शनिवार, 26 सितंबर 2009

बटाईदारी विवाद व उप चुनाव

अपनी जमीन बटाई पर देकर खेती कराने वालों की ताजा नाराजगी के समक्ष लगता है कि नीतीश सरकार सहम सी गई है।इस नाराजगी ने तो हाल के बिहार विधान सभा उप चुनावों में राजग को बड़ा झटका दे दिया है। आगे के लिए भी खतरा मौजूद है। जानकार सूत्र बताते हैं कि किसानों की इस नाराजगी को जल्द से जल्द दूर करने के उपाय भी बिहार सरकार द्वारा खोजे जा हैं। पर इस सिलसिले में इस बात का भी ध्यान रखा जा रहा है कि एक नाराजगी को दूर करने के क्रम में दूसरी नाराजगी न पैदा हो जाए। यानी बटाईदार उधर नाराज न हो जाएं। उनकी खेती भी चलती रहे और कुल मिलाकर राज्य का कृषि उत्पादन भी बढ़े।

ऐसा कोई रास्ता नीतीश कुमार जैसे कल्पनाशील नेता के लिए खोज लेना कोई कठिन काम भी नहीं है। जल्दी ही इस संबंध में कोई ठोस सरकारी फैसला सामने आ सकता है।


जमीन वाले नाराज क्यों ?
कई जमीन वाले आखिर राजग सरकार से नाराज क्यों हुए? नाराजगी का मुख्य कारण जमीन से बेदखली का खतरा रहा। यह खतरा गत जुलाई में प्रकाशित एक अपुष्ट खबर के कारण पैदा हुआ था। खबर यह थी कि बिहार सरकार बटाईदारी कानून में इस तरह संशोधन करने जा रही है जिससे जमीन वालों का उनकी उस जमीन पर हक ही नहीं रहेगा जो जमीन वे बटाईदार को जोतने के लिए देंगे। कई लोगों के मन में इस बात का खतरा अब भी है। पर धीरे -धीरे वह कम होता जा रहा है। इस आशंका को पूरी तरह निर्मूल करने के लिए बिहार की राजग सरकार अत्यंत सक्रिय हो गई है।

हालांकि बिहार सरकार ने गत अगस्त में ही यह कह दिया था कि वह बटाईदारी कानून में ऐसा कोई संशोघन नहीं करने जा रही है जिससे जमीन वाले अपनी जमीन को लेकर कोई असुरक्षा महसूस करें।पर जमीन वाले अभी पूरी तरह निश्चिंत नहीं हो पाए हैं। इस नाराजगी को बातों व बयानों के बदले अब किसी ठोस प्रशासनिक कदम से ही दूर करना होगा। जानकार लोग बताते हैं कि नीतीश कुमार इसी ठोस कदम की ओर आगे बढ़ रहे हैं।


बटाईदारी का 12 साला बंधन
यह बात कम ही लोग जानते हैं कि मौजूदा बटाईदारी कानून में भी एक बारह साला प्रावधान है। वह प्रावधान भी जमीन वालों के लिए सुखद नहीं है। प्रावधान यह है कि यदि किसी बटाईदार के पास किसी जमीन वाले का कोई भूखंड लगातार बारह साल तब बटाई में रह जाए तो उस जमीन पर उस बटाईदार का कानूनी हक हो जाता है।

पता चला है कि नीतीश सरकार इस बारह साला प्रावधान को समाप्त करने की जरूरत पर गंभीरता से विचार कर रही है। इस प्रावधान की समाप्ति से जमीन वालों में निश्चिंतता का भाव पैदा होगा। उन्हें यह लगेगा कि उनकी जमीन कहीं नहीं जाएगी। बटाई पर देने के बावजूद उस जमीन के मालिक वही रहेंगे जो पहले से मालिक हैं। फिर जमीन मालिक किसी बटाईदार को एक साल या तीन साल के आपसी निजी समझौते के आधार पर जमीन बटाई पर दे सकते हैं। इस समझौते के आधार पर राज्य सरकार उस बटाईदार को सरकारी मदद देगी ताकि वह बेहतर ढंग से खेती करके उपज को और भी बढ़ा सके। उपज बढ़ेगी तभी उस जमीन वालों को मिलने वाला लाभ भी बढ़ेगा।यह द्विपक्षीय समझौता किसी तरह के कानूनी दावे का आधार नहीं बनेगा। समझौते की अवधि पूरी होते ही जमीन वाले अगली बार किसी अन्य बटाईदार को जोतने के लिए अपनी जमीन दे सकते हैं।

ये कुछ उपाय डैमेज कंट्रोल उपाय माने जा रहे हैं जिन पर राज्य सरकार सोच विचार कर रही है। अंततः क्या उभर कर सामने आता है, यह आने वाला समय बताएगा। पर ध्यान इसी बात का रखा जा रहा है जमीन वाले और बटाईदार में से किसी के हक को क्षति नहीं पहंचे और साथ ही राज्य का कृषि उत्पादन भी बढ़े। जमीन बटाईदारों को जोतने के लिए देने वालों में अब सिर्फ बड़े किसान ही नहीं हैं।एक दो एकड़ जमीन वालों को भी बटाई पर अपनी जमीन दे देनी पड़ रही है। यानी बटाई पर जमीन देने और लेने वालों दोनों की संख्या काफी है।


लालू प्रसाद का कदम सराहनीय
गत उप चुनाव में सफलता पाने के बाद लालू प्रसाद ने एक अच्छी बात कही है। उन्होंने जनता से अपील की है कि वह राजद शासन काल के दौरान उनके कार्यकर्ताओं की गलतियों को माफ कर दे। उन्होंने कार्यकर्ताओं को अपनी जुबान पर लगाम लगाने की भी नसीहत दी।

लालू प्रसाद के कद का कोई बड़ा नेता अपने दल की गलती को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करे और उसके लिए जनता से माफी मांगे, यह लोकतंत्र के लिए अच्छी बात है। कम ही नेता इस तरह अपनी गलती मानते हैं। इससे पहले कई बार चुनाव हारने के बाद भले लालू जी ने अपनी, सरकार व अपने कार्यकर्ताओं की गलती का बयान किया था, पर इस बार उन्होंने जीतने के बाद गलती मानी है। यह और भी अच्छी बात है।

पर इससे पहले तो लालू जी कई बार अपनी बात पर कायम नहीं रह सके थे। इसका कारण जो भी रहा हो। संभव है कि उसके लिए वे खुद जिम्मेदार नहीं हों।देखना है कि वे इस बार अपने कार्यकर्ताओं को संयमित करने की अपनी बात पर कायम रह पाते हैं या नहीं। कायम रहेंगे तो उनकी ही राजनीतिक सेहत के लिए अच्छा होगा।

सन् 1990 में मंडल आंदोलन की लहर पर सवार होकर लालू प्रसाद राजनीति के महाबली बने थे। वे जिन करोड़ों लोगों के मसीहा बने थे, वे गरीब व पीड़ित लोग ही थे। वे गरीब लोग अपनी उदंडता के लिए नहीं जाने जाते रहे हैं बल्कि वे पुराने सामंतों की उदंडता के शिकार के रूप में जाने जाते थे। पर लालू प्रसाद सत्ता के शिखर पर चढ़े तो उनके इर्दगिर्द पार्टी नेता व कार्यकर्ता के नाम पर अनेक ऐसे अराजक तत्व एकत्र हो गये जो उदंडता के लिए जाने जाते रहे। नया सामंतवाद पैदा हुआ जिसका नुकसान अंततः लालू जी को ही हुआ। इससे उस कमजोर वर्ग को भी नुकसान हुआ जिनको मंडल आरक्षण से कुछ फायदा हुआ था। उन्हें लालू जी ने सीना तान कर चलना सिखाया भी था।
लोकतंत्र में तो एक दल सत्ता में आता है तो दूसरा दल सत्ता की प्रतीक्षा करता है। इससे किसी नेता या दल को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। समाज को फर्क तब पड़ता है जब कोई नेता राजनीतिक संस्कृति बनाता है या उसे बिगाड़ देता है।

यह अच्छी बात है कि लालू जी की अंतरात्मा ने अपने कार्यकर्ताओं को शालीन रहने की नसीहत दी है। हालांकि यह काम बड़ा कठिन है,पर लालू जी को इसकी कोशिश तो करनी ही चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हनुमान जी को खुद के शाकाहार होने के बारे में सपने में दिए गए अपने वचन से जिस तरह लालू जी बाद में पलट गए,उसी तरह इस मामले में भी वे पलट जाएं। लालू प्रसाद अपने काय्रकर्ताओं को काबू में रखेंगे तो उससे उनके राजनीतिक विरोधी भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।जो कोई नेता एक कठिन काम करता है तो लोगबाग उसकी वाहवाही करते ही हैं।


और अंत में
अब सवाल हवाई जहाज के ‘पशु क्लास’ और ‘मनुष्य क्लास’ का ही नहीं है। इस गरीब देश के तो कई अमीर नेता अब सेवा विमान से चलना ही अपनी तौहीन मानने लगे हैं। कई बार वे विशेष विमान से वैसी जगह भी जाते हैं जहां के लिए सेवा विमान की अनेक उड़ानें रोज ही उपलब्ध हैं।

(प्रभात खबर से साभार: 21 सितंबर, 2009)

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