केंद्रीय राज्य मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा है कि राजग में से कोई भी सवर्ण नेता बिहार का मुख्यमंत्री नहीं बनेगा। गिरिराज सिंह का बयान सैद्धांतिक रूप से गलत है। पर, वह व्यावहारिक रूप से बिलकुल सही है। ऐसा बयान भाजपा के चुनावी हित में भी है।
जदयू -राजद गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तो नीतीश कुमार हैं। वह पिछड़ी जाति से आते हैं। पर अब राजग के एक नेता भी यह कह रहे हैं कि यदि राजग को बहुमत मिला तो कोई गैर सवर्ण नेता ही मुख्यमंत्री बनेगा। क्योंकि वे जानते हैं कि किसी सवर्ण को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके राजग सत्ता नहीं प्राप्त कर सकेगा।
भाजपा का यह रुख सामाजिक न्याय के आंदोलन की निर्णायक जीत है। बिहार सामाजिक न्याय के आंदोलन की भूमि रही है। सबसे पहले समाजवादी विचारक डा.राम मनोहर लोहिया ने ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा दिया था। तब उन्हें कुछ लोगों ने जातिवादी तक करार दे दिया था।
पर गिरिराज सिंह के बयान से लगता है कि ऐसे मामले में इस देश की राजनीति में आम सहमति बनती जा रही है। भाजपा इस मामले में कांग्रेस से अधिक चतुर साबित हो रही है। देश और पूरे समाज के लिए यह बेहतर होगा, यदि ऐसी आम सहमति दिल से बने न कि किसी चुनावी रणनीति के तहत।
ऐसा नहीं है कि बिहार भाजपा में मुख्यमंत्री पद के लिए पिछड़े समुदाय से आने वाले योग्य नेता उपलब्ध नहीं हैं। हाल के वर्षों में उन्हें ऊंचे राजनीतिक पदों पर बिठाया भी जाता रहा है।
पर बिहार भाजपा के कुछ आतुर सवर्ण नेताओं की यह कोशिश रही है कि राजग को बहुमत मिले तो उन्हें ही मुख्यमंत्री पद पर बैठा दिया जाए।
महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में भाजपा के नये प्रयोग के बाद बिहार के कुछ सवर्ण नेताओं का मनोबल बढ़ा है। हाल के वर्षों में महाराष्ट्र में मराठा, हरियाणा में जाट और झारखंड में आदिवासी नेता ही मुख्यमंत्री बनते रहे। पर इन तीनों राज्यों में भाजपा ने इस परंपरा को इस बार तोड़ दिया। पर तब नरेंद्र मोदी की जनता में लोकप्रियता अधिक थी। तब पार्टी कोई भी राजनीतिक प्रयोग कर सकती थी। पर बिहार में राजग यह खतरा मोल नहीं ले सकता जहां जदयू-राजद के एक मजबूत गठबंधन से उसका सीधा मुकाबला है।
इसीलिए गिरिराज सिंह की बात व्यावहारिक और सामयिक है। हालांकि सैद्धांतिक रूप से बात की जाए तो कोई यही कहेगा कि चुने हुए विधायक ही नेता पद का चुनाव करेंगे। पर गिरिराज ऐसा कहकर अनुमान या अटकलों की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहते।
गुंजाइश रहने पर सामाजिक न्याय की शक्तियां पिछड़ों में यह प्रचार कर दंेगीं कि राजग को बहुमत देने का मतलब है कि एक बार फिर सवर्णों के हाथों में सत्ता सौंपना।
याद रहे कि बिहार में 1990 से गैर सवर्ण ही मुख्यमंत्री रहे हैं।
लोकतंत्र में आदर्श स्थिति तो यह होनी चाहिए कि विजयी दल अपने बीच से सर्वाधिक योग्य और ईमानदार नेता को ही मुख्यमंत्री के पद पर बैठाए चाहे वह व्यक्ति किसी भी जाति या समुदाय का क्यों न हो ! पर यह तो आज एक सपना ही है।
अब जरा व्यावहारिक धरातल पर बात की जाए। आज शासन-प्रशासन की स्थिति यह है कि कोई ईमानदार व्यक्ति भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा हो तो भी शासन व सत्ताधारी राजनीति के लोग उस व्यक्ति की जाति के लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाने लगते हैं। यदि शीर्ष पर बैठा पक्षपाती हो तब तो विकास की गंगा उस जाति की जटा में ही पहले समाती है।
हर जाति या समुदाय के अधिकतर लोग इसलिए भी यह चाहते हैं कि उनकी ही जाति का व्यक्ति मुख्यमंत्री बने। अपवादों को छोड़ दें तो आजादी के बाद के अनुभव भी यही बताते हैं। हालांकि अब तक जितने मुख्यमंत्री बने हैं, उनमें से कुछ के कार्यकाल में अच्छे काम अधिक हुए तो कुछ अन्य के शासनकाल में गलत काम अधिक। कुल मिलाकर असमान विकास हुआ और राज्य पिछड़ा ही रह गया।
पिछले 68 साल में से करीब 35 साल तक सवर्ण ही मुख्यमंत्री रहे। बाकी वर्षों में अल्पसंख्यक, पिछडे़ और दलित बारी-बारी से मुख्यमंत्री पद पर रहे। सवर्णों में से पांच ब्राह्मण, तीन राजपूत और दो कायस्थ मुख्यमंत्री बने।
गैर सवर्णों में से एक अल्पसंख्यक, 4 यादव, तीन दलित और तीन पिछड़े मुख्यमंत्री बने। यानी राज्य की सभी प्रमुख जातियों से मुख्यमंत्री बने। इसके बावजूद समरुप विकास नहीं हो पाया ।
पर आज कुछ पिछड़ा नेता यह आरोप लगाते हैं कि देश के अधिकांश संसाधनों पर उन सवर्ण लोगों का ही कब्जा है जिनकी आबादी सिर्फ दस प्रतिशत है। अपेक्षाकृत अधिक कालावधि में सवर्ण ही मुख्यमंत्री रहे जबकि पिछड़ों की आबादी 50 प्रतिशत से भी अधिक है।
यह अच्छी बात है कि भाजपा के मन में पिछड़ों के प्रति प्रेम जगा है। बेहतर होगा कि बहुमत मिले तो भाजपा गैर सवर्णों में से ही किसी ईमानदार व योग्य व्यक्ति को ही मुख्यमंत्री बनाए जो समाज के सभी समुदायों पर समान रुप से नजर रखे।
वे ईमानदारी से काम भी करें। न्याय और विकास करे। साथ ही धन और अन्य संसाधनों का बंटवारा समरुप ढंग से कराने का प्रबंध करे। यदि ऐसा हुआ तो किसी पिछड़े नेता को यह आरोप लगाने का मौका नहीं मिलेगा कि 10 प्रतिशत लोगों ने देश के अधिकतर संसाधनों पर कब्जा कर रखा है।
याद रहे कि बिहार में गैर सवर्णोे को भी 33 साल शासन चलाने का मौका अब तक मिल चुका है। उम्मीद की जानी चाहिए कि चाहे सत्ता में जो गठबंधन आए,
पूरी आबादी के बीच जरूरत के अनुसार संसाधनों के समरुप बंटवारे के लिए वह सरकार काम करे।
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