शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

आंदोलन के प्रति इंदिरा से अधिक लचीला है मनमोहन सरकार

सन् 1974-75 में इंदिरा गांधी की सरकार को जय प्रकाश आंदोलन से मुकाबला करना पड़ा था। आज अन्ना हजारे के नेतृत्व में जारी आंदोलन का मुकाबला मनमोहन सरकार कर रही है। दोनों आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ
रहे। पर, दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण फर्क सामने आया है। इंदिरा गांधी का जेपी के प्रति रुख अत्यंत कड़ा था। जबकि जेपी की मुख्य मांग यह थी कि बिहार विधान सभा को भंग कर दिया जाए। हालांकि उनकी अन्य कई मांगें भी थीं। पर इंदिरा जी बिहार विधानसभा को भंग करने को कतई तैयार नहीं थीं। जबकि उन्हीं दिनों वह संगठन कांग्रेस के नेता मोरारजी देसाई के अनशन के कारण गुजरात की विधानसभा का नया चुनाव कराने पर तैयार हो गई थीं। बाद में वहां बाबू भाई पटेल के नेतृत्व में संगठन कांग्रेस की सरकार भी बन गई थी।

पर जेपी की मांग पर इंदिराजी ने कहा कि चुनी हुई विधानसभा को किसी के कहने पर भंग नहीं किया जा सकता। इसी पर बात बिगड़ गई और और उसका नतीजा इंदिरा गांधी के लिए बुरा हुआ। उन्हें सन 1977 में भारी चुनावी हार का सामना करना पड़ा।


इसके विपरीत आज ना- ना कहते हुए भी मनमोहन सरकार अन्ना हजारे की मांगों के प्रति लचीलापन दिखा रही है। मनमोहन सरकार के लोग और कांग्रेस पार्टी तथा यू.पी.ए. के नेतागण बार- बार यह कहते रहे हैं कि वे अन्ना यानी संसद के बाहर के किसी व्यक्ति के दबाव में आकर कुछ नहीं कर रहे हैं। पर रोज -रोज अपना पक्ष बदलती केंद्र सरकार अन्ना आंदोलन से घबराई हुई जरूर लग रही है। यह घबराहट अन्ना टीम को मिल रहे जन समर्थन के कारण ही है।


लोकपाल विधेयक सन 1968 से लंबित है। इस बार यह विधेयक लाया भी जा रहा है तो अन्ना के दबाव के कारण ही। हाल में केंद्रीय कैबिनेट ने जिन चार विधेयकों के प्रारूप को अपनी स्वीकृति दी, वे भ्रष्टाचार से निपटने वाले विधेयक ही हैं। यह और बात हैं कि वे कितने कारगर हैं और अन्ना टीम को वे पसंद हैं या नहीं। पर अन्ना आंदोलन से पहले तो मनमोहन सरकार ऐसे कानूनों के प्रति तनिक भी उत्साही नहीं थी। निष्पक्ष राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार भी आंदोलन के दबाव में ही यह सब हो रहा है।

सन 1974-75 का जेपी आंदोलन आज के अन्ना के आंदोलन की अपेक्षा व्यापक और अधिक नैतिक धाक वाला आंदोलन था। जेपी को भी आंदोलन के बल पर सत्ता नहीं आना था। उस आंदोलन की नैतिक धाक इसलिए भी थी। तब के गैर कांगेसी दल जेपी के प्रति नतमस्तक भी थे। आजादी की लड़ाई के महान योद्धा होने का लाभ जेपी को मिला था।

जेपी की मांगें भी निर्दोष थीं। पर इंदिरा गांधी ने तब यह सोचा कि वह अपनी पुरानी लोकप्रियता व सत्ता की ताकत के बल पर जेपी आंदोलन को दबा देंगीं। याद रहे कि गरीबी हटाओ के नारे के कारण लोकप्रिय बनीं इंदिरा गांधी सन 1971 के लोकसभा चुनाव में बड़े बहुमत से सत्ता में आई थीं।


उन्हें इस बात का पता नहीं चल सका कि जेपी के आंदोलन का असर कितना व्यापक हो चुका है और उनकी लोकप्रियता कम हो रही है। इंदिरा जी का इतना शासकीय आतंक था कि खुफिया एजेंसियां भी उन तक सही खबरें पहुंचाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थीं। यहां तक कि 1977 के लोकसभा चुनाव की घोषणा के पहले और बाद में भी खुफिया एजेंसी ने इंदिरा जी को यही सूचना दी थी कि वह चुनाव जीत जाएंगीं।

कहा जाता है कि उन्हें इस बात की सही खबर होती कि आगे क्या होने वाला है तो वह न तो आपातकाल लगातीं और न ही जेपी की मांग को ठुकरातीं। बिहार विधानसभा भंग करने की जेपी की मांग वह उसी तरह मान लेतीं जिस तरह उन्होंने मोरारजी की मांग मान ली थी। तब संभवतः जेपी के आंदोलन का असर बिहार तक ही सिमट कर रह जाता। पर तब इंदिरा गांधी के हठीले रुख का उन्हें ही अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा था। हालांकि उन लोगों को भी भुगतना पड़ा जिन लोगों ने आपातकाल की अभूतपूर्व विपदा जेल के बाहर व भीतर झेली।

आज यह बात सही है कि मनमोहन सरकार कमजोर है। साझे की सरकार है। सही दिशा देने वाला कोई केंद्रीय नेतृत्व उपलब्ध नहीं है। पर उसे लगता है कि प्रमुख गैर कांग्रेसी दलों के अन्ना टीम से मिल जाने के बाद केंद्र सरकार खतरे में आ गई है यदि अगले चुनाव को ध्यान में रखा जाए।

सिटीजन चार्टर विधेयक जैसे कानून की कैबिनेट द्वारा मंजूरी उसी आंदोलन के दबाव में उठाया गया कदम लगता है। इसे मनमोहन सरकार का लचीलापन ही कहा जा सकता है। यह और बात है कि केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित ऐसे भ्रष्टाचार विरोधी विधेयकों के प्रारूप से टीम अन्ना या फिर प्रतिपक्ष संतुष्ट होगा या नहीं। प्रतिपक्ष की संतुष्टि इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यू.पी.ए. के पास राज्यसभा में अपना बहुमत नहीं है।

संसदीय समिति द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक के मसविदे पर टीम अन्ना की विपरीत टिप्पणी आ चुकी है। पर केंद्र सरकार उस प्रस्ताव में भरसक संशोधन करने का मन बना रही है तो यह उसका लचीलापन ही है। यह और बात है कि सरकार के लोकपाल विेधेयक में संशेाधन के बाद भी टीम अन्ना व प्रतिपक्ष उससे संतुष्ट होगा भी या नहीं ? यह बाद में पता चलेगा।

पर यहां तो सन 1974 की अपेक्षा आज की केंद्र सरकार व कांग्रेस के लचीलेपन की बात की जा रही है। यह लचीलापन भले मजबूरी में है, पर स्वागतयोग्य है। लोकतंत्र में तंत्र लोक का ध्यान रखते हुए ही कानून बनाए और फैसले करे तो उसे 1977 की तरह जनता के गुस्से का सामना नहीं करना पड़ेगा।

दूसरी ओर अन्ना टीम द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक को हू ब हू मानने की जिद होती है तो उससे शायद कोई सर्वसम्मत विधेयक पास नहीं हो पाएगा।

यह एक अच्छी राय है कि अभी अन्ना टीम एक लचीली सरकार से जितना अधिक कठोर लोकपाल कानून पास करवा पाती है, वह करवा ले। और बाद में जरूरत पड़ने पर उसमें जरूरी संशोधन के लिए लड़े। क्योंकि प्रतिपक्ष भी अन्ना टीम के जन लोकपाल विधेयक के प्रारूप के सभी प्रावधानों से सहमत नहीं है। वैसे भी मौजूदा लोकसभा की बनावट भी कुछ ऐसी है कि उससे हू ब हू जन लोकपाल विधेयक पास करवाना शायद संभव नहीं होगा। पर जो भी यदि एक बेहतर लोकपाल विधेयक पास होगा, तो उसका श्रेय टीम अन्ना को ही तो मिलेगा।

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