इन दिनों इस देश के कोई डेढ़ सौ बच्चे एक विरल और जटिल आनुवांशिक रोग से पीडि़त हैं। उस रोग का नाम है एम.पी.एस.-2 हंटर सिन्ड्रोम।
बिहार और झारखंड में भी ऐसे मरीजों की पहचान हुई है। रांची का शौर्य सिंह उन मरीज बच्चों में से एक है। पर, पैसे के अभाव में देश के अन्य अनेक मरीजों के अभिभावकों के साथ-साथ शौर्य के अभिभावक सौरभ सिंह के लिए भी इलाज कराना संभव नहीं हो पा रहा है।
इस जानलेवा रोग के इलाज का खर्च मरीज के वजन पर निर्भर करता है। यदि बच्चा दस किलोग्राम का है तो उस पर 50 लाख रुपए। बीस किलो का होने पर एक करोड़ रुपए। इस मर्ज की दवा ब्रिटेन की शायर फार्मास्यूटिकल कंपनी बनाती है। वह काफी महंगी है।
नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तभी वह ऐसे मरीज से मिले भी थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस संबंध में विशेषज्ञ चिकित्सकों की एक उच्चाधिकारप्राप्त समिति का गठन भी कराया है। सर गंगाराम अस्पताल के जेनटिक्स विभाग के अध्यक्ष डा. आई.सी. वर्मा उस कमेटी के प्रधान हैं। पर कमेटी के काम में तेजी नहीं आ पा रही है।
ऐसे मर्ज से पीडि़त बच्चों के अभिभावकगण बुरी तरह परेशान रहते हैं। एक तो अपने अबोध बच्चे की बीमारी का कष्ट और ऊपर से अपनी आर्थिक लाचारी की पीड़ा ! इतने रुपए इकट्ठा करना उनके वश में जो नहीं है! कुछ सरकारें बी.पी.एल. परिवार को ही इलाज का खर्च देती हैं। पर सवाल है कि इस देश के कितने मध्य वर्गीय परिवार एक करोड़ रुपए खर्च कर सकने की स्थिति हैं? इसलिए ऐसे मरीजों के अभिभावकगण सरकारों की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। विभिन्न सरकारों मदद से अब तक करीब एक दर्जन मरीजों का ही इलाज संभव हो पाया है। ई.एस.आई.सी. 8 मरीजों और पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग एक मरीज के इलाज पर खर्च उठा रहा है। दिल्ली और कर्नाटका उच्च न्यायालयों के आदेश पर वहां की राज्य सरकारों ने कुछ मरीजों का खर्च उठाया है।
पर अधिकतर मरीजों का समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है। मरीजों के अभिभावक सरकार की ओर टकटकी लगाकर देख रहे हैं।
दो से चार साल के शिशु के शरीर को यह जानलेवा रोग अपनी गिरफ्त में ले लेता है। इस रोग के कारण बच्चे के सिर का आकार असामान्य रूप से बढ़ जाता है। धीरे -धीरे हड्डियों के जोड़ों में अकड़न आ जाती है। श्रवण शक्ति कम होने लगती है। आंखों की रोशनी धीमी पड़ने लगती है। लीवर का आकार बढ़ जाता है। शरीर में कुछ अन्य विकार भी पैदा होने लगते हैं। यदि समय पर इलाज नहीं हुआ तो ऐसे रोगग्रस्त बच्चे की आयु सिर्फ दस से पंद्रह साल की ही होती है।
पैसे के अभाव में अपने अबोध बच्चे को तिल -तिल कर मरते देखना किसी मां-बाप के लिए कितना दुःखदायी होता है, इसका अनुमान कठिन नहीं है।
इस रोग से संबंधित सर्वाधिक दुःखदायी बात यही है कि इलाज अत्यंत महंगा है। हाल ही में कर्नाटका सरकार ने नेशनल हेल्थ मिशन के फंड से एक मरीज के लिए एक करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। वहां के हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद राज्य सरकार ने ऐसा किया। याद रहे कि इस संबंध में कर्नाटका हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी।
दिल्ली हाईकोर्ट ने भी याचिकाकर्ता की मदद की है। क्या इस देश की अन्य सरकारें कर्नाटका सरकार की तरह ही नेशनल हेल्थ मिशन के फंड से इस मर्ज के इलाज के लिए राशि खर्च करेगी? क्योंकि हाईकोर्ट में मुकदमे का खर्च उठाने की आर्थिक स्थिति भी अधिकतर अभिभावकों की नहीं है। याद रहे कि नेशनल हेल्थ मिशन में राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम भी शामिल है।
झारखंड के मरीज शौर्य के लिए भाजपा सांसद राम टहल चैधरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। श्री चैधरी ने शौर्य के इलाज का खर्च उठाने का आग्रह करते हुए लिखा है कि सरकार ऐसे अन्य मरीजों की आर्थिक मदद के लिए विशेष कोष बनाये।
इस बीच एक राज्य सरकार ने यह कह दिया कि हंटर सिंड्रोम असाध्य रोग नहीं है। साथ ही, मरीज के अभिभावक गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। यानी इस मानवीय समस्या को लेकर सभी राज्यों का रवैया एक तरह का नहीं है। ऐसे में केंद्रीय सरकार का हस्तक्षेप जरूरी हो गया है।
इसी साल के प्रारंभ में दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल काॅलेज में विशेषज्ञ चिकित्सकों की तत्संबंधी उच्चाधिकारप्राप्त समिति की बैठक हुई। डा. वर्मा उस समिति के प्रधान हैं। बैठक में इस गंभीर बीमारी के इलाज के खर्च को लेकर अदालत के 2015 के एक निर्णय की विस्तार से चर्चा हुई।
उपर्युक्त समिति में कुछ अन्य विशेषज्ञों को शामिल करने का फैसला हुआ। मरीजों के अभिभावक उस समिति की सिफारिशों की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे हैं। याद रहे कि सांसद राम टहल चैधरी ने प्रधानमंत्री से यह भी आग्रह किया है कि वह उपर्युक्त उच्चाधिकारप्राप्त कमेटी के काम में तेजी लाने का निदेश दें। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार बीमार अबोध बच्चों की जल्द ही सुध लेगी।
बिहार और झारखंड में भी ऐसे मरीजों की पहचान हुई है। रांची का शौर्य सिंह उन मरीज बच्चों में से एक है। पर, पैसे के अभाव में देश के अन्य अनेक मरीजों के अभिभावकों के साथ-साथ शौर्य के अभिभावक सौरभ सिंह के लिए भी इलाज कराना संभव नहीं हो पा रहा है।
इस जानलेवा रोग के इलाज का खर्च मरीज के वजन पर निर्भर करता है। यदि बच्चा दस किलोग्राम का है तो उस पर 50 लाख रुपए। बीस किलो का होने पर एक करोड़ रुपए। इस मर्ज की दवा ब्रिटेन की शायर फार्मास्यूटिकल कंपनी बनाती है। वह काफी महंगी है।
नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तभी वह ऐसे मरीज से मिले भी थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस संबंध में विशेषज्ञ चिकित्सकों की एक उच्चाधिकारप्राप्त समिति का गठन भी कराया है। सर गंगाराम अस्पताल के जेनटिक्स विभाग के अध्यक्ष डा. आई.सी. वर्मा उस कमेटी के प्रधान हैं। पर कमेटी के काम में तेजी नहीं आ पा रही है।
ऐसे मर्ज से पीडि़त बच्चों के अभिभावकगण बुरी तरह परेशान रहते हैं। एक तो अपने अबोध बच्चे की बीमारी का कष्ट और ऊपर से अपनी आर्थिक लाचारी की पीड़ा ! इतने रुपए इकट्ठा करना उनके वश में जो नहीं है! कुछ सरकारें बी.पी.एल. परिवार को ही इलाज का खर्च देती हैं। पर सवाल है कि इस देश के कितने मध्य वर्गीय परिवार एक करोड़ रुपए खर्च कर सकने की स्थिति हैं? इसलिए ऐसे मरीजों के अभिभावकगण सरकारों की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं। विभिन्न सरकारों मदद से अब तक करीब एक दर्जन मरीजों का ही इलाज संभव हो पाया है। ई.एस.आई.सी. 8 मरीजों और पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग एक मरीज के इलाज पर खर्च उठा रहा है। दिल्ली और कर्नाटका उच्च न्यायालयों के आदेश पर वहां की राज्य सरकारों ने कुछ मरीजों का खर्च उठाया है।
पर अधिकतर मरीजों का समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है। मरीजों के अभिभावक सरकार की ओर टकटकी लगाकर देख रहे हैं।
दो से चार साल के शिशु के शरीर को यह जानलेवा रोग अपनी गिरफ्त में ले लेता है। इस रोग के कारण बच्चे के सिर का आकार असामान्य रूप से बढ़ जाता है। धीरे -धीरे हड्डियों के जोड़ों में अकड़न आ जाती है। श्रवण शक्ति कम होने लगती है। आंखों की रोशनी धीमी पड़ने लगती है। लीवर का आकार बढ़ जाता है। शरीर में कुछ अन्य विकार भी पैदा होने लगते हैं। यदि समय पर इलाज नहीं हुआ तो ऐसे रोगग्रस्त बच्चे की आयु सिर्फ दस से पंद्रह साल की ही होती है।
पैसे के अभाव में अपने अबोध बच्चे को तिल -तिल कर मरते देखना किसी मां-बाप के लिए कितना दुःखदायी होता है, इसका अनुमान कठिन नहीं है।
इस रोग से संबंधित सर्वाधिक दुःखदायी बात यही है कि इलाज अत्यंत महंगा है। हाल ही में कर्नाटका सरकार ने नेशनल हेल्थ मिशन के फंड से एक मरीज के लिए एक करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। वहां के हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद राज्य सरकार ने ऐसा किया। याद रहे कि इस संबंध में कर्नाटका हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी।
दिल्ली हाईकोर्ट ने भी याचिकाकर्ता की मदद की है। क्या इस देश की अन्य सरकारें कर्नाटका सरकार की तरह ही नेशनल हेल्थ मिशन के फंड से इस मर्ज के इलाज के लिए राशि खर्च करेगी? क्योंकि हाईकोर्ट में मुकदमे का खर्च उठाने की आर्थिक स्थिति भी अधिकतर अभिभावकों की नहीं है। याद रहे कि नेशनल हेल्थ मिशन में राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम भी शामिल है।
झारखंड के मरीज शौर्य के लिए भाजपा सांसद राम टहल चैधरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। श्री चैधरी ने शौर्य के इलाज का खर्च उठाने का आग्रह करते हुए लिखा है कि सरकार ऐसे अन्य मरीजों की आर्थिक मदद के लिए विशेष कोष बनाये।
इस बीच एक राज्य सरकार ने यह कह दिया कि हंटर सिंड्रोम असाध्य रोग नहीं है। साथ ही, मरीज के अभिभावक गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। यानी इस मानवीय समस्या को लेकर सभी राज्यों का रवैया एक तरह का नहीं है। ऐसे में केंद्रीय सरकार का हस्तक्षेप जरूरी हो गया है।
इसी साल के प्रारंभ में दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल काॅलेज में विशेषज्ञ चिकित्सकों की तत्संबंधी उच्चाधिकारप्राप्त समिति की बैठक हुई। डा. वर्मा उस समिति के प्रधान हैं। बैठक में इस गंभीर बीमारी के इलाज के खर्च को लेकर अदालत के 2015 के एक निर्णय की विस्तार से चर्चा हुई।
उपर्युक्त समिति में कुछ अन्य विशेषज्ञों को शामिल करने का फैसला हुआ। मरीजों के अभिभावक उस समिति की सिफारिशों की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे हैं। याद रहे कि सांसद राम टहल चैधरी ने प्रधानमंत्री से यह भी आग्रह किया है कि वह उपर्युक्त उच्चाधिकारप्राप्त कमेटी के काम में तेजी लाने का निदेश दें। उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार बीमार अबोध बच्चों की जल्द ही सुध लेगी।
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