बुधवार, 21 नवंबर 2012

कुनबापरस्ती में सबको पछाड़ा मुलायम ने

(जनसत्ता ः 17 नवंबर 2012 से साभार)


  राजनीति में परिवारवाद के मामले में मुलायम सिंह यादव ने नेहरू-इंदिरा परिवार को भी पीछे छोड़ दिया। लोकसभा के अगले चुनाव में मुलायम परिवार के चार सदस्य उम्मीदवार होंगे।

55 सीटों के उम्मीदवारों की सूची सामने आ जाने के बाद यह पता चला है। उत्तर प्रदेश की अस्सी में से 25 सीटों पर अभी समाजवादी पार्टी ने उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। संभव है कि उनमें से भी कुछ सीटें मुलायम परिवार के किसी सदस्य को मिल जाए। बड़े परिवार के कुछ सदस्यों को आप राजनीति में आगे बढ़ाएंगे तो अन्य बचे सदस्य भी कुछ पाने के लिए जिद कर देते हैं।

   नेहरू परिवार केंद्र की सत्ता में रहा है। कल्पना कीजिए कि मुलायम सिंह किसी दिन देश के प्रधानमंत्री बन जाएं तो फिर क्या होगा ? क्या चुनावी टिकट या फिर सत्ता की मलाई पाने से मुलायम परिवार का कोई सदस्य तब वंचित रहेगा ?

सबसे शर्मनाक बात यह है कि मुलायम सिंह यादव खुद को लोहियावादी कहते हैं। डा. राम मनोहर लोहिया राजनीति में परिवारवाद के भी घोर विरोधी थे। नई पीढ़ी के जो लोग डा. लोहिया को नहीं जानते हैं, वे लोहिया के बारे में क्या सोचेंगे जिनका नाम लेते मुलायम नहीं थकते? नई पीढ़ी के कुछ लोग यह सवाल कर सकते हंै कि क्या डा. लोहिया भी मुलायम सिंह यादव की तरह ही थे? याद रहे कि मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के नाम पर उत्तर प्रदेश में अनेक स्मारक बनवाये हैं। बेहतर होगा कि वह और उनकी पार्टी की सरकार अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर ही स्मारक बनवाना अब शुरू कर दें। नेहरू-इंदिरा परिवार महात्मा गांधी से अधिक अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर ही स्मारक बनवा रहे हैं और सरकारी कार्यक्रम घोषित करवा रहे हैं। कांगेस पार्टी ने गांधी जी के चरित्र व विचार को ही कौन कहे, उनकी नीतियों उनके सपनों के भारत को भी भुला दिया है। यह एक अच्छी बात है। कम से कम आज के कांग्रेसियों को देखकर नई पीढ़ी यह सवाल तो नहीं करेगी कि क्या गांधी जी आज के कांग्रेसियों की तरह ही थे ?

क्या मुलायम सिंह यादव डा. लोहिया का नाम लेना अब भी बंद करेंगे जिन्होंने लोहिया की नीतियों को कूड़ेदान में डाल दिया है ?

सपा की ताजा सूची के अनुसार मुलायम सिंह यादव, डिंपल यादव, धर्मेंद्र यादव और अक्षय यादव लोकसभा के लिए सपा उम्मीदवार होंगे। मुलायम सिंह, डिंपल यादव और धर्मेंद्र यादव मौजूदा लोकसभा के भी सदस्य हैं। अक्षय यादव राम गोपाल यादव के पुत्र हैं। राम गोपाल यादव राज्यसभा के सदस्य हैं। धर्मेंद्र मुलायम के भतीजे और डिम्पल पतोहू हैं।

   यदि मुलायम परिवार के चारों उम्मीदवार चुनाव जीत जाएं तो वह एक रिकार्ड होगा। नेहरू-इंदिरा परिवार के भी इतने सदस्य संभवतः एक साथ कभी दल, संसद व सत्ता के पद पर नहीं थे। हालांकि बारी-बारी से नेहरू-इंदिरा परिवार के जितने सदस्य विभिन्न पदों पर रहे, वह भी एक रिकार्ड ही है। पर वैसे भी केंद्र की राजनीति में गुंजाइश अधिक होती है।

एक राज्य का नेता होकर भी मुलायम सिंह ने राजनीति में परिवारवाद का इतना अधिक विस्तार किया है जो एक रिकार्ड है। उनकी इच्छा प्रधानमंत्री बनने की भी है। यह बात वह छिपाते भी नहीं हैं। पता नहीं अगले चुनाव में क्या होगा! खंडित जनादेशों के इस दौर में पता नहीं कौन कब प्रधानमंत्री बन जाए।

   यह बात सही है कि इस आजाद देश की राजनीति में परिवारवाद की शुरुआत जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवा कर की थी। तब वह खुद प्रधानमंत्री थे। लालू प्रसाद ने जब बिहार में परिवारवाद शुरू किया तो वह कहा करते थे कि हमारा परिवार बिहार का नेहरू परिवार है। अब तो देश में हर जगह परिवारवाद की धूम है। परिवारवाद की सबसे बड़ी बुराई यह है कि उत्तराधिकरियों में गुण नहीं बल्कि सिर्फ वंश वृक्ष देखा जाता है। इससे राजनीति और शासन को भारी नुकसान पहुंचता है। कल्पना कीजिए कि कल राहुल गांधी इस देश के प्रधानमंत्री बन जाएं। फिर इस देश का क्या होगा जिन्हें न तो देश की समझ है और न ही राजनीति या प्रशासन की ? अब तक के उनके भाषणों और कामों से तो कांग्रेसियों को छोड़कर किसी और को उनमें उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।

   इसी तरह कल्पना कीजिए कि मुलायम परिवार के अधिकतर सदस्य एक दिन देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाएं। फिर क्या होगा ? उत्तर प्रदेश में आज क्या हो रहा है जहां उनके पुत्र अखिलेश यादव मुख्यमंत्री हैं ? उत्तर प्रदेश से आने वाले लोग कोई अच्छी बात नहीं बताते। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि राजनीति का परिवारवाद पता नहीं इस देश को कहा ले जाएगा!

इस पर अब मतदाताओं को ही विचार और फैसला करना होगा।

(जनसत्ता ः 17 नवंबर 2012 से साभार)



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