रविवार, 13 जुलाई 2014

मीडिया ने पिछड़ा उभार को सकारात्मक नजरिये से नहीं देखा

(प्रभात खबर, पटना में 7 अप्रैल 2001 को प्रकाशित)


 पत्रकार सुरेंद्र किशोर से प्रभात खबर के लिए 
अनीश अंकुर और अविनाश की बातचीत 

प्रश्न-पिछले दस वर्षों के दौरान पिछड़ा उभार या सशक्तीकरण का बिहार के समाज पर जो असर पड़ा, मीडिया ने उसको किस रूप में रेखांकित किया ?

उत्तर- कुछ अपवादों को छोड़कर मीडिया ने पिछड़ा उभार या सशक्तीकरण को सकारात्मक नजरिए से नहीं देखा। इसके कई कारण हैं। इस सवाल का जवाब मीडिया के लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि में भी ढूंढ़ा जा सकता है। पिछड़ा उभार और सशक्तीकरण के आंदोलन के नेतागण भी इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं। सवर्ण बहुल मीडिया से यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि वह सशक्तीकरण के नाम पर पिछड़ों के बीच की कुछ खास जातियों को उन्मादी और नव सवर्ण रूप में स्वीकार कर ले। सशक्तीकरण को व्यापक और समरूप बनाने की जरूरत है। दूसरी ओर मीडिया की सामाजिक बुनावट में यदि परिवर्तन नहीं हुआ, तो खुद मीडिया के सामने विश्वास का संकट और भी गहराएगा। 

प्रश्न - लोग कहते हैं कि पिछड़े वर्गों के सशक्तीकरण ने बिहार के आर्थिक विकास की अवस्था को पीछे धकेलने का काम किया। इसकी क्या वजह हो सकती है?

उत्तर - इसके लिए सशक्तीकरण के नेता जिम्मेवार हैं। सशक्तीकरण से पहले भी बिहार विकास के मामले में पीछे ही जा रहा था। पर पिछले दस वर्षों से सत्ता जिसके हाथों में रही, उन्हें जातिवाद, भ्रष्टाचार व अराजकता के बदले विकास को अपना मूलमं़ बनाना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। इस कारण एक तरह राजनीतिक संरक्षण प्राप्त गुंडा गिरोह बड़े पैमाने परपनपे और दूसरी ओर नक्सली।

प्रश्न - हिंदी प्रदेशों में वामपंथ का सबसे मजबूत गढ़ बिहार माना जाता रहा है। पर आज उसमें एक ठहराव-सा दिखता है। बिहार में ही वामपंथ के ज्यादा आगे बढ़ने के क्या कारण रहे तथा आज जो ठहराव व गतिरोध की स्थिति है उसे कैसे तोड़ा जा सकता है?

उत्तर- बिहार एक अद्र्धसामंती समाज है। वामपंथियों के गढ़ बंगाल से यह सटा हुआ प्रदेश है। बिहार में पहले से ही राजनीतिक जागरूकता अधिक रही है। इस तरह के कारणों से वामपंथी दल यहां मजबूत हुए। पर, यहां भी वामपंथी नेताओं ने कार्यकर्ताओं व समर्थकों को छला। पहले के नेता अपने निजी जीवन की सादगी व निष्ठा के जरिए युवकों व छात्रों को प्रेरित व प्रभावित करते थे। अब वैसी बात नहीं है। कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट पार्टियों के उत्तराधिकारी संगठनों के कार्यकर्ता आज आम तौर पर अभिकर्ता (ठेकेदार) बन चुके हैं। अपवादों की बात अलग है। इस गतिरोध को कैसे तोड़ा जाए, इस सवाल का जवाब आसान नहीं है।

प्रश्न- बिहार में लोहिया के तमाम लोहार आज त्रिशूल बना रहे हैं। किसी भद्र पुरुष के इस कथन को आप किस तरह देखेंगे?

उत्तर - लगता है कि लोहियावाद अब किताबों में सिमट कर रह गया है। किशन पटनायक जैसे थोड़े से लोग उसे जहां-तहां चला रहे हैं। बिहार के संदर्भ में देखें तो आज के अधिकतर नेता अपने-अपने कबीले के सरदार जैसे लगते है। कोई यादवों का नेता है, तो कोई कुर्मियों का। कोई कोइरी का नेता है, तो कोई राजपूतों का। कोई पासवान नेता है, तो कोई चमार नेता है। ऐसा कहे जाने पर  भी उन्हें कोई असुविधा नहीं होती। पूरे समाज का कोई नेता नहीं नजर आता। इन ‘कबीलाई सरदारों’ के रहन-सहन, हाव भाव और क्रियाकलाप मध्ययुगीन राजाओं से मिलते-जुलते हैं। पिछड़े नेताओं ने सामाजिक न्याय का उसी तरह कचूमर निकाला, जिस तरह कांग्रेसियों ने गांधीवाद का।

प्रश्न - बिहार हिंदुस्तान भर में जातीय हिंसा से सर्वाधिक त्रस्त राज्यों में रहा है। बिहार के साथ जातिवाद जैसे समानार्थक हो गया है। आप क्या कहते हैं?

उत्तर- सवाल है कि जातिवाद को मापने का क्या पैमाना बने। बिहार बदनाम अधिक है। दूसरी जगहों में जातिवाद ज्यादा या इतना ही रहा है। दरअसल जातिवाद की जकड़न को तोड़ने के लिए बिहार में अधिक कोशिशें हुई हैं। उसका शोर अधिक हुआ। इसलिए कि जकड़न टूटी। जिन लोगों को जकड़न टूटने से नुकसान हुआ, उन्होंने जातिवाद का शोर अधिक मचाया। आज सन 1950-60 की तरह सत्ता सिर्फ दो सवर्ण जातियों के हाथों में नहीं है। पर बंगाल में सत्ता अब भी दो सवर्ण जातियों के हाथों में है। यदि वहां भी इस लाइन पर आंदोलन हुआ होता, तो वहां भी जातिवाद को शोर मचा होता। 

     यह भी आरोप लगाया जाता है कि केंद्र की 1952-57 की सरकार जितनी जातिवादी थी, उतनी जातिवादी लालू-मुलायम की सरकारें भी नहीं रही हैं। आंकड़े तो यही बताते हैं। मेरिट केक नाम पर एक खास जाति के लोगों को बड़ी संख्या में पद दिये गये। इन कथित मेरिट वालों ने आजादी के बाद देश को ऐसे चलाया कि हम भारी विदेशी कर्जे में डूब गये। आज हमें उन कर्जों के सिर्फ सूद के रूप में हर साल करीब एक लाख करोड़ रुपये देने पड़ते हैं।

प्रश्न-बिल्कुल इधर ‘गांव बचाओ देश बचाओ’ रैली में लालू यादव ने कहा कि अब बैकवर्ड-फारवर्ड की लड़ाई मैं बंद करता हूं। पहले देश बचाना जरूरी है। जब देश बचेगा, तो लड़ाई फिर कभी हो जाएगी। लालू यादव में इस परिवर्तन के राजनीतिक अर्थ क्या हो सकते हैं?

उत्तर - लालू यादव पहले भी यह बात कह चुके हैं। जब-जब वे राजनीतिक जरूरत महसूस करते हैं, ऐसी बातें कहते हैं। यदि लालू यादव इस समस्या के प्रति गंभीर होते तो वे पहले पता लगाते कि ऐसी नौबत क्यों आई कि देश एक बार फिर आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहा है। इस समस्या को विकट बनाने में खुद उनकी बिहार सरकार का पिछले दस साल में कितना बड़ा योगदान रहा है? फिर उस कमी को दूर करने की वे कोशिश करते तो गांव बचाने में मदद मिलती।

रैली में करोड़ों रुपये फूंक देने से तो देश और जल्दी गुलाम होगा! सब जानते हैं कि ऐसी रैलियों के लिए पैसे कहां से आते हैं।

मान लीजिए कि बिहार सरकार ने विश्व बैंक से भारी कर्ज लेकर राज्य में बड़ी निर्माण योजानाएं शुरू कीं। ंयोजना के पैसों की बंदरबांट कर ली गई। योजना से कोई रिटर्न नहंीं आया। कर्ज और सूद बढ़ता गया। सरकार महाजन के पैसे वापस करने की स्थिति में नहीं है। अब सरकार को महाजन के निर्देश पर काम करना पड़ेगा। उसी तरह के महाजनों के दबाव पर इस देश की केंद्रीय सरकार उदारीकरण के खिलाफ देश बचाओ गांव बचाओ रैली की जा रही है। क्या लालू यादव ने यह पता लगाया कि विदेशी कर्जे से शुरू हुई कितनी विकास योजनाएं बिहार के प्रशासनिक भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर चढ़ गयी?

भ्रष्टाचारियों पर कौन सी कार्रवाई हुई? किसी ने ठीक ही कहा है कि भ्रष्ट सरकार अपने देश की स्वतंत्रता कायम नहीं रख सकती।

प्रश्न- पचास साल बाद बिहार की तस्वीर आपको कैसी नजर आती है ?

उत्तर-विभिन्न क्षेत्रों में पूरे देश में गिरावट की जो रफ्तार है, उसके अनुसार तो अगले दस साल में ही पूरे देश की हालत गड़बड़ होने वाली है। भूमंडलीकरण व उदारीकरण के दुष्परिणाम सामने आने लगेंगे तो आशावादी लोगों के होश उड़ जाएंगे। मैं तो निराशावादी बन गया हूंं। पानी की कमी व पर्यावरण असंतुलन की जो भीषण समस्या अगले दस पंद्रह साल में ही जो सामने आने वाली है, उसकी कल्पना करके डर लगता है। इस बीच केंद्र सरकार देश में एक सवा लाख करोड़ रुपये खर्च करके सुपर हाईवे बनवा रही है जबकि तत्काल लाखों तालाब बनवाने की जरूरत है। ताकि भूमिगत जल का स्तर और नीचे नहीं जाए।

वर्षा का पानी तालाबों में इकट्ठा होता है। अटल बिहारी वाजपेयी शाहजहां की तरह ताजमहल बनवा रहे हैं जबकि उन्हें शेरशाह की तरह सड़क बनवा कर वृक्ष लगवाने चाहिए थे। आज तालाबों की उतनी ही जरुरत है जितनी शेरशाह के जमाने में सड़क की थी।

प्रश्न-बिहार में इन दिनों हो रही पत्रकारिता का विश्लेषण आप कैसे करेंगे? पिछले दशक में बिहार की पत्रकारिता में किन लोगों के योगदान को आप महत्वपूर्ण मानते हैं?

उत्तर-अखबार जनता के कुछ अधिक करीब गये हैं। पिछले दशक में कई पत्रकारों ने अच्छा काम किया है। खासकर बिहार के अनेकानेक घोटालों की खबरें पूरी की पूरी जनता तक गई हैं।

पत्रकारिता में सुधार की गुंजाइश तो हमेशा ही रहती है। पर्यावरण, जल प्रबंधन और उदारीकरण के खतरों की ओर बहुत कम अखबार ध्यान दे रहे हैं। इन दिनों अखबारों में व्याकरण गलतियों में भारी वृद्धि हुई है। अधिक पन्ने, चिकने कागज और रंगीन छपाई पर तो ध्यान दिया जा रहा है, पर इस बात पर गौर नहीं किया जा रहा है कि छात्रों की भाषा बिगड़ती जा रही है। पहले अंग्रेजी और हिंदी अखबारों से भी छात्र भाषा सीखते थे।

          --अनीश अंकुर एवं विनाश। 
(प्रभात खबर, पटना में 7 अप्रैल 2001 को प्रकाशित)

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