पर इस तरह का कोई लाभ प्राप्त करने की कोशिश से पहले भाजपा अपने पिछले शासन काल की अपनी गलतियों के लिए देश से माफी क्यों नहीं मांग लेती ? माफी नहीं मांगने के साथ-साथ उसे मतदाताओं से यह भी वायदा करना चाहिए कि दुबारा सत्ता में आने के बाद वह गलतियां नहीं दुहराएगी। यदि भाजपा ऐसा नहीं करती तो भले लोक सभा के अगले चुनाव में उसे एक बार फिर केंद्र की सत्ता मिल जाए, पर जन मानस पर उसकी नैतिक धाक नहीं जम सकती।
याद रहे कि 1998 से 2004 के बीच के शासन काल में तथा उससे पहले भी भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने भ्रष्टाचार व राजनीति के अपराधीकरण और कानून तोड़कों के खिलाफ नरमी दिखाई थी और इसका खामियाजा उसे आज भी भुगतना पड़ रहा है।सन 1997 में भाजपा के केंद्रीय नेतत्व ने यू.पी. के कल्याण सिंह मंत्रिमंडल में उस प्रदेश के लगभग सभी उन खूंखार अपराधियों व माफियाओं को शामिल कर लिया था जो विधायक थे। किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने के लिए ही भाजपा ने तब वैसा किया था। इस मुददे पर पूछे जाने पर एक बड़े भाजपा ने तब लखनउ में मीडिया से कहा था कि जनता ने उन्हें विधायक बना दिया था। हमने तो उन्हें सिर्फ मंत्री बनाया।
बिहार में जिस तरह इन दिनों सरकारी व राजनीतिक प्रयासों से धीरे -धीरे राजनीति से खूंखार अपराधियों व माफियाओं का असर कम किया जा रहा है ,उससे यह साफ है कि यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति बलवती हो तो यह काम देश के अन्य हिस्सों में भी संभव है।भाजपा को देश से यह वायदा करना चाहिए कि वह राजनीति के अपराधीकरण को कम करने के लिए गंभीर प्रयास करेगी,जब वह केंद्र में एक बार फिर सत्ता में आएगी। पर जनता उसके इस वायदे पर भरोसा तब तक नहीं करेगी जब तक भाजपा उत्तर प्रदेश प्रकरण के लिए देश से माफी नहीं मांग लेती।
इस देश की ं कम्युनिस्ट पार्टी सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करने की अपनी गलती के लिए देश से माफी मांग चुकी है।ऐसे कुछ अन्य उदाहरण भी मौजूद हैं।
भाजपा ने केंद्र में 1998 से 2004 तक लगातार छह साल तक शासन किया,पर उसने यह साबित कर दिया कि भ्रष्टाचार के मामले में भी वहं कांग्रेस से वह बिलकुल अलग नहीं है।नतीजतन सन 2004 के लोक सभा चुनाव में उसके वोट बैंक में इतना अधिक इजाफा नहीं हो सका था कि वह संकट में काम आ जाता। यहां तक कि भाजपा 2009 में अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक दृश्य से ओझल होने का झटका भी बर्दास्त नहीं कर सकी। याद रहे कि यह झटका मात्र तीन प्रतिशत मतों का ही था।याद रहे कि वाजपेयी की अनुपस्थिति और नेहरू-इंदिरा परिवार के राहुल गांधी की दमदार उपस्थिति के कारण भाजपा के करीब तीन प्रतिशत वोट कांग्रेस की तरफ चले गये और कांग्रेस दुबारा सत्ता में आ गई।
दूसरी ओर, नीतीश कुमार की राजनीतिक व प्रशासनिक शैली अपना कर बिहार भाजपा ने बिहार विधान सभा के हाल के चुनाव में भी अपना वोट बढ़ाया और सीटें भी। 2005 के बाद के बिहार के अन्य चुनाव नतीजे भी इसके सबूत हैं।हालांकि बिहार की शैली यानी नीतीश कुमार की शैली।पर सरकार में रहकर उसको समर्थन देने का लाभ जदयू के साथ -साथ भाजपा को भी मिल रहा है।नीतीश शैली का मतलब है भ्रष्टाचार व राजनीति के अपराधीकरण पर जोरदार सरकारी हमला।क्या भाजपा का केंद्रीय नेतत्व अपनी बिहार शाखाके नेताओं की शासन शैली से कुछ सीख सकेगी ?
घटनाएं बताती हैं कि भाजपा की चिंता का मुख्य विषय भीषण सरकारी भ्रष्टाचार व राजनीति का घोर अपराधीकरण नहीं है बल्कि अब भी भावनात्मक मुद्दे ही हैं। भावनात्मक मुद्दे ही अब भी उसके मर्म स्थल को बंेधते हैं।बदलती स्थिति में इस दल के भविष्य के लिए इसे अच्छा नहीं माना जा रहा है।क्योंकि भीषण सरकारी भ्रष्टाचार व अन्य तरह की शासनहीनता के खिलाफ जिस तरह अब इस देश के उच्चस्तरीय गैर राजनीतिक हलकों में भी गुस्सा व असंतोष बढ़ता जा रहा है कि सन 2014 में बनने वाली कोई भी
अगली सरकार इसी तरह से देश को नहीं चला सकेगी जिस तरह आज सोनिया-मन मोहन की जोड़ी लापारवाहीपूर्वक चला रही है।अब इस देश के बड़े बड़े उदयोगपति भी सरकार से सार्वजनिक रूप से यह अपील कर रहे हैं कि वह भ्रष्टाचार पर काबू पाए। इसी 30 जनवरी को सामाजिक संगठनों के आहवान पर देश के साठ शहरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैलियां की गईं।इस अभियान का विस्तार हो सकता है।भाजपा को इस बदली स्थिति से
सबक लेनी चाहिए।याद रहे कि भाजपा 1998 से पहले जब केंद्र में प्रतिपक्ष में थी तो वह भ्रष्टाचार व अपराधीकरण पर काफी हो हल्ला करती रही थी।पर वह 1998 में सरकार में आने के बाद इन दो मुद्दों पर समझौतावादी ही साबित हुई।अब ऐसी गलती देश सहन नहीं करेगा।
क्या भाजपाका केंद्रीय नेतृत्व अब भी बिहार की नीतीश सरकार की जिसमें भाजपा भी एक मजबूत सहयोगी है,राजनीतिक उपलब्धियों से भी कोई सबक नहीं लेगा जिसने भ्रष्टाचार व अपराधीकरण के खिलाफ .भरसक बेलाग कार्रवाइयां करके अपना जन समर्थन काफी बढ़ा लिया है।नीतीश सरकार ने बिहार में कोई सांप्रदायिक या फिर जातीय भावना उभार कर वोट नहीं लिया।बल्कि उसने अपराध व भ्रष्टाचार के खिलाफ हमले की ईमानदार कोशिश करके अपना जन समर्थन बढ़ाया।बिहार सहित पूरे देश की सबसे बड़ी समस्या भीषण सरकारी भ्रष्टाचार ही है। उत्तर भारत के अनेक प्रांतों की दूसरी गंभीर समस्या राजनीति का अपराधीकरण व अपराध का राजनीतिकरण है।यदि केंद्र की अटल सरकार ने अपने छह साल के शासन काल में इन दो मुद्दों पर बेलाग फैसले किए होते तो राजग अटल बिहारी वाजपेयी की चुनावी दृश्य से अनुपस्थिति से इस बार हुई क्षति की भी पूत्र्ति कर लेता। सन् 2004 के चुनाव में तो राजग की पराजय का मुख्य कारण फीलगुड के अहंकार में आकर उसके द्वारा अपने पुराने घटक दलों को तिरस्कृत करना था।तिरस्कृत दलों में लोजपा व द्रमुक शामिल थे।
इन दो समस्याओं पर कठोर रुख अपनाने के बदले जिन्ना बनाम सरदार पटेल के भावनात्मक मुद्दे को लेकर जसवंत सिंह को दल से निकालना भाजपा का दिमागी दिवालियापन ही नजर आया । अब राम मंदिर विवाद जब उसे चुनाव में काम नहीं आ रहा है तो सरदार पटेल भाजपा को अगले चुनाव में कितना काम आएंगे ? हां,भ्रष्टाचार व अपराधीकरण पर निर्मम प्रहार जरूर काम आ सकता है।क्योंकि इन समस्याओं से समाज का हर वर्ग पीड़ित है।बिहार में इनका विरोध काम आ भी रहा है।याद रहे कि अपराध व भ्रष्टाचार के कारण देश का विकास बाधित है।यह बात अब अनेक लोग कहने लगे हैं।सरकारी धन आम जनता तक नहीं पहंुच पा रहा है।ऐसा नहीं कि बिहार में कोई स्वर्ग आ गया है।पर नीतीश कुमार ने अपने करीब पांच साल के क्रियाकलापों से जनता को यह जरूर विश्वास दिला दिया है कि वे भ्रष्टाचार व अपराध से कोई समझौता ं करने को तैयार नहीं हैं।क्या कर्नाटका की यदुरप्पा सरकार को लेकर भाजपा कोई ऐसा ही कदम नहीं उठा सकती ?
पर भाजपा ने अब तक अपने सत्ता काल में बार- बार यह साबित किया कि उसके लिए भ्रष्टाचार व अपराधीकरण ‘मर्मस्थल मुद्दे’ नहीं हैं। अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण को लेकर यदि भाजपा ने किसी नेता के खिलाफ वैसी ही सख्त कार्रवाई की होती जैसी कार्रवाई उसने जसवंत सिंह के खिलाफ एक बार की थी तो आज भाजपा पर न तो यह आरोप लगता और न उसे लगातार दो लोक सभा चुनाव हारना पड़ता।उसे चुनाव दृश्य से अटल बिहारी वाजपेयी की अनुपस्थिति और दूसरी तरफ राहुल गांधी की मजबूत उपस्थिति का जितना चुनावी नुकसान हुआ,उसकी क्षतिपूत्र्ति भी हो गई होती।
भाजपा के लिए लाल चैक पर तिरंगा फहराना जरूरी लगता है,पर उसे यदुरप्पा पर कार्रवाई करना सही नहीं लगता।भाजपा के लिए सांप्रदायिक मुद्दे या फिर विभिन्न पक्षों में भावनाएं उभारने वाले मुददे और कुछ मंडलवादी दलों के लिए जातीय मुद्दे ही अब भी आसान लगते हैं।पर अब ये चुनावी हथियार कुंद होते जा रहे हैं।राजनीतिक स्थिति बदल रही है।इस बीच केंद्र की कांग्रेस नीत सरकार ने भ्रष्टाचार व कानूनी अराजकता के मामले में इतनी अधिक लापारवाहियां की हैं कि अब जनता का गुस्सा उबाल के बिंदु तक पहुंच रहा है और किसी नई सत्ताधारी जमात द्वारा की जाने वाली रफफूगिरी से भी काम नहीं चलने वाला है।
अटल सरकार के समय बंगारू लक्ष्मण को घूस लेते हुए कैमरे पर दिखाया गया था।दूसरी ओर एक मंत्री दिलीप सिंह जूदेव को लोगों ंने यह कहते हुए टी.वी.पर देखा था कि ‘पैसा खुदा तो नहीं,पर खुदा कसम , खुदा से कम भी नहीं।’इसके बावजूद बंगारू की पत्नी को भाजपा ने लोक सभा का चुनावी टिकट दे दिया था और दिलीप सिंह जूं देव के खिलाफ कोई कार्रवाई भी हुई,यह मालूम नहीं। जन विश्वास हासिल करने के लिए जरूरी है कि इन गलतियों के लिए भाजपा देश से माफी मांगे।
इतना ही नहीं । याद कीजिए सन् 2000 की वह घटना जब केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एन बिट्ठल ने अटल सरकार के चार मंत्रियों की संपत्ति की जांच करने का निदेश सी.बी.आई.को दिया था।वे चारों चर्चित हवाला घोटाले के अभियुकत रह चुके थे।इन में से दो भाजपा के थे।बाद में हवाला कांड में वे बरी जरूर हो गये थे,पर सुप्रीम कोर्ट ने ं कहा था कि सी.बी.आई.ने हवाला घोटाले की ठीक से जांच ही नहीं की।यदि भाजपा ने अपने उन दो मंत्रियों पर सख्त कार्रवाई की हेाती तो जनता का उसमें विश्वास बढ़ता और भाजपा को 2004 में सत्ता से बाहर नहीं होना पड़ता।पर इसके विपरीत अटल सरकार ने आरोपितों केा बचाने के लिए सतर्कता आयोग को एक सदस्यीय की जगह तीन सदस्यीय बना दिया ताकि किसी अगले एन.बिटठल को भी किसी मंत्री के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं हो।क्या यह गलती हाल में पी.जे.थामस को सी.वी.सी बनाने की कांग्रेसी सरकार की गलती से कम थी ? क्या यह गलती माफी मांगने योग्य नहीं है ?
एक और गलत काम अटल सरकार ने तब किया जब सुप्रीम कोर्ट ने 2 मई 2002 को चुनाव आयोग से कहा कि वह उम्मीदवारों के बारे में दिशा निदेश जारी करे।दिशा निदेश यह कि उम्मीदवार अपने शपथ पत्र के साथ संपत्ति,आपराधिक रिकाॅर्ड व शैक्षणिक योग्यता का विवरण दंे।अटल सरकार ने इस निदेश को विफल करने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में ही संशोधन कराने के लिए अध्यादेश जारी करा दिया।पर भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने इस संशोधन को ही रद कर दिया।नतीजतन आज हम उम्मीदवारों के जो विवरण हासिल कर लेते हैं,वह भाजपा की इच्छा के विरूद्ध ही हासिल कर पाते हैं।क्या भाजपा ने इस के लिए कभी देश के सामने अफसोस जाहिर किया ?
यानी कांग्रेस के बदले केंद्र सरकार की गददी पर बैठने का हौसला बांधने वाली भाजपा पहले खुद को पार्टी विथ अ डिफरेंस तो साबित करें।
ऐसा करने पर किसी भी दल को राजनीतिक व चुनावी लाभ मिलेगा,भाजपा तो एक बड़ी पार्टी है।बिहार का ताजा इतिहास इस बात का सबूत देश के सामने पेश कर रहा है।भाजपा अब भी पार्टी विथ अ डिफेंस होती तो आर.एस.एस.के प्रधान मोहन भागवत को गत साल यह सलाह नहीं देना पड़ती कि ‘भाजपा खुद को एक बार फिर ‘पार्टी विथ अ डिफरेंस’ के तौर पर पेश करे।’
(1 फरवरी, 2011 को जनसत्ता में प्रकाशित)
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