शनिवार, 22 जुलाई 2017

भ्रष्टाचार को क्यों बनने दिया गया लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज

महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार और पाखण्ड को लोकतंत्र की अपरिहार्य उपज नहीं बनने दिया जाना चाहिए जैसा कि आज हो गया है।’ आजादी के तत्काल बाद सरकारों में जो कुछ हो रहा था, उससे महात्मा गांधी चिंतित थे। उन्होंने भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलने पर बिहार के एक कैबिनेट मंत्री को पदच्युत कर देने की सलाह दी थी। पर उनकी बात नहीं मानी गयी।

1967 के आम चुनाव में बिहार में कांग्रेस की पहली बार पराजय हुई थी। उस पराजय के लिए जिम्मेवार नेताओं में उस खास नेता के भ्रष्टाचरण का सबसे बड़ा ‘योगदान’ बताया गया।

आजादी के तत्काल बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए।’ नेहरू ने इसकी जरूरत समझी होगी तभी तो कहा होगा। पर यह काम भी वह नहीं कर सके। भ्रष्ट लोग फलते-फूलते गये।

पहले भ्रष्ट लोग ‘अंडे’ से अपना काम चला लेते थे। बाद में ‘मुर्गी’ को ही मार कर खाने लगे। समय बीतने के साथ सरकारी पैसों की इतनी लूट होने लगी कि टिकाऊ संरचना बनना भी कठिन होने लगा। अब तो देश में ‘प्राक्कलन घोटाले’ का दौर है।

प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने कहा था कि ‘सत्ता के दलालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।’ राजीव ने सत्ता के दलालों का वर्चस्व देखा होगा तभी तो कहा होगा। पर दलालों के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं हो सकी। उल्टे विडंबना यह रही कि बोफर्स दलाली के शोर के बीच ही 1989 के चुनाव में केंद्र में कांग्रेस की सरकार की पराजय हो गयी। 1991-1996 की नरसिंह राव की सरकार अल्पमत की  सरकार थी। बाद के वर्षों में कभी कांग्रेस को लोकसभा में अपना बहुमत नहीं हुआ। समय बीतने के साथ स्थिति बिगड़ती चली गयी। इसी पृष्ठभूमि में सन 2003 में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे.एम. लिंगदोह ने कह दिया था कि ‘राजनेता कैंसर हैं जिनका इलाज अब संभव नहीं।’ तब अनेक लोग लिंगदोह से असहमत थे। पर यह जरूर मानने लगे थे कि चीजें तेजी से बिगड़ रही हैं।

राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मनमोहन सिंह ने 1998 में कहा था कि ‘इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है।’ उन्होंने सड़न देखी होगी तभी तो कहा होगा। पर जब श्री सिंह खुद प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उस सड़न को रोकने के लिए क्या किया ?

उल्टे उन्होंने जो कुछ किया, वह सब देश ने देखा और भोगा। 2014 के चुनाव में कांग्रेस लोकसभा में 44 सीटों पर सिमट गयी। इस देश के अधिकतर नेताओं ने प्रतिपक्ष में रहने पर तो अपने राजनीतिक विरोधियों के भ्रष्टाचार पर खूब हायतोबा मचायी। पर जब वे सत्ता में आए तो खुद बहती गंगा में हाथ धोया। अपवादों की बात और है।
अपवाद स्वरूप जो भी अच्छे नेता इस देश में बचे हुए हैं, वे या तो सत्ता के मोह में डूबे हुए हैं या फिर भ्रष्टाचारियों के खिलाफ बौने साबित हो रहे हैं। सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को आश्वासन दिया था कि ‘मैं न तो खाऊंगा और न ही किसी को खाने दूंगा।’ मोदी मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर तो घोटाले का अब तक कोई आरोप नहीं लगा है, पर सरकार के दूसरे अंग लगभग पहले ही जैसे ‘काम’ कर रहे हैं। लगता है कि वे मोदी से भी अधिक ताकतवर हैं।

संभवतः इसीलिए तीन साल के शासनकाल के बाद भी प्रधानमंत्री को 6 अप्रैल 2017 को साहिबगंज में यह कहना पड़ा कि ‘भ्रष्टाचार और ब्लैक मनी ने दीमक की तरह चाटकर इस लोकतंत्र को बर्बाद कर दिया है। इसके खिलाफ संघर्ष जारी रहेगा।’ पर सवाल है कि लोगबाग कब तक प्रतीक्षा करेंगे ?

मोदी सरकार की उपलब्धि और विफलताओं का सही आकलन तो 2019 में हो जाएगा। पर इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी याद आती है। उसने 5 अगस्त 2008 को ही कह दिया था कि ‘भगवान भी इस देश को नहीं बचा सकता है।’ इस विकट स्थिति में इस देश के नेताओं तथा अन्य क्षेत्रों के जागरूक और देशभक्त लोगों का क्या कर्तव्य बनता है ?

क्या भ्रष्ट नेताओं और अफसरों तथा इसी तरह के अन्य लोगों के खिलाफ देशहित में कठोर कार्रवाई होनी चाहिए या फिर यह तर्क दिया जाना चाहिए कि चूंकि पहले के लोगों ने इस देश को लूटा है, इसलिए हमें भी लूट लेने का जन्मसिद्ध अधिकार हासिल है?


मधु लिमये से एन.सी. सक्सेना तक के एक ही स्वर 

वैसे मधु लिमये तो 1988 में ही इस नतीजे पर पहुंच गए थे कि ‘मुल्क के शक्तिशाली लोग इस देश को बेच कर खा रहे हैं।’ सन 1998 में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एनसी. सक्सेना ने कहा कि ‘इस देश में भ्रष्टाचार में जोखिम कम और लाभ ज्यादा है।’

याद रहे कि सक्सेना की इस टिप्पणी के बावजूद ‘जोखिम अधिक और लाभ कम’ करने वाले किन्हीं कानूनी प्रावधानों की जरूरत इस देश की सरकारें नहीं समझ पा रही हैं। इस दिशा में आधे -अधूरे मन से कहीं कुछ काम भी हुए हैं तो उसका कोई खास लाभ देश को नहीं मिल रहा है। याद रहे कि मधु लिमये ऐसे नेता थे जो न तो स्वतंत्रता सेनानी पेंशन लेते थे और न ही पूर्व सांसद पेंशन। अखबारों में लिखे अपने लेखों के पारिश्रमिक से ही वह जीवन यापन करते थे।


अब जरा आज के नेता को देखिए !

केंद्र सरकार प्रत्येक सांसद पर हर माह 2 लाख 70 हजार रुपए खर्च करती है। यह आंकड़ा 2015 का है। इसके बावजूद इस बुधवार को राज्यसभा में सपा के नरेंश अग्रवाल ने कहा कि मौजूदा तनख्वाह से सांसदों का काम नहीं चल रहा है। सांसदों का दबाव जारी रहा तो सरकार 2.70 लाख की राशि देर-सवेर बढ़ा ही देगी।

यह सब ऐसे देश में हो रहा है जहां के सरकारी अस्पतालों के पास सभी गंभीर मरीजों के लिए भी इलाज की व्यवस्था तक नहीं है। क्योंकि सरकारें धनाभाव से जूझ रही हंै। आए दिन यह खबर आती रहती है कि अस्पताल में मृतक मरीज के लिए शव वाहन का प्रबंध नहीं हो सका। कहीं शव दोपहिया पर ढोया जाता है तो कहीं ठेले पर।

पटना के एक बड़े सरकारी अस्पताल की ताजा खबर यह है कि अस्पताल के भीतर गंभीर मरीज को परिजन चादर पर रखकर उठा रहे हैं और एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा रहे हैं।


पटना एम्स की मारक उपेक्षा

पटना में स्थापित एम्स में भी साधन के अभाव में मरीजों का उचित इलाज नहीं हो पा रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अस्सी के दशक में पटना में विद्यार्थी परिषद के नेता थे। परिषद की खबरों के हैंड आउट लेकर अखबारों के दफ्तरों का चक्कर लगाते मैंने उन्हें देखा था। यानी उनका बिहार से जो लगाव होना चाहिए था, वह नहीं है।
जबकि दिल्ली एम्स के कुल मरीजों में बिहार के मरीजों का प्रतिशत 40 है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए पटना के निर्माणाधीन एम्स का निर्माण जल्द पूरा कर लिया जाना चाहिए था।

2004 में इस पटना एम्स का शिलान्यास हुआ था। अब तक 50 प्रतिशत काम भी पूरा नहीं हुआ है। दरअसल केंद्र सरकार पूरा फंड ही नहीं देती। हां,सांसदों के वेतन भत्ते के लिए उसके पास पैसों की कभी कोई कमी नहीं रहती।


लोकसभा टी.वी. और राज्यसभा टी.वी.

अब तक राज्यसभा टी.वी. और लोकसभा टी.वी. के अलग- अलग राजनीतिक स्वर रहे हैं। अब वह बात नहीं रहेगी। वैसे पहले दो स्वर होने के कारण भी रहे हैं। लोकसभा की स्पीकर पहले भाजपा की नेता थीं। राजग का बहुमत राज्यसभा में नहीं है। राज्यसभा के निवर्तमान सभापति यानी उपराष्ट्रपति कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे हंै। अब उस पद को अगले उपराष्ट्रपति संभालेंगे। वह भाजपा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।

अब या तो राज्यसभा टी.वी. और लोकसभा टी.वी. का विलयन हो जाएगा या फिर पिछले विरोधाभास की समाप्ति हो जाएगी।


और अंत में

  संविधान के अनुच्छेद- 212 के अनुसार ‘न्यायालयों द्वारा विधायिकाओं की कार्यवाहियों की जांच नहीं की जा सकेगी।’ जब संविधान बना था, उन दिनों सदन की कार्यवाही के सीधे प्रसारण की सुविधा नहीं थी। देवताओं के बारे में राज्यसभा में एक सपा नेता के कुवचन को देखते हुए अब नयी व्यवस्था की जरूरत आ पड़ी है। या तो सदनों में उच्चारित ऐसे कुवचनों के खिलाफ अदालत में मुकदमा चलाने की संवैधानिक छूट मिले या फिर सदन की कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण यथाशीघ्र बंद हो।

 (इसका संक्षिप्त अंश 21 जुलाई 2017 के प्रभात खबर (बिहार) में प्रकाशित)

रविवार, 16 जुलाई 2017

सजायाफ्ता कर्मचारी मंजूर नहीं तो नेताओं को क्यों मिले छूट

इस देश की सरकार किसी सजायाफ्ता को चपरासी तक की नौकरी नहीं देती। पर  सजायाफ्ता नेता, प्रधानमंत्री के पद तक भी पहुंच सकता है। इस तरह की विसंगतियों को दूर करने की उम्मीद नरेंद्र मोदी सरकार से कुछ लोग कर रहे थे। पर उन्हें अब निराशा हो रही है। जब सजायाफ्ता नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन रोक की मांग को लेकर जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी तो केंद्र सरकार ने उस पर अपनी मंशा जाहिर कर दी।

केंद्र सरकार के वकील ने कहा कि यह मामला सुनवाई के लायक ही नहीं। याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने यह ठीक ही सवाल उठाया है कि ऐसे में जब सरकारी कर्मचारियों और न्यायिक पदाधिकारियों पर आजीवन पाबंदी लग जाती है तो जनप्रतिनिधियों पर क्यों नहीं लगे ? उन्होंने राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण और भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि में यह याचिका दायर की है। इस याचिका पर 19 जुलाई को  सुनवाई होगी।

गत बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकारा। आयोग इस मुद्दे पर कोर्ट को यह नहीं बता रहा है कि वह आजीवन प्रतिबंध के पक्ष में है या नहीं। संभवतः आयोग इस मामले में केंद्र सरकार के रुख के अनुसार ही काम कर रहा है। राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टीकरण से ऊबे इस देश के अनेक लोग सुप्रीम कोर्ट से ही यह उम्मीद कर रहे हैं कि वह इस मामले में सरकार को सख्त निर्देश दे। अन्यथा कुछ दिनों के बाद संविधान की रक्षा करना और भी मुश्किल हो जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट को ही तो देखना है कि इस देश में संविधान के अनुसार काम चल रहा है या नहीं। यदि राजनीति में भ्रष्ट और अपराधी लोगों की बढ़ती संख्या की रफ्तार को तत्काल नहीं रोका गया तो विधायिकाएं भ्रष्टाचार और अपराध के आरोपियों से पूरी तरह भर जाएंगी। अभी उनकी संख्या सदन की कुल संख्या की एक तिहाई है। याद रहे कि  किसी सांसद या विधायक को कम से कम दो साल की सजा मिलने के तत्काल बाद उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है। पर सजा पूरी हो जाने के छह साल बाद वह फिर से चुनाव लड़ सकता है।



यूं हुई अच्छे कार्यकर्ताओं की कमी

जब तक इस देश में संयुक्त परिवारांे का दौर चलता रहा, अच्छी मंशा वाले राजनीतिक कार्यकर्ता विभिन्न राजनीतिक दलों को मिलते रहे। पर अब तो लघु परिवारों का जमाना है। अब भी जहां-तहां संयुक्त परिवार मौजूद हैं, पर उनकी संख्या कम होती जा रही है।

पहले संयुक्त परिवार से निकले राजनीतिक कार्यकर्ता के पत्नी और बाल-बच्चों की देखरेख संयुक्त परिवार कर देता था। यानी सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता बनने की इच्छा रखने वालों के लिए नौकरी करने की मजबूरी नहीं थी।

पर आज तो सबको अपने-अपने लघु परिवार का पालन-पोषण खुद ही करना है। इसलिए कोई व्यक्ति राजनीतिक कर्म में लगता भी है तो वह निजी खर्चे के लिए राजनीति या शासन से ही पैसे निकालना चाहता है। हालांकि सारे राजनीतिक कार्यकर्ता ऐसे नहीं हैं। कुछ कार्यकर्ता अब भी निःस्वार्थ भाव से राजनीति में लगे हुए हैं। पर अनेक कार्यकर्ताओं को या तो कोई ठेकेदारी चाहिए या दलाली का धंधा।

अपराध के धंधे में भी काफी पैसे हैं। राजनीति के पतन का यह बड़ा कारण है। पता नहीं इस स्थिति से देश की राजनीति को कौन बचाएगा ? मौजूदा राजनीति न  तो भ्रष्टाचार और न ही अपराध पर निर्णायक हमले की स्थिति में है। राजनीति की इन दो विपदाओं को जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक की ताकत भी बढ़ाती जा रही है।



संकट में दोस्तों की पहचान

1967 में विदेश मंत्री एम.सी. छागला ने लोकसभा में कहा था कि भारत-चीन सीमा विवाद पर सोवियत संघ अब भारत के पक्ष को समझ गया है और वह हमें ही सही मानता है। पर 1962 में चीन ने जब भारत पर हमला किया तो सोवियत संघ ने हमें मदद करने से साफ मना कर दिया था। तब वह हमारे देश का पक्ष समझने को भी तैयार नहीं था। उसने कहा था कि चीन हमारा भाई है और भारत हमारा दोस्त। यानी दोस्त के लिए कोई भाई से झगड़ा नहीं करता।

हां, तब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने न चाहते हुए भी अमेरिका से मदद मांगी। चीन सीमा से इस आशंका से पीछे हट गया था कि कहीं अमेरिका हस्तक्षेप न कर दे। उससे पहले भारत अमेरिका से दोस्ताना संबंध नहीं रखना चाहता था। दूसरी ओर वह सोवियत संघ से घनिष्ठ संबंध के पक्ष में रहा।

आज भी जब हमारे  देश पर युद्ध का खतरा मंडरा रहा है, तो हमें विभिन्न देशों से दोस्ती के सिलसिले में अपने हितों को ध्यान में रखना चाहिए न कि किन्हीं अन्य बातों कोे। दुनिया के अन्य सभी देश भी अपने राष्ट्रीय हितों का ही ध्यान रखते हैं। पर हमारे ही देश में ऐसी राजनीतिक शक्तियां भी हैं जो परमाणु परीक्षण करने पर   चीन की तो तारीफ करती हैं, पर वही काम जब भारत सरकार करती है तो वह उसका विरोध करती है। 



कांग्रेसी वकील क्यों नहीं दिखाते करामात  

टू जी स्पैक्ट्रम आवंटन घोटाले में जीरो लाॅस का सिद्धांत पेश करने वाले मशहूर वकील कपिल सिब्बल ने अब एक नयी ‘थ्योरी’ पेश की है। स्पैक्ट्रम की नीलामी शुरू होते ही सिब्बल की जीरो लाॅस थ्योरी तो फेल हो गयी। अब देखना है कि उनकी नयी थ्योरी पास होती है या फेल!

सिब्बल का आरोप है कि भाजपा के सत्ताधारी नेताओं के यहां आयकर और ईडी के छापे क्यों नहीं पड़ रहे हैं ? क्या वे सब के सब स्वच्छ हैं ? सिर्फ गैर राजग दलों के नेता ही दागी हैं ? कपिल साहब के सवाल में दम है। यदि जनहित याचिकाओें के मामलों में कपिल सिब्बल, डाॅ. सुब्रह्मण्यम स्वामी और प्रशांत भूषण की राह अपना लें तो उन्हें इसका रोना नहीं रोना पड़ेगा कि केंद्र सरकार एकतरफा कार्रवाई कर रही है।

डाॅ. स्वामी और प्रशांत भूषण ने मनमोहन सिंह के शासनकाल में सिर्फ कपिल सिब्बल की तरह रोना तो नहीं रोया था। उन्होंने जनहित याचिकाओं के जरिए जांच एजेंसियों को ऐसी हस्तियों के खिलाफ भी कार्रवाई करने को मजबूर कर दिया था  जिन्हें मनमोहन सरकार बचा रही थी। 

यदि सिब्बल के पास भाजपा नेताओं के खिलाफ वैसे ही ठोस सबूत हैं तो वह जनहित याचिकाओं का सहारा क्यों नहीं ले रहे हैं ? सिब्बल तो बड़े काबिल वकील हैं। क्या उनके लिए जनहित याचिकाओं का रास्ता बंद है ? या फिर उनके पास कोई सबूत ही नहीं है ? क्या सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए बयान देना इतने बड़े वकील को शोभा देता है ?

अपनी सरकार में शामिल लुटेरों के खिलाफ मनमोहन सिंह सरकार जब कार्रवाई नहीं कर सकी जिस सरकार के खुद सिब्बल भी मंत्री थे तो वह मोदी सरकार से ऐसी उम्मीद क्यों कर रहे हंै ? आम धारणा यह है कि लगभग सभी दलों में चोर और लुटेरे घुसे हुए हैं। हालांकि उन्हीं के बीच ईमानदार नेता भी हैं। सत्ताधारी दल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करेगा ही।

पर राजग विरोधी दलों को भी चाहिए कि वे भी अपने बीच से ‘डाॅ. स्वामी’ और ‘प्रशांत भूषण’ तैयार करंे ताकि दोनों पक्षों के लुटेरों को उनके सही स्थान पर पहुंचाया जा सके।



और अंत में

एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता ने गुरुवार को मीडिया से कहा कि सी.बी.आई.जितने मामलों की जांच करती है, उनमें से सिर्फ 30 प्रतिशत मामलों में ही वह आरोपितों को अदालतों से सजा दिलवा पाती है। पर सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार ने गत अप्रैल में लोकसभा में बताया कि वह दर 66 दशमलव 8 प्रतिशत है। प्रवक्ता जी यह कहना चाहते थे कि बहुधा सी.बी.आई. झूठे केस तैयार करती है  जो अदालतों में नहीं टिकते। सी.बी.आई. की आलोचना से पहले अपने आंकड़े तो ठीक कर लीजिए प्रवक्ता जी ! 

(प्रभात खबर में 14 जुलाई 2017 को प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से)

इस गरीब बिहार में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा है भी या नहीं ?

ऊपरी तौर पर तो अब यह लग रहा है कि बिहार का सत्ताधारी महागठबंधन बिखराव के कगार पर है, पर राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है। इस बीच कोई दूसरा मोड़ भी आ सकता है। अगले कुछ दिन  महत्वपूर्ण होंगे। तब सब कुछ साफ हो जाएगा।

ताजा टकराव उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के इस्तीफे की मांग को लेकर है। पर क्या जदयू और राजद के बीच मतभेद का सिर्फ यही कारण है ? या फिर पहले से ही कुछ मुद्दों पर महागठबंधन के घटक दलों में भीतर -भीतर टकराव जारी था ? क्या वह राजनीतिक शैलियों का टकराव नहीं रहा है ?

क्या ताजा विवाद ऊंट की पीठ पर अंतिम तिनके के रूप में सामने आया है? पता नहीं। आने वाले दिन इन सवालों का जवाब दे सकते हैं।

याद रहे कि गठबंधन में टूट के बाद आरोप-प्रत्यारोपांे का दौर शुरू होता है। उस दौरान बहुत सारी अनकही बातें सामने आती हैं। इस मामले में वह नौबत आएगी ही, ऐसा यहां नहीं कहा जा रहा है। पर नहीं ही आएंगी, यह भी तय नहीं है।

यदि जदयू और राजद के बीच टकराव ऐसे ही जारी रहा तो आने वाले दिनों में कुछ भीतरी बातें भी खुल कर सामने आ ही सकती हैं। लगता है कि मूलतः यह शैलियों के बीच के टकराव की समस्या है। राजद और जदयू की शैलियों पर क्रमशः लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की छाप रही है। वैसे नीतीश सरकार के वरिष्ठ मंत्री और जदयू नेता बिजेंद्र प्रसाद यादव का यह सवाल एक हद तक सही है कि जब जदयू और राजद के बीच समझौता हुआ था तब नहीं जानते थे कि लालू चार्जशीटेड हैं?

पर सवाल सिर्फ लालू प्रसाद का ही नहीं है। अब तो नीतीश कुमार के बगल में बैठने वाले उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का भी है। याद रहे कि लालू प्रसाद के दोनों पुत्र तेजस्वी और तेज प्रसाद नीतीश मंत्रिमंडल में हैं।
रेलवे के होटलों की नीलामी जिसके नाम हुई, उसी व्यापारी से पटना में जमीन लेने का आरोप लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव पर लगा है। इस मामले में सी.बी.आई. ने इन तीनों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है।

इस पर जब भाजपा ने तेजस्वी के इस्तीफे की मांग की तो जदयू ने कहा कि जिन पर आरोप है, वे अपने जवाब से जनता को संतुष्ट करें। जदयू का इशारा तेजस्वी की ओर है। तेजस्वी और राजद अपने ढंग से जवाब दे रहे हैं। राजद ने कहा है कि तेजस्वी निर्दोष हैं और वह इस्तीफा नहीं देंगे। अब देखना है कि तेजस्वी के बारे में राजद के इस जवाब से जदयू संतुष्ट होता भी है या नहीं। उम्मीद तो कम है।  

तेजस्वी के इस्तीेफे की संभावना से साफ इनकार के बाद अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर यह निर्भर है कि वह तेजस्वी सहित राजद खेमे के मंत्रियों से खुद को अलग कर लेने के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हैं या तेजस्वी को बर्खास्त करने की राज्यपाल से सिफारिश करते हैं। वह घड़ी आने से पहले इस बीच जितने दिन दागी उपमुख्यमंत्री के साथ सरकार चलाएंगे, उतने ही दिन नीतीश की छवि पर प्रश्न चिह्न बना रहेगा।
वैसे राजद से नाता तोड़ने की स्थिति में भाजपा नीतीश की सरकार को बाहर से समर्थन देने को तैयार है। अब फैसला नीतीश को ही करना है। 

इस बीच महागठबंधन के नेताओं के बीच भ्रष्टाचार के सवाल पर बहस शुरू हो गयी है। एक लालू समर्थक नेता और पूर्व जदयू सांसद शिवानंद तिवारी ने सवाल किया है कि क्या नीतीश के साथ बैठने वाले नेता हरिश्चंद्र की औलाद हैं ?

यानी राजद का यह तर्क है कि जब आपके साथ भी दागी लोग मौजूद ही हैं तो हमारे नेता पर प्राथमिकी दर्ज होने मात्र से इस्तीफा क्यों मांग रहे हैं? राजद का यह भी तर्क है कि भाजपा जब लालू परिवार को जेल भिजवा देगी तो नीतीश कुमार को मसलने में उसे कितना समय लगेगा।

पर जदयू का तर्क है कि खुद नीतीश कुमार पर कोई दाग नहीं है और वह अपनी सरकार की छवि साफ-सुथरी रखना चाहते हैं। इससे कोई समझौता नहीं होगा, चाहे सरकार रहे या जाए।

दरअसल राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार भ्रष्टाचार के आरोपों के मामले में ‘गुण’ के साथ-साथ ‘मात्रा’ का भी अब सवाल है। भ्रष्टाचार के आरोपी को  सहने की क्षमता अलग -अलग नेताओं की अलग -अलग रही है। इस मामले में नीतीश की तो बहुत कम है। दरअसल हाल के दिनों में लालू परिवार के खिलाफ जितने घोटालों की खबरें सामने आती जा रही  हैं, उनको यदि जांच एजेंसियां तार्किक परिणति तक पहुंचाने लगंेगी तो लालू परिवार के अनेक सदस्य जांच के दायरे और न्याय के कठघरे में होंगे।

ऐसे में सवाल यह है कि एक ऐसी पार्टी के साथ मिलकर साफ छवि वाले नीतीश, सरकार चलाएंगे जिस दल के अधिकतर प्रमुख नेता जांच के घेरे में हो ? जदयू के सामने यह एक बड़ा सवाल है। यदि सरकार चलाएंगे तो नीतीश की छवि पर उसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। यदि छवि बची रहेगी तो आगे भी नीतीश मुख्यमंत्री बन सकते हैं। यदि वही नहीं रहेगी तो फिर क्या होगा ?

पर इस राजद-जदयू मुठभेड़ में जदयू के ही दो वरिष्ठ नेता नीतीश से अलग राय रखते हैं। बिजेंद्र प्रसाद यादव के बयान का चुनावी राजनीति की नजर में भी खास महत्वपूर्ण है। उधर जदयू सांसद शरद यादव ने भी इस मामले में जदयू की लाइन से अलग राह पकड़ ली है। शरद-बिजेंद्र की लाइन पर जदयू के और कितने विधायक हैं ? यह देखना दिलचस्प होगा। क्या इन दोनों नेताओं पर अपने ‘खास’ मतदाताओं की ओर से कोई दबाव है? क्या उन मतदाताओं की सहानुभूति लालू परिवार के साथ है ?

यदि ऐसा है तब तो बिहारी समाज में उसकी प्रतिक्रिया भी संभव है। न्यूटन का सिद्धांत लागू हो सकता है। इसकी प्रतिक्रिया राजद और कांग्रेस विधायक दलों में भी हो सकती है। फिर इस राज्य की अगली राजनीति कुछ अलग ढंग की होगी।

इसी माहौल में इस बीच यदि बिहार विधानसभा के मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाए तो फिर कैसे नतीजे आएंगे ? मध्यावधि चुनाव की आशंका जाहिर करने का कारण मौजूद हैं। मौजूदा महागठबंधन यदि टूटेगा तो नया गठबंधन बन सकता है। इस बनने-बिगड़ने के क्रम में यह भी संभव है कि कुछ विधायक दलों में भी छोटी-मोटी टूट-फूट हो। फिर तो राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बन सकती है। वैसी स्थिति में विधानसभा के मध्यावधि चुनाव की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है।

यदि चुनाव होगा तो उसके नतीजों से इस बात का पता चल जाएगा कि इस गरीब प्रदेश बिहार के आम मतदातागण भ्रष्टाचार और अपराध को कितना बुरा मानते हैं। या फिर इन दोनों तत्वों को वे राजनीति का अनिवार्य अंग मानते हैं। चुनाव नतीजे के जरिए इस सवाल का भी जवाब मिल जाएगा कि मतदातागण राजनीति और प्रशासन में भ्रष्टाचार को दाल में नमक के बराबर ही बर्दाश्त करेंगे या अतिशय भ्रष्टाचार से भी उन्हें कोई एतराज नहीं है। सामाजिक न्याय, धर्म निरपेक्षता, सुशासन और स्वच्छ छवि के भी सवाल उठंेगे। वे भी मतदाताओं की कसौटी पर होंगे। याद रहे कि इन सभी तत्वों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल और नेतागण बिहार की राजनीति में अलग -अलग अपनी उपस्थिति बनाये हुए हैं।

बिहार में यह सवाल भी उठता रहा है कि आजादी के तत्काल बाद के कुछ सत्ताधारी नेतागण जब लूट रहे थे तो इतना हंगामा क्यों नहीं हुआ ? मीडिया तथा सवर्ण शक्तियां तब क्यों चुप थीं ? अब क्यों हंगामा हो रहा है? पर मौजूदा भ्रष्टाचार पर तो एतराज जदयू को भी है जो पिछड़ा नेतृत्व वाली पार्टी है। पिछड़ा नेतृत्व जरूर है, पर जदयू में विभिन्न सामाजिक जमातें अन्य दलों की अपेक्षा बेहतर अनुपात में उपस्थित हैं।


( 15 जुलाई 2017 के राष्ट्रीय सहारा के ‘हस्तक्षेप’ में प्रकाशित)

रविवार, 9 जुलाई 2017

कहां से चले थे कहां पहुंच गए लालू!

लोकसभा में 2013 में लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान उस विधेयक का विरोध करते हुए लालू प्रसाद ने कहा था कि यदि राजनीतिक दलों ने व्हीप जारी नहीं किया होता तो लोकपाल बिल के पक्ष में पांच प्रतिशत सांसद भी वोट नहीं देते। लोकपाल को नेताओं के लिए फांसीघर मानने वाले लालू प्रसाद ने संभवतः अनेक सांसदों से व्यक्तिगत बातचीत के आधार पर ही ऐसा कहा था। इसीलिए तब सदन में उपस्थित किसी सदस्य ने खड़ा होकर लालू की बात का खंडन नहीं किया। लोकपाल विधेयक के खिलाफ लालू प्रसाद जब बोल रहे थे तो सदन में उपस्थित अधिकतर सांसदों के हाव भाव व प्रतिक्रियाओं से भी यह लग रहा था कि लालू प्रसाद को उन लोगों का भीतरी समर्थन प्राप्त है।

  यानी 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार के प्रति लालू प्रसाद ने जो अपना कठोर रुख प्रदर्शित किया था, 2013 आते आते वह लालू पूरी तरह बदल चुके थे।


    1992 में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में कहा था कि ‘भ्रष्ट और माफिया तत्वों के ऊपर मैंने प्रहार किया है। वे तत्व चूं भी नहीं कर सके। वे मेरे सामने भी नहीं आए। कोई पैरवी भी नहीं आई। पहले के राज में मजाल था कि किसी पर आप एक्शन कर लेते ? वे तत्व पिछले मुख्यमंत्रियों की छाती पर चढ़ जाते थे। जब चीफ मिनिस्टर ही उसमें संलग्न रहेगा तो वह आंख कैसे तरेरेगा ?’


  अपने मुख्य मंत्रित्वकाल के प्रारंभिक दिनों में लालू प्रसाद न सिर्फ सामाजिक अन्याय के मामले में, बल्कि भ्रष्टाचार के मामले में भी कठोर दिखाई पड़ते थे। 1990 के मंडल आरक्षण आंदोलन के दौरान तो लालू ‘मंडल मसीहा’ भी कहलाए। तब बिहार के पिछड़ा वर्ग के अधिकतर लोग उन्हें अपना नेता मानने लगे थे।


पर आज क्या हो रहा है ? आज लालू प्रसाद करीब- करीब हर मामले में यथास्थितिवादी नजर आ रहे हैं। लगता है कि मसीहा भटक गया है। उसी भटकाव की सजा उन्हें आज मिल रही है।


उनकी यथास्थितिवादिता लोकपाल विधेयक पर उनकी टिप्पणी से साफ हो गयी थी। कई कारणों से समय के साथ लालू प्रसाद पूरे पिछड़ोंं के नेता भी अब नहीं रहे।


आज जो कुछ उनके साथ हो रहा है, उसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। खुद  और अपने पूरे परिवार के चारों ओर येन केन प्रकारेण आर्थिक सुरक्षा की ऊंची  और मजबूत दिवाल खड़ी करने के लोभ में उनका राजनीतिक भविष्य खतरे में पड़ गया है। इससे उनके अनेक समर्थकों में भी उदासी है।


 लालू प्रसाद कभी कहा करते थे कि विषमताओं और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ कोई आंदोलन इसलिए नहीं हो पा रहा है क्योंकि पोथी -पतरा उसमें बाधक है। पोथी - पतरा वाले गरीबोंं को समझा देते हैं कि भगवान की वजह से ही तुम गरीब हो।


पर, अब लालू प्रसाद ही नहीं, बल्कि  उनके परिजन भी जब मुकदमों में फंसे तो पोथी-पतरा का विरोध छोड़कर खुद मंदिरों के चक्कर लगाने लगे हैं। पर उन्हें न तो कोर्ट से राहत मिल रही है और न ही मंदिरों से।


खुद लालू प्रसाद नब्बे के दशक में कहा करते थे कि ‘लाख करो चतुराई करम गति टारत नाहीं टरै’ यह सब अब चलने वाला नहीं है। पर अब खुद लालू परिवार पर यह कहावत लागू हो रही है।


लालू प्रसाद ने 1990 में मंडल आरक्षण के विरोधियों के खिलाफ बड़ी हिम्मत से संघर्ष किया था। याद रहे कि आरक्षण एक संवैधानिक प्रावधान था जिसका तब नाहक विरोध हो रहा था। उस संघर्ष में जीत के बाद पूरे पिछड़े वर्ग में लालू प्रसाद की प्रतिष्ठा काफी बढ़ी थी। उतना समर्थन बिहार में किसी अन्य नेता को नहीं मिला था। अनेक लोंगों का यह मानना है कि बाद के वर्षों में यदि लालू प्रसाद अपने परिवार की ‘आर्थिक सुरक्षा के इंतजाम’ के काम में नहीं लग गए होते तो गांव -गांव में उनकी मूर्तियां लगतीं। हालांकि अब भी उनके समर्थकों की कमी नहीं हैं। पर पहले जैसी बात नहीं है।


भ्रष्टाचार के मामले में किसी नेता के खिलाफ जब कोई कानूनी कार्रवाई होती है तो वह आरोप लगा देता है कि राजनीतिक बदले की भावना से ऐसा हो रहा है। लालू प्रसाद इसके साथ यह भी कह रहे हैं कि यह पिछड़ों पर हमला है।


पर यह तर्क शायद ही चले। पहले भी नहीं चला था। चारा घोटाले में जब 1997 में पहली बार लालू प्रसाद जेल गए तो भी यही तर्क उनकी ओर से दिया गया था। पर 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू के दल का बहुमत समाप्त हो गया था। जबकि 1995 में उन्हें बहुमत मिला था।


अब तो उन्हें कोर्ट का ही सहारा होगा। इसलिए कि लालू परिवार को राजनीतिक मदद मिलती नहीं दिख रही है जैसी मदद मुलायम सिंह यादव तथा इस देश के  कुछ दूसरे नेताओं को मिलती रही। देखना होगा कि कोर्ट से लालू प्रसाद और उनके परिजनों को किस तरह का न्याय मिलता है।


वैसे लालू परिवार पर आरोपों की लंबी सूची देखकर यह जरूर कहा जा सकता है कि परिवार का राजनीतिक भविष्य अभी तो अनिश्चित नजर आ रहा है। बाद में भले जो हो!


हां, यदि इसी तरह के आरोपों से घिरे देश के किन्हीं भाजपा नेताओं पर भी जब केंद्रीय एजेंसियां इसी तरह की कार्रवाई नहीं करंेगी तो वह दोहरा मापदंड भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से जरूर महंगा पड़ सकता है। 


शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

अपराध के खिलाफ भी हो सर्जिकल स्ट्राइक

झारखंड से एक अच्छी खबर आई है। मीट सप्लायर की हत्या के आरोप में भाजपा सरकार की पुलिस ने एक भाजपा नेता को गिरफ्तार कर लिया  है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कड़े रुख के बाद यह कदम उठाया गया है। बिगड़े सांप्रदायिक माहौल में ऐसी गिरफ्तारी शांतिप्रिय लोगों को सुकून देने वाली खबर है। पर लोगों को पूरा सुकून तभी मिलेगा जब आरोपी के खिलाफ ईमानदारी से सबूत जुटाए जाएं और अदालत से यथाशीघ्र उसे वाजिब सजा भी दिलवा दी  जाए।

याद रहे कि गत 29 जून को रामगढ़ में बीफ के शक में भीड़ ने मांस से भरे वैन को जला दिया। ड्राइवर अलीमुद्दीन की पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी। इस तरह की छिटपुट खबरें पूरे देश से आती रहती हंै। कुछ हत्याओं के पीछे ‘भावनाएं’ रहती हैं तो कुछ अन्य के पीछे सिर्फ आपराधिक प्रवृत्ति। कुछ घटनाओं में दोनों तत्व एक साथ विराजमान होते हैं।

वैसे अधिकतर मामलों में सांप्रदायिक दंगाइयों का मनोबल भी इसीलिए बढ़ा रहता है क्योंकि वे समझते हैं कि उन्हें अंततः कोई न कोई सत्ताधारी बचा ही लेगा। कुछ मामलों में ऐसे दंगाइयों की इच्छा पूरी हो भी जाती है। कुछ अन्य मामलों में उन्हें सजा भी मिल जाती है।

जिन मामलों में ऐसे जघन्य अपराधी सजा से बच जाते हैं, उसके पीछे इस देश की लचर कानून-व्यवस्था भी है। समस्याओं के अनुपात में न्यायिक प्रक्रिया और प्रणाली भी नाकाफी साबित हो रही हैं।

राजनीति के अपराधीकरण और सांप्रदायीकरण के इस दौर में अनेक मामलों में तरह -तरह के नेतागण तरह -तरह के रंगों के सांप्रदायिक तत्वों को सजा से बचाने की कोशिश करते रहते हैं। वैसे इस देश में जब कभी जहां कानून का शासन कड़ाई से लागू करने की कोशिश हुई, वहां हर तरह के अपराधी चूहों के बिल में छिप गए। अपवादों की बात और है।

सन् 2006 -10 तथा बाद के भी कुछ वर्षों में बिहार में ऐसा ही कुछ हुआ था। कानून -व्यवस्था की मशीनरी तब अपना काम कर रही थी। तब न सिर्फ सामान्य अपराधियों और माफियाओं की जान सांसत मंे थी, बल्कि सांप्रदायिक उन्मादी और माओवादियों की सक्रियता भी घटी थी।

यदि झारखंड की ताजा गिरफ्तारी की तरह ही पूरे देश में ऐसे लोगों को उनकी उचित जगह पर पहुंचा दिया जाए तो सन 2006-10 वाली बिहार की स्थिति पूरे देश में कायम हो सकती है। हालांकि यहां यह कहना जरूरी है कि बिहार में भी अब 2006-10 वाली स्थिति नहीं रह गयी है। चाहे अपराध के आंकड़े जो कुछ कह रहे हों।

दरअसल कानून-व्यवस्था को लेकर आजादी के बाद से ही लापरवाही बरती गयी। हालांकि उत्तराधिकार के रूप में हमें अंग्रेजों की दी हुई एक चुश्त सरकारी मशीनरी मिली थी।

आजादी के बाद कुछ सत्ताधारी नेताओं के स्वार्थ और लापरवाही भी सामने आने लगी। इसके बावजूद जब तक उस चुस्त मशीनरी को काम करने दिया गया तब तक तो कानून -व्यवस्था लगभग ठीक- ठाक ही रही। पर जब पुरानी पीढ़ी के आदर्शवादी नेता और कार्यकर्ता एक- एक कर गुजरने लगे तो मशीनरी को भी धीरे -धीरे प्रदूषित कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के लिए सरकार को कई साल पहले निर्देश दे रखा है। पर वह कहीं लागू नहीं हो रहा है। ऐसी घटनाओं से चिंचित प्रधानमंत्री पुलिस सुधार को लागू करने का प्रयोग करने की हिम्मत जुटाएं तो शायद उन्हें सांप्रदायिक और उन्मादी तत्वों के साथ -साथ आर्थिक अपराधियों से भी लड़ने में सुविधा होगी।
वैसे आजादी के तत्काल बाद की कुछ घटनाओं को यहां नमूने के तौर पर गिनाना मौजूं होगा। उन घटनाओं के बारे में जान कर यह लगता है कि तत्कालीन सत्ताधारी नेताओं ने अपनी कमजोरी दिखाई थी। यदि तब ताकतवर अपराधियों के प्रति भी बेरहमी दिखाई गयी होती तो शायद इस देश में कानून -व्यवस्था की स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती जितनी आज बिगड़ी हुई है। 

आज तो देश के किसी भी हिस्से में सड़क पर किसी निजी गाड़ी में थोड़ी भी खरोंच लग जाने पर भी लोग एक-दूसरे को मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें कानून का भय नहीं है। विजय माल्या ही नहीं, बल्कि सड़क पर किसी को मारने पर उतारू व्यक्ति भी यह समझ रहा है कि उन्हें अंततः कोई न कोई सत्ताधारी व्यक्ति बचा ही लेगा। या फिर गवाहों को खरीद कर या फिर जांच अधिकारी को ‘खुश’ करके वह सजा से बच जाएगा।

इस बीच दुनिया के कई सभ्य देशों से अलग-तरह की कहानियां आती रहती हैं। किसी देश के राष्ट्रपति की अल्पवयस्क बेटी शराब पीने के आरोप में दंडित हुई तो कहीं प्रधानमंत्री का बेटा किसी अन्य अपराध में आरोपित हुआ। पर इस देश में जब भी कोई नेता किसी जघन्य अपराध में भी जांच एजेंसी की गिरफ्त में आता है तो वह तथ्यों पर बात करने के बजाए राजनीतिक और भावनात्मक बयान देने लगता है। जोर -जोर से कहने लगता है कि उसके खिलाफ बदले की भावना से काम हो रहा है। फिर सरकार बदलते ही उस पर से केस उठा लिए जाते हैं या कमजोर कर दिए जाते हैं। अपवादों की बात और है।

नतीजतन इस देश में अन्य तरह के अपराधों में लिप्त लोगों का भी मनोबल बढ़ जाता है। ताजा आंकड़ों के अनुसार ंइस देश में सिर्फ 45 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा मिल पाती है। जबकि अमेरिका में यह प्रतिशत 93 और जापान में 99 है।

आजादी के तत्काल बाद के सत्ताधारी नेतागण शुरुआती दौर में ही इस मामले में कठोर रुख अपना सकते थे। पर उन्होंने कैसा रुख अपनाया, उसके कम से कम तीन उदाहरण यहां पेश हंै।

पहली घटना बिहार से। पचास के दशक की बात है। एक सत्ताधारी विधायक सीवान से सड़क मार्ग से पटना जा रहे थे। रास्ते में दिघवारा पड़ता है जहां रेलवे क्राॅसिंग है। ट्रेन आने वाली थी, इसलिए फाटक बंद था। नेता जी काफी जल्दीबाजी में थे। उन्होंने ट्रेन आने से पहले ही फाटक खोल देने का आदेश दिया। पर गेटमैन ने उनकी बात नहीं मानी। जब फाटक खुला तो गेटमैन को विधायक ने पास बुलाया। उसे जबरन अपनी गाड़ी में बैठा लिया। उसे पीटते हुए कुछ किलोमीटर ले गये। बाद में उसे एक सूनसान स्थान में अपनी कार से उतार दिया। उस घटना की तब बड़ी चर्चा थी। पर उस नेता जी का कुछ नहीं बिगड़ा। अन्य दबंग नेताओं का उससे हौसला बढ़ा।

आजादी के बाद की ही एक दूसरी घटना के तहत एक अन्य नेता जी जान ही चली गयी। बड़े कद नेता जी दक्षिण बिहार से पटना आ रहे थे। उन दिनों गांधी जी पटना में ही थे। गांधी जी से उनकी मुलाकात तय थी। रास्ते में एक स्थान पर रेलवे क्राॅसिंग का फाटक बंद था। गोरखा सिपाही राइफल के साथ पहरे पर था। नेता जी ने उसे फाटक खोलने का आदेश दिया। वह नहीं माना। नेता जी ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दी। गुस्से में सिपाही ने उन्हें गोली मार दी।

पचास के दशक की तीसरी घटना दिल्ली की है। दक्षिण भारत के एक केंद्रीय मंत्री के बिगड़ैल पुत्र ने दिल्ली के पास के एक राज्य मंे एक हत्या कर दी थी। वह गिरफ्तार हो गया। केंद्रीय मंत्री मदद के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के यहां गये। उन्होंने मदद से इनकार कर दिया। फिर वह मंत्री एक अन्य ताकतवर केंद्रीय मंत्री के पास गये। वह संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के गहरे दोस्त थे। दोनों में बातचीत हुई। मंत्री पुत्र को जमानत दिलवाकर मुख्यमंत्री ने उस लड़के को अपने मित्र के यहां दिल्ली भिजवा दिया। उसी मंत्री ने उस लड़के का तुरंत पासपोर्ट भी बनवा दिया।  उस मंत्री ने उस बेटे के पिता को बुलाया। पासपोर्ट के साथ उस बेटे को उसके पिता को सिपुर्द करते हुए कहा कि इसे हमेशा के लिए विदेश भिजवा दीजिए। ऐसा ही हुआ।

अब बताइए कि कानून-व्यवस्था पर इन घटनाओं का धीरे -धीरे कैसा और कितना असर पड़ा होगा!
समय बीतने और राजनीति में भारी गिरावट आने के साथ अब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की हार्दिक अपील के बावजूद ऐसे अपराध भी नहीं रुक रहे हैं जिससे देश के ताने -बाने के बिगड़ने का खतरा है। दरअसल प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ मिलकर तरह -तरह के अपराधियों के खिलाफ भी सर्जिकल स्ट्राइक करवानी होगी। 
( इस लेख का संपादित अंश 7 जुलाई 2017 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)