जिन लोगों ने राजनीतिक स्वार्थ और वैचारिक-रणनीतिक जकड़न के कारण भाजपा को सत्ता में आने से रोकने की वास्तविक कोशिश नहीं की, वही लोग आज यह शोर मचा रहे हैं कि संघ परिवार देश में हिंदू राष्ट्र-राज्य कायम करना चाहता है। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह शोर तेज हो गया है। कुछ लोगों को आपातकाल की पुनरावृत्ति की भी आशंका हैं।
शायद उनके इस शोर में भी कोई स्वार्थ छिपा हुआ है। क्योंकि अब भी वे ऐसा कोई ठोस काम नहीं कर रहे हैं जिनसे भाजपा कमजोर हो। सिर्फ वोट बैंक और घिसे-पिटे नारों से ही काम चला लेना चाहते हैं।
धर्म निरपेक्ष देश को हिंदू राष्ट्र-राज्य में परिणत करने में आने वाली बाधाओं पर पहले चर्चा कर ली जाए।
भारतीय संविधान के मूल ढांचे को बदले बिना यहां किसी तरह का धार्मिक शासन कायम नहीं किया जा सकता।
क्या यह संभव है ?
24 अप्रैल 1973 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.एम. सिकरी की अध्यक्षता में 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने ऐतिहासिक जजमेंट दिया था। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मुकदमे में पीठ ने कहा था कि ‘भारतीय संविधान के अंतर्गत संसद ‘सुप्रीम’ नहीं है। संसद संविधान के बुनियादी ढांचे और विशेषताओं को बदल नहीं सकती।’
जो नरेंद्र मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट की इच्छा के बगैर न्यायाधीशों की बहाली तक नहीं कर पाती, वह हिंदू राष्ट्र कैसे स्थापित करेगी ? उसकी ऐसी किसी मंशा के संकेत भी नहीं हैं।
क्या ऐसे किसी दुःसाहसी कदम में सरकार को सेना का साथ मिलेगा? सेना धर्म निरपेक्ष और अराजनीतिक है।
दरअसल ऐसे शोर मचाने वाले कुछ लोग तो अपने वैचारिक खोखलेपन और रणनीतिक जकड़ता को बरकरार रखना चाहते हैं ताकि उनके विचार समय पार साबित न होने पाए।
इस श्रेणी के राजनीतिक कर्मी हिंदू राष्ट्र राज्य का शोर मचाकर वोट बैंक को मजबूत भी रखना चाहते हैं।
हालांकि वे भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में कुछ मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा को वोट दिए क्योंकि भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह तीन तलाक के खिलाफ है। उधर शाहबानो केस में कांग्रेस सरकार ने क्या किया था?
जिन कारणों से भाजपा केंद्र और उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई है, उन कारणों को दूर किया जाए तो भाजपा कमजोर हो ही सकती है। पर क्या गैर भाजपा दल इस बात के लिए तैयार हैं ? क्या उन्हें अपनी हार का असली कारण कभी समझ में आएगा भी ? पता नहीं।
गैर राजग दलों को 2014 के लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद ही चेत जाना चाहिए था। कांग्रेस के पास तो ए.के. एंटोनी की एक हद तक वस्तुपरक रिपोर्ट भी थी जिसमें हार का कारण बताया गया था।
पर, लगता है कि उन लोगों ने उत्तर प्रदेश के ताजा चुनाव नतीजे से भी सबक नहीं लिया।
शायद सबक लेना ही नहीं चाहते। यदि उनका रुख-रवैया ऐसा ही रहेगा तो उन्हें आने वाले दिनों में और भी चुनावी पराजयों का सामना करना पड़ सकता है। स्थानीय कारणों से पंजाब जैसी छिटपुट जीत से इठलाते रहेंगे तो और मात खाते रहेंगे।
भाजपा की जीत के निष्पक्ष राजनीतिक पंडित तीन मुख्य कारण बताते हैं।
पहला कारण अधिकतर भाजपा विरोधी दल और उनकी सरकारें भीषण भ्रष्टाचार में डूबी रही हैं। अपवादों की बात और है। जबकि इस गरीब देश के लोग भष्टाचार से काफी पीड़ित हैं। भ्रष्टाचार से विकास-कल्याण कार्यों की गति धीमी होती है। बढ़ती आबादी के बीच लोगों को सुखी-संपन्न बनाने की बात कौन कहे, खिलाने-पिलाने के लिए भी सरकार के पास कोई ठोस नीतियां नहीं हैं। उधर अधिकतर नेताओं की अमीरी बढ़ती जा रही है। असंतोष बढ़ रहा है।
दूसरा कारण वंशवाद है और तीसरा कारण अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण है।
कई जगह अयोग्य वंशज वैसे ही शासन-दल चला रहे हैं जैसे लर्नर लाइसेंस लेकर कोई एक्सप्रेसवे पर गाड़ी चलाए।
यदि गैर राजग शासित राज्यों में गरीब अल्पसंख्यकों के आर्थिक-शैक्षणिक बेहतरी के लिए ठोस काम हुए होते तो उससे कुल मिलाकर देश का ही भला होता।
पर, दरअसल वोटलोलुप दलों ने उनके बीच के वैसे तत्वों के तुष्टिकरण में ही अपनी शक्ति लगा रखी है जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जेहादी तत्वों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थक रहे हैं।
इसके अनेक उदाहरण समय-समय पर मिलते रहते हैं।
ऐसे दलों को जेहादी तत्वों की इस देश में सक्रियता कोई समस्या नहीं लगती। बल्कि कुछ नेतागण आतंकी हमलों के समय ऐसे-ऐसे बयान देते हैं जिनसे कई लोगों को यह लगता है कि वे भूमिगत आतंकियों के सतह पर सक्रिय चेहरे हैं। गैर भाजपा दलों के ऐसे ही कारनामों का फायदा भाजपा उठा लेती है। उसे नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के वोट मिलते हैं।
यदि अब से भी गैर भाजपा दल, जिन्हें ढोंगी धर्म निरपेक्ष दल भी कहा जाता है, अपनी उपर्युक्त गलतियों को सुधार लें तो भाजपा कमजोर होती चली जाएगी।
क्या उनमें खुद को सुधारने की ताकत बची भी है ?
दरअसल इस देश की आम जनता सब बात समझती है। सभी दलों की अच्छाइयों और कमजोरियों को भी। आम जनता आम तौर पर धर्म निरपेक्ष स्वभाव की है। अपवादों की बात और है।
वह हिन्दुत्व की सत्ता कायम करने के लिए भाजपा को वोट नहीं देती। इस सवाल पर भाजपा उन्हें गुमराह भी नहीं कर सकती। यह और बात है कि भाजपा और संघ परिवार में कुछ तत्व ऐसे जरूर हैं जो इस देश में हिन्दुत्व का एजेंडा लागू करना चाहते हैं। पर वैसे तत्व निर्णायक नहीं हैं।
कभी होंगे भी नहीं। अधिकतर जनता की यह समझ बनती जा रही है कि भाजपा ही जेहादी तत्वों से इस देश को बचा सकती है। यह भी कि भाजपा अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट है। वंशवाद भाजपा में भी है। पर उसमें यह गुंजाइश नहीं है कि कोई नेता पुत्र सिर्फ इसीलिए प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ं बन जाए क्योंकि वह किसी खास नेता का पुत्र है। यानी जब बाजार में बेहतर माल उपलब्ध हों तो लोग बदतर क्यों खरीदेंगे?
खबर है कि आजम खान सपा से दु‘खी हैं। स्वाभाविक ही है। यदि उनकी इच्छा रही हो कि वे विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता बनें तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात भी नहीं है। वरीय हैं। समझदार हैं। पर वाचाल भी तो हैं।
बताया जाता है कि सपा की हार का एक कारण उनका बड़बोलापन भी रहा है। कल्पना कीजिए कि आजम खान विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता होते।
सदन में अक्सर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और आजम खान में नोंक-झोंक होती। कोई भी अंदाज लगा सकता है कि बहस में गर्मी बढ़ने पर दोनों कैसे-कैसे शब्दों का इस्तेमाल करते ! उससे समाज में तनाव बढ़ता। बढ़ने पर नुकसान किसे होता? सपा को होता।
शायद सपा के शीर्ष नेता इस बात को पहले ही समझ गए होंगे। इसीलिए आजम खान को प्रतिपक्ष का नेता नहीं बनाया। हालांकि संभव है कि न बनाने का कोई और भी कारण रहा हो।
राजनीतिक कर्मियों और विश्लेषकों के लिए एक अच्छी बात है। वह यह कि हमारे बीच डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता उपलब्ध हैं। वह अपनी पार्टी की ‘असली लाइन’ से समय-समय पर लोगों को अवगत कराते रहते हैं। इससे अन्य दलों के नेताओं को अपनी राजनीतिक लाइन तय करने में सुविधा होती है।
देखना है कि रघुवंश बाबू के ताजा बयान के बाद जदयू कब अपनी राजनीतिक लाइन तय करता है! याद रहे कि राजद नेता का ताजा बयान यह है कि दो सांसदों वाले नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भला कैसे बनाया जा सकता है !
शायद उनके इस शोर में भी कोई स्वार्थ छिपा हुआ है। क्योंकि अब भी वे ऐसा कोई ठोस काम नहीं कर रहे हैं जिनसे भाजपा कमजोर हो। सिर्फ वोट बैंक और घिसे-पिटे नारों से ही काम चला लेना चाहते हैं।
धर्म निरपेक्ष देश को हिंदू राष्ट्र-राज्य में परिणत करने में आने वाली बाधाओं पर पहले चर्चा कर ली जाए।
भारतीय संविधान के मूल ढांचे को बदले बिना यहां किसी तरह का धार्मिक शासन कायम नहीं किया जा सकता।
क्या यह संभव है ?
24 अप्रैल 1973 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.एम. सिकरी की अध्यक्षता में 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने ऐतिहासिक जजमेंट दिया था। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मुकदमे में पीठ ने कहा था कि ‘भारतीय संविधान के अंतर्गत संसद ‘सुप्रीम’ नहीं है। संसद संविधान के बुनियादी ढांचे और विशेषताओं को बदल नहीं सकती।’
जो नरेंद्र मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट की इच्छा के बगैर न्यायाधीशों की बहाली तक नहीं कर पाती, वह हिंदू राष्ट्र कैसे स्थापित करेगी ? उसकी ऐसी किसी मंशा के संकेत भी नहीं हैं।
क्या ऐसे किसी दुःसाहसी कदम में सरकार को सेना का साथ मिलेगा? सेना धर्म निरपेक्ष और अराजनीतिक है।
दरअसल ऐसे शोर मचाने वाले कुछ लोग तो अपने वैचारिक खोखलेपन और रणनीतिक जकड़ता को बरकरार रखना चाहते हैं ताकि उनके विचार समय पार साबित न होने पाए।
इस श्रेणी के राजनीतिक कर्मी हिंदू राष्ट्र राज्य का शोर मचाकर वोट बैंक को मजबूत भी रखना चाहते हैं।
हालांकि वे भूल रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में कुछ मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा को वोट दिए क्योंकि भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह तीन तलाक के खिलाफ है। उधर शाहबानो केस में कांग्रेस सरकार ने क्या किया था?
ऐसे किया जा सकता है भाजपा को कमजोर
जिन कारणों से भाजपा केंद्र और उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई है, उन कारणों को दूर किया जाए तो भाजपा कमजोर हो ही सकती है। पर क्या गैर भाजपा दल इस बात के लिए तैयार हैं ? क्या उन्हें अपनी हार का असली कारण कभी समझ में आएगा भी ? पता नहीं।
गैर राजग दलों को 2014 के लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद ही चेत जाना चाहिए था। कांग्रेस के पास तो ए.के. एंटोनी की एक हद तक वस्तुपरक रिपोर्ट भी थी जिसमें हार का कारण बताया गया था।
पर, लगता है कि उन लोगों ने उत्तर प्रदेश के ताजा चुनाव नतीजे से भी सबक नहीं लिया।
शायद सबक लेना ही नहीं चाहते। यदि उनका रुख-रवैया ऐसा ही रहेगा तो उन्हें आने वाले दिनों में और भी चुनावी पराजयों का सामना करना पड़ सकता है। स्थानीय कारणों से पंजाब जैसी छिटपुट जीत से इठलाते रहेंगे तो और मात खाते रहेंगे।
भाजपा की जीत के निष्पक्ष राजनीतिक पंडित तीन मुख्य कारण बताते हैं।
पहला कारण अधिकतर भाजपा विरोधी दल और उनकी सरकारें भीषण भ्रष्टाचार में डूबी रही हैं। अपवादों की बात और है। जबकि इस गरीब देश के लोग भष्टाचार से काफी पीड़ित हैं। भ्रष्टाचार से विकास-कल्याण कार्यों की गति धीमी होती है। बढ़ती आबादी के बीच लोगों को सुखी-संपन्न बनाने की बात कौन कहे, खिलाने-पिलाने के लिए भी सरकार के पास कोई ठोस नीतियां नहीं हैं। उधर अधिकतर नेताओं की अमीरी बढ़ती जा रही है। असंतोष बढ़ रहा है।
दूसरा कारण वंशवाद है और तीसरा कारण अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण है।
कई जगह अयोग्य वंशज वैसे ही शासन-दल चला रहे हैं जैसे लर्नर लाइसेंस लेकर कोई एक्सप्रेसवे पर गाड़ी चलाए।
यदि गैर राजग शासित राज्यों में गरीब अल्पसंख्यकों के आर्थिक-शैक्षणिक बेहतरी के लिए ठोस काम हुए होते तो उससे कुल मिलाकर देश का ही भला होता।
पर, दरअसल वोटलोलुप दलों ने उनके बीच के वैसे तत्वों के तुष्टिकरण में ही अपनी शक्ति लगा रखी है जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जेहादी तत्वों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थक रहे हैं।
इसके अनेक उदाहरण समय-समय पर मिलते रहते हैं।
ऐसे दलों को जेहादी तत्वों की इस देश में सक्रियता कोई समस्या नहीं लगती। बल्कि कुछ नेतागण आतंकी हमलों के समय ऐसे-ऐसे बयान देते हैं जिनसे कई लोगों को यह लगता है कि वे भूमिगत आतंकियों के सतह पर सक्रिय चेहरे हैं। गैर भाजपा दलों के ऐसे ही कारनामों का फायदा भाजपा उठा लेती है। उसे नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के वोट मिलते हैं।
यदि अब से भी गैर भाजपा दल, जिन्हें ढोंगी धर्म निरपेक्ष दल भी कहा जाता है, अपनी उपर्युक्त गलतियों को सुधार लें तो भाजपा कमजोर होती चली जाएगी।
क्या उनमें खुद को सुधारने की ताकत बची भी है ?
दरअसल इस देश की आम जनता सब बात समझती है। सभी दलों की अच्छाइयों और कमजोरियों को भी। आम जनता आम तौर पर धर्म निरपेक्ष स्वभाव की है। अपवादों की बात और है।
वह हिन्दुत्व की सत्ता कायम करने के लिए भाजपा को वोट नहीं देती। इस सवाल पर भाजपा उन्हें गुमराह भी नहीं कर सकती। यह और बात है कि भाजपा और संघ परिवार में कुछ तत्व ऐसे जरूर हैं जो इस देश में हिन्दुत्व का एजेंडा लागू करना चाहते हैं। पर वैसे तत्व निर्णायक नहीं हैं।
कभी होंगे भी नहीं। अधिकतर जनता की यह समझ बनती जा रही है कि भाजपा ही जेहादी तत्वों से इस देश को बचा सकती है। यह भी कि भाजपा अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट है। वंशवाद भाजपा में भी है। पर उसमें यह गुंजाइश नहीं है कि कोई नेता पुत्र सिर्फ इसीलिए प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ं बन जाए क्योंकि वह किसी खास नेता का पुत्र है। यानी जब बाजार में बेहतर माल उपलब्ध हों तो लोग बदतर क्यों खरीदेंगे?
आजम खान को दर किनार करना जरूरी
बताया जाता है कि सपा की हार का एक कारण उनका बड़बोलापन भी रहा है। कल्पना कीजिए कि आजम खान विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता होते।
सदन में अक्सर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और आजम खान में नोंक-झोंक होती। कोई भी अंदाज लगा सकता है कि बहस में गर्मी बढ़ने पर दोनों कैसे-कैसे शब्दों का इस्तेमाल करते ! उससे समाज में तनाव बढ़ता। बढ़ने पर नुकसान किसे होता? सपा को होता।
शायद सपा के शीर्ष नेता इस बात को पहले ही समझ गए होंगे। इसीलिए आजम खान को प्रतिपक्ष का नेता नहीं बनाया। हालांकि संभव है कि न बनाने का कोई और भी कारण रहा हो।
और अंत में
राजनीतिक कर्मियों और विश्लेषकों के लिए एक अच्छी बात है। वह यह कि हमारे बीच डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता उपलब्ध हैं। वह अपनी पार्टी की ‘असली लाइन’ से समय-समय पर लोगों को अवगत कराते रहते हैं। इससे अन्य दलों के नेताओं को अपनी राजनीतिक लाइन तय करने में सुविधा होती है।
देखना है कि रघुवंश बाबू के ताजा बयान के बाद जदयू कब अपनी राजनीतिक लाइन तय करता है! याद रहे कि राजद नेता का ताजा बयान यह है कि दो सांसदों वाले नेता को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भला कैसे बनाया जा सकता है !
(प्रभात खबर : बिहार के 31 मार्च 2017 के अंक में प्रकाशित)