आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने ठीक ही कहा है कि चुनाव जीतना उनकी पार्टी का एकमात्र उद्देश्य नहीं है। बल्कि वैकल्पिक राजनीति खड़ी करना उनका लक्ष्य है।
इस लक्ष्य की राह पर चलने से आम लोगों को यह पता चलेगा कि सिद्धांतनिष्ठ राजनीति के रास्ते चल कर चुनाव भी जीता जा सकता है। अधिकतर मौजूदा राजनीतिक दल तो दबे स्वर से यह बताते या फिर संकेत देते रहे हैं कि कुछ-कुछ गड़बड़ी किये बिना चुनाव जीतना कठिन है क्योंकि आम लोग भी अब वोट देने के लिए पैसे मांगते हैं।
आम आदमी पार्टी का यह भी दायित्व है कि वह अपने चरित्र और काम के जरिए इस कुप्रचार को आने वाले दिनों में गलत साबित कर दे।
पर, एक पार्टी के सिद्धांतनिष्ठ व जनाभिमुखी बने रहने के लिए यह जरूरी है कि उसके कुछ प्रमुख नेता खुद चुनाव नहीं लड़ें और अवसर मिलने पर भी किसी सरकारी पद पर नहीं बैठें। तभी पार्टी पर उनकी नैतिक धाक बनी रह सकेगी। इससे वे पार्टी के किसी भटकाव को रोक सकेंगे। क्या नवगठित ‘आप’ के कुछ बड़े नेतागण खुद ऐसा कर पाएंगे ? आज आर.एस.एस. की भाजपा पर धाक इसलिए भी कायम है क्योंकि संघ वाले खुद चुनाव नहीं लड़ते।
कांगे्रस और सी.बी.आई.
यदि सी.बी.आई. के निदेशक के पद पर यू.एन. विश्वास जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसर तैनात होते तो क्या मुलायम-मायावती का मनमोहन सरकार भयादोहन कर पाती ?
याद रहे कि सी.बी.आई. केंद्र सरकार के इशारे पर अदालत में कभी इन नेताओं के खिलाफ कड़ा रुख अपनाती है तो कभी नरम।
कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अल्पमत मनमोहन सरकार सी.बी.आई. के भरोसे ही चल रही है। ऐसे में केंद्र सरकार इसके निदेशक पद पर रणजीत सिन्हा को नहीं बैठाती तो आखिर किसे बैठाती ?
आरोप लगाया गया था कि चर्चित चारा घोटाला केस में रणजीत सिन्हा की सहानुभूति आरोपित लालू प्रसाद के प्रति थी।यह भी कि सिन्हा सी.बी.आई. के तत्कालीन संयुक्त निदेशक यू.एन. विश्वास के विरुद्ध जाकर काम कर रहे थे। तब सिन्हा सी.बी.आई. में ही थे। पटना हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप नहीं किया होता और विश्वास जैसे ईमानदार व निर्भीक अफसर उस घोटाले की जांच के प्रधान नहीं होते तो चारा घोटाला भी रफा-दफा कर दिया गया होता। सर्वदलीय चारा घोटाले को लेकर यू.एन. विश्वास ने अपनी जान हथेली पर लेकर ऐसा मजबूत केस तैयार कर दिया था कि आज उनमें से प्रत्येक केस में किसी न किसी आरोपित को कोर्ट से सजा मिल ही रही है।
याद रहे कि बाद में रणजीत सिन्हा को यू.पी.ए.-वन की सरकार के रेल मंत्री लालू प्रसाद ने आर.पी.एफ. का प्रधान बनाया था। वह उनके रेल मंत्री रहने तक महानिदेशक पद पर बने रहे।
अब जबकि लोकपाल विधेयक पास होने जा रहा है तो ऐसे में भ्रष्टाचार से घृणा करने वाले किसी आई.पी.एस. अफसर को तो कांग्रेस सरकार सी.बी.आई. का निदेशक बना नहीं सकती थी। कांग्रेस की अपनी राजनीतिक मजबूरी भी तो है।
लोकपाल से डर क्यों ?
यानी नरेश अग्रवाल कहना चाहते हैं कि जो चुनाव जीत गया, उसे कानून से ऊपर मान लिया जाना चाहिए। ऐसा विचार रखने वाले वह देश के अकेले नेता नहीं हैं। फर्क यही है, वह सार्वजनिक रूप से यह बात बोल रहे हैं। बाकी लोग दबे स्वर से यह बोलते रहे हैं। हालांकि लोकपाल विधेयक पर लोकसभा में बहस के दौरान भी ऐसे कई स्वर फूटे थे जो नरेश अग्रवाल से मिलते जुलते थे।
नब्बे के दशक मेंं बिहार के एक बड़े नेता से पूछा गया था कि आपने एक अपराधी को टिकट देकर सांसद क्यों बनवा दिया ? उसके जवाब में नेता जी ने कहा कि जिसे जनता ने जिता दिया, वह अब अपराधी कैसा ?
आपातकाल में भी इंदिरा सरकार ने एक कानून लाने का विचार किया था। उसके अनुसार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित कुछ प्रमुख पदधारकों पर कोई फौजदारी मुकदमा दायर नहीं हो सकता था। बाद में सरकार को सुबुद्धि आई और उस कानून को संसद से पास नहीं कराया गया। पर वह प्रस्तावित कानून आपातकाल की मानसिकता की देन थी। आज तो आपातकाल के बिना भी इस देश के कुछ नेतागण आपातकाल वाली मानसिकता रखते हैं और खुद को कानून से ऊपर मानते हैं। लोकसभा में पूर्ण बहुमत यदि ऐसे नेताओं को मिल जाए तो वे इंदिरा गांधी के उस अधूरे सपने को भी पूरा कर देंगे, ऐसा लगता है।
हर महीने तीन हजार
अब जाकर यह काम केंद्र सरकार करने जा रही है। यह एक अच्छा काम है। इसका लाभ कांग्रेस को मिल सकता है यदि इसे ठीक से लागू करा दिया जाए। गरीबों के बैंक खातों में सरकार द्वारा पैसे डाले जाएंगे। इस मद में केंद्र सरकार हर साल करीब 4 लाख करोड़ रुपये खर्च करेगी।
अस्सी के दशक में भी तत्कालीन प्र्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि हम दिल्ली से सौ पैसे भेजते हैं, पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही लोगों तक पहुंचते हैं। बाकी पैसे बिचैलिये खा जाते हैं।
इस हिसाब से देखा जाए तो गत दस साल में कितने पैसे बिचैलियों ने लूट लिये? इस लूट के लिए कौन जिम्मेदार है ? बैंकों के जरिए भेजे जाने वाले पैसे को बिचैलिये से बचाने की जिम्मेदारी सरकार की होगी।
और अंत में
(दैनिक प्रभात खबर में 26 नवंबर 2012 को प्रकाशित)