कोई सरकारी परसादी लेनी होती तो नीतीश कुमार का शासन आने की प्रतीक्षा क्यों करता ?अपना यही है सहन/आंगन/,यही सायबान/छप्पर/है,
फैली हुई जमीन,खुला आसमान है,
---- मख्मूर सईदीमैं पूरी ताकत के साथ शब्दों को फेंकता हूं आदमी की तरफ यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगामैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाकाजो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता हैयह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगामैं लिखना चाहता हूं ।----- केदार नाथ सिंहमशहूर शायर मख्मूर सईदी और प्रख्यात कवि केदार नाथ सिंह की इन पंक्तियों से गुजरते हुए सुरेंद्र किशोर का चेहरा सामने आता है। बिहार के जाने-माने पत्रकार सुरेंद्र किशोर के लिए फैली हुई जमीन ही आंगन और खुला आसमान ही छप्पर है, और वह लिखने और बिना किसी लाग लपेट के लिखने की असीम ऊर्जा से लैस हैं, यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा, वह लिखने की चाहत से भरे रहे और भरे हैं, शायद यही वजह है कि क्लीन सेव के कारण साफ-सुथरा और लंबा चेहरा या घने बालों को पूरी मजबूती से दाहिनी ओर रखने का उनका हेयर स्टाइल, अहंकारशून्य व्यक्तित्व या फिर साधारण पहनावा ही उनकी पहचान नहीं, सुरेंद्र किशोर, आज सुरेंद्र किशोर हैं, क्योंकि गोपाल सिंह नेपाली की तरह उनका भी धन रही स्वाधीन कलम, और कलम इसलिए भी स्वाधीन रही कि उन्होंने न बहुत कुछ पाने की चाहत पाली और न ही कुछ नहीं मिल पाने का मलाल रहा।बीते 40 वर्षों से निरंतर लिखते रहे सुरेंद्र किशोर को पढ़कर न सिर्फ बिहार और झारखंड, बल्कि एक हद तक हिंदी पटटी की पत्रकारिता की दो पीढ़ियां जवान हुईं हैं। समाजवादी राजनीति की सीढ़ी से सत्ता और शक्ति के शीर्ष पर जाने की जगह पत्रकारिता व लेखन का क्षेत्र चुनने वाले सुरेंद्र किशोर ने अपनी जिंदगी को अपने मायनों में आकार देने की आजादी दी। अपनी ईमानदारी, अपनी कर्तव्यनिष्ठा, अपने हुनर, अपनी दढ़ता से वह खुद को तरासते गये। संघर्ष के चिराग की रोशनी से जीवन को रोशन किया। मोटे फ्रेम और पावर के शीशे से बने चश्मे के पीछे उनकी आंखों की गहराई काफी कुछ कहती है, बशर्ते आप सुनना चाहें। लेखन व पत्रकारिता के क्षेत्र में चार दशक गुजारने के बहाने ‘प्रभात खबर’ के संपादकीय समन्वयक माधवेंद्र ने श्री किशोर से लंबी बातचीत की।प्रश्न - कितने साल से आप पत्रकारिता में हैं ?उत्तर - वैसे तो मैं सन 1969-70 से ही इस पेशे में हूं, पर शब्दों के सही अर्थों में पेशेवर पत्रकारिता की शुरुआत मैंने सन 1977 में दैनिक ‘आज’ से की थी।हालांकि 1969 से ही पत्रकारिता से रोटी कमानी जरूर शुरू कर दी थी। तब पटना से ‘लोकमुख’ नाम से लोहियावादी समाजवादियों की एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी। मैंने 120 रुपये महीने पर कुछ समय तक वहां काम किया था। मेैंने जार्ज फर्नांडिस के संपादकत्व में निकल रही चर्चित पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ और जेपी द्वारा संस्थापित ‘जनता’ साप्ताहिक में भी सत्तर के दशक में काम किया।
प्रश्न - पेशेवर पत्रकार के रूप में आपने अनेक मंत्रिमंडलों को काम करते हुए देखा। अपने अनुभव बताइए।उत्तर - दैनिक आज ज्वाइन करने के बाद सत्ता व प्रतिपक्ष की राजनीति व विभिन्न मुख्यमंत्रियों के काम काज को करीब से देखने का अवसर मिला।हालांकि उससे पहले के कुछ मुख्यमंत्रियों की कार्य शैलियों के बारे में बहुत कुछ जान सुन व पढ़ रखा है। मैं विभिन्न मुख्यमंत्रियों के कामकाज के मोटा-मोटी तुलनात्मक अध्ययन की स्थिति में अब हूं।
प्रश्न - आपके बारे में यह कहा जाता है कि अपने पत्रकारिता जीवन में आपने कभी किसी मुख्यमंत्री की तारीफ नहीं की । क्या कारण है कि आप इन दिनों नीतीश कुमार के प्रशंसक बने हुए हैं ? इस अति प्रशंसा के कारण आपकी पुरानी छवि को धक्का लग रहा है?उत्तर - आपने बिलकुल सही कहा। कुछ लोग तो नेट पर यह भी लिख रहे हैं कि मैं किसी तरह की ‘परसादी’ पाने के लिए नीतीश कुमार की चापलूसी कर रहा हूं। दरअसल ऐसे लोग न तो मुझे जानते हैं और न ही बिहार व देश के सामने आज जो गंभीर समस्याएं हैं, उनका उन्हें कोई अनुमान है। यदि किसी को अनुमान है भी तो वे स्वार्थ या किसी अन्य कारणवश उन्हें देख नहीं पा रहे हैं।यह बात सही नहीं है कि मैंने किसी मुख्यमंत्री की अपने लेखन में आम तौर पर कभी कोई सराहना ही नहीं की। जिस नेता के बारे में मुझे सबसे अधिक लिखने का मौका मिला, वे हैं लालू प्रसाद यादव। उन्होंने भी अपना काम किया और मेरे खिलाफ कुछ ऐसे कदम उठाए जो अभूतपूर्व रहे। इसके बावजूद 1990 में मंडल आरक्षण आंदोलन के दौरान मैंने लालू प्रसाद के पक्ष में और आरक्षण विरोधियों के खिलाफ लगातार जोरदार लेखन किया।
इस लेखन के कारण मुझे अपने स्वजातीय, सवर्णों और यहां तक कि अपने परिजनों से भी आलोचनाएं सुननी पड़ी थीं। अनेक मुख्यमंत्रियों को देखने के बाद मैं यह कह सकता हूं कि नीतीश कुमार जैसा मुख्यमंत्री कुल मिलाकर इससे पहले मैंेने तो नहीं देखा। यदि यह बात मैं किसी लाभ की प्राप्ति के लिए कहूं तो मेरी इस बात पर किसी को ध्यान देने की जरूरत नहीं है। पर यदि राज्यहित में कह रहा हूं तो मेरी बात सुनी जानी चाहिए अन्यथा बाद में राज्य का नुकसान होगा। मंडल आरक्षण विवाद के समय मेरी बातें नहीं सुनी गईं जिसका नुकसान खुद उनको अधिक हुआ जो आरक्षण के खिलाफ आंदोलनरत थे। बाद में वे थान हार गये, पर पहले वे गज फाड़ने को तैयार नहीं थे। यदि 1990 में बिहार में आरक्षण का उस तरह अतार्किक विरोध नहीं हुआ होता तो लालू प्रसाद का दल 15 साल तक सत्ता में नहीं बना रहता। कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा अब भी यह कहते हैं कि ‘सुरेंद्र जी तब आरक्षण विरोधियों से कहा करते थे कि गज नहीं फाड़ोगे तो थान हारना पड़ेगा।’
प्रश्न - आपका लेखन इन दिनों नीतीश सरकार के पक्ष में एकतरफा लगता है। यह किसी पत्रकार के लिए अच्छा नहीं माना जाता। इस पर आपकी क्या राय है ? क्या नीतीश जी सारे काम ठीक ही कर रहे हैं ?उत्तर - इस आरोप को एक हद तक में स्वीकरता हूं। हालांकि यह पूरी तरह सच नहीं है। नीतीश कुमार की सरकार की कुछ गलत नीतियों की मैंेने लिखकर समय-समय पर आलोचना की है। आगे भी यह स्वतंत्रता मैं अपने पास रिजर्व रखता हूं क्योंकि न तो मैंने खुद को कभी किसी के यहां गिरवी रखा है और न ही ऐसा कोई इरादा है। जब जीवन के कष्टपूर्ण क्षण मैंेने काट लिए तो अब किसी से किसी तरह के समझौते की जरूरत ही कहां है?यदि मैं किसी लाभ या लोभ के चक्कर में किसी सरकार या नेता का विरोध या समर्थन करूं तो जरूर मेरे नाम पर थूक दीजिएगा। पर यदि देश और प्रदेश के व्यापक हित में ऐसा करता हूं तो उसे उसी संदर्भ में देखनेे की जरूरत है।
मैं पूछता हूं कि आजादी की लड़ाई के दिनों में क्या भारतीय पत्रकारों से यह सवाल पूछा जाता था कि आप आजादी की लड़ाई के पक्ष में एकतरफा क्यों हैं ? आज देश व प्रदेश में उससे मिलती-जुलती स्थिति है।
खतरे उससे कई मामलों में अधिक गंभीर हैं। खतरा लोकतांत्रिक व्यवस्था की समाप्ति का है। खतरा अलोकतांत्रिक अतिवाद व आतंकवाद के काबिज हो जाने का है। इन दोनों खतरों को हमारे देश व प्रदेश के कुछ खास नेतागण अपने स्वार्थ में अंधा होकर जाने अनजाने आमंत्रित कर रहे हैं। इस स्थिति में जो नेता सुशासन लाने की कोशिश कर रहा है, जो नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाना चाहता है और भरसक उठा भी रहा है। और जो नेता सांप्रदायिक मसलों पर संतुलित रवैया अपनाता है, वही इन खतरों से सफलतापूर्वक लड़ भी सकता है। वैसे नेताओं के प्रति पक्षधरता दिखाना ही आज देशहित व राज्यहित है। लोकतंत्र बना रहेगा तभी तो स्वतंत्र प्रेस भी रहेगा।
प्रश्न - आप तो पहले राजनीतिक रूप से सक्रिय थे। क्या अब दुबारा राजनीति में आने की इच्छा नहीं होती ? राजनीति में शामिल होकर आप नीतीश कुमार के कामों को और भी आगे बढ़ा सकते हैं।उत्तर - मैंने 1973 में ही यह तय कर लिया था कि मैं राजनीति छोड़कर पत्रकारिता करूंगा। विशेष परिस्थिति में आपातकाल के दौरान जरूर राजनीतिक काम कर रहा था। यदि मैं पत्रकारिता को जिस दिन राजनीतिक कर्म की अपेक्षा दोयम दर्जे का काम मान लूंगा, उसी दिन सक्रिय राजनीति के प्रति मेरा आकर्षण हो जाएगा! या फिर मेरी इच्छा यदि निजी धनोपार्जन की हो जाए तो मैं राजनीति में दुबारा जाउंगा। एमपी-विधायक फंड ने तो राजनीति को काजल की कोठरी बना दिया है। वैसे भी जो लोग मुझे जानते हैं, वे मुझसे कभी यह नहीं कहते कि मुझे राजनीति में आना चाहिए। क्योंकि मुझे वे उस काम के लिए अनफिट मानते हैं।प्रश्न - क्या आपको ऐसा कोई आॅफर मिला था ?उत्तर - आॅफर तो सक्रिय राजनीति में शामिल होने के लिए नहीं हुआ था, पर ‘राजनीतिक नौकरियों’ का आॅफर जरूर हुुआ था। पर मैंने विनम्रतापूर्वक तब उसे अस्वीकार ही कर दिया था।प्रश्न - अपने बारे में कुछ और बताइए।उत्तर - सन 1966 में के.बी. सहाय की सरकार के खिलाफ छात्र आंदोलन के कारण मेरी पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी। उन दिनों मैं सारण जिला क्रांतिकारी विद्यार्थी संघ का सचिव था। वह लोहियावादी समाजवादी छात्रों का संगठन था। 1969 में मैं बिहार प्रदेश समाजवादी युवजन सभा के तीन में से एक संयुक्त सचिव चुना गया था। उनमें से एक अन्य संयुक्त सचिव लालू प्रसाद थे। सचिव थे शिवानंद तिवारी। संसद पर युवजनों के प्रदर्शन के सिलसिले में मैं अन्य लोगों के साथ गिरफ्तार होकर तिहाड़ जेल भी गया था। मैं 1972-1973 में कर्पूरी ठाकुर का गैर सरकारी निजी सचिव था। आपातकाल में सी.बी.आई. ने बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे का एक केस तैयार किया था। उसमें मेरा नाम उन चार मुख्य षडयंत्रकारियों में एक था जिन पर आपातकाल में देशभर में सरकारी प्रतिष्ठानों को डायनामाइट से उड़ाने का षडयंत्र रचने का आरोप लगाया गया था। अन्य तीन थे जार्ज फर्नाडिस, रेवतीकांत सिन्हा और महेंद्र नारायण वाजपेयी। वाजपेयी जी रेलवे यूनियन के नेता हैं और इन दिनों पटना में ही रहते हैं। यह खबर 1976 के देशभर के अखबारों में पहले पेज पर छपी थी।
ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि कर्पूरी ठाकुर की सरकार के कोई सदस्य या फिर मोरारजी देसाई मंत्रिमंडल के प्रभावशाली सदस्य जार्ज फर्नांडीस मेरे लिए कुछ सोचें ओर आॅफर भी करें। उन लोगों ने किया भी ,पर मुझे वह सब मंजूर ही नहीं था। क्योंकि मैं एक मामूली पत्रकार के रूप में ही संतुष्ट था और हूं भी।
यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि मुझे कभी कोई सरकारी परसादी लेनी होती तो नीतीश कुमार का शासन आने तक मैं प्रतीक्षा ही क्यों करता ? क्या दूसरे ऐसे लोग अवसर मिलने पर ऐसी कोई प्रतीक्षा करते भी हैं ? जब मेरी पत्नी मेरे सुख-दुःख में साथ देने के लिए हमेशा तैयार रहती हंै। जब मेरी संतानें आज्ञाकारी हैं। और मेरी जरूरतें जब सीमित हैं तो फिर अपनी स्वतंत्र लेखनी की कीमत पर किसी सत्ताधारी नेता के सामने मुझे हाथ पसारने या फिर याचक बनने की जरूरत ही क्या है? परसादी लेने की बात वही लोग करते हैं जो खुद छोटे मन-मिजाज के हैं। यह बात यहां मैं इसलिए भी कह रहा हूं कि लोग यह समझें कि करीब 40 साल के अनुभव वाला एक पत्रकार किसी लाभ-लोभ की इच्छा रखे बिना यदि यह बात कह रहा है कि किस तरह एक मुख्यमंत्री आज बिहार को पटरी पर लाने का ईमानदार प्रयास रात दिन कर रहा है तो इस बात को गंभीरता से समझना चाहिए और मुख्यमंत्री के इस प्रयास में उन तमाम लोगों को मदद करनी चाहिए जिनका अपना कोई निजी एजेंडा नहीं है। अन्यथा प्रदेश और देश को बचाना एक दिन असंभव हो जाएगा। मैं राजनीतिक दलों की बात नहीं कर रहा हूं। उनका तो काम ही विरोध करना और मौका मिलने पर सत्ता में आना है।
प्रश्न - पर नीतीश कुमार की एक ऐसी सरकार के समर्थन के कारण आपने अपनी छवि दांव पर लगा दी है जिस सरकार में भ्रष्टाचार बहुत अधिक है?उत्तर - सरकारी भ्रष्टाचार के मामले में आपकी टिप्पणी सही है। पर सवाल मुख्यमंत्री की मंशा का है। राहुल गांधी ने भी नीतीश कुमार की मंशा को सही बताया है।मैंने पिछले 40 साल से बिहार के मुख्यमंत्रियों को करीब और दूर से काम करते हुए देखा है। विपरीत परिस्थितियों में भी इतना अच्छा काम करते हुए मैंने इससे पहले किसी अन्य मुख्यमंत्री को नहीं देखा। ऐसा नहीं कि वे बाकी सब भ्रष्ट व निकम्मे थे। उनमें कई अच्छी मंशा के ईमानदार नेता थे। पर उनमें से कोई नीतीश कुमार जैसा नहीं थे।
नीतीश के काम के रिजल्ट भी बिहार की जनता को मिल रहे हैं। गत लोकसभा चुनाव में बिहार में 40 में से 32 सीटें राजग को देकर आम जनता ने भी नीतीश सरकार के काम पर अपने भारी समर्थन की मुहर ही लगाई। पर बटाईदारी के बारे में नीतीश सरकार की एक घोषणा से नीतीश कुमार थोड़े दबाव में जरूर आ गये हैं। पर यह बिहार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बात ही होगी कि अगले चुनाव के बाद नीतीश कुमार को मौका नहीं मिलेगा।
मैं बिहार के बाकी सारे नेताओं को भी जानता हूं। नीतीश कुमार और अन्य मुख्यमंत्रियों में मैं यह अंतर पाता हूं कि अन्य मुख्य मंत्रियों में से कुछ ने राजनीतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार से समझौता कर लिया, कुछ ने खुद को किनारा कर लिया, कुछ ने लड़ने की कोशिश की तो वे हटा दिए गए। पर नीतीश कुमार अब भी भ्रष्टाचार से भरसक लड़ रहे हैं। साढ़े चार साल तक बिहार का मुख्यमंत्री कोई रहे और इस काजल की कोठरी में कोई दाग नहीं लगे, यह बिहार के लिए बड़ी बात है। पर यह सहसा या संयोगवश नहीं हुआ है, बल्कि ऐसा नीतीश कुमार की सावधानी के कारण हुआ है। दरअसल सरकारी व राजनीतिक भ्रष्टाचार कम नहीं होगा तेा गरीबी नहीं कम होगी। गरीबी कम नहीं होगी तो अराजकतावादी अलोकतांत्रिक तत्व देर-सवेर बिहार में पूरी तरह छा जाएंगे। जब यहां भी छा जाएंगे तो पूरे देश पर छा जाने में उन्हें काफी सुविधा हो जाएगी।
कमजोर नजर वाले लोग या फिर स्वार्थ में अंधे लोग इस खतरे को देख नहीं पा रहे हैं। आज देश और प्रदेश के सामने विशेष परिस्थिति उत्पन्न कर दी गई है। पत्रकार सहित हर नागरिक को आज अपनी विशेष भूमिका निभानी चाहिए,ऐसा मैं मानता हूं।
राजनीति में गांधी-नेहरू नहीं तो मीडिया में पराड़कर की तलाश क्यों ?
प्रश्न - नीतीश कुमार की कौन सी बात आपको सबसे अधिक पसंद है ?उत्तर - जब वे कें्रदीय मंत्री थे तो मुझे उनके कामकाज को करीब से देखने का मौका नहीं मिला था। इसलिए उनके बारे में मेरी कोई विशेष राय नहीं बन पाई थी। पर पूत के पांव उसी समय पालने में दिखाई पड़ने लगे जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। सत्ता में आते ही उनकी सरकार ने बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण का काम शुरू करवा दिया। यह भी कोई अजूबी बात नहीं थी। नई बात यह थी कि सड़क की बगल में नालियों का भी साथ-साथ नीतीश सरकार ने निर्माण कराना शुरू कर दिया। ऐसा पहले नहीं होता था। यहीं ईमानदार मंशा की झलक मिली। मुझे उर्दू पत्रकार मोईन अंसारी ने एक बार बताया था कि पटना जिले के ही एक शहर में पहले से बनी एक सीमेंटी सड़क को एक भ्रष्ट मंत्री ने साठ के दशक में किस तरह तोेड़वा कर उसे अलकतरा वाली सड़क में परिणत करवा दिया था। पूछने पर उसने मोईन चचा को बेशर्मी से बताया था कि मेरे और मेरे ठेकेदारों के पास भी अपने पेट हैं। सड़कें टूटेंगी नहीं तो उनकी मरमत कैेसे होगी ? हर साल मरम्मत नहीं होगी तो ठेकदार जिएगा कैसे ? तब से बिहार में भ्रष्टाचार आगे ही बढ़ता गया है।
सन 1971 के लोकसभा चुनाव के बाद तो उसने संस्थागत रूप ले लिया। सरकारी धन की इसी लूट-खसोट की भावना और संस्थागत भ्रष्टाचार को विभिन्न मुख्यमंत्रियों ने पाला पोसा, आगे बढ़ाया या फिर उसके साथ सह अस्तित्व का जीवन जिया। कुछ ईमानदार मुख्यमंत्री थोड़े ही दिनों में हटा दिए गए। सबका नतीजा यह हुआ कि विकास नहीं हुआ। गरीबी बढ़ी, साथ में नक्सली भी।
देश में नक्सली आंदोलन का हाल यह है कि उसे बिहार का गढ़ फतह करके नेपाल तक का कोरीडोर पूरा कर लेना है। यदि यह हो गया तो मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। नीतीश जैसे मुख्यमंत्री विकास व सुशासन के जरिए उस स्थिति को टालने की कोशिश कर रहे हैं। पर राजनीतिक कार्यपालिका तथा प्रशासनिक कार्यपालिका नीतीश कुमार के अनुकूल उतना नहीं बन पा रही है जितना मुख्यमंत्रीे चाहते हैं।
उनके ही दल के कुछ नेता लोकतंत्र पर उस खतरे को स्वार्थवश नहीं देख पा रहे हैं। जदयू के अनेक नेताओं के लिए पुत्र मोह, पैसा मोह और जाति मोह अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसे लोग सकीर्ण स्वार्थ में पड़ कर अपनी ही आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय कर रहे हैं। आज बिहार में जितने नेता मुख्यमंत्री के घोषित -अघोषित उम्मीदवार हैं जितना उन्हें मैं जानता हूं, उसके अनुसार उनमें से किसी में भी भ्रष्टाचार व अपराधियांे से लड़ने की नीतीश कुमार जैसा माददा नहीं है। नीतीश कुमार की यही बात मुझे सर्वाधिक पसंद है।
आज बिहार में कोई रामराज नहीं आया है। पर एक बात जरूर हुई है कि इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में नीतीश कुमार उम्मीद की आखिरी किरण के रूप में जरूर उभरे हैं। कोई अन्य राजनीतिक व्यवस्था देश-प्रदेश के जनजीवन में कैसे फर्क ला पाएगी, यह मैं नहीं जानता।
प्रश्न - नीतीश कुमार की सरकार में आपको कोई भी खराबी नजर आती है या नहीं ?उत्तर - क्यों नहीं नजर आती ? मैंने कई बार लिखा भी है कि नीतीश सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों की बहाली के लिए प्राप्तांकों को आधार बना कर भयंकर भूल की है। बहाली के पहले उनके लिए प्रतियोगिता परीक्षा का आयोजन किया जाना चाहिए था। साथ ही, शराब की दुकानों की संख्या बढ़ाने का काम भी गलत हुआ। इससे उलट शराबबंदी की दिशा में राज्य सरकार को आगे बढ़ना चाहिए था जैसा कि संविधान के नीति निदेशक तत्व चैप्टर में राज्य को निदेश दर्ज है। जिस प्रदेश के ब्यूरोक्रेसी व राजनीति के रग -रग में भ्रष्टाचार प्रवेश कर चुका हो, वहां नीतीश कुमार क्या ब्रहमा-विष्णु-महेश भी एक साथ आ जाएं तो इतने थोड़े समय में उसे सुधार नहीं सकते। यहां अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कोई मुख्यमंत्री स्थिति को सुधारने की भरसक कोशिश कर रहा है या फिर सरकारी भ्रष्टाचार के समुद्र में खुद डुबकी लगा रहा है।
प्रश्न - आपका प्रारंभिक जीवन कैसा रहा और आप पत्रकारिता में कैसे आये?उत्तर - मेरा प्रारंभिक जीवन गांव में बीता। छठवीं कक्षा में भी पढ़ने के लिए अपने गांव भरहापुर से 4 किलोमीटर दूर दिघवारा रोज पैदल जाना पड़ता था। पैर में चप्पल-जूता कुछ नहीं। सड़क कच्ची। गर्मी के दिनों में धूल में पैर वैसे ही जलते थे मानो गर्म तवे पर शरीर का कोई अंग।मेरे पिता जी कम ही पढ़े-लिखे थे। पर वे परंपरागत विवेक से लैस थे। उन्होंने जमीन बेच कर भी हम भाइयों को उच्च शिक्षा दिलाई। मैंने 1963 में साइंस से फस्र्ट डिवीजन से मैट्रिक पास किया। मैं परिवार का पहला मैट्रिकुलेट था। बाबू जी मेरी सफलता पर काफी खुश थे। मैं परिवार का पहला मैट्रिकुलेट जो था। मेरे छोटे भाई नागेंद्र पढ़ाई में मुझसे एक साल जूनियर थे, पर अधिक गंभीर थे। बाबू जी चाहते थे कि में ओवरसियर बनूं और मेरा छोटा भाई वकील बने।
मैट्रिक में प्रथम श्रेणी वालों के लिए ओवरसियरी में प्राप्तांक के आधार पर ही नामांकन संभव हो जाता था। पर मेरी इच्छा वैसी नहीं थी। मैट्रिक में पढ़ते समय ही मैं गांधीवाद से प्रभावित हो गया। कालेज जाने के बाद लोहियावादी हो गया। कालेज जाने के बाद पढ़ाई में मन नहीं लगने लगा। पहले अध्यात्म व फिर राजनीति की ओर मुखातिब हुआ। पर जब सक्रिय राजनीति से जब मन उचटा तो पत्रिकाओं व अखबारों से जुड़ा।
छपरा में राजेंद्र कालेज में बिताये गये अपने छात्र जीवन में ‘सारण संदेश’ जैसी छोटी पत्रिकाओं में लेख लिखता ही था। वहीं रवींद्र कुमार ने मुझे 1965 में दिनमान पढ़ने की प्रेरणा दी जिसने मुझे पत्रकार बनाया।
राजनीति प्रसाद ने जार्ज फर्नांडीस से मेरा परिचय कराया और मुझे प्रतिपक्ष का पटना संवाददाता बनवा दिया। इधर ‘जनता’ साप्ताहिक में भी काम करता था। उसे रामानंद तिवारी निकालते थे। आपातकाल तक यही चलता रहा। क्योंकि स्थापित अखबारों में नौकरी पाना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए तब कठिन था। पर सन 1977 में ‘आज’ में नौकरी पाई।
प्रश्न - बड़े अखबारों में काम करने का अपना कुछ अनुभव बताएं। आप जब पत्रकारिता में आये थे, उस समय और आज के समय में कितना फर्क आया है ?उत्तर - यदि पारसनाथ सिंह और प्रभाष जोशी जैसे ऋषितुल्य संपादक मुझे नहीं मिले होते तो मैं वह सब नहीं कर पाता जितना कुछ भी कर पाया। आज यदि मैं अपने पत्रकार जीवन से संतुष्ट हूं तो वह सब ‘आज’ के पारसनाथ सिंह और जनसत्ता के प्रभाष जोशी की कपा से ही यह संभव हो पाया।
वैसे एक बात जरूर कहूंगा कि राजनीति व खास कर सत्तापक्ष की राजनीति का पत्रकारिता पर असर पड़ता ही है। जब गांधी -नेहरू जैसे नेता राजनीति में थे तो बाबू राव विष्णु पराड़कर जैसे संपादक भी हुआ करते थे। जब मैं पत्रकारिता में आया तब तक गांधी युग के अनेक नेता जीवित थे और राजनीति में सक्रिय भी थे। उनकी मीडिया के प्रति अलग राय थी। मीडिया से निपटने का उनका तरीका आज के नेताओं से बिल्कुल भिन्न था।। मोरारजी देसाई तब सक्रिय थे। जवाहर लाल नेहरू के निधन के कोई पांच साल ही हुए थे। डा. श्रीकष्ण सिंह आठ साल पहले ही गुजरे थे। इनके कार्यकाल का हैंगओवर बाकी था।
इन लोगों के नाम इसलिए ले रहा हूं क्योंकि मैं बताना चाहता हूं कि उनके कार्यकाल में मीडिया को काम करने की कैसी आजादी थी। यह बात नहीं है कि मीडिया इन नेताओं की तीखी आलोचना नहीं करती थी। पर नेहरू, मोरारजी और श्रीबाबू उन अखबारों व पत्रिकाओं को पढ़ना ही छोड़ देते थे जिन प्रकाशनों के बारे में वे समझते थे कि वे प्रकाशन उनके साथ लेखन के स्तर पर अन्याय कर रहे हैं। वे बदले की भावना से मीडिया या फिर मीडियाकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते थे।
बाद के वर्षों में तो आलोचना करने वाले अखबारों के मालिकों के व्यवसाय नष्ट किए गये, संपादकों को सत्ताधारी दल के नेताओं ने नौकरियों से हटवा दिया। पत्रकार जेल तक भिजवा दिए गए। धमकियां दी गईं और उन पर नाहक परेशान करने के लिए मुकदमे किए गए। अब ऐसे में अखबार मालिक व्यापारीगण अखबारों को युद्ध का मैदान तो बनाने से रहे।
यह संयोग नहीं है कि मीडिया को उसी सत्ताधारी नेताओं ने तंग तबाह किया जिन पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप लगे। जब राजनीति में ही आदर्श नहीं रहा तो सिर्फ मीडिया में ही उसे क्यों खोजा जा रहा है। यह बात और है कि मीडिया व राजनीति में आदर्श के कुछ टापू जरूर आज भी जहां- तहां मौजूद हैं।
( 15 मार्च और 16 मार्च 2010 को ‘प्रभात खबर’ के पटना संस्करण में दो किस्तों में प्रकाशित )