अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश का यह चौथा बड़ा जन आंदोलन है। वैसे तो मिनी आंदोलन रोज-रोज जहां -तहां होते ही रहते हैं।
प्रथम आंदोलन के नायक समाजवादी नेता व विचारक डा. राम मनोहर लोहिया थे। दूसरे के नायक लोकनायक जय प्रकाश नारायण थे। तीसरा आंदोलन वी.पी. सिंह के नेतृत्व में लड़ा गया। चौथा आंदोलन अन्ना हजारे के नेतृत्व में इन दिनों लड़ा जा रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किया गया कोई आंदोलन इस मामले में विफल नहीं होता कि उससे अंततः उस आंदोलन के कारण भ्रष्टाचार समर्थक सत्ता देर-सवेर हट जाती है। पर यह बात भी है कि अगली सत्ता अपने ही पिछले आंदोलन के मुद्दे को लगभग भूल जाती है। पता नहीं इस मामले में इस बार क्या होगा।
इस गरीब देश के अधिकतर लोग सरकारी-गैर सरकारी भ्रष्टाचार से पीड़ित हैं, उनको छोड़कर जो लोग भ्रष्टाचार से लाभान्वित हैं। हालांकि एक ही व्यक्ति अधिकार की अपनी सीट पर बैठकर तो रिश्वत ले रहा है, पर वही जब दूसरे दतर में अपने किसी काम के लिए जाता है, तो उसे भी घूस देनी पड़ती है।
कहने का अर्थ यह है कि भ्रष्टाचार से तो लोगबाग आजादी के बाद से ही निरंतर पीड़ित रहे हैं। पहले कम पीड़ित थे, अब अधिक हो रहे हैं। पर जब जब प्रामाणिक नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ी होती है, तब तब आम जनता उसके पीछे उमड़ पड़ती है। चारों आंदोलनों में यही हुआ। इन आंदोलनों में एक समानता और भी है। ये सारे आंदोलन कांग्रेसी सत्ता के खिलाफ ही हुए। पर स्वार्थवश कांग्रेस ने इतिहास से अब तक नहीं सीखा।
डा. लोहिया एक प्रामाणिक नेता थे जो सिर्फ देश और जनता के बारे में ही सोचते थे। उनकी न तो निजी कार थी और न ही बैंक खाता। अविवाहित थे।
आजादी के बाद के चुनावों में अनेक प्रतिपक्षी दलों की उपस्थिति होती थी। उसका लाभ उठाकर 50 प्रतिशत से भी कम ही मत पाकर लगातार 20 साल तक कांग्रेस सत्ता में बनी रही। कांग्रेस ने जन समस्याओं की उपेक्षा की। भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ने लगा तो डा. लोहिया ने कुछ प्रतिपक्षी दलों को चुनाव के लिए एक किया। और नतीजतन 1967 में नौ राज्यों की सत्ता कांग्रेस के हाथों से निकल गई। लोकसभा में कांग्रेस का बहुमत घट गया। यदि कुछ और प्रतिपक्षी एकता हुई होती तो केंद्र की सत्ता से भी कांग्रेस का तभी सफाया हो गया होता। भ्रष्टाचार के मामले में इन नौ राज्यों की सरकारें पिछली कांग्रेसी सरकारों से बेहतर थीं। राजनीतिक महत्वाकांक्षा और बेमतलब के आंतरिक विवादों के कारण गैर कांग्रेसी सरकारें अल्पायु साबित हुईं।
बिहार में 1965-66 में तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ इतना गुस्सा था कि एक तत्कालीन सत्ताधारी नेता का नाम लेकर गांव-शहर मेें यह खुलआम नारा लगता था कि ‘गली -गली में शोर है और फलां नेता चोर है।’ गैर कांग्रेसी दलों की नाकामयाबी का लाभ उठाकर 1971-72 में दुबारा सत्ता में आकर कांग्रेस इस बार एकाधिकार, परिवारवाद और भ्रष्टाचार में लिप्त हो गई तो जेपी उठ खड़े हुए। दक्षिण को छोड़कर जेपी को पूरे देश का समर्थन मिला और इंदिरा गांधी जैसी महाबली नेता का पराजय हो गया। जिस तरह डा. लोहिया के असामयिक निधन के कारण प्रतिपक्ष खास कर समाजवादी आंदोलन दिशाहीन हो गया था, उसी तरह जेपी की किडनी खराब हो जाने के कारण जेपी जनता सरकार पर अंकुश नहीं रख सके। यानी एक अच्छे आंदोलन का सुपरिणाम सामने नहीं आ सका। हालांकि मोरारजी सरकार में भ्रष्टाचार कम था और मूल्य वृद्धि की रफतार बिलकुल काबू में थी। वी.पी. सिंह ने अपनी कुर्सी को खतरे में डाल कर राजीव गांधी से राजनीतिक लड़ाई मोल ली थी, इसलिए भी आम जनता के वे हीरो बने और भ्रष्टाचारविरोधी जनता की मदद से वे राजीव गांधी को सत्ता च्युत कर सके।
अन्ना हजारे को तो सत्ता की राजनीति से कोई मतलब ही नहीं है, इसलिए भी आज आम जनता का काफी समर्थन उन्हें मिल रहा है। उम्मीद की जा रही है कि उन्हें और भी अधिक जन समर्थन मिलेगा। सरकारी दमन और समय बीतने के साथ जन समर्थन बढ़ता है। आज के आधुनिक मीडिया ने भी अन्ना की बातों को अधिक से अधिक जनता तक पहुंचाने में मदद की है। ऐसी सुविधा इससे पहले के किसी आंदोलनकारी नेता को नहीं मिली थी।
यानी जनता तो भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में शामिल होने के लिए हमेशा ही तैयार बैठी रहती है, बस उसे प्रतीक्षा रहती है कि प्रामाणिक नेता के आगे आने की। डा. लोहिया, जे.पी., वी.पी. और अन्ना हजारे ऐसे ही प्रामाणिक नेता साबित हुए या फिर अधिकतर जनता ने उन्हें ऐसा माना।
लोहिया की सप्त क्रांति और जेपी की संपूर्ण क्रांति के तो उंचे लक्ष्य रहे हैं। पर आम जनता में तो फिलहाल सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचार से तत्काल मुक्ति की छटपटाहट है। वैसे भी गैर सरकारी भ्रष्टाचार सरकारी भ्रष्टाचार से ही प्रेरित-पोषित है। कई लोगों का मानना है कि इस गरीब देश की अन्य अधिकतर समस्याएं भी भ्रष्टाचार से ही उपजी हैं। इसीलिए जब अन्ना हजारे जैसी हस्ती भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए जन लोकपाल विधेयक लेकर सामने आती है तो जनता उमड़ पड़ती है। अभी न तो किसी और अंादोलन से इस आंदोलन की तुलना करने का कोई मतलब है न ही किसी अन्य आंदोलन से इसे बड़ा या छोटा दिखाने का कोई औचित्य है।
किसी आंदोलन को पर्याप्त जन समर्थन वाला आंदोलन मान लिया जाना चाहिए जिस आंदोलन के जरिए सरकार झुक जाए या फिर कोई भ्रष्टाचार समर्थक सरकार चुनाव के जरिए सत्ता से हट जाए।
जेपी आंदोलन ने अंततः केंद्र की सत्ता से इंदिरा गांधी को बाहर कर दिया था। वी.पी. सिंह के अभियान ने भी राजीव गांधी को सत्ताच्युत कर दिया। अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रति कें्रद सरकार का जो रुख है, उससे फिलहाल तो यही लगता है कि सन 2014 के लोक सभा के चुनाव के बाद केंद्र में कांग्रेसी सरकार तो नहीं ही रह पाएगी। क्योंकि जन लोकपाल विधेयक को लेकर तब तक दोनों पक्षों में हुमचा-हुमची होती रहेगी और इसके साथ जनता का जागरण भी। पहले की तरह ही एक बार फिर जगह जगह नये नेता उभरेंगे। भ्रष्टाचार और उससे उपजे काला धन पर काबू पाने की जो समस्या है, उसको लेकर इस देश के अधिकतर दलों व नेताओं को भारी कठिनाई है।सबके अपने अपने भ्रष्टाचार हैं। कोई व्यक्ति हथकड़ी गढ़ने के लिए अपने ही पैसों से लुहार को आखिर ऑर्डर क्यों और कैसे दे देगा ? अन्ना यही चाहते हैं।
जनता तो तैयार दिख रही है, तय तो अन्ना हजारे और उनकी टीम को करना है।उनकी कल्पना का जन लोकपाल कानून पास हो सकता है,पर यह काम अगली लोक सभा ही शायद कर सकेगी। मौजूदा लोक सभा के अधिकतर सदस्य जन लोकपाल के लिए कत्तई तैयार नहीं है। इस मामले में स्वाभाविक है कि अधिकतर मौजूदा कांग्रेसी सांसदों की हालत बदतर है। पर गैर कांग्रेसी दलों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है।
निहितस्वार्थी लोग तो चीजों को मिलाकर गड्मगड कर दे रहे हैं । जिस तरह कभी कहा जा रहा था कि इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया। उसी तरह आज कुछ लोग कह रहे हैं कि सांसद और संसद एक ही हैं। यदि अन्ना हजारे के आंदोलन के गर्भ से जनहितकारी नेतागण 2014 के लोक सभा चुनाव में जीत कर संसद में चले जाएं तो संसद का स्वरूप आज जैसा नहीं रहेगा। फिर जन लोकपाल जैेसे विेधयक के पास होने मंे कोई दिक्कत नहीं होगी। ऐसा संभव भी है ,यदि उम्मीदवारों के चयन में जेपी और वी.पी.के अधूरे कामों को पूरा कर दिया जाए।
दरअसल जेपी और वी.पी. और उनके निस्वार्थी सहयोगियों ने क्रमशः 1977 और 1989 में चुन -चुन कर देशप्रेमियों को टिकट दिये हेाते तो उनकी मंशा विफल नहीं होती।
याद रहे कि ऐसे ग्यारह सांसदों को देशप्रेमी नहीं कहा जा सकता जिन्हें 2008 में खुद लोक सभा ने प्रस्ताव पास कर के सदन की सदस्यता से निकाला था।उन पर प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत लेने का आरोप साबित हो चुका था।यह एक स्टिंग आपरेशन का नतीजा था।उस दृश्य को टी.वी. पर देश ने देखा था। 1996 के झामुमो सांसद रिश्वत कांड की तरह पैसे लेकर सरकार बचाने वाले सांसदों के खिलाफ बोलकर कोई व्यक्ति कानून बनाने के मामले में संसद की सर्वोच्चता को चुनौती नहीं दे रहा होता है।वैसे भी न तो संसद सर्वोच्च है और न ही संविधान बल्कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च और सार्वभौम है जो संासदों का भी चयन करती है और उसी के प्रतिनिधि संविधान भी बनाते हैं।
अन्य आंदोलनों से इस अन्ना आंदोलन की इस मामले में समानता है कि कभी कोई जब जब कोई भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाता है तो उसी पर उल्टे तरह -तरह के लांछन लगा दिये जाते हैं। मान लिया कि वे लांछित हैं,उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का कोई हक नहीं है। तो फिर लांछन लगाने वाले ही क्योें नहीं ऐसा कानून बना देते जिससे जनता को सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाए ? पर उल्टे प्रधान मंत्री कहते हैं कि मेरे पास भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए जादू की कोई छड़ी नहीं है।अन्ना के साथ जन सैलाब इसलिए भी उमड़ रहा है क्योंकि जनता यह देख रही है कि भले रोकने के लिए कोई छड़ी नहीं है, पर कोई दूसरी छड़ी उनके पास जरूर है जो तब तक टू जी स्पैक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला और आदर्श घोटाले जैसे घोटाले कराने की छूट देती रहती है जब तक सुप्रीम कोर्ट कदम नहीं उठाता है।
भ्रष्टाचार विरोधी महिम में आम जनता की भारी सहभागिता को देखकर उन कुतर्कियों को शर्म करनी चाहिए जो इन दिनों अक्सर यह कहा करते हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उपर से नहीं बल्कि नीचे से कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि जनता भी वोट के लिए पैसे मांगती है और अपराधियों को भी वेाट दे देती है। जनता को भ्रष्ट और अपराधी तत्वों से लाभ मिल होता तो जनता आज उल्टे अन्ना के खिलाफ आंदोलन करती। राजनीति में घुसाये गये भ्रष्ट और अपराधी तत्व तो भ्रष्ट नेताओं के लिए कवच का काम करते हैं। इसलिए अन्ना हजारे के आंदोलन के रास्ते में अवरोधक हर जगह फैले निहितस्वार्थी तत्व हैं जिनकी संख्या कम है हालांकि वे शक्तिशाली हैं। अगले चुनाव में वे तिनके की तरह उड़ जाएंगे।
रविवार, 28 अगस्त 2011
विफल नहीं होता भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन
बुधवार, 17 अगस्त 2011
मामला सिर्फ अन्ना हजारे और सरकार के ही बीच का नहीं
सरकारांे और सत्ताधारी नेताओं ने इस देश में जब -जब ज्वलंत मुददों को दरकिनार करके उसके बदले मुददा उठाने वालों को ही अपना निशाना बनाया है,तब -तब अंततः सरकारों और दलों की हार ही हुई है।जेपी और वी.पी.सिंह के अभियानों के उदाहरण सामने हैं।पिछली गलतियों व अनुभवों को दरकिनार करके अब भी केंद्र सरकार भ्रष्टाचार के मुददे को नजरअंदाज करके अन्ना हजारे को ही निशाना बना रही है।देखना है कि इस दफा इस द्वंद्व की तार्किक परिणति क्या होती है !
यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि अन्ना के खिलाफ भी कुछ आरोप हैं।तो भी देशव्यापी भ्रष्टाचार का मुददा आज सिर्फ अन्ना टीम बनाम केंद्र सरकार के बीच का ही मामला तो नहीं है ।जन -जन को पीड़ित करने वाले सरकारी-गैर सरकारी भ्रष्टाचार का मुददा क्या मात्र स्वामी राम देव बनाम कांग्रेस के बीच का मामला है ? क्या यह साबित हो जाए कि आरोप लगाने वालों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप सही हैं तो देश में सर्व व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध का मुददा बेमतलब हो जाएगा ? कांग्रेस और केंद्र सरकार अन्ना-रामदेव को किसी तरह संतुष्ट कर भी दें तो भी एक कारगर लोकपाल की जरूरत समाप्त नहीं हो जाएगी ।
क्या कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के नुकीले सवालों का उनके अनुसार संतोषप्रद जवाब अन्ना हजारे नहीं दे सकें तो आंदोलन टांय-टांय फिस्स हो जाएगा ? ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है।ताजा इतिहास भी यही बताता है।देश के जन मानस को देख कर लगता है कि किसी कारणवश अन्ना-राम देव के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के दृश्य से अलग होने के बावजूद इस बार भी भ्रष्टाचार का मुददा शांत होने वाला नहीं है।यह मुददा किसी न किसी रूप में अपना रंग दिखा कर ही रहेगा।विभिन्न जनमत संग्रहों के नतीजे भी यही बताते हैं।
दरअसल इससे पहले भी कम से कम दो बार कांग्रेस पार्टी और सरकार ने भ्रष्टाचार केे मुददे को कुछ खास हस्तियों के बीच का ही मसला बनाने की विफल कोशिश की थी ।पर आम जनता ने इस मुददे को सही माना और बाद के आम चुनावों में कांग्रस को सबक सिखा ही दिया।ऐसा सन 1977 और सन 1989 में हो चुका है।पर लगता है कि कांग्रेस ने उन घटनाओं से कोई सबक नहीं सीखा और एक बार फिर वह मुददों के बदले व्यक्तिगत प्रहारों पर उतर आई है।शनिवार को आयोजित कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का हमलावर प्रेस कांफ्रंस इसका ताजा उदाहरण है।
एक तरफ अन्ना हजारे और स्वामी राम देव के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को देशव्यापी समर्थन मिल रहा है,दूसरी ओर केंद्र की कांग्रेस सरकार तथा पार्टी स्वामी राम देव और बाल कृष्ण को जेल भिजवाने और अन्ना को बदनाम करने का प्रयास कर रही है । सावंत आयोग की अन्ना विरोधी टिप्पणियां दिखाकर अन्ना से नैतिक सवाल कांग्रेस पूछ रही है।
दूसरी ओर आम जनता का एक बड़ा वर्ग यह चाहता है कि चाहे अन्ना हों या रामदेव ,जिस किसी पर भ्रष्टाचार के आरोप साबित हो जाएं ,उन्हें कानून की गिरफत में ले लिया जाए।पर यह कार्रवाई सिर्फ अन्ना-रामदेव तक ही सीमित नहीं रहे।यदि आज अन्ना-राम देव भ्रष्टाचार के आरोपमें जेल जाते भी हैं तो कोई अन्य नेता भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का नेतृत्व संभाल लेगा।पर किसी भी स्थिति में यह आंदोलन रुकने वाला नहीं है।इसका असर उससे पहले न भी दिखाई दे तो भी सन 2014 के लेाक सभा चुनाव में तो दिखाई पड़ ही जाएगा।तब तक जनता को यह स्पष्ट हो जाएगा कि भ्रष्टाचार के पक्ष में आखिर कौन खड़ा है और कौन खिलाफ में है।
an 1974 में जब जेपी ने बिहार में आंदोलन शुरू किया था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भुवनेश्वर की एक जन सभा में कहा कि ‘जो लोग पैसे वाले से मदद लेते हैं और उनसे रिश्ता जोड़े रहते हैं ,वे कैसे भ्रष्टाचार के बारे में बोलने का दुस्साहस करते हैं ?’गुजरात और बिहार की कुछ हिंसक वारदातों की चर्चा करते हुए उसके लिए प्रकारांतर से जय प्रकाश नारायण को जिम्मेदार ठहराते हुए इंदिरा गांधी ने यह भी कहा था कि ये लोग अबोध युवकों को राष्ट्रीय संपत्ति के विनाशके लिए उकसा रहे हैं।
जेपी एक तरफ राजनीति में एकाधिकारवाद और सरकार में ंभ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा रहे थे और दूसरी ओर इंदिरा जी जेपी पर उसी तरह के आरेाप लगा रही थीं जिस तरह कांग्रेस की तरफ से आज मनीष तिवारी और सरकार की तरफ से कपिल सिब्बल अन्ना-रामदेव पर प्रति - आरोप लगा रहे हैं।क्या प्रति-आरोप से इंदिरा गांधी सन 1977 के चुनाव में पराजय से अपनी पार्टी को बचा पाईं ? क्या प्रति-आरोप में ं जनताने कोई दम पाया था ?
इसी तरह का प्रति -आरोप कांग्रेस के कुछ लेागों ने अस्सी के दशक में वी.पी.सिंह के पुत्र अजेय सिंह के नाम सेंट कींटस में फर्जी बैंक खाता खोल कर लगाया था। पर बोफर्स तोप सौदे के आरोप की पृष्ठभूमि में 1989 के लोक सभा चुनाव में राजीव गांधी की सरकार सत्ता से बाहर हो गई। तब भी अधिकतर जनता ने यह माना कि बोफर्स घोटाले पर राजीव गांधी की सफाई सही नहीं थी।भले शंकरानंद के नेतृत्व वाली जेपीसी और सी.बी.आई.ने बोफर्स के दलालों को साफ बचा लिया हो,पर केंद्रीय आयकर न्यायाधिकरण ने हाल में यानी इसी साल यह कह ही दिया कि क्वोत्रोची और एक अन्य व्यापारी ने बोफर्स दलाली के पैसों को स्विस बैंक की लंदन स्थित शाखा के अपने खातों में जमा किया था।
लगता है कि हाल के इतिहास से भी कुछ नहीं सीखने की कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार ने कसम खा ली है। अन्ना हजारे और स्वामी राम देव के आंदोलन में लग रहे पैसों पर सवाल उठाते हुए मनीष तिवारी कहते हैं कि ये पैसे कहां से आ रहे हैं,यह किसी को मालूम नहीं है।खोजी पत्रकारिता की इसमंे ंजरूरत है।
सन 1974 में ऐसे सवालों का जवाब जय प्रकाश ने इंदिरा गांधी को दिया था।जेपी ने तब एक प्रेस बयान में कहा था कि यदि इंदिरा जी के मापदंड को मापा जाए तो महात्मा गांधी ही सबसे भ्रष्ट व्यक्ति माने जाएंगे।क्योंकि गांधी के सभी सहयोगियों का पोषण उनके धनी प्रशंसकों द्वारा किया जाता था।जेपी ने इस पर यह भी कहा था कि मुझे आश्चर्य है कि कब तक इस देश के लोग अपने उच्चपदस्थ और शक्तिशाली व्यक्तियों के ऐसे उटपटांग बकवासों को सहन करते रहेंगे ?
याद रहे कि 1977 के चुनाव नतीजों ने बता दिया था कि जनता ऐसे उटपटांग बयानों को अंततः मौका मिलने पर सहन नहीं किया करती जिस तरह की बातें कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी आज कर रहे हैं। केंद्र सरकार और कांग्रेस को भ्रष्टाचार के आरोप के सबूत मिलते ही अन्ना और स्वामी को जेल भिजवाना चाहिए ।पर लगता है कि कांग्रेस और उनकी सरकार अन्ना -स्वामी राम देव से यह उम्मीद करती है कि तुम हमारे भ्रष्टाचार को सहन करो और हम तुम्हारे भ्रष्टाचार को नजरअंदाज कर रहे हैं।अन्यथा हम तुम्हंे नैतिक रूपसे कमजोर करके तुम्हारे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की हवा निकाल देंगे।यदि ऐसा ही संभव होता तो जेपी से जुड़े संगठनों के खिलाफ भ्रष्टाचार के कथित आरोपों की कुदाल आयोग से जांच करवा कर सन 1977 में चुनावी पराजय से इंदिरा सरकार बच जाती।दरअसल सबसे बड़ी बात यह है कि भ्रष्टाचार का सवाल आज सिर्फ नैतिकता का सवाल ही नहीं है,बल्कि रोजी-रोटी और राष्ट्र की सुरक्षा का भी सवाल है। यह सिर्फ कुछ परस्पर विरोधी हस्तियों के बीच का ही मामला कत्तई नहीं है। जो ऐसा मानेगा ,वह सन 2014 में सन 1977 और सन 1989 दोहराने को तैयार रहे।
साभार जनसत्ता)
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