शनिवार, 26 सितंबर 2009

कैसे बदला तीन ही महीने में मतदाताओं का मूड !

मात्र तीन महीने में ही बिहार की राजनीति में क्या कुछ घट गया कि मतदाताओं का मूड ही बदल गया ? क्यों बिहार विधानसभा के इस सितंबर के उप चुनाव में 18 सीटों में से 13 सीटों पर राजग हार गया ? क्या यह बदला हुआ मूड एक बार फिर बदलेगा या यह मूड अगले साल तक कायम रहेगा ? हाल के ही लोक सभा चुनाव में बड़े बहुमत से बिहार में चुनाव जीतने वाला एन।डी.ए. बिहार विधान सभा के उपचुनावों में क्यों बुरी तरह पराजित होे गया ? क्या अगले साल होने बिहार विधान सभा के आम चुनाव में मतदाताओं का यही मूड कायम रहेगा या फिर बदलेगा ? तीन ही महीने में यह बदला हुआ मूड स्थानीय व तात्कालिक कारणों से बदला है या इसका स्थायी भाव है ?

ये कुछ सवाल हैं जिनके ठोस जवाब आने वाले दिनों में तलाशे जाएंगे और आएंगे भी। पर फिलहाल सरसरी तौर पर देखने से दो बातें सामने आती हैं। ये बातें लोक सभा चुनाव के बाद ही घटित हुई हैं। एक तो नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले बिहार राजग ने यह तय किया कि इस बार भी किसी नेता के परिजन को वह टिकट नहीं देगा। और नहीं दिया भी। इस अभियान के पीछे नीतीश कुमार की मुख्य भूमिका थी। पर इस काम में जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने भी उनका दिल से समर्थन किया। इससे लोहियावादी समाजवादियों की छवि सुधरी। नीतीश कुमार की इस पहल की देश भर में सराहना हुई। नीतीश कुमार ने ऐसे समय में यह काम किया जबकि भाजपा भी परिवारवाद की कीचड़ में बुरी तरह धंसती जा रही है। जदयू के इस कदम को देश व प्रदेश की राजनीति के सुधारीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना गया। कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा जदयू ही देश में अब एक ऐसा प्रमुख दल है जिसमें परिवारवाद नहीं है।

पर खुद राजग यानी एन।डी.ए. के परिवारवादी नेताओं ने इसे अपने राजनीतिक भविष्य के लिए ‘घातक’ माना। जदयू सांसद पूर्णमासी राम और जदयू डा. जगदीश शर्मा ने इसपर विद्रोह भी कर दिया। इन दोनों के परिजन उम्मीदवार बने। डा.शर्मा की पत्नी जीत गई, पर पूर्णमासी राम के पुत्र हार गये।

पर यह मामला सिर्फ इन दो नेताओं को ही प्रभावित नहीं करता है। बल्कि बिहार राजग के उन अनेक नेताओं को भी प्रभावित करता हैं जो अपने परिजन के लिए भविष्य में राजग से विधायिका के टिकट व मंत्री पद चाहते हैं। कई लोगों को परिवारवाद के आधार पर पहले भी टिकट मिलते भी रहे हैं। पर अब मिलने बंद हो गये। पूरी तरह बंद हो गये। जाहिर है कि ऐसे लोग यह चाहेंगे कि नीतीश कुमार का यह परिवारवाद विरोधी अभियान फेल हो जाए। इनमें से संभव है कि कुछ लोग इस प्रयोग को फेल करने के लिए इन उप चुनावों में सक्रिय भी हुए होंगे। कुछ नेता लोग निष्क्रिय रहे होेंगे। पर राजग के कुछ लोगों की इस उप चुनाव में निष्क्रियता का भी विपरीत असर राजग उम्मीदवारों पर पड़ा होगा तो यह स्वाभाविक ही है। जहां चुनावी मुकाबला कड़ा हो वहां थोड़ा कम प्रभाव डालने वाला चुनावी तत्व भी मतदान में निर्णायक हो जाता है। इस बार हुआ भी।

सवाल उन परिवारवादी नेताओं के राजनीतिक पारिवारिक कैरियर का जो है। इसी पारिवारिक राजनीतिक कैरियर को कायम रखने के लिए तो जदयू सांसद पूर्णमासी राम ने अपने पुत्र को राजद से बगहा में उम्मीदवार बनवा दिया था। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि मेरा पुत्र कह रहा है कि उसे उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा तो वह जहर खा लेगा।

राजनीति में परिवारवाद के खात्मे का काम राजनीतिक सुधार का आज मौलिक काम हो चुका है। यह सती प्रथा व बलि प्रथा की कानूनी समाप्ति से भी अधिक कठिन काम लगता है। सुधार के काम करने वाले सुधारकगण इस दुनिया में कई बार गोलियां भी खाते रहे हैं। यहां तो मात्र गद्दी जाने का खतरा नीतीश कुमार के सामने है। पर ऐसे ही सुधारक लोग इतिहास पुरूष हुआ करते हैं। अब भला बताइए कि परिवारवाद के आधार पर ही हर जगह टिकट मिलने लगे तो वाजिब राजनीतिक कार्यकर्ताओं की बलि हुई या नहीं ? किसी चुनावी सीट को किसी राजनीतिक परिवार के साथ सती क्यों हो जाने दिया जाना चाहिए ? यह लोकतंत्र है या राजतंत्र ? अब यह नीतीश कुमार पर निर्भर करता है कि वे अगले किसी चुनाव में ‘इस सुधार कार्यक्रम की गलती को सुधार कर’ अपनी गद्दी बचाने की कोशिश करते हैं या फिर इतिहास में अपना गौरवशाली नाम को दर्ज करा देना चाहते हैं। याद रहे कि पूरे देश की राजनीति में इन दिनों परिवारवाद की बुराई इतनी व्यापक और गंभीर होती जा रही है कि इसके खिलाफ भारी विद्रोह एक न एक दिन होना ही होना है। यदि आज नीतीश कुमार अपने कदम पीछे कर लेंगे तो कोई अन्य सुधारक इसका श्रेय ले लेगा। आज नहीं तो कल यह होने ही वाला है। इसलिए सवाल यह बनता जा रहा है कि एक नेता के बेटा, बेटी या पत्नी को टिकट मिलेगा तो कोई दूसरा नेता इससे वंचित क्यों होना चाहेगा ? इस तरह इस बुराई की श्रृखंला पूरी राजनीति को निगल लेगी।

जिस तरह करोड़पतियों व अरबपतियों का इस देश की संसद पर कब्जा होता जा रहा है। अभी इस साल 543 में से 360 करोड़पति लोक सभा सदस्य चुने गये। इस गरीब देश में यह भी एक खतरनाक बुराई है जिससे किसी व्यक्ति या संगठन को एक दिन लड़ना ही है। क्यांेकि जिस देश में 84 करोड़ लोगों की रोज की औसत आय मात्र बीस रुपये है उस देश की संसद पर सिर्फ करोड़पतियों का ही कब्जा कैसे होने दिया सकता है ? यदि होगा तो उस सरकार के मंत्री कैबिनेट की बैठक में इस बात को लेकर झगड़ा करते रहेंगे कि उन्हें ऐसे होटल में रहने दिया जाए जिस के एक कमरे का एक रात का किराया एक लाख रुपये ही क्यों न हो।

यह बहुत अच्छी बात है कि ताजा उप चुनाव में झटके खाने के बावजूद शरद यादव व नीतीश कुमार ने कह दिया है कि वे परिवारवाद का विरोध जारी रखेंगे। जाहिर है कि शरद-नीतीश के इस ऐतिहासिक कदम से डा। राम मनोहर लोहिया की आत्मा को शांति मिल रही होगी। शायद यह कदम आगे कभी इस देश के लिए निदेशक भी साबित हो !

कारण और भी हो सकते हैं, पर विधान सभा उप चुनावों में राजग की हार का एक दूसरा तात्कालिक कारण यह समझ में आता है कि राज्य सरकार के राजस्व व भूमि सुधार विभाग के सूत्रों के हवाले से अखबारों में इस जुलाई में ही यह खबर छप गई थी कि राज्य सरकार बटाईदारी कानून में सुधार सहित भूमि सुधार आयोग की कुछ सिफारिशों को जल्दी ही लागू करेगी। इस खबर के मीडिया में आते ही राज्य भर में छोटे -बड़े किसानों में खलबली मच गई। उन किसानों में से अनेक लोग राजग के ठोस मतदाता रहे हैं। आशंकित बटाईदारी कानून से नाराज होने वालों में हर जाति के किसान हैं जिनके पास बंटाई पर देने के लिए जमीन है। राज्य सरकार को अपनी ‘गलती’ का एहसास हुआ। इसके बाद राज्य सरकार ने 5 अगस्त 2009 को यह घोषणा कर दी कि अभी पुराने ही सीलिंग व बटाईदारी कानून लागू रहेंगे। उनमें कोई बदलाव नहीं होगा। राज्य सरकार ने यह भी कहा कि बंदोपाध्याय आयोग की रपट समग्रता में नहीं है। इसलिए उसे लागू नहीं किया जाएगा। पर राज्य सरकार की इस सफाई पर अनेक किसानों ने भरोसा नहीं किया।

जहां उप चुनाव हुए,उनमें एक चुनाव क्षेत्र फुलवारी शरीफ के एक सवर्ण बहुल गांव के एक किसान ने मतदान के दिन ही यानी 15 सितंबर, 2009 को ही इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि रामाश्रय प्रसाद सिंह (बिहार सरकार के मंत्री) की इज्जत रखने के लिए कुछ मतदाताओं ने जरूर जदयू को वोट दे दिया अन्यथा हमारा पूरा गांव बटाईदारी कानून लागू होने की आशंका से पीड़ित होकर राजग से नाराज हो गया है। इस गांव के अधिकतर वोट इस बार कांग्रेसी उमीदवार को पड़े। ऐसी ही खबर सारण जिले के एक राजपूत बहुल गांव से भी मिली थी जिस गांव के किसान बटाईदारी कानून नहीं चाहते। हालांकि यह आशंका सिर्फ इन दो गांवों व जातियों मंे ही नहीं है।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल में एक अन्य संदर्भ में कहा था कि मैं कई तरह की बीमारियों का इलाज करने के लिए मुख्यमंत्री बना हूं। वैसे भी उन्होंने अब तक अनेक ऐसे सराहनीय व ऐतिहासिक काम किए हैं जिनकी तारीफ उनके कुछ राजनीतिक प्रतिद्धंद्धी दलों ने भी समय -समय पर की। उनके कई कामों को अन्य राज्यों ने बाद में अपने यहां भी किया। पर हाल के उनके कुछ कदमों के नतीजों से ऐसा लगा कि सारी बुराइयों से एक साथ नहीं लड़ा जा सकता। बिहार में तो बिलकुल ही नहीं जहां के प्रशासन व राजनीति को हाल के कुछ दशकों में नेताओं ने बिगाड़ कर रख दिया। क्योंकि कई बुराइयों की काई तो इतनी गहरी बैठ चुकी है कि उन्हें छुड़ाना यहां एक बड़ा दुरूह काम है। बटाईदारी की समस्या भी ऐसी एक समस्या है जिसे हाथ लगा कर लालू प्रसाद जैसे महाबली भी पीछे हट गये थे। सन् 1992 में कुछ वामपंथी दलों व बुद्धिजीवियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद को सलाह दी कि वे भूमि सुधार लागू कर दें। लालू प्रसाद ने फरवरी, 1992 में यह घोषणा कर दी कि उनकी सरकार भूहदबंदी की सीमा घटाएगी और बटाईदारी कानून में संशोधन करके बटाईदारों को उनका वाजिब हक दिलाएगी। इसके लिए कानून में संशोधन का प्रारूप तैयार करने के लिए अफसरों की टीम को यह काम सौंप दिया गया है। लालू प्रसाद ने सार्वजनिक रूप से यह भी कह दिया था कि मेरी सरकार यह भी चाहती है कि कोई एक व्यक्ति नौकरी, व्यापार व खेती तीनों पर एक साथ काबिज नहीं हो। उसके पास इनमें से एक ही रोजगार रहे।

पर इस घोषणा का सबसे कड़ा विरोध तत्कालीन निर्दल विधायक राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने किया। बाद में चर्चित पप्पू यादव सांसद भी बने थे। तब उन्होंने जेल से जारी बयान में कहा कि राज्य सरकार छोटे किसानों की जमीन बटाईदारों व खेतिहर मजदूरों में बांटना चाहती है। मैं तो कहूंगा कि पहले अट्टालिकाओं में रहने वाले उद्योगपतियों की संपत्ति बंटे। पप्पू यादव की आवाज एक खास दबंग पिछड़ी जाति यानी यादव की आवाज मानी गई जो जाति लालू प्रसाद का मजबूत वोट बैंक माना जाती है।

बाद में इस तरह राज्य में व्याप्त लालू के अनेक वोटरों में भारी असंतोष को देखते हुए लालू प्रसाद ने अपनी घोषणा वापस ले ली। जब उनकी समर्थक पार्टी सी।पी.आई.ने इस बारे में उनसे पूछा तो लालू प्रसाद ने कहा कि हम बंटाईदारी कानून लागू करके बर्रे के छत्ते में हाथ नहीं डालना चाहते हैं।

वैसे भी लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के 15 साल के कार्यकाल में भूमि संबंधों में सरकारी प्रयासों से कोई खास बदलाव नहीं आया। अब जब नीतीश सरकार ने इस पर कुछ कहा तो कई राजग समर्थकों को लालू प्रसाद ही बेहतर लगने लग रहे हैं।

दरअसल व्यावहारिक राजनीति करने वाले कुछ लोग कह रहे हैं कि बंटाईदारी जैसे विवादास्पद मामलों में हाथ डालने के बदले नीतीश सरकार को चाहिए कि वे गांवों के विकास की गति को और तेज करें। बिजली, पानी और सड़क की बेहतर व्यवस्था की अपनी कोशिश को और तेज करें। कृषि आधारित उद्योग गांवों में लगें। जब कुछ अन्य विकसित राज्यों की तरह छोटे -बड़े किसानों की माली हालत इस राज्य में भी सुधरेगी तो वे बटाईदारों की स्थिति सुधारने में सरकार का सहयोग करेंगे। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि होम करते हाथ जलाने से बेहतर है कि होम की ज्वाला को अधिक तेज नहंीं होने दिया जाए। पुराने माॅडल की जर्जर एम्बसेडर कार की गति को अचानक अधिक बढ़ा देने के अपने खतरे हैं। हालांकि नीतीश कुमार कह रहे हैं कि बंटाईदारी कानून तो बिहार में पहले से ही है। इसमें संशोधन करने का अभी हमने कोई फैसला ही नहीं किया है।दरअसल पूरे मामले में गलतफहमी फैल गई।कौआ कान ले गया, यह चर्चा इस बात को देखे बिना हो गई कि कान अपनी जगह पर है भी या नहीं।

( 20 सितंबर, 2009)

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