संसद ने सांसदों के खिलाफ टीम अन्ना की एक ताजा टिप्पणी की एकमत से मंगलवार को निंदा की। वह खास टिप्पणी निंदा के काबिल थी भी। पर, सांसदों के उस सर्वसम्मत वायदे की लगातार वादाखिलाफी की निंदा कब यह संसद करेगी जो वायदा सन् 1997 में देश के साथ किया गया था ?
आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव में कहा था कि हम भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त करेंगे और चुनाव सुधार भी करेंगे। यदि संसद, सांसद व अब तक की सरकारों ने इस दिशा में ठोस कदम आगे बढ़ाया होता तो आज अन्ना टीम उभर कर सामने आती ही नहीं। उसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। पर इसके विपरीत हकीकत तो यह है कि आज देश में सन् 1997 की अपेक्षा अधिक भ्रष्टाचार है। राजनीति का अधिक अपराधीकरण हुआ है और चुनाव सुधार के अभाव में विधायिकाओं का स्वरूप व चरित्र भी बदलता जा रहा है। इन दिनों अनेक छोटे -बड़े नेतागण व जन प्रतिनिधि सदन के भीतर व बाहर एक दूसरे को चोर, उच्चके, बदमाश, हत्यारे, बलात्कारी और न जाने क्या -क्या नहीं कहते रहते हैं। इस संबंध में इस देश में जहां -तहां मानहानि के मुकदमे भी दायर होते रहते हैं।
सन 1997 में हुए संसद के उस छह दिवसीय विशेष अधिवेशन में उस समय की दुरअवस्था को लेकर जिस तरह की कड़ी टिप्पणियां खुद सांसदों ने की थीं, सामान्यतः वैसी ही टिप्पणियां तो आज टीम अन्ना कर रही है। पर इस पर इस देश के अधिकतर नेतागण टीम अन्ना पर तमतमाये हुए हैं। यानी हम करें तो पुण्य और तुम करो तो पाप? इस देश की राजनीति आखिर आज कहां जा रही है ?
नई दिल्ली के जंतर मंतर पर टीम अन्ना के धरने के दौरान सोमवार को की गई एक आपत्तिजनक टिप्पणी पर संसद या यूं कहें कि अधिकतर सांसद तमतमा गये। वह टिप्पणी ही ऐसी थी कि संसद का तमतमाना वाजिब भी था। पर सवाल यह उठता है कि इसी संसद व उसके सदस्यों ने
पिछले 15 साल में अपने ही उस सर्वसम्मत प्रस्ताव को कूड़ेदान में आखिर क्यों फेंक दिया जो प्रस्ताव 1997 में पास हुआ था ? क्या इससे संसद या सांसदों की गरिमा बढ़ी ? क्या इस सर्वदलीय वादाखिलाफी के लिए जनता का तमतमाना उचित नहीं होगा ? क्या जनता से भी बड़ी संसद है ?
आज देश की अधिकतर जनता इसलिए भी तमतमाई हुई है क्योंकि इस बीच देश में 15 से भी अधिक महा घोटाले हो चुके हैं। नये -नये घोटाले होते ही जा रहे हैं। टीम अन्ना जनता के उसी तमतमाए तेवर को तो स्वर दे रही है। हां, स्वर कभी -कभी कर्कश हो जा रहे हैं। टीम अन्ना को उससे जरूर बचना चाहिए। पर अफसोसनाक स्थिति यह है कि घोटालों के आरोप बारी -बारी से इस बीच बारी बारी से सत्ता में आए करीब -करीब सभी प्रमुख दलों के अनेक नेताओं पर लगे। इसमें कुछ अपवाद जरूर हैं। पर अपवादों से तो देश नहीं चलता। इससे राजनीति की साख घटी या बढ़ी है? इससे संसद और उसके सदस्यों की गरिमा व साख बढ़ी या घटी ? जैसा आप बोओगे, वैसा ही तो काटोगे। यदि साख घटी है तो टीम अन्ना का भी तमतमाना कहां से गैर वाजिब है ?
अब जरा उस सर्वदलीय वायदे को एक बार फिर याद कर लिया जाए जो इस देश के करीब-करीब सभी दलों के नेताओं ने संसद के ऊंचे मंच से पूरे देश के सामने किया था। आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर छह दिनों तक संसद का विशेष सत्र चला था। उसमें पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव से संबंधित खबर 2 सितंबर 1997 के अखबारों में छपी थी। खबर का इंट्रो इस प्रकार था, ‘संसद ने आज एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए भारत के भावी कार्यक्रम के रूप में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास किया। प्रस्ताव में भ्रष्टाचार को समाप्त करने, राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ- साथ चुनाव सुधार करने, जनसंख्या वृद्धि, निरक्षरता और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का संकल्प किया गया।’
छह दिनों की चर्चा के बाद जो प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया उस प्रस्ताव को सर्वश्री अटल बिहारी वाजपेयी,इंद्रजीत गुप्त,सुरजीत सिंह बरनाला,कांसी राम,जार्ज फर्नांडीस, शरद यादव,सोम नाथ चटर्जी,एन.वी.एस.चितन,मुरासोली मारन,मुलायम सिंह यादव,डा.एम.जगन्नाथ,अजित कुमार मेहता,मधुकर सरपोतदार,सनत कुमार मंडल,वीरंेद्र कुमार बैश्य ,ओम प्रकाश जिंदल और राम बहादुर सिंह ने संयुक्त रूप से पेश किया था।
यह प्रस्ताव आने की भी एक खास पृष्ठभूमि थी।सन् 1996 में विभिन्न दलों की ओर से 40 ऐसे व्यक्ति लोक सभा के सदस्य चुन लिए गए थे जिन पर गंभीर आपाराधिक मामले अदालतों में चल रहे थे।उन मेंसे बिहार से चुने गये दो बाहुबली सदस्यों ने लोक सभा के अंदर ही एक दिन आपस में ही मारपीट कर ली।इस शर्मनाक व अभूतपूर्व घटना को लेकर अनेक बड़े नेता शर्मसार हो उठे और उन लोगों ने तय किया कि ऐसी समस्याओं पर सदन में विशेष चर्चा की जाए और इन्हें रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। इस विशेष चर्चा के दौरान सदन में कोई दूसरा कामकाज नहीं हुआ।वक्ताओं ने सदन में देशहित में भावपूर्ण भाषण किए।पैंसठ घंटे तक चर्चा हुई।कुल 218 सदस्यों ने भाषण दिये।इनके अलावा कई सांसदों ने अपने लिखित भाषण भी पेश किये।एक पर एक सदस्यों ने देश की गंभीर स्थिति पर भारी चिंता व्यक्त की।पर,उसका नतीजा शून्य रहा।यानी वे भाषण अंततः घड़िय़ाली आंसू ही साबित हुए। उस के बाद सन् 1998,1999, 2004 और 2009 में लोक सभा के चुनाव हो चुके हैं।इस बीच भाजपानीत और कांग्रेसनीत गठबंधन सरकारें केंद्र में बनीं।करीब -करीब सभी प्रमुख दलों के अनेक नेतागण बारी -बारी से केंद्र में मंत्री रहे।या फिर बाहर से समर्थन देते रहे।जो नेता 1997 में सांसद थे,उनमें कई नेता आज भी सांसद हैं। पर हमारे उन्हीं नेताओं ने अपने ही वायदे भुला दिए।इसका नतीजा यह हुआ कि ऐसे लोक सभा सदस्यों की संख्या बढ़कर आज 162 हो गई है जिन पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं।अगले चुनावों में उनकी संख्या बढ़ते जाने के ही संकेत हैं,घटने के नहीं।
इस बीच जब देश पर आतंकवादी हमले तेज हुए तो सुरक्षा मामलों के जानकारों ने केंद्र सरकार को बताया कि माफिया और आपराधिक प्रवृति के प्रभावशाली लोग विदेशी आतंकियों के लिए शरणस्थली मुहैया करते हैं।इस पृष्ठभूमि में देश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए एक बार फिर इस समस्या पर नए ढंग से विचार करने का समय आ गया है।एन.एन.वोहरा समिति ने भी 1993 में ऐसी ही सिफारिश की थी।वोहरा समिति ने अपनी रपट में नेता-माफिया-अफसर गंठजोड़ की सक्रियता व उनकी बढ़ती ताकत की चर्चा की थी। इसलिए आज यह और भी अधिक आवश्यक हो गया है कि बड़ेे अपराधी और माफिया तत्वों के बीच से कुछ लोग चुनाव लड़ कर संसद सदस्य न बन जाएं।इसलिए भी यह जरूरी है कि जिन दलों और नेताओं ने आजादी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर संसद में बैठकर देश के सामने जो सर्वसम्मत वायदे किये थे,उन्हें वे देश की सुरक्षा को ध्यान में रख कर अब तो पूरा करें।अब भी समय है कि विभिन्न दलों के नेतागण मिल बैठकर कम से कम यह फैसला करंे कि वे अब किसी विवादास्पद व्यक्ति को अगली बार लोक सभा चुनाव का उम्मीदवार नहीं बनाएंगे।इसके विपरीत लग तो यह रहा है कि हमारे अनेक सांसद ऐसे लोगों से ही लड़ते नजर आ रहे हैं जिन लोगों ने भ्रष्टाचार व अपराधीकरण के खिलाफ अभियान चला रखा है।इससे अंततः संसद,सांसद व पूरी राजनीति के प्रति आम जनता मेें कैसी धारणा बनेगी ?
कौन ईमानदार व्यक्ति आज यह कहेगा कि जिन मुद्दों और समस्याओं को लेकर हमारे नेताओं ने 1997 में संसद में भारी चिंता प्रकट की थी,उन मामलों में इस देश की हालत तब की अपेक्षा आज बेहतर हुई है ?
तो इस स्थिति को बदलने के लिए क्या-क्या उपाय हो रहे हैं ?राजनीति तथा दूसरे प्रभावशाली हलकों में आज भ्रष्टाचार का पहले की अपेक्षा काफी अधिक बोलबाला हो चुका है।पर जब बोलबाला कम था,तब हमारे नेताओं ने 1997 में सदन में क्या- क्या कहा था,उसकी कुछ बानगियां यहां पेश हैं।इससे भी यह पता चलेगा कि इन समस्याओं को हल करना अब और भी कितनी जरूरी हो गया है।क्या आज के सांसदगण 1997 में छह दिनों तक चली संसद की कार्यवाही का पूरा विवरण एक बार पढ़ने की जहमत उठाएंगे ?
लोक सभामें तब के प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने बहस का समापन करते हुए एक सितंबर 1997 को कहा था कि ‘इस चर्चा से एक बात सबसे प्रमुखता से उभरी है कि भ्रष्टाचार को समाप्त किया जाना चाहिए।इस बारे में कथनी ही पर्याप्त नहीं,करनी भी जरूरी है।उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीति के अपराधीकरण के कारण भ्रष्टाचार बढ़ा है।’
पूर्व प्रधान मंत्री एच.डी.देवगौड़ा ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सभी दलों को मिलकर लड़ाई लड़नी चाहिए।तत्कालीन रेल मंत्री राम विलास पासवान ने कहा कि देश के सामने उपस्थित समस्याओं के हल के लिए सभी दलों को मिल बैठकर ठोस कदम उठाने चाहिए।लोक सभा के तत्कालीन स्पीकर पी.ए.संगमा ने तो भावावेश में आकर आजादी की दूसरी लड़ाई छेड़ देने का ही आह्वान कर दिया।आम तौर पर स्पीकर बहस में हिस्सा नहीं लेते।पर तब सदन का माहौल इतना भावपूर्ण था कि स्पीकर संगमा भी चर्चा में हिस्सा लेने से खुद को नहीं रोक सके थे।पर उस भावना की भी हमारे नेताओं ने बाद में कोई परवाह नहीं की।
1997 में संसद में जो प्रस्ताव सर्वसम्मत से पास हुआ था,उसे भाजपा नेता श्री वाजपेयी ने ही पेश किया था।यह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही रहा कि इस बीच राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण के खिलाफ जो भी प्रमुख व कारगर कदम उठाए गए,वे मुख्यतः चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट या कुछ मामलों में हाई कोर्ट की पहल पर ही उठाए गए न कि दलों,नेताओं या सरकारों द्वारा।इस बीच राजनीति में भी इक्के -दुक्के अपवाद जरूर उभर कर सामने आये हैं।पर वे समस्या के अनुपात में उंट के मुंह में जीरे के समान ही हैं।इस मामले में एन.डी.ए.सरकार का छह साल का कार्यकाल भी खुद अटल बिहारी वाजपेयी की उस भावना के अनुकूल नहीं रहा जो भावना अटल जी ने 1997 में लोक सभा में व्यक्त की थी।इस मामले में कांग्रेस सरकार का रिकार्ड तो आज लोगबाग देख ही रहे हैं जो अधिक खराब है।
आज भी टीम अन्ना पर तमतमाने के बजाये क्या पूरी संसद व केंद्र सरकार 1997 में संसद द्वारा देश को किये गये सर्वसम्मत वायदों को पूरा करने की कोशिश करेगी ?
यदि इस दिशा में ठोस काम शुरू भी कर दिया गया तो टीम अन्ना की प्रासंगिकता घट जाएगी।पर इसके बदले टीम अन्ना को ही लोकतंत्र व संसद का दुश्मन मानकर व बताकर कोई कार्रवाई की गई या अन्ना विरोधी बयानबाजी जारी रही तो उसके नतीजे प्रति -उत्पादक हो सकते हैं।यह नहीं भूलना चाहिए कि सन 1974 में जय प्रकाश नारायण को भी तब की सत्ता द्वारा लोकतंत्र का दुश्मन और विदेशी ताकतों का खिलौना कहा गया था। पर सन 1977 के चुनाव में उसका क्या नतीजा हुआ ?
(प्रभात खबर: 29 मार्च 2012 से साभार)
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