कांग्रेस को इस लोकसभा चुनाव में बिहार में मात्र दस प्रतिशत मत मिले, जबकि उत्तर प्रदेश में इस बार इस दल को 18 प्रतिशत वोट मिले। पर बिहार में काग्रेस को मिले ये मत भी खांटी व स्थायी कांग्रेसी मत नहीं माने जा सकते। इन मतों में से कुछ मत ‘प्रवासी उम्मीदवारों’ के कारण मिले। कुछ मत दो विजयी कांग्रेसी उम्मीदवारों के अपने निजी प्रभाववाले मतों के कारण थे। कुछ ऐसे भी मत कांग्रेस को बिहार में मिले जो मत उसे बिहार विधानसभा चुनाव में नहीं मिलेंगे। क्योंकि वे मतदाता ऐसे हैं, जो एक तरफ तो लालू -राबड़ी को बिहार में सत्ता में आने से रोकना चाहते हंै, तो दूसरी ओर केंद्र में राहुल गांधी को मजबूत बनाने चाहते हंै। याद रहे कि इस लोस चुनाव में बिहार में कांग्रेस को ब्राह्मणों के सिर्फ 18 प्रतिशत मत मिले। जबकि राजग को बिहार में इस जाति के 69 प्रतिशत मत मिले। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के 32 प्रतिशत वोट इस बार मिले हैं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 21 सीटें भी मिलीं, जबकि बिहार में सिर्फ दो। वे दो सीटें भी कांग्रेस को अपने जनाधार के कारण नहीं, बल्कि उन उम्मीदवारों के व्यक्तिगत असर के कारण मिलीं। बिहार में कांग्रेस सिर्फ दो सीटों पर दूसरे स्थान पर रही। 30 सीटों पर, तो उसके उम्मीदवारों की जमानतें तक जब्त हो गईं। सासाराम से विजयी मीरा कुमार को सन् 2004 के लोकसभा चुनाव में करीब 4 लाख मत मिले थे। इस बार मात्र 1.92 हजार। इस बार भाजपा उम्मीदवार मुनीलाल से मीरा कुमार के मतों का अंतर 43 हजार रहा, जबकि सन् 2004 में यह अंतर 2 लाख .58 हजार का था। तब राजद का कांग्रेस से चुनावी तालमेल था। यानी, लालू प्रसाद के मत इस बार अलग हो जाने के बावजूद मीरा कुमार अपने निजी प्रभाववाले मतों के बल पर जीत गईं। याद रहे कि उनके पिता जगजीवन राम यहीं से सांसद हुआ करते थे। उनका असर अब भी बाकी है।
उधर किशनगंज में कांगेेस की जीत पूरी तरह उम्मीदवार असरारूल हक की जीत है। इस बार कांग्रेस के उम्मीदवार असरारूल हक को किशनगंज में 2 लाख 39 हजार वोट मिले। पर जब वे सन् 1998 में वहां से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार थे, तो भी उन्हें 2 लाख 30 हजार मत मिले थे। एन.सी.पी. उम्मीदवार के रूप में सन् 1999 में असरारूल हक को एक लाख 97 हजार मत मिले थे। याद रहे कि सपा और एन.सी.पी. का किशनगंज में अपना कोई खास जनाधार नहीं हैं।
यानी कुल मिलाकर कांग्रेस में बिहार में अपने बल बूते पुनर्जीवित हो जाने की कोई ताकत दिखाई नहीं पड़ती। उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार के नेतृत्ववाली यादव-ठाकुर अतिवादिता के कारण मायावती ने दलित-ब्राह्मण समीकरण बनाया। उसी कारण वह सन् 2007 के विधानसभा चुनाव में विजयी रहीं। उत्तर प्रदेश में मायावती के कुशासन के कारण उपजे असंतोष के कारण कांग्रेस को लोस चुनाव में इस बार बढ़त मिली। पर बिहार में नीतीश सरकार के खिलाफ अभी कोई जन असंतोष नजर नहीं आ रहा है, बल्कि सुशासन, बेहतर कानून-व्यवस्था व विकास के कारण नीतीश सरकार के प्रति जनता में आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। हां, शिक्षकों की बहाली में गड़बड़ी, जगह- जगह शराब की सरकारी दुकानों और सरकारी दफ्तरों में बढ़ रही घूसखोरी के खिलाफ बिहार में जनांदोलन किया जा सकता है। पर कोई भी करगर जनांदोलन लालू-पासावन की मदद के बिना कांग्रेस नहीं चला सकती। अब भी लड़ाकू राजनीतिक जमात लालू के पास ही है, जिसका लाभ कांग्रेस उठा कर नीतीश सरकार को परेशानी में डाल सकती है। इसके साथ राजग के विरोध में खुद को एक शालीन व अनुशासित विकल्प के रूप में पेश कर सकती है। याद रहे कि राजनीति से अपराधियों के धीरे-धीरे सफाये के बाद अब कांग्रेस की तरह अपेक्षाकृत शालीन राजनीति को बिहार की जनता देर-सवेर पसंद करेगी। लालू की राजनीति शालीन नहीं रही है। खुद को सुधारने की उनमें क्षमता काफी कम है।
किसी बड़े जन असंतोष की अनुपस्थिति मेें किसी जातीय समूह को नीतीश से खींच कर अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ा ले, यह कांग्रेस के लिए फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है।
वैसे भी अपनी भारी हार के बाद लालू प्रसाद कुम्भला गए हैं। हर छोटी-बड़ी हार के बाद वे थोड़ा ठंडे पड़ ही जाते हैं। मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करके कांग्रेस ने लालू को उनकी औकात बता दी है। तब से वे और भी विनम्र व दबे-दबे नजर आ रहे हैं। ऐसे भी चारा घोटाले से संबंधित जारी मुकदमों के कारण लालू प्रसाद फिलहाल कांग्रेस से झगड़ा नहीं कर सकते। हां, राजनीतिक प्रेक्षक बताते हैं कि मुकदमों से निपट लेने के बाद उन्हें भाजपा से भी मिल कर राजनीति कर लेने में कोई परहेज नहीं होगा, यदि कांग्रेस के छुटभैया नेतागण लालू प्रसाद का मजाक उड़ाना जारी रखेंगे।
लालू प्रसाद को नजदीक से और अधिक दिनों से जाननेवाले लोग जानते हैं कि लालू प्रसाद को अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए लचीलापन अपनाने में कभी कोई झिझक नहीं हुई। भागलपुर का दंगा सन् 1989 में हुआ था। उस साल के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद लोकसभा के लिए चुन लिये गये थे। तब भाजपा और कम्युनिस्टों के समर्थन से केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार चल रही थी। बिहार में भी विधानसभा का चुनाव होने को था और लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। उन्हें लगा कि बिहार में भी भाजपा की मदद लेनी पड़ेगी।
इस पृष्ठभूमि में लालू प्रसाद ने लोकसभा में तब अपने भाषण में कहा था कि भागलपुर दंगे में भाजपा या आर.एस.एस. का कोई हाथ नहीं है। उनके इस भाषण के टैक्स्ट को बाद में बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता यशवंत सिन्हा ने सदन में सुनाया था। याद रहे कि यशवंत सिन्हा तब इस बात पर नाराज थे कि दंगा जांच रपट में यह आरोप लगाया गया कि भागलपुर दंगे के लिए एल.के. आडवाणी जिम्मेदार थे। लालू शासनकाल में जब भागलपुर दंगे की जांच रपट प्रकाशित हुई, तब तक लालू प्रसाद को अपनी सरकार चलाने के लिए भाजपा की मदद की जरूरत नहीं रह गई थी। इन दिनों पटना के राजनीतिक हलकों में यह अफवाह भी गर्म है कि यदि लालू प्रसाद को कांग्रेस ने अधिक परेशान किया, तो वे कोई चैंकानेवाला राजनीतिक कदम भी उठा सकते हैं। इसलिए कांग्रेस को लालू प्रसाद की इस टिप्पणी से संतुष्ट हो जाना चाहिए था कि ‘कांग्रेस से चुनावी तालमेल नहीं करना हमारी भूल थी।’
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार कांग्रेस ने लालू प्रसाद का गर्म दिमाग ठंडा करने के लिए और उन्हें सबक सिखाने के लिए यह अच्छा किया कि उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया। पर यदि कांग्रेस लालू के साथ मिल कर नीतीश सरकार के खिलाफ बिहार में अभियान नहीं चलाएगी, तो कांग्रेस को बाद में लालू प्रसाद की तर्ज पर ही यह अफसोस जाहिर करना पड़ेगा कि लालू प्रसाद को दुत्कार कर हमने भूल की।
साभार जनसत्ता (2 जून, 2009)
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