रामानन्द तिवारी की पुण्य तिथि पर
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(1906--1980)
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बिहार के गृह मंत्री रहे रामानन्द तिवारी दूध
बेच कर परिवार चलाते थे
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‘द हिन्दू’ के पटना स्थित विशेष संवाददाता रमेश उपाध्याय ने अपने अखबार में लिखा था कि पूर्व कैबिनेट मंत्री रामानन्द तिवारी दूध बेच कर परिवार चला रहे हैं।
खैर,इन पंक्तियों का लेखक तो इस बात का खुद गवाह ही है कि तिवारी जी की गाय के दूध का एक हिस्सा उनके पड़ोसी(आर.ब्लाॅक,पटना)व कांग्रेस एम.एल.सी.कुमार झा के घर जाता था।
मैं अक्सर तिवारी के आवास के बरामदे में बैठकर उनकी बातें सुना करता था।
उन्हीं दिनों एक दिन जो बातें मैंने सुनीं ,उसके बाद तिवारी जी के प्रति मेरा आदर काफी बढ़ गया।
वह बातचीत तब के संसोपा विधायक वीर सिंह (चनपटिया-1969-72)और तिवारी जी के बीच हो रही थी।
पहले इसकी पृष्ठभूमि बता दूं।
सन् 1970 के सितंबर की घटना है।रामानन्द तिवारी के नेतृत्व में समाजवादियों ने भूमि संघर्ष के सिलसिले में चंपारण जिले के लालगढ़ फार्म पर सत्याग्रह किया था। पर, पुलिस बल की मौजूदगी में लठैतों की क्रूर जमात ने सत्याग्रहियों पर हमला कर दिया। मझौलिया चीनी मिल के मालिक की इस (हदबंदी से फाजिल)जमीन पर अहिंसक सत्याग्रह के सिलसिले में रामानन्द तिवारी पर जानलेवा हमला किया गया। कुछ सत्याग्रहियों ने यदि तिवारी जी को अपने शरीर से ढंक नहीं लिया होता तो उनकी मौत निश्चित थी। उनको बचाने के सिलसिले में रोगी महतो की जान चली गई और कई कार्यकर्ता घायल हो गये। खुद रामानन्द तिवारी को विमान से बेतिया अस्पताल से पटना पहंुचाया गया जहां उन्हें इलाज के लिए लंबे समय तक अस्पताल में रहना पड़ा।
वीर सिंह, रोगी महतो हत्याकांड के मुकदमे में समझौता कर लेने का आग्रह तिवारी जी से उस दिन कर रहे थे। वीर सिंह की बातें सुनकर तिवारी जी की आंखों में आंसू आ गये। उन्होंने रुंधे गले से भोजपुरी में कहा कि ‘हम रोगी महतो के लास पर सउदा ना करब।’ वीर सिंह मन मसोस कर चले गये।
उस सत्याग्रह पर क्रूर हिंसा का वर्णन साप्ताहिक ‘दिनमान’ ने तब बड़े मार्मिक ढंग से किया था। बुरी तरह घायल तिवारी जी ने अस्पताल में कराहती आवाज में संवाददाता से कहा था, ‘सात तारीख के सात बजे सुबह लालगढ़ फारम में पहुंचली। करीब पांच -छह हजार आदमी साथ में रहन। तीन गो हल, 10-15 कुदाल, 25-30 खुरपी आउर दू अढ़ाई सौ महिला। लोग के समझा देनी कि पत्थर -ढेला लेके ना चले के चाहीं। हिनसा न करे के होई। नहीं तो हम अपन पथ से भटक जायब। हिनसा से समाज बदली ना। अगर बदली भी तो जे हिंसा के नेता होला ओकर कलपना हिंसा से पूरा ना होला। गांधी जी इहे चंपारण में सत्याग्रह किये थे और गांधी जी के रास्ता से ही समाज बदली।’
तिवारी जी ने कहा कि ‘फार्म पूर्व-पश्चिम लंबा था। पूर्व में भी ईंख और पश्चिम में भी ईंख लगी थी। बीचों-बीच कोई 50-60 बीघा जमीन परती थी। हम हल ले के खेत में चले। हमारे पीछे दो हल और था। अन्य सत्याग्रही मर्द - औरत कुदाल -खुरपी से खेत कोड़ने लगे। हमसे दक्षिण उत्तर की तरफ बीस -पच्चीस आदमी करीब दो सौ गज की दूरी पर लाठी, भाला और गंड़ासा लेकर खड़े थे। पुलिस के लोग भी थे।
हल चलने लगा तो पुलिस कोई बीस कदम की दूरी पर आकर खड़ी हो गई और तभी सीटी की आवाज आई। ईंख के खेत से चालीस- पचास आदमी मारो-मारो कहते हुए निकले। हम लोग अपने लोगों को न भागने को कहते हुए और आगे बढ़ गये। मुझको पहली लाठी दायें कंधे पर, दूसरी दायें पैर पर और तीसरी बायें हाथ पर लगी। मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। मुझको नंद लाल, लक्ष्मण कलीम हुदा आदि कार्यकर्ताओं ने ढांप लिया। और बाद में पता चला कि एक फरसा मेरे सिर पर भी मारा था।’
------------------- ये तिवारी जी थे कौन ?
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तिवारी जी का जन्म उन्हीं के शब्दों में ‘एक कंगाल द्विज’ के घर हुआ था।
वे बिहार के अविभाजित शाहाबाद जिले के मूल निवासी थे।
उनके होश सम्भालने से पहले ही उन पर से पिता का साया उठ गया।
उनकी मां ने किसी तरह उन्हें बड़ा किया।
पहले तो तिवारी जी रोजी-रोटी की तलाश में कलकत्ता गये।
पर, उन्हें वहां काफी कष्ट उठाना पड़ा तो वे लौट आये।
उन्हें हाॅकर, पानी पांड़े और कूक के भी काम करने पड़े।
वे पुलिस में भर्ती हो गये।
सन 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये।
उन्होंने अपने कुछ साथी सिपाहियों को संगठित किया और आजादी के सिपाहियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।
तिवारी जी गिरफ्तार कर लिये गये।
हजारीबाग जेल भेज दिये गये।
जेल में उनकी जयप्रकाश नारायण से मुलाकात हुई।
जेपी से प्रभावित होने की घटना के बारे में तिवारी जी ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक को बताया था। उन्होंने कहा कि दूसरे बड़े नेता जेल में अलग खाना बनवाते थे।
पर, जेपी जेल में अपने साथियों के साथ ही खाते और रहते थे।
इसी बात ने तिवारी जी को जेपी की ओर मुखातिब किया और वे भी समाजवादी बन गये।जेपी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थे।
आजादी के बाद सन 1952 के चुनाव में ही तिवारी जी शाह पुर से समाजवादी पार्टी के विधायक बन गये।वे लगातार सन 1972 के प्रारंभ तक विधायक रहे।
सन 1972 में वे हार गये। सन 1977 में वे बक्सर से
जनता पार्टी के सांसद बने ।
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जेपी आंदोलन के समय का एक प्रेस कांफ्रेंस मुझे याद है।रामानंद तिवारी ने पटना के मजहरूल हक पथ स्थित पिं्रस होटल में संवाददाता सम्मेलन बुलाया था।
मैं भी उस प्रेस सम्मेलन में शामिल था।
उसमें एक बड़े दैनिक अखबार के संवाददाता ने,जो जाति से ब्राह्मण था,तिवारी जी से एक असामान्य सवाल कर दिया।
उसने कहा कि ‘‘तिवारी जी, आप भी ब्राह्मण हैं,इंदिरा जी भी ब्राह्मण हैं।आप अपनी ही जाति के प्रधान मंत्री के खिलाफ आंदोलन क्यों कर रहे हैं ?’’
तिवारी जी देर किए बिना जवाब दिया, ‘‘बाचा, तू पत्तरकारिता करत बाड़, खाली उहे कर।रजनीति मत कर।’’
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तिवारी जी छोटे- छोटे समाजवादी कार्यकर्ताओं को भी चिट्ठियां लिखा करते थे।
साठ-सत्तर के दशकों में मैं भी संसोपा कार्यकर्ता था।
उन दिनों सारण जिला स्थित अपने गांव में ही आम तौर पर मैं रहता था।
कभी -कभी पटना भी आया करता था।
पार्टी के राष्ट्रीय और प्रादेशिक सम्मेलनों में जरूर जाया करता था।
मासिक पत्रिका ‘जन’ और साप्ताहिक ‘दिनमान’ आदि में मेरी चिट्ठियां प्रकाशित हुआ करती थीं।दिनमान में पत्र छप जाना भी तब बड़ी बात मानी जाती थी।
उन दिनों के समाजवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं में पढ़ने -लिखने वाले लोग अधिक होते थे।
इसलिए देश-प्रदेश के अनेक नेता व कार्यकर्ता मुझे जानते थे।
इस पृष्ठभूमि में रामानंद तिवारी जी ने मुझे मेरे गांव के पते पर एक चिट्ठी लिखी।वह पोस्टकार्ड था।
उसमें तिवारी जी ने मुझे अन्य बातों के अलावा यह भी लिख दिया था कि ‘‘सुरेंद्र,मैं तुम्हें शिवानंद से भी अधिक प्यार करता हूं।’’
मेरे बाबू जी ने वह चिट्ठी पढ़ ली।
बाबू जी ने मेरी मां से भोजपुरी में कहा,‘‘ देखीं, इ कतना करम जरू बा।
तेवारी जी एकरा के बेटा अइसन मानलन।
इ उनका से कहीत त एकरा के चपरासियो में नौकरी ने लगवा देतन !’’
दरअसल तिवारी जी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने तथा उनसे अपनापन बनाये रखने के लिए वैसा पत्र लिखते रहते थे।
मैं तब जिस स्तर का कार्यकर्ता था,उस स्तर के आज के कार्यकर्ताओं को आज के बड़े नेता चिट्ठियां भी लिखते हैं,यह मुझे नहीं मालूम।
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और अंत में
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सन 1972-73 में मैं कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।पर,मैं पत्रकारिता में जाना चाहता था।(कर्पूरी जी मेरी कोई नाराजगी नहीं हुई थी।न उनकी मुझसे हुई थी।बस मैं अपना काम बदलना चाहता था।)
मुख्य धारा की पत्रकारिता में मेरा सीधा प्रवेश कई कारणों से तब एकबारगी संभव नहीं था।इसलिए समाजवादी आंदोलन से जुड़ी पत्रिकाओं के जरिए मुख्य धारा में जाना चाहता था।उन्हीं दिनों तिवारी जी ने पटना के नया टोला से साप्ताहिक ‘जनता’ का प्रकाशन फिर से करवाया।उसमें तिवारी जी ने मुझे बुलाकर सहायक संपादक बनाया।
बाद में जब संपादक ने मुझे हटाने की कोशिश की तो तिवारी जी उस बात के लिए राजी नहीं हुए।यानी तिवारी जी के कारण मेरी नौकरी बच गई थी।
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5 अप्रैल 25