गुरुवार, 29 नवंबर 2012

आम आदमी पार्टी

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने ठीक ही कहा है कि चुनाव जीतना उनकी पार्टी का एकमात्र उद्देश्य नहीं है। बल्कि वैकल्पिक राजनीति खड़ी करना उनका लक्ष्य है।

इस लक्ष्य की राह पर चलने से आम लोगों को यह पता चलेगा कि सिद्धांतनिष्ठ राजनीति के रास्ते चल कर चुनाव भी जीता जा सकता है। अधिकतर मौजूदा राजनीतिक दल तो दबे स्वर से यह बताते या फिर संकेत देते रहे हैं कि कुछ-कुछ गड़बड़ी किये बिना चुनाव जीतना कठिन है क्योंकि आम लोग भी अब वोट देने के लिए पैसे मांगते हैं।

   आम आदमी पार्टी का यह भी दायित्व है कि वह अपने चरित्र और काम के जरिए इस कुप्रचार को आने वाले दिनों में गलत साबित कर दे।

पर, एक पार्टी के सिद्धांतनिष्ठ व जनाभिमुखी बने रहने के लिए यह जरूरी है कि उसके कुछ प्रमुख नेता खुद चुनाव नहीं लड़ें और अवसर मिलने पर भी किसी सरकारी पद पर नहीं बैठें। तभी पार्टी पर उनकी नैतिक धाक बनी रह सकेगी। इससे वे पार्टी के किसी भटकाव को रोक सकेंगे। क्या नवगठित ‘आप’ के कुछ बड़े नेतागण खुद ऐसा कर पाएंगे ? आज आर.एस.एस. की भाजपा पर धाक इसलिए भी कायम है क्योंकि संघ वाले खुद चुनाव नहीं लड़ते।

कांगे्रस और सी.बी.आई.

    आज मुलायम सिंह और मायावती पर सी.बी.आई. ने केस नहीं कर रखा होता तो केंद्र की मनमोहन सरकार स्थिर रह पाती ?

यदि सी.बी.आई. के निदेशक के पद पर यू.एन. विश्वास जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसर तैनात होते तो क्या मुलायम-मायावती का मनमोहन सरकार भयादोहन कर पाती ?

याद रहे कि सी.बी.आई. केंद्र सरकार के इशारे पर अदालत में कभी इन नेताओं के खिलाफ कड़ा रुख अपनाती है तो कभी नरम।

कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अल्पमत मनमोहन सरकार सी.बी.आई. के भरोसे ही चल रही है। ऐसे में केंद्र सरकार इसके निदेशक पद पर रणजीत सिन्हा को नहीं बैठाती तो आखिर किसे बैठाती ?

     आरोप लगाया गया था कि चर्चित चारा घोटाला केस में रणजीत सिन्हा की सहानुभूति आरोपित लालू प्रसाद के प्रति थी।यह भी कि  सिन्हा सी.बी.आई. के तत्कालीन संयुक्त निदेशक यू.एन. विश्वास के विरुद्ध जाकर काम कर रहे थे। तब सिन्हा सी.बी.आई. में ही थे। पटना हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप नहीं किया होता और विश्वास जैसे ईमानदार व निर्भीक अफसर उस घोटाले की जांच के प्रधान नहीं होते तो चारा घोटाला भी रफा-दफा कर दिया गया होता। सर्वदलीय चारा घोटाले को लेकर यू.एन. विश्वास ने अपनी जान हथेली पर लेकर ऐसा मजबूत केस तैयार कर दिया था कि आज उनमें से प्रत्येक केस में किसी न किसी आरोपित को कोर्ट से सजा मिल ही रही है।

   याद रहे कि बाद में रणजीत सिन्हा को यू.पी.ए.-वन की सरकार के रेल मंत्री लालू प्रसाद ने आर.पी.एफ. का प्रधान बनाया था। वह उनके रेल मंत्री रहने तक महानिदेशक पद पर बने रहे।

अब जबकि लोकपाल विधेयक पास होने जा रहा है तो ऐसे में भ्रष्टाचार से घृणा करने वाले किसी आई.पी.एस. अफसर को तो कांग्रेस सरकार सी.बी.आई. का निदेशक बना नहीं सकती थी। कांग्रेस की अपनी राजनीतिक मजबूरी भी तो है।

लोकपाल से डर क्यों ?

  समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल ने लोकपाल विधेयक का कड़ा विरोध करते हुए कहा है कि ‘हम लोकपाल की अवधारणा के ही खिलाफ हैं। चुनाव में जनता द्वारा चुने गये लोग बेइमान और और लोकपाल ईमानदार ? यह बात लोकतंत्र के आधार के ही खिलाफ है।’

   यानी नरेश अग्रवाल कहना चाहते हैं कि जो चुनाव जीत गया, उसे कानून से ऊपर मान लिया जाना चाहिए। ऐसा विचार रखने वाले वह देश के अकेले नेता नहीं हैं। फर्क यही है, वह सार्वजनिक रूप से यह बात बोल रहे हैं। बाकी लोग दबे स्वर से यह बोलते रहे हैं। हालांकि लोकपाल विधेयक पर लोकसभा में बहस के दौरान भी ऐसे कई स्वर फूटे थे जो नरेश अग्रवाल से मिलते जुलते थे।

 नब्बे के दशक मेंं बिहार के एक बड़े नेता से पूछा गया था कि आपने एक अपराधी को टिकट देकर सांसद क्यों बनवा दिया ? उसके जवाब में नेता जी ने कहा कि जिसे जनता ने जिता दिया, वह अब अपराधी कैसा ?

  आपातकाल में भी इंदिरा सरकार ने एक कानून लाने का विचार किया था। उसके अनुसार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित कुछ प्रमुख पदधारकों पर कोई  फौजदारी मुकदमा दायर नहीं हो सकता था। बाद में सरकार को सुबुद्धि आई और उस कानून को संसद से पास नहीं कराया गया। पर वह प्रस्तावित कानून आपातकाल की मानसिकता की देन थी। आज तो आपातकाल के बिना भी इस देश के कुछ नेतागण आपातकाल वाली मानसिकता रखते हैं और खुद को कानून से ऊपर मानते हैं। लोकसभा में पूर्ण बहुमत यदि ऐसे नेताओं को मिल जाए तो वे इंदिरा गांधी के उस अधूरे सपने को भी पूरा कर देंगे, ऐसा लगता है।

हर महीने तीन हजार

  एक अच्छी सलाह को मानने में केंद्र सरकार को पूरे दस साल लग गये। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के तत्कालीन सचिव एन.सी. सक्सेना ने दस साल पहले ही यह सुझाव दिया था कि गरीबों की मदद के लिए आवंटित पैसों को सीधे उन्हें मनिआर्डर के जरिए भिजवा दिया जाना चाहिए।

अब जाकर यह काम केंद्र सरकार करने जा रही है। यह एक अच्छा काम है। इसका लाभ कांग्रेस को मिल सकता है यदि इसे ठीक से लागू करा दिया जाए। गरीबों के बैंक खातों में सरकार द्वारा पैसे डाले जाएंगे। इस मद में केंद्र सरकार हर साल करीब 4 लाख करोड़ रुपये खर्च करेगी।

   अस्सी के दशक में भी तत्कालीन प्र्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि हम दिल्ली से सौ पैसे भेजते हैं, पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही लोगों तक पहुंचते हैं। बाकी पैसे बिचैलिये खा जाते हैं।

इस हिसाब से देखा जाए तो गत दस साल में कितने पैसे बिचैलियों ने लूट लिये? इस लूट के लिए कौन जिम्मेदार है ?  बैंकों के जरिए भेजे जाने वाले पैसे को  बिचैलिये से बचाने की जिम्मेदारी सरकार की होगी।

और अंत में

  केंद्र सरकार कहती है कि 2 जी स्पैक्ट्रम आवंटन में कोई घोटाला नहीं हुआ। तो फिर ए. राजा पर केस क्यों चल रहा है और वह लंबे समय तक जेल में क्यों रहे ?

(दैनिक प्रभात खबर में 26 नवंबर 2012 को प्रकाशित)

एक महाराजा लीक से हटकर

जयपुर के आखिरी महाराजा सवाई मान सिंह की कई विशेषताएं थीं। वह एक साथ कुशल प्रशासक, देशभक्त, सैनिक और खिलाड़ी थे।

वह न सिर्फ पोलो के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे, बल्कि दुनिया की दस सबसे सुंदर महिलाओं में से एक गायत्री देवी के पति भी थे। सन् 1958 में उनके नेतृत्व में भारत ने पोलो खेल में विश्व का स्वर्ण कप जीता था। पोलो खेलते समय हुई दुर्घटना में 24 जून 1970 को उनका निधन हो गया। निधन के समय उनकी आयु सिर्फ 58 साल थी।

21 अगस्त 1912 को जन्मे मान सिंह जयपुर के महाराजा लेफ्टिनेंट जनरल सवाई माधो सिंह के दत्तक पुत्र थे। सवाई मान सिंह पोलो मैच खेलते हुए अचानक अस्वस्थ हो गये। उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया। पर अस्पताल ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।

इससे एक माह पहले भी एक पोलो मैच के दौरान वह गिर पड़े थे। तब उन्हें गहरी चोट लगी थी। पर एक माह के आराम के बाद वह फिर पोलो के खेल में जुट गये। राजपूत घरानों के इस नारे को कि ‘रण में लड़ते -लड़ते शहीद हो जाओ,’ उन्होंने पोलो के खेल में लागू कर दिया। पोलो का मैदान उनके लिए रणक्षेत्र था और उसी में वह शहीद हो गये। उनकी मौत महारानी गायत्री देवी के लिए एक बड़ा सदमा था।

कूच बिहार के महाराजा जितेंद्र नारायण की पुत्री गायत्री देवी से मान सिंह ने 1940 में प्रेम विवाह किया था। यह अंतरजातीय विवाह था। यह उनकी तीसरी शादी थी। इससे पहले की दो शादियां उन्होंने जोधपुर राजघराने में की थीं। जोधपुर के महाराजा सुमेर सिंह की बहन से मान सिंह की पहली शादी हुई थी। दूसरी शादी उनकी बेटी से हुई। गायत्री देवी से उनका परिचय तब हुआ था जब मान सिंह पोलो खेलने कलकत्ता गये थे और वह कूच बिहार के महाराजा के अतिथि थे।

मानसिंह के निधन के बाद गायत्री देवी को इंदिरा सरकार से कठिन संघर्ष करना पड़ा। आपातकाल में गायत्री देवी को सरकार ने जेल में बंद कर दिया था। बड़े अमानवीय तरीके से उन्हें जेल में रखा गया था। हालांकि उससे पहले वह 1962, 1967 और 1971 में लोकसभा की सदस्या रह चुकी थीं। प्राप्त मतों की संख्या की दृष्टि से उन्होंने रिकार्ड कायम किया था। गायत्री देवी का निधन सन 2009 में 90 साल की उम्र में हुआ।

मानसिंह को  7 सितंंबर 1922 को महाराजा सवाई माधो सिंह ने अपना उत्तराधिकारी बनाया था। पर जयपुर रियासत की सत्ता उन्होंने 1937 में संभाली। अपने शासन के दौरान उन्होंने लोगों की भलाई, सेवा और सहायता पर अधिक जोर दिया।

आजादी के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल ने रियासत को भारत में मिलाने का प्रस्ताव जब जयपुर महाराज के सामने रखा तो उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। याद रहे कि तब 565 रियासतें थीं जिन्हें मिलाया गया था।

याद रहे कि तब सभी राजाओं का रुख ऐसा नहीं था। जयपुर रियासत देश की सबसे बड़ी कुछ रियासतों में एक थी। उन्हें 18 लाख रुपये सालाना प्रिवी पर्स मिलता था जिसे बाद में इंदिरा गांधी सरकार ने समाप्त कर दिया। इनके अलावा हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर, बड़ौदा और पटियाला के पूर्व शासक ही दस लाख रुपये से अधिक प्रिवी पर्स पाते थे। हैदराबाद के पूर्व शासक को बीस लाख रुपये सालाना मिलता था। जयपुर महाराजा के विपरीत उन्हीं दिनों कुछ रियासतों ने भारत में विलयन में भारी हिचक दिखाई थी। हैदराबाद रियासत को तो पुलिस कार्रवाई के बाद हासिल किया गया था। संयोगवश उस पुलिस कार्रवाई का नाम दिया गया आपरेशन पोलो। पोलो जयपुर के पूर्व शासक का प्रिय खेल था।

जूनागढ़ के शासक भी विद्रोह की मुद्रा में थे। कश्मीर के महाराजा के तो आरंम्भिक इनकार के कारण पाकिस्तान को हमला करने का मौका मिल गया। ऐसे में विलय के प्रस्ताव को जयपुर  महाराजा द्वारा तुरंत स्वीकारने के रुख की  सराहना हुई थी।

जयपुर महाराज ने देश की नई परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल लिया था। सवाई मान सिंह के बारे में प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक जाॅन गुंटर ने लिखा था कि वह अपने आप को नई परिस्थितियों में ढालने में ऐसे अभ्यस्त हो चुके थे जिस तरह वह पोलो खेल के दौरान अपने घोड़े बदलते थे।

पूर्व महाराजा के असामयिक निधन पर तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने कहा था कि देश ने एक महान खिलाड़ी, एक योग्य प्रशासक और राजनीतिक खोया है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गायत्री देवी के नाम शोक संदेश भेजा था। उसमें उन्होंने सवाई मान सिंह के विभिन्न पदों की सेवाओं का जिक्र करते हुए अपनी संवेदना व्यक्त की थी।

उनके निधन की खबर सुनकर राजस्थान के विभिन्न हिस्सों से भारी संख्या में लोग जयपुर में इकट्ठे हो गये थे। तब के एक अखबार की खबर के अनुसार निधन के समाचार से सारे राजस्थान में मुर्दनी छा गई। गांवों और शहरों से भीड़ एकत्र हो गई। लोगों की आंखें इस प्रकार सूजी हुई थीं, जैसे कि उन्होंने अपना कोई बहुत ही करीबी रिश्तेदार खोया है। जयपुर के महाराज सचमुच एक इनसान थे जिनसे सभी प्रेम करते थे और आदर देते थे।

(प्रभात खबर में 23 नवंबर 2012 को प्रकाशित)

शनिवार, 24 नवंबर 2012

बाल ठाकरे की अंतिम इच्छा लीक से हटकर थी


    शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने गत 9 सितंबर को कहा था कि भाजपा की ओर से सुषमा स्वराज को ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय राजनीति को लेकर बाल ठाकरे की यह संभवतः अंतिम इच्छा थी। भावी प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम के शोर के बीच बाल ठाकरे की यह संतुलित आवाज सामने आई थी।

   बाल ठाकरे की इस इच्छा पर उनकी विचार धारा या फिर उनकी रणनीति का कोई असर नहीं था।
याद रहे कि सुषमा स्वराज न तो महाराष्ट्र की हैं और न ही कट्टर हिंदुत्व की पैरोकार हैं। हालांकि वह आज भाजपा की राजनीति में भले घुल -मिल गई लगती हैं, पर मूलतः वह समाजवादी धारा की राजनीति से निकल कर भाजपा में आई हैं।

  बाल ठाकरे में सुषमा स्वराज को प्रतिभाशाली और बुद्धिमान बताते हुए कहा था कि वह एकमात्र नेता हैं जो इस पद के योग्य हैं। प्रधानमंत्री के रूप में वह अच्छा काम करेंगी।

बाल ठाकरे की इस राय पर भाजपा नेताओं ने तब सधी हुई प्रतिक्रिया दी थी। बलवीर पुंज ने कहा था कि हमारे दल में प्रधानमंत्री पद के कई योग्य उम्मीदवार हैं। श्री पुंज की प्रतिक्रिया वाजिब भी थी। क्योंकि जब तक पार्टी या फिर राजग में इस मुद्दे पर कोई अंतिम फैसला नहीं हो जाता है, तब तक बाल ठाकरे की इस सलाह पर सार्वजनिक रूप से यही प्रतिक्रिया हो सकती थी।

वैसे भी भाजपा पर आर.एस.एस. के बढ़ते दबदबे के इस दौर में इस बात की उम्मीद कम ही है कि  भाजपा के बहुमत सुषमा के पक्ष में हो जाए। पर सहयोगी दल का क्या रुख होगा, यह अभी तय नहीं है। लोकसभा की चुनावी राजनीति के जानकार लोग बताते हैं कि यदि भाजपा नरेंद्र मोदी को भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़े तो भी अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने बूते बहुमत नहीं मिलेगा। क्योंकि भाजपा करीब पौने तीन सौ सीटों पर ही पहले या दूसरे नंबर पर रहती आई है।

    हालांकि यह बात गौर करने की है कि बाल ठाकरे ने इस मुद्दे पर अपनी विचार धारा और राजनीतिक राय से अलग हट कर बात कही थी। उनके ऐसे संतुलित बयान शायद ही कभी आते थे।

 लगता है कि बाल ठाकरे ने सुषमा स्वराज के बारे में ऐसी राय संभवतः कई बातों पर ध्यान रख कर ही दी थी। उन बातों की चर्चा कुछ राजग नेताओं व राजनीतिक प्रेक्षकों की ओर से भी होती रहती है।

  जानकार सूत्रों के अनुसार जहां नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी का सर्वाधिक विरोध हो रहा है, उस बिहार के भी कुछ राजग नेतागण सुषमा स्वराज को उम्मीदवार बनाने के पक्ष में हैं। पर वे अभी इसकी सार्वजनिक तौर पर मांग नहीं कर रहे हैं। वैसे तो इस बारे में अंतिम फैसला राजग को ही करना है, पर उम्मीदवारों की पात्रता को लेकर अभी से चर्चा स्वाभाविक हो चुकी है। सपा ने लोकसभा के अपने उम्मीदवारों की घोषणा करके ऐसी चर्चा को तेज कर दिया है।

    गंगा-यमुनी संस्कृति वाले देश में नरेंद्र मोदी के बारे में कुछ आशंकाएं कई लोगों के दिलो -दिमाग में हैं। हालांकि उनके खिलाफ कोई आरोप अदालत में अभी साबित नहीं हुआ है, पर मुख्य सवाल उनकी छवि को लेकर हंै। सबको साथ लेकर चलने की उनकी क्षमता पर भी प्रश्न चिह्न लगाये जाते हैं।

  दूसरी ओर यह कहा जाता है कि सुषमा स्वराज लोकसभा में भाजपा की नेता हैं। ब्रिटेन में तो प्रतिपक्षी दल अपना छाया मंत्रिमंडल भी बना लेता है। फिर प्रतिपक्ष के नेता को छाया प्रधानमंत्री यानी भावी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार क्यों नहीं माना जाना चाहिए ?

   वैसे भी सुषमा स्वराज समाजवादी पृष्ठभूमि की है जो नरंेद्र मोदी की पृष्ठभूमि से बिलकुल अलग है। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार सुषमा स्वराज के पक्ष में एक बात यह भी है कि वह महिला हैं। इस देश में इंदिरा गांधी को महिला होने का भी राजनीतिक खास कर चुनावी लाभ मिला था। कुछ चुनाव विश्लेषकों का यह भी मानना है कि सन 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बढ़त इसलिए भी मिल गई थी क्योंकि भाजपा की ओर से उस समय प्रधानमंत्री के उम्मीदवार एक गैर ब्राह्मण यानी लाल कृष्ण आडवाणी थे। उधर कांग्रेस के पास राहुल गांधी  थे। सुषमा स्वराज के उम्मीदवार होने के बाद यह लाभ कांग्रेस को अगली बार शायद नहीं मिल सकेगा क्योंकि सुषमा गैर ब्राह्मण नहीं हैं।

यह अकारण नहीं था कि गत विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को कम सीटें व वोट मिले जबकि लोकसभा चुनावों में उसे अधिक सीटें व वोट मिल गये। बिहार में भी लगभग यही हुआ।

   बाल ठाकरे ने यदि सुषमा स्वराज का नाम सुझाया था तो इसलिए नहीं कि सुषमा ठाकरे की विचार धारा के करीब हैं। बल्कि ठाकरे को देश के चुनावी गणित और भाजपा के भीतर की गुटबंदी का अधिक ज्ञान था। कई बार दिल्ली से दूर बैठा व्यक्ति ऐसे मामले में निरपेक्ष ढंग से बेहतर निर्णय करने की स्थिति में होता है।

(जनसत्ता ः20 नवंबर 2012 से साभार)

बुधवार, 21 नवंबर 2012

कुनबापरस्ती में सबको पछाड़ा मुलायम ने

(जनसत्ता ः 17 नवंबर 2012 से साभार)


  राजनीति में परिवारवाद के मामले में मुलायम सिंह यादव ने नेहरू-इंदिरा परिवार को भी पीछे छोड़ दिया। लोकसभा के अगले चुनाव में मुलायम परिवार के चार सदस्य उम्मीदवार होंगे।

55 सीटों के उम्मीदवारों की सूची सामने आ जाने के बाद यह पता चला है। उत्तर प्रदेश की अस्सी में से 25 सीटों पर अभी समाजवादी पार्टी ने उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। संभव है कि उनमें से भी कुछ सीटें मुलायम परिवार के किसी सदस्य को मिल जाए। बड़े परिवार के कुछ सदस्यों को आप राजनीति में आगे बढ़ाएंगे तो अन्य बचे सदस्य भी कुछ पाने के लिए जिद कर देते हैं।

   नेहरू परिवार केंद्र की सत्ता में रहा है। कल्पना कीजिए कि मुलायम सिंह किसी दिन देश के प्रधानमंत्री बन जाएं तो फिर क्या होगा ? क्या चुनावी टिकट या फिर सत्ता की मलाई पाने से मुलायम परिवार का कोई सदस्य तब वंचित रहेगा ?

सबसे शर्मनाक बात यह है कि मुलायम सिंह यादव खुद को लोहियावादी कहते हैं। डा. राम मनोहर लोहिया राजनीति में परिवारवाद के भी घोर विरोधी थे। नई पीढ़ी के जो लोग डा. लोहिया को नहीं जानते हैं, वे लोहिया के बारे में क्या सोचेंगे जिनका नाम लेते मुलायम नहीं थकते? नई पीढ़ी के कुछ लोग यह सवाल कर सकते हंै कि क्या डा. लोहिया भी मुलायम सिंह यादव की तरह ही थे? याद रहे कि मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के नाम पर उत्तर प्रदेश में अनेक स्मारक बनवाये हैं। बेहतर होगा कि वह और उनकी पार्टी की सरकार अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर ही स्मारक बनवाना अब शुरू कर दें। नेहरू-इंदिरा परिवार महात्मा गांधी से अधिक अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर ही स्मारक बनवा रहे हैं और सरकारी कार्यक्रम घोषित करवा रहे हैं। कांगेस पार्टी ने गांधी जी के चरित्र व विचार को ही कौन कहे, उनकी नीतियों उनके सपनों के भारत को भी भुला दिया है। यह एक अच्छी बात है। कम से कम आज के कांग्रेसियों को देखकर नई पीढ़ी यह सवाल तो नहीं करेगी कि क्या गांधी जी आज के कांग्रेसियों की तरह ही थे ?

क्या मुलायम सिंह यादव डा. लोहिया का नाम लेना अब भी बंद करेंगे जिन्होंने लोहिया की नीतियों को कूड़ेदान में डाल दिया है ?

सपा की ताजा सूची के अनुसार मुलायम सिंह यादव, डिंपल यादव, धर्मेंद्र यादव और अक्षय यादव लोकसभा के लिए सपा उम्मीदवार होंगे। मुलायम सिंह, डिंपल यादव और धर्मेंद्र यादव मौजूदा लोकसभा के भी सदस्य हैं। अक्षय यादव राम गोपाल यादव के पुत्र हैं। राम गोपाल यादव राज्यसभा के सदस्य हैं। धर्मेंद्र मुलायम के भतीजे और डिम्पल पतोहू हैं।

   यदि मुलायम परिवार के चारों उम्मीदवार चुनाव जीत जाएं तो वह एक रिकार्ड होगा। नेहरू-इंदिरा परिवार के भी इतने सदस्य संभवतः एक साथ कभी दल, संसद व सत्ता के पद पर नहीं थे। हालांकि बारी-बारी से नेहरू-इंदिरा परिवार के जितने सदस्य विभिन्न पदों पर रहे, वह भी एक रिकार्ड ही है। पर वैसे भी केंद्र की राजनीति में गुंजाइश अधिक होती है।

एक राज्य का नेता होकर भी मुलायम सिंह ने राजनीति में परिवारवाद का इतना अधिक विस्तार किया है जो एक रिकार्ड है। उनकी इच्छा प्रधानमंत्री बनने की भी है। यह बात वह छिपाते भी नहीं हैं। पता नहीं अगले चुनाव में क्या होगा! खंडित जनादेशों के इस दौर में पता नहीं कौन कब प्रधानमंत्री बन जाए।

   यह बात सही है कि इस आजाद देश की राजनीति में परिवारवाद की शुरुआत जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा कर की थी। तब वह खुद प्रधानमंत्री थे। लालू प्रसाद ने जब बिहार में परिवारवाद शुरू किया तो वह कहा करते थे कि हमारा परिवार बिहार का नेहरू परिवार है। अब तो देश में हर जगह परिवारवाद की धूम है। परिवारवाद की सबसे बड़ी बुराई यह है कि उत्तराधिकरियों में गुण नहीं बल्कि सिर्फ वंश वृक्ष देखा जाता है। इससे राजनीति और शासन को भारी नुकसान पहुंचता है। कल्पना कीजिए कि कल राहुल गांधी इस देश के प्रधानमंत्री बन जाएं। फिर इस देश का क्या होगा जिन्हें न तो देश की समझ है और न ही राजनीति या प्रशासन की ? अब तक के उनके भाषणों और कामों से तो कांग्रेसियों को छोड़कर किसी और को उनमें उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।

   इसी तरह कल्पना कीजिए कि मुलायम परिवार के अधिकतर सदस्य एक दिन देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाएं। फिर क्या होगा ? उत्तर प्रदेश में आज क्या हो रहा है जहां उनके पुत्र अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हैं ? उत्तर प्रदेश से आने वाले लोग कोई अच्छी बात नहीं बताते। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि राजनीति का परिवारवाद पता नहीं इस देश को कहा ले जाएगा!

इस पर अब मतदाताओं को ही विचार और फैसला करना होगा।

(जनसत्ता ः 17 नवंबर 2012 से साभार)



मंगलवार, 13 नवंबर 2012

भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का कठिन दौर


    भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों पर भी इस देश का लगभग पूरा राजनीतिक वर्ग  आरोपितों का इन दिनों अतार्किक ढंग से बचाव करता नजर आ रहा है। कोई दल या नेता अपनी कमी या गलती मानने को आज तैयार ही नहीं है। सुधरने का तो कहीं से कोई संकेत ही नहीं है। इससे भी भ्रष्टाचार की समस्या की गंभीरता का   पता चलता है।

    देश के  अधिकतर नेताओं के इस पर ताजा रुख से यह भी साफ है कि इस जानलेवा समस्या का हल दूर -दूर तक नजर नहीं आ रहा है। अगला चुनाव भी इसका कोई हल है, ऐसा फिलहाल नहीं लगता।वैसे भी पिछले अनुभव यही बताते हैं कि चुनाव अब मात्र राजनीतिक विकल्प दे रहे हैं न कि वैकल्पिक राजनीति प्रस्तुत कर रहे हैं।

  प्राप्त संकेतों और खबरों के अनुसार इस देश में चूंकि भ्रष्टाचार का मर्ज काफी  गहरा हो चुका है कि इसलिए इसे समाप्त करने की कौन कहे,कम करने में भी अभी काफी समय लगेगा।विभिन्न राजनीतिक दलों की इस मुददे पर घोषित और अघोषित  राय जानने के बाद यह साफ लगता है कि भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के खिलाफ इस देश मंे लंबे,  कठिन और संघर्षपूर्ण  अभियान की जरूरत पड़ेगी। यह तो आजादी की लड़ाई की अपेक्षा भी अधिक कठिन लड़ाई प्रतीत हो रही है।

    कई चुनावी बुराइयों की मौजूदगी और उनमें वृद्धि  के साथ-साथ जातीगत और सांप्रदायिक  वोट बैंक की राजनीति के इस दौर में अगले किसी चुनाव नतीजे से अन्ना हजारे या फिर अरविंद केजरीवाल को किसी तरह की बेहतरी की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। इसलिए  अरविंद को चुनावी अभियान के साथ-साथ लंबे  और कठिनतर संघर्ष के लिए भी तैयार रहना चाहिए। क्योंकि निर्णायक जन जागरण में अभी और समय लग सकता है।

  भ्रष्टाचार की  समस्या पुरानी है। एक दिन में नहीं पैदा हुई। आजादी के तत्काल बाद ही इसका पौधरोपण हो चुका था। प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू से जब किसी ने शासन में बढ़ते भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने को कहा तो उनका जवाब था कि इससे शासन में पस्तहिम्मती आएगी।

नेहरू खुद तो ईमानदार नेता थे, पर उनके कार्यकाल में भी आम तौर पर भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई तभी हो सकी जब सरकार ऐसा करने को मजबूर हो गई।इससे सदाचारियों में धीरे -धीरे पस्तहिम्मती बढ़ी और समय के साथ भ्रष्टाचारियों का हौसला बुलंद होता  गया।आज स्थिति यह हो गई है कि भ्रष्ट तत्व गुर्रा  रहे हैं और अरविंद केजरीवाल जैसों  पर आफत आ पड़ी है।

  भ्रष्टाचार को परोक्ष-प्रत्यक्ष सरकारी संरक्षण का इतिहास तो देखिए। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में यह खबर आई  थी कि सन् 1967 के आम चुनाव के समय एक दल को छोड़कर सारे प्रमुख भारतीय राजनीतिक दलों ने अपने चुनाव खर्चे के लिए विदेशों से नाजायज तरीके से पैसे लिये थे। किसी और एजेंसी या संस्था की जांच से नहीं, खुद भारत सरकार की खुफिया एजेंसी आई.बी. की एक जांच से यह पता चला था। पर उस रपट को तत्कालीन केंद्र सरकार ने दबा दिया। अगर तब इस पर कार्रवाई होती तो राजनीतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगता।

  पर, इस रपट का संक्षिप्त विवरण न्यूयार्क टाइम्स में छप गया ।तब लोक सभा में मांग उठी  कि उस रपट को सार्वजनिक किया जाए।पर गृह मंत्री वाई.बी.चव्हाण ने कहा कि उस ‘रपट के प्रकाशन से अनेक व्यक्तियों और दलों के हितों को हानि होगी।’यानी तब भी सरकार का यही रुख था कि भले देश का नुकसान हो जाए,पर व्यक्तियों व दलों का नहीं होना चाहिए।

आज भी तो इस देश में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच तभी हो पा रही है जब समय समय पर विभिन्न अदालतें इस काम के लिए सरकार को मजबूर कर दे रही हैं।इसके अलावा पक्का सबूत आने के बावजूद अनेक नेताओं के द्वारा यह कहा जा रहा है कि नेताओं के रिश्तेदारों के खिलाफ हमें कुछ नहीं बोलना चाहिए।यदि एक लाख करोड़ से अधिक का आरोप सामने आता है तो कहा जाता है कि सी.ए.जी. का आंकड़ा गलत है। पर,जब 71 लाख रुपये का आरोप आता है तो कहा जाता है कि एक केंद्रीय मंत्री के लिए यह तो एक छोटी राशि है। यानी वह इतने कम की चोरी क्यों करेगा ? यानी एक कें्रदीय मंत्री का रेट भी खुलेआम बताया जा रहा है। जब किसानों की सौ एकड़ जमीन को सत्ताधारी नेता से मिलकर हथियाने का आरोप लग रहा है तो भाजपा अध्यक्ष कह रहे हैं कि यह तो चिल्लर टाइप का आरोप है।आखिर इस देश के नेताओं को क्या हो गया है ?

   कभी जवाहर लाल नेहरू ने अपना आनंद भवन कांग्रेस पार्टी को दे दिया था। जनसंघ व भाजपा के भी कई पुराने नेताओं ने अपनी जमीन व मकान सार्वजनिक काम के लिए दान कर दिया। पर उसी दल के नेताओं पर आज आरोप लग रहा है कि वे जायज -नाजायज तरीके से अधिक से अधिक जमीन व संपत्ति के  मालिक बनने की होड़ में शामिल हो गये हैं। राजनीति कहां से चल कर कहां पहुंच चुकी है और आगे और कहां तक जाएगी ? राजीव गांधी ने 1984 में ही कहा था कि हम सौ पैसे दिल्ली से भेजते हैं ,पर उसमें से सिर्फ 15 पैसे ही जनता तक पहुंचते हैं।इसे रोकने के लिए हमारे हुक्मरानों ने क्या किया ? उल्टे अब तो अनेक सत्ताधारी और अन्य  प्रभावशाली लोग  जनता की जेब से भी कहीं पैसे निकालते जा  रहे हैं तो कहीं जमीन हड़प कर  उससे निजी संपति बढ़ा रहे हैं।

यही सब देख समझ कर 2003 में ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार निरोधक कानून अपने उददेश्यों की प्राप्ति में बुरी तरह विफल रहा है।’

मार्च , 2007 में तो चारा घोटाले से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा कि ‘सब इस देश को लूटना चाहते हैं।इसलिए इस लूट को रोकने का एक ही उपाय है कि भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान किया जाए।’

 इससे पहले मुख्य चुनाव आयुक्त रहे जे.एम. लिंगदोह ने 2003 में कहा था कि राज नेता एक कैंसर हैं। हालांकि यह टिप्पणी कुछ ज्यादा ही तल्ख थी, फिर भी इस टिप्पणी को लेकर आत्म निरीक्षण करने के बदले सत्ताधारी भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष एम.वेंकैया नायडु ने कहा कि ‘ऐसी टिप्पणी से एक ऊंचे संवैधानिक पद की गरिमा कम होती है।’याद रहे कि  उससे पहले राजनीतिक दलों ने न सिर्फ चुनाव सुधार की कोशिश विफल कर दी थी और यही दर्शाया कि गंभीर चुनावी अनियमितताओं को दूर करने में भी राजनीति की मुख्य धारा की कोई रूचि नहीं रह गई है। इसे लिंगदोह ने करीब से अनुभव किया था।

   स्थिति बिगड़ती ही चली जा रही है और आज तो प्रमुख राजनीतिक दलों के नेतागण सार्वजनिक रूप से यह कह रहे हैं कि हम नेताओं के करीबी रिश्तेदारों के खिलाफ कोई टीका-टिप्पंणी नहीं करते।
जबकि पूरे देश में राजनीति पर  अब परिवारवाद बुरी तरह होवी है और अधिकतर नेताओं के परिजन सार्वजनिक हितों को नुकसान पहुंचा कर जायज -नाजायज तरीकों से अपार धन संपत्ति इकट्ठा करने  में दिन -रात लगे हुए हंै।

   जब तक अदालत  मजबूर न कर दे तब तक किसी भ्रष्ट नेता के खिलाफ आज कोई कार्रवाई नहीं हो पाती  है।जन लोकपाल या कारगर  लोकपाल कानून बनाने से मुख्य राजनीति ने साफ इनकार कर दिया है।

सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह का अनुभव यह है कि ‘नेता-अफसर का गठजोड़ इतना मजबूत हो चुका है कि इसने स्वार्थवश शासन की सारी संस्थाओं को प्रभावहीन बना दिया है।दूसरे विकसित देशों में नाजायज काम कराने के लिए रिश्वत दी जाती है।पर हमारे देश में नियमतः मुफ्त में मिलने वाली  सरकारी सुविधाएं व सेवाएं हासिल करने के लिए भी जनता को रिश्वत देने को बाध्य होना पड़ता है।

   देश में भ्रष्टाचार की व्यापकता का हाल यह है कि गरीबों को जरूरी स्वास्थ्य व शिक्षा की सुविधाएं उपलब्ध कराने के नाम पर भी सरकारी-गैर सरकारी माफिया पाले-पोसे जा रहे हैं।

 वन व खनिज संपदा जैसे सार्वजनिक संसाधनों की सरकारी मदद से खुली लूट जारी है।जनता से करों के रूप में वसूले जा रहे पैसों में से हर साल लाखों करोड़ रुपये बड़े -बड़े कारोबारियों  को तरह तरह की रियायतोंं के रूप में सरकार दान कर रही है।दूसरी ओर संसाधनों की कमी का रोना रोकर सरकारें  देश के बड़े हिस्से में आजादी के छह दशक बाद भी विकास की किरण नहीं पहुंचा सकीं।गरीबी व अन्याय के कारण नक्सली बढ़ रहे हैं।सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश के करीब 270 जिलों में नक्सलियों ने शासन को अप्रभावी बना  दिया है।
भ्रष्टाचार के कारण देश में अन्य कई समस्याएं भी बढ़ रही हैं।भुखमरी बढ़ रही है।किसान आत्म हत्या कर रहे हैं। सीमा पर खतरा मंड़रा रहा है।भीतर भी तरह तरह की अशांति है। महंगी और गरीबी के कारण अनेक युवा गलत हाथो ंमें पड़ रहे हैं।यह देश के बाहरी व भीतरी दुश्मनों के लिए अनुकूल स्थिति है।पर इसकी कोई चिंता हमारे अधिकतर हुक्मरानों में नहीं दिखती। देश की मूल समस्याओं का समाधान सरकारी संसाधनों के बिना नहीं होगा। संसाधन तब जुटेंगे जब वे भ्रष्टाचार में जाया होने  से रुकेंगे।पर इस काम में  देश की मुख्य धारा की मौजूदा राजनीति की कोई रूचि दिखाई नहीं पड़ती।हाल में भ्रष्टाचार के आरोपों पर उनकी प्रतिक्रियाओं से यह साफ है कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं।

  चाणक्य ने कहा था कि ‘जब किसी देश के नागरिक सताए जाते हैं , ,उनके साथ दुव्यवहार होता  है,गरीब परेशान और बिखरे हुए होते हंै ,तभी उस देश पर दुश्मन देश को आक्रमण का मौका मिलता है ताकि वे वहां के असंतुष्ट लोगों को तोड़ सके।’

  आज भारत में गरीबों के साथ,जिनकी संख्या कुल आबादी का करीब तीन-चैथाई  हैं, क्या हो रहा है ? उनके कल्याण के लिए संसाधन को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने से बचाने  की चिंता किस दल में है ? इसके लिए सर्वदलीय चिंता या फिर  सहमति क्यों नहीं है ?

  उल्टे जब कैंसर की तरह राज्य-व्यवस्था के रोम -रोम में फैले भ्रष्टाचार और उसमेंें उच्चस्तरीय संलिप्तता के सबूत  सामने लाएं जाते हैं तो यह कहा जा रहा है कि इससे लोकतंत्र में जनता की आस्था कमजोर होगी।व्यक्तिगत आरोप लगाना  ठीक नहीं है। दूसरी बड़ी समस्याएं उठानी चाहिए।

 यानी कुछ नेताओं के अनुसार  लोकतंत्र को भ्रष्टाचार से नहीं बल्कि उसकी चर्चा से खतरा है। जिस देश को ऐसे नेताओं से पाला पड़ा हो,वहां भ्रष्टाचार विरोधियों की लड़ाई आसान नहीं है। क्या यह सिर्फ एक चुनाव के बूते की बात है ? हां, यह कहना जरूरी है कि सभी नेता भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं है।अनेक पाक साफ भी  हैं।पर उनकी आज कोई नहीं सुन रहा है।

(जनसत्ता में 22 अक्तूबर 2012 को प्रकाशित)