बुधवार, 6 अगस्त 2014

अपने ‘शहजादे’ हों तो दूसरों पर अंगुली कैसे उठाएंगे मोदी

 (30 जुलाई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)  

गत लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी को लगातार ‘शहजादा’ कहा था। उसका भी मतदाताओं पर असर पड़ा था।

क्योंकि राहुल गांधी के कामकाज से अनेक लोग नाराज थे। वे मानते थे कि सिर्फ किसी परिवार में जन्म ले लेने के कारण ही किसी व्यक्ति को कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए। बल्कि योग्यता हो तभी वैसी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए जैसी राहुल गांधी को मिली थी।  

   पर, खबर है कि अगले माह होने वाले बिहार विधानसभा के उपचुनाव में कुछ भाजपा सांसदों ने अपनी छोड़ी हुई सीटों पर अपने परिजनों को खड़ा करने की जिद कर दी है। यदि भाजपा नेतृत्व ने उनकी जिद पूरी कर दी तो क्या अगले किसी चुनाव में नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को ‘शहजादा’ कह पाएंगे ?

    जब अपनी ही पार्टी मेंे ढेर सारे शहजादे हों तो कोई नेता किसी दूसरे दल पर इस आधार अंगुली कैसे उठा पाएगा ? वैसे भी आखिर अब और कितने अधिक ‘शहजादे’ खुद भाजपा की शोभा बढ़ाएंगे ? पहले से ही अनेक हैं।

  गत लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अनेक बड़े नेताओं के रिश्तेदारों को पहली बार या दूसरी बार टिकट देकर उन्हें लोकसभा में पहुंचाया।

  जब उन्हें टिकट मिल सकता था तो बिहार के ही सांसदों के साथ भेदभाव क्यों होना चाहिए? यह सवाल स्वाभाविक है।

  परिवारवादी नेताओं के इस तर्क का भाजपा नेतृत्व के पास आखिर क्या जवाब होगा? पर इस बीच नरेंद्र मोदी ने परिवारवाद पर चोट की है।

   प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मंत्रियों के साथ पहली ही मुलाकात में उन्हें कड़ाई से यह कह दिया कि वे अपने स्टाफ में अपने रिश्तेदारों को नहीं रखें। मोदी की इस कड़ाई का अच्छा संदेश गया।

   पर क्या यही मापदंड वे बिहार में विधानसभा के टिकट देने में भी लागू करेंगे? यह सवाल उनसे ही है क्योंकि आज मोदी जी की सरकार के साथ- साथ पार्टी में भी तूती बोल रही है। उनके कुछ प्रारंभिक अच्छे कामों की सराहना भी है। इसलिए भी परिवारवाद की बुराई को अब और आगे नहीं बढ़ने देने की उनसे लोगबाग उम्मीद भी कर सकते हैं। 

  बिहार विधानसभा के जिन दस क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं, उनमंे से चार सीटें भाजपा विधायकों के इस्तीफे से खाली हुई हैं।

  इस देश में इन दिनों चुनाव क्षेत्रों को निजी जागीर समझने वाले नेताओं की भरमार हो गई है। खुद भाजपा ने गत लोकसभा चुनाव में कई बड़े नेताओं के लोकसभा क्षेत्रों को उनकी जागीर मानकर उनके परिवार के सदस्यों को टिकट देकर उन्हें लोकसभा में पहुंचाया है।

  पर, तब यह माना जा रहा था कि नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी की इतनी बड़ी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे। वैसे में वे तब अपने दल के किसी बड़े नेता के परिजन को टिकट देने से इनकार करके भीतरघात का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं थे।

  पर लोकसभा चुनाव नतीजों से यह साफ लगा कि आम लोग नरेंद्र मोदी से कुछ बेहतर की उम्मीद कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने बेहतरी का वादा भी किया है। उनकी जीत में भाजपा कार्यकर्ताओं का बड़ा योगदान रहा है। क्या उन कार्यकर्ताओं के टिकट काटकर अब भी नेता पुत्रों को टिकट दिया जाएगा ? भाजपा कार्यकर्ता दबे स्वर में यह पूछ रहे हैं। फिर इस मामले में कांग्र्रेस और भाजपा के बीच कितना फर्क बचेगा ?

  वैसे भी मौजूदा लोकसभा में 135 ऐसे सदस्य हैं जो किसी न किसी प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद या फिर विधायक के परिवार से आते हैं।

यदि विभिन्न दलों द्वारा जन प्रतिनिधियों के रिश्तेदारों को टिकट देने का सिलसिला इसी तरह बढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब लोकसभा की आधी से अधिक सीटें उन्हीं परिवारवादियों से भर जाएगी। विधानसभाओं का भी यही हाल होगा। फिर किसी आलोचक को समाजवादी पार्टी को  ‘समस्त परिवार’ पार्टी’ कहने का हक कैसे रहेगा ? राहुल गांधी को शाहजादा कैसे कहा जा सकेगा ?

    वैसे भी जातीय वोट बैंक वाले क्षेत्रीय दलों की बात कुछ और है। इनमें से कुछ दलों के तो गांव के गांव कार्यकर्ता हैं। बाकी कार्यकर्ताओं की कमी सांसद व विधायक फंड के ठेकेदार पूरी कर देते हैं। वैसे भी जब अधिकतर सीटों को जब देर-सवेर परिवारवाद के आधार पर ही भरना है तो वास्तविक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए जगह कहां बच जाएगी ?

पर यह सब जब काॅडर आधारित दल भाजपा में भी होने लगे तो लोकतंत्रवादी मिजाज वाले उन लोगों के लिए चिंतित व उदास होना स्वाभाविक है जिन लोगों ने बड़ी उम्मीद से भाजपा व नरेंद्र मोदी को वोट दिए हैं।

   बिहार के उन टिकटार्थी नेता पुत्रों का तर्क है कि वे काफी समय से राजनीति में सक्रिय हैं। इसलिए उनका दावा बनता है। पर उनसे सवाल पूछा जा रहा है कि यदि सक्रियता ही मापदंड है तो बिहार भाजपा में ऐसे लोगांे की कोई कमी नहीं है जो उन नवनिर्वाचित सांसदों से भी अधिक वरिष्ठ हैं जो अपने परिजनों के लिए टिकट की जिद कर रहे हैं।


 (30 जुलाई 2014 के जनसत्ता में प्रकाशित)  

अच्छे नेताओं को भले लोगों के समर्थन की जरूरत


राजनीति में नैतिकता के पतन की इससे बड़ी कहानी और भला क्या हो सकती है? तमिलनाडु के एक पूर्व मुख्यमंत्री को 2001 में भ्रष्टाचार के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया था। लोअर कोर्ट के जज एस. अशोक कुमार ने उन्हें जमानत दे दी थी।

  उस जज पर भ्रष्टाचार के अनेक गंभीर आरोप थे। इसके बावजूद उस पूर्व मुख्यमंत्री के दल ने 2007 मेें केंद्र सरकार पर दबाव डालकर एस.अशोक कुमार को मद्रास हाईकोर्ट का स्थायी जज बनवा दिया।

  इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज मार्कंडेय काटजू ने हाल में रहस्योद्घाटन किया। तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने काटजू के रहस्योद्घाटन की एक हद तक पुष्टि की।

  यानी राजनीतिक प्रदूषण ने एक हद तक न्यायपालिका को भी प्रदूषित कर दिया। याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के कई मुख्य न्यायाधीशों ने समय -समय पर न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार पर चिंता जाहिर की है।

एक मुख्य न्यायाधीश ने तो यह भी कहा था कि न्यापालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर सख्ती से काबू पाने के लिए हम सरकार व संसद से कानूनी अधिकार मांग रहे हैं, पर वह अधिकार हमें मिल ही नहीं रहे हैं।

  इस प्रकरण से यह साबित होता है कि राजनीति के बीच के भ्रष्ट तत्व समाज के अन्य हिस्सों के साथ -साथ न्यायपालिका को भी प्रदूषित करने का काम करते रहते हैं।

यहां यह कह देना जरूरी है कि न तो राजनीति में सारे लोग भ्रष्ट हैं और न ही न्यायपालिका में।

  पर जब राजनीति के बीच के अनेक ईमानदार लोग भी सत्तालोलुपता में आकर भ्रष्ट नेताओं के दबाव में आ जाएं तब भ्रष्ट लोग हावी नजर आते हैं।
अब भला बताइए कि एक दिन जब न्यायपालिका मेंे भी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जाने लगेगा तो आम लोगों को न्याय कौन देगा?
दरअसल हर क्षेत्र के भ्रष्ट तत्वों को पकड़कर अदालत के सामने खड़ा कर देने की जिम्मेदारी शासन की होती है। पर यदि अदालत ईमानदार नहीं होगी तो किसी भी क्षेत्र के भ्रष्टों को सजा कैसे हो पाएगी ?

   शुक्र है कि अभी अदालतों की हालत अधिक नहीं बिगड़ी है। बल्कि भ्रष्टाचार के समुद्र में अपवादों को छोड़कर अदालत ही अब भी ईमानदारी का टापू नजर आती है। हाल के वर्षों में यदि विभिन्न मामलों में अदालतों ने कड़ा रुख नहीं अपनाया होता तो अनेक बड़े -बड़े घोटालेबाज भी जेल जाने से बच जाते।

 पर यदि न्यायपालिका की साख को कहीं से सर्वाधिक खतरा है तो वह राजनीतिक कार्यपालिका से ही। इससे पहले 1993 में भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुप्रीम के जज वी. रामास्वामी को महाभियोग से बचा लिया था। जबकि सुप्रीम कोर्ट की जांच कमेटी ने रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई सबूत संसद के कटघरे में पेश कर दिए थे।

   राजनीति में गिरावट इस देश में कोई नई बात नहीं है। आजादी के तत्काल बाद से ही उसके लक्षण प्रकट होने लगे थे। तब के कई सत्ताधारी नेताओं ने खुद ईमानदार होने के बावजूद भ्रष्टाचार को नजरअंदाज किया। इस कारण समय के साथ भ्रष्ट नेताओं का मनोबल बढ़ता चला गया।
विचारधारा का महत्व धीरे-धीरे घटने लगा। त्याग, तपस्या और ईमानदारी शब्द मुख्यधारा की राजनीति से गायब होने लगे।

  अब तो गिरावट इस कदर व्याप्त हो चुकी है कि अपवादांे को छोड़कर राजनीति का एक ही मंत्र रह गया है --किसी तरह सत्ता व पद प्राप्त कर लो चाहे इसके लिए किसी तरह के समझौते क्यों न करने पड़े।

पैसे से सत्ता और सत्ता से फिर पैसा--यही रणनीति बन चुकी है।

  इसीलिए राजनीति के भीतर के थोड़े से ईमानदार लोगों का दम घुट रहा है क्योंकि वे निर्णायक स्थिति में नहीं है। जो निर्णायक स्थिति में हैं, वे भी लाचार हैं क्योंकि सिस्टम को पूरी तरह भ्रष्ट बना दिया गया है। एक ईमानदार मुख्यमंत्री ने कई साल पहले इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि ‘मैं इस लोकतांत्रिक सिस्टम को बचाने की कोशिश तो कर रहा हूं, पर लगता है कि यह बच नहीं पाएगा।’ सत्ता व राजनीति को भीतर से देखने से उन्हें साफ लग रहा था कि विभिन्न क्षेत्रों के भ्रष्ट लोग अपने स्वार्थ में एक दिन इस लोकतंत्र को ही खत्म कर देंगे।

  यदि आज कोई नेता अपने निजी फायदे के लिए किसी भी दल में बेहिचक चला जा रहा है और कोई भी दल किसी अन्य दल से तुरंत समझौता कर ले रहा है तो इसका एक ही कारण है कि राजनीति में नीति -सिद्धांत, त्याग-तपस्या व जनसेवा का स्थान किन्हीं अन्य तत्वों ने ले लिया है।



    इस पृष्ठभूमि में देश के विभिन्न क्षेत्रों की कुछ ईमानदार हस्तियों ने  समय -समय पर जो टिप्पणियां व्यक्त की है, उन्हें एक बार फिर याद कर लेना मौजूं होगा।

  पूर्व सी.ए.जी. विनोद राय ने गत मई में कहा कि ‘ मैं राजनीति में कभी नहीं आऊंगा।’

उससे पहले 2003 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंगदोह ने कहा था कि ‘राजनीति में प्रवेश से बेहतर है कि आत्महत्या कर ली जाएं।’

  भले मनमोहन सिंह स्वेच्छा से विवादास्पद सरकार का नेतृत्व करते रहे, पर वे खुद रुपए-पैसे के मामले में बेईमान नहीं माने जाते। उन्होंने 1996 में एक अखबार से भेंट में कहा था कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ गई है।’ 

समाजवादी नेता मधुलिमये ने 1988 में ही कह दिया था कि ‘मुल्क के शक्तिशाली लोग देश बेचकर खा रहे हैं।’

ज्योति बसु ने भी कहा था कि इस व्यवस्था को देख मुझे शर्म आती है।

  सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में कहा था कि ‘भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान होना चाहिए।’

अन्ना हजारे से जब चुनाव लड़ने के लिए कहा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि जहां सौ-सौ रुपए में वोट बिकते हैं, वहां मैं चुनाव जीत ही नहीं पाऊंगा।

 इन सब टिप्पणियों का क्या किया जाए ? 

अनेक लोग कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सबसे अच्छी शासन व्यवस्था है। इस व्यवस्था मेंं गरीब अपनी आवाज उठा सकता है। पर जब राजनीति के भीतर के अच्छे लोगों को ताकत मिलेगी तभी तो गरीबों की आवाज सुनी जाएगी। अच्छे लोग कब निर्णायक स्थिति में आएंगे ? तभी आ पाएंगे जब जनता के बीच के अच्छे लोग राजनीति के अच्छे लोगों को ताकत पहुंचाएंगे। यह सब कब तक होगा? पता नहीं। 


(दैनिक भास्कर के पटना संस्करण में 29 जुलाई 2014 को प्रकाशित)