शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

नरेंद्र मोदी के किए से अधिक का भरोसा दे पाएगा प्रतिपक्ष !

लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात है कि भाजपा विरोधी दल गोलबंद होने की कोशिश कर रहे हैं। पर क्या सिर्फ गोलबंदी ही काफी होगी? या फिर गोलबंदी मुद्दा आधारित भी होगी ? सिर्फ गोलबंदी का नतीजा यह देश देख चुका है।

सिर्फ गोलबंदी से मधु कोड़ा (झारखंड) और मनमोहन सिंह (केंद्र) जैसी सरकारें बनती हैं।

भाजपा वैसी राजनीति को पराजित कर चुकी है। गोलबंदी की कोशिश में लगे राजनीतिक दलों के नेताओं को अपनी पिछली हार के असली कारणों को पहले समझना होगा। उनसे शिक्षा लेनी होगी। इसके साथ ही जो काम नरेंद्र मोदी की सरकार भी नहीं कर पा रही है, उसे करने का पक्का भरोसा जनता को देना होगा ?

हालांकि अधिकतर भाजपा विरोधी नेताओं की साख इतनी खराब हो चुकी है कि सवाल उठेगा कि कितने लोग उन पर भरोसा करेंगे ? खैर जो हो, कोशिश करने में क्या दिक्कत है ?

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री सचिवालय और अपने मंत्रिमंडल तक भ्रष्टाचार को अब तक फटकने नहीं दिया है।
पर सरकारी आॅफिसों में फिर भी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जनता उससे तंग -ओ- तबाह है। क्या उस स्तर से भी प्रतिपक्ष भ्रष्टाचार को दूर करने का वायदा करेगा? केंद्र और कुछ भाजपा शासित राज्य सरकारें गोरक्षक गिरोहों की गुंडागर्दी खत्म नहीं कर पा रही हंै।

प्रतिपक्ष से यह उम्मीद की ही जा सकती है कि वह उसे खत्म कर देगा। पर सवाल है कि गो हत्या के समर्थकों पर भी समान रूप से कार्रवाई करने का प्रतिपक्ष वादा करेगा? क्या प्रतिपक्ष अपनी पिछली गलतियों के लिए माफी मांगते हुए जनता से यह वादा करेगा कि वह अगली बार भ्रष्टाचार मुक्त सरकार देगा? क्या प्रतिपक्ष ढांेगी, असंतुलित और एकतरफा ‘धर्म निरपेक्षता’ की नीति पर अब नहीं चलने का भरोसा देगा ?

यदि प्रतिपक्ष सिर्फ सामाजिक समीकरण, दलीय गठबंधन और सांप्रदायिक वोट बैंक के बल पर
सरकार बनाएगा तो वह मनमोहन सरकार की सिर्फ कार्बन काॅपी होगी। वैसा शायद अब नहीं चलेगा। क्योंकि अनेक लोगों को एक अलग ढंग की मोदी सरकार देखने की आदत हो बन  है।



कुंवर सिंह को जरूरत नहीं ‘भारत रत्न’ की

 
 ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक अपनी चर्चित पुस्तक में पंडित सुंदर लाल ने लिखा है कि ‘कंुवर सिह का व्यक्तिगत चरित्र अत्यंत पवित्र था। उसका जीवन परहेजकारी का था।उसके राज में कोई मनुष्य इस डर से कि कहीं कुंवर सिंह देख न ले ,खुले तौर पर तम्बाकू तक न पीता था।उसकी सारी प्रजा उसका बड़ा आदर करती थी और उससे प्रेम करती थी। युद्ध कौशल में वह अपने समय में अद्वितीय था।’

सुंदर लाल ने यह भी विस्तार से लिखा है कि ‘कंुवर सिंह ने किस तरह बारी -बारी से छह युद्धों में अंग्रेजों को हराया था। अंग्रेजों को छह-छह युद्धों में हराने वाले किसी अन्य योद्धा के बारे में मैंने कहीं नहीं पढ़ा है। वीर कुंवर सिंह से हारने के बाद एक अंग्रेज अफसर ने युद्ध में अपनी दुर्दशा का मार्मिक विवरण लिखा था। उसने लिखा  कि ‘जो कुछ हुआ, उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है। लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू कर दिया। शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा। हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे। एक निकृष्ट गंदे छोटे से पोखर को देखकर वे उसकी तरफ लपके। इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबोचा। इसके बाद हमारी जिल्लत की कोई हद न रही।

हमारी विपत्ति चरम सीमा को पहुंच गयी। हम में से किसी को शर्म तक न रही। जहां जिसकी कुशल दिखाई दी, वह उसी ओर भागा। चारों ओर आहांे, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था। मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मारे गए। हमारे अस्पताल पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था।इसलिए किसी को दवा मिल सकना भी असंभव था। कुछ वहीं गिर कर मर गये, बाकी को शत्रु ने काट डाला। हमारे कहार डोलियां रख-रख कर भाग गए। सोलह हाथियों पर केवल हमारे घायल साथी लदे हुए थे।

स्वयं जनरल लीग्रैंड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया। हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे। उनमें बंदूक उठाने तक की शक्ति नहीं बची थी। सिखों ने हमसे हाथी छीन लिये और वे हमसे आगे भाग गये। (अंग्रेजी फौज में सिख सैनिक भी थे।)

गोरों का किसी ने साथ नहीं दिया। 199 गोरों में से 80 ही इस संहार में जिंदा बच सके। हमारा इस जंगल में जाना ऐसा ही हुआ जैसा पशुओं का कसाईखाने में जाना। हम वहां केवल बध के लिए गए थे।’

भले वीर कुंवर सिंह की बहादुरी के ऐसे किस्से आजादी के बाद जन -जन तक नहीं पहुंचाए गए, पर एक बड़े इलाकों में ऐसी गाथाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं।

वीर कुंवर सिंह को याद करने वालों की इस मांग का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने समर्थन किया कि उन्हें ‘भारत रत्न’ मिलना चाहिए। पर क्या ऐसा वीर ‘भारत रत्न’ का मोहताज है ? इस देश में भारत रत्न तथा पद्म पुरस्कारों का अवमूल्यन तथा राजनीतिकरण हो चुका है।

1942 का भारत छोड़ो आंदोलन देश की आजादी का सबसे बड़ा आंदोलन था। उस आंदोलन का विरोध करने वाले को भी ‘भारत रत्न’ मिल चुका है !

 
एक संपादक की पठनीय पुस्तक 

नामी संपादक एस.के. राव की संस्मरणात्मक पुस्तक ‘अ जर्नलिस्ट रिफ्लेक्ट्स’ पढ़ने का अवसर मिला। पत्रकारिता और राजनीति के इतिहास के विद्यार्थियों के लिए यह उपयोगी किताब लगी। राव ने अपने समकालीन नेताओं और संपादकों के बारे में लिखा है। पटना में दैनिक सर्चलाइट के संपादक रह चुके राव साहब ने लखनऊ, कराची और मद्रास में भी पत्रकार के रूप में काम किया था।

राव साहब पत्रकारों के संगठन एन.यू.जे. के संस्थापक महासचिव भी थे। अब वह इस दुनिया में नहीं हैं। पटना के राजनीतिक और पत्रकारिता जगत के पुराने लोग राव साहब को याद करते हैं।

मुख्यमंत्री डाॅ. श्रीकृष्ण सिन्हा के कार्यकाल में सर्चलाइट के एक चर्चित संपादक हुआ करते थे -‘एम. एस. एम. सरमा’। राव साहब ने उनके बारे में लिखा है कि ‘शालीन पत्रकारिता के जमाने में भी सरमा जी स्टंट में विश्वास करते थे।’ वैसे मैंने अलग से सरमा जी के बारे में बुजुर्गों से सुन रखा था। सरमा जी तत्कालीन मुख्यमंत्री के बारे में अक्सर आपत्तिजनक बातें लिखा करते थे।

श्रीबाबू के समर्थकों ने एक बार उनसे कहा कि इस संपादक के खिलाफ आपको सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। इसपर मुख्यमंत्री ने कहा कि मैंने तो सर्वाधिक सख्त कार्रवाई कर दी है। मैंने तो उनका अखबार पढ़ना ही छोड़ दिया है।



हार के अपने-अपने बहाने 
आधुनिक राजनीति की एक पुरानी कहावत है। चुनाव जीतने वाला सीटें गिनता है और हारने वाला अपना वोट परसेंटेज। हारने वाले नेताओं की एक और प्रजाति भी है। सन 1971 की हार के बाद जनसंघ नेता बलराज मधोक ने कहा था कि इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ से एक खास तरह की अदृश्य स्याही मंगाकर उसे मत पत्रों पर अपने पक्ष में पहले ही लगवा दिया था। कुछ घंटों बाद अदृश्य स्याही उग जाती थी।
मुहरों पर जो दृश्य स्याही गैर कांग्रेसी दलों के उम्मीदवारों के नाम के आगे लगायी जाती थी, वह कुछ घंटांे के बाद स्वतः गायब हो जाती थी। अरविंद केजरीवाल अपनी हार का बहाना  इ.वी.एम. मशीनों में ढूंढ़ लिया है।


और अंत में


राजनीति पहले सेवा थी। आजादी की लड़ाई के दौरान और आजादी के कुछ साल बाद तक भी अधिकतर नेता सेवाभाव से ओतप्रोत थे। पर सन 1976 में जब सासंदों के लिए पेंशन की व्यवस्था हुई तो राजनीति नौकरी हो गयी।

सन 1993 में जब सांसद क्षेत्र विकास फंड का प्रावधान किया गया तो राजनीति व्यापार बन  गयी। जब इस देश में महाघोटालों का दौर चला तो वह उद्योग हो गयी।

अब जब पैसे लेकर चुनावी टिकट बांटे जाने लगे तो राजनीति ने खुदरा व्यापार के क्षेत्र में भी अपने पांव जमा दिये। हालांकि सेवा वाले जमाने में भी कुछ नेता अपवाद थे और आज ‘मेवा’ वाले दौर में भी अपवाद हैं।
पर अपवादों से तो किसी देश का काम नहीं चलता !

( 28 अप्रैल 2017 के प्रभात खबर के बिहार संस्करण में इस कालम का संशोधित अंश प्रकाशित)

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