बुधवार, 19 अगस्त 2009

‘आजादी लाओ’ से ‘आजादी बचाओ’ तक का सफर

स्वतंत्रता सेनानियों ने दशकों पहले अपना ‘आज’ न्योछावर करके हमारे ‘कल’ के लिए आजादी की बेजोड़ जंग छेड़ी थी। तभीे हम 62 साल पहले आजाद हुए। पर, इतने साल में हमारे सत्ताधारी व प्रतिपक्षी नेताओं ने इस देश के साथ क्या-क्या किया? कैसा सलूक किया? देश के लिए कितना और अपने निजी लाभ के लिए कितना कुछ किया? आजादी के बाद सत्ता में आए अधिकतर नेताओं ने मिलजुल कर या फिर बारी -बारी से, परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से, जाने या अनजाने तौर पर देश मंे आज एक अजीब दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ला दी। इस स्थिति में आज इस देश में ‘आजादी बचाओ’ आंदोलन’ शुरू करने की सख्त जरूरत आ पड़ी है। यानी, हमने 62 साल में ‘आजादी लाओ’ से ‘आजादी बचाओ’ तक का ही सफर तय किया है।

ऐसा नहीं है कि इस देश को एक बार फिर ‘सोने की चिड़िया’ बना देने की देशवासियों में क्षमता नहीं है। शत्र्त है कि हमारे नेताओं में ईमानदारी होनी चाहिए। सन 1700 में विश्व जी.डी.पी. में भारत का हिस्सा 24 दशमलव 40 प्रतिशत था। पर ताजा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार यह घटकर अब मात्र पांच प्रतिशत रह गया है। हां, इसी देश के हर क्षेत्र के चुने हुए प्रभावशाली लोगों की निजी संपत्ति आजादी के बाद बेशुमार बढ़ रही है। करोड़पतियों की संख्या इस देश में अब एक लाख तक पहुंच चुकी है। अरबपतियों की संख्या एक सौ पहुंच रही है। हालांकि यह सरकारी आंकड़ा ही है। काले धन वाले करोड़पतियों की संख्या तो और भी अधिक है। दूसरी ओर, योजना आयोग के अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्त के अनुसार इस देश में करीब 84 करोड़ लोगों की रोजाना औसत आय बीस रुपये मात्र है।

जिस देश में इतनी अधिक आर्थिक व सामाजिक विषमता है, भीषण गरीबी और भुखमरी है, वहां की आजादी को कितने दिनों तक बचाए रखा जा सकेगा? यह सवाल अब पूछा जाने लगा है। इस विषमता के लिए कोई और नहीं, बल्कि हमारे वे शासक ही जिम्मेदार रहे हैं, जिनके हाथों में आजादी के बाद से देश व प्रदेशों की सत्ता रही है। सभी दल परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से सत्ता में रहे हंै। किसी के दामन साफ नहीं हैं। इस देश की मूल समस्या यह नहीं है कि इस देश में समस्या है। गंभीर समस्या यह है कि उसे दूर करने की कहीं से कोई ईमानदार कोशिश नजर नहीं आ रही है। यदि कहीं कोई कोशिश है भी तो वह अपवादस्वरूप ही है और ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। यह अधिक चिंताजनक बात है।

संविधान के भाग चार में राज्य के लिए कुछ निदेशक तत्वों का समावेश किया गया है। उसके अनुच्छेद -38(2) में कहा गया है कि ‘राज्य विष्टितया आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।’

क्या इस देश के शासन ने गत 62 साल में ऐसा कोई प्रयास किया? बल्कि इससे उलट किया। नतीजतन विभिन्न जनसमूहों व क्षेत्रों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा है। लगता है कि हमारे शासकों में से अधिकतर लोगों की नजर में पैसे ही सब कुछ है। राजनीति पर आज पैसा जितना हावी है,उतना पहले कभी नहीं था। यह कोई संयोग नहीं है कि गत लोकसभा चुनाव के बाद करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ कर दुगुनी हो गई। मौजूदा लोकसभा में 300 करोड़पति हैं। कांग्रेस के 66 प्रतिशत और भाजपा के 50 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं। ये सांसद समाज के अंतिम आदमी के बारे में कितना सोचेंगे?

लोकतंत्र पर हावी होते धनतंत्र वाले इस देश में एक दिन में ऐसी स्थिति नहीं बनी। आजादी के तत्काल बाद से ही इसके लक्षण दिखाई पड़ने शुरू हो चुके थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सेे एक बार जब यह कहा गया था कि आपके मंत्रिमंडल व प्रशासन में भ्रष्टाचार घर करने लगा है,इसलिए कोई एजेंसी बनाइए जो उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर नजर रखे। नेहरू जी के निजी सचिव के अनुसार पंडितजी ने इस पर कह दिया कि ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि इससे मंत्रियों में डिमोरलाइजेशन आएगा।

अब भला भ्रष्टाचार की गति को बढ़ने से कौन रोक सकता था? वह बढ़ता गया। खुद पंडित जी के मन में सार्वजनिक धन के प्रति कोई निजी लोभ नहीं रहा, पर अपनी बिटिया को देर-सवेर अपना उत्तराधिकारी बनाने का रास्ता वे साफ कर गये। इंदिरा गांधी 41 साल की उम्र में कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्या और 42 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बना दी गईं। यह नेहरू की सहमति से हुआ। व्यक्तिगत ईमानदारी के मामले में इंदिरा गांधी नेहरू जी की तरह कतई नहीं थीं, इसलिए उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद सरकार में भ्रष्टाचार ने संस्थागत स्वरूप ग्रहण कर लिया। जब उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे, तो इंदिरा गांधी ने कहा भी था कि भ्रष्टाचार तो वल्र्ड फेनोमेना है। यह सिर्फ भारत में ही थोड़े ही है।’

प्रधानमंत्री की यह राय जब सार्वजनिक हो गई तब भ्रष्टों पर भला रोक कौन लगाता ? नतीजतन राजीव गांधी का शासनकाल आते -आते सरकारी भ्रष्टाचार की स्थिति ऐसी हो गई कि सौ में से मात्र 15 पैसे ही सरजमीन तक पहुंच पाते थे। ऐसी स्थिति एक दिन में नहीं आई कि विकास व कल्याण के मद के एक रुपये में से 85 पैसे बिचैलिए खा जाएं और वे किसी तरह की सजा से बच भी जाएं। ऐसा उच्चस्तरीय संरक्षण से ही संभव हो सकता था। यही बात भी थी। आज अनेक निष्पक्ष लोग यह मानने लगे हैं कि इस देश की सबसे बड़ी समस्या सरकारी भष्टाचार ही है। यह भी कहा जा रहा है कि यदि इंदिरा गांधी के बदले कोई अन्य ऐसा नेता सन् 1966 में प्रधान मंत्री बना होता जो भ्रष्टाचार के प्रति कठोर होता, तो इस देश की ऐसी दुर्दशा नहीं होती। चीन हमलोगों के दो साल बाद आजाद हुआ था। पर वहां भ्रष्टाचार के खिलाफ फांसी का प्रावधान किया गया। तभी वह देश बन सका।

पर उसके उलट हमारे देश में जिस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार का जितना अधिक गम्भीर आरोप लगता है, उसके अपने क्षेत्र में उतनी ही अधिक तरक्की करने का चांस होता है। बासठ साल की आजादी में राजनीति को चार भागों में बांटा जा सकता है। पहले राजनीति सेवा थी। बाद में यह नौकरी हुई जब सांसद पेंशन की व्यवस्था की गई। उसके बाद यह व्यापार बनी और अब इसे उद्योग का दर्जा मिल गया। कुछ नेताओं की कुल निजी संपत्ति का विवरण देख कर यह स्पष्ट है।

यह अकारण नहीं है कि कई हस्तियों, समितियों और आयोगों की सिफारिशों व सलाहों के बावजूद सांसद क्षेत्र विकास निधि को समाप्त नहीं किया जा रहा है, जबकि राजनीति को दूषित करने में किसी एक तत्व का यदि आज सबसे बड़ा हाथ है, तो वह सांसद-विधायक फंड ही है। लोकतंत्र का आज यही स्वरूप है। विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन के विवरण देने के लिए जर्मनी व लाइखटेंस्टाइन देशों की एकाधिक एजेंसी तैयार हंै। पर भारत सरकार ही सूचना लेने को तैयार नहीं है। इतना ही नहीं, भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के एक वरीय अफसर ने हाल में जर्मनी स्थित भारतीय राजदूत को एक सनसनीखेज पत्र लिखा। पत्र में यह लिखा गया कि वे भारतीय खातेदारों के नाम रिलीज करने के लिए जर्मन सरकार पर दबाव नहीं डालें। याद रहे कि एक लिस्ट जर्मन सरकार ने लाइखटेंस्टाइन के एल.जी.टी. बैंक के एक विद्रोही कर्मचारी से प्राप्त कर ली, जिसमें भारतीयों के वहां जमा काले धन का पूरा विवरण है। ऐसा अपने ही देश में संभव है कि सरकार इस देश को लूटने वाले काला धन वालों की खुलेआम मदद करे। एक अनुमान के अनुसार भारत के तीन प्रतिशत अमीरों ने 30 से 40 बिलियन डाॅलर विदेशों में नाजायज तरीके से जमा कर रखे हैं।

62 साल की आजादी की एक उपलब्धि यह भी है कि आयकर के अनेक मामलों को जानबूझ कर उलझा दिया जाता है, ताकि टैक्स चोरों को राहत मिल सके। गत 4 अगस्त, 2009 को राज्यसभा में यह बताया गया कि आयकर के एक लाख 41 हजार करोड़ रुपये के मामले कानूनी विवादों में उलझे हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार इस देश के अमीर लोग हर साल नौ लाख करोड़ रुपये की टैक्स चोरी करते हैं। साथ ही बैंकों के खरबों रुपये व्यापारियों ने दबा रखे हंै और भारत सरकार या रिजर्व बैंक उनके नाम तक सार्वजनिक करने को तैयार नहीं है। इस तरह के अनेक उदाहरण हैं, जिसमें सरकार ही लूट की मददगार है। शुकसागर में ठीक ही लिखा गया है कि भारत में एक दिन ऐसा भी आएगा, जब राजा ही अपनी प्रजा को लूटेगा।

यह तो राजनीतिक कार्यपालिका, प्रशासनिक कार्यपालिका और व्यापार जगत की हालत है। न्यायपालिका के लोग भी अपनी निजी संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने को तैयार नहीं हो रहे हैं। इस पर न्यायपालिका में ही मतभेद है। इससे दुःखी होकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने सार्वजनिक रूप से मौजूदा चीफ जस्टिस से यह कहा है कि वे मेरी संपत्ति का विवरण वेबसाइट पर सार्वजनिक कर दें। श्री वर्मा ने कहा है कि मैंने पद संभालने के साथ ही मार्च, 1997 में अपनी संपत्ति का विवरण सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को सौंप दिया था। पूर्व चीफ जस्टिस यह चाहते हैं कि जजों, उनके परिजनों की संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करना न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए ठीक रहेगा। अब देखना है कि कितने जज श्री वर्मा की सलाह मानते हैं।

पर ऐसी घटनाओं से लगता है कि पूरे कुएं में भांग पड़ी हुई है और इस देश के लिए ये अच्छे लक्षण नहीं हैं।

काश, आजादी के वीर बांकुरे सत्ता में आने के तत्काल बाद इस मामले में कड़ाई दिखाते तो हालात इतने नहीं बिगड़ते। आज तो हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि देश के 186 जिलों में नक्सली हावी हो चुके हैं और उनसे निपटने के लिए सेना की मदद ली जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि नक्सली समस्या सामाजिक-आर्थिक समस्या है। यदि इस देश की सरकार में भीषण भ्रष्टाचार नहीं होता, तो सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को हल करने में सुविधा होती।

दूसरी समस्या आतंकवाद और विदेशी घुसपैठियों की है। आतंकवाद से निर्णायक ढंग से लड़ने में वोट बैंक की राजनीति बाधक है। साथ ही हमलावर आतंकवादियों पर प्रति-हमला करने में हमारी शिथिलता और भ्रष्टाचार बाधक है। चूंकि आम तौर पर दोषियों को सजा नहीं मिलती, इसलिए एक ही तरह की गलती बार -बार इस देश में होती है।

मुम्बई के ताज होटल पर जब आतंकी हमला हुआ तो एन.एस.जी. कमांडो को दिल्ली से मुम्बई भेजने में साढ़े आठ घंटे लग गये। इससे पहले जब कंधार विमान अपहरण हुआ, तो अपहृत विमान को अमृतसर में इसलिए नहीं रोका जा सका, क्योंकि समय पर उच्चत्तम स्तर पर कार्रवाई करने का कोई फैसला ही नहीं हो सका। क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक विमान में थे और उसमें सेटेलाइट फोन नहीं था। वही कोई फैसला करते।

इतना ही नहीं सैन्य व पुलिस बल को उपलब्ध कराने के लिए जो बुलेट प्रूफ जैकेट दिए जाते हैं, वे बुलेट को रोक ही नहीं पाते। क्योंकि उसकी खरीद में भ्रष्टाचार होता है और कमीशन के चक्कर में घटिया बुलेट प्रूफ आते हैं। शर्मनाक बात यह है कि देश की रक्षा के मामले में भी हो रहे शिथिलता,राजनीति और भ्रष्टाचार के आरोपितों पर आम तौर पर कोई कार्रवाई नहीं होती। बासठ साल में यहां तक पहुंच चुके हैं हम। फिर कैसे बचेगी हमारी आजादी? यह आजादी बड़ी कीमत देकर हासिल की गई हे। इसे हम सिर्फ पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी को याद करके अपने कत्र्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। पर हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि जिस देश के 99 प्रतिशत नेता बेईमान हैं और अनेक प्रभावशाली लोग इस देश को लूट कर विदेशों में पैसे जमा कर रहे हैं, उनके हाथों में आजादी कितनी सुरक्षित है?

(दैनिक जागरण के पटना संस्करण से साभार-15 अगस्त, 2009)

कोई टिप्पणी नहीं: