भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष की टिप्पणियों पर अक्सर विवाद हो जाया करता है। पर, उनकी हाल की एक अत्यंत विवादास्पद टिप्पणी पर कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ जबकि उनका यह ताजा बयान आए कई दिन बीत चुके। क्या न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू की विवादास्पद टिप्पणियों को लोगों ने नजरअंदाज करना शुरू कर दिया है ? इस बात के बावजूद कि श्री काटजू का ताजा बयान अब तक का सर्वाधिक विवादास्पद है ? न्यायमूर्ति काटजू ने 24 मार्च को दिल्ली में कहा था कि नब्बे प्रतिशत भारतीय बेवकूफ हैं क्योंकि उनके दिमाग में अंध-विश्वास, सांप्रदायिकता और जातीयता भरी हुई हैं। वे इसी आधार पर वोट देते हैं। ऐसे ही लोगों ने फूलन देवी तक को भी लोकसभा में इसलिए पहुंचा दिया था क्योंकि वह पिछड़ी जाति की थीं।
इस देश में ऐसे विचार रखने वाले काटजू साहब अकेले नहीं हैं। इसलिए भी इस पर चर्चा जरूरी है। इस मामले में आजादी के तत्काल बाद भी कई प्रमुख लोगों ने यह सलाह दी थी कि मतदान का अधिकार सबको नहीं बल्कि चुने हुए पढ़े लिखे लोगों को ही मिलना चाहिए। पर संविधान निर्माताओं ने उन लोगों की सलाह नहीं मानी।
आजादी के तत्काल बाद के पहले आम चुनाव में भी कुछ ऐसे लोग व दल उम्मीदवार थे जिन पर यह आरोप था कि वे अंधविश्वास, सांप्रदायिकता और जातिवाद फैलाने की कोशिश करते थे। पर उन उम्मीदवारों को आम तौर से नजरअंदाज करके इस देश की अधिसंख्य जनता ने कांग्रेस को बड़े बहुमत से सत्ता में बैठा दिया था। ऐसा इसलिए हुआ कि आजादी की लड़ाई में तपे -तपाये कांग्रेसी नेताओं पर अधिकतर जनता ने अधिक भरोसा किया। ऐसा नहीं है आज भी अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और जातिवादी तत्वों की इस देश में उपस्थिति नहीं है। पर क्या उनकी संख्या नब्बे प्रतिशत है और वे चुनाव में भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं ? हां, कभी- कभी और जहां- तहां वे तत्व जरूर चुनाव में निर्णायक हो जाते हैं जहां के नेताओं की साख गिर चुकी होती है। और जनता को दो बुरे लोगों में से ही किसी कम बुरे को चुनना पड़ता है। क्या इसके लिए आप जनता को दोषी ठहराएंगे या नेता या फिर राजनीतिक दलों को या शासन को ?
कोई भी कहेगा कि आम अंधविश्वास के मामले में 1952 में आज की अपेक्षा बदतर स्थिति थी। इसके बावजूद अधिसंख्य जनता ने तब आजादी की लड़ाई की मुख्य पार्टी कांग्रेस को हाथों -हाथ लिया। उस समय वही विवेकशीलता थी। अंधविश्वासी तत्वों के लिए प्रथम आम चुनाव अनुकूल नहीं रहा।
विद्वान न्यायाधीश काटजू साहब को किसी अगले अवसर पर यह बताना चाहिए कि यदि अंधविश्वासी थी तो क्यों अधिसंख्य जनता यानी मतदाताओं ने सन 1952, 1957 ओर 1962 के आम चुनाव में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया ?
क्या अधिकतर भारतीयों ने आजादी दिलाने वाली प्रमुख पार्टी कांग्रेस को वोट देकर अंधविश्वास, जातीयता और सांप्रदायिकता का ही परिचय दिया था?
हां, जब बाद के वर्षों में कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ शिकायतें अधिक बढ़ने लगीं तो इस देश की अधिसंख्य जनता ने सत्ता पर से उनके एकाधिकार को भी तोड़ दिया।
सन 1967 के चुनाव में मतदाताओं ने देश के नौ राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। क्या ऐसा करके जनता ने बेवकूफी का परिचय दिया था? क्या 1971 में अधिकतर जनता ने इंदिरा गांधी की गरीबपक्षी घोषणाओं के पक्ष में खड़ा होकर गलत काम किया था ? क्या सन 1977 के चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से हटाकर और पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का लगभग सफाया करके अधिकतर जनता ने बेवकूफी का परिचय दिया ? दरअसल तब अधिकतर लोगों के दिलो दिमाग में आपातकाल की ज्यादतियां हावी थीं न कि कोई अंधविश्वास या दूसरा कुछ। क्या सन 1980 के चुनाव में आपसी कलह के लिए जनता पार्टी को सजा देने वाली जनता बेवकूफ थी?
क्या बोफोर्स तथा अन्य कई घोटालों की पृष्ठभूमि में 1989 में हुए आम चुनाव में राजीव सरकार को गद्दी से उतारकर मतदाताओं ने बेवकूफी की थी ?
क्या जंगल राज के खिलाफ 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में वोट देकर नीतीश कुमार को गद्दी पर बैठाने वाली बिहार की जनता अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और जातिवादी थी ?
काटजू साहब को इस बात का भी जवाब ढूंढ़ना चाहिए कि पांच साल के अंतराल के बाद मुलायम सिंह यादव की पार्टी तो यू.पी. में फिर से सत्ता में आ गई, पर लालू प्रसाद की पार्टी बिहार में 2010 के चुनाव के बाद भी ंफिर से सत्ता में क्यों नहीं आ सकी ? दोनों प्रदेश तो भारत में ही है। दोनों प्रदेशों के लोगों का मनमिजाज करीब- करीब मिलता -जुलता भी है।
कभी फुर्सत के क्षणों में इन प्रश्नों के जवाब ढूंढ़ने के लिए इसके मूल में काटजू साहब को जरूर जाना चहिए। काटजू साहब तो मीडियाकर्मियों को अनपढ़ या अधपढ़ बता चुके हैं। इसलिए विद्वान न्यायाधीश अपने गहन अध्ययन के जरिए शायद किसी सही नतीजे पर पहुंच जाएं। यदि ऐसा हुआ तो देश को कोई सही दिशा -निदेश भी मिल जाएगा।
हाल के वर्षों के चुनावों में कतिपय विवादास्पद तत्वों की चुनावी सफलताओं को लेकर काटजू साहब की उपर्युक्त टिप्पणी की प्रासंगिकता एक हद तक समझी जा सकती है। पर उसके लिए 90 प्रतिशत जनता को दोषी ठहरा देने के अपने निर्णय पर उन्हें एक बार फिर विचार करना चाहिए। क्योंकि उसके लिए जनता नहीं बल्कि राजनीतिक दल व सरकारें जिम्मेदार रही हैं। इसको समझने के लिए बिहार के कुछ उदाहरण पेश कियो जा सकते हैं।
अधिक साल नहीं हुए जब बिहार में राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, आनंद मोहन और मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली लोकसभा के चुनाव भी भारी बहुमत से जीत जाते थे। कई बार वे अपने समर्थकों को भी चुनाव जितवा देते थे। पर आज बिहार में इनका राजनीतिक सिक्का क्यों नहीं चल पा रहा है ?
इस सवाल के जवाब में सिवान लोकसभा चुनाव क्षेत्र का उदाहरण दिया जा सकता है।
वहां गरीबों-मजदूरों के शोषण के खिलाफ सी.पी.एम. (माले) सक्रिय हुआ। क्योंकि शासन-प्रशासन गरीबों के हितों की रक्षा करने में आम तौर पर विफल रहता था। वहां मजदूर बनाम भूमिपति तनाव बढ़ा और मोहम्मद शहाबुद्दीन भूमिपतियों के पक्ष में उठ खड़े हुए। नतीजतन वे भूमिपतियों के एक बड़े हिस्से के हीरो बन गये।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शासन ने न तो माले कार्यकर्ताओं, समर्थकों व गरीबों के साथ न्याय किया और न ही भूमिपतियों के साथ। शासन ने न गरीबों के खिलाफ भूमिपतियों की हिंसक कार्रवाइयांें को रोका और न ही भूमिपतियों पर माले समर्थकों की हिंसक कार्रवाइयों पर लगाम लगाई।
शासनहीनता की स्थिति लंबे समय तक बनी रही। परिणामस्वरूप समाज के एक हिस्से के लिए माले के नेतागण पुलिस थाने की तरह काम करने लगे और दूसरे हिस्से के लिए मोहम्मद शहाबुद्दीन।
पर, जब 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद सिवान सहित पूरे बिहार में राज्य शासन तंत्र सक्रिय हुआ और कानून -व्यवस्था बेहतर हुई तो चुनाव की दृष्टि से एक तरफ माले कमजोर हुआ तो दूसरी तरफ अनेक लोगों के लिए शहाबुद्दीन की अनिवार्यता भी कम हो गई। यह अकारण नहीं है कि आज न तो शहाबुद्दीन या उनके कोई परिजन किसी सदन के सदस्य हैं और न ही माले का ही कोई प्रतिनिधित्व है।
यानी जब शासन कमजोर होता है या फिर तरह -तरह के हिंसक तत्वों से उसकी सांठगांठ हो जाती है तो हिंसक तत्व राजनीति में भी हावी हो जाते हैं। पर जहां साख वाला नेता या शासन उपलब्ध होता है तो वहां ऐसी नौबत नहीं आती। ऐसी स्थिति के लिए 90 प्रतिशत जनता दोषी है या वे लोग जो सरकार या पार्टी चलाते हैं ? इस सवाल का जवाब काटजू साहब को अगली बार देना चाहिए।
(जनसत्ता में 10 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)
इस देश में ऐसे विचार रखने वाले काटजू साहब अकेले नहीं हैं। इसलिए भी इस पर चर्चा जरूरी है। इस मामले में आजादी के तत्काल बाद भी कई प्रमुख लोगों ने यह सलाह दी थी कि मतदान का अधिकार सबको नहीं बल्कि चुने हुए पढ़े लिखे लोगों को ही मिलना चाहिए। पर संविधान निर्माताओं ने उन लोगों की सलाह नहीं मानी।
आजादी के तत्काल बाद के पहले आम चुनाव में भी कुछ ऐसे लोग व दल उम्मीदवार थे जिन पर यह आरोप था कि वे अंधविश्वास, सांप्रदायिकता और जातिवाद फैलाने की कोशिश करते थे। पर उन उम्मीदवारों को आम तौर से नजरअंदाज करके इस देश की अधिसंख्य जनता ने कांग्रेस को बड़े बहुमत से सत्ता में बैठा दिया था। ऐसा इसलिए हुआ कि आजादी की लड़ाई में तपे -तपाये कांग्रेसी नेताओं पर अधिकतर जनता ने अधिक भरोसा किया। ऐसा नहीं है आज भी अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और जातिवादी तत्वों की इस देश में उपस्थिति नहीं है। पर क्या उनकी संख्या नब्बे प्रतिशत है और वे चुनाव में भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं ? हां, कभी- कभी और जहां- तहां वे तत्व जरूर चुनाव में निर्णायक हो जाते हैं जहां के नेताओं की साख गिर चुकी होती है। और जनता को दो बुरे लोगों में से ही किसी कम बुरे को चुनना पड़ता है। क्या इसके लिए आप जनता को दोषी ठहराएंगे या नेता या फिर राजनीतिक दलों को या शासन को ?
कोई भी कहेगा कि आम अंधविश्वास के मामले में 1952 में आज की अपेक्षा बदतर स्थिति थी। इसके बावजूद अधिसंख्य जनता ने तब आजादी की लड़ाई की मुख्य पार्टी कांग्रेस को हाथों -हाथ लिया। उस समय वही विवेकशीलता थी। अंधविश्वासी तत्वों के लिए प्रथम आम चुनाव अनुकूल नहीं रहा।
विद्वान न्यायाधीश काटजू साहब को किसी अगले अवसर पर यह बताना चाहिए कि यदि अंधविश्वासी थी तो क्यों अधिसंख्य जनता यानी मतदाताओं ने सन 1952, 1957 ओर 1962 के आम चुनाव में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया ?
क्या अधिकतर भारतीयों ने आजादी दिलाने वाली प्रमुख पार्टी कांग्रेस को वोट देकर अंधविश्वास, जातीयता और सांप्रदायिकता का ही परिचय दिया था?
हां, जब बाद के वर्षों में कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ शिकायतें अधिक बढ़ने लगीं तो इस देश की अधिसंख्य जनता ने सत्ता पर से उनके एकाधिकार को भी तोड़ दिया।
सन 1967 के चुनाव में मतदाताओं ने देश के नौ राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। क्या ऐसा करके जनता ने बेवकूफी का परिचय दिया था? क्या 1971 में अधिकतर जनता ने इंदिरा गांधी की गरीबपक्षी घोषणाओं के पक्ष में खड़ा होकर गलत काम किया था ? क्या सन 1977 के चुनाव में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से हटाकर और पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का लगभग सफाया करके अधिकतर जनता ने बेवकूफी का परिचय दिया ? दरअसल तब अधिकतर लोगों के दिलो दिमाग में आपातकाल की ज्यादतियां हावी थीं न कि कोई अंधविश्वास या दूसरा कुछ। क्या सन 1980 के चुनाव में आपसी कलह के लिए जनता पार्टी को सजा देने वाली जनता बेवकूफ थी?
क्या बोफोर्स तथा अन्य कई घोटालों की पृष्ठभूमि में 1989 में हुए आम चुनाव में राजीव सरकार को गद्दी से उतारकर मतदाताओं ने बेवकूफी की थी ?
क्या जंगल राज के खिलाफ 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में वोट देकर नीतीश कुमार को गद्दी पर बैठाने वाली बिहार की जनता अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और जातिवादी थी ?
काटजू साहब को इस बात का भी जवाब ढूंढ़ना चाहिए कि पांच साल के अंतराल के बाद मुलायम सिंह यादव की पार्टी तो यू.पी. में फिर से सत्ता में आ गई, पर लालू प्रसाद की पार्टी बिहार में 2010 के चुनाव के बाद भी ंफिर से सत्ता में क्यों नहीं आ सकी ? दोनों प्रदेश तो भारत में ही है। दोनों प्रदेशों के लोगों का मनमिजाज करीब- करीब मिलता -जुलता भी है।
कभी फुर्सत के क्षणों में इन प्रश्नों के जवाब ढूंढ़ने के लिए इसके मूल में काटजू साहब को जरूर जाना चहिए। काटजू साहब तो मीडियाकर्मियों को अनपढ़ या अधपढ़ बता चुके हैं। इसलिए विद्वान न्यायाधीश अपने गहन अध्ययन के जरिए शायद किसी सही नतीजे पर पहुंच जाएं। यदि ऐसा हुआ तो देश को कोई सही दिशा -निदेश भी मिल जाएगा।
हाल के वर्षों के चुनावों में कतिपय विवादास्पद तत्वों की चुनावी सफलताओं को लेकर काटजू साहब की उपर्युक्त टिप्पणी की प्रासंगिकता एक हद तक समझी जा सकती है। पर उसके लिए 90 प्रतिशत जनता को दोषी ठहरा देने के अपने निर्णय पर उन्हें एक बार फिर विचार करना चाहिए। क्योंकि उसके लिए जनता नहीं बल्कि राजनीतिक दल व सरकारें जिम्मेदार रही हैं। इसको समझने के लिए बिहार के कुछ उदाहरण पेश कियो जा सकते हैं।
अधिक साल नहीं हुए जब बिहार में राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, आनंद मोहन और मोहम्मद शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली लोकसभा के चुनाव भी भारी बहुमत से जीत जाते थे। कई बार वे अपने समर्थकों को भी चुनाव जितवा देते थे। पर आज बिहार में इनका राजनीतिक सिक्का क्यों नहीं चल पा रहा है ?
इस सवाल के जवाब में सिवान लोकसभा चुनाव क्षेत्र का उदाहरण दिया जा सकता है।
वहां गरीबों-मजदूरों के शोषण के खिलाफ सी.पी.एम. (माले) सक्रिय हुआ। क्योंकि शासन-प्रशासन गरीबों के हितों की रक्षा करने में आम तौर पर विफल रहता था। वहां मजदूर बनाम भूमिपति तनाव बढ़ा और मोहम्मद शहाबुद्दीन भूमिपतियों के पक्ष में उठ खड़े हुए। नतीजतन वे भूमिपतियों के एक बड़े हिस्से के हीरो बन गये।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शासन ने न तो माले कार्यकर्ताओं, समर्थकों व गरीबों के साथ न्याय किया और न ही भूमिपतियों के साथ। शासन ने न गरीबों के खिलाफ भूमिपतियों की हिंसक कार्रवाइयांें को रोका और न ही भूमिपतियों पर माले समर्थकों की हिंसक कार्रवाइयों पर लगाम लगाई।
शासनहीनता की स्थिति लंबे समय तक बनी रही। परिणामस्वरूप समाज के एक हिस्से के लिए माले के नेतागण पुलिस थाने की तरह काम करने लगे और दूसरे हिस्से के लिए मोहम्मद शहाबुद्दीन।
पर, जब 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद सिवान सहित पूरे बिहार में राज्य शासन तंत्र सक्रिय हुआ और कानून -व्यवस्था बेहतर हुई तो चुनाव की दृष्टि से एक तरफ माले कमजोर हुआ तो दूसरी तरफ अनेक लोगों के लिए शहाबुद्दीन की अनिवार्यता भी कम हो गई। यह अकारण नहीं है कि आज न तो शहाबुद्दीन या उनके कोई परिजन किसी सदन के सदस्य हैं और न ही माले का ही कोई प्रतिनिधित्व है।
यानी जब शासन कमजोर होता है या फिर तरह -तरह के हिंसक तत्वों से उसकी सांठगांठ हो जाती है तो हिंसक तत्व राजनीति में भी हावी हो जाते हैं। पर जहां साख वाला नेता या शासन उपलब्ध होता है तो वहां ऐसी नौबत नहीं आती। ऐसी स्थिति के लिए 90 प्रतिशत जनता दोषी है या वे लोग जो सरकार या पार्टी चलाते हैं ? इस सवाल का जवाब काटजू साहब को अगली बार देना चाहिए।
(जनसत्ता में 10 अप्रैल 2012 को प्रकाशित)