जब देश की सत्ता राजनयज्ञों या कम से कम नेताओं के हाथों में आती है तो देश भरसक सुरक्षित माना जाता है। पर जब बाकी श्रेणियों के राजनीतिक कर्मियों के हाथों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्ता आ जाती है तो देश या प्रदेश असुरक्षित माना जाने लगता है।
इस देश के साथ परेशानी यह पैदा हो रही है कि यहां एक-एक करके राजनयज्ञ यानी स्टेटसमैन उठते जा रहे हैं। ज्योति बसु अब हमारे बीच नहीं हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और जार्ज फर्नांडीस बुरी तरह बीमार हैं और सक्रिय राजनीति से दूर जा चुके हैं। एल.के. आडवाणी को परिस्थितियों ने किनारे कर दिया। उनके अर्ध-संन्यास के लिए वे खुद कतई जिम्मेदार नहीं हैं। यदि पूरे देश के राजनीतिक नजारे को गौर से देखें तो स्टेटसमैन शायद ही कहीं नजर आएगा। यदि इक्के-दुक्के हैं भी तो उनकी संख्या इतनी कम है कि वे देश पर आने वाले किसी संकट में कोई निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं हैं।
नेताओं की नई नई पीढ़ियां आंदोलनों की आंच से तप कर निकलती हैं। अब परिवारवाद के घरौदों से राजनीति में नई पीढ़ियां जबरन निकाली जा रही हैं। और इस अभागे व गरीब देश पर थोपी जा रही है। परिवारवाद की कल्पना ही स्वार्थ व जातिवाद पर आधारित है। इसलिए आम तौर पर परिवारवादी राजनीति का स्वरूप भी वैसा ही बनता जा रहा है। शायद ही किसी परिवारवादी नेता ने देश का भला किया हो। अपवादों की बात और है।
ब्रिटेन के प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल को स्टटेसमैन कहा जाता है। स्टेटसमैन न सिर्फ देश व दुनिया के सामने मौजूद समस्याओं से मजबूती व होशियारी से लड़ता है बल्कि राजनीति का स्वरूप भविष्य में कैसा हो सकता है, इसका भी सही अनुमान रखता है। चर्चिल ने सफलतापूर्वक द्वितीय विश्व युद्ध का नेतृत्व किया था। साथ ही उसे यह भी पता था कि आजादी दे देने के बाद भारत के नेतागण उस देश के साथ क्या कर गुजरेंगे। उनकी यह भविष्यवाणी भारत में सही साबित हुुई है जिसकी यहां अक्सर चर्चा होती रहती है। हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि भारत को आजाद करना गलत था।ं
पर आज जब हम भारत में स्टटेसमैन की कमी की चर्चा करते हैं तो हमारे दिलोदिमाग में यह बात रहती है कि यदि देश के सामने कोई बहुत बड़ी व खतरनाक समस्या आ जाए तो हमारे नेतागण उससे कैसे निपटेंगे।
आज भारत के सामने सबसे बड़ी समस्या सरकारी भ्रष्टाचार है। इसी से लगभग अन्य सभी समस्याएं पैदा हो रही हैं। आज की भीषण महंगाई की समस्या भी सरकारी भ्रष्टाचार से ही पैदा हुई है। महंगाई से जूझने में हमारे देश व प्रदेश के नेतागण विफल हैं। जबकि निष्पक्ष विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यदि ईमानदारी, दूरदर्शिता व कड़ाई से इस समस्या का समय पर समाधान कर दिया गया होता तो आज यह इतना भीषण रूप नहीं ले पाता। सरकारी भ्रष्टाचार की समस्या से सफलतापूर्वक जूझने के लिए ऐसे राजनयज्ञों की सख्त जरूरत है जो ईमानदारी से इस बीमारी पर हमला करे। इसके लिए यह जरूरी है कि वह राजनयज्ञ खुद भी ईमानदार हांे। वैसे भी व्यक्तिगत ईमानदारी के बिना कोई राजनयज्ञ का दर्जा पा ही नहीं सकता।
आज इस देश में कितने नेता बच गये हैं जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी ‘सीजर की पत्नी की तरह संदेह से परे’ है ? ऐसे माहौल में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ जरूरी कदम कौन उठाएगा ? यह एक बड़ी समस्या है जो समय के साथ इस देश में बढ़ती ही जा रही है। यह बात सही है कि अटल बिहारी वाजपेयी, जार्ज फर्नांडीस और ज्योति बसु ऐसी सरकारों में रहे जो भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं थी। पर ये तीन नेता कम से कम ऐसे तो माने ही गये जो सरकारी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर अपने तथा अपने परिवार के घर नहीं भरते थे। ये नेता जिन पदों पर रहे, उन पदें को तो कम से कम पैसे कमाने की मशीन बनाने से उन्होंने रोके रखा। पर आज अधिकतर सत्ताधारी व प्रतिपक्षी नेताओं की हालत कैसी है? एम.पी.-विधायक फंड ने तो अधिकतर नेताओं की बखिया उधेड़ कर रख ही दी है।
इस माहौल में ज्योति बसु जैसे राज नेताओं का जाना अखरता है। राजनयज्ञों की दिनानुदिन घटती संख्या और भी अखरने वाली बात है। यह देश व इसके लोकतंत्र के भविष्य के लिए कतई शुभ नहीं है। आगे- आगे देखिए होता है क्या !
साभार दैनिक जागरण पटना
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