शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

  

संकेत समझिए और सावधान हो जाइए !

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वोट के लिए देश को बेचनेवालों का बहिष्कार करें

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अन्यथा,फिर पछताने से कुछ नहीं होगा,

जब चिड़िया खेत चुग जाएगी !

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सुरेंद्र किशोर

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     सन 1998 में एल.के.आडवाणी को मारने के लिए तमिलनाडु के कोयम्बतूर में जेहादियों ने भारी सिरियल विस्फोट किये थे।

आडवाणी तो बच गये ,पर 58 मर गये । 231 घायल हुए।

उस जघन्य कांड के सजायाफ्ता मास्टर माइंड सैयद बाशा का इसी सोमवार को निधन हुआ।

मंगलवार को उसका जनाना निकला।उसमें हजारों मुसलमानांे

ने हिस्सा लिया।उन लोगों ने उसे हीरो की तरह विदाई दी।खास नारे भी लगे।राज्य सरकार के अनुकूल होने का उन्हें लाभ मिला।

समझ लीजिए कि अधिकतर मुसलमान (सबको दोषी नहीं बता रहा हूं।)क्या चाहते हैं !

वही चााहते हैं जो बाशा चाहता था।

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सन 1993 के बंबई सिरियल बम विस्फोटांे के अपराधी याकूब मेमन की सन 2015 में मृत्यु हुई।मुम्बई में निकली उसकी शव यात्रा में 15 हजार मुसलमान शामिल हुए थे।

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  कश्मीर में तो यह दृश्य अक्सर देखा जाता रहा है।अब थोड़ा सा फर्क वहां जरूर आया है।

कश्मीर में जहां पहले आतंकी

शरण लेते थे,उन घरों में से अनेक घरों के लोग अब उनके खिलाफ पुलिस को सूचना दे रहे हैं।

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26 नवंबर 2008 को बंबई के ताज होटल तथा अन्य स्थानों पर  बड़ा आतंकी हमला हुआ था।बीस सुरक्षाकर्मियों सहित 174 लोग मरे।

उनमें 26 विदेशी थे।

उसके एक अपराधी तहव्वुर राणा को अमेरिका से भारत लाने की भारत सरकार लगातार कोशिश कर रही है। 

उसके प्रत्यर्पण के संबंध में वहां की अदालत मंे मामला चल रहा है।

अमेरिकी सरकार ने उस अदालत से कल कह दिया कि वह राणा को भारत भेजने के पक्ष में है।

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दरअसल अमेरिकी सरकार भारत में सक्रिय जेहादियों को सजा दिलाने के पक्ष में है।पर खुद भारत के कुछ वोट लोलुप नेताओं व बुद्धिजीवियों आदि ने बंबई में हुए नर संहार पर क्या रुख अपनाया ?

सहारा प्रकाशन समूह के उर्दू अखबार के संपादक बर्नी ने एक तब किताब लिखी थी जिसका नाम है--‘‘26-11 आर.एस.एस.साजिश’’।

उस किताब का लोकार्पण मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिग्विजय सिंह ने किया।

आर.एस.एस.ने बर्नी पर मानहानि का मुकदमा किया। बर्नी को अपनी गलती के लिए माफी मांगनी पड़ी।

पर लोकार्पण समारोह में शामिल सिंह व अन्य को कोई सजा नहीं मिली।जबकि उन लोगों ने उस घटना में संघ को फंसाने व पाकिस्तान को दोषमुक्त करने की लगातार कोशिश की थी।

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1978 में जिस तरह संभल (यू.पी.)के जेहादियों ने वहां के हिन्दुओं को मार कर भगाया,मंदिर ध्वस्त किये,उस केस में अब तक किसी को कोई सजा नहीं हुई।याद कर लीजिए 1978 के बाद यू.पी.में कि किन-किन दलों की सरकारें थीं।

1978 में संभल में दो दर्जन हिन्दुओं को जिन्दा जलाया गया था।कुल मृतकों की संख्या तब वहां 184 रही।सारे के सारे मृतक हिन्दू ही थे।एक तरफा नर संहार था।

अब योगी सरकार उन मुकदमों को फिर से खोलवाने की कोशिश कर रही है।

  कहा जाता है कि कश्मीर से नब्बे के दशक में लाखों हिन्दुओं को जेहादियों ने जो भगाया,वह आइडिया उन लोगों ने संभल से ही लिया था।

देश के अन्य कई हिस्सों में ऐसे छोटे बड़े कांड हो रहे हैं या नहीं,इसकी पड़ताल न तो मीडिया कर रहा है न ही कोई सरकार ही।आई.बी.को इस दिशा में सघन काम करना  चाहिए।संदेश खाली (पश्चिम बंगाल)का मामला ताजा है।

वैसे छिटपुट खबरें आती हरती हैं।

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अभी बांग्ला देश में जिस तरह हिन्दुओं का संहार हो रहा  है,वह देखकर किसी को यहां आने वाले खतरे के बारे में कोई गलतफहमी नहीं रहनी चाहिए। 

भारत के जिन इलाकों में मुसलमानों की आबादी बढ़ती जा रही है ,वहां भी देर-सबेर वही सब होने वाला है।किसे मालूम कि वहां अभी नहीं हो रहा है !

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जेहादियों का लक्ष्य विश्व व्यापी है।

इजरायल बनाम मुस्लिम देश युद्ध में तीसरी बार भी इजरायल जीतता नजर आ रहा है।फिर भी जेहादी वहां रह -रह कर तब तक युद्ध शुरू करते रहेंगे जब तक इजरायल को इस्लामिक देश न बना दें।पर इजरायल भारत की तरह नरम देश नहीं है।वहां भारत जितने जयचंद भी नहीं है।सिर्फ एक करोड़ की आबादी वाले देश से हमें सीखना चाहिए।

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कहानी का मोरल

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भारत के जेहादियों को वोट के लिए जिन गैर मुस्लिम तत्वों-नेताओं -दलों-बुद्धिजीवियों से मदद मिल रही है,उन तत्वों का सामाजिक व राजनीतिक बहिष्कार जब तक नहीं होगा ,जेहादी लोग संभल की तरह ही जहां मौका मिलेगा,गैर मुस्लिमों को उजाड़ते-मारते रहेंगे।

संभल तो आज सबको दिख रहा है ।पर भारत के वे गांव और मुहल्ले नहीं दिख रहे हैं जहां बहुमत बनाकर जेहादी तत्वों ने ,गैर मुस्लिमों का जीना हराम कर रखा है।वैसी जगहें बंगाल और केरल में अधिक हंै।

कोलकाता के मेयर फरहाद हकीम ने एक बार विदेशी पत्रकार को बताया था कि चलिए आपको यहां पश्चिम बंगाल का एक पाकिस्तान दिखाता हूं।उनका इशारा मुस्लिम बहुल मुहल्ले से था।

सलमान खुर्शीद और मणि शंकर अय्र सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि जो कुछ बांग्ला देश में हो रहा है,वही सब एक दिन भारत में भी होगा।

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(इस पोस्ट के साथ में, गाजा पट्टी की दुर्दशा का एक चित्र है।दुर्दशा के बावजूद इजरायल से जेहादी युद्धरत हैं।जेहाद के चक्कर में पाक में आटे तक की किल्लत है,फिर भी पाक के जेहादी सरकार गैर मुस्लिमों को बर्बाद करने का सपना देखती रहती है।लगता है कि जेहादी तत्व बांग्ला देश को भी बर्बाद करके ही रहेंगे।)

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20 दिसंबर 24 


  

 

 


बुधवार, 18 दिसंबर 2024

 चरैवति-चरैवति

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हमारे ग्रंथ कहते हंै--

चरैवति,चरैवति यानी चलते रहो,चलते रहो ।

फल की आशा छोड़ कर कर्म में लगे रहो।

मैं गत 52 साल से पत्रकारिता की मुख्य धारा में 

तैर ही तो रहा हूं !

ऐसे में ‘‘फल’’ तो बिना बुलाए घर पहुंचता रहता है।

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सुरेंद्र किशोर

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 ठीक 52 साल पहले पटना के दैनिक ‘प्रदीप’ में संपादकीय पेज पर मेरा लेख सुरेंद्र अकेला के नाम से छपा था।

गत 2 नवंबर, 2024 को दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर 

मेरा लेख छपा।

यानी, गत 52 साल से मैं लगातार विभिन्न प्रकाशनों के लिए लिख रहा हूं।

वैसे तो सन 1967 से ही मीरगंज से प्रकाशित सारण संदेश (साप्ताहिक)के लिए रपट और लेख लिखता था।सारण संदेश बिकता भी था।

आज के बड़े पत्रकार देवंेद्र मिश्र भी शुरुआती दौर में सारण संदेश में ही काम कर रहे थे। 

दिनमान सहित देश के अन्य प्रकाशनों में मेरे पत्र और टिप्पणियां, लेख आदि शुरुआती दौर से ही छपते रहे।

सन 1969 में साप्ताहिक लोकमुख (पटना)में मैं उप संपादक रहा।

सन 1973-74 में ‘जनता’ साप्ताहिक, पटना में सहायक संपादक था।

पर 1972 में प्रदीप में बिना पैरवी के लेख छपना मेरे लिए बड़ी उपलब्धि थी।

  लगभग इतने ही लंबे समय से पटना के दो बड़े पत्रकार लगातार लेखन का काम कर रहे हैं।वे हैं--लव कुमार मिश्र और बी.के. मिश्र।अन्य कोई हों तो बताइएगा।

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कहते हैं कि ‘‘स्लो एंड स्टेडी वीन्स द रेस।’’

यानी, कछुआ जीतता है,खरहा हारता है।

ठीक ही कहा गया है--एक साधे, सब सधे, सब साधे, सब जाये।

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यानी, लेफ्ट या राइट देखे बिना एकाग्र निष्ठा से इस क्षेत्र में सीधी राह चलने का लाभ मुझे मिला है।

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अपना नाम प्रिंट में देखने की 

ललक ने पत्रकार बनाया

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मेरे पिता शिव नन्दन सिंह लघुत्तम जमीन्दार थे।

मालगुजारी की रसीद बही पर उनका नाम छपा होता था।

बचपन से ही वह देख-देख कर मुझे भी लगता था कि मेरा भी नाम प्रिंट में होना चाहिए।कैसे होगा ?

एक उपाय सूझा।

दैनिक व साप्ताहिक अखबारों में संपादक के नाम मैं पत्र लिखने लगा।

छपने भी लगा।

हौसला बढ़ा।

फिर राजनीतिक टिप्पणियां लिखने लगा। सन 1967 से 1976 तक राजनीतिक कार्यकर्ता था ही।

इसलिए सक्रिय राजनीति की भीतरी बातों की जानकारी मुझे अन्य पत्रकारों से अधिक थी।

इस तरह यहां तक पहुंच गया।

प्रदीप में जब मेरा लेख छपा था,उस समय मैं बिहार विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर का निजी सचिव था।

मैं कोई सरकारी कर्मचारी नहीं था।

बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर उनके साथ था।

समाजवादियों की फूट पर ही मेरा वह लेख था।उसमें मैंने कर्पूरी ठाकुर के साथ कोई पक्षपात नहीं किया था।

छपने पर कर्पूरी जी ने खुद तो मुझसे कुछ नहीं कहा ,पर उनके अत्यंत करीबी व पूर्व विधायक प्रणव चटर्जी ने जरूर मुझसे कहा--

‘‘प्रायवेट सेके्रट्री को लेख नहीं लिखना चाहिए।’’

दरअसल मैं कर्पूरी जी के बुलावे पर उनका पी.एस.बना था,पर मैं सिर्फ उनके प्रति नहीं बल्कि समाजवादी आंदोलन के प्रति लाॅयल था।

वैसे मैं जितने बड़े-बड़े नेताओं के करीबी संपर्क में आया,उनमें से कुल मिलाकर कर्पूरी जी को सर्वाधिक महान पाया।

खैर, बात कुछ भटक गयी।

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18 दिसंबर 24



  ‘‘इंडिया न्यूज’’ पर सार्थक डिबेट

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सुरेंद्र किशोर

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आज सुबह मैं न्यूज चैनल ‘‘इंडिया न्यूज’’ पर टी.वी.डिबेट सुन रहा था।

ऐंकर थे--रोहित पुनेठा।

पुनेठा और अतिथियों के व्यवहार देख-सुनकर तबियत खुश हो गई।

डिबेट में सभी अतिथि विषय के जानकार थे।

 अपनी बारी से पहले कुत्ते की तरह एक-दूसरे पर कोई अतिथि चिल्ला नहीं रहा था।

लगता था कि वे संस्कारी परिवार के थे।

लगा कि जब वे 10-15 वर्ष के आयु वर्ग में थे तब उन्हें उनके अभिभावक ने अच्छे संस्कार दिये थे। 

पूरे डिबेट में ऐसी नौबत नहीं आई कि ऐंकर कह रहा हो कि अब आप खत्म कीजिए और गेस्ट बदतमीज और संस्कारहीन  की तरह बोले जा रहा हो।

ऐसा कभी नहीं हुआ कि ऐंकर आम पर सवाल पूछ रहा था और गेस्ट इमली पर जवाब दे रहा हो।

यह ऐसा कार्यक्रम था जिसमें श्रोताओं और दर्शकों ने  अतिथियों की बातें सुनी और समझी।

क्योंकि कोई शोरगुल नहीं था।

ऐंकर भी अपना लंबा भाषण झाड़ कर या बार-बार टोका टोकी करके लोगों को बोर नहीं कर रहा था।

यह भी नहीं हो रहा था कि जो गेस्ट, ऐंकर की विचारधारा या लाॅयल्टी के खिलाफ में बोल रहा हो तो उसे बात-बात पर  ऐंकर टोके और जो ऐंकर की विचार धारा व चैनल की लाइन के पक्ष में हो,उसे कभी न टोके।उसे लंबा बोलने दे।

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डिबेट के नाम पर ‘‘कुत्ता भुकाओ कार्यक्रम’’ चलाने वाले कई टी.वी.चैनलों को (सब नहीं)इंडिया न्यूज से यह बात सीखनी चाहिए कि सार्थक डिबेट कैसे कराई जाती है।

कम से कम टी.वी.चैनलों पर तो ऐसी बहस मत करवाओ जो हंगामा,  बदतमीजी,अज्ञानता और गुंडई के मामले में जन प्रतिनिधि सभाओं से प्रतियोगिता न करे।

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18 दिसंबर 24

 

 


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

 मेरे लहजे में जी हुजूर न था।

इससे ज्यादा मेरा कसूर न था। 

--13 दिसंबर 24


 एक साथ चुनाव का विरोध करके आज के

 कांग्रेसी राजनीतिक स्वार्थवश दरअसल 

जवाहरलाल नेहरू की बुद्धि,विवेक और 

दूरदर्शिता का अपमान कर रहे हैं

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सुरेंद्र किशोर

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लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक फिर एक साथ कराने की पहल का जो दल और नेतागण विरोध

कर रहे हैं, वे डा.अम्बेडकर और नेहरू-पटेल सहित सारे संविधान नेताओं की दूरदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं।

आज के ये नेता गण अपने राजनीतिक तथा अन्य तरह के स्वार्थों के सामने अपने राजनीतिक पूर्वजों को उल्लू साबित करने की भी अनजाने में विफल कोशिश कर रहे हैं।

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पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि ‘‘एक साथ चुनाव कराने का केंद्र सरकार का निर्णय तानाशाही पूर्ण है।

यह न सिर्फ असंवैधानिक है,बल्कि संघीय ढांचे के भी खिलाफ है।’’

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जवाहरलाल नेहरू जबतक प्रधान मंत्री रहे ,उन्होंने लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ कराए।

क्या वे तानाशाह थे ?

क्या संविधान विरोधी थे ?

या, संघीय ढांचे के सिद्धांत की रक्षा करने में विफल रहे ?

इन सवालों का जवाब ममता बनर्जी को देना चाहिए।

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हां,इंदिरा गांधी ने अपने शासन काल में अपने राजनीतिक और निजी स्वार्थ में आकर दोनों चुनावों को अलग -अलग कर दिया।

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इंदिरा गांधी ने अपने 16 साल के शासन काल में गैर कांग्रेसी सरकारों वाले राज्यों में 50 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया।

एन.टी.रामाराव की सरकार को तो इंदिरा गांधी ने बहुमत रहते हुए भी बर्खास्त कर दिया था जिसे फिर से सत्तारूढ़ करना पड़ा।

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इमर्जेंसी में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने निजी स्वार्थ में न सिर्फ देश पर तानाशाही थोपी बल्कि संविधान को भी तहस नहस कर दिया।

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यानी अलग -अलग चुनाव की जन्मदाता तानाशाह भी थीं और संघीय ढांचे के खिलाफ भी।संविधान -कानून के लिए उनके दिल में कोई आदर नहीं था।

दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू करने की निहायत जरूरत होने के बावजूद मोदी सरकार ने ऐसा अब तक नहीं किया।

नतीजतन ममता दीदी के कारण बंगाल धीरे- धीरे एक नया कश्मीर बनता जा रहा है।

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एक साथ चुनाव कराने की पहल करके इंदिरा गांधी की गलती को नरेंद्र मोदी 

सुधारने की कोशिश कर रहे हैं।

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किंतु निहितस्वार्थी या अनजान लोग इस जरूरत के खिलाफ गलत ही तर्क गढ़ रहे हैं।वह कुतर्क से अधिक कुछ भी नहीं।

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विरोध का सबसे बड़ा तर्क--

‘‘मतदाता लोग स्थानीय मुद्दों 

की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट देंगे।

इससे एक दल को लाभ होगा।’’

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अरे अनजान लोगो !

1967 तक लोक सभा के साथ ही विधान सभाओं के भी चुनाव हुए थे।

1967 के मतदाताओं ने केंद्र में तो कांग्रेस को सत्तासीन किया किंतु सात राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों को सत्ता में बैठाया।

जबकि, चुनाव एक ही साथ हुए थे।

बिहार में तो जनता ने 1967 में लोक सभा के लिए कांग्रेस को गैर कांग्रेसियों की अपेक्षा अधिक सीटें दी,पर विधान सभा में गैर कांग्रेसियों को चुनकर सत्ता में बैठाया था।

उससे पहले केरल की जनता ने 1957 में सी.पी.आई.की सरकार बनवाई थी जबकि केंद्र में कांग्रेस सरकार बनी थी।

तब एक ही साथ चुनाव हुए थे।सन 1967 की अपेक्षा आज के मतदाता अधिक जगरूक हैं।

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दरअसल अलग-अलग चुनावों के हिमायती लोगों का चिंतन  देशहित में नहीं है।

उनके निहितस्वार्थ हंै।

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एक साथ चुनाव कराने के लिए तैयार मोदी सरकार के प्रस्ताव का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को पहचान लीजिए।

वे हैं--

1.-कांग्रेस

2.-आप

3.-डी.एम.के

4.-सी.पी.आई.

5.-सी.पी.एम.

6.-बी.एस.पी.

7.-टी.एम.सी.

8-राजद

और 9.-समाजवादी पार्टी।

1967 के चुनाव में एक साथ चुनाव होने के बावजूद डी.एम.के.,सपा और राजद (के पूर्ववर्ती दल),सी.पी.आई.,सी.पी.एम.राज्यों में सत्ता में आ गये थे।

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13 दिसंबर 24

 

 


रविवार, 8 दिसंबर 2024

 बिहार पुलिस का शेर चला गया !

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‘‘लफंगे नेताओं के हाथ में सत्ता’’

--बिहार पुलिस के महा निदेशक

डीपी.ओझा, 28 नवंबर, 2003

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सुरेंद्र किशोर

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पद पर रहते हुए ऐसी बातें कहने वाले डी.पी.ओझा का आज पटना में निधन हो गया।

वे 1967 बैच के आई.पी.एस. अफसर थे।

अपने कार्यकाल में ओझा ने बड़े- बड़े कानून तोड़कों और कई क्षेत्रों के माफियाओं के खिलाफ ऐसे -ऐसे कठिन अभियान चलाये कि सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेता लालू प्रसाद ने एक बार कहा कि ‘‘डी.जी.पी.अपनी सीमा लांघ रहे हैं।’’

जब ऐसी टिप्पणी आ गयी तो रिटायर होने के बाद उनके सहकर्मियों ने ओझा जी को औपचारिक विदाई भी नहीं दी।

ऐसे थे ओझा जी !

कम कहना अधिक समझना।

काश ! हमारे पुलिस बल में ऐसे -ऐसे अफसर अधिक संख्या में आज होते !

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मैं ओझा जी के कामों पर तब से ही गौर कर रहा था जब वे समस्तीपुर जिले में एस.पी. थे।

उन्हीं दिनों केंद्रीय रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की अत्यंत उच्चस्तरीय शक्तियों ने समस्तीपुर में हत्या करवा दी।

डी.पी.ओझा ने दो असली हत्यारों को तत्काल गिरफ्तार कर लिया।उनके कबूलनामे भी मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज करवा लिये।

पर उससे देश की बड़ी शक्तियां नाराज हो गयीं।

सी.बी.आई.के निदेशक को तुरंत समस्तीपुर भेज कर उस केस को बिहार पुलिस से छीन लिया गया।दोनों गिरफ्तार हत्यारों को सी.बी.आई. ने रिहा करवा दिया।सी.बी.आई.ने आनंदमार्गियों को नाहक फंसा दिया गया।

ललित बाबू के पुत्र ने मुझसे एक बार कहा था कि जिन्हें फंसाया गया है,उनसे ललित बाबू की कोई दुश्मनी नहीं थी।ललित बाबू के भाई डा.जगन्नाथ मिश्र ने कोर्ट में गवाही दी कि ललित बाबू की आनंदमार्गियों से कोई दुश्मनी नहीं थी।

ओझा जी जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं,फिर भी उन्होंने ललित बाबू के केस में डर कर अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ा।

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ऐसे अनेक अवसर उनके जीवन में आये थे।

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6 दिसंबर 24



 


 (वोट के) बताशे के लिए (इस भारतीय 

लोकतंात्रिक) मंदिर को मत तोड़ो

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धर्म निरपेक्षता की अनोखी परिभाषा पेश है

नेहरूवादी मणि शंकर अय्यर के शब्दों में 

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सुरेंद्र किशोर

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‘‘......कुमारी उमा भारती ने हमें बताया कि जब वह वाराणसी गईं और एक मस्जिद और एक मंदिर को इकट्ठा देखा तो उनके मन में जज्बात उभरे कि मंदिर को उजारा गया है।हिन्दू धर्म का अपमान हुआ है।

और एक मुसलमान राजा ने वहां एक मस्जिद बना दी।

उन (उमा भारती) में और मुझमें एक अंतर है।

वह जिस चीज को गुलामी का चिन्ह समझती हैं,मैं उसी चीज को धर्म निरपेक्षा का प्रतीक समता हूं।

 जब एक मंदिर और एक मस्जिद को साथ-साथ देखता हूं तब मेरे मन में एक ही भावना आती है कि यह धर्म निरपेक्ष देश है।’’

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9 सितंबर 1991 को लोक सभा में दिए गए कांग्रेस सांसद  मणि शंकर अय्यर के भाषण का अंश।)

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(मत भूलिए।आज पूरी कांग्रेस इसी अनोखी धर्म निरपेक्षता की लाइन पर है।)

  माक्र्सवादी इतिहासकार इरफान हबीब यू ट्यूब पर यह कहते हुए सुने जा सकते हैं---

‘‘औरंगजेब ने काशी और मथुरा के मंदिर को तोड़ा था।वह गलत हुआ था।

फारसी इतिहास तथा कई अन्य किताबों में यह बात दर्ज है।

मस्जिद बनानी थी तो कहीं भी बना देते।

मंदिर तोड़कर बनाने की जरूरत क्या थी ?’’

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(याद रहे कि काशी की ज्ञापनव्यापी मस्जिद की एक दीवार पूर्व में अवस्थित मंदिर की है।)

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अब आप नेहरूवादी मणिशंकर अय्यर के उपर्युक्त भाषण को एक बार फिर पढ़िए।(7 दिसंबर, 2024 के दैनिक हिन्दुस्तान में पूरा भाषण छपा है।)

अय्यर की धर्म निरपेक्षता कुछ इस तरह है--मंदिर तोड़ो और उसकी एक दीवार को मिलाकर मस्जिद बना लो ,उसे खांटी धर्म निरपेक्षता का मधुर संगीत माना जाएगा।

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मुहम्मद गजनवी को सोमनाथ मंदिर के पुजारी कह रहे थे कि आप इस मंदिर के सारे धन ले लो,पर मूत्र्ति को मत तोड़ो।

पर गजनवी का जवाब था-यदि मैं वैसा करूंगा तो मरने के बाद खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा ?

मैं बुत परस्त नहीं बल्कि बुत शिकन के रूप में मरना चाहता हूूं।

(याद रहे अय्यर जैसे वामपंथी,नेहरूवादी और कम्युनिस्ट इतिहासकार व विचारक कहते और लिखते रहे हैं कि मुस्लिम आक्रंात भारत को लूटने आये थे न कि धर्म प्रचार करने।

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पुनश्चः

 भारत जिस दिन हिन्दू बहुल से मुस्लिम बहुल बन जाएगा,उस दिन इस देश में लोकतंत्र भी नहीं रहेगा।याद रहे कि किसी मुस्लिम बहुल देश में लोकतंत्र नहीं है।

इसलिए वोट का मोह छोड़कर वे लोग चेत जाएं जो वोट के बताशे के लिए भारत को जान-अनजाने जेहादियों के हाथों सौंपने के सारे उपाय कर रहे हैं।

जेहादी लोग घुसपैठ करा कर भारत में आबादी का अनुपात बदल रहे हंै,पर कोई तथाकथित सेक्युलर दल घुसपैठ के खिलाफ नहीं बोलता।बल्कि उल्टें उन्हें बसाने में वे दल व उनकी सरकारें मदद कर रहे हैं। 

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7 दिसंबर 24


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