दिल्ली चुनाव में ‘आप’ की नयी राजनीतिक शैली की जीत हुई है। जो राजनीतिक पंडित और नेतागण इसे नरेंद्र मोदी और किरण बेदी की हार बता रहे हैं, वे इसका सतही आकलन ही कर रहे हैं।
जिस नरेंद्र मोदी ने गत दिसंबर में झारखंड और जम्मू-कश्मीर में पार्टी को जीत दिलाई, वे सिर्फ दो महीने के भीतर ही इतना अलोकप्रिय कैसे और किन कारणों से हो गए कि दिल्ली में भाजपा मात्र तीन सीटों पर सिमट गई ?
मोदी अलोकप्रिय नहीं हुए, बल्कि लोकप्रियता में केजरीवाल उनपर भारी पड़ गए। दरअसल दिल्ली के अधिकतर मतदाताओं ने ‘आप’ के इस वायदे पर अधिक भरोसा किया कि वह भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाएगी और वी.वी.आई.पी. संस्कृति से दूर रहेगी।
याद रहे कि अपने जन्मकाल से ही ‘आप’ ने अपने काम और व्यवहार से यह साबित कर दिया है कि भ्रष्टाचार के साथ उसकी शून्य सहनशीलता है। याद रहे कि भ्रष्टाचार अनेक सरकारी सुविधाओं को आम लोगों तक पहुंचने से रोकता है।
जो राजनीतिक पंडित ‘आप’ की भारी जीत के अन्य कारण गिना रहे हैं, उन्हें भ्रष्टाचार के वास्तविक कुपरिणामों का पता नहीं है।
लोकसभा चुनाव में यदि नरेंद्र मोदी राजग को भारी जीत दिला पाए तो उसका भी प्रमुख कारण यही था कि लोगबाग मनमोहन सरकार के महाघोटालों से चिंतित थे। हालांकि किसी चुनावी जीत या हार के कई कारण होते हैं। पर उनमें से कोई एक निर्णायक कारण होता है।
दिल्ली सहित पूरे देश में ग्रासरूट स्तर पर भी लोगबाग पुलिस और प्रशासन के भारी भ्रष्टाचार से परेशान रहे हैं। चूंकि नरेंद्र मोदी की इन मामलों में साख बेहतर है,इसलिए उन्हें लोक सभा चुनाव में अधिकतर जनता का समर्थन मिला।
2014 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जगह ‘आप’ जैसी कोई साख वाली पार्टी होती तो शायद राजग की सरकार केंद्र में नहीं बन पाती।
स्वाभाविक ही था कि मनमोहन सरकार की कमीज से नरेंद्र मोदी की कमीज जनता को काफी उजली लगी। गत दिसंबर में अब्दुल्ला परिवार और सोरेन परिवार की कमीजें मोदी की कमीज से अधिक उजली भला किसे लग सकती थी ? पर, यही बात दिल्ली में नहीं थी।
अरविंद केजरीवाल के 49 दिनों के शासनकाल में दिल्ली के लोगों ने यह महसूस किया कि शासन के भ्रष्टाचार में चमत्कारिक रूप से कमी आ गई थी।
पर कई माह पहले केंद्र में मोदी सरकार बन जाने के बावजूद दिल्ली के भाजपानीत म्युनिसिपल काॅरपोरशन के भ्रष्टाचार में आज भी कोई कमी नहीं आई।
यहां तक कि केंद्र सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार की व्यापकता के अनुपात में मोदी सरकार उससे उतनी ही कठोरता से लड़ती नजर नहीं आई।
भाजपा को दिल्ली में जिस तरह की हार का सामना करना पड़ा,वैसी ही हार उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य के विधानसभा चुनाव में भी झेलनी पड़ेगी, ऐसा नहीं लगता। क्योंकि जाहिरा तौर पर मुलायम परिवार की कमीज की अपेक्षा नरेंद्र मोदी की कमीज काफी उजली साबित होगी।
हां, भाजपा ही नहीं, बल्कि देश के अन्य राजनीतिक दलों को भी तब चिंता करने की जरुरत जरुर पड़ेगी जब ‘आप’ दिल्ली सरकार में बेहतर काम करके देश के बाकी हिस्सों में भी फैलने की कोशिश करेगी।
क्योंकि ‘आप’ की राजनीतिक शैली अपनाने में परंपरागत दलों को काफी दिक्कतेें आएंगी।
‘आप’ मौजूदा राजनीति का विकल्प नहीं,बल्कि वैकल्पिक राजनीति खड़ी करने में विश्वास करती है। परंपरागत दलों के अस्तित्व के लिए बेहतर तो यही होगा कि वे भी सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता की नीति जल्द से जल्द अपना लें।
चुनावी चंदे के मामले में ‘आप’ की तरह ही पारदर्शिता अपना कर वे इसकी शुरुआत कर सकते हैं।
साथ ही वे जातिवाद, परिवारवाद,संप्रदायवाद और अन्य तरह के वोट बैंक की राजनीति छोड़कर आम जनता के हितों की चिंता करें,दिल्ली के चुनाव नतीजे का यही मुख्य संदेश है।
(इस लेख का संपादित अंश 11 फरवरी 2015 के दैनिक भास्कर में प्रकाशित )