पर क्या इतने ही से भाजपा का काम चल जाएगा ? राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार कत्तई नहीं। दरअसल एक बार फिर केंद्र की सत्ता पाने के लिए भाजपा को देश के सामने अपनी पिछली गलतियों के लिए माफी मांगनी चाहिए। सी.वी.सी. के रूप में विवादास्पद पी.जे. थाॅमस की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय के बाद खुद प्रधान मंत्री मन मोहन सिंह ने भी अपनी जिम्मेदारी यानी गलती सार्वजनिक रूप से मानी है। यानी जिस गलती पर कोई सफाई नहीं दी जानी सकती, उसे स्वीकार करके जनता से माफी मांग लेने में ही नेताओं व दलों की अब भलाई है।भ्रष्टाचार व अपराधीकरण को लेकर अब जनता को कोई दल व नेता मूर्ख नहीं बना सकता ।
प्रायश्चित करने और रोने के लिए एक स्वामी के कंधे से बढ़िया भाजपा के लिए बेहतर स्थान और क्या हो सकता है ? याद रहे अब तक के संकेत यही है कि स्वामी राम देव को खुद अपने लिए सत्ता नहीं चाहिए।पर वैसे लोगों से ईमानदारी का विश्वास मिलना चाहिए जिन्हें लेकर रामदेव चलना चाहते हैं।बड़ा वह होता है जो अपनी गलतियां स्वीकार करके आगे उसे नहीं दुहराने का संकल्प करता है।राजनीति व दूसरे क्षेत्रों के घटिया लोग अपनी गलतियों व विफलताओं के लिए किसी और को ही कोसते रहते हैं।ऐसे लोग इतिहास के कूड़ेदान में एक दिन नजर आते हैं।
अनेक घोटालों की खबरों के बीच केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार दिनानुदिन ढीली पड़ती जा रही है और नैतिक दष्टि से प्रभावकारी सिविल सोसायटी में भी बढ़ते रोष की झलक सड़कों पर भी अब देखी जा रही है। भाजपा को आज यह लग रहा है कि इसका राजनीतिक व चुनावी लाभ अंततः उसे ही मिलेगा। शायद मिले भी। जेपी आंदोलन का भी चुनावी लाभ राजनीतिक दलों को ही मिला था।सन 1974 में शुरू हुआ जेपी का आंदोलन भी गैर दलीय ही था।पर जब क्रूर शासन की मार पड़ी तो गैर दलीय तत्व कमजोर पड़ने लगे।फिर तपे-तपाये दलीय नेताओं ने मार खाने व कष्ट सहने के लिए अपने कंधे आगे कर दिये थे।स्वामी रामदेव को भी इस उदाहरण को अपने सामने रख कर ही कोई निर्णायक राजनीतिक पहलकदमी करनी चाहिए। हां,उन्हें राजनीतिक दलों से सुधरने का वादा भी ले लेना चाहिए।
सन 1998 से 2004 के बीच के शासन काल में तथा उससे पहले भी भाजपा व उसके सहयोगी दलों ने भ्रष्टाचार व राजनीति के अपराधीकरण और कानून तोड़कों के खिलाफ काफी नरमी दिखाई थी ।सन 1997 में भाजपा के केंद्रीय नेतत्व ने यू.पी. के कल्याण सिंह मंत्रिमंडल में उस प्रदेश के लगभग सभी उन खूंखार अपराधियों व माफियाओं को शामिल कर लिया था जो विधायक थे।
भाजपा ने केंद्र में 1998 से 2004 तक लगातार छह साल तक शासन किया,पर उसने यह साबित कर दिया कि भ्रष्टाचार के मामले में भी वहं कांग्रेस से वह बिलकुल अलग नहीं है।नतीजतन सन 2004 के लोक सभा चुनाव में उसके वोट बैंक में इतना अधिक इजाफा नहीं हो सका था कि वह संकट में काम आ जाता।
घटनाएं बताती हैं कि भाजपा की चिंता का मुख्य विषय भीषण सरकारी भ्रष्टाचार व राजनीति का घोर अपराधीकरण नहीं है बल्कि अब भी भावनात्मक मुद्दे ही हैं। भावनात्मक मुद्दे ही अब भी उसके मर्म स्थल को बंेधते हैं।बदलती स्थिति में इस दल के भविष्य के लिए इसे अच्छा नहीं माना जा रहा है।क्योंकि भीषण सरकारी भ्रष्टाचार व अन्य तरह की शासनहीनता के खिलाफ जिस तरह अब इस देश के उच्चस्तरीय गैर राजनीतिक हलकों में भी गुस्सा व असंतोष बढ़ता जा रहा है कि सन 2014 में बनने वाली कोई भी अगली सरकार इसी तरह से देश को नहीं चला सकेगी जिस तरह आज सोनिया-मन मोहन की जोड़ी मजबूरी में या फिर लापारवाहीपूर्वक चला रही है।यही भाजपा सन 1998 से पहले जब केंद्र में प्रतिपक्ष में थी तो वह भ्रष्टाचार व अपराधीकरण पर काफी हो हल्ला करती रही थी।पर वह 1998 में सरकार में आने के बाद इन दो मुद्दों पर समझौतावादी ही साबित हुई।अब ऐसी गलती की पुनरावति यह देश सहन नहीं करेगा।
क्या भाजपाका केंद्रीय नेतृत्व अब भी बिहार की नीतीश सरकार की जिसमें भाजपा भी एक मजबूत सहयोगी है,राजनीतिक उपलब्धियों से भी कोई सबक नहीं लेगा जिसने भ्रष्टाचार व अपराधीकरण के खिलाफ .भरसक बेलाग कार्रवाइयां करके अपना जन समर्थन काफी बढ़ा लिया है।नीतीश सरकार ने बिहार में कोई सांप्रदायिक या फिर जातीय भावना उभार कर वोट नहीं लिया।बल्कि उसने अपराध व भ्रष्टाचार के खिलाफ हमले की ईमानदार कोशिश करके अपना जन समर्थन बढ़ाया।बिहार सहित पूरे देश की सबसे बड़ी समस्या भीषण सरकारी भ्रष्टाचार ही है।
इन दो समस्याओं पर कठोर रुख अपनाने के बदले अन्य भावनात्मक मुददे भाजपा उठाती रही।ऐसा नहीं कि बिहार में कोई स्वर्ग आ गया है।पर नीतीश कुमार ने अपने करीब पांच साल के क्रियाकलापों से जनता को यह जरूर विश्वास दिला दिया है कि वे भ्रष्टाचार व अपराध से कोई समझौता ं करने को तैयार नहीं हैं।क्या कर्नाटका की यदुरप्पा सरकार को लेकर भाजपा कोई ऐसा ही कदम नहीं उठा सकती ?
पर भाजपा ने अब तक अपने सत्ता काल में बार- बार यह साबित किया कि उसके लिए भ्रष्टाचार व अपराधीकरण ‘मर्मस्थल मुद्दे’ नहीं हैं। अपराधीकरण व भ्रष्टीकरण को लेकर यदि भाजपा ने किसी नेता के खिलाफ वैसी ही सख्त कार्रवाई की होती जैसी कार्रवाई उसने जसवंत सिंह के खिलाफ एक बार की थी तो आज भाजपा पर न तो यह आरोप लगता और न उसे लगातार दो लोक सभा चुनाव हारना पड़ता।उसे चुनाव दृश्य से अटल बिहारी वाजपेयी की अनुपस्थिति और दूसरी तरफ राहुल गांधी यानी नेहरू खानदान के एक सदस्य राहुल गांधी की मजबूत उपस्थिति का जितना चुनावी नुकसान हुआ,उसकी क्षतिपूत्र्ति भी हो गई होती।
अटल सरकार के समय भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को घूस लेते हुए कैमरे पर दिखाया गया था।इसके बावजूद बंगारू की पत्नी को भाजपा ने लोक सभा का चुनावी टिकट दे दिया था । जन विश्वास हासिल करने के लिए जरूरी है कि इन गलतियों के लिए भाजपा देश से माफी मांगे।
इतना ही नहीं । याद कीजिए सन् 2000 की वह घटना जब केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एन बिट्ठल ने अटल सरकार के चार मंत्रियों की संपत्ति की जांच करने का निदेश सी.बी.आई.को दिया था।वे चारों चर्चित हवाला घोटाले के अभियुकत रह चुके थे।पर सुप्रीम कोर्ट ने ं कहा था कि सी.बी.आई.ने हवाला घोटाले की ठीक से जांच ही नहीं की।पर इसके विपरीत अटल सरकार ने आरोपितों केा बचाने के लिए सतर्कता आयोग को एक सदस्यीय की जगह तीन सदस्यीय बना दिया ताकि किसी अगले एन.बिटठल को भी किसी मंत्री के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं हो।क्या यह गलती हाल में पी.जे.थामस को सी.वी.सी बनाने की कांग्रेसी सरकार की गलती से कम थी ? क्या यह गलती माफी मांगने योग्य नहीं है ?
एक और गलत काम अटल सरकार ने तब किया जब सुप्रीम कोर्ट ने 2 मई 2002 को चुनाव आयोग से कहा कि वह उम्मीदवारों के बारे में दिशा निदेश जारी करे। दिशा निदेश यह कि उम्मीदवार अपने शपथ पत्र के साथ संपत्ति,आपराधिक रिकाॅर्ड व शैक्षणिक योग्यता का विवरण दंे।अटल सरकार ने इस निदेश को विफल करने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में ही संशोधन कराने के लिए अध्यादेश जारी करा दिया।पर भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने इस संशोधन को ही रद कर दिया।
( 9 मार्च 2011 को प्रभात खबर पटना में प्रकाशित )
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