लातिनी अमरीकी विद्रोही चे. ग्वेवारा को अपना आदर्श मानने वाले सी.बी.आइ. अफसर डा. यू.एन. विश्वास चारा घोटाला -जांच -कार्य के हीरो रहे। इस सजा की खबर से उन्हें भारी संतोष मिला होगा। हालांकि उन्होंने भले ही कोई प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया है।
डा.विश्वास की देखरेख में सी.बी.आइ. ने इस मामले में ऐसा मजबूत केस बनाया था कि घोटालेबाज सजा से बच नहीं पा रहे हैं। देश के बड़े से बड़े वकील आरोपितों के काम नहीं आये। जांच कार्य के दौरान भी वे पटना में पत्रकारों से यह कहा करते थे कि यह एक मजबूत केस साबित होगा।
ऐसा ही हुआ भी।
चर्चित चारा घोटाले की जांच का भार यदि डा. यू.एन. विश्वास जैसे ईमानदार और निडर अफसर को नहीं मिला होता तो इस महाघोटाले की जांच के काम को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया नहीं जा सकता था।
सी.बी.आइ. का कोई भी अन्य अधिकारी बाहरी और भीतरी तमाम दबावों के बीच वह काम कर पाता जिसे उपेन विश्वास ने बखूबी अंजाम दिया? शायद नहीं।
हालांकि यह बात भी विश्वास के पक्ष में रही कि पटना हाईकोर्ट ने विश्वास की भरपूर मदद की। इन पंक्तियों के लेखक ने एक संवाददाता के रूप में चारा घोटाले के जांच- कार्य का नेतृत्व करते डा. विश्वास को करीब से देखा था।
एक बार सी.बी.आइ. के संयुक्त निदेशक /पूर्वी क्षेत्र/ डा. विश्वास ने पटना में पत्रकारों के एक छोटे समूह को बताया था कि मैं कलकत्ता छोड़ते समय हर बार अपनी पत्नी को यह कह कर आता हूं कि ‘शायद मैं इस बार नहीं लौट पाऊंगा।’
उनकी यह बात कोई बनावटी नहीं थी। जांच के दौरान उन्हें पटना में तरह -तरह के प्रलोभन और धमकियां मिल रहे थे। तीस जून 1997 को विश्वास ने पटना हाईकोर्ट से कहा था कि ‘हमारे अफसरों को जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं, इसलिए राजनीति से जुड़े आरोपितों को गिरफ्तार करना संभव नहीं हो पा रहा है।’ याद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पटना हाईकोर्ट चारा घोटाले की जांच की निगरानी कर रहा था।
पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति एस.एन. झा और न्यायमूर्ति एस.जे. मुखोपाध्याय के खंडपीठ ने डा. विश्वास को कदम -कदम पर संरक्षण दिया।
डा. विश्वास को लगातार धमकियां मिल रही थीं। उन्हें कहा जा रहा था कि वे कुछ खास नेताओं को जांच के दायरे से बाहर रखें। सी.बी.आइ. का मुख्यालय भी यह नहीं चाहता था कि इस घोटाले में लालू प्रसाद को आरोपित किया जाये। डा. विश्वास के नीचे के कुछ अफसर भी उनको सहयोग नहीं दे रहे थे।
इसको लेकर सी.बी.आइ. मुख्यालय और डा. विश्वास के बीच करीब दो महीने तक तनाव रहा। सी.बी.आइ. मुख्यालय पर तत्कालीन प्रधानमंत्री गुजराल का दबाव था। गुजराल की मिलीजुली सरकार लालू प्रसाद के दल के समर्थन से चल रही थी। इधर डा. विश्वास के नेतृत्व में जारी जांच से सी.बी.आइ. के सामने यह बात सामने आ रही थी कि मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की घोटालेबाजों से सांठगांठ है। तत्कालीन सी.बी.आइ. निदेशक जोंिगंदर सिंह ने अपनी पुस्तक में यह बात स्वीकारी है कि लालू प्रसाद को बचाने के लिए उनपर प्रधानमंत्री का दबाव था।
जब घोटालेबाजों ने देखा कि डा. विश्वास को प्रभावित नहीं किया जा सकता है तो इस अफसर को तरह- तरह से परेशान किया जाने लगा। डा.विश्वास के खिलाफ पटना हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दायर की गई। चारा घोटाले की जांच के बारे में यू.एन. विश्वास द्वारा तैयार प्रगति प्रतिवेदन को हाईकोर्ट में दाखिल करने से पहले ही उनके अधीनस्थ अफसर ने उसके निष्कर्षों को बदल दिया था। ऐसा उसने सी.बी.आइ. मुख्यालय के निदेश पर किया था।
इसकी सूचना विश्वास ने हाईकोर्ट को दी। इस पर हाईकोर्ट ने विश्वास को संरक्षण प्रदान किया। हाईकोर्ट ने कहा कि डा.विश्वास अपनी रपट किसी अन्य अफसर को दिखाये बिना इस अदालत में दाखिल करेंगे।
इस बीच डा.विश्वास को विधायिका के विशेषाधिकार हनन का आरोप झेलना पड़ा। बिहार विधान मंडल के दोनों सदनों में कुछ सत्ताधारी विधायकों व मंत्रियों ने डा.विश्वास की तीखी आलोचना कीं और उनकी मंशा पर शक किया।
यानी चारों ओर से दबाव व जान पर खतरे के बीच डा. विश्वास ने चारा घोटाले की सही जांच करके ऐसे आरोप पत्र तैयार करवाये कि अधिकतर घोटालेबाजों को अदालत ने सजा दी। अभी तो सजा देने की प्रक्रिया जारी है।
खुद लालू प्रसाद व जगन्नाथ मिश्र के खिलाफ कई अन्य केस सुनवाई की प्रक्रिया में हैं।
चर्चित चारा घोटाला केस के जरिए डा. यू.एन. विश्वास ने बिहार में नब्बे के दशक में हलचल मचा दी थी। इस केस में डा. विश्वास के साहसपूर्ण कार्यों ने बिहार से अंततः जंगल राज की समाप्ति में परोक्ष रूप से ही सही, पर शुरुआती भूमिका निभाई। अब सी.बी.आई. के वही रिटायर अफसर बंगाल विधानसभा का चुनाव लड़कर वहां मंत्री बने हैं। पश्चिम बंगाल में उनकी जीत के पीछे ममता बनर्जी की लोकप्रियता के साथ -साथ बिहार में किये गये उनके कामों का भी असर रहा।
डा. यू.एन. विश्वास एक ऐसा नाम है जिससे अखबार पढ़ने वाला बिहार का करीब- करीब हर व्यक्ति अवगत है। जांच के दिनों विश्वास की चर्चा बिहार के घर -घर में होती थी।
जांच के दौरान पटना में डा. विश्वास को बुलेटप्रूफ गाड़ी में चलना पड़ता था। पर डा. विश्वास ने चारा घोटाले की ऐसी पक्की जांच की और कराई कि जनता एक बड़े हिस्से को भी यह भरोसा हो गया कि कुछ नेताओं की शह पर ही सरकारी खजाने को बेरहमी से लूटा गया था। अंततः रांची की अदालत ने भी उन आरोपों को सही पाया। चारा घोटाले की जांच शुरु होते ही लालू प्रसाद तथा कुछ खास अन्य नेताओं का राजनीतिक अवसान भी शुरू हो गया था।
पटना हाई कोर्ट ने सन 1996 में यह आदेश दिया था कि चारा घोटाले की जांच सी.बी.आई. करे क्योंकि यह उच्चस्तरीय साजिश के तहत हुआ है। उन दिनों 1968 बैच के आई.पी.एस. अफसर डा. विश्वास सी.बी.आई. के पूर्वी क्षेत्र के संयुक्त निदेशक थे। चारा घोटाले के कागज पत्र देखने के बाद ही उन्हें लग गया था कि यह एक जघन्य पाप व अपराध है जो मूक पशुओं के खिलाफ किया गया है। पशुओं के हक को छीन कर दरअसल पिछड़ों और आदिवासियों को गरीबी से उबारने के सरकारी कार्यक्रम को धक्का पहंुचाया गया जबकि लालू की सरकार पिछड़ों के वोट से ही बनी थी।
इस घोटाले में करीब -करीब सभी दलों के अनेक छोटे-बड़े नेता शामिल थे। दरअसल घोटालेबाज अनेक नेताओं सहित समाज के प्रभु वर्ग के एक बड़े हिस्से पर पैसे बरसा रहे थे।
जाहिर है कि जांच शुरु होने पर विश्वास पर कितना बड़ा खतरा था। डा.विश्वास ने 12 जनवरी 1997 को ही यह कह दिया था कि ‘मैं अपनी निजी सुरक्षा की परवाह किये बिना चारा घोटाले की जांच को अंजाम तक पहुंचाउंगा।’
यही काम उन्होंने किया भी। चारा घोटाले का केस इतना पोख्ता बनाया गया है कि कुछ आई.ए.एस. अफसर भी सजा से बच नहीं सके हैं। कुछ साल पहले एक सजायाफ्ता आई.ए.एस. अफसर ने मीडिया से कहा था कि मैं तो इस केस में बर्बाद ही हो गया।
डा.विश्वास ने उन दिनों पटना में मीडिया से खुद ही कहा था कि वह लैटिन अमरीकी क्रांतिकारी चे ग्वेवारा को अपना आदर्श मानते हैं। विश्वास ने ममता बनर्जी के दल में शामिल होना इसलिए भी स्वीकार किया क्योंकि डा. विश्वास को यह विश्वास था कि ममता बनर्जी ईमानदार नेत्री हैं।
पर माकपा नेताओं के बारे में विश्वास की राय दूसरी ही है। डा.विश्वास बताते हैं कि वाम शासन के शुरुआती दौर में उन्होंने कुछ ईमानदार आई.पी.एस. अफसरों के नाम ज्योति बसु को दिये थे ताकि वे उन्हें महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात कर सकें। पहले तो ज्योति बसु ऐसा करने के लिए राजी थे। पर बाद में उन्होंने माकपा नेताओं की सलाह पर ऐसे अफसरों को ही महत्वपूर्ण पदों पर तैनात कर दिया जिनमें से अधिकतर बेईमान थे।
एक अन्य घटना की चर्चा विश्वास पटना में करते थे। यह बात उस समय की है कि जब सिद्धार्थ शंकर राय पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री थे। आसनसोन में सांप्रदायिक दंगा हो गया जहां विश्वास एस.पी थे। मुख्यमंत्री ने विश्वास से पूछा कि आप दंगा रोकने में विफल क्योें हो गये ?
इस युवा एस.पी. ने कहा कि कांग्रेस के श्रमिक नेतागण ही इसके लिए जिम्मेदार हैं और सत्ताधारी दल उनके खिलाफ कड़ाई करने से पुलिस को रोक रहा है। मुख्यमंत्री ने कहा कि इस तरह के कठिन पदों पर तो आपको नहीं रहना चाहिए। इस पर विश्वास ने कहा कि ‘सर, मैं 24 घंटे में यहां से हटने को तैयार हूं।’
विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य के लिए बड़े से बड़ा शक्तिशाली व्यक्ति का सामना करने को तैयार रहने वाले डा. विश्वास के ही वश में था कि वह चारा घोटाले की जांच सही ढंग से कर सके और बड़े नेताओं को भी अदालत से सजा दिलवाने लायक केस तैयार करा सके।
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