शायद नयी पीढ़ी को मालूम नहीं हो कि देश मेंं 1975 में इमरजेंसी क्यों लगायी गयी थी। इसलिए उसकी एक बार फिर चर्चा जरुरी है। दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता बचाने के लिए तब लोकतंत्र का गला घोंटा गया था।
जिस दल की सरकार अपनी प्रधानमंत्री की सदस्यता बचाने के लिए देश पर इमरजेंसी थोप सकती है, उसने यदि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को धत्ता बताने के लिए 24 सितंबर को अध्यादेश को मंजूरी दे दी तो इसमें कोई आश्चर्य की बात ंनहीं है। आज तो अनेक लोगों की सदस्यता बचाने की उसे जरुरत है। यानी उस दल ने परंपरा कायम रखी है। यदि 1975 में ही प्रतिपक्ष का आज की तरह पतन हो चुका होता तो इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने की भी तब कोई जरुरत नहीं पड़ती।
केंद्र सरकार के मौजूदा कदम को सर्वदलीय सहमति तो गत एक अगस्त को ही मिल चुकी थी। बस प्रतिपक्ष का एक हिस्सा आज विरोध इस बात पर कर रहा है कि अध्यादेश लाने की जल्दीबाजी क्यों दिखाई जा रही है। इसे संसद के रास्ते ही आना चाहिए था। रशीद मसूद और लालू प्रसाद प्रतिपक्ष के होते तो उतना विरोध भी नहीं होता।
याद रहे कि गत 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दो साल से अधिक की (लोअर कोर्ट से भी) सजा हो जाने पर सांसदों और विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाएगी।
अपराधियों व भ्रष्टाचारियों से भरी आज की राजनीति की मुख्य धारा इस निर्णय पर तत्काल हरकत में आ गयी। इस पर एक अगस्त को सर्वदलीय बैठक बुला ली गयी।
बैठक में तुरंत सर्वदलीय सहमति भी बन गई कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने के उपाय किये जाएं। पहले तो सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी गई। साथ ही फैसले को पलटने के लिए संबंधित कानून में परिवर्तन के लिए संसद में विधेयक पेश कर दिया गया। पर संसद उसे पास किये बिना ही अन्य कारणों से स्थगित हो गई। इधर 4 सितंबर को सर्वोच्च अदालत ने सरकार की पुनर्विचार याचिका को नामंजूर कर दिया। इसके बाद अध्यादेश का रास्ता अपनाया गया। इस बात का तनिक ध्यान तक नहीं रखा गया कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की सख्त राय है।
याद रहे कि 1975 और आज में फर्क यही आया है कि अधिकतर प्रतिपक्षी दल व उनके नेतागण भी ऐसे जन विरोधी उपायों के समर्थक बन चुके हंै। राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण का खामियाजा अंततः देश की करोड़ों जनता को ही तो भुगतना पड़ता है। जब राजनीति, सरकार व प्रशासन की गंगोत्री ही अपवित्र हो जाती है तो उसका मारक असर पुलिस थानों व ब्लाॅक दफतरों तक पर पड़ता है।
याद रहे कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जग मोहन लाल सिंहा ने राय बरेली से इंदिरा गांधी का लोकसभा का चुनाव रद कर दिया था। उन पर चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाने का आरोप साबित हो चुका था। इंदिरा गांधी पर संबंधित कानून की जिन धाराओं को तोड़ने का आरोप था, उन धाराओं में आपातकाल में अनुकूल संशोधन कर दिया गया। संशोधित कानून के तहत जब सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को पलटने के सिवा सुप्रीम कोर्ट के सामने कोई चारा नहीं था।
इंदिरा गांधी पर आरोप के बारे में देश के तब के एक शीर्ष वकील ने कहा था कि उन पर आरोप ट्राफिक नियम भंग करने जैसे ही मामूली थे। इसके बावजूद तब के प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों और जय प्रकाश नारायण ने प्रधान मंत्री से इस्तीफा मांगा था।
पर आज की मुख्य धारा की लगभग समग्र राजनीति ऐसे सजायाफ्ता अपराधियों को भी संसद और विधायिकाओं में शोभा बढ़ाने की सुविधा देने पर अमादा है जिन पर जघन्य हत्या, बलात्कार, भीषण भ्रष्टाचार तथा इस तरह के अन्य जघन्य अपराधों के तहत मुकदमे रहे हैं। कल्पना कीजिए कि इंदिरा गांधी की सदस्यता बचाने के लिए तब कोई सर्वदलीय बैठक और उसमें सहमति संभव थी ?
कत्तई नहीं। क्योंकि तब राजनीति आज की तरह नहीं थी। हालांकि उसमें गंदगी आनी शुरु जरुर हो गई थी। पर आज तो पूरे कुएं में ही भांग पड़ चुकी है। लगभग सभी दलोंे में लालू प्रसाद और रशीद मसूद मौजूद हैं जिन्हें बचाना है।
आज इस बात के बावजूद यह हो रहा है कि देश की संसद और विधायिकाओं में ऐसे सदस्यों की संख्या चुनाव दर चुनाव बढ़ती जा रही है जिन पर भ्रष्टाचार व अपराध के गंभीर आरोप हैं। लोकसभा के सन 2004 के चुनाव की अपेक्षा 2009 के चुनाव में संसद में ऐसे सदस्यों की संख्या में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई तो विधायिकाओं में इस अवधि में करीब 31 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
यदि यह रफतार जारी रही, और संकेत हैं कि जारी रहेगी ही,तो वह दिन दूर नहीं जब देश की सरकारों के कैबिनेट में खूंखार अपराधियों व वारेन हेस्टिंग की तरह के आर्थिक लुटेरों का बहुमत हो जाएगा।
कतिपय एन.जी.ओ.,कुछ संविधान व कानून प्रेमी हस्तियां ,सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग इस स्थिति से चिंतित जरुर है। संभव है कि सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर अपने किसी अगले निर्णय के जरिए मौजूदा अध्यादेश के पक्षधर सरकार की इस मंशा पर पानी फेर दे। अब तो संविधानप्रिय जनता की नजरें सुप्रीम कोर्ट की ओर ही है।
2002 में केंद्र की तत्कालीन राजग सरकार ने भी सर्वदलीय सहमति से इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने के लिए संसद से कानून बनवाया था।पर,सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद कर दिया।सुप्रीम कोर्ट के उस कदम के कारण ही हम आज उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड,उनकी संपत्ति का व्योरा और शैक्षणिक योग्यता जान पाते हैं।
जो राजनीति 2002 में अपने नेताओं व सदस्यों के खिलाफ जारी गंभीर मुकदमों के विवरण तक को भी जनता से छिपाये रखना चाहती थी,वह सजा हो जाने के बावजूद सदस्यता गंवाने देना आज कैसे मंजूर करती ?
आज इस देश की मुख्य धारा की राजनीति को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अपराध, भ्रष्टाचार,परिवारवाद,जातिवाद और वोट बैंक की राजनीति से हमारा लोकतंत्र कितना लहूलुहान होता जा रहा है।उसे तो पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा चाहिए।
इसी बिगड़ती स्थिति को देखते हुए वोहरा समिति, एम.एन.वेंकटचलैया आयोग, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग, विधि आयोग और चुनाव आयोग ने राजनीति से अपराधियों व भ्रष्टाचारियों को निकाल बाहर करने के लिए समय -समय पर अनेक सिफारिशें कीं। वोहरा कमेटी की रपट 1993 में आई थी। तभी उस पर काम करना चाहिए था। पर 1993 के बाद की विभिन्न सरकारों ने उन सिफारिशों को आलमारियों में बंद कर उनमें मजबूत ताले लगा दिये। पता नहीं हमारे राजनीतिक कर्णधार इस देश को कहां ले जा रहे हैं या ले जाना चाहते हैं ?
आज की राजनीतिक पार्टी अपने फंड के अज्ञात स्त्रोत के बारे में जनता को कोई सूचना देने को भी तैयार नहीं है जबकि कांग्रेस ने यह घोषणा की है कि 2004 और 2012 के बीच ज्ञात स्त्रोत से उसे मात्र 226 करोड़ और अज्ञात स्त्रोत से 1951 करोड़ रुपये मिले। यही हाल भाजपा का भी है।
झामुमो सांसद रिश्वत प्रकरण में अदालत ने घूसखोरों को सजा देने में अपनी लाचारी दिखाते हुए कहा था कि संसद ही यह कानून बना सकती है ताकि रिश्वत लेकर सदन के भीतर वोट करने वाले को सजा दी जा सके। पर संसद ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया। यदि बना दिया होता तो न्यूक्लियर डील के समय केंद्र सरकार गिरने से कैसे बच पाती ? ऐसी परिस्थितियों में आगे भी इसी तरह सरकारों को बचाने की आज की राजनीति की मंशा है।
न तो सरकार सी.बी.आइ. नामक तोते को पिजड़े से बाहर करने को तैयार है और न ही कारगर लोकायुक्त कानून बनाने के लिए। यदि सी.बी.आइ. को निष्पक्ष बना दिया जाएगा तो मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं को क्लीन चीट कौन देगा ?
प्रकाश सिंह मामले में पुलिस सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट के निदेश का पालन करने को कोई सरकार तैयार नहीं है।यदि सुधार हो जाएगा तो मुजफ्फरनगर में दंगे के दंगाइयों को थाने से ही कैसे छोड़ा जा सकेगा ? दंगाइयों के घरों में एक तरफा छापामारी कैसे संभव होगी ?
यानी देश कहीं जाए, इससे हमारे अधिकतर हुक्मरानों को आज कोई मतलब नहीं है।दुनिया का कोई अन्य देश लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये अपने ही नेताओं से इतना अधिक पीडि़त है,ऐसा कोई उदाहरण अब तक नहीं मिला है।किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि इस दुःश्चक्र से इस गरीब देश को निकालने के उपाय क्या हैं ?
जिस दल की सरकार अपनी प्रधानमंत्री की सदस्यता बचाने के लिए देश पर इमरजेंसी थोप सकती है, उसने यदि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को धत्ता बताने के लिए 24 सितंबर को अध्यादेश को मंजूरी दे दी तो इसमें कोई आश्चर्य की बात ंनहीं है। आज तो अनेक लोगों की सदस्यता बचाने की उसे जरुरत है। यानी उस दल ने परंपरा कायम रखी है। यदि 1975 में ही प्रतिपक्ष का आज की तरह पतन हो चुका होता तो इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने की भी तब कोई जरुरत नहीं पड़ती।
केंद्र सरकार के मौजूदा कदम को सर्वदलीय सहमति तो गत एक अगस्त को ही मिल चुकी थी। बस प्रतिपक्ष का एक हिस्सा आज विरोध इस बात पर कर रहा है कि अध्यादेश लाने की जल्दीबाजी क्यों दिखाई जा रही है। इसे संसद के रास्ते ही आना चाहिए था। रशीद मसूद और लालू प्रसाद प्रतिपक्ष के होते तो उतना विरोध भी नहीं होता।
याद रहे कि गत 10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दो साल से अधिक की (लोअर कोर्ट से भी) सजा हो जाने पर सांसदों और विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाएगी।
अपराधियों व भ्रष्टाचारियों से भरी आज की राजनीति की मुख्य धारा इस निर्णय पर तत्काल हरकत में आ गयी। इस पर एक अगस्त को सर्वदलीय बैठक बुला ली गयी।
बैठक में तुरंत सर्वदलीय सहमति भी बन गई कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने के उपाय किये जाएं। पहले तो सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी गई। साथ ही फैसले को पलटने के लिए संबंधित कानून में परिवर्तन के लिए संसद में विधेयक पेश कर दिया गया। पर संसद उसे पास किये बिना ही अन्य कारणों से स्थगित हो गई। इधर 4 सितंबर को सर्वोच्च अदालत ने सरकार की पुनर्विचार याचिका को नामंजूर कर दिया। इसके बाद अध्यादेश का रास्ता अपनाया गया। इस बात का तनिक ध्यान तक नहीं रखा गया कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की सख्त राय है।
याद रहे कि 1975 और आज में फर्क यही आया है कि अधिकतर प्रतिपक्षी दल व उनके नेतागण भी ऐसे जन विरोधी उपायों के समर्थक बन चुके हंै। राजनीति के अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण का खामियाजा अंततः देश की करोड़ों जनता को ही तो भुगतना पड़ता है। जब राजनीति, सरकार व प्रशासन की गंगोत्री ही अपवित्र हो जाती है तो उसका मारक असर पुलिस थानों व ब्लाॅक दफतरों तक पर पड़ता है।
याद रहे कि 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जग मोहन लाल सिंहा ने राय बरेली से इंदिरा गांधी का लोकसभा का चुनाव रद कर दिया था। उन पर चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाने का आरोप साबित हो चुका था। इंदिरा गांधी पर संबंधित कानून की जिन धाराओं को तोड़ने का आरोप था, उन धाराओं में आपातकाल में अनुकूल संशोधन कर दिया गया। संशोधित कानून के तहत जब सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को पलटने के सिवा सुप्रीम कोर्ट के सामने कोई चारा नहीं था।
इंदिरा गांधी पर आरोप के बारे में देश के तब के एक शीर्ष वकील ने कहा था कि उन पर आरोप ट्राफिक नियम भंग करने जैसे ही मामूली थे। इसके बावजूद तब के प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों और जय प्रकाश नारायण ने प्रधान मंत्री से इस्तीफा मांगा था।
पर आज की मुख्य धारा की लगभग समग्र राजनीति ऐसे सजायाफ्ता अपराधियों को भी संसद और विधायिकाओं में शोभा बढ़ाने की सुविधा देने पर अमादा है जिन पर जघन्य हत्या, बलात्कार, भीषण भ्रष्टाचार तथा इस तरह के अन्य जघन्य अपराधों के तहत मुकदमे रहे हैं। कल्पना कीजिए कि इंदिरा गांधी की सदस्यता बचाने के लिए तब कोई सर्वदलीय बैठक और उसमें सहमति संभव थी ?
कत्तई नहीं। क्योंकि तब राजनीति आज की तरह नहीं थी। हालांकि उसमें गंदगी आनी शुरु जरुर हो गई थी। पर आज तो पूरे कुएं में ही भांग पड़ चुकी है। लगभग सभी दलोंे में लालू प्रसाद और रशीद मसूद मौजूद हैं जिन्हें बचाना है।
आज इस बात के बावजूद यह हो रहा है कि देश की संसद और विधायिकाओं में ऐसे सदस्यों की संख्या चुनाव दर चुनाव बढ़ती जा रही है जिन पर भ्रष्टाचार व अपराध के गंभीर आरोप हैं। लोकसभा के सन 2004 के चुनाव की अपेक्षा 2009 के चुनाव में संसद में ऐसे सदस्यों की संख्या में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई तो विधायिकाओं में इस अवधि में करीब 31 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
यदि यह रफतार जारी रही, और संकेत हैं कि जारी रहेगी ही,तो वह दिन दूर नहीं जब देश की सरकारों के कैबिनेट में खूंखार अपराधियों व वारेन हेस्टिंग की तरह के आर्थिक लुटेरों का बहुमत हो जाएगा।
कतिपय एन.जी.ओ.,कुछ संविधान व कानून प्रेमी हस्तियां ,सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग इस स्थिति से चिंतित जरुर है। संभव है कि सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर अपने किसी अगले निर्णय के जरिए मौजूदा अध्यादेश के पक्षधर सरकार की इस मंशा पर पानी फेर दे। अब तो संविधानप्रिय जनता की नजरें सुप्रीम कोर्ट की ओर ही है।
2002 में केंद्र की तत्कालीन राजग सरकार ने भी सर्वदलीय सहमति से इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने के लिए संसद से कानून बनवाया था।पर,सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद कर दिया।सुप्रीम कोर्ट के उस कदम के कारण ही हम आज उम्मीदवारों के आपराधिक रिकार्ड,उनकी संपत्ति का व्योरा और शैक्षणिक योग्यता जान पाते हैं।
जो राजनीति 2002 में अपने नेताओं व सदस्यों के खिलाफ जारी गंभीर मुकदमों के विवरण तक को भी जनता से छिपाये रखना चाहती थी,वह सजा हो जाने के बावजूद सदस्यता गंवाने देना आज कैसे मंजूर करती ?
आज इस देश की मुख्य धारा की राजनीति को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि अपराध, भ्रष्टाचार,परिवारवाद,जातिवाद और वोट बैंक की राजनीति से हमारा लोकतंत्र कितना लहूलुहान होता जा रहा है।उसे तो पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा चाहिए।
इसी बिगड़ती स्थिति को देखते हुए वोहरा समिति, एम.एन.वेंकटचलैया आयोग, द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग, विधि आयोग और चुनाव आयोग ने राजनीति से अपराधियों व भ्रष्टाचारियों को निकाल बाहर करने के लिए समय -समय पर अनेक सिफारिशें कीं। वोहरा कमेटी की रपट 1993 में आई थी। तभी उस पर काम करना चाहिए था। पर 1993 के बाद की विभिन्न सरकारों ने उन सिफारिशों को आलमारियों में बंद कर उनमें मजबूत ताले लगा दिये। पता नहीं हमारे राजनीतिक कर्णधार इस देश को कहां ले जा रहे हैं या ले जाना चाहते हैं ?
आज की राजनीतिक पार्टी अपने फंड के अज्ञात स्त्रोत के बारे में जनता को कोई सूचना देने को भी तैयार नहीं है जबकि कांग्रेस ने यह घोषणा की है कि 2004 और 2012 के बीच ज्ञात स्त्रोत से उसे मात्र 226 करोड़ और अज्ञात स्त्रोत से 1951 करोड़ रुपये मिले। यही हाल भाजपा का भी है।
झामुमो सांसद रिश्वत प्रकरण में अदालत ने घूसखोरों को सजा देने में अपनी लाचारी दिखाते हुए कहा था कि संसद ही यह कानून बना सकती है ताकि रिश्वत लेकर सदन के भीतर वोट करने वाले को सजा दी जा सके। पर संसद ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया। यदि बना दिया होता तो न्यूक्लियर डील के समय केंद्र सरकार गिरने से कैसे बच पाती ? ऐसी परिस्थितियों में आगे भी इसी तरह सरकारों को बचाने की आज की राजनीति की मंशा है।
न तो सरकार सी.बी.आइ. नामक तोते को पिजड़े से बाहर करने को तैयार है और न ही कारगर लोकायुक्त कानून बनाने के लिए। यदि सी.बी.आइ. को निष्पक्ष बना दिया जाएगा तो मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं को क्लीन चीट कौन देगा ?
प्रकाश सिंह मामले में पुलिस सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट के निदेश का पालन करने को कोई सरकार तैयार नहीं है।यदि सुधार हो जाएगा तो मुजफ्फरनगर में दंगे के दंगाइयों को थाने से ही कैसे छोड़ा जा सकेगा ? दंगाइयों के घरों में एक तरफा छापामारी कैसे संभव होगी ?
यानी देश कहीं जाए, इससे हमारे अधिकतर हुक्मरानों को आज कोई मतलब नहीं है।दुनिया का कोई अन्य देश लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये अपने ही नेताओं से इतना अधिक पीडि़त है,ऐसा कोई उदाहरण अब तक नहीं मिला है।किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि इस दुःश्चक्र से इस गरीब देश को निकालने के उपाय क्या हैं ?
(इस लेख का संपादित अंश 26 सितंबर 2013 के जनसत्ता में प्रकाशित)