बुधवार, 7 सितंबर 2011

एक वह भी जमाना था, एक यह भी जमाना है



बिहार में 18 मार्च 1974 को छात्रों और युवकों के नेतृत्व में एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ था। आंदोलन भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और गलत शिक्षा नीति के खिलाफ था। आंदोलन का नेेतृत्व बाद में जेपी ने संभाल लिया था। क्योंकि 18 मार्च को हुए ‘विधानसभा मार्च’ के दौरान हिंसा हो गई थी। जेपी तब तक आंदोलन से जुड़े नहीं थे। इस हिंसा पर जेपी ने बयान दिया था कि ‘हिंसा और आगजनी से क्रांति नहीं होती है।’ आंदोलन के अराजक होते देख कुछ समझदार युवा व छात्र जेपी से उनके कदमकुआं स्थित आवास पर मिले और उनसे नेतृत्व करने का आग्रह किया। जेपी ने आंदोलन को शांतिपूर्ण व अहिंसक बनाये रखने की शर्त रखी। छात्रों-युवकों ने शर्त मान ली। तत्पश्चात आंदोलन का एक नारा बना, ‘हमला चाहे जैसा होगा, हाथ हमारा नहीं उठेगा।’

आंदोलन को दिशा देने के लिए बिहार छात्र संघर्ष संचालन समिति का गठन हुआ था। इस महत्वपूर्ण समिति के सदस्य थे-लालू प्रसाद, सुशील कुमार मोदी, राम बहादुर राय, वशिष्ठ नारायण सिंह, शिवानंद तिवारी, रघुनाथ गुप्त, मिथिलेश कुमार सिंह, राम जतन सिन्हा, नरेंद्र कुमार सिंह, भवेशचंद्र प्रसाद, नीतीश कुमार, विक्रम कुंवर, गोपाल शरण सिंह, अक्षय कुमार सिंह, विजय कुमार सिन्हा, रघुवंश नारायण सिंह, उदय कुमार सिन्हा, अरुण कुमार वर्मा, रवींद्र प्रसाद और अशोक कुमार सिंह।

आंदोलन के संचालन के लिए पटना के कदमकुआं में स्थापित कार्यालय को चलाने का भार पहले भवेश चंद्र प्रसाद को मिला और बाद में विजय कृष्ण को। समिति के सदस्यों में से राम बहादुर राय, अरुण कुमार वर्मा, उदय कुमार सिन्हा, रवींद्र प्रसाद, रघुवंश नारायण सिंह और अक्षय कुमार सिह को छोड़कर सभी छात्र व युवा नेता बाद के दिनों में समय- समय पर विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री बने। कोई सांसद बना तो कोई विधायक। कोई मंत्री बना तो कोई मुख्यमंत्री। इन दिनों भी नीतीश कुमार तो मुख्यमंत्री हैं और सुशील कुमार मोदी उप मुख्यमंत्री।

यह बात नहीं है कि ये सभी नेता जेपी आंदोलन के मंच से उतर कर सीधे सत्ता की कुर्सी पर चले गये। कुछ को तो बाद में भी संघर्ष करने पड़े। यहां यह सब इसलिए कहा जा रहा है कि आज अन्ना के आंदोलन से निकल कर आज के आंदोलनकारी कल सत्ता भी संभाल सकते हैं। आंदोलन नये नेतृत्व को उभारते हैं। जेपी आंदोलन में भी अनेक नये नेता उभरे थे। अन्ना आंदोलन में भी नये नेता उभर रहे हैं। इनमंे अरविंद केजरीवाल सबसे अधिक चमकते सितारे लग रहे हैं। जेपी आंदोलन को देखा जाए तो कुल मिलाकर उस आंदोलन से निकले नेताओं में आज सबसे चमकते सितारे नीतीश कुमार हैं। नीतीश कुमार खुद को लोहियावादी कहते हैं। नीतीश कुमार लोहियावादियों में भी सबसे चमकते सितारे साबित हो रहे हैं। यहां ऐसे ही लोहियावदियों की बात हो रही है जो सत्ता में पहुंचे। मधु लिमये जैसे लोहियावादी की नहीं। जेपी आंदोलन के दौरान छात्र संघर्ष संचालन समिति के अधिकतर सदस्य आंदोलन शुरू होने से पहले से ही किसी न किसी राजनीतिक दल व विचारधारा से बंधे हुए थे। शिवानंद तिवारी, रघुनाथ गुप्त और नरेंद्र कुमार सिंह लोहियावादी दल में थे। वशिष्ठ नारायण सिंह और मिथिलेश कुमार सिंह संगठन कांग्रेस के युवा संगठन से जुड़े थे। पर जब वे जेपी आंदोलन में थे तो उस समय वे दलीय बंधन में नहीं बंधे हुए थे। इस दृष्टि से अन्ना आंदोलन की स्थिति भिन्न है। अन्ना के साथ गैर दलीय तत्व अधिक हैं।

यहां तक कि आंदोलन के प्रारंभिक दिनों में छात्र-युवा आंदोलन के नेता राजनीतिक दलों के नेताओं को अपने सभा मंचों पर चढ़ने तक नहीं देते थे।

दरअसल जेपी आंदोलनकारियों का तर्क यह था कि 1967 से 1972 तक कुछ राज्यों में सत्ता में रह कर गैर कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस की अपेक्षा खुद को बेहतर साबित नहीं किया। वे भी आम तौर पर व्यवस्था के अंग ही बन कर रह गये। इसीलिए इनको आंदोलन में साथ लेकर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। साथ ही इस छात्र-युवा आंदोलन को गैर दलीय बनाये रखने के फायदे होंगे। क्योंकि उसकी नैतिक धाक अधिक होगी। पर जब गफूर सरकार का बिहार में दमन शुरू हो गया तो जेपी आंदोलन में प्रतिपक्षी राजनीति के दल भी जुड़ गये। हालांकि गैर कांग्रेसी दलों के भीतर आंदोलन के पक्ष में विधायिका से इस्तीफा देने के सवाल पर भारी मतभेद था। जिस तरह आज अन्ना के जन लोकपाल विधेयक पर गैर कांग्रेसी दलों में भी मतभेद है। जेपी ने जब विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे देने को कहा तो कई विधायकों ने इस्तीफा देने से मना कर दिया था, जिनमें जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, संगठन कांग्रेस के विधायक भी थे।



जेपी आंदोलन की संचालन समिति के कार्यालय सचिव भवेश चंद्र प्रसाद ने उन दिनों के अनुभव हाल में इन पंक्तियों के लेखक को इन शब्दों में सुनाये, ‘मेरे कार्यालय में गरीब लोग आते थे और आंदोलन फंड के लिए दो, चार या फिर पांच रुपये देते थे। और कहते थे कि हमारा नाम भले मत पहुंचाइए, पर यह पैसा जेपी तक जरूर पहुंचा दीजिएगा। ऐसा जन लगाव जेपी आंदोलन के प्रति था।’




एक अन्य कार्यालय सचिव विजय कृष्ण ने बताया कि आपातकाल के दिनों में फरारी के काल में अक्सर गरीब लोग ही हमें रात में रहने के लिए अपने घरों में शरण देते थे। अधिकतर अमीर मित्र लोग तो डरे रहते थे।


इन पंक्तियों के लेखक को आपातकाल में बड़ौदा डायनामाइट मुकदमे के सिलसिले में सी.बी.आई. बेचैनी से खोज रही थी। सी.बी.आई के अनुसार जार्ज फर्नाडिस, रेवीकांत सिन्हा और एम.एन. वाजपेयी के साथ मिलकर इन पंक्तियों के लेखक ने पटना में जुलाई 1975 में एक गुप्त बैठक की। उसमें यह षड्यत्र रचा गया कि देश भर में सरकारी संस्थानों को डायनामाइट से उड़ाना है। नतीजतन इन पंक्तियों के लेखक को फरार हो जाना पड़ा। रिश्तेदारों के यहां रहने का सवाल ही नहीं था। पटना सचिवालय में कार्यरत एक अल्पवेतन भोगी कर्मचारी के मंदिरी मुहल्ले में स्थित एक कमरे के घर में लंबे समय तक के लिए मुझे शरण मिली। सी.बी.आई. से बचने के लिए बाद में मेघालय भाग जाना पड़ा। वहां कांग्रेस की सरकार नहीं थी। आपातकाल का दमन नहीं था। वहां मेरे एक रिश्तेदार रहते थे जहां शरण मिली। इन पंक्तियों के लेखक का भी यही अनुभव यह रहा कि आम गरीब लोगों ने छिपने में अपेक्षाकृत अधिक मदद की जबकि तब भी निहितस्वार्थियों की ओर से यह कहा जा रहा था कि जेपी आंदोलन मध्यम वर्ग का आंदोलन है।

किस तरह वह किसी खास जाति या वर्ग का ही आंदोलन नहीं था, उसका एक उदाहरण उन दिनों सामने आते रहते थे। 1974 में जेपी आंदोलन के समय राज्य के कुछ इलाकों में चेचक का प्रकोप हो गया था। जयप्रकाश नारायण ने सार्वजनिक रूप से इस पर चिंता प्रकट की। फिर क्या था, पटना मेडिकल कालेज के छात्रों ने कुछ ही समय में राज्य के दस हजार लोगों को चेचक के टीके देने का काम पूरा कर दिया।



यह जेपी के प्रति सम्मान और उनके नेतृत्व में शुरू आंदोलन की गंभीरता का ही परिणाम था। अधिकतर लोगों को मालूम था कि जेपी का मुद्दा सही है और उनकी मंशा ईमानदार है। अन्ना के आंदोलन को देखकर जेपी आंदोलन की याद आना स्वाभाविक ही है।



इतना ही नहीं, जेपी के आहवान पर जब-जब पटना में सभा या आंदोलन का कोई कार्यक्रम बनता था तो राज्य भर से लोग आते थे। उनके खाने का प्रबंध किसी होटल या भंडारे से नहीं बल्कि आम लोगों के घरों से होता था। अनेक आम लोगों सहित इन पंक्तियों के लेखक के घर से भी अक्सर पूड़ी-भुजिया-आचार के पैकेट उन आंदोलनकारियों के लिए बनकर जाते थे।

जेपी बिहार आंदोलन के दौरान समय -समय पर घरों में थालियां बजाने और थोड़ी देर के लिए नियत समय पर बत्तियंा गुल कर देने का भी आहवान करते रहते थे। उस समय लगता था कि अधिकतर घरांे से आंदोलन की घंटियां बज रही हैं। उन कई घरों से भी थालियांें की आवाज आती थी, जिन्हें सक्रिय राजनीति से कोई मतलब नहीं था। उनमें से अधिकतर लोगों की कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। पर वे एक नेता की ओर विश्वास भरी नजरों से देख कर थे जो उनकी समस्याओं को लेकर 73 साल की आयु में भी आम जन की बेहतरी के लिए सड़कों पर निकल पड़ा था।

यह कहना गलत है कि आम लोगों की राजनीति में कोई रूचि नहीं है। दरअसल लोगबाग विश्वसनीयता खो चुके नेताओं और दलों में कोई खास रूचि नहीं रखते भले वे औपचारिकता के लिए हर बार किसी न किसी को वोट दे देते हैं। सामने बेहतर विकल्प के अभाव में कई बार और अधिकतर स्थानों में विवादास्पद उम्मीदवारों के पक्ष में ही उन्हें मुहर लगानी पड़ती है।

जेपी आंदोलन की घटनाएं बताती हैं और अन्ना आंदोलन की घटनाएं भी इस मामले में इस बात की पुनरावृति कर रही है कि यदि नेता प्रामाणिक हो तो बेहतर राजनीति की प्यासी जनता उस नेता की तरफ ख्ंिाची चली आती है।

भ्रष्टाचार और उससे उत्पन्न महंगाई की मार सबसे अधिक गरीब और निम्न मध्यवर्गीय जनता ही भुगतती हैं, इसलिए केले वाले केले और चने वाले कम कीमत पर या मुफ्त में चने आंदोलनकारियों को दे देते हैं।

जेपी आंदोलन में मशहूर साहित्यकार नागार्जुन भी सक्रिय थे। इन पंक्तियों का लेखक साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ का पटना संवाददाता था और नागार्जुन के नेतृत्व में यदा-कदा धरना, अनशन, प्रदर्शन में शामिल हुआ करता था। फटेहाल नागार्जुन को उन दिनों चंदे में जो भी छोटी राशि मिलती थी, उन सबको हम सबको चाय नाश्ता खिलाने -पिलाने में खर्च कर देते थे।

पटना की कुछ खास लिट्टी -समोसा की दुकान से बाबा लिट्टी और समोसा खरीदकर हमें खिलाते और खुद खाते थे। हमने देखा कि लिट्टी के दुकानदार बाबा को गर्मागर्म चीजें ही देते थे और पैसे में भी खास मुरव्वत करते थे। गरीब लिट्टी वाला समझता है कि बुढ़ापे तक फटेहाल रहा यह बाबा जरूर आम जनता की भलाई के लिए ही संघर्षरत है। यह और बात है कि बाबा आंदोलन के आखिरी दिनों में जेपी आंदोलन से अलग हो गये थे। हालांकि यहां बात की जा रही है कि एक फुटपाथी दुकानदार की एक आंदोलनकारी के प्रति भावना की और उसके प्रति एक खास तरह के लगाव की।

पर साधनों और मीडिया को ध्यान में रखा जाए तो अन्ना आंदोलन बेहतर स्थिति में है। जेपी के पास साधन कम थे। मीडिया का ऐसा विस्फोट तब नहीं हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का दबदबा बहुत था। अधिकतर मीडिया और व्यापारिक घराने इंदिरा जी से सहमते थे। आज वैसी स्थिति नहीं है। इसका लाभ अन्ना के आंदोलन को मिल रहा है। पर जेपी की नैतिक धाक अधिक थी।


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