चुनावों में ‘मनी पावर’ एक नये ढंग के वोट बैंक के रूप में तेजी से उभर रहा है। यह तत्व भी मतदान को एक हद तक प्रभावित करने लगा है।
जिन चुनाव क्षेत्रों में थोड़े मतों से हार-जीत का फैसला होता है, वहां मनी पावर निर्णायक साबित होता दिख रहा है।
यह मनी पावर यानी नया वोट बैंक, परंपरागत जातीय व सांपद्रायिक वोट बैंक को जहां -तहां काफी ताकत पहुंचा रहा है। तीनों तत्व मिलकर कहीं -कहीं निर्णायक साबित हो रहे हैं।
मिल रही सूचनाओं के अनुसार मनी पावर अभी किसी जातीय वोट बैंक से अधिक ताकतवर नहीं बना है, पर यह उस रास्ते पर जरूर है।
मौजूदा चुनाव में आयकर दस्तों ने देश भर में 273 करोड़ रुपये नकदी और करीब दो करोड़ लीटर शराब जब्त की है। यह आंकड़ा गत एक मई तक का है। बिहार सहित देश भर में ऐसी जब्तियां अब भी जारी हैं। जब्तियों की यह मात्रा अभूतपूर्व है।
जितने पैसे व शराब पकड़े गये हैं, वे उन अपार धन व सामग्री के बहुत छोटा हिस्सा हंै जो पकड़े नहीं जा सके। वे मतदाताओं के एक हिस्से के बीच वितरित कर दिये गये।
एक ताजा अध्ययन के अनुसार देश के नेतागण इस पूरे चुनाव में कुल करीब तीस हजार करोड़ रुपये खर्च करेंगे। इनमें वैध व अवैध खर्च शामिल हैं।
गत साल जून में भाजपा नेता गोपी नाथ मुंडे ने सार्वजनिक रुप से यह स्वीकार किया था कि उन्होंने 2009 के लोकसभा के चुनाव में अपने क्षेत्र में 8 करोड़ रुपये खर्च किये थे।
गत दिनों चुनाव आयुक्त एच.एस. ब्रह्मा ने एक रहस्योद्घाटन किया । श्री ब्रहमा ने कहा कि मैंने सुना है कि आंध्र प्रदेश के एक संभावित लोकसभा उम्मीदवार अपने चुनाव क्षेत्र में एक सौ करोड़ रुपये खर्च करने वाला है। एक अन्य उम्मीदवार ने व्यक्तिगत बातचीत में श्री ब्रह्मा को बताया था कि अपने चुनाव क्षेत्र में वह 35 करोड़ रुपये खर्च करने वाला है।
इन आंकड़ों व सूचनाओं को देखकर क्या ऐसा नहीं ंलगता कि ‘मनी पावर’ एक नया वोट बैंक बनता जा रहा है। वह जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक से कम खतरनाक नहीं है !
यह संयोग नहीं है कि इस देश की संसद व विधायिकाओं में करोड़पतियों व अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
चुनाव आयोग की कड़ाई के कारण चुनाव में बाहुबल का इस्तेमाल पहले की अपेक्षा थोड़ा कम हुआ है। पर, कई क्षेत्रों में मनी पावर, अब बाहुबल का विकल्प बन कर उभरा है।
बूथ कैप्चर की जगह भारी पैसे के बल पर मतदाताओं के एक हिस्से को अपने प्रभाव में लाया जा रहा है। मतदाताओं का जो हिस्सा पैसे स्वीकार कर रहा है,उनमें से अधिकतर लोगों के दिलों -दिमाग में यह भाव उभर रहा है कि जब सत्ता में आने के बाद किसी भी दल को आम जन की भलाई के लिए काम नहीं ही करना है, खुद की भलाई के लिए ही बहुत करना है, तो क्यों नहींं आज जो कुछ उनसे मिल रहा है, उसे ही स्वीकार करके संतोष कर लिया जाए।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार वैसे मतदाता इस बात की परवाह नहीं कर रहे हैं कि पैसे के बल पर चुनाव जीतने वाले नेतागण और भी कितना अधिक निर्भीक होकर इस देश को लूटंेगे।
हालांकि यह बात भी सही है कि इसी देश में कुछ दल व नेता ऐसे भी हैं जो चुनावों में मनी पावर के खेल में शामिल नहीं हैं।
जिन चुनाव क्षेत्रों में थोड़े मतों से हार-जीत का फैसला होता है, वहां मनी पावर निर्णायक साबित होता दिख रहा है।
यह मनी पावर यानी नया वोट बैंक, परंपरागत जातीय व सांपद्रायिक वोट बैंक को जहां -तहां काफी ताकत पहुंचा रहा है। तीनों तत्व मिलकर कहीं -कहीं निर्णायक साबित हो रहे हैं।
मिल रही सूचनाओं के अनुसार मनी पावर अभी किसी जातीय वोट बैंक से अधिक ताकतवर नहीं बना है, पर यह उस रास्ते पर जरूर है।
मौजूदा चुनाव में आयकर दस्तों ने देश भर में 273 करोड़ रुपये नकदी और करीब दो करोड़ लीटर शराब जब्त की है। यह आंकड़ा गत एक मई तक का है। बिहार सहित देश भर में ऐसी जब्तियां अब भी जारी हैं। जब्तियों की यह मात्रा अभूतपूर्व है।
जितने पैसे व शराब पकड़े गये हैं, वे उन अपार धन व सामग्री के बहुत छोटा हिस्सा हंै जो पकड़े नहीं जा सके। वे मतदाताओं के एक हिस्से के बीच वितरित कर दिये गये।
एक ताजा अध्ययन के अनुसार देश के नेतागण इस पूरे चुनाव में कुल करीब तीस हजार करोड़ रुपये खर्च करेंगे। इनमें वैध व अवैध खर्च शामिल हैं।
गत साल जून में भाजपा नेता गोपी नाथ मुंडे ने सार्वजनिक रुप से यह स्वीकार किया था कि उन्होंने 2009 के लोकसभा के चुनाव में अपने क्षेत्र में 8 करोड़ रुपये खर्च किये थे।
गत दिनों चुनाव आयुक्त एच.एस. ब्रह्मा ने एक रहस्योद्घाटन किया । श्री ब्रहमा ने कहा कि मैंने सुना है कि आंध्र प्रदेश के एक संभावित लोकसभा उम्मीदवार अपने चुनाव क्षेत्र में एक सौ करोड़ रुपये खर्च करने वाला है। एक अन्य उम्मीदवार ने व्यक्तिगत बातचीत में श्री ब्रह्मा को बताया था कि अपने चुनाव क्षेत्र में वह 35 करोड़ रुपये खर्च करने वाला है।
इन आंकड़ों व सूचनाओं को देखकर क्या ऐसा नहीं ंलगता कि ‘मनी पावर’ एक नया वोट बैंक बनता जा रहा है। वह जातीय व सांप्रदायिक वोट बैंक से कम खतरनाक नहीं है !
यह संयोग नहीं है कि इस देश की संसद व विधायिकाओं में करोड़पतियों व अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
चुनाव आयोग की कड़ाई के कारण चुनाव में बाहुबल का इस्तेमाल पहले की अपेक्षा थोड़ा कम हुआ है। पर, कई क्षेत्रों में मनी पावर, अब बाहुबल का विकल्प बन कर उभरा है।
बूथ कैप्चर की जगह भारी पैसे के बल पर मतदाताओं के एक हिस्से को अपने प्रभाव में लाया जा रहा है। मतदाताओं का जो हिस्सा पैसे स्वीकार कर रहा है,उनमें से अधिकतर लोगों के दिलों -दिमाग में यह भाव उभर रहा है कि जब सत्ता में आने के बाद किसी भी दल को आम जन की भलाई के लिए काम नहीं ही करना है, खुद की भलाई के लिए ही बहुत करना है, तो क्यों नहींं आज जो कुछ उनसे मिल रहा है, उसे ही स्वीकार करके संतोष कर लिया जाए।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार वैसे मतदाता इस बात की परवाह नहीं कर रहे हैं कि पैसे के बल पर चुनाव जीतने वाले नेतागण और भी कितना अधिक निर्भीक होकर इस देश को लूटंेगे।
हालांकि यह बात भी सही है कि इसी देश में कुछ दल व नेता ऐसे भी हैं जो चुनावों में मनी पावर के खेल में शामिल नहीं हैं।
(साभार -दैनिक भास्कर ,पटना संस्करण- 6 मई 2014)
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