प्रधान मंत्री का पद तीन-तीन बार ज्योति बसु के दरवाजे पर आकर लौट गया था। एक बार तो सी.पी.एम. की केंद्रीय कमेटी ने उन्हें प्रधान मंत्री पद स्वीकारने ही नहीं दिया। यह 1996 की बात है। अन्य दो अवसरों पर खुद ज्योति बसु ने यह पद ठुकरा दिया। 1996 से पहले उन्हंे ऐसा आफर 1989 और 1990 में भी मिला था।
संभवतः ऐसा इस देश में सिर्फ ज्योति बसु के ही साथ हुआ। इस बारे में खुद ज्योति बसु ने कहा था कि ‘भारत का प्रधान मंत्री बनने का प्रस्ताव मेरे सामने पिछले कई वर्षों से विभिन्न स्त्रोतों से आता रहा है। 1996 में जब वी.पी. सिंह ने प्रस्ताव दिया तब मुझे लगा कि इसे स्वीकार करने का समय आ गया है।’ इस बात का पता तो पूरे देश को तभी चल गया था कि किस तरह सी.पी.एम. ने ज्योति बसु को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया था। पर यह बात कम ही लोग जानते हैं कि 1989 में भी प्रधान मंत्री बनने का प्रस्ताव अरुण नेहरू ने ज्योति बसु को दिया था। यह प्रस्ताव राजीव गांधी की ओर से अरुण नेहरू ने ज्योति बाबू तक पहुंचाया था।
ज्योति बसु के जीवन पर लिखित अरुण पांडेय की पुस्तक में इस बात का जिक्र है। पुस्तक 1997 में राज कमल प्रकाशन ने प्रकाशित की थी। ज्योति बसु ने बताया था कि ‘मैंने तब अरुण नेहरू का आॅफर अस्वीकार कर दिया था।’
अरूण पांडेय लिखते हैं कि ‘उनके स्वीकारों व अस्वीकारों का अर्थ समझा जा सकता है। यदि वे 1989 में प्रधान मंत्री पद का ख्वाब देखने लगे होते तो भारतीय मतदाता उन्हें खलनायक मानते। क्योंकि 1989 के नायक तो विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। ठीक उसी तरह यदि वे 1990 में राजीव गांधी से हाथ मिला कर प्रधान मंत्री बनते तो उन्हें विश्वासघाती कहा जाता। इससे अलग 1996 का प्रस्ताव उन्हें नायक बनाता लग रहा था। क्योंकि वे समूचे तीसरे मोर्चे की आखिरी पसंद थे। चुनौतियां विकट थीं, पर उनसे टकराने का पर्याप्त अनुभव उनके पास था। इसीलिए ज्योति बसु ने माकपा के इस निर्णय को भयंकर ऐतिहासिक भूल घोषित किया। याद रहे कि उनकी पार्टी ने ही उन्हें 1996 में प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया था।’
इस संबंध में ज्योति बसु ने कहा था कि ‘सरकार में शामिल होने के सवाल पर पार्टी ने जैसा अड़ियल और अनम्य रूख अख्तियार किया, उसका कारण था मेरे अपने पाॅलिट ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी के साथियों में उपयुक्त राजनीतिक समझ का अभाव। इसीलिए वे स्थिति का सामना सकारात्मक रूप से नहीं कर सके। अधिकतर के विचार युक्तियुक्त नहीं थे। उन्होंने भयंकर भूल की। इस बात का हमें दिली अफसोस है कि सरकार में शामिल न होने का निर्णय करके हमारी पार्टी के साथियों ने मेरे सुझाव को महत्वहीन माना और एक प्रकार से मेरे विवेक को अपमानित किया। लोग हमें इस निर्णय के लिए उसी प्रकार दोषी ठहराएंगे जिस प्रकार उन्होंने तब दोषी ठहराया था जब हमने मोरारजी सरकार को समर्थन नहीं दिया था।’
1979 में चैधरी चरण सिंह मोरारजी की सरकार गिराने पर अमादा थे। ज्योति बसु उसी समय की चर्चा कर रहे थे। तब ज्योति बसु विदेश में थे। बसु ने इस संबंध में कहा था कि ‘तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी सरकार बचाने के लिए समर्थन की मांग मुझसे तब की थी, जब मैं बुखारेस्ट में छुटिटयां मना रहा था। उन्होंने मुझे फौरन भारत लौटने को कहा था। मैंने स्थिति का अध्ययन कर मन ही मन फैसला कर लिया कि मोरारजी देसाई को पद पर बैठाए रखने के लिए हमारी पार्टी को उनका समर्थन करना चाहिए। लेकिन इससे पहले कि मैं भारत पहुंचता, हमारी पार्टी उन्हें समर्थन नहीं देने का फैसला कर चुकी थी। मैं कुछ नहीं कर पाया। क्योंकि मैं पार्टी के भीतर अल्पमत में था। मेरी दृष्टि में यह भी भारी भूल थी। इंदिरा गांधी ने राजनीतिक निर्णय लेते समय राजनीतिक नैतिकता की कतई परवाह नहीं की। हमारी पार्टी पर मोरारजी देसाई सरकार को गिराने का आरेाप लगा। हमारी गलती ही इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी का कारण बनी। याद रहे कि इंदिरा गांधी ने समर्थन देकर चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनवा दिया था और लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले समर्थन भी वापस ले लिया था।
माकपा में मौजूद उनके विरोधियों ने इस तरह के मामलों में ज्योति बसु के तर्कों को खारिज कर दिया था। उनके विरोधियों का मानना था कि पार्टी ऐसी किसी सरकार में शामिल नहीं हो सकती, जिसकी नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में वह नहीं हो। दूसरा तर्क यह था कि कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलाने का हर अभियान पार्टी के विस्तार में बाधक होगा। तीसरा तर्क यह था कि सरकार से बाहर रहते हुए पार्टी सरकार पर अपना दबाव भी बना सकती हेै। साथ ही पार्टी मोर्चे के विभिन्न धड़ों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में अधिक सक्षम हो सकती है। ज्योति बसु को गम इस बात का नहीं था कि वे प्रधान मंत्री नहीं बन सके, बल्कि उन्हें इस बात का गम रहा कि उनकी पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप करने का एक सुनहरा अवसर खो दिया।
सुरभि बनर्जी ज्योति बसु की अधिकृत जीवनीकार रही हैं। उन्होंने लिखा है कि ज्योति बसु किसी भी पद को स्वीकार करने में सदा संकोची रहे। उन्होंने यानी ज्योति बसु ने हंसते हुए जीवनीकार से कहा था कि ‘सरकार में शामिल नहीं होने का निर्णय लेकर केंद्रीय कमेटी के बहुमत ने मुझे बचा लिया। क्योंकि प्रधान मंत्री बनने के बाद मेरे उपर बोझ बढ़ जाता। स्वास्थ्य खराब होने के कारण मुझे तकलीफ होती।’ इस पर सुरभि बनर्जी ने लिखा है कि ‘केंद्रीय कमेटी के फैसले के बाद मैंेने माकपा के ढेर सारे सदस्यों और कई अन्य राजनीतिक विश्लेषकों से बात की। लगभग सभी ने कहा कि यह फैसला देशहित को ध्यान में रख कर किया गया फैसला नहीं था बल्कि पार्टी में मौजूद परंपरागत द्वंद्व का परिणाम था। ज्योति बसु से अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी और विचारधारात्मक विरोधों के चलते केंद्रीय कमेटी के अधिकतर सदस्यों ने बैठक में आने से पहले ही यह तय कर लिया था कि किसी भी कीमत पर उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बने देना है।’
इस मसले पर बंगाल बनाम केरल वाला पुराना निष्कर्ष निकालने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। क्योंकि उनकी व्यक्तिगत दुश्मनी किससे थी और विचारधारात्मक मतभेद किससे था, इस सवाल का किसी महत्वपूर्ण नेता की तरफ से कोई अधिकारिक बयान नहीं आया है।
संभवतः ऐसा इस देश में सिर्फ ज्योति बसु के ही साथ हुआ। इस बारे में खुद ज्योति बसु ने कहा था कि ‘भारत का प्रधान मंत्री बनने का प्रस्ताव मेरे सामने पिछले कई वर्षों से विभिन्न स्त्रोतों से आता रहा है। 1996 में जब वी.पी. सिंह ने प्रस्ताव दिया तब मुझे लगा कि इसे स्वीकार करने का समय आ गया है।’ इस बात का पता तो पूरे देश को तभी चल गया था कि किस तरह सी.पी.एम. ने ज्योति बसु को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया था। पर यह बात कम ही लोग जानते हैं कि 1989 में भी प्रधान मंत्री बनने का प्रस्ताव अरुण नेहरू ने ज्योति बसु को दिया था। यह प्रस्ताव राजीव गांधी की ओर से अरुण नेहरू ने ज्योति बाबू तक पहुंचाया था।
ज्योति बसु के जीवन पर लिखित अरुण पांडेय की पुस्तक में इस बात का जिक्र है। पुस्तक 1997 में राज कमल प्रकाशन ने प्रकाशित की थी। ज्योति बसु ने बताया था कि ‘मैंने तब अरुण नेहरू का आॅफर अस्वीकार कर दिया था।’
अरूण पांडेय लिखते हैं कि ‘उनके स्वीकारों व अस्वीकारों का अर्थ समझा जा सकता है। यदि वे 1989 में प्रधान मंत्री पद का ख्वाब देखने लगे होते तो भारतीय मतदाता उन्हें खलनायक मानते। क्योंकि 1989 के नायक तो विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। ठीक उसी तरह यदि वे 1990 में राजीव गांधी से हाथ मिला कर प्रधान मंत्री बनते तो उन्हें विश्वासघाती कहा जाता। इससे अलग 1996 का प्रस्ताव उन्हें नायक बनाता लग रहा था। क्योंकि वे समूचे तीसरे मोर्चे की आखिरी पसंद थे। चुनौतियां विकट थीं, पर उनसे टकराने का पर्याप्त अनुभव उनके पास था। इसीलिए ज्योति बसु ने माकपा के इस निर्णय को भयंकर ऐतिहासिक भूल घोषित किया। याद रहे कि उनकी पार्टी ने ही उन्हें 1996 में प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया था।’
इस संबंध में ज्योति बसु ने कहा था कि ‘सरकार में शामिल होने के सवाल पर पार्टी ने जैसा अड़ियल और अनम्य रूख अख्तियार किया, उसका कारण था मेरे अपने पाॅलिट ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी के साथियों में उपयुक्त राजनीतिक समझ का अभाव। इसीलिए वे स्थिति का सामना सकारात्मक रूप से नहीं कर सके। अधिकतर के विचार युक्तियुक्त नहीं थे। उन्होंने भयंकर भूल की। इस बात का हमें दिली अफसोस है कि सरकार में शामिल न होने का निर्णय करके हमारी पार्टी के साथियों ने मेरे सुझाव को महत्वहीन माना और एक प्रकार से मेरे विवेक को अपमानित किया। लोग हमें इस निर्णय के लिए उसी प्रकार दोषी ठहराएंगे जिस प्रकार उन्होंने तब दोषी ठहराया था जब हमने मोरारजी सरकार को समर्थन नहीं दिया था।’
1979 में चैधरी चरण सिंह मोरारजी की सरकार गिराने पर अमादा थे। ज्योति बसु उसी समय की चर्चा कर रहे थे। तब ज्योति बसु विदेश में थे। बसु ने इस संबंध में कहा था कि ‘तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी सरकार बचाने के लिए समर्थन की मांग मुझसे तब की थी, जब मैं बुखारेस्ट में छुटिटयां मना रहा था। उन्होंने मुझे फौरन भारत लौटने को कहा था। मैंने स्थिति का अध्ययन कर मन ही मन फैसला कर लिया कि मोरारजी देसाई को पद पर बैठाए रखने के लिए हमारी पार्टी को उनका समर्थन करना चाहिए। लेकिन इससे पहले कि मैं भारत पहुंचता, हमारी पार्टी उन्हें समर्थन नहीं देने का फैसला कर चुकी थी। मैं कुछ नहीं कर पाया। क्योंकि मैं पार्टी के भीतर अल्पमत में था। मेरी दृष्टि में यह भी भारी भूल थी। इंदिरा गांधी ने राजनीतिक निर्णय लेते समय राजनीतिक नैतिकता की कतई परवाह नहीं की। हमारी पार्टी पर मोरारजी देसाई सरकार को गिराने का आरेाप लगा। हमारी गलती ही इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी का कारण बनी। याद रहे कि इंदिरा गांधी ने समर्थन देकर चरण सिंह को प्रधान मंत्री बनवा दिया था और लोकसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले समर्थन भी वापस ले लिया था।
माकपा में मौजूद उनके विरोधियों ने इस तरह के मामलों में ज्योति बसु के तर्कों को खारिज कर दिया था। उनके विरोधियों का मानना था कि पार्टी ऐसी किसी सरकार में शामिल नहीं हो सकती, जिसकी नीतियों को प्रभावित करने की स्थिति में वह नहीं हो। दूसरा तर्क यह था कि कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलाने का हर अभियान पार्टी के विस्तार में बाधक होगा। तीसरा तर्क यह था कि सरकार से बाहर रहते हुए पार्टी सरकार पर अपना दबाव भी बना सकती हेै। साथ ही पार्टी मोर्चे के विभिन्न धड़ों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में अधिक सक्षम हो सकती है। ज्योति बसु को गम इस बात का नहीं था कि वे प्रधान मंत्री नहीं बन सके, बल्कि उन्हें इस बात का गम रहा कि उनकी पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप करने का एक सुनहरा अवसर खो दिया।
सुरभि बनर्जी ज्योति बसु की अधिकृत जीवनीकार रही हैं। उन्होंने लिखा है कि ज्योति बसु किसी भी पद को स्वीकार करने में सदा संकोची रहे। उन्होंने यानी ज्योति बसु ने हंसते हुए जीवनीकार से कहा था कि ‘सरकार में शामिल नहीं होने का निर्णय लेकर केंद्रीय कमेटी के बहुमत ने मुझे बचा लिया। क्योंकि प्रधान मंत्री बनने के बाद मेरे उपर बोझ बढ़ जाता। स्वास्थ्य खराब होने के कारण मुझे तकलीफ होती।’ इस पर सुरभि बनर्जी ने लिखा है कि ‘केंद्रीय कमेटी के फैसले के बाद मैंेने माकपा के ढेर सारे सदस्यों और कई अन्य राजनीतिक विश्लेषकों से बात की। लगभग सभी ने कहा कि यह फैसला देशहित को ध्यान में रख कर किया गया फैसला नहीं था बल्कि पार्टी में मौजूद परंपरागत द्वंद्व का परिणाम था। ज्योति बसु से अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी और विचारधारात्मक विरोधों के चलते केंद्रीय कमेटी के अधिकतर सदस्यों ने बैठक में आने से पहले ही यह तय कर लिया था कि किसी भी कीमत पर उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बने देना है।’
इस मसले पर बंगाल बनाम केरल वाला पुराना निष्कर्ष निकालने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। क्योंकि उनकी व्यक्तिगत दुश्मनी किससे थी और विचारधारात्मक मतभेद किससे था, इस सवाल का किसी महत्वपूर्ण नेता की तरफ से कोई अधिकारिक बयान नहीं आया है।
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