मन के लायक राष्ट्रपति या देश के लायक राष्ट्रपति? विभिन्न दलों द्वारा अपने अनुकूल राष्ट्रपति बनाने की कोशिश इस देश में 1950 से ही जारी है। सन् 1950 मेें देश में संविधान लागू हुआ और डा. राजेंद्र प्रसाद पहले राष्ट्रपति बने जो 1962 तक उस पद पर रहे।
लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री और देश के लोकप्रिय नेता जवाहर लाल नेहरू यह चाहते थे कि सी. राजागोपालाचारी राष्ट्रपति बनें न कि डा. राजेंद्र प्रसाद। राजा जी ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। यह बात उनके खिलाफ जाती थी। तीन उच्चत्तम पदों पर सामाजिक संतुलन का भी सवाल था। सरदार पटेल ने राजा जी के नाम का सख्त विरोध किया और डा. राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनवा दिया। एक लोकतांत्रिक नेता के रूप में जवाहर लाल नेहरू ने आधे मन से यह स्वीकार भी कर लिया।
पर, आश्चर्य की बात यह थी कि समाजवादी विचारधारा के जवाहर लाल जी ने कैसे एक घनघोर पूंजीवाद समर्थक राजा जी के नाम पर जिद कर ली थी। एक समय तो यह भी आया था कि जब कांग्रेस की एक महत्वपूर्ण बैठक में जवाहर लाल जी ने धमकी तक दे डाली थी कि यदि राजा जी को नहीं बनाया गया तो वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे।
पर उनकी धमकी काम नहीं आई। दरअसल पंडित नेहरू की चिंता अपने मन के राष्ट्रपति बनाने की थी ताकि राजपाट किसी बिघ्न बाधा के चलता रहे। हालांकि भारतीय संविधान में भारत के राष्ट्रपति के पद को करीब- करीब शोभा के पद का दर्जा दिया गया है। उससे थोड़ा ही अधिक। पर संविधान का कार्यान्वयन किस रूप में होता है। आने वाले वर्षों में चीजें किस तरह विकसित होती हैं, इसको लेकर कुछ नेताओं को आजादी के तत्काल बाद कुछ आशंकाएं रही होंगी। इसीलिए किसी अनहोनी को रोकने के लिए यह स्वाभाविक ही था कि कोई प्रधानमंत्री अपने मन लायक राष्ट्रपति चुनवाने की कोशिश करे।
यह प्रवृति बाद के वर्षों में बढ़ी। आज कुछ और भी ज्यादा है। क्योंकि राजनीतिक अस्थिरता व उथल पुथल के दौर में राष्ट्रपति का प्रधानमंत्री के पक्ष में खड़ा होना प्रधानमंत्री के लिए जरूरी माना गया।
सन् 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह लगा होगा कि जिन नीतियों को वह लागू करना चाहती हैं, उनके समर्थन के लिए उनके अनुकूल राष्ट्रपति जरूरी है। इसीलिए उन्होंने वी.वी. गिरि को राष्ट्रपति बनवा दिया। ऐसा उन्होंने पार्टी से विद्रोह करके किया। बाद में कांग्रेस पार्टी में महाविभाजन भी हुआ। अविभाजित पार्टी की बैठक में तो इंदिरा गांधी ने नीलम संजीव रेडड्ी की उम्मीदवारी पर अपनी मुहर लगाई, पर बाद में उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार गिरि को जितवा दिया। इसका राजनीतिक लाभ भी उन्हें मिला। जो प्रगतिशील नीतियां वे लागू करना चाहती थीं, उस काम में उन्हें वी.वी. गिरि का सहयोग मिला। सन् 1975 में आपातकाल लागू करने के समय तो फखरूद्दीन अली अहमद जैसे अत्यंत अनुकूल राष्ट्रपति की भारी जरूरत इंदिरा गांधी को थी। आपातकाल की अधिसूचना पर राष्ट्रपति का दस्तखत पहले हुआ और उस पर कैबिनेट की मुहर बाद में लगी।
खैर वे तो कम उथल पुथल के दिन थे। कम से कम तब तो एक ऐसा कैबिनेट होता था जो प्रधानमंत्री की उचित-अनुचित इच्छा पर तुरंत मुहर लगा देता था। पर आज की मिलीजुली सरकारों के दौर में कोई प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट से हर हाल में ऐसी उम्मीद नहीं कर सकता है। राजनीतिक अस्थिरता के इस दौर में राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
सन् 2014 का लोकसभा चुनाव सामने है। अभी देश के जैसे राजनीतिक हालात हैं, उसमें कोई राष्ट्रीय दल अकेले बहुमत पाने की उम्मीद नहीं कर सकता। फिर तो पहला मौका मंत्रिमंडल के गठन के लिए किसी दल या गठबंधन के नेता को बुलाने का आएगा। सन् 1996 में एक राजनीतिक हादसा हो चुका है। तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी जबकि उन्हें लोकसभा में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं था और न होने की संभावना थी। इसलिए तेरह दिनों तक ही वे प्रधानमंत्री पद पर बने रह सके।
किसी राष्ट्रपति या राज्यपाल को यह देखना चाहिए कि जिस व्यक्ति को वह सरकार बनाने के लिए बुला रहे हैं उसे सदन के बहुमत का समर्थन हासिल है भी या नहीं। सिर्फ इससे काम नहीं चलेगा कि कोई व्यक्ति सबसे बड़े दल का नेता चुनाव गया है। पर इस सामान्य नियम का उलंघन होता रहा है।
अगले लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर ऐसी नौबत आ सकती है। तब यदि राष्ट्रपति के पद पर कोई न्याय और संविधानप्रिय व्यक्ति नहीं बैठा हो तो किसी अल्पमत के नेता को प्रधानमंत्री बनने के बाद खरीद-फरोख्त करके बहुमत जुंटाने का मौका मिल सकता है। फिर इस देश का क्या होगा? जब खरीद-फरोख्त से सरकार बनेगी तो वह चलेगी भी उसी तरीके से।
इसलिए अगला राष्ट्रपति किसी ऐसे व्यक्ति को ही होना चाहिए जो ऐसे मामले में वास्तविक स्थिति को देख कर यानी बहुमत की जांच करके निर्णय करे न कि अपनी इच्छा के अनुसार जिसे चाहे शपथ ग्रहण करा दे। ऐसा व्यक्ति मिलना जरा कठिन होता है, पर असंभव नहीं। आज इस देश की राजनीति में गिरावट के जो हालात हैं, उसमें यह लगता है कि कोई प्रमुख दल निष्पक्ष ढंग से काम करने वाले ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति नहीं बनाएगा। पर, किसी ऐसे -वैसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने के जो खतरे हैं, उसकी ओर देश का ध्यान दिला देना जरूरी है।
भले संविधान में राष्ट्रपति को कोई खास अधिकार प्राप्त नहीं है, पर विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।
आने वाले समय राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से देश की हालत उथल पुथल वाले होंगे, ऐसी संभावना जाहिर की जा रही है। अधिकतर दलों व नेताओं के अपने अपने स्वार्थ जग जाहिर हैं। अधिकतर लोगों की नजर में देश बाद में और दल व निजी हित पहले है। गठबंधन की सरकारों के दौर में प्रधानमंत्री अक्सर निस्सहाय नजर आते हैं। केंद्र सरकार में कोई कमी रह गई या फिर कोई गलती हो गई तो प्रधानमंत्री तुरंत कह देते हैं कि यह तो गठबंधन सरकार की मजबूरी है।
कई बार इस कारण देश ही नहीं पूरी दुनिया में भारत सरकार की स्थिति अजीब दिखाई पड़ने लगती है। ऐसी स्थिति में किसी ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाना और भी जरूरी है जिसमें नैतिक धाक हो और समय पर सरकार को उचित सलाह दे। क्या ऐसा हो पाएगा ? यदि ऐसा हो जाता तो अनौपचारिक तौर पर ही सही, पर सरकार के लिए यदा -कदा जरूरत पड़ने पर अधिकार विहीन अभिभावक व सलाहकार की भूमिका निभाता। वैसी नौबत आ सकती है जो देश के हालात बनते जा रहे हैं। ऐसा भी हो सकता है कि कोई भी अगला राष्ट्रपति इस बात का ध्यान रखे कि देश सही दिशा में आगे बढ़े और संविधान व कानून का शासन कायम हो। अभी तो कई बार यह लगता है कि देश में कानून व संविधान का शासन नहीं है।
राष्ट्रपति को संविधान ने यह अधिकार जरूर दिया है कि वह संसद के दोनों
सदनों को संदेश भेज सकते हैं। यदि कोई सरकार अपने कर्तव्यों को भूल कर कोई ऐसा कदम उठाए जो देशहित में नहीं हो तो वैसी आपात स्थिति में राष्ट्रपति संसद को संदेश भेज सकते हैं। किसी नैतिक धाक वाले राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए उस संदेश से कम से कम देश को यह तो पता चलेगा कि कहां गलत या कहां सही हो रहा है। भले सरकार उनके संदेश की उपेक्षा करे। या यह भी हो सकता है कि गठबंधन की मजबूरी का रोना रोने वाले प्रधानमंत्रियों के इस दौर में राष्ट्रपति के किसी निर्दोष हस्तक्षेप को आधार बना कर ही शायद सरकार कुछ अच्छे काम कर दे। या फिर किसी गलत कदम को रोक दिया जाए।
सीमित अधिकारों के बावजूद कई बार राष्ट्रपतियों राष्ट्रपतियों ने आजादी के बाद से ही सरकार के रूटीन कामों में हस्तक्षेप किया है। यह संवैधानिक व्यवस्था है कि संसद में पारित कोई विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता जब तक कि राष्ट्रपति का उस पर दस्तखत नहीं हो जाए। कई बार राष्ट्रपतियों ने विवादास्पद विधेयक पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया है। हालांकि इस मामले में भी राष्ट्रपति को सीमित अधिकार है। पर, एक बार इनकार की खबर और इनकार के कारणों की सूचना देश को मिल जाएगी तो उसका जन मानस पर सकारात्मक असर पड़ेगा। पर इसके लिए जरूरी है कि राष्ट्रपति पद पर बैठा व्यक्ति विवेकवान हो।
कम से कम राष्ट्रपति के पद को किसी जातीय, क्षेत्रीय या सामाजिक कोटे से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। इसके लिए बहुत सारे अन्य पद इस देश में उपलब्ध हैं। वे पद अधिक अधिकार वाले भी हैं। अभी प्रतिभा सिंह पाटील महामहिम राष्ट्रपति हैं। जब वह बनी थीं तो कहा गया था कि इससे महिलाओं का सम्मान बढ़ेगा, उनपर जुल्म कम होगा और उनका सशक्तीकरण होगा। पर क्या ऐसा हुआ? कोई नहीं कहेगा कि प्रतिभा पाटील के राष्ट्रपति बनने से देश की महिलाओं के जीवन में कोई फर्क आया है। यही बात अन्य समुदायों, जातियों व क्षेत्रों का भी है। उनके राष्ट्रपति पद पर पहुंचने से क्या हुआ? मुस्लिम समुदाय से आने वाली तीन हस्तियां अब तक राष्ट्रपति बन चुकी हैं। इससे क्या फर्क पड़ा मुस्लिम समुदाय की दशा-दिशा पर ? सच्चर समिति की रपट बताती है कि कोई फर्क नहीं पड़ा। सबसे लंबे समय तक डा. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति रहे। वह बिहार के थे। आज बिहार देश के सबसे पिछड़े प्रदेशों में है।
इसलिए लिंग, जाति या समुदाय के बदले व्यक्तियों के व्यक्तित्व पर ध्यान देने की आज अधिक जरूरत है चाहे वे किसी वर्ग से आते हों। क्योंकि देश के सामने नाजुक समस्याएं आने वाली हैं, ऐसी आशंका जाहिर की जा रही है। उस समस्या के मुकाबले के लिए न सिर्फ प्रधानमंत्री के पद पर बल्कि राष्ट्रपति के पद पर भी ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जो व्यक्ति या दल की ओर देख कर निर्णय नहीं करे बल्कि देश और देशवासियों की ओर देख कर फैसले करें। ऐसे व्यक्ति मिल जाएंगे, यदि ईमानदारी से उसकी तलाश हो।
यह जरूरी है। या जो भी व्यक्ति उस पद पर आने वाले दिनों में बैठें, वे अन्य बातों को भूल कर सिर्फ देश और जनता का ध्यान रखें न कि आपातकाल के समय के राष्ट्रपति की तरह सरकार का रबर स्टाम्प बनें।
(इसका संपादित अंश हिंदी पाक्षिक द पब्लिक एजेंडा : 31 मई 2012: में प्रकाशित)
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