद ऐसा किया गया।
 सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद योगी आदित्य नाथ ,मायावती , आजम खान और मेनका गांधी के चुनाव प्रचार पर अस्थायी रोक लगाई गई।
   कुछ अन्य नेताओं पर रोक लगाने की जरूरत है।पर चलिए शुरूआत अच्छी है।सुप्रीम कोर्ट ने  कहा है कि कार्रवाई देख कर लगता है कि आयोग की शक्ति वापस आ गई है।
 यदि उन सारे चुनाव क्षेत्रों मंे ऐसी कार्रवाई हो जहां पैसे और बाहुबल से चुनाव नतीजों को पलटने की कोशिश होती रहती है तो इस देश के  लोकतंत्र के लिए शुभ होगा।
 -- टी.एन.शेषन की याद--
1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने कहा था कि
‘मैं अपने कत्र्तव्य के प्रति समर्पित हूं, भले मुझे कोई अलसेसियन कहे या खलनायक या फिर पागल कुत्ता,मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।’
 अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि ‘चुनाव में शांति बनाए रखने का काम शहनाई बजा कर नहीं हो सकता।
मेरा बाॅस न तो प्रधान मंत्री हैं और न राष्ट्रपति।जनता ही मेरी बाॅस है।’
  शेषण ने जब मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यभार सम्भाला था,उस समय चुनाव -प्रक्रिया में भारी अराजकता थी।
शेषण ने काफी हद तक  काबू पाने की कोशिश की।उस समय बाहुबल का अधिक बोलबाला था।आज नकदी और जातीय-सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने पर अधिक जोर है।
 आज मुख्य चुनाव आयुक्त के और भी कड़े होने की जरूरत है।
किन्तु कड़ाई विवेक के साथ हो। एकाध बार  शेषण पर विवेक का साथ छोड़ देने का आरोप लगा था।समय रहते यदि  सुधार नहीं हुआ तो भारी धनबल  का जहर लोकतंत्र के लिए अधिक खतरनाक साबित होगा।
 टी.एन.शेषण के कुछ कामों से तब शासन,अदालत और संसद भी नाराज हो गई थी।आज अदालत चुनाव आयोग के साथ है।
एक बार फिर चुनाव नियमों की किताब के अनुसार काम  जरूरी है ताकि चुनाव -व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके।
-मुद्दा वही जो मन भाए-
कर्नाटका के एक बड़े नेता ने कहा है कि वंशवाद चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है।उन पर वंशवाद का आरोप है।
बिहार के एक नेता बहुत पहले कह चुके हैं कि जिसे जनता ने चुनाव जितवा दिया,वह अपराधी कैसा ?
इस देश के एक तीसरे नेता ने कहा था कि  भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं क्योंकि वह तो विश्वव्यापी है।
चैथा नेता कहते हैं कि बलात्कार कोई मुद्दा नहीं । लड़कों से गलतियंा हो ही जाती हैं।
पाचवा नेता कहता है कि परीक्षा में कदाचार कोई मुद्दा नहीं ।परीक्षा केंद्र में इधर -उधर ताक झांक कर लेना कोई अपराध नहीं।
छठा नेता कहता है कि राष्ट्रद्रोह कोई मुद्दा नहीं।हम सत्ता में आएंगे तो इस कानून को ही खत्म कर देंगे।
कोई नेता एक रंग के आतंकवाद का बचाव करता है तो दूसरा नेता अन्य रंग के आतंकवाद का।
 ऐसी बातें करने वाले कोई मामूली नेता नहीं हैं।यही लोग दशकों से इस देश को चलाते रहे हैं।
कैसा चल रहा है यह देश ?
मौजूदा चुनाव के नतीजे एक हद तक बता ही देंगे कि जनता की नजर में महत्वपूर्ण मुद्दे कौन से हैं।
    -- और अंत मंे-
स्वाभाविक ही है कि मतदाता अपने सांसद से यह सवाल करे कि  आप पांच साल तक यहां आए क्यों नहीं ?
1967 तक लोक सभा और विधान सभाओं के  चुनाव एक साथ होते थे।तब लोग सांसद से ऐसे सवाल नहीं करते थे।सांसद आज जितने सक्रिय थे भी नहीं।उनके काम उनके दल के विधायक ही कर दिया करते थे।
करते भी थे तो विधायकों से ।क्योंकि उनके विधायक ही रोज ब रोज उनके दुख-सुख में शामिल रहते थे।
अब बेचारा सासंद चाह कर भी घर- घर जा नहीं सकता।क्यों नहीं फिर से संसद और विधान सभाओं के एक ही साथ चुनाव करने का प्रबंध हो जाए ?
ऐसी पहल नए सांसद कर सकते हैं।उन्हें इसका अधिक राजनीतिक लाभ मिलेगा। 
@19 अप्रैल 2019 को प्रभात खबर -बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से @

बकलोल उत्तराधिकारी !
कभी सुना था कि दुनिया के एक बहुत बड़े आद्योगिक घराने के मालिक के बकलोल उत्तराधिकारी ने अपने अर्ध पागलपन में  उलूल -जलूल हरकतों, बातों और क्रिया कलापों से अपने पारिवारिक उद्योग -धंधों को समाप्त प्रायः कर दिया था।
   खैर, वह तो निजी औद्योगिक घराना था।पूर्वजों के सामने यह मजबूरी थी ।वे  एकमात्र संतान को उत्तराधिकार नहीं सौंपते तो किसे सौंपते ?
पर, किसी राजनीतिक पार्टी के लिए तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं हो सकती ! यदि इस देश में कभी किसी वंशवादी राजनीतिक पार्टी के सामने ऐसी कोई समस्या आ जाए तो वह अपने  पूर्ण विनाश से पहले ही चेत जाए ! उसका चेत जाना लोकतंत्र के हक में  सही कदम होगा।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वह समस्या इस देश में आ ही चुकी है।
पर,यदि कोई पार्टी,अपने  नेतृत्व के लिए सिर्फ एक ही वंश पर निर्भर हो तो देर -सवेर ऐसी समस्या आ ही सकती है।
सदा तो ऐसा नहीं होगा कि उस वंश की हर संतान अर्ध -पागलपन और बकलोलपन की समस्या से मुक्त ही हो !

चुनावी भविष्यवाणियां
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इस चुनाव के नतीजे को लेकर तरह -तरह की 
भविष्यवाणियां की जा रही हैं।
राजनीतिक नेताओं की भविष्यवाणियों को परे रख दें।
वे तो अपनी -अपनी लाइन पर ही बोलेंगे।मजबूरी है।
पर जो लोग राजनीति से अलग हैं,भले उनकी विचारधारा जो भी हो,उनकी भविष्यवाणियों पर गौर करें।
 उन में से कुछ प्रमुख व नामी -गिरामी लोगों की भविष्यवाणियां नोट कर लें।
  23 मई को रिजल्ट से उन्हें मिला कर देखें।
जिनकी भविष्यवाणी रिजल्ट से अधिक करीब लगे,उनकी भविष्यवाणियों को आगे भी गंभीरता से लिया करें।
अगले ही साल बिहार विधान सभा का चुनाव भी होने वाला है।काम आएगा।
अपनी इच्छा को भविष्यवाणी के रूप में पेश करने वालों से सावधान हो जाने का यह अच्छा अवसर है।

भई, मुकेश अम्बानी भी कमाल के आदमी हैं !
सबसे बड़े व्यवसायी होते हुए भी उन्होंने सत्ता की कत्तई परवाह नहीं की और मुम्बई में कांग्रेस उम्मीदवार मिलिंद देवड़ा को अपना समर्थन दिया।
मेरी जानकारी में राहुल बजाज के बाद मुकेश ही ऐसे व्यापारी हैं जिन्होंने अपने मन की करी।इस तरह उन्होंने उपकार का बदला भी चुकाया।
  एक तरह वे अपने वचन पर भी खरा उतरे ।
मुकेश अम्बानी ने कभी रंजन भट्टाचार्य से कहा था कि ‘कांग्रेस तो अब अपनी दुकान है।’@-नीरा राडिया टेप@
 रंजन भट्टाचार्य यानी अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा  गोद लिए गए परिवार के एक सदस्य।
@19 अप्रैल 2019@

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

‘मोदी’ नामक वोट बैंक कितना मजबूत ?
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‘मोदी’ शब्द भी एक वोट बैंक बन चुका है।
यह कितना मजबूत ‘वोट बैंक; है या कितना कमजोर ? 
यह तो चुनाव रिजल्ट ही बताएगा।
पर, बिहार के गांवों से मिल रही छिटपुट सूचनाओं के अनुसार अनेक लोग कह रहे हैं कि हम तो मोदी को वोट दंेगे।
यानी वे न तो किसी उम्मीदवार को वोट दे रहे हैं और  न किसी ही पार्टी को। 

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

चुनाव आयोग ने इस बार एक नया आदेश जारी किया है।
आदेश के अनुसार उम्मीदवारों को अपने आपराधिक रिकाॅर्ड का विवरण तीन बार समाचार पत्रों में छपवाना होगा।
नाम वापसी की आखिरी तारीख बीत जाने के बाद और मतदान के दिन से पहले तीन बार छपवाना होगा।
पहले दौर के मतदान बिहार में हो चुके हैं।दूसरा दौर होने ही वाला है।
 इस आदेश का कितना पालन हो रहा है ?
आपने प्रमुख समाचार पत्रों में लोक सभा उम्मीदवारों की ओर से छपे ऐसे विवरण देखे हैं ?-17 अपै्रल 2019


        केंद्र सरकार की लापारवाही 
       ----------------- 
1.-भ्रष्टों पर वार को नहीं मिली इजाजत
2.-मुकदमा चलाने के लिए सरकार की मंजूरी 
का इंतजार कर रहा सी वी सी
3.-सी.वी.सी.यानी केंद्रीय सतर्कता आयुक्त ने 79 भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ मांगी मुकदमे की इजाजत
4.-लेकिन मंजूरी प्रदान करने में हीला -हवाली कर रही कंेद्र सरकार
5. 13 बैंक कर्मियों के खिलाफ भी होना है निर्णय,नहीं मिली   मंजूरी
6.-सबसे ज्यादा नौ मामले कार्मिक मंत्रालय के पास पड़े हैं लंबित
         -----राष्ट्रीय सहारा, पटना, 16 अप्रैल, 2019
  

इलेक्शन रेफरेंस
मतदान प्रक्रिया पर शक
 करने की कहानी पुरानी
        सुरेंद्र किशोर
मतदान प्रक्रिया की प्रामाणिकता पर शक करने की परंपरा कोई नई नहीं है।
हालांकि अब तो मतदान से पहले ही शक किया जा रहा है।
1971 में मतदान के बाद शक किया गया था।
 ‘गरीबी हटाओ’ के लोक लुभावन नारे की लहर पर सवार होकर इंदिरा गांधी ने 1971 के लोक सभा का चुनाव भारी बहुमत से जीत लिया था।उससे पहले उन्होंने कुछ गरीबपक्षी कदम भी उठाए थे।
 पर चुनाव नतीजे आने के बाद जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने आरोप लगाया कि यह चुनावी जीत रसियन  स्याही के बल पर हासिल की गई।
 मधोक के  आरोप पर कम ही लोगों ने भरोसा किया,पर इस आरोप ने कुछ देर के लिए हलचल जरूर मचा दी थी।
1971  में  मधोक भी कांग्रेस के शशिभूषण से  हार गए थे।
मधोक ने कहा कि ‘मुझे शशिभूषण ने नहीं बल्कि अदृश्य स्याही ने हराया है।मैं कुछ ऐसा रहस्य खोलने जा रहा हूं जिससे पूरा देश हिल जाएगा।’
  मधोक के अनुसार, मतपत्रों पर पहले से ही अदृश्य स्याही लगी हुई थी।
 अदृश्य स्याही से गाय- बछिया के सामने निशान पहले से ही लगा था।
वह मतपेटी में जाने के बाद कुछ समय में अपने -आप उभर आता है।
उधर मतदाता के द्वारा लगाया गया निशान अपने- आप मिट जाता है।’
  इस आरोप पर चर्चा  के लिए मधोक विरोधी दलों के नेताओं से मिले तो किसी ने उनके इस आरोप को गंभीरता से नहीं लिया।
  एक विवेकशील नेता ने तब कहा था कि ‘पराजित नेता हार को झुठलाने की कोशिश करने की जगह हार के सही कारणों की पहचान करें।अन्यथा ऐसे बेसिर पैर के आरोप से प्रतिपक्ष की प्रतिष्ठा कम होगी।’
दरअसल प्रतिपक्ष के कुछ बड़े नेताओं को यह बात  समझ में  नहीं आ रही थी कि जब अविभाजित कांग्रेस के बड़े -बड़े सम्मानित व ताकतवर माने जाने वाले  नेतागण इंदिरा गांधी की कांग्रेस के विरोध में थे तो भी इंदिरा गांधी जीत कैसे गईं। 
@इस लेख का संपादित अंश आज के दैनिक भास्कर,पटना  में प्रकाशित@