झारखंड से एक अच्छी खबर आई है। मीट सप्लायर की हत्या के आरोप में भाजपा सरकार की पुलिस ने एक भाजपा नेता को गिरफ्तार कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कड़े रुख के बाद यह कदम उठाया गया है। बिगड़े सांप्रदायिक माहौल में ऐसी गिरफ्तारी शांतिप्रिय लोगों को सुकून देने वाली खबर है। पर लोगों को पूरा सुकून तभी मिलेगा जब आरोपी के खिलाफ ईमानदारी से सबूत जुटाए जाएं और अदालत से यथाशीघ्र उसे वाजिब सजा भी दिलवा दी जाए।
याद रहे कि गत 29 जून को रामगढ़ में बीफ के शक में भीड़ ने मांस से भरे वैन को जला दिया। ड्राइवर अलीमुद्दीन की पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी। इस तरह की छिटपुट खबरें पूरे देश से आती रहती हंै। कुछ हत्याओं के पीछे ‘भावनाएं’ रहती हैं तो कुछ अन्य के पीछे सिर्फ आपराधिक प्रवृत्ति। कुछ घटनाओं में दोनों तत्व एक साथ विराजमान होते हैं।
वैसे अधिकतर मामलों में सांप्रदायिक दंगाइयों का मनोबल भी इसीलिए बढ़ा रहता है क्योंकि वे समझते हैं कि उन्हें अंततः कोई न कोई सत्ताधारी बचा ही लेगा। कुछ मामलों में ऐसे दंगाइयों की इच्छा पूरी हो भी जाती है। कुछ अन्य मामलों में उन्हें सजा भी मिल जाती है।
जिन मामलों में ऐसे जघन्य अपराधी सजा से बच जाते हैं, उसके पीछे इस देश की लचर कानून-व्यवस्था भी है। समस्याओं के अनुपात में न्यायिक प्रक्रिया और प्रणाली भी नाकाफी साबित हो रही हैं।
राजनीति के अपराधीकरण और सांप्रदायीकरण के इस दौर में अनेक मामलों में तरह -तरह के नेतागण तरह -तरह के रंगों के सांप्रदायिक तत्वों को सजा से बचाने की कोशिश करते रहते हैं। वैसे इस देश में जब कभी जहां कानून का शासन कड़ाई से लागू करने की कोशिश हुई, वहां हर तरह के अपराधी चूहों के बिल में छिप गए। अपवादों की बात और है।
सन् 2006 -10 तथा बाद के भी कुछ वर्षों में बिहार में ऐसा ही कुछ हुआ था। कानून -व्यवस्था की मशीनरी तब अपना काम कर रही थी। तब न सिर्फ सामान्य अपराधियों और माफियाओं की जान सांसत मंे थी, बल्कि सांप्रदायिक उन्मादी और माओवादियों की सक्रियता भी घटी थी।
यदि झारखंड की ताजा गिरफ्तारी की तरह ही पूरे देश में ऐसे लोगों को उनकी उचित जगह पर पहुंचा दिया जाए तो सन 2006-10 वाली बिहार की स्थिति पूरे देश में कायम हो सकती है। हालांकि यहां यह कहना जरूरी है कि बिहार में भी अब 2006-10 वाली स्थिति नहीं रह गयी है। चाहे अपराध के आंकड़े जो कुछ कह रहे हों।
दरअसल कानून-व्यवस्था को लेकर आजादी के बाद से ही लापरवाही बरती गयी। हालांकि उत्तराधिकार के रूप में हमें अंग्रेजों की दी हुई एक चुश्त सरकारी मशीनरी मिली थी।
आजादी के बाद कुछ सत्ताधारी नेताओं के स्वार्थ और लापरवाही भी सामने आने लगी। इसके बावजूद जब तक उस चुस्त मशीनरी को काम करने दिया गया तब तक तो कानून -व्यवस्था लगभग ठीक- ठाक ही रही। पर जब पुरानी पीढ़ी के आदर्शवादी नेता और कार्यकर्ता एक- एक कर गुजरने लगे तो मशीनरी को भी धीरे -धीरे प्रदूषित कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के लिए सरकार को कई साल पहले निर्देश दे रखा है। पर वह कहीं लागू नहीं हो रहा है। ऐसी घटनाओं से चिंचित प्रधानमंत्री पुलिस सुधार को लागू करने का प्रयोग करने की हिम्मत जुटाएं तो शायद उन्हें सांप्रदायिक और उन्मादी तत्वों के साथ -साथ आर्थिक अपराधियों से भी लड़ने में सुविधा होगी।
वैसे आजादी के तत्काल बाद की कुछ घटनाओं को यहां नमूने के तौर पर गिनाना मौजूं होगा। उन घटनाओं के बारे में जान कर यह लगता है कि तत्कालीन सत्ताधारी नेताओं ने अपनी कमजोरी दिखाई थी। यदि तब ताकतवर अपराधियों के प्रति भी बेरहमी दिखाई गयी होती तो शायद इस देश में कानून -व्यवस्था की स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती जितनी आज बिगड़ी हुई है।
आज तो देश के किसी भी हिस्से में सड़क पर किसी निजी गाड़ी में थोड़ी भी खरोंच लग जाने पर भी लोग एक-दूसरे को मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें कानून का भय नहीं है। विजय माल्या ही नहीं, बल्कि सड़क पर किसी को मारने पर उतारू व्यक्ति भी यह समझ रहा है कि उन्हें अंततः कोई न कोई सत्ताधारी व्यक्ति बचा ही लेगा। या फिर गवाहों को खरीद कर या फिर जांच अधिकारी को ‘खुश’ करके वह सजा से बच जाएगा।
इस बीच दुनिया के कई सभ्य देशों से अलग-तरह की कहानियां आती रहती हैं। किसी देश के राष्ट्रपति की अल्पवयस्क बेटी शराब पीने के आरोप में दंडित हुई तो कहीं प्रधानमंत्री का बेटा किसी अन्य अपराध में आरोपित हुआ। पर इस देश में जब भी कोई नेता किसी जघन्य अपराध में भी जांच एजेंसी की गिरफ्त में आता है तो वह तथ्यों पर बात करने के बजाए राजनीतिक और भावनात्मक बयान देने लगता है। जोर -जोर से कहने लगता है कि उसके खिलाफ बदले की भावना से काम हो रहा है। फिर सरकार बदलते ही उस पर से केस उठा लिए जाते हैं या कमजोर कर दिए जाते हैं। अपवादों की बात और है।
नतीजतन इस देश में अन्य तरह के अपराधों में लिप्त लोगों का भी मनोबल बढ़ जाता है। ताजा आंकड़ों के अनुसार ंइस देश में सिर्फ 45 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा मिल पाती है। जबकि अमेरिका में यह प्रतिशत 93 और जापान में 99 है।
आजादी के तत्काल बाद के सत्ताधारी नेतागण शुरुआती दौर में ही इस मामले में कठोर रुख अपना सकते थे। पर उन्होंने कैसा रुख अपनाया, उसके कम से कम तीन उदाहरण यहां पेश हंै।
पहली घटना बिहार से। पचास के दशक की बात है। एक सत्ताधारी विधायक सीवान से सड़क मार्ग से पटना जा रहे थे। रास्ते में दिघवारा पड़ता है जहां रेलवे क्राॅसिंग है। ट्रेन आने वाली थी, इसलिए फाटक बंद था। नेता जी काफी जल्दीबाजी में थे। उन्होंने ट्रेन आने से पहले ही फाटक खोल देने का आदेश दिया। पर गेटमैन ने उनकी बात नहीं मानी। जब फाटक खुला तो गेटमैन को विधायक ने पास बुलाया। उसे जबरन अपनी गाड़ी में बैठा लिया। उसे पीटते हुए कुछ किलोमीटर ले गये। बाद में उसे एक सूनसान स्थान में अपनी कार से उतार दिया। उस घटना की तब बड़ी चर्चा थी। पर उस नेता जी का कुछ नहीं बिगड़ा। अन्य दबंग नेताओं का उससे हौसला बढ़ा।
आजादी के बाद की ही एक दूसरी घटना के तहत एक अन्य नेता जी जान ही चली गयी। बड़े कद नेता जी दक्षिण बिहार से पटना आ रहे थे। उन दिनों गांधी जी पटना में ही थे। गांधी जी से उनकी मुलाकात तय थी। रास्ते में एक स्थान पर रेलवे क्राॅसिंग का फाटक बंद था। गोरखा सिपाही राइफल के साथ पहरे पर था। नेता जी ने उसे फाटक खोलने का आदेश दिया। वह नहीं माना। नेता जी ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दी। गुस्से में सिपाही ने उन्हें गोली मार दी।
पचास के दशक की तीसरी घटना दिल्ली की है। दक्षिण भारत के एक केंद्रीय मंत्री के बिगड़ैल पुत्र ने दिल्ली के पास के एक राज्य मंे एक हत्या कर दी थी। वह गिरफ्तार हो गया। केंद्रीय मंत्री मदद के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के यहां गये। उन्होंने मदद से इनकार कर दिया। फिर वह मंत्री एक अन्य ताकतवर केंद्रीय मंत्री के पास गये। वह संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के गहरे दोस्त थे। दोनों में बातचीत हुई। मंत्री पुत्र को जमानत दिलवाकर मुख्यमंत्री ने उस लड़के को अपने मित्र के यहां दिल्ली भिजवा दिया। उसी मंत्री ने उस लड़के का तुरंत पासपोर्ट भी बनवा दिया। उस मंत्री ने उस बेटे के पिता को बुलाया। पासपोर्ट के साथ उस बेटे को उसके पिता को सिपुर्द करते हुए कहा कि इसे हमेशा के लिए विदेश भिजवा दीजिए। ऐसा ही हुआ।
अब बताइए कि कानून-व्यवस्था पर इन घटनाओं का धीरे -धीरे कैसा और कितना असर पड़ा होगा!
समय बीतने और राजनीति में भारी गिरावट आने के साथ अब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की हार्दिक अपील के बावजूद ऐसे अपराध भी नहीं रुक रहे हैं जिससे देश के ताने -बाने के बिगड़ने का खतरा है। दरअसल प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ मिलकर तरह -तरह के अपराधियों के खिलाफ भी सर्जिकल स्ट्राइक करवानी होगी।
याद रहे कि गत 29 जून को रामगढ़ में बीफ के शक में भीड़ ने मांस से भरे वैन को जला दिया। ड्राइवर अलीमुद्दीन की पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी। इस तरह की छिटपुट खबरें पूरे देश से आती रहती हंै। कुछ हत्याओं के पीछे ‘भावनाएं’ रहती हैं तो कुछ अन्य के पीछे सिर्फ आपराधिक प्रवृत्ति। कुछ घटनाओं में दोनों तत्व एक साथ विराजमान होते हैं।
वैसे अधिकतर मामलों में सांप्रदायिक दंगाइयों का मनोबल भी इसीलिए बढ़ा रहता है क्योंकि वे समझते हैं कि उन्हें अंततः कोई न कोई सत्ताधारी बचा ही लेगा। कुछ मामलों में ऐसे दंगाइयों की इच्छा पूरी हो भी जाती है। कुछ अन्य मामलों में उन्हें सजा भी मिल जाती है।
जिन मामलों में ऐसे जघन्य अपराधी सजा से बच जाते हैं, उसके पीछे इस देश की लचर कानून-व्यवस्था भी है। समस्याओं के अनुपात में न्यायिक प्रक्रिया और प्रणाली भी नाकाफी साबित हो रही हैं।
राजनीति के अपराधीकरण और सांप्रदायीकरण के इस दौर में अनेक मामलों में तरह -तरह के नेतागण तरह -तरह के रंगों के सांप्रदायिक तत्वों को सजा से बचाने की कोशिश करते रहते हैं। वैसे इस देश में जब कभी जहां कानून का शासन कड़ाई से लागू करने की कोशिश हुई, वहां हर तरह के अपराधी चूहों के बिल में छिप गए। अपवादों की बात और है।
सन् 2006 -10 तथा बाद के भी कुछ वर्षों में बिहार में ऐसा ही कुछ हुआ था। कानून -व्यवस्था की मशीनरी तब अपना काम कर रही थी। तब न सिर्फ सामान्य अपराधियों और माफियाओं की जान सांसत मंे थी, बल्कि सांप्रदायिक उन्मादी और माओवादियों की सक्रियता भी घटी थी।
यदि झारखंड की ताजा गिरफ्तारी की तरह ही पूरे देश में ऐसे लोगों को उनकी उचित जगह पर पहुंचा दिया जाए तो सन 2006-10 वाली बिहार की स्थिति पूरे देश में कायम हो सकती है। हालांकि यहां यह कहना जरूरी है कि बिहार में भी अब 2006-10 वाली स्थिति नहीं रह गयी है। चाहे अपराध के आंकड़े जो कुछ कह रहे हों।
दरअसल कानून-व्यवस्था को लेकर आजादी के बाद से ही लापरवाही बरती गयी। हालांकि उत्तराधिकार के रूप में हमें अंग्रेजों की दी हुई एक चुश्त सरकारी मशीनरी मिली थी।
आजादी के बाद कुछ सत्ताधारी नेताओं के स्वार्थ और लापरवाही भी सामने आने लगी। इसके बावजूद जब तक उस चुस्त मशीनरी को काम करने दिया गया तब तक तो कानून -व्यवस्था लगभग ठीक- ठाक ही रही। पर जब पुरानी पीढ़ी के आदर्शवादी नेता और कार्यकर्ता एक- एक कर गुजरने लगे तो मशीनरी को भी धीरे -धीरे प्रदूषित कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार के लिए सरकार को कई साल पहले निर्देश दे रखा है। पर वह कहीं लागू नहीं हो रहा है। ऐसी घटनाओं से चिंचित प्रधानमंत्री पुलिस सुधार को लागू करने का प्रयोग करने की हिम्मत जुटाएं तो शायद उन्हें सांप्रदायिक और उन्मादी तत्वों के साथ -साथ आर्थिक अपराधियों से भी लड़ने में सुविधा होगी।
वैसे आजादी के तत्काल बाद की कुछ घटनाओं को यहां नमूने के तौर पर गिनाना मौजूं होगा। उन घटनाओं के बारे में जान कर यह लगता है कि तत्कालीन सत्ताधारी नेताओं ने अपनी कमजोरी दिखाई थी। यदि तब ताकतवर अपराधियों के प्रति भी बेरहमी दिखाई गयी होती तो शायद इस देश में कानून -व्यवस्था की स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती जितनी आज बिगड़ी हुई है।
आज तो देश के किसी भी हिस्से में सड़क पर किसी निजी गाड़ी में थोड़ी भी खरोंच लग जाने पर भी लोग एक-दूसरे को मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें कानून का भय नहीं है। विजय माल्या ही नहीं, बल्कि सड़क पर किसी को मारने पर उतारू व्यक्ति भी यह समझ रहा है कि उन्हें अंततः कोई न कोई सत्ताधारी व्यक्ति बचा ही लेगा। या फिर गवाहों को खरीद कर या फिर जांच अधिकारी को ‘खुश’ करके वह सजा से बच जाएगा।
इस बीच दुनिया के कई सभ्य देशों से अलग-तरह की कहानियां आती रहती हैं। किसी देश के राष्ट्रपति की अल्पवयस्क बेटी शराब पीने के आरोप में दंडित हुई तो कहीं प्रधानमंत्री का बेटा किसी अन्य अपराध में आरोपित हुआ। पर इस देश में जब भी कोई नेता किसी जघन्य अपराध में भी जांच एजेंसी की गिरफ्त में आता है तो वह तथ्यों पर बात करने के बजाए राजनीतिक और भावनात्मक बयान देने लगता है। जोर -जोर से कहने लगता है कि उसके खिलाफ बदले की भावना से काम हो रहा है। फिर सरकार बदलते ही उस पर से केस उठा लिए जाते हैं या कमजोर कर दिए जाते हैं। अपवादों की बात और है।
नतीजतन इस देश में अन्य तरह के अपराधों में लिप्त लोगों का भी मनोबल बढ़ जाता है। ताजा आंकड़ों के अनुसार ंइस देश में सिर्फ 45 प्रतिशत आरोपितों को ही अदालतों से सजा मिल पाती है। जबकि अमेरिका में यह प्रतिशत 93 और जापान में 99 है।
आजादी के तत्काल बाद के सत्ताधारी नेतागण शुरुआती दौर में ही इस मामले में कठोर रुख अपना सकते थे। पर उन्होंने कैसा रुख अपनाया, उसके कम से कम तीन उदाहरण यहां पेश हंै।
पहली घटना बिहार से। पचास के दशक की बात है। एक सत्ताधारी विधायक सीवान से सड़क मार्ग से पटना जा रहे थे। रास्ते में दिघवारा पड़ता है जहां रेलवे क्राॅसिंग है। ट्रेन आने वाली थी, इसलिए फाटक बंद था। नेता जी काफी जल्दीबाजी में थे। उन्होंने ट्रेन आने से पहले ही फाटक खोल देने का आदेश दिया। पर गेटमैन ने उनकी बात नहीं मानी। जब फाटक खुला तो गेटमैन को विधायक ने पास बुलाया। उसे जबरन अपनी गाड़ी में बैठा लिया। उसे पीटते हुए कुछ किलोमीटर ले गये। बाद में उसे एक सूनसान स्थान में अपनी कार से उतार दिया। उस घटना की तब बड़ी चर्चा थी। पर उस नेता जी का कुछ नहीं बिगड़ा। अन्य दबंग नेताओं का उससे हौसला बढ़ा।
आजादी के बाद की ही एक दूसरी घटना के तहत एक अन्य नेता जी जान ही चली गयी। बड़े कद नेता जी दक्षिण बिहार से पटना आ रहे थे। उन दिनों गांधी जी पटना में ही थे। गांधी जी से उनकी मुलाकात तय थी। रास्ते में एक स्थान पर रेलवे क्राॅसिंग का फाटक बंद था। गोरखा सिपाही राइफल के साथ पहरे पर था। नेता जी ने उसे फाटक खोलने का आदेश दिया। वह नहीं माना। नेता जी ने उसे एक थप्पड़ रसीद कर दी। गुस्से में सिपाही ने उन्हें गोली मार दी।
पचास के दशक की तीसरी घटना दिल्ली की है। दक्षिण भारत के एक केंद्रीय मंत्री के बिगड़ैल पुत्र ने दिल्ली के पास के एक राज्य मंे एक हत्या कर दी थी। वह गिरफ्तार हो गया। केंद्रीय मंत्री मदद के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के यहां गये। उन्होंने मदद से इनकार कर दिया। फिर वह मंत्री एक अन्य ताकतवर केंद्रीय मंत्री के पास गये। वह संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री के गहरे दोस्त थे। दोनों में बातचीत हुई। मंत्री पुत्र को जमानत दिलवाकर मुख्यमंत्री ने उस लड़के को अपने मित्र के यहां दिल्ली भिजवा दिया। उसी मंत्री ने उस लड़के का तुरंत पासपोर्ट भी बनवा दिया। उस मंत्री ने उस बेटे के पिता को बुलाया। पासपोर्ट के साथ उस बेटे को उसके पिता को सिपुर्द करते हुए कहा कि इसे हमेशा के लिए विदेश भिजवा दीजिए। ऐसा ही हुआ।
अब बताइए कि कानून-व्यवस्था पर इन घटनाओं का धीरे -धीरे कैसा और कितना असर पड़ा होगा!
समय बीतने और राजनीति में भारी गिरावट आने के साथ अब स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की हार्दिक अपील के बावजूद ऐसे अपराध भी नहीं रुक रहे हैं जिससे देश के ताने -बाने के बिगड़ने का खतरा है। दरअसल प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ मिलकर तरह -तरह के अपराधियों के खिलाफ भी सर्जिकल स्ट्राइक करवानी होगी।
( इस लेख का संपादित अंश 7 जुलाई 2017 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)
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