शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

आदर्शवादी पीढ़ी के एक संपादक का निधन


एक सौ एक बसंत देख चुके पारसनाथ सिंह संपादकों की उस पीढ़ी के थे जो  लगभग विलुप्त हो रही है। आज उनके गांव में उनका निधन हो गया। वर्षों तक उनके साथ काम करने के अनुभव के बाद मैं यह कह सकता हूं कि उन्होंने कभी अपनी जीवन शैली नहीं बदली। न ही पत्रकारिता के उन मूल्यों से समझौता किया जो उन्होंने अपने पूर्ववर्ती संपादकों  से सीखा था।

  बाबूराव विष्णु पराड़कर को अपना आदर्श मानने वाले पारस बाबू ने हमें विद्याव्यसनी और विनयी बनने का पाठ पढ़ाया। उत्तर प्रदेश और बिहार के तीन अखबारों के संपादक रहे पारसनाथ सिंह ने न तो कभी अपने पद का लाभ उठाया और न ही पत्रकारिता की धौंस जमाई।

हमेशा सीमित आर्थिक साधनों के जरिए ही परिवार चलाते और संतुष्ट रहते उन्हें देखा। उन्होंने अपनी संतानों को भी अच्छे संस्कार दिए। उनके दीर्घ जीवन का राज यह था कि उनका खाने -पीने में भी भारी संयम था। वे अक्सर पैदल चलते देखे जाते थे।
  ऐसा ही अनुशासन वे संपादन कार्यों में भी रखते थे। वे शब्दानुशासन और खबरों के शीर्षक में शालीनता के घोर पक्षधर थे। वे अपने  संवाददाताओं से कहा रहते थे कि वे छोटे-छोटे वाक्य लिखें। साथ ही  स्पष्टता और संक्षिप्तता का भी पूरा ध्यान रखें।

  वे अंग्रेजी की खबरों के हिन्दी अनुवाद को लेकर डेस्क से कहा करते थे कि शब्दानुवाद के बदले भावानुवाद करें। पटना जिले के पुनपुन के पास के तारणपुर के मूल निवासी पारस बाबू ने अपना अधिक समय वाराणसी और कानपुर में बिताया।

बाद में वे बारी-बारी से पटना के दो अखबारों के भी संपादक रहे। अपने जीवन के
अंतिम वर्षों में यह देखकर वे दुःखी रहते थे कि इन दिनों अधितर हिन्दी अखबारों में  शब्दानुशासन पर कम ही ध्यान दिया जाता है। कभी हिन्दी अखबार पढ़कर कई लोग अपनी हिन्दी सुधारते थे।


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