खुद लालू प्रसाद ने पिछले महीने ही कहा कि ‘राजनीतिक तौर पर मेरे सफाये की भविष्यवाणी गलत ही साबित होगी। मेरा दल छोड़ कर जिसको जिस दल में जाना है,जाए।मैं जीरो से शुरू करूंगा। पार्टी को काॅडर आधारित बनाउंगा। 18 से तीस साल तक उम्र के युवकों को पार्टी में शामिल करूंगा। उनका टास्क फोर्स बनाउंगा और तीस प्रतिशत युवकों को चुनाव में टिकट दूंगा और फिर सत्ता में वापस आउंगा।’
सच यही है कि लालू प्रसाद की एक समय में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक व ऐतिहासिक भूमिका थी,जिसको उन्होंने पूरा भी किया। पर अब उनकी भूमिका और राजनीतिक उपयोगिता भी लगभग समाप्त हो चुकी है।दरअसल जिस शैली की राजनीति के लालू प्रसाद अभ्यस्त रहे हैं,वह शैली उसी तरह पुरानी पड़ चुकी है जिस तरह एलसीडी टी.वी .के इस दौर में पुराने रेडियो व ट्रांजिस्टर घर के अंधेरे कोने में रख दिए जाते हंै।सन् 1990 में मंडल आरक्षण आंदोलन के ऐतिहासिक मोड़ पर मुख्य मंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने आरक्षण समर्थकों के कठिन आंदोलन का बहादुरी से नेतृत्व दिया था।उसी के कारण वे पिछड़ा आबादी बहुल प्रदेश बिहार की राजनीति के महाबली भी बने थे।तब आरक्षण विरोधी सवर्णों ने बिहार में आरक्षण के खिलाफ तीखा आंदोलन चला रखा था।मुख्य मंत्री पद पर रहते हुए लालू प्रसाद ने सड़कों पर उतर कर आरक्षण विरोधियों को उससे भी अधिक तीखे स्वर में न सिर्फ जवाब दिया बल्कि कुछ स्थानों में तो खड़े होकर आरक्षण विरोधियों को अपने समक्ष पुलिस से बुरी तरह पिटवाया।इससे आम पिछड़ों को लगा कि पिछड़ों के हक में खड़ा होने वाला इतना मजबूत नेता पहली बार सामने आया है।
पर इस आंदोलन के कारण मिली अपार राजनीतिक ताकत का लालू प्रसाद ने लगातार दुरूपयोग ही किया।नतीजतन उन्हें कई बार जेल तक जाना पड़ा और अब भी वे भ्रष्टाचार से संबंधित अनेक मुकदमों के अभियुक्त हैं।लालू प्रसाद अपने त्याग, तपस्या और सकारात्मक राजनीतिक कर्माे के कारण तो मुख्य मंत्री बने भी नहीं थे।उन्हें तो देवी लाल -शरद यादव की जोड़ी ने प्रत्यक्ष रूप से और चंद्र शेखर ने परोक्ष रूप से मदद कर बिहार का मुख्य मंत्री बनवाया था। आरक्षण विरोधी आतुर सवर्णों ने तीखा आंदोलन करके लालू प्रसाद को पिछड़ों का मसीहा बन जाने का अनजाने में मौका दे दिया।बाद में चारा घोटाले का अभियुक्त बनने के बाद और जनता दल में विभाजन के पश्चात कांग्रेसियों ने लालू प्रसाद की गद्दी बचाई और वे लगातार वर्षों तक बचाते रहे। उस बीच राज्य में विकास थम गया,अपराधियों का बोलबाला बढ़ गया।सिर्फ बात बना कर काम चलाया जाने लगा।लालू प्रसाद की मदद में कम्युनिस्ट भी आगे रहे।यदि कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों ने यह शत्र्त रखी होती कि आप की गद्दी हम तभी बचाएंगे जब आप अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक शैली बदलेंगे तो लालू प्रसाद और बिहार का भला होता।
बिहार जैसे अर्ध सामंती समाज में लालू प्रसाद ने पिछड़ों को सीना तान कर चलना जरूर सिखाया,पर उनके खाली पेट में अन्न के दो दाने डालने का प्रबंध नहीं किया जिससे पिछड़े एक -एक करके लालू प्रसाद से उदासीन होते चले गये।सन् 2000 के बाद तो लालू प्रसाद के वोट हर अगले चुनाव में घटते गये।गत लोक सभा चुनाव में तो उनके दल को सिर्फ 19 प्रतिशत मत मिले। क्योंकि इस बीच आम लोगों ने साम्प्रदायिकता के खतरे की अपेक्षा भीषण सरकारी भ्रष्टाचार, अविकास और राजनीति के अपराधीकरण के खतरे को अधिक गंभीर माना।अब देर से सही, पर समय बीतने के साथ कांग्रेस सहित अनेक सहयोगी दल व नेता गण लालू प्रसाद का साथ बारी- बारी से छोड़ते चले जा रहे हैं तो लालू प्रसाद अकेला पड़ रहे हैं।इस बदले माहौल में यदि कांग्रेस ने राम विलास पासवान को मिला लेने में सफलता पा ली तो बिहार मंे ंइस बात के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी कि किसी अगले चुनाव मंे ंकांग्रेस और राजद में से कौन सा दल एक दूसरे से आगे रहेगा।अभी राजद बिहार का मुख्य प्रतिपक्षी दल है।हालांकि गत लोक सभा चुनाव में वह विधान सभा की कुल 243 सीटों में ंसे सिर्फ 33 सीटों पर ही बढ़त बनाने में सफल हो पाया।उसकी ताकत भविष्य में और भी घटने की उम्मीद है क्योंकि उसके विधायक, पूर्व विधायक और गैर विधायक नेता राजद छोड़ते जा रहे हैं।
दरअसल लालू प्रसाद की मूल समस्या उनकी शैली है।उनकी राजनीतिक शैली के कुछ नमूने यहां पेश हैं।वे जब बिहार में सत्ता में थे तो राजनीति के अपराधीकरण पर वे कहा करते थे कि ‘जनता ने जिसको वोट दिया,वह कहां का अपराधी ?’ जब उनसे कहा गया कि सी.बी.आई.ने चारा घोटाले में आप पर केस किया है ,क्या आप मोरल ग्राउंड पर इस्तीफा देंगे ?उनका जवाब होता था,‘ फुटबाॅल ग्राउंड तो होता है, यह मोरल ग्राउंड क्या होता है ? अरे यार, राजनीति प्रमुख होती है।नैतिकता क्या चीज है ?’जब कोई पिछड़े बिहार का विकास करने के लिए कहता था तो वे कहते थे कि ‘विकास से वोट नहीं मिलता।सामाजिक समीकरण से वोट मिलता है।’उनकी यह शैली आज भी नहंीं बदली।यदि शैली बदलने की उनकी इच्छा होती तो वे सबसे पहले राबड़ी देवी को विधान सभा में प्रतिपक्ष की नेता पद से हटवा कर उनकी जगह किसी काबिल व दबंग नेता को बैठाते।
इसके विपरीत अपराध,भ्रष्टाचार और विकास के बारे में नीतीश कुमार की शैली लालू प्रसाद से बिलकुल उलट है। इस शैली को जनता ेने पसंद किया है क्योंकि आम लोगों ने यह समझा है कि भले नीतीश कुमार को कई मामलों में सफलता अब भी नहीं मिल रही है,पर उनकी मंशा सही है।इसीलिए पिछले आम चुनाव में राजग को बिहार में 40 में से 32 सीटें मिली हैं।
सन् 2005 में सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार की सरकार ने पिछड़े समुदाय के आर्थिक व राजनीतिक हित के लिए कम ही समय में लालू प्रसाद की अपेक्षा अधिक काम किया है।साथ ही समावेशी विकास योजनाओं का लाभ सवर्ण सहित पूरे समाज को समरूप ढंग से थोड़ा- बहुत मिल रहा है।यही है नीतीश की वैकल्पिक शैली जिसका मुकाबला लालू तो दूर कांग्रेस तक को करने में दिक्कत आ रही है।इसके मुकाबले लालू प्रसाद का रास्ता तो और भी कठिन है।
/दैनिक हिंदुस्तान 28 जुलाई 2009 से साभार/
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