गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

महागठबंधन की राह के कांटें

बिहार जैसा महागठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बनाने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सलाह मौजूं है। उत्तर प्रदेश की चुनावी हार के बाद प्रतिपक्ष इन दिनों पस्तहिम्मत है। इस पृष्ठभूमि में यदि महागठबंधन बनाने का गंभीर प्रयास भी शुरू हो जाए तो उससे गैर राजग दलों में एक नयी ऊर्जा का संचार हो सकता है।

वैसे भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह ठीक नहीं है कि छितराये प्रतिपक्षी दल अधिक दिनों तक पस्तहिम्मत बने रहें। प्रतिपक्ष की पस्तहिम्मती के माहौल में सत्ताधारी जमात द्वारा मनमानी किए जाने का खतरा बढ़ जाता है।

  नीतीश कुमार की यह सलाह भी सही है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट महागठबंधन बनाने की दिशा में पहल करें। इससे पहले मणि श्ांकर अय्यर तथा कुछ अन्य नेताओं ने भी ऐसी ही सलाह दी है।

पर नीतीश कुमार की सलाह का महत्व अधिक इसलिए भी है क्योंकि उनके नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार कुछ कठिनाइयों और शिकायतों के बावजूद आराम से चल रही है। इस चर्चा के बीच कि नीतीश राजग में ंजा सकते हैं, बिहार के मुख्यमंत्री की ताजा सलाह प्रतिपक्ष का हौसला बढ़ाने वाली है।

पर अब सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीय स्तर पर बिहार जैसा कोई महागठबंधन बनाना आज की स्थिति में संभव भी है ? अभी तो असंभव जरूर लगता है। पर यदि इसके लिए गंभीर और ईमानदार प्रयास अभी से शुरू हो जाएं तो आने वाले दिनों में शायद एक हद तक यह कल्पना साकार रूप ग्रहण कर ले।

यह नरेंद्र मोदी की सरकार अपने लोकलुभावन कामों के जरिए अपनी लोकप्रियता बढ़ाती जा रही है। उसे देशव्यापी दलीय गठजोड़ के जरिए पराजित करने के विचार को एक ठोस राजनीतिक पहल की संज्ञा दी जा सकती है। पर सवाल यह भी है कि क्या मोदी सरकार अगले दो साल में नोटबंदी और बेनामी संपत्ति पर हमला जैसे अपने अन्य चौंकाने वाले कामों से आगे निकल जाती है या प्रतिपक्ष महागठबंधन बना कर 2019 के लोकसभा चुनाव में राजग को मात दे देता है।  

पर, किसी भी महागठबंधन के निर्माण में मुख्यतः तीन कठिनाइयां सामने आ सकती हैं। महागठबंधन का नेता कौन होगा? कुछ दल चाहेंगे कि यह बात पहले ही तय हो जाए।

महागठबंधन को नीति -रीति कैसी होगी? राज्यों के परस्पर विरोधी क्षत्रपों को एक मंच पर कैसे लाया जा सकेगा? प्रतिपक्ष के लिए एक और कठिनाई नरेंद्र मोदी सरकार इस बीच पैदा कर सकती है।

संभव है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले तक मोदी सरकार कुछ ऐसे चौंकाने वाले काम कर दे ताकि महागठबंधन के निर्माण के बावजूद राजग  अपराजेय रहे।

याद रहे कि हाल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राजग को 325 सीटें मिलीं। जबकि उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में विधानसभा की 328 सीटों पर बढ़त मिली थी। यानी उसकी 3 सीटें ही घटीं। आम तौर पर लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में विजयी दलों की सीटें काफी घट जाती हैं।

1977 में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी को 425 में से 352 सीटें मिल सकी थीं जबकि उससे तीन ही महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी को लोकसभा की सभी 85 सीटें मिल गयी थीं।

यानी अनेक मतदाताओं के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पौने तीन साल के कार्यकाल में अच्छे काम किये। उतने काम 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय तक लोगों को नजर नहीं आए थे। दूसरी बात वहां महागठबंधन का भी कमाल था।

वैसे आरक्षण की समीक्षा की मांग करते हुए चुनाव की पूर्व संध्या पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के आए तीन बयानों ने भी बिहार में महागठबंधन के काम और भी आसान कर दिया था। आरक्षण पर खतरे का शोर तो उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार के दौरान भी राजग विरोधी दलों ने किया था। पर उसका असर नहीं हुआ। क्योंकि मतदाताओं के दिलो दिमाग पर वहां अन्य तत्व अधिक हावी थे।

क्योंकि एक तो मोदी सरकार के काम और मंशा लोगों को पसंद आए, दूसरी बात यह भी हुई कि सांप्रदायिक तत्व भी चुनाव प्रचार के साथ जुड़ गये। अब गैर राजग दलों को इस बात भी विचार करना होगा कि वे नरेंद्र मोदी के लोकलुभावन कामों का मुकाबला कैसे करेंगे ?

क्या जहां-जहां गैर राजग दलों की सरकारें बची हुई हैं, वहां वे सुशासन व विकास की रफ्तार को तेज करेंगे ? क्या बिहार में भी सुशासन की ढीली होती लगाम को ठीक ढंग से कसा जा सकेगा ?

क्योंकि सिर्फ दलीय या फिर जातीय समीकरण ही हर जगह राजग का मुकाबला नहीं कर पाएगा।

महागठबंधन के निर्माण में सबसे बड़ी समस्या यह होगी कि उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम को एक मंच पर कैसे लाया जाए ? क्या मायावती 1995 में हुए लखनऊ गेस्ट हाउस का कांड भूल जाएंगी ? तब सपा के बाहुबलियों ने उनके कमरे में जबरन घुस कर उस मायावती के साथ काफी बदतमीजी की थी।

मायावती भूल सकती हैं यदि उन्हें अपनी ताजा चुनावी हार उस कांड की अपेक्षा अधिक पीड़ादायक लग रही हो।
याद रहे कि उत्तर प्रदेश के ताजा चुनाव में राजग की अपेक्षा कांग्रेस-सपा- बसपा को कुल मिलाकर दस प्रतिशत अधिक वोट मिले।

लगभग यही समस्या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कम्युनिस्टों के बीच आएगी। इन दोनों के कार्यकर्ताओं के बीच यदाकदा खूनी झड़पें होती  रही हैं। क्या ममता वह कांड भूल जाएगी जिसमें उनपर वाम मोर्चे की सरकार की पुलिस ने निर्मम प्रहार किया था और ममता को लंबे समय तक अस्पताल में रहना पड़ा था ?

तमिलनाडु में क्या होगा ? क्या अन्नाद्रमुक और द्रमुक को कभी एक मंच पर लाना संभव होगा? 1989 में जयललिता तमिलनाडु विधानसभा में प्रतिपक्ष की नेता थीं। के. करूणानिधि मुख्य मंत्री थे। एक सवाल पूछने पर कुछ द्रमुक सदस्यों ने जयललिता को सदन के अंदर ही इस कदर अपमानित किया जैसा अपमान शायद ही किसी महिला नेत्री का कभी किसी सदन में हुआ हो।

जयललिता अंत-अंत तक वह अपमान भूल नहीं पायी थीं। क्या उनके उत्तराधिकारी उस घटना को भुला कर द्रमुक से समझौता कर लेंगे?

ऐसी  समस्याएं कुछ अन्य राज्यों में भी है।

इस तरह सारे गैर राजग दलों को एक मंच पर लाना असंभव नहीं तो  अत्यंत कठिन जरूर है। इस महती काम को संभव बनाने के लिए कुशल मध्यस्थों की जरूरत पड़ेगी। फिर भी इस काम में काफी समय लग सकता है।
लोकसभा के अगले चुनाव के सिर्फ दो साल बाकी हैं। यह समय देखते -देखते बीत जाएंगे। इसलिए गैर राजग दल इस काम में यदि अभी से लग जाएं तो पूर्ण नहीं तो कम से कम शायद आंशिक सफलता मिल जाए!
एक मजबूत विकल्प तैयार करने में यदि प्रतिपक्ष विफल रहता है तो वह उसकी विफलता है। जनता की नहीं। गत 2014 के लोकसभा चुनाव में जनता के तो करीब 61 प्रतिशत वोट राजग के खिलाफ पड़े थे।

(इस लेख का संपादित अंश ‘प्रभात खबर’ के 6 अप्रैल 2017 के अंक में प्रकाशित)

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