बुधवार, 23 दिसंबर 2009

दूरगामी परिणामों वाला एक कदम

गुजरात विधानसभा ने स्थानीय निकायों के चुनाव में मतदान को अनिवार्य बनाने वाला विधेयक पास कर दिया। यह एक ऐसा कदम है जिसे देर सवेर सभी चुनावों में लागू कर दिया जाए तो उसका दूरगामी राजनीतिक परिणाम हो सकता है। जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक की बुराई को कम करने के लिए ऐसी मांग पिछले कई वर्षों से की जाती रही है। पर गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने स्थानीय निकायों से इसकी शुरुआत कर दी।

इस विधेयक में यह व्यवस्था जरूर रखी गई है कि यदि कोई मतदाता अपनी अनुपस्थिति का कोई उचित कारण बता देता है तो उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी अन्यथा उसे अयोग्य मतदाता घोषित कर दिया जाएगा। संविधान निर्माताओं ने जब आजादी के बाद प्रत्येक बालिग नागरिक को मत देने का अधिकार दिया, तो उनसे यह उम्मीद की गई थी कि वे उस अधिकार समुचित उपयोग करके देश व प्रदशों के लिए जनसेवी सरकार बनवाएंगे। पर कई कारणों से ऐसा नहीं हो सका। उल्टे मतदाताओं की संख्या कम होने के कारण इस देश की राजनीति में कई तरह की बुराइयां पैदा होने लगीं।

कई साल पहले पटना जिले के एक विधानसभा क्षेत्र में एक बाहुबली सिर्फ इसलिए चुनाव जीत गया क्योंकि अधिकतर मतदाता मतदान के दिन अपने घरों में ही रहे। उस बाहुबली ने दो सौ मतदान केदं्रों में सिर्फ 30 मतदान केंद्रों पर कब्जा करवा कर जीत हासिल कर ली। उन दिनों मतदान केंद्रों पर कब्जा आम बात थी। यदि उस क्षेत्र के सारे नहीं तो कम से कम अधिकतर मतदाताओं ने मतदान में भाग लिया होता तो ऐसा रिजल्ट कतई नहीं होता।

पर कम मतदान का लाभ कई राजनीतिक दलों ने उठाकर इस देश की राजनीति का कचड़ा कर रखा है। पिछले दसियों साल का चुनावी अनुभव यह बताता है कि किसी दल या दलीय समूह को केंद्र की सत्ता पर कब्जा कर लेना हो तो उसे सिर्फ तीन या चार समुदाय या जाति समूहों का वोट बैंक बनाना होगा। यदि किसी प्रदेश की सत्ता हासिल करनी हो, तब तो किसी दो मजबूत समूहों से ही काम चल जाएगा।

कई मामलों में होता यह रहा है कि इस रीति से सत्ता में आया दल या नेता सिर्फ अपने समुदाय या जाति की थोड़ा बहुत जरूरतों को पूरी करता है और बाकी जनता को अपने हाल पर छोड़ देता है। इसके बावजूद उसे चुनावी जीत मिलती जाती है। क्योंकि उसके पास एक ठोस वोट बैंक जो है।

इस देश में किसी समुदाय या जाति की आबादी पूरी आबादी के 10 -15 प्रतिशत से अधिक नहीं है। यदि सौ या नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान केंद्रों पर जाने लगें तो फिर इन जातीय वोट बैंकों की करामात लगभग समाप्त हो जाएगी। जब वोट बैंक के कारण किसी दल या नेता के पास चुनावी निश्चिंतता नहीं रहेगी तो उसे आम जनता के लिए ईमानदारी व मेहनत से काम करना पड़ेगा, तभी वह कोई चुनाव जीत पाएगा।

अब तक के अनेक चुनावों में इस देश में जातीय व सांप्रदायिक भावनाएं भड़का कर ऐसे ऐसे नेता, दल और दलीय समूह सत्ता में आते रहे हैं,जिन्हें शाय तब सत्ता नहीं मिलती जब 90 से सौ प्रतिशत लोग मतदान करते।

ऐसा नहीं होना चाहिए कि चूंकि एक विवादास्पद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा विधेयक पास कराया है तो उस विधेयक पर खराब विधेयक करार दे दिया जाए। ऐसे दूरगामी परिणाम वाले कदम पर देश में ंखुले दिलो दिमाग से विचार होना चाहिए और उसे लोकसभा व विधानसभाओं के चुनावों में भी लागू करने का प्रयास होना चाहिए।इससे यह भी होगा कि उन गरीबों को भी मत देने का अवसर मिलेगा जिन लोगों को ऐसा अवसर कम ही मिलता है। चूंकि देश के 84 करोड़ लोगों की रोज की औसत आय मात्र बीस रुपये रोजाना है, इसलिए उनके बीच के मतदाता अपने लिए सही उम्मीदवारों को ही चुनेंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

(साभार दैनिक जागरण:पटना संस्करण: 22 दिसंबर 09)

कांग्रेसी राज में ही क्यों बढ़ती है बेतहासा महंगाई ?

सन 1999 में गेहंू साढ़े सात रुपये प्रति किलो ग्राम की दर से बिक रहा था। सन 2004 में उसकी कीमत बढ़कर आठ रुपये प्रति किलो हो गई। आज लोग साढ़े 17 रुपये किलो गेहूं खरीदने को विवश हो रहे हैं।
साधारण चावल का दाम 1999 में साढ़े आठ रुपये किलो था। 2004 में बढ़कर दस रुपये किलो हो गया। अब कम से कम सोलह रुपये किलो चावल बिक रहा है। विभिन्न स्थानों में इनकी कीमतों में थोड़ी कमी -बेशी स्वाभाविक है। जिंसों के प्रकार के अनुसार भी दामों में कमी -बेशी स्वाभाविक है। इस विश्लेषण की मूल बात अभूतपूर्व मूल्य वद्धि की चर्चा है। मूंग दाल की हालत और भी खराब है। इस साल करीब सौ रुपये किलो बिकी। जबकि 1999 से 2004 तक इसकी कीमत 24 रुपये किलो पर स्थिर थी। चीनी और सरसों तेल की कीमतों में तो हाल के वर्षांे में अपेक्षा कत और भी अधिक बढ़ोतरी हुई है।

उपर्युक्त विवरण एनडीए के किसी आरोप पत्र से नहीं लिया गया है बल्कि दैनिक अखबारों के आर्थिक पन्नों से उतारा गया है।

आज जानकार लोग बता रहे हैं कि खाने पीने वाली सामग्री की कीमत मात्र गत एक साल में करीब 20 प्रतिशत बढ़ गई है। चीनी की कीमत तो एक साल पहले 18 रुपये प्रति किलो थी। इस साल क्यों वह 40 रुपये किलो बिकी ? जबकि किसानों को गन्ने के अलाभकर मूल्य निर्धारण के खिलाफ संसद भवन को घेरना पड़ा। क्यों गन्ने का समर्थन मूल्य तो दस साल में मात्र दुगुना किया जाता है, पर चीनी की कीमत मात्र एक साल में दुगुनी हो जाती है ? अन्य उपभोक्ता सामग्री का भी कमोवेश यही हाल है? आखिर इसमें केंद्र व राज्य सरकारों की कोई भूमिका रह भी गई है या नहीं ? या फिर आम निरीह जनता का खून चूसने के लिए विभिन्न सरकारोंने मुनाफाखार भेड़ियों को खुला छोड़ दिया है ? साफ -साफ लग रहा है कि केंद्र सरकार ने इस अभूतपूर्व महंगाई की समस्या के सामने न सिर्फ घुटने टेक दिये हैं, बल्कि संबंधित मंत्री शरद पवार ने यह कह कर मुनाफाखोरों व जमाखोरों का हौसला बढ़ा दिया है कि अगले तीन महीने तक महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सकता है। इससे पहले कभी किसी सरकार को इतना निरीह नहीं पाया गया था। यह निरीहता है या मुनाफाखारों से सांठसांठ ?

अब तो केंद्रीय मंत्री महंगाई के लिए राज्यों को दोषी ठहरा कर अपनी राजनीतिक रोटी भी सेंक रहे हैं।

उधर विभिन्न राज्य सरकारों में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार के कारण सार्वजनिक जन वितरण प्रणलियां करीब करीब फेल कर गई हैं। इस विफलता ने मुनाफाखोरों व जमाखोरों की बांछें खिला दी हैं। केंद्र सरकार के अन्न भंडार भरे हुए हैं। पर उन्हें बाजारों में नहीं उतारा जा रहा है। ऐसा मुनाफाखोरों के हित को ध्यान में रख कर किया जा रहा है ? यानी जाहिरा तौर पर महंगाई के लिए केंद्र व राज्य दोनों सरकारें जिम्मेदार हैं। यह बात और है कि केंद्र सरकार अपेक्षाकत काफी अधिक जिम्मेदार है। क्योंकि उसने महंगाई बढ़ाने के लिए कुछ और कुकत्य किए हैं। विभिन्न राजनीतिक दल इसको लेकर एक दूसरे पर आरोप भले लगाएं, पर आम जनता सब कुछ जान रही है। इस पर इस गरीब देश में चर्चाएं जारी हैं। यदि सिर्फ गैर यू।पी.ए. राज्य सरकारें ही जिम्मेदार होतीं तो दिल्ली में महंगाई अन्य राज्यों की अपेक्षा कम होती क्योंकि यहां तो दोनों सरकारें एक ही दल की हैं।

यह भी कहा जा रहा है कि भीषण महंगाई के बावजूद जब कोई सत्ताधारी दल चुनाव जीतता ही चला जाए तो उसे इस पर काबू पाने की भला कौन सी मजबूरी रहेगी ? प्रतिपक्षी पार्टियां भी आधे मन से ही इसके खिलाफ आवाज उठा रही हंै। क्योंकि थोड़े बहुत उसके भी तो निहित स्वार्थ हैं ही। मर तो गरीब रहा है। लगता है कि राजनीतिक दलों का गरीबों से संबंध सिर्फ वोट का रहा गया है, भावना व सेवा गायब है। राजनीति में सांप्रदायिक, पारिवारिक व जातीय भावना जरूर मजबूती से उपस्थित है। अब तो इस देश के परंपरागत कम्युनिस्ट दलों को भी फाइव स्टार होटलों में अपने सम्मेलन करने और फाइव स्टार जीवन जीने में कोई शर्म नहीं आ रही है। कुछ अपवादों की बात और है। नई आर्थिक नीतियां आने के बाद बाजार की ताकतों को अर्थ व्यवस्था की बागडोर थमा दी गई है।

अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा ने ठीक ही कहा है कि ‘आयात-निर्यात की मात्रा और कीमतों की अनिश्चितता तथा कीमत नियंत्रण के लिए आयात का जिम्मा मुनाफाखोर तबकों को देना, महंगाई को न्योतना है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों का कोई इलाज नहीं किया जाता है। नेताओं, पार्टियों और व्यवसायियों के गहराते निजी रिश्ते के परिप्रेक्ष्य में जनपक्षीय मूल्य नीति की उम्मीद करना बेमानी है।’

आज दिल्ली में किसी बहुमंजिली इमारत में तैनात जो गार्ड महीने भर काम करने के बाद मात्र 47 सौ रुपये पाता है, वह खुद क्या खाएगा और क्या गांव में अपने परिवार को भेजेगा ? वैसे भी इस देश के कितने लोगों को इतने पैसे भी हर महीने मिल पाते हैं ? इस देश के गरीबों के बारे में अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्त बताते हैं कि ‘84 करोड़ लोगों की रोजाना औसत आय मात्र बीस रुपये है।’ एक अन्य उदाहरण यहां पेश है। पी।एफ. से जुडी पेंशन राशि तो पांच सौ से हजार -डेढ़ हजार रुपये तक ही है। इस पंेशन राशि में भी किसी तरह की सालाना बढ़ोतरी का कानूनी प्रावधान तक नहीं है। ऐसे दरिद्र लोगों के लिए महंगाई का क्या मतलब है, यह बात अतुल्य भारत का सपना दिखाने वाले लोग नहीं समझ पा रहे हैं।

दूसरी ओर सरकार द्वारा इस देश में ऐसी अर्थ व्यवस्था जरूर बना दी गई है ताकि करोड़पतियों व अरबपतियों की संपत्ति सचिन तेंदुलकर की रन संख्या के अनुपात से भी अधिक बढ़ती जाए। ताजा आंकड़ों के अनुसार इस देश के अरबपतियों की संख्या मात्र गत एक साल में 27 से बढ़कर 54 हो गई है। एक सौ अमीरों के पास इस देश की 25 प्रतिशत संपत्ति है। जबकि संविधान के नीति निदेशक तत्व चैप्टर के अनुच्छेद 39/ग/में यह कहा गया है कि ‘राज्य ऐसी व्यवस्था करेगा ताकि उत्पादन के साधनों का अहितकारी संकेंद्रण नहीं हो।’

आर्थिक विशेषज्ञ, अखबारों व टी।वी.के टाॅक शो में यह बताते रहते हैं कि महंगाई बढ़ने के लिए किस तरह केंद्र सरकार अधिक और राज्य सरकारें कम जिम्मेदार रही हैं। उधर लोकसभा में महंगाई पर चर्चा होती है तो उस समय सदन में एक सौ सांसद भी उपस्थित नहीं रहते। आखिर उसकी उन्हें जरूरत ही कहां है ? उन्हें तो महंगाई छू भी नहीं गई है। सदन की बैठक के आखिरी दिन बिना बहस के संसद मत्रियों व सांसदों के वेतन भत्ते आये दिन सर्वसम्मति से बढ़ाती रहती है।ं 543 में से 316 सांसद करोड़पति हैं। उन्हें संसद की कैटीन में देश में सबसे सस्ता व स्तरीय खाना उपलब्ध ही है। वे क्यों महंगाई से तनिक भी दुःखी होंगे ?

ऐसा नहीं है कि इस मामले में गैर कांग्रेसी सरकारें व पार्टियां दूध की धुली हुई हैं। आम भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के मामले में उनका रिकाॅर्ड भी लगभग कांग्रेस जैसा ही है। अब तो लगता है कि नेताओं के लिए भ्रष्टाचार कोई मुददा रहा ही नहीं। पर मुनाफाखोरों के प्रति कांग्रेस अपेक्षाकत अधिक उदार रही है। सरसों तेल की कीमत 1972 में 3 रुपये 95 पैसे प्रति लीटर थी। सन 1979 में वह घट कर 3 रुपये 50 पैसे हो गई। तब जनता पार्टी की सरकार केंद्र में थी। अन्य सामग्री की कीमतों का भी कमोवेश यही हाल था। पर सन 1980 में जब कांग्रेस सत्ता में वापस आ गई तो सरसों तेल की कीमत 1981 में बढ़कर साढ़े छह रुपये प्रति लीटर हो गई। मूंग दाल की कीमत सन 1972 में ढाई रुपये और 79 में सवा तीन रुपये थी, पर 81 में साढ़े छह रुपये हो गई। याद रहे कि यहां जो कीमतें दी जा रही हैं, उनमें से कई मद थोक कीमतों के हैं तो कुछ खुदरा के।कई साल के अखबारों की फाइलें देखने से यह लगता है कि 1999 से 2004 तक जिस रफतार से कीमतें बढ़ीं, उसकी अपेक्षा काफी अधिक गति से 2004 और 2009 के बीच में बढ़ी। मौजूदा केंद्र सरकार को इसका वाजिब जवाब देना चाहिए। क्या उसके पास जवाब है भी ? यदि नहीं है तो वह यह बात भी अच्छी तरह समझ ले कि इस मूल्य वद्धि की सर्वाधिक मार देश की 84 करोड़ आबादी पर पड़ रही है। माओवादियांे के खिलाफ किसी तरह के आपरेशन का कोई नतीजा सामने नहीं आएगा, यदि मूल्य वद्धि इसी तरह होती रहेगी।

मूल्य वद्धि की रफ्तार
(दर प्रति किलो रुपये में)

1947 --1972---1979 - 1981---1999--2004--2009
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गेहूं - 0.30 --1.25---1.80--- 2.20---7.50--8.00--17.50
मूंग दाल- 0.25 --2.50 --3.25 ---6.50-- 24.00--24.00--95.00
सरसों तेल-1.75--5.50---9.00----16.00- अनुपब्ध-33.00--91.00
चीनी--- 0.72 -3.95--3.50---- 6.50 -- 15.00--16.65--40.00
( इनमें से कुछ जिंसों का भाव थोक का है और कुछ का खुदरा का।)
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इन आंकड़ों को देखने से यह साफ है कि किसके शासन काल में कीमतों के बढ़ने का अनुपात अधिक था और किसके शासन काल में कम।शरद पवार से पहले शायद ही किसी कषि मंत्री ने यह आधिकारिक घोषणा की थी कि अगले तीन महीने तक कीमतें बढ़ेंगी ही।इससे पहले संबंधित मंत्री यह कहते थे कि सरकार कीमतों पर काबू पाने की कोशिश व उपाय कर रही है।दोनों बयानों के मतलब व संदेश जाहिर है कि मुनाफाखारों के लिए अलग अलग हैं। भला लगातार चुनाव जीतते जाने वाले नेता क्यों इसकी चिता करंेगे कि उनके बयानों का क्या अर्थ लगेगा !

(साभार प्रभात खबर: 22 दिसंबर 2009)